Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[४१
रौद्रध्यान। अभीप्सित वस्तु, जैसे धन-सम्पत्ति, संतति, स्वस्थता आदि प्राप्त न होने पर एवं दारिद्रय, रूग्णता, प्रियजन का विरह आदि अनिष्ट स्थितयों के होने पर मन में जो क्लेशपूर्ण विकृत चिन्तन होता है, वह आर्तध्यान है। क्रोधावेश, शत्रु-भाव और वैमनस्य आदि से प्रेरित होकर दूसरे को हानि पहुँचाने आदि की बात सोचते रहना रौद्रध्यान है। इन दोनों तरह से होने वाला दश्चिन्तन अपध्यानाचरित रूप अनर्थदंड है।
प्रमादाचरित-अपने धर्म, दायित्व व कर्तव्य के प्रति अजागरूकता प्रमाद है। ऐसा प्रमादी व्यक्ति अक्सर अपना समय दूसरों की निन्दा करने में, गप्प मारने में, अपने बड़प्पन की शेखी बधारते रहने में, अश्लील बातें करने में बिताता है। इनसे संबंधित मन, वचन तथा शरीर के विकार प्रमादाचरित में आते हैं। हिंस्त्र-प्रदान-हिंसा के कार्यों में साक्षात् सहयोग करना जैसे चोर, डाकू तथा शिकारी आदि को हथियार देना, आश्रय देना तथा दूसरी तरह से सहायता करना। ऐसा करने से हिंसा को प्रोत्साहन और सहारा मिलता है, अतः यह अनर्थदंड है।
__ पापकर्मोपदेश--औरों को पाप-कार्य में प्रवृत्त होने में प्रेरणा, उपदेश या परामर्श देना। उदाहरणार्थ, किसी शिकारी को यह बतलाना कि अमुक स्थान पर शिकार-योग्य पशु-पक्षी उसे बहुत प्राप्त होंगे, किसी व्यक्ति की दूसरों को तकलीफ देने के लिए उत्तेजित करना, पशु-पक्षियों को पीड़ित करने के लिए लोगों को दुष्प्रेरित करना--इन सबका पाप-कर्मोपदेश में समावेश है।
अनर्थदंड में लिए गए ये चारों प्रकार के दुष्कार्य ऐसे हैं, जिनका प्रत्येक धर्मनिष्ठ, शिष्ट व सभ्य नागरिक को परित्याग करना चाहिए। अध्यात्म-उत्कर्ष के साथ-साथ उत्तम और नैतिक नागरिक जीवन की दृष्टि से भी यह बहुत ही आवश्यक है।
अतिचार सम्यक्त्व के अतिचार
४४. इह खलु आणंदा! इ समणे भगवं महावीरे आणंदं समणोवासगं एवं बयासी-एवं खलु, आणंदा! समणोवासएणं अभिगयजीवजीवेणं जाव (उवलद्धपुण्णपावेणं, आसव-संवर-निजर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्ख-कुसलेणं, असहेजेणं, देवासुरणाग-सुवण्णजक्ख-रक्खस-किण्णर-किंपुरिस-गरूल गंधव्व-महोरगाइएहिं देवगणेहिं निग्गंथाओं पावयणाओ अणइक्कमणिज्जेणं) सम्मत्तस्स पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न समायरियव्वा । तं जहा--संका, कंखा, विइगिच्छा, परपासंडपसंसा, परमासंडसंथवे।
भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द से कहा-आनन्द ! जिसने जीव, अजीव आदि पदार्थो के स्वरूप को यथावत् रूप से जाना है, (पुण्य और पाप का भेद समझा है, जो किसी दूसरे की सहायता का अनिच्छुक है, देव, असुर, नाग, सुपर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरूष, गरूड, गन्धर्व, महोरग आदि देवताओं द्वारा निर्ग्रन्थ प्रवचन से अनतिक्रमणीय है विचलित नहीं किया जा सकता है) उसको सम्यक्त्व के पांच प्रधान अतिचार जानने चाहिए और उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे अतिचार
भगवा