Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[५५ समता का विकास करना है, क्रोध, मान, माया, लोभ जनित विषमता को क्रमशः मिटाते जाना है। यों करते हुए शुद्ध आत्मस्वरूप में तन्मयता पाना सामायिक का चरम लक्ष्य है। जहाँ सामायिक का यह उद्देश्य बाधित होता है, वहाँ सामायिक एक पारम्परिक विधि के रूप में तो सधती है, उससे जीवन में जो उपलब्धि होनी चाहिए, हो नहीं पाती। इसलिए साधक के लिए यह अपेक्षित है कि वह अपने मन को पवित्र रखे, समता की अनुभूति करे, मानसिक दुश्चिन्तन से बचे।
वचन-दष्प्रणिधान-सामायिक करते समय वाणी का दरुपयोग या मिथ्या भाषण करना दसरे के हृदय में चोट पहुँचाने वाली कठोर बात कहना, अध्यात्म के प्रतिकूल लौकिक बातें करना वचनदुष्प्रणिधान है। सामायिक में जिस प्रकार मानसिक दुश्चिन्तन से बचना आवश्यक है, उसी प्रकार वचन के दुष्प्रयोग से भी बचना चाहिए।
__ काय-दुष्प्रणिधान--मन और वचन की तरह सामायिक में देह भी व्यवस्थित, सावधान और सुसंयत रहनी चाहिए। देह से ऐसी चेष्टाएँ नहीं करनी चाहिए, जिससे हिंसा आदि पापों की आशंका हो।
सामायिक-स्मृति-अकरणता-वैसे तो सामायिक सारे जीवन का विषय है, जीवन की साधना है, पर अभ्यास-विधि के अन्तर्गत उसके लिए जैसा पहले सूचित हुआ है, ४८ मिनिट का एक इकाई का समय रक्खा गया है। जब उपासक सामायिक में बैठे, उसे पूरी तरह जागरूक और सावधान रहना चाहिए, समय के साथ-साथ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह सामायिक में है। अर्थात् सामायिकोचित मानसिक, वाचिक, कायिक प्रवृत्तियों से उसे दूर नहीं हटना है। ये भूलें सामायिक का अतिचार है, जिसके मूल में प्रमाद अजागरूकता या असावधानी है।
सामायिक-अनवस्थित-करणता--अवस्थित का अर्थ यथोचित रूप में स्थित रहना है। वैसे न करना अनवस्थितता है। सामायिक में कभी अनवस्थित--अव्यवस्थित नहीं रहना चाहिए। कभी सामायिक कर लेना कभी नहीं करना, कभी सामायिक के समय से पहले उठ जाना-यह व्यक्ति के अव्यवस्थित एवं अस्थिर जीवन का सूचक है। ऐसा व्यक्ति सामायिक साधना में तो असफल रहता ही है, अपने लौकिक जीवन में भी विकास नहीं कर पाता। सामायिक के नियत काल के पूर्ण हुए बिना ही सामायिक व्रत पाल लेना-यह इस अतिचार का मुख्य आशय है। देशावकाशिक व्रत के अतिचार
५४. तयाणंतरं च णं देसावगासियस्स समणोवासएणं पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तंजहा-आणवणप्पओगे, पेसवणप्पओगे, सद्दाणुवाए, रूवाणुवाए, बहिया पोग्गलपक्खेवे।
तदन्तर श्रमणोपासक को देशावकाशिक व्रत के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं--
आनयन-प्रयोग, प्रेष्य-प्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात तथा बहि:पुद्गल-प्रक्षेप।