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[उपासकदशांगसूत्र
देह का यथार्थ उपयोग, संवर तथा निर्जरामूलक धर्म का अनुसरण है। उपासक या साधक अपनी देह की परिपालना इसीलिए करता है कि वह उसके धर्मानुष्ठान में सहयोगी है। न कोई सदा युवा रहता है और न स्वस्थ, सुपुष्ट ही। युवा वृद्ध हो जाता है, स्वस्थ रूग्ण हो जाता है और सुपुष्ट दुर्बल। एक ऐसा समय आ जाता है, जब देह अपने निर्वाह के लिए स्वयं दूसरों का सहारा चाहने लगती है। रोग और दुर्बलता के कारण व्यक्ति धार्मिक क्रियाएं करने में असमर्थ हो जाता है। ऐसी स्थिति में मन में उत्साह घटने लगता है, कमजोरी आने लगती है, विचार मलिन होने लगते है, जीवन एक भार लगने लगता है। भार को तो ढोना पड़ता है। विवेकी साधक ऐसा क्यों करे?
जैनदर्शन वहां साधक को एक मार्ग देता है। साधक शान्ति एवं दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। इसके लिए वह खान-पान का परित्याग कर देता है और एकान्त या पवित्र स्थान में आत्मचिन्तन करता हुआ भावों की उच्च भूमिका पर आरूढ हो जाता है। इस व्रत को संलेषणा कहा जाता है। वृत्तिकार अभयदेव सूरि ने संलेषणा का अर्थ शरीर एवं कषायों को कृश करना किया है। संलेषणा के आगे जोषणा और आराधना दो शब्द और हैं। जोषणा का अर्थ प्रीतिपूर्वक सेवन है। आराधना का अर्थ अनुसरण करना या जीवन में उतारना है अर्थात् संलेषणा-व्रत का प्रसन्नतापूर्वक अनुसरण करना। दो विशेषण साथ में और है--अपश्चिम और मरणान्तिक । अपश्चिम का अर्थ है अन्तिम या आखिरी, जिसके बाद इस जीवन में और कुछ करना बाकी न रह जाय। मरणान्तिक का अर्थ है, मरण पर्यन्त चलने वाली आराधना। इस व्रत में जीवन भर के लिए आहार-त्याग तो होता ही है, साधक लौकिक, पारलौकिक कामनाओं को भी छोड़ देता है। उसमें इतनी आत्म-रति व्याप्त हो जाती है कि जीवन और मृत्यु की कामना से वह ऊंचा उठ जाता है। न उसे जीवन की चाह रहती है कि वह कुछ समय और जी ले और न मत्य से डरता है तथा न उसे जल्दी पा लेने के लिए आकल-आतर होता है कि देह का अन्त हो जाय, आफत मिटे। सहज भाव से जब भी मौत आती है, वह उसका शान्ति से वरण करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से कितनी पवित्र, उन्नत और प्रशस्त मनःस्थिति यह है।
इस व्रत के जो अतिचार परिकल्पित किए गए हैं, उनके पीछे यही भावना है कि साधक की यह पुनीत वृत्ति कहीं व्याहत न हो जाय।
___ अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है--इहलोक-आशंसाप्रयोग-ऐहिक भोगों या सुखों की कामना, जैसे मैं मरकर राजा, समृद्धिशाली तथा सुखसंपन्न बनूं।
परलोक-आशंसाप्रयोग-परलोक-स्वर्ग में प्राप्त होने वाले भोगों की कामना करना, जैसे मैं मर कर स्वर्ग प्राप्त करूं तथा वहां के अतुल सुख भोगूं।
जीवित-आशंसाप्रयोग--प्रशस्ति, प्रशंसा, यश, कीर्ति आदि के लोभ से या मौत के डर से जीने की कामना करना।
मरण-आशंसाप्रयोग--तपस्या के कारण होनेवाली भूख, प्यास तथा दूसरी शारीरिक प्रतिकूलताओं को कष्ट मान कर शीघ्र मरने की कामना करना, यह सोच कर कि जल्दी ही इन कष्टों से छुटकारा हो जाय।