Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[५९ वृत्ति सदा सोत्साह बनी रहे, उसमें क्षीणता न आए। उन अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
सचित्त-निक्षेपणता--दान न देने की नीयत से अचित्त-निर्जीव-संयमी के लेने योग्य पदार्थों को सचित-सजीव धान्य आदि में रख देना अथवा लेने योग्य पदार्थों में सचित पदार्थ मिला देना। ऐसा करने से साधु उन्हें ग्रहण नहीं कर सकता। यह मुख से भिक्षा न देने की बात न कह कर भिक्षा न देने का व्यवहार से धूर्तता पूर्ण उपक्रम है।
सचित्त-पिधान-दान न देने की भावना से सचित्त वस्तु से अचित वस्तु को ढक देना, ताकि संयमी उसे स्वीकार न कर सके।
कालातिक्रम-काल या समय का अतिक्रम-उल्लंघन करना। भिक्षा का समय टाल कर भिक्षा देने की तत्परता दिखाना समय टल जाने से आने वाला साधु या अतिथि भोजन नहीं लेता, क्योंकि तब तक उसका भोजन हो चुकता है। यह झूठा सत्कार है। ऐसा करने वाला व्यक्ति मन ही मन यह जानता है कि उसे भिक्षा या भोजन देना नहीं पड़ेगा, उसकी बात भी रह जायगी, यों कुछ लगे बिना ही सत्कार हो जायगा।
परव्यपदेश-न देने की नीयत से अपनी वस्तु को दूसरे की बताना।
मत्सरिता-मत्सर या ईर्ष्यावश आहार आदि देना। ईर्ष्या का अर्थ यहां यह है-जैसे कोई व्यक्ति देखता है, अमुक ने ऐसा दान दिया है तो उसके मन में आता है, मैं उससे कम थोड़ा ही हूं मैं भी दूं। ऐसा करने में दान की भावना नहीं है, अंहकार की भावना है। किन्हीं ने मत्सरिता का अर्थ कृपणता या कंजूसी किया है। तदनुसार दान देने में कंजूसी करना इस अतिचार में आता है। कहीं कहीं मत्सरिता का अर्थ क्रोध भी किया गया है, उनके अनुसार क्रोधपूर्वक भिक्षा या भोजन देना, यह अतिचार है। मरणान्तिक-संलेखना के अतिचार
५७. तयाणंतरं च णं अपच्छिम-मारणंतिय-संलेहणा-झूसणाराहणाए पंच अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा, तं जहा-इहलोगासंसप्पओगे, परलोगासंसप्पओगे, जीवियासंसप्पओगे, मरणासंसप्पओगे, कामभोगासंसप्पओगे।
तदन्तर अपश्चिम-मरणांतिक-संलेषणा-जोषणाआराधना के पांच अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है--
___ इहलोक-आशंसाप्रयोग, परलोक-आशंसाप्रयोग, जीवित-आशंसाप्रयोग, मरण-आशंसाप्रयोग तथा काम-भोग-आशंसाप्रयोग। विवेचन
जैनदर्शन के अनुसार जीवन का अन्तिम लक्ष्य है-आत्मा के सत्य स्वरूप की प्राप्ति। उस पर कर्मों के जो आवरण आए हुए है, उन्हें क्षीण करते हुए इस दिशा में बढ़ते जाना, साधना की यात्रा है। देह उसमें उपयोगी है। सांसारिक कार्य जो देह से सधते है, वे तो प्रासंगिक है, आध्यात्मिक दृष्टि से