Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[उपासकदशांगसूत्र विवेचन
देश और अवकाश इन दो शब्दों के मेल से देशावकाशिक शब्द बना है। देश का अर्थ यहाँ एक भाग है। अवकाश का अर्थ जाने या कोई कार्य करने की चेष्टा है। एक भाग तक अपने को सीमित रखना देशावकाशिक व्रत है। छठे दिक् व्रत में दिशा संबंधी परिमाण या मर्यादा जीवन भर के लिए की जाती है, उसका एक दिन-रात के समय के लिए या न्यूनाधिक समय के लिए और अधिक कम कर लेना देशावकाशिक व्रत है। अवकाश का अर्थ निवृत्ति भी होता है। अत: अन्य व्रतों का भी इसी प्रकार हर रोज समय-विशेष के लिए जो संक्षेप किया जाता है, वह भी इस व्रत में आ जाता है। इसको और स्पष्ट यों समझा जाना चाहिए। जैसे एक व्यक्ति चौबीस घंटे के लिए यह मर्यादा करता है कि वह एक मकान से बाहर के पदार्थों का उपभोग नहीं करेगा, बाहर के कार्य संपादित नहीं करेगा, वह मर्यादित भूमि से बाहर जाकर पंचास्त्रवों का सेवन नहीं करेगा, यदि वह नियत क्षेत्र से बाहर के कार्य संकेत से अथवा दूसरे व्यक्ति द्वारा करवाता है, तो वह ली हुई मर्यादा का उल्लंघन करता है। यह देशावकाशिक व्रत का अतिचार है। यह उपासक की मानसिक चंचलता तथा व्रत के प्रति अस्थिरता का द्योतक है। इससे व्रत-पालन की वृत्ति में कमजोरी आती है। व्रत का उद्देश्य नष्ट हो जाता है।
इस व्रत के पांच अतिचारों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है--
आनयन-प्रयोग--जितने क्षेत्र की मर्यादा की है, उस क्षेत्र में उपयोग के लिए मर्यादित क्षेत्र के बाहर की वस्तुएं अन्य व्यक्ति से मंगवाना।
प्रेष्य-प्रयोग--मर्यादित क्षेत्र से बाहर के क्षेत्र के कार्यों को संपादित करने हेतु सेवक, पारिवारिक व्यक्ति आदि को भेजना।
शब्दानुपात--मर्यादित क्षेत्र से बाहर का कार्य सामने आ जाने पर, ध्यान में आ जाने पर, छींक कर, खाँसी लेकर या कोई और शब्द कर पड़ौसी आदि से संकेत द्वारा कार्य कराना।
रूपानुपात--मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए मुंह से कुछ न बोलकर हाथ, अंगुली आदि से संकेत करना।
बहिःपुद्गल-प्रक्षेप--मर्यादित क्षेत्र से बाहर का काम करवाने के लिए कंकड़ आदि फेंक कर दूसरों को इशारा करना।
ये कार्य करने से यद्यपि व्रत के शब्दात्मक प्रतिपालन में बाधा नहीं आती पर व्रत की आत्मा निश्चय ही इससे व्याहत होती है। साधना का अभ्यास दृढता नहीं पकड़ता, इसलिए इनका वर्जन अत्यन्त आवश्यक है।
लौकिक एषणा, आरम्भ आदि सीमित कर जीवन को उत्तरोत्तर आत्म-निरत बनाने में देशावकाशिक व्रत बहुत महत्त्वपूर्ण है। जैन दर्शन का तो अन्तिम लक्ष्य संपूर्ण रूप से आत्म-केन्द्रित होना है। अत्यन्त तीव्र और प्रशस्त आत्मबल वालों की तो बात और है, सामान्यतया हर किसी के लिए यह संभव नहीं कि वह एकाएक ऐसा कर सके, इसलिए उसे शनैः शनैः एषणा, कामना और इच्छा का