Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[४३ रहते है। कभी-कभी उपासक के मन में ऐसे भाव भी उठते हैं -- वह जो धर्म का अनुष्ठान करता है, तप आदि का आचरण करता है, उसका फल होगा या नहीं? ऐसा सन्देह विचिकित्सा कहा गया है। मन में इस प्रकार का सन्देहात्मक भाव पैदा होते ही कार्य-गति में सहज ही शिथिलता आ जाती है, अनुत्साह बढ़ने लगता है। कार्य-सिद्धि में निश्चय ही यह स्थिति बड़ी बाधक है। सम्यक्त्वी को इससे बचना चाहिए।
___पर-पाषंड-प्रशंसा--भाषा-विज्ञान के अनुसार किसी शब्द का एक समय जो अर्थ होता है, आगे चलकर भिन्न परिस्थितियों में कभी-कभी वह सर्वथा बदल जाता है। यही स्थिति पाखंड शब्द के साथ है। आज प्रचलित पाखंड या पाखंडी शब्द इसी का रूप है पर तब और अब के अर्थ में सर्वथा भिन्नता है। भगवान् महावीर के समय में और शताब्दियों तक पाखंडी शब्द अन्य मत के व्रतधारक अनुयायियों के लिए प्रयुक्त होता रहा। आज पाखंड शब्द निन्दामूलक अर्थ में है। ढोंगी को पाखंडी कहा जाता है। प्राचीन काल में पाखंड शब्द के साथ निन्दावाचकता नहीं जुड़ी थी। अशोक के शिलालेखों में भी अनेक स्थानों पर इस शब्द का अन्य मतावलम्बियों के लिए प्रयोग हुआ है।
पर-पाषंड-प्रशंसा सम्यक्त्व का चौथा अतिचार है, जिसका अभिप्राय है, सम्यक्त्वी को अन्य मतावलम्बी का प्रशंसक नही होना चाहिए। यहाँ प्रयुक्त प्रशंसा, व्यावहारिक शिष्टाचार के अर्थ में नहीं है, तात्त्विक अर्थ में है। अन्य मतावलम्बी के प्रशंसक होने का अर्थ है, उसके धार्मिक सिद्धान्तों का सम्मान । यह तभी होता है, जब अपने अभिमत सिद्धान्तों में विश्वास की कमी आ जाय। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाय तो यह विश्वास में शिथिलता होने का द्योतक है। सोच समझ कर अंगीकार किये गए विश्वास पर व्यक्ति को दृढ रहना ही चाहिये। इस प्रकार के प्रशंसा आदि कार्यों से निश्चय ही विश्वास की दृढ़ता व्याहत होती है। इसलिए यह संकीर्णता नहीं है, आस्था की पुष्टि का एक उपयोगी उपाय है।
___ पर-पाषंड-संस्तव--संस्तव का अर्थ घनिष्ठ सम्पर्क या निकटतापूर्ण परिचय है । परमतावलम्बी पाषंडियों के साथ धार्मिक दृष्टि से वैसा परिचय अथवा सम्पर्क उपासक के लिए उपादेय नहीं है। इससे उसकी आस्था में विचलन पैदा होने की आशंका रहती है। अहिंसा-व्रत अतिचार
४५. तयाणंतरं च णं थूलगस्स पाणाइवायवेरमणस्स समणोवासएणं पंच अइयारा पेयाला जाणियव्वा, न सामायरियव्वा। तं जहा-बंधे, वहे, छवि-च्छेए, अइभारे, भत्तपाण-वोच्छेए।
इसके बाद श्रमणोपासक की स्थूल-प्राणातिपातविरमण व्रत के पांच प्रमुख अतिचारों को जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार है--
बन्ध, वध, छविच्छेद, अतिभार, भक्त-पान-व्यवच्छेद। विवेचन
बन्ध-इसका अर्थ बांधना है। पशु आदि को इस प्रकार बांधना, जिससे उनको कष्ट हो, बन्ध