Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[उपासकदशांगसूत्र इस प्रकार है-- शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, पर-पाषंड-प्रशंसा तथा पर-पाषंड संस्तव।
विवेचन
व्रत स्वीकार करना उतना कठिन नही है, जितना दृढता से पालन करना। पालन करने में व्यक्ति को क्षण-क्षण जागरूक रहना होता है। बाधक स्थिति के उत्पन्न होने पर भी अविचल रहना होता है। लिये हुए व्रतों में स्थिरता बनी रहे, उपासक के मन में कमजोरी न आए, इसके लिए अतिचारवर्जन के रूप में जैन साधना-पद्धति में बहुत ही सुन्दर उपाय बतलाया गया है।
अतिचार का अर्थ व्रत में किसी प्रकार की दुर्बलता, स्खलना या आंशिक मलिनता आना है। यदि अतिचार को उपासक लांघ नही पाता तो वह अतिचार अनाचार में बदल जाता है। अनाचार का अर्थ है, व्रत का टूट जाना। इसलिए उपासक के लिए आवश्यक है कि वह अतिचारों को यथावत् रूप से समझे तथा जागरूकता और आत्मबल के साथ उनका वर्जन करें।
उपासक के लिए सर्वाधिक महत्त्व की वस्तु है सम्यकत्व-यर्थात तत्त्वश्रद्धान--सत्य के प्रति सही आस्था। यदि उपासक सम्यक्त्व को खो दे तो फिर आगे बच ही क्या पाए? आस्था में सत्य का स्थान जब असत्य ले लेगा तो सहज ही आचरण में, जीवन में विपरीतता पल्लवित होगी। इसलिए भगवान् महावीर ने श्रमणोपासक आनन्द को सबसे पहले सम्यक्त्व के अतिचार बतलाए और उनका आचरण न करने का उपदेश दिया।
सम्यक्त्व के पांच अतिचारों का संक्षेप में विवेचन इस प्रकार है--
शंका--सर्वज्ञ द्वारा भाषित आत्मा, स्वर्ग, नरक, पुण्य, पाप, बन्ध, मोक्ष आदि तत्त्वों में सन्देह होना शंका है। मन में सन्देह उत्पन्न होने पर जब आस्था डगमगा जाती है, विश्वास हिल जाता है तो उसे शंका कहा जाता है। शंका होने पर जिज्ञासा का भाव हलका पड़ जाता है। संशय जिज्ञासामूलक है। विश्वास या आस्था को दृढ करने के लिए व्यक्ति जब किसी तत्त्व या विषय के बारे में स्पष्टता हेतु और अधिक जानना चाहता है, प्रश्न करता है, उसे शंका नही कहा जाता, क्योंकि उससे वह अपना विश्वास
दढतर करना चाहता है। जैन आगमों में जब भगवान महावीर के साथ प्रश्नोत्तरों का क्रम चला है,
प्राश्रिक के मन में संशय उत्पन्न होने की बात कही गई है। भगवान महावीर के प्रमुख शिष्य इन्दभूति गौतम के प्रश्न तथा भगवान् के उत्तर सारे आगम वाङ्मय में बिखरे पड़े हैं। जहाँ गौतम प्रश्न करते हैं, वहां सर्वत्र उनके मन के संशय उत्पन्न होने का उल्लेख है। साथ ही साथ उन्हें परम श्रद्धावान् भी कहा गया है। गौतम का संशय जिज्ञासा-मूलक था। एक सम्यक्त्वी के मन में श्रद्धापूर्ण संशय होना दोष नही है, पर उसे अश्रद्धामूलक शंका नहीं होनी चाहिए।
कांक्षा--साधारणतया इसका अर्थ इच्छा को किसी ओर मोड़ देना या झुकना है। प्रस्तुत प्रसंग में इसका अर्थ बाहरी दिखावे या आडम्बर या दूसरे प्रलोभनों से प्रभावित होकर किसी दूसरे मत की ओर झुकना है। बाहरी प्रदर्शन से सम्यक्त्वी को प्रभावित नहीं होना चाहिए।
विचिकित्सा--मनुष्य का मन बड़ा चंचल है। उसमें तरह-तरह के संकल्प-विकल्प उठते
दद से