Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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[उपासकदशांगसूत्र सन्दर्भ में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या आनन्द वर्ष भर शरद्-ऋतु के ही गो-घृत का सेवन करता था? उसने ताजे घी का अपवाद क्यों नही रखा?
वास्तव में बात यह है, रस-पोषण की दृष्टि से शरद् ऋतु का छहों ऋतुओं में असाधारण महत्व है। आयुर्वेद के अनुसार शरद् ऋतु में चन्द्रमा की किरणों से अमृत (जीवनरस) टपकता है। इसमें अतिरंजन नहीं है। शरद् ऋतु वह समय है, जो वर्षा और शीत का मध्यवर्ती है। इस ऋतु में वनौषधियों (जड़ी-बूटियों) में, वनस्पतियों में, वृक्षों में, पौधों में, घास-पात में एक विशेष रस-संचार होता है। इसमें फलने वाली वनस्पतियां शक्ति-वर्द्धक, उपयोगी एवं स्वादिष्ट होती हैं। शरद् ऋतु का गो-घृत स्वीकार करने के पीछे बहुत संभव है, आनन्द की यही भावना रही हो। इस समय का घास चरने वाली के घृत में गुणात्मकता की दृष्टि से विशेषता रहती है। आयुर्वेद यह भी मानता है कि एक वर्ष तक का पुराना घृत परिपक्व घृत होता है। यह स्वास्थ्य की दृष्टि से विशेष लाभप्रद एवं पाचन में हल्का होता है। ताजा घृत पाचन में भारी होता है।
___ भाव-प्रकाश में घृत के सम्बन्ध में लिखा है- “एक वर्ष व्यतीत होने पर घृत की संज्ञा प्राचीन हो जाती है। वैसा घृत त्रिदोष नाशक होता है-वात, पित्त कफ-तीनों दोषों का समन्वायक होता है । वह मूर्छा, कुष्ट, विष-विकार, उन्माद, अपस्मार तथा तिमिर (आँखों के आगे अंधेरी आना) इन दोषों का नाशक
भाव-प्रकाश के इस उल्लेख से यह स्पष्ट है कि एक वर्ष तक घृत अखाद्य नही होता। वह उत्तम खाद्य है। पोषक के साथ-साथ दोषनाशक भी है। यदि घृत को खूब गर्म करके छाछ आदि निकाल कर छान कर रखा जाय तो एक वर्ष तक उसमें दुर्गन्ध, दुःस्वाद आदि विकार उत्पन्न नहीं होते।
औषधि के रूप में तो घृत जितना पुराना होता है, उतना ही अच्छा माना गया है। भावप्रकाश में लिखा है
"घृत जैसे-जैसे अधिक पुराना होता है, वैसे-वैसे उसके गुण अधिक से अधिक बढ़ते जाते है।''
कल्याणकघृत, महाकल्याणकघृत, लशुनाद्यघृत, पंचगव्यघृत, महापंचगव्यघृत, ब्राम्हीघृत, आदि जितने भी आयुर्वेद में विभिन्न रोगों की चिकित्सा हेतु घृत सिद्ध किए जाते हैं, उन में प्राचीन गो-घृत का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे ब्राह्मीघृत के सम्बन्ध में चरक-संहिता में लिखा है--
"ब्राह्मी के रस, वच, कूठ और शंखपुष्पी द्वारा सिद्ध पुरातन गो-घृत ब्राह्मीघृत कहा जाता है।
१. वर्षादूर्ध्व भवेदाज्यं पुराणं तत् त्रिदोषनुत्। मूर्छाकुष्टविषोन्मादापस्मारतिमिरापहम्॥
--भावप्रकाश, घृतवर्ग १५ १. यथा यथाऽखिलं सर्पिः पुराणमधिकं भवेत्। तथा तथा गुणैः स्वैः स्वैरधिकं तदुदाहृतम् ॥
___--भावप्रकाश, घृतवर्ग १६