Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
३४]
[उपासकदशांगसूत्र से भिन्न है। अर्थात् हरीतकी उष्णवीर्य है, आंवला शीतवीर्य । हरीतकी के जो गुण बताए गए है, उन्हें देखते, हरीतकी तथा तत्सदृश गुणयुक्त आवंला अमृत कहे गये है।"
चरकसंहिता में वाततपिक एवं कुटीप्रावेशिक के रूप में काय-कल्प चिकित्सा का उल्लेख है। कुटीप्रावेशिक को अधिक प्रभावशाली बतलाते हुए वहाँ विस्तार से वर्णन है।
इस चिकित्सा में शोधन के लिए हरीतकी तथा पोषण के लिए आंवले का विशेष रूप से उपयोग होता है। इन्हें रसायन कहा गया है। आचार्य चरक ने रसायन के सेवन से दीर्घ आयु, स्मृतिबुद्धि, तारूण्य--जवानी, कान्ति, वर्ण--ओजमय दैहिक आभा, प्रशस्त स्वर, शरीर-बल, इन्द्रिय-बल आदि प्राप्त होने का उल्लेख किया है।
आंवले से च्यवनप्राश, ब्राह्मरसायन, आमलकरसायन आदि पौष्टिक औषधियों के रूप में अनेक अवलेह तैयार किये जाते है। अस्तु।
आनन्द यदि फलों के सन्दर्भ में अपवाद रखता तो वह बिहार का निवासी था, बहुत सम्भव है, फलों में आम का अपवाद रखता, जैसे खाद्यानों में बासमती चांवलों में उत्तम कलम जाति के चावल रखे। आम तो फलोंका राजा माना जाता है और बिहार में सर्वोत्तम कोटि का तथा अनेक जातियों का होता है। अथवा उस प्रदेश में तो और भी उत्तम प्रकार के फल होते है, उनमें से और कोई रखता। वस्तुतः जैसा ऊपर कहा गया है, आनन्द ने आंवले को खाने के फल की दृष्टि से अपवाद नहीं रखा, मस्तक, नेत्र, बाल आदि की शुद्धि के लिए ही इसे स्वीकार किया। यह वर्णन भी ऐसे ही सन्दर्भ में है। इससे पहले के तेईसवें सूत्र में आनन्द ने हरी मुलैठी के अतिरिक्त सब प्रकार के दतौनों का परित्याग किया, इससे आगे पच्चीसवे सूत्र में शतपाक तथा सहस्त्रपाक तैलों के अतिरिक्त मालिश के सभी तैलों का सेवन न करने का नियम किया। उसके बाद छब्बीसवें सूत्र में सुगन्धित गन्धाटक के सिवाय सभी उबटनों का परित्याग किया। यहाँ खाने के फल का प्रंसग ही संगत नहीं है। यह तो सारा सन्दर्भ दतौन, स्नान, मालिश, उबटन आदि देह-शुद्धि से सम्बद्ध कार्यों से जुड़ा है।
अब एक प्रश्न उठता है, क्या आनन्द ने खाने के किसी भी फल का अपवाद नहीं रखा? हो
१. तान् गुणांस्तानि कर्माणि विद्यादामलकेष्वपि।
यान्युक्तानि हरीतक्या वीर्यस्त तु विपर्ययः॥ अतश्चामृतकल्पानि विद्यात्कर्मभिरीदृशैः। हरीतकीनां शस्यानि भिषगामलकस्य च ॥ --चरकसंहिता चिकित्सास्थान १ । ३५-३६॥ चरकसंहिता-चिकित्सास्थान १ । १६-२७॥ दीर्घमायुः स्मृति मेघामारोग्यं तरूणं वयः । प्रभावर्णस्वरौदार्य देहेन्द्रियबलं परम्॥ वाक्सिद्धिं प्रणति कान्तिं लभते ना रसायनात्। लाभोपायो हि शस्तानां रसादीनां रसायनम्॥
चरकसंहिता-चिकित्सास्थान १ । ७-८॥