Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ]
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यहाँ फलविधि का प्रयोग बाल, मस्तक आदि के शोधन - प्रक्षालन के काम में आने वाले शुद्धिकारक फलों के उपयोग के अर्थ में है। आंवले की इस कार्य में विशेष उपादेयता है। बालों के लिए तो वह बहुत ही लाभप्रद है, एक टॉनिक है। आंवले में लोहा विशेष मात्रा में होता है। अतः बालों की जड़ को मजबूत बनाए रखना, उन्हें काला रखना उसका विशेष गुण है। बालों में लगाने के लिए जाने वाले तैलों में आंवले का तैल मुख्य है 1
बनाए
यहाँ आवले में क्षीर आमलक या दूधिया आंवले का जो उल्लेख आया है, उसका भी अपना विशेष आशय है । क्षीर आमलक का तात्पर्य उस मुलायम, कच्चे आंवले से है, जिसमें गुठली नही पड़ी हो, जो विशेष खट्टा नही हो, जो दूध जैसा मिठास लिए हो। अधिक खट्टे आंवले के प्रयोग से चमड़ी में कुछ रूखापन आ सकता है। जिनकी चमड़ी अधिक कोमल होती है, विशेष खट्टे पदार्थ के संस्पर्श से वह फट सकती । क्षीर आमलक के प्रयोग में यह आशंकित नहीं है ।
यहाँ फल शब्द खाने के रूप में काम में आनेवाले फलों की दृष्टि से नहीं है, प्रत्युत वृक्ष, पौधे आदि पर फलने वाले पदार्थ की दृष्टि से है। वृक्ष पर लगता है, इसलिए आंवला फल है, परन्तु वह फल के रूप में नहीं खाया जाता । उसका उपयोग विशेषतः औषधि मुरब्बा, चटनी, अचार आदि में होता है ।
आयुर्वेद की काष्ठादिक औषधियों में आंवले का मुख्य स्थान है । आयुर्वेद के ग्रन्थों में इसे फल-वर्ग में न लेकर काष्ठादिक औषधि वर्ग में लिया गया है। भावप्रकाश में हरितक्यादि वर्ग में आंवले का वर्णन आया है । वहाँ लिखा है
'आमलक, धात्री, त्रिष्वफला और अमृता - ये आंवले के नाम हैं। आंवले के रस, गुण एवं विपाक आदि हरीतकी -- हरड़ के समान होते हैं। आंवला विशेषतः रक्त पित्त और प्रमेह का नाशक, शुक्रवर्धक एवं रसायन है। रस के खट्टेपन के कारण यह वातनाशक है, मधुरता और शीतलता के कारण यह पित्त को शान्त करता है, रूक्षता और कसैलेपन के कारण यह कफ को मिटाता है । " चरकसंहिता चिकित्सास्थान के अभयामलकीय रसायनपाद मेंआंवले का वर्णन है । वहाँ
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लिखा है
" जो गुण हरीतकी के हैं, आंवले के भी लगभग वैसे ही हैं । किन्तु आंवले का वीर्य हरीतकी १. त्रिष्वामलकमाख्यातं धात्री त्रिष्वफलाऽमृता । हरीतकीसमं धात्री - फलं किन्तु विशेषतः ॥ रक्तपित्तप्रमेहनं परं वृष्यं रसायनम् ।
हन्ति वातं तदम्लत्वात् पित्तं माधुर्यशैत्यतः ॥
कफं रूक्षकषायत्वात् फलं धाल्यास्त्रिदोषजित् ॥ -- भावप्रकाश हरीतक्यादि वर्ग ३७-३९