Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द ]
अपनी धूर्तता को छिपाए रखना, ४. वंचनता -- प्रतारणा या ठगी ।
इन कारणों से जीव मनुष्ययोनि में उत्पन्न होते हैं
१. प्रकृति - भद्रता -- स्वाभाविक भद्रता -- भलापन, जिससे किसी को भीति या हानि की आशंका न हो, २. प्रकृति - विनीतता -- स्वाभाविक विनम्रता, ३. सानुक्रोशता -- सदयता, करूणाशीलता तथा ४. अमत्सरता - ईर्ष्या का अभाव ।
इन कारणों से जीव देवयोनि में उत्पन्न होते है --
१. सरागसंयम--राग या आसक्तियुक्त चारित्र अथवा राग के क्षय से पूर्व का चारित्र, २. संयमासंमय- देशविरति - - श्रावकधर्म, ३. अकाम - निर्जरा -- मोक्ष की अभिलाषा के बिना या विवशतावश कष्ट सहना, ४. बाल-तप-- मिथ्यात्वी या अज्ञानयुक्त अवस्था में तपस्या ।
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तत्पश्चात् - जैसे नरक में जाते हैं, जो नरक हैं और वहाँ नैरयिक जैसी वेदना पाते हैं तथा तिर्यंचयोनि में गये हुए जीव जैसा शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त करते हैं उसे भगवान् बताते हैं 1 मनुष्य जीवन अनित्य है, उसमें व्याधि, वृद्धावस्था मृत्यु और वेदना के प्रचुर कष्ट हैं । देवलोक में देव देवी ऋद्धि और देवी सुख प्राप्त करते हैं । इस प्रकार प्रभु ने नरक, नरकावास, तिर्यञ्च तिर्यञ्च के आवास, मनुष्य, मनुष्य लोक, देव देवलोक, सिद्ध, सिद्धालय, एवं छह जीवनिकाय का विवेचन किया । जिस प्रकार जीव बंधते हैं- कर्म-बन्ध करते हैं, मुक्त होते हैं, परिक्लेश पाते हैं, कई अप्रतिबद्धअनासक्त व्यक्ति दुःखों का अन्त करते हैं, पीड़ा, वेदना व आकुलतापूर्ण चित्तयुक्त जीव दुःख सागर को प्राप्त करते हैं, वैराग्य प्राप्त जीव कर्म-दल को ध्वस्त करते हैं, रागपूर्वक किये गए कर्मों का फलविपाक पापपूर्ण होता है, कर्मों से सर्वथा रहित होकर जीव सिद्धावस्था प्राप्त करते हैं- यह सब [ भगवान् ने ] आख्यात किया ।
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आगे भगवान् ने बतलाया-धर्म दो प्रकार का है- अगार-धर्म और अनगार - धर्म । अनगारधर्म में साधक सर्वतः सर्वात्माना -- सम्पूर्ण रूप में, सर्वात्मभाव से सावद्य कार्यों का परित्याग करता हुआ मुंडित होकर, गृहवास से अनगार दशा --मुनि-अवस्था में प्रव्रजित होता है। वह सम्पूर्णत: प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह तथा रात्रि - भोजन से विरत होता है ।
भगवान् ने कहा-- आयुष्मन् ! यह अनगारों के लिए समाचरणीय धर्म कहा गया है । इस धर्म की शिक्षा - अभ्यास आचरण में उपस्थित - प्रयत्नशील रहते हुए निर्ग्रन्थ-- साधु या निर्ग्रन्थी--साध्वी आज्ञा [अर्हत्-देशना] के आराधक होते हैं।
भगवान् ने अगारधर्म १२ प्रकार का बतलाया--५ अणुव्रत, ३ गुणव्रत तथा ४ शिक्षाव्रत । ५ अणुव्रत इस प्रकार हैं-- १. स्थूल--मोटे तौर पर, अपवाद रखते हुए प्राणातिपात से निवृत होना, २ . स्थूल मृषावाद से निवृत होना, ३. स्थूल अदत्तादान से निवृत होना ४. स्वदारसंतोष-- अपनी परिणीता पत्नीतक मैथुन की सीमा, ५. इच्छा -- परिग्रह की इच्छा का परिमाण या सीमाकरण।
३. गुणव्रत इस प्रकार हैं-- १. अनर्थदंड - विरमण -- आत्मा के लिए अहितकर या आत्मगुणघातक