Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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बचे, मनुष्यों का क्रय-विक्रय न करे। इससे यह भी ध्वनित होता है, जैन परम्परा दास-प्रथा के विरूद्ध थी।
उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि जैन आगम न केवल जैनधर्म के सिद्धान्त, आचार, रीति नीति आदि के ज्ञान हेतु ही पढ़ने आवश्यक हैं वरन् अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व के भारतीय समाज के व्यापक अध्ययन की दृष्टि से भी उनका अनुशीलन आवश्यक और उपयोगी है। वास्तव में प्राकृत जैन आगम तथा पालि त्रिपिटक ही उस काल से सम्बद्ध ऐसा साहित्य है, जिसमें जन-जीवन के सभी अंगों का वर्णन, विवेचन हुआ। यह ऐसा साहित्य नहीं है, जिसमें केवल राजन्यवर्ग या अभिजात्यवर्ग का स्तवन या गुणकीर्तन हुआ हो। इसमें किसान, मजदूर, चरवाहे, व्यापारी, स्वामी, सेवक, राजा, मन्त्री, अधिकारी आदि समाज के सभी छोटे-बड़े वर्गों का यथार्थ चित्रण हुआ है। भाषा, शैली
जैसा ऊपर सूचित किया गया है, जैन आगम अर्द्धमागधी प्राकृत में हैं, जिस पर महाराष्ट्री का काफी प्रभाव है। इसलिए डॉ. हर्मन जैकोबी ने तो जैन आगमों की भाषा को जैन महाराष्ट्री की संज्ञा भी दे दी थी पर उसे मान्यता पाप्त नहीं हुई। उपासकदशा में व्यवहृत अर्द्धमागधी में महाराष्ट्री की 'य' श्रुति का काफी प्रयोग देखा जाता है, जैसे उदाहरणार्थ इसमें 'सावग' और 'सावय' ये दोनों प्रकार के रूप आये हैं। भाषा सरल, प्राञ्जल और प्रवाहमय है। वर्णन में सजीवता है। कई वर्णन तो बड़े ही मार्मिक और अन्त:स्पर्शी हैं । उदाहरणार्थ दूसरे अध्ययन में श्रमणोपासक कामदेव को विचलित करने के लिए उपसर्गकारी देव का वर्णन है। देव के पिशाच-रूप का जो वर्णन वहाँ हुआ है; वह आश्चर्य, भय और जुगुप्सा--तीनों का सजीव चित्र उपस्थित करता है। वहाँ उल्लेख है, उसके कानों में कुण्डलों के स्थान पर नेवले लटक रहे थे, वह गिरगिटों और चूहों की माला पहने था, उसने अपनी देह पर दुपट्टे की तरह सांपों को लपेट रखा था, उसका शरीर पाँच रंगों के बहुविध केशों से ढंका था। कितनी विचित्र कल्पना यह है । और भी विस्मयकर अनेक विशेषण वहाँ हैं।
जैसी कि आगमों की शैली है, एक ही बात कई बार पुनरावृत्त होती रहती है। जैसे किसी ने किसी से कुछ सुना, यदि उसे अन्यत्र इसे कहना हो तो यह सारी की सारी बात दुहरायेगा। प्रस्तुत आगम में अनेक स्थानों पर ऐसा हुआ है।
अनावश्यक अति विस्तार से बचने के लिए आगमों में सर्वसामान्य वर्णनों के लिए 'जाव' और 'वण्णओ' द्वारा संकेत कर दिया जाता है, जिसके अनुसार अन्य आगमों से यह वर्णन ले लिया जाता है। शताब्दियों तक कण्ठाग्र-विधि से आगमों को सुरक्षित रखने के लिए ऐसा करना आवश्यक प्रतीत हआ। सामान्यतः राजा. श्रेष्ठी. सार्थवाह, नगर. उद्यान. चैत्य. सरोवर आदि का वर्णन प्रायः एक जैसा होता है। अतः इनके लिए वर्णन का एक विशेष स्वरूप (Standard) मान लिया गया, जिसे साधारणतया सभी राजाओं, श्रेष्ठियों, सार्थवाहों, नगरों, उद्यानों, चैत्यों, सरोवरों आदि के लिए उपयोग में लिया जाता रहा। प्रस्तुत आगम में भी ऐसा ही हुआ है। हिन्दी अनुवाद सहित आगमप्रकाशन
: भारत में कतिपय जैन आगमों का मूल तथा सटीक रूप में समय-समय पर प्रकाशन होता रहा है।
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