Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[१५ या महाशिला, जिसके गिराए जाने पर सैकड़ों व्यक्ति दब-कुचलकर मर जाएं, और द्वार के छिद्र रहित कपाटयुगल के कारण जहां प्रवेश कर पाना दुष्कर था, धनुष जैसे टेढे परकोटे से वह घिरा हुआ था, उस परकोटे पर गोल आकार के बने हुए कपिशीर्षकों से वह सुशोभित था, उसके राजमार्ग, अट्टालकपरकोटे के ऊपर निर्मित आश्रय-स्थानों--गुमटियों, चरिक--परकोटे के मध्य बने हुए आठ हाथ चौड़े मार्गो, परकोटे में बने हुए छोटे द्वारों--बारियों, गोपुरों--नगर-द्वारों, तोरण--द्वारों से सुशोभित और सुविभक्त थे, उसकी अर्गला और इन्द्रकील--गोपुर के किवाड़ों के आगे जड़े हुए नुकीले भाले जैसी कीलें, सुयोग्य शिल्पाचार्यों निपुण शिल्पियों द्वारा निर्मित थी, विपणि--हाट-मार्ग, वणिक्-क्षेत्र-- व्यापार-क्षेत्र बाजार के कारण तथा बहुत से शिल्पियों, कारीगरों के आवासित होने के कारण वह सुखसुविधापूर्ण था, तिकोने स्थानों, तिराहों, चौराहों चत्वरों-जहां चार से अधिक रास्ते मिलते हों, ऐसे स्थानों, बर्तन आदि की दूकानों तथा अनेक प्रकार की वस्तुओं से परिमंडित--सुशोभित और रमणीय था। राजा की सवारी निकलते रहने के कारण उसके राजमार्गों पर भीड़ लगी रहती थी, वहां अनेक उत्तम घोड़े, मदोन्मत्त हाथी, रथ--समूह, शिविका-पर्देदार पालखियां, स्यन्दमानिका--पुरूष-प्रमाण पालखियां, यान--गाड़ियां तथा युग्य--पुरातन कालीन गोल्ल देश में सुप्रसिद्ध दो हाथ लम्बे--चौड़े डोली जैसे यान--इनका जमघट लगा रहता था। वहां खिले हुए कमलों से शोभित जल वाले-- जलाशय थे, सफेदी किए हुए उत्तम भवनों से वह सुशोभित, अत्यधिक सुन्दरता के कारण निर्निमेष नेत्रों से प्रेक्षणीय,] चित्त को प्रसन्न करने वाला, दर्शनीय, अभिरूप-मनोज्ञ--मन को अपने में रमा लेने वाला तथा प्रतिरूप-मन में बस जाने वाला था।
८. तत्थ णं कोल्लाए सन्निवेसे आणंदस्स गाहावइस्स बहुए मित्त- नाइ-नियगसयण-संबंधि-परिजणे परिवसइ, अड्ढे जाव' अपरिभूए।
वहां कोल्लाक सन्निवेश में आनन्द गाथापति के अनेक मित्र, ज्ञातिजन-समान आचार-विचार के स्वजातिय लोग, निजक--माता, पिता, पुत्र पुत्री आदि, स्वजन-बन्धु-बान्धव आदि, सम्बन्धी--श्वशुर, मातुल आदि, परिजन--दास, दासी, आदि निवास करते थे, जो समृद्ध एवं सुखी थे। भगवान् महावीर का समवसरण
९. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जावं (आइगरे, तित्थगरे, सयंसंबुद्धे, पुरिसुत्तमे, पुरिस-सीहे, पुरिस-वर-पुंडरीए, पुरिस-वर-गंधहत्थीए, अभयदए, चक्खुदए, मग्गदए, सरणदए, जीवदए, दीवोत्ताणं, सरण-गई-पइट्ठा, धम्म-वर-चाउरंत-चक्कवट्टी अप्पडिहय-वर-नाण-दसणधरे, विअट्ट-च्छउमे, जिणे, जाणए, तिण्णे, तारए, मुत्ते, मोयए, बुद्धे, बोहए, सव्वण्णू, सव्वदरिसी, सिवमयलमरूअमणंतमक्खयमव्वाबाहमपुणरावत्तयं, सिद्धि--गइ-नामधेयं ठाणं संपाविउकामे, अरहा, जिणे, केवली, सत्तहत्थुस्सेहे, सम-- चउरंस--संठाण--संठिए, वज--रिसह--नाराय--संघयणे, अणुलोमवाउवेगे, कंक-- १. देखें सूत्र-संख्या ३