Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द] दासी-दास-गो-महिस-गवेलगपप्पभूए बहु-जणस्स) अपरिभूए।
__ आर्य सुधर्मा बोले--जम्बू! उस काल--वर्तमान अवसर्पिणी के चौथे आरे के अन्त में, उस समय--जब भगवान् महावीर विद्यमान थे, वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उस नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा में-ईशान कोण में दूतीपलाश नामक चैत्य था। जितशत्रु नामक वहां का राजा था। वहां वाणिज्यग्राम में आनन्द नामक गाथापति-सम्पन्न गृहस्थ रहता था। आनन्द धनाढ्य, [दीप्त-दीप्तिमान्-प्रभावशाली, सम्पन्न, भवन, शयन--ओढ़ने-बिछौने के वस्त्र, आसन--बैठने के उपकरण, यान-माल-असबाब ढोने की गाडियां एवं वाहन--सवारियां आदि विपुल साधन-सामग्री तथा सोना, चांदी, सिक्के आदि प्रचुर धन का स्वामी था। आयोग-प्रयोग-संप्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से धन के सम्यक् विनियोग और प्रयोग में निरत-नीतिपूर्वक द्रव्य के उपार्जन में संलग्न था। उसके यहां भोजन कर चुकने के बाद भी खाने पीने के बहुत पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से नौकर, नौकरानियां, गायें, बैल, पाड़े, भेड़ें, बकरियां आदि थीं। लोगों द्वारा अपरिभूत-अतिरस्कृत था--इतना रौबीला था कि कोई उसका तिरस्कार या अपमान करने का साहस नहीं कर पाता था। विवेचन
• इस प्रसंग में गाहावई [गाथापति] शब्द विशेष रूप से विचारणीय है। यह विशेषतः जैन साहित्य में ही प्रयुक्त है। गाहा+वई इन दो शब्दों के मेल से यह बना है। प्राकृत में 'गाहा' आर्या छन्द के लिए भी आता है और घर के अर्थ में भी प्रयुक्त है। इसका एक अर्थ प्रशस्ति भी है । धन, धान्य, समृद्धि, वैभव आदि के कारण बड़ी प्रशस्ति का अधिकारी होने से भी एक सम्पन्न, समृद्ध गृहस्थ के लिए इस शब्द का प्रयोग टीकाकारों ने माना है। पर, गाहा का अधिक संगत अर्थ घर ही प्रतीत होता है।
इस प्रसंग से ऐसा प्रकट होता है कि खेती तथा गो-पालन का कार्य तब बहुत उत्तम माना जाता था। समृद्ध गृहस्थ इसे रूचिपूर्वक अपनाते थे। वैभव
४. तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ निहाण-पउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वुड्डि-पउत्ताओ; चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ पवित्थर-पउत्ताओ, चत्तारि वया, दसगोसा-हस्सिएणं वएणं होत्था।
आनन्द गाथापति का चार करोड़ स्वर्ण खजाने मे रक्खा था, चार करोड़ स्वर्ण व्यापार में लगा था, चार करोड़ स्वर्ण घर के वैभव-धन, धान्य, द्विपद, चतुष्पद आदि साधन-सामग्री में लगा था ।उसके चार व्रज--गोकुल थे। प्रत्येक गोकुल में दस हजार गायें थीं । विवेचन
यहां प्रयुक्त हिरण्ण [हिरण्य]--स्वर्ण का अभिप्राय उन सोने के सिक्कों से है, जो उस समय प्रचलित रहे हों। सोने के सिक्कों का प्रचलन इस देश में बहुत पुराने समय से चला आ रहा है । भगवान्