Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम अध्ययन : गाथापति आनन्द]
[९ साधना में सशक्त, घोर--अदभुत शक्ति-सम्पन्न, घोरगुण--परम उत्तम, जिन्हें धारण करने में अद्भुत शक्ति चाहिए, ऐसे गुणों के धारक, घोर-तपस्वी--उग्र तप करने वाले, घोरब्रह्मचर्यवासी--कठोर ब्रह्मचर्य के पालक, उत्क्षिप्त-शरीर--दैहिक सार-संभाल या सजावट आदि से रहित, विशाल तेजोलेश्या अपने भीतर समेटे हुए, चतुर्दश पूर्वधर--चौदह पूर्व-ज्ञान के धारक, चार--मति, श्रुत, अवधि तथा मनःपर्याय ज्ञान से युक्त स्थविर आर्य सुधर्मा, पांच सौ श्रमणों से संपरिवृत--घिरे हुए पूर्वानुपूर्व-- अनुक्रम से आगे बढ़ते हुए, एक गांव से दूसरे गांव होते हुए, सुखपूर्वक विहार करते हुए, जहाँ चम्पा नगरी थी, पूर्णभद्र चैत्य था, पधारे। पूर्णभद्र चैत्य चम्पा नगरी के बाहर था, वहाँ भगवान् यथाप्रतिरूप-समुचित-साधुचर्या के अनुरूप आवास-स्थान ग्रहण कर ठहरे , संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए रहे।
उसी समय की बात है, आर्य सुधर्मा के ज्येष्ठ अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार, जो काश्यप गोत्र में उत्पन्न थे, जिनकी देह की ऊंचाई सात हाथ थी, जो समचतुरस्त्रसंस्थान-संस्थित-देह के चारों अंशों की सुसंगत, अंगों के परस्पर समानुपाती, सन्तुलित और समन्वित रचना-युक्त शरीर के धारक थे, जो वज्र-ऋषभ-नाराच-संहनन--सुदृढ़ अस्थिबंधयुक्त विशिष्ट देह-रचनायुक्त थे, कसौटी पर अंकित स्वर्ण-रेखा की आभा लिए हुए कमल के समान जो गौरवर्ण थे, जो उग्र तपस्वी थे, दीप्त तपस्वी-कर्मों को भस्मसात् करने में अग्नि के समान प्रदीप्त तप करने वाले थे, तप्त तपस्वी-जिनकी देह पर तपश्चर्या की तीव्र झलक थी, जो महातपस्वी, प्रबल, घोर, घोर-गुण, घोर-तपस्वी, घोर-ब्रह्मचारी, उत्क्षिप्त-शरीर एवं संक्षिप्त-विपुल-तेजोलेश्य थे, स्थविर आर्य सुधर्मा के न अधिक दूर, न अधिक निकट संस्थित हो. घटने ऊंचे किये. मस्तक नीचे किए, ध्यान की मुद्रा में, संयत और तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित थे।
तब आर्य जम्बू अनगार के मन में श्रद्धापूर्वक इच्छा पैदा हुई, संशय--अनिर्धारित अर्थ में शंका-जिज्ञासा एवं कुतूहल पैदा हुआ। पुनः उनके मन में श्रद्धा का भाव उमड़ा, संशय उभरा, कुतूहल समुत्पन्न हुआ। वे उठे, उठकर जहाँ स्थविर आर्य सुधर्मा थे, आए। आकर स्थविर आर्य सुधर्मा को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा की, वन्दन नमस्कार किया। वैसा कर भगवान् के न अधिक समीप, न अधिक दूर शुश्रूषा-सुनने की इच्छा रखते हुए, प्रणाम करते हुए, विनयपूर्वक सामने हाथ जोड़े हुए, उनकी पर्युपासना-अभ्यर्थना करते हुए बोले--भगवन्! श्रमण भगवान् महावीर ने [जो आदिकर--सर्वज्ञता प्राप्त होने पर पहले पहल श्रुत-धर्म का शुभारम्भ करने वाले, तीर्थकर-श्रमण-श्रमणी-श्रावक-श्राविका रूप चतुर्विध धर्म-तीर्थ के संस्थापक, स्वयंसंबुद्ध--किसी बाह्य निमित्त या सहायता के बिना स्वयं बोध प्राप्त, विशिष्ट अतिशयों से सम्पन्न होने के कारण पुरूषोत्तम, शूरता की अधिकता के कारण पुरूषसिंह, सर्व प्रकार की मलिनता से रहित होने से पुरूषवरपुंडरीक--पुरूषों में श्रेष्ठ श्वेत कमल के समान, पुरूषों में श्रेष्ठ गंधहस्ती के समान, लोकोत्तम, लोक-नाथ--जगत् के प्रभु, लोक-प्रतीप-लोक-प्रवाह के प्रतिकूलगामी-अध्यात्म-पथ पर गतिशील, अथवा लोकप्रदीप अर्थात् जनसमूह को प्रकाश देने वाले, लोक-प्रद्योतकर--लोक में धर्म का उद्योत फैलाने-वाले, अभयप्रद, शरणप्रद, चक्षुःप्रद-- अन्तर-चक्षु खोलने वाले, मार्गप्रद, संयम-जीवन तथा बोधि प्रदान करने वाले, धर्मप्रद,धर्मोपदेशक,