Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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पहनाते थे। चांदी की घंटियां गले में बांधते थे । उन्हें सुन्दर रूप में सजाते थे। सातवें अध्ययन में अमित्रा के धार्मिक यान का यहाँ वर्णन आया है, उससे यह प्रकट होता है ।
भोजन के बाद सुपारी, पान, पान के मसाले आदि सेवन करने की भी लोगों में प्रवृत्ति थी ।
प्रस्तुत गन्थ में वर्णित दस श्रावकों में से नौ के एक-एक पत्नी थी । महाशतक के तेरह पत्त्रियां थी। उससे यह प्रकट होता है कि उस समय बहुपत्नीप्रथा का भी कहीं कहीं प्रचलन था । पितृगृह से कन्याओं का विवाह के अवसर पर सम्पन्न घरानों में उपहार के रूप में चल, अचल सम्पत्ति देने का रिवाज था, जिस पर उन्ही [ पुत्रियों ] का अधिकार रहता । महाशतक की सभी पत्नियों को वैसी सम्पत्ति प्राप्त थी । जहाँ अनेक पत्नियाँ होती, वहाँ सौतियां डाह भी होता, जो महाशतक की प्रमुख पत्नी रेवती के चरित्र से प्रकट है। उसने अपनी सभी सौतों की हत्या करवा डाली और उनके हिस्से की सम्पत्ति हड़प ली
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प्रायः प्रत्येक नगर के बाहर उद्यान होता जहाँ सन्त महात्मा ठहरते । ऐसे उद्यान लोगों के सार्वजनिक उपयोग के लिए होते।
छठे और सातवें अध्ययन में सहस्त्राम्रवन - उद्यान का उल्लेख है। ऐसा प्रतीत होता है, ऐसे उद्यान भी उन दिनों रहे हों, जहाँ आम के हजार पेड़ लगे हों। यह सम्भव भी है क्योंकि जिन प्रदशों का प्रसंग है, वहाँ आम की बहुतायत से पैदावार होती थी, आज भी होती है ।
ध्यान, चिन्तन, मनन तथा आराधना के लिए शान्त स्थान चाहिए । अतः श्रमणोपासक विशेष उपासना हेतु पोषधशालाओं का उपयोग करते । इसके अतिरिक्त ध्यान एवं उपासना के लिए वे वाटिकाओं के रूप में अपने व्यक्तिगत शान्त वातावरणमय स्थान भी रखते । छठे और सातवें अध्ययनः में कुण्डकौलिक और सकडालपुत्र द्वारा अपनी अशोक वाटिकाओं में जाकर धर्मोपासना करने का उल्लेख है ।
श्रमणोपासक आनन्द के व्रतग्रहण के सन्दर्भ में उपभोग - परिभोग- परिमाणव्रत के अतिचारों के अन्तर्गत १५ कर्मदानों का वर्णन है, जो श्रावक के लिए अनाचरणीय हैं। वहाँ जिन कामों का कर्मादानों में पाँचवाँ स्फोटन - कर्म है। इसमें खानें खोदना, पत्थर फोड़ना आदि का समावेश है । इससे प्रकट होता है कि खनिज व्यवसाय उन दिनों प्रचलित था । समृद्ध व्यापारी ऐसे कार्यो के ठेके लेते रहे हों, उन्हें करवाने की व्यवस्था करते रहे हों ।
हाथी-दाँत, हड्डी, चमड़े आदि का व्यापार भी तब चलता था, जो दन्त - वाणिज्यसंज्ञक छठे कर्मादान में व्यक्त है ।
दास-प्रथा का तब भारत में प्रचलन था । दसवाँ कर्मादान केश-वाणिज्य इसका सूचक है। - वाणिज्य में गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊँट, घोड़े आदि जीवित प्राणियों की खरीद-बिक्री के साथसाथ दास-दासियों की खरीद-बिकी का धन्धा भी शामिल था । सम्पत्ति में चतुष्पद प्राणियों के साथसाथ द्विपद प्राणियों की भी गिनती होती थी । द्विपदों में मुख्यतः दास-दासी आते थे। इस काम को कर्मादान के रूप में स्वीकार करने का यह आशय है कि एक श्रावक दास प्रथा के कुत्सित काम से
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