Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
View full book text
________________
रहे, भारतीय चिन्तनधारा में यह स्वीकृत नहीं है । वहाँ यह वाञ्छनीय है कि जब पुत्र घर का, परिवार का, सामाजिक सम्बन्धों का दायित्व निभाने योग्य हो जाएँ, व्यक्ति अपने जीवन का अन्तिम भाग आत्मा के चिन्तन, मनन, अनुशीलन आदि में लगाए । वैदिकधर्म में इसके लिए ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास-यों चार आश्रमों का क्रम । ब्रह्मचर्याश्रम विद्याध्ययन और योग्यता - संपादन का काल है । गृहस्थाश्रम सांसारिक उत्तरदायित्व - निर्वाह का समय है । वानप्रस्थाश्रम गृहस्थ और संन्यास के बीच का काल है, जहाँ व्यक्ति लौकिक आसक्ति से क्रमशः दूर होता हुआ सन्यास के निकट पहुँचने का प्रयास करता है।'ऋणानि त्रीण्यपाकृत्य मनो मोक्षे निवेशयेत्' ऐसा वैदिकधर्म में जो शास्त्र - वचन है, उसका आशय ब्रह्मचर्याश्रम द्वारा ऋषिऋण द्वारा पितृऋण तथा वानप्रस्थाश्रम द्वारा देवऋण अपाकृत कर चुकाकर मनुष्य अपना मन मोक्ष में लगाए । अर्थात् सांसारिक वाञ्छाओं से सर्वथा पृथक् होकर अपना जीवन मोक्ष की आराधना में लगा दे। जैनधर्म में ऐसी आश्रम व्यवस्था तो नहीं है पर श्रावक-जीवन में क्रमशः मोक्ष की ओर आगे बढने का सुव्यवस्थित मार्ग है। श्रावक - प्रतिमाएँ इसका एक रूप है, जहाँ गृही साधक उत्तरोत्तर मोक्षोन्मुखता, तितिक्षा और संयत जीवन-चर्या में गतिमान् रहता है ।
भगवान् महावीर के ये दसों श्रावक विवेकशील थे । भगवान् से उन्होंने जो पाया, उसे सुनने तक ही सीमित नहीं रखा, जो उन सब द्वारा तत्काल श्रावक - व्रत स्वीकार कर लेने से प्रकट है। उन्होंने मन ही मन यह भाव भी संजोए रखा कि यथासमय लौकिक दायित्वों, सम्बन्धों और आसक्तियों से मुक्त होकर वे अधिकांशतः धर्म की आराधना में अपने को जोड़ दें । आनन्द के वर्णन में उल्लेख है कि भगवान् महावीर से व्रत ग्रहण कर वह १४ वर्ष तक उस ओर उत्तरोत्तर प्रगति करता गया । १५ वें वर्ष में एक रात उसके मन में विचार आया कि अब उसके पुत्र योग्य हो गये हैं । अब उसे पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों से अवकाश ले लेना चाहिए।
उस समय के लोग बड़े दृढनिश्चयी थे । सद् विचार को क्रियान्वित करने में वे विलम्ब नहीं करते थे। आनन्द ने भी विलम्ब नही किया दूसरे दिन उसने अपने पारिवारिकों, मित्रों तथा नागरिकों को दावत दी, अपने विचार से सब को अवगत कराया और उन सब के साक्ष्य में अपने बड़े पुत्र को पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्व सौंपा। बहुत से लोगों को दावत देने में प्रदर्शन की बात नही थी । उसके पीछे एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। समाज के मान्य तथा सम्भ्रान्त व्यक्तियों के बीच उत्तरदायित्व सौंपने का एक महत्त्व था । उन सबकी उपस्थिति में पुत्र द्वारा दायित्व स्वीकार करना भी महत्त्वपूर्ण था । यों विधिवत् दायित्व स्वीकार करने वाला उससे मुकरता नहीं। बहुत लोगों का लिहाज, उनके प्रति रही श्रद्धा, उनके साथ के सुखद सम्बन्ध उसे दायित्व - निर्वाह की प्रेरणा देते रहते हैं ।
जैसा आनन्द ने किया, वैसा ही अन्य नौ श्रमणोपासकों ने किया । अर्थात् उन्होंने भी सामुहिक भोज के साथ अनेक सम्भ्रान्त जनों की उपस्थिति में अपने-अपने पुत्रों को सामाजिक व पारिवारिक कार्यों के संवहन में अपने-अपने स्थान पर नियुक्त किया। बहुत सुन्दर चिन्तन तथा तदनुरूप आचरण उनका था। इस दृष्टि से भारत का प्राचीन काल बहुत ही उत्तम और स्पृहणीय था। महाकवि कालिदास ने अपने सुप्रसिद्ध महाकाव्य रघुवंश में भगवान् राम के पूर्वज सूर्यवंशी राजाओं का वर्णन करते हुए लिखा है-
[२६]