Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ध्यान में स्थित पति को विचलित करना चाहती है। एक ओर त्याग का तीव्र ज्यातिर्मय सूर्य था, दूसरी
ओर पाप की कालिमामयी तमिस्त्रा। त्याग की ज्योति को ग्रसने के लिए कालिमा खूब झपटी पर वह सर्वथा अकृतकार्य रही। रेवती महाशतक को नहीं डिगा सकी। पर, एक छोटी-सी भूल महाशतक से तब बनी। रेवती की दुश्चेष्टओं से उसके मन में क्रोध का भाव पैदा हुआ। उसे अवधिज्ञान प्राप्त था। रेवती की सात दिन के भीतर भीषण रोग, पीडा एवं वेदना के साथ होने वाली मृत्यु की भविष्यवाणी उसने अपनी अवधिज्ञान के सहारे कर दी। मृत्यु के भय से रेवती अत्यन्त व्यकक्त किया जाए, यह वांछनीय नहीं है। जो सत्य दुसरों के मन में भय और आतंक उत्पन्न कर दे, वक्ता को वह बोलने में विशेष विचार तथा संकोच करना होता है। इसलिए भगवान् महावीर ने अपने प्रमुख अन्तेवासी गौतम को भेजकर महाशतक को सावधान किया। महाशतक पुनः आत्मस्थ हुआ।
___ छठे अध्ययन का चरितनायक कुण्डकौलिक एक तत्त्वनिष्णात श्रावक के रूप में चित्रित किया गया है। एक देव और कुण्डकौलिक के बीच नियतिवाद से देव निरूत्तर हो जाता है। भगवान् महावीर विज्ञ कुण्डकौलिक का नाम श्रमण-श्रमणियों के समक्ष एक उदाहरण के रूप में उपस्थित करते हैं। कुण्डकौलिक का जीवन श्रावक-श्राविकाओं के लिए तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में आगे बढ़ने हेतु एक प्रेरणास्पद उदाहरण है। यथार्थ की ओर रूझान
उपासकदशा के दसों अध्ययनों के चरितनायकों का लौकिक जीवन अत्यन्त सुखमय था। उन्हें सभी भौतिक सुख-सुविधाएँ प्रचुर और पर्याप्त रूप से प्राप्त थी। यदि यही जीवन का प्राप्य होता तो उनके लिए और कुछ करणीय रह ही नहीं जाता। क्यों वे अपने प्राप्त सुखों को घटाते-घटाते बिलकुल मिटा देते? पर वे विवेकशील थे। भौतिक सुखों की नश्वरता को जानते थे। अत: जीवन का यथार्थ प्राप्य. जिसे पाए बिना और सब कछ पा लेने अन्तर्विडम्बना के अतिरिक्त और कुछ होते नहीं, को प्राप्त करने की मानव में तो एक अव्यक्त उत्कण्ठा होती है, वह उन सबमें तत्क्षण जाग उठती है, ज्यों ही उन्हें भगवान् महावीर का सान्निध्य प्राप्त होता है। जागरित उत्कण्ठा जब क्रियान्विति के मार्ग पर आगे बढ़ी तो उत्तरोत्तर बढ़ती ही गईऔर उन साधकों के जीवन में एक ऐसा समय आया, जब वे देहसुख को मानो सर्वथा भूल गये। त्याग में, आत्मस्वरूप के अधिगम में अपने आपको उन्होंने इतना खो दिया कि अत्यन्त कृश और क्षीण होते जाते अपने शरीर की भी उन्हें चिन्ता नहीं रही। भोग का त्याग में यह सुखद पर्यवसान था। साधारणतया जीवन में ऐसा सध पाना बहुत कठिन लगता है। सुख-सुविधा और अनुकूलता के वातावरण में पला मानव उन्हें छोड़ने की बात सुनते ही घबरा उठता है। पर, वह दुर्बलचेता पुरूषों की बात है। उपनिषद् के ऋषि ने 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' यह जो कहा है, बड़ा मार्मिक है। बलहीन-अन्तर्बलरहित व्यक्ति आत्मा को उपलब्ध नहीं कर सकता। पर, बलशीलअन्तःपराक्रमशाली पुरूष वह सब सहज ही कर डालता है, जिससे दुर्बल जन काँप उठते हैं। सामाजिक दायित्व से मुक्ति : अवकाश
मनुष्य जीवन भर अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा लौकिक दायित्वों के निर्वाह में ही लगा
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