Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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इसके महाव्रतमय जीवन में अनुप्राणित हाकर स्वयं भी साधना या उपासना के पथ पर आरूढ होता है, वह श्रमणोपासक है। उपासना या आराधना के सधने का मार्ग यही है। केवल कुछ पढ़ लेने से, सुन लेने से जीवन बदल जाय, यह संभव नहीं होता। साधनामय, महाव्रतमय-उच्च साधनामय जीवन का सान्निध्य, दर्शन-व्यक्ति के मन में एक लगन और टीस पैदा करते हैं, उस ओर बढ़ने की। अतः गृही साधक के लिए जो श्रमणोपासक शब्द का प्रयोग हुआ, वह वास्तव में बड़ा अर्थपूर्ण है।
ऐसे ही सन्दर्भ में छान्दोग्योपनिषद् में बड़ी सुन्दर व्याख्या है। वहाँ लिखा है
"साधनोद्यत व्यक्ति में जब बल जागरित होता है, वह उठता है अर्थात् भीतरी तैयारी करता है। उठकर परिचरण करता है-आत्मबल संजोकर उस ओर गतिमान् होता है। फिर वह गुरू के समीप बैठता है, उनका जीवन देखता है, उनसे [धर्म-तत्त्व का] श्रवण करता है, सुने हुए पर मनन करता है, उद्बुद्ध होता है और जीवन में तदनुरूप आचरण करता है, ऐसा होने पर ज्ञात को आचरित कर वह विज्ञाता-विशिष्ट ज्ञाता कहा जाता है।"
उपनिषत्कार ने साधना के फलित होने का मनोवैज्ञानिक दष्टि से बहत ही सन्दर विश्लेषण किया है। श्रमणोपासक की भी भूमिका लगभग ऐसी ही होती है। केवल श्रमण के पास बैठने से वह श्रमणोपासक नहीं बन जाता, न वह सुनने मात्र से ही वैसा हो जाता है, श्रमणोपासकत्व का तो यथार्थ कियान्वयन तब होता है, जब वह असत् से विरत होता है, सत् में अनुरत होता है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में वह सम्यक् सावध का प्रत्याख्यान करता है, व्रत स्वीकार करता है।
श्रमणोपासक के लिए एक दूसरा शब्द श्रावक है । वह शब्द 'श्रु' धातु से बना है। श्रावक का अर्थ सुनने वाला है। यहाँ श्रावक-सुननेवाला लाक्षणिक शब्द है। श्रमण का उपदेश सुन लेने से वह श्रोता तो होता है पर श्रावक नहीं हो जाता। उसे श्रावक संज्ञा तभी प्राप्त होती है, जब वह व्रत अंगीकार करता है। श्रावक के व्रतः एक मनोवैज्ञानिक क्रम
जैनधर्म में श्रमणोपासक या श्रावक के व्रत-स्वीकार का क्रम भी बड़ा वैज्ञानिक है। वह अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपिरग्रह का स्वीकार तो करता है पर सीमित रूप में। अर्थात् अपने में जितना आत्मबल और सामर्थ्य संजो पाता है, तदनुरूप कुछ अपवादों के साथ वह इन व्रतों को ग्रहण करता है। यों श्रावक द्वारा स्वीकार किये जाने वाले व्रत श्रमण के व्रतों से परिपालन की दृष्टि से न्यून या छोटे होते हैं, इसलिए उन्हें अणुव्रत कहा जाता है। व्रत अपने आपमें महत् या अणु नहीं होता। महत् या अणु विशेषण व्रत के साथ पालक की क्षमता या सामर्थ्य के कारण लगते हैं। जैसा ऊपर कहा गया है, जहाँ साधक अपने आत्मबल में कमी या न्यूनता नही देखता, वह सम्पूर्ण रूप में, सर्वथा व्रत
१. स यदा बली भवति, अथ उत्थाता भवति, उत्तिष्ठन् परिचरिता भवति, परिचरन् उपसत्ता भवति, उपसीदन् द्रष्टा भवित, मन्ता भवति, बोद्धा भवित, कर्ता भवित, विज्ञाता भवति।
-छान्दोग्योपनिषद ७.८.१
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