Book Title: Agam 07 Ang 07 Upashak Dashang Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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ये सात उपांगसूत्र एवं उत्तराध्ययन-यह एक मूलसूत्र यों कुल तेरह सूत्र आते हैं।
गणितानुयोग में जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, चन्द्रपज्ञप्ति तथा सूर्यपज्ञप्ति-ये तीन उपांगसूत्र आते हैं।
द्रव्यानुयोग में सूत्रकृत्, स्थान, समवाय तथा व्याख्याप्रज्ञप्ति-ये चार अंगसूत्र, जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना-ये दो उपांगसूत्र एवं नन्दी व अनुयोगद्वार, ये दो मूलसूत्र-यों कुल आठ सूत्र आते हैं। उपासकदशा
प्रस्तुत विवेचन के परिपार्श्व में उपासकदशा धर्मकथानुयोग का भाग है। इसके नाम से प्रकट है, इसमें उपासकों या श्रावकों के कथानक हैं।
जैनधर्म में साधना की दृष्टि से श्रमण-संघ तथा श्रमणोपासक-धर्म के रूप में दो प्रकार से विभाजन किया गया है। श्रमण शब्द साधु या सर्वत्यागी संयमी के अर्थ में प्रयुक्त है। श्रमण के लिए आत्मसाधना ही सर्वस्व है। दैहिक जीवन का निर्वाह होता है, यह एक बात है पर साधना की कीमत पर श्रमण वैसा नहीं कर सकता। शरीर चला जाए, यह उसे स्वीकार होता है पर साधना में जरा भी आंच आए, यह सब किसी भी दशा में स्वीकार नहीं करता। यही कारण है कि उसकी व्रताराधनासंयमपालन में विकल्प का स्थान नहीं है । जिस दिन वह श्रमण-जीवन में आता है, "सव्वं सावजं जोगं पच्चक्खामि" अर्थात् आज से सभी सावद्य-पापसहित योगों-मानसिक, वाचिक व कायिक प्रवृत्तियों का त्याग करता हूँ, इस संकल्प के साथ आता है। वह मन, वचन, काय-इन तीनों योगों तथा कृत, कारित, अनुमोदित-इन तीनों करणों द्वारा हिंसा, असत्य, चौर्य, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह से सर्वथा विरत हो जाता है। वह न कभी हिंसा करता है, न करवाता है, न अनमोदन करता है। ऐसा वह मन से सोचता नहीं. वचन से बोलता नहीं। सभी व्रतों पर यही क्रम लागू होता है । अपवाद या विकल्पशून्य होने से यहाँ व्रत · महाव्रतों की संज्ञा ले लेते हैं।
महर्षि पतञ्जलि ने भी उन यमों या व्रतों को जिनमें जाति, देश, काल, समय आदि की सीमा नहीं होती, जो सार्वभौम-सब अवस्थाओं में पालन करने-योग्य होते हैं अर्थात् जहाँ किसी भी प्रकार का अपवाद स्वीकृत नहीं है, महाव्रत कहा है।' गृही उपासक का साधनाक्रम
___ महाव्रतों की समग्र, परिपूर्ण या निरपवाद आराधना हर किसी के लिए शक्य नहीं है। कुछ ही दृढचेता, आत्मबली और संस्कारी पूरूष ऐसे होते हैं, जो इसे साध सकने में समर्थ हों।
महाव्रतों की साधना की अपेक्षा हलका, सुकर एक और मार्ग है, जिसमें साधक अपनी शक्ति के अनुसार ससीम रूप में व्रत स्वीकार करता है। ऐसे साधक के लिए जैन शास्त्रों में श्रमणोपासक शब्द का व्यवहार है। श्रमण और उपासक-ये दो शब्द इसमें हैं । उपासक का शब्दिक अर्थ उप-समीप बैठने वाला २ है। जो श्रमण की सन्निधि में बैठता है अर्थात् श्रमण से सद् ज्ञान तथा व्रत स्वीकार करता है, १. जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम् । पातञ्जलयोगदर्शन साधनापाद ३१ १. उप-समीपे, आस्ते-इत्युपासकः।
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