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परमात्मपथ का दर्शन
पुरुषार्थ ने होता है । आत्मा जब तीव्र स्वाभाविक पुरुषार्थ करता है, तब इन.. कर्मो पर विजय प्राप्त करके अपने लिए अजर-अमर-अक्षय स्थान, भी प्राप्त कर लेता है। इनी कारण आत्मा पुरुष (युम्पार्थ करने वाला) कहलाता है। वीतराग परमात्मा (अजितनाथ) से चैतन्यमम्पन्न साधक कहता है-आप. तो स्वाभाविक परम पुस्पार्थ करके कर्मों पर विजय पा कर परमपुल्प कहलाए । लेकिन मेरी स्थिति देखते हुए मुझे लगता है कि मेरे लिए पुरुष नाम सार्थक नहीं है। चू नि मैंने वीतराग परमात्मा के आदर्ण को तथा उनको प्रियतम केन ने स्वीकार किया है, नव मेरा यह कर्तव्य हो जाता है कि मैं आपका मार्ग देख कर आपके मार्ग पर आ जाऊँ। जो वीतराग परमात्मा के पैरो तले हैं, उन्हें मैंने सिर पर चढा लिये है , अत आपके सहश बनने का खरा मार्ग यही है कि वीतराग जिन मार्ग मे चले है, उस रास्ते को देखू और उनके पथ का अनुमरण करूँ। इसी प्रकार करने पर मेरा 'पुरुष' नाम सार्थक होगा। इसी दृप्टि ने अन्तरान्मा ने वीतराग परमात्मा (अजितनाथ) के मार्ग के अवलोकन करने का निर्णय किया। ___ यहाँ अवलोकन मे केवल जिनामातृप्ति ही नहीं, अपने पुरपार्थ को अवकाश देने की भी तीव्र इच्छा प्रतीत होती है । इसीलिए अन्तरात्मा वीतराग परमात्मा के आदर्श मार्ग के दर्शन के लिए मुसज्ज होता है , वहाँ कैने-कैसे अनुभव होते हैं, वह स्वय प्रकट करता है
___ मार्ग-अवलोकन में पहली कठिनाई चरमनपरणे करी मारग जोवतां रे, भूल्यो सयल संसार । जेरणे नयरणे करी मारग जोइए रे, नयण ते दिव्य-विचार ॥पंथड़ो॥२॥ . .
. अर्थ चमड़े को आँखो मे आपका (बीतराग परमात्मा का) नार्ग देखते हुए तो, सारा ससार भ्रान्त हो गया है ।- अजितनाय परमात्मा जिस मार्ग ने 'अजित' (अजेय) बने हैं, उस मार्ग को जिस नेत्र से देखना चाहिए, वह दिव्यविचाररूपी नेत्र (ज्ञाननेत्र) है। . . .
भाष्य
- . चर्मचक्षुयो से वीतरागमार्ग के दर्शन अशक्य हैं . न्यूल आँखो से परमात्मा के मार्ग, का दखने वाले लोग उनके प्रतीक के,