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[ १६ ]
कुछ
लगभग ४० वर्ष पूर्व शिक ने एक मत प्रचलित किया था कि लोहित ज्वर के उपसर्ग के ही दिन पश्चात् उत्पन्न होने वाले तीव्र गुच्छिकीय वृक्कपाक का सम्भावित हेतु विशिष्ट प्रतिद्रव्यों की रक्त में उन्मुक्तता हो । यद्यपि प्रत्यक्षतया इसका कोई प्रमाण अभी उपलब्ध नहीं हो सका है। पर किसी मूषक या शशक के वृक्क को सूक्ष्म भागों में विभक्त कर उसे किसी दूसरे वर्ग के उसी प्राणी में सूचीवेध द्वारा प्रविष्ट करने से प्राप्त लसी का मूल जाति में टीका लगा देने से वृक्क ऊति में बहुत क्षति उत्पन्न हो जाती है । यह क्षति गुच्छिकीय भाग में पहले आरम्भ होती है । ये विक्षत जो मूषक या शशक में बनते हैं वे मानवीय वृक्कपाक के लक्षणों से पर्याप्त मिलते हैं जो शिक के मत का एक अंश में प्रतिपादन कर देते हैं पर जब तक स्पष्ट प्रमाण नहीं मिलते तब तक इस श्रृंखला को जोड़ा नहीं जा सकता ।
कैनावे तथा उसके सहयोगियों ने स्वस्थवृत्त, उद्यम और सामाजिक स्तर का सम्बन्ध कर्कट की उत्पत्ति से जोड़ने का यत्न किया है। इंगलेण्ड और वेल्स में फुफ्फुस कर्कट १९२१ की अपेक्षा १९४५ में सोलहगुना बढ़ा है। यह न सड़कों पर तारकोल मिश्रित वायु के श्वसन से है और न atra से उत्पन्न धूम्र के श्वसन के कारण है इसका प्रत्यक्ष कारण कुछ और ही प्रतीत होता है । इन कारणों में तम्बाकू, पैट्रोल और डीजेल गाड़ियों से उत्पन्न गन्ध तथा अन्य अनेक हो सकते हैं । गर्भाशय कर्कट के सम्बन्ध में इसी विद्वान् की गवेषणा यह रही है कि यहूदी स्त्रियों की अपेक्षा गैर यहूदी स्त्रियों में यह अधिक पाया जाता है क्योंकि मासिकधर्म के आरम्भ होने के उपरान्त बारह दिन यहूदी स्त्री का अपने पति के साथ संसर्ग नहीं होता। -स्तर के कुल में स्त्री का जन्म हुआ है उसका भी प्रभाव इस कर्कट की उच्च वंश के पुरुषों में वृषणकर्कट का अभाव तथा निम्न आर्थिकस्तर के व्यक्तियों में उसकी उपस्थिति स्पष्टतः कर्केट और आर्थिक स्तर का सम्बन्ध स्थापित करने का मार्ग खोल देती है । यकृत् प्राथमिक कर्कटों पर लिखते हुए बर्मन ने भी अफ्रीका के बण्टू लोगों का उदाहरण देते हुए स्वीकार किया है कि वातावरण इस कर्कट की उत्पत्ति में जितना कारण है उतना वंश नहीं। फिण्डले ने पश्चिमी अफ्रीका निवासियों पर कार्य करके यकृद्दाल्युत्कर्ष का कारण अपूर्ण आहार ठहराया हैं । - यद्दा ल्युत्कर्ष के आगे की अवस्था यकृत् कर्कट ही होती है ।
इसके अतिरिक्त किस आर्थिक
उत्पत्ति में कार्य करता है ।
जिसे हम हृद्भेद या हार्टफेल्योर कहते हैं उसके सम्बन्ध में शापशेफर ने तथा फ्री डिलवर्ध ने पर्याप्त कार्य किया है। इस रोग की तीव्रावस्था के तीन रूप हमारे सामने आते हैं । एक जिसमें रक्त संवहन का सहसा अवपात होता है । यह रक्तस्राव या क्रियावरोध ( शौक ) के कारण होता है । इसमें सिराजन्य रक्त लौट कर हृदय तक नहीं पहुँचने पाता । जिसके कारण हृदय के कोष्ठकों का रक्त से भरना तथा उसका आगे बढ़ना रुक जाता है । मृत्यूत्तर परीक्षा में महासिराएँ खाली मिलती हैं और हृदय संकुचित हुआ देखा जाता है। दूसरा तीव्र हृद्भेद कहा जाता है । इसकी उत्पत्ति हृत्पेशी का सहसा कार्य करना बन्द करना होता है । हृत्पेशीय ऋणास्त्र के कारण अथवा हृदय के फुफ्फुसीय अन्तःशल्यता के कारण हृदय का खाली होना रुक जाता है । इन अवस्थाओं में हृदय में रक्त की मात्रा बढ़ती जाती है जो उसे विस्फारित कर देती है जिसके कारण महासिराओं में निपीड़ बहुत अधिक बढ़ जाता है जिसके कारण उनमें अतिशय तनाव हो जाता है । मृत्युत्तर परीक्षण में हृदय में सिराज अधिरक्तता खूब देखने में आती है। तीव्र हृद्भेद का तीसरा कारण होता है जिसे परिहृत् भार कहा जाता है। जब परिहृत् या हृदयावरण में द्रुत गति - से तरल का संचय होने लगता है विशेष कर जब उसमें रक्तस्राव होने लगता है तब भी हृद्भेदोत्पत्ति हो जा सकती है। तरल का संचय हृदय के बाहर निपीड़ बढ़ा देता है । जब यह निपीड़ - इतना अधिक होता है कि सिराजनिपीड़ से अधिक हो जाता है तो इसके कारण हृदय बिस्फारा
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