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[ १५. ]
रोक सके । इसके कारण एक तो उन कोशाओं के आघात के कारण दूसरे कोशाओं की क्षति के कारण उत्पन्न हिस्टैमीन, एडीनोसीन तथा एसीटिलकोलीन के कारण भीषण परमहृषता की उपलब्धि हो जाती है । जिन प्रायोगिक पशुओं का सामान्य हृषीकरण कर दिया जाता है उनमें प्रतिजन का प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य से संयोग विविध शारीरिक ऊतियों में होता है जो मारक स्वरूप के परमहृषता के लक्षणों को उत्पन्न करने में समर्थ होता है । पर जहाँ प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य त्वचा या श्वसनिकीय पेशियों में ही स्थानिक रूप में निबद्ध हैं तो त्वचा या श्वसनसंस्थान के उपद्रव दृष्टिगोचर होंगे। विविध लक्षणों की भीषणता प्रतिजन की प्रकृति पर उतनी निर्भर नहीं रहा करती जितनी कि वह किस मार्ग से उसका गमन हो रहा है-मुख से, पेशीवेध से, सिरावेध से इत्यादि तथा प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य किन कोशाओं में वितरित हैं इन दो बातों पर निर्भर करती है।
आधुनिक युग में सूचीवेध द्वारा ओषधियों का बहुत अधिक प्रचार बढ़ गया है जिसके कारण मानवजाति में परमहृषता बहुत अधिक पाई जाने लगी है। फेनाइम के संयोग, पैनीसिलीन, स्थानिक विसंज्ञक पदार्थ, मध्वशि ( इन्सुलीन ), यकृत् सत्त्व, एण्टीटोक्जिक सीरा आदि इसके कारण हैं।
परमहृषता को आजकल कुछ रोगों का हेतु तक स्वीकार किया जाने लगा है। यदि आगे अनुसन्धान ने सहायता दी तो रिउमेटिक फीवर, पोलौआर्टराइटिस नोडोसा तथा एक्यूट नेफ्राइटिस को अनुतीव्र हृष व्रणशोथ (subacute allergic inflammation) नाम दिया जाने लगेगा। क्योंकि तीनों में ही विक्षतों का स्वरूप एक दूसरे से मिलता जुलता होता है और तीनों ही मानव या मानवेतर प्राणियों में परमहषता के विक्षतों के साथ भी समानता रखते हैं। इन तीनों का कारक कौन प्रतिजन है इसकी कभी पूरी पूरी खोज नहीं हो सकी है । आमवातज्वर का कर्ता मालागोलाणु स्वयं किसी भी आमवातीय विक्षत में प्रत्यक्ष नहीं प्राप्त हुआ है इसके कारण यह विश्वास दृढ़ होता जारहा है कि उस जीवाणु के कारण एक विशिष्ट विषहृषजन (specific toxallegen ) तैयार होकर विविध प्रतिक्रियाएं उपस्थित करता है। पर यह मालागोलाणु स्वयं जिस प्रकार का आमवातज्वर उत्पन्न करता है ठीक वैसे ही लक्षणों से युक्त ज्वर ग्रहणी, विषमज्वर केवल आघात तथा सैण्डफ्लाई फीवर कर सकता है ऐसा कोपमैन, ग्लेजबक, लौमसन आदि का विचार है। इसका अभिप्राय यही हुआ कि मालागोलाणु इन लक्षणों के उत्पन्न करने में विशिष्ट कारण न होकर गौण कारण है। तथा परमहृषता ही मुख्य कारण है। एक और विचार वैज्ञानिकों के सामने है कि मनुष्य की प्रोभूजिन किन्ही अज्ञात कारणों से विदेशी प्रोभूजिन या प्रतिजन का रूपधारण करके भी परमहृषता का कारण होती है। कुछ भी हो आमवातजज्वर के सम्बन्ध में परमहृषता के द्वारा कितने लक्षणों का समाधान हो जाने पर भी यह विषय अभी विवादास्पद ही है।
पौली आर्टराइटिस नोडोसा की उपस्थिति सल्फावर्ग की ओषधियों के प्रयोग के पश्चात् अधिक देखने में आई है ऐसा रिच का कथन है । इस रोग में मध्यम और लघुकाय धमनियों में विक्षत बनते हैं उपसिप्रियकोशाओं की वृद्धि होती है। ये विक्षत वृक्कों तथा हृदय में अधिक मिलते हैं अन्यत्र इनकी लघुता बाधक बनती है। उन मानवेतर प्राणियों की क्षुद्र धमनियों में ठोक इसी प्रकार के विक्षत बनते हुए बाउटन ने देखे हैं जिन पर भयानक परमहृषता की प्रतिक्रियाएँ होने पर भी जो बच गये थे । मनुष्य में ये विक्षत परमहृषता के परिणामस्वरूप ही होते हैं इसे सिद्ध करना शेष है । इतना तो मिलता है कि जो व्यक्ति विविध विदेशीय सीरा या ओषधियों के प्रति परमहृष थे उन्हीं में ये विक्षत मिले हैं।
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