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[ १४ ] है। विशिष्ट प्रतिद्रव्यों का यह व्यवहार-वैषम्य कई नई दिशाएँ खोल देता है। जिनमें एक यह कि वे रक्त में तथा ऊति तरलों में उन्मुक्तावस्था में प्राप्त होती हैं। तथा दूसरी यह कि शरीर के खास कोशाओं के साथ वे सम्बद्ध हो जाते हैं। इनमें प्रथम उन्मुक्त प्रतिद्रव्य और द्वितीय बद्ध प्रतिद्रव्य कहे जा सकते हैं। एनाफाइलैक्सिस सम्बन्धी किए गये विविध प्रयोगों से प्रतिद्रव्य की ये दोनों अवस्थाएँ परम्हृषता की वैकारिकी पर अच्छा प्रकाश डालती हैं । उन्मुक्त प्रतिद्रव्य तथा प्रतिजन ( antigen) में यदि सम्मिलन उस अवस्था में होता जब वे रक्त या ऊति तरल में स्वतन्त्र हों तो कोई भी प्रतीकार उपस्थित नहीं होता, पर जब बद्ध प्रतिद्रव्य के साथ प्रतिजन मिलता है तो उन स्थानों में, जिनमें प्रतिद्रव्य बद्ध होता है, विशिष्ट क्रिया द्वारा भयंकर परम हृषताजनक लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। यदि व्यक्ति के रक्त में प्रतिद्रव्य पर्याप्त मात्रा में उपस्थित है तो प्रविष्ट किया गया प्रतिजन, जो उससे कम है, सरलतया मिल जाता है और रोगी सक्षम ( immune ) प्रकट होता है। यदि यह प्रतिद्रव्य कम है तो प्रतिजन को दूरस्थ क्षेत्रों में प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य से मिलने जाना पड़ेगा जिस कोशा से बद्ध वह प्रतिद्रव्य है उसको ऐसी क्रिया से क्षति होती है। यही क्षति परमहषताकारक होती है। इस प्रकार सक्षमता या प्रतीकारिता वा रोगापहरण सामर्थ्य जिसे इम्म्यूनिटी कहा जाता है, कहाँ परमहृषता में परिणत हो जाती है इसे भी वैज्ञानिक आज देखने लगे हैं।
ट्यूबरक्युलिन टैस्ट में क्या होता है ? यक्ष्मा में जीवाणुओं के प्रतिजन के कारण शरीर में उन्मुक्त प्रतिद्रव्यों की उपस्थिति कम रहती है। जब व्यक्ति जिसके शरीर में यक्ष्मा का उपसर्ग है उसे जब विशिष्ट प्रोभूजिन प्रतिजन का टीका लगाया जाता है तो इस प्रतिजन को नष्ट करने लायक उसके रक्त या अति तरल में उन्मुक्त प्रतिद्रव्य रहता नहीं है जिसके परिणामस्वरूप वह पास के कोशाओं में उपस्थित प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य से मिलता है। ये कोशा क्षतिग्रस्त होकर टयुबरक्युलिन टेस्ट का अस्त्यात्मक लाल चिह्न (erythema) उपस्थित कर देते हैं। यदि यह विशिष्ट प्रतिजन धीरे धीरे आकर प्रतिवद्ध प्रतिद्रव्य के साथ सम्मिलित हो तो इतना उपद्रव उपस्थित न हो। साथ ही ऊतियाँ भी विहृष ( desensitised ) हो जावेंगीं। एक बार विहृषता पैदा कर देने पर फिर प्रतिजन को कितनी ही शीघ्रता से प्रविष्ट किया जावे परमहृषता के भीषण लक्षण उपस्थित नहीं होते यह स्थिति तभी तक रहती है जब तक अति विहृष है । कुछ सप्ताहों में यह स्थिति समाप्त हो जाती है और आगे पुनः विशिष्ट प्रतिजन परमहृषता उपस्थित कर सकता है।
राइट ने परमहृषता कल्पना स्पष्ट करते हुए लिखा है कि प्राथमिक हृषता किसी विप्रकृत विदेशी प्रोभूजिन या किसी प्रतिक्रियात्मक रासायनिक द्रव्य के ऊतियों में प्रवेश पर निर्भर करती है। किस प्रकार व्यक्तिविशेष के शरीर में स्थित प्रोभूजिन के साथ प्रविष्ट द्रव्य संयुक्त होता है और संयुक्त होकर कितना विदेशीपन वह उपस्थित करता है इस पर भी बहुत कुछ निर्भर है। एक बार या कई बार द्रव्य विशेष के प्रवेश के कारण विशिष्ट प्रतिद्रव्य का निर्माण व्यक्ति के जालकान्तश्छदीय संस्थान में होने लगता है। रक्तप्रवाह के द्वारा निर्मित प्रतिद्रव्य शरीर भर में वितरित कर दिया जाता है। जब अति तरलों तक वह पहुँचता है तो कुछ तो अनैच्छिक पेशियों में और कुछ अधिचर्म के कोशाओं में अनेक वर्षों तक प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य के रूप में पड़ा रहता है। उन्मुक्त प्रतिद्रव्य कुछ काल तक तो रक्त में प्रवाहित रहता है पर आगे चल कर वह कम होता चला जाता है और जब कभी कोई प्रतिजन शरीर में अचानक प्रवेश करता है तो उससे रक्षा करने वाले उन्मुक्त प्रतिद्रव्य का पूर्णतः अभाव हो जाता है जो उसके साथ मिलकर उसे प्रभाव शून्य कर सके और इसका प्रतिबद्ध प्रतिद्रव्य से संयोग
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