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[ १२ ]
phosphatide भास्वीयेय phosphorescence भास्वा phosphatization
भास्वीयन phosphorescence भासमान phosphate
भास्वीय phosphoreted भास्वरित phosphide भास्वेय phosphoric
मास्विक phosphin
भास्वि phosphorite
भास्वीयिज phosphine
भास्वी phosphoryl
भास्वरल phosphinic
भास्वियिक phosphorylation भास्वरलता ___ आदि आदि, जो यह व्यक्त करने के लिए पर्याप्त है कि शब्द-निर्माण स्वयं एक विज्ञान है
और इसका उपयोग भी सम्हालकर करना परमावश्यक होता है। प्राचीन शास्त्रों में जो शब्द जिस सन्दर्भ में आया है उसका एक स्पष्ट आशय है। यदि हम उसी शब्द को आधुनिक वैज्ञानिक शब्दों के लिए ले लेते हैं तो उससे बहुत भ्रम की सम्भावना बढ़ सकती है आगे चल कर शब्द का मूल रूप में जो उपयोग हुआ है वहाँ इसी शब्द के नये अर्थ के प्रकाश में अर्थ का अनर्थ भी सम्भव है। अस्तु मेरी अपनी धारणा है कि शब्दों की नयी रचना जो नये सन्दर्भ में संस्कृत के व्याकरण के अनुरूप ढाली जा रही है जिसमें वैज्ञानिक शब्दों के सभी भाव और उपभावों के प्रकट करने का सामर्थ्य है उन्हीं का उपयोग वैज्ञानिक साहित्यकारों को निश्शङ्क करना चाहिए। अमिनव-विकृति-विज्ञान में भी ऐसा ही देखकर मुझे विशेष प्रसन्नता हुई है। आयुर्वेद के विभिन्न शब्दों को उन्होंने ज्यों का त्यों रखा है और वैज्ञानिक शब्दों को पृथक् दिया है। दोनों की पृथक्ता से विद्यार्थी को स्वयं आवश्यक विचार के लिए स्वतन्त्र छोड़ दिया है । यह कोई आवश्यक नहीं कि जो आधुनिक विज्ञान की विचारप्रणाली है वह आयुर्वेदीय आकरग्रन्थों में कहीं न कहीं मिले ही । अतः दोनों के स्वतन्त्र अध्ययन के लिए स्वतन्त्र शब्दोपयोग समोचीन है। कुछ लोग हर पाश्चात्य विषय के लिए अपना आयुर्वेदीय मत व्यक्त किया करते हैं। कुछ स्थानों पर यह सम्भव है पर उद्देश्य दोनों शास्त्रों का प्राणीमात्र की सेवा होने पर भी सन्दर्भ में पर्याप्त भिन्नता है। उदाहरण के लिए एक शास्त्र पचनक्रिया को प्राणवह स्रोतस्, अन्नवह स्रोतस्, समान वायु
और जाठराग्नि के सन्दर्भ में समझाता है। दूसरा पचनसंस्थान की इलेष्मलकला का शारीर, विविध रसों का निर्माण आदि बतला कर अपनी बात कहता है। आगे एक ने रस से रक्त मांस आदि की कल्पना की है त्रिधातु की उत्पत्ति बतलाई है और दूसरे ने अपनी ही दृष्टि से शरीर व्यापार शास्त्र तथा शरीर रचना शास्त्र का दिग्दर्शन किया है दोनों की इस भिन्नताओं की अभिव्यक्ति विभिन्न प्रकार की शब्दावलि से ही सम्भव है। अस्तु टिशू के लिए श्रीत्रिवेदीजी ने धातु का व्यवहार न कर 'ऊति' का व्यवहार किया है जो रघुवीरीय प्रणाली के आधार पर होने के साथ ही यथार्थ स्थिति का द्योतक भी है।
विकृति विज्ञान में लेखक ने आधुनिकतम ज्ञान का समावेश करने का यत्न किया है। मुझे विश्वास है कि ज्यों ज्यों समय व्यतीत होता जावेगा इस ग्रन्थ के उत्तमोत्तम संस्करण प्रकाशित होते रहेंगे जिनमें विज्ञान की नवीनतम धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रहेगी । आधुनिक विचारकों के समक्ष प्रशस्त प्रयोगशालाओं के साथ प्रबुद्ध विज्ञानवेत्ता निश्चित समस्याओं के निरूपण में रत रहते हैं जिसके कारण एक एक विषय के विविध अङ्गों में उत्तरोत्तर वृद्धि दृष्टिगोचर होती है । ऐसे साधन भारतीय लेखकों को अधिक उपलब्ध नहीं हो पाते ।
उदाहरण के लिए क्षतिग्रस्त ऊतियों में परम रक्तता (हाइपरीभिया) के ज्ञान को कुछ विद्वानों ने अपना विषय चुना। थोड़ा भी आघात लगने पर उस स्थान पर रक्त का संचय होने लगता है। इस रक्त संचय में कौन हेतु मुख्य हैं इसे समस्या मान लिया गया। जहाँ आघात
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