Book Title: Shilki Nav Badh
Author(s): Shreechand Rampuriya, 
Publisher: Jain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाडाना [श्रीमदाचार्य भीषणजी प्रणीत ] र अनुवादक और विवेचक असार १४ सापक श्रीचन्द रामपुरिया, एडवोकेट WINE तेरापंथ द्विशताब्दी समारोह के अभिनन्दन में प्रकाशित Scanned by CamScanner Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक: जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा काकिलांट ३, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट कलकत्ता-१ प्रथमावृत्ति: दिसम्बर, १९६१ मार्गशीर्ष २०१८ प्रति संख्या : १५०० पृष्ठांक: २९८ मूल्य: आठ रुपये मुद्रक : ओसवाल प्रेस - कलकत्ता Scanned by CamScanner Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूचा किया पृष्ठ १-५ दो शब्द भूमिका १-ढाल १ (दुहा ८ : गाथा ८): मंगलाचरण में जगद्गुरु नेमिनाथ की स्तुति (दोहा १-४); युवावस्था में ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले की बलिहारी (दो० ५); विषय-सुख में लुभायमान न होने का उपदेश (दो० ६); दस दृष्टान्त कर दुर्लभ मनुष्य-जीवन में बाड़ सहित ब्रह्मचर्य-पालन करने की सार्थकता (दो०७); संक्षेप में शील के गुण-कथन की प्रतिज्ञा (दो० ८); शीलरूपी कल्पतरु के सेवन से अक्षय सखों की प्राप्ति (गाथा १) ) = TET पाना कि-शिक सम्यक्त्व सहित शील व्रत-पालन से संसार का अन्त (गा० २); जिन-शासन को नंदनवन की उपमा (गा० ३); इस नदनवन के शीलरूपी कल्पवन के विस्तार का वर्णन शील द्वारा संसार-समुद्र से उद्धार (गा० ७); समाधि-स्थानों का मल स्रोत उत्तराध्ययन सत्र का हवां अध्ययन (TIOET -टिप्पणियाँ २-ढाल २ (दहा ८: गाथा १०): पहली बाड. FAV O TE FR EE१-१५ नौ बाड़ और दसवें कोट के वर्णन की प्रतिज्ञा (दोहा १); ब्रह्मचारी की खेत के साथ उपमा और शील-रक्षा की बाड़ों की आवश्यकता पर प्रकाश (दो० २-३); ES बाड़ों के उल्लंघन न करने से ब्रह्मचर्य की सिद्धि (दो० ४); - मार्ग का गिर पहली बाड़ के स्वरूप की व्याख्या (दो० ५-६); नारी-संगति से शंका, मिथ्या कलंक आदि दोषों की संभावना (दो०७) Bi in एकान्तवास की उपादेयता (दो०८ नि:ब्रह्मचर्य व्रत के अच्छी तरह पालन करने और बाड़ के भङ्ग न करने का उपदेश (गाथा १); PHOTEL मा SFE - बिल्ली और कूकड़-चूहे-भोर का दृष्टान्त (गा २) संसक्तवास के त्याग का उपदेश (गा० ३); 1111115 11 की मांग सौ वर्ष की विकलाङ्गी डोकरी के साथ रहने का भी निषेध (गा०४); कप : Siege सास के सा दृढ़ ब्रह्मचारी के लिए एकान्तवास का ही नियम (गा-५); 32 संसक्तवास से परिणामों के चलित होने की संभावना (गा०६), मामा सिंहगफावासी यति के पतन की कथा (गा. ७) कुलबालूड़ा साधु के पतन की कथा (गा०८); नारी और ब्रह्मचारी की संगति की चूहे और बिल्ली की संगति से तलना (गा०६); उपसंहार (गा० १०)। टिप्पणियाँ READ Scanned by CamScanner Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ख] ३-ढाल ३ ( दुहा २ : गाथा १४ ) : दूजी बाड़ दूसरी बाड़ का स्वरूप : ब्रह्मचारी नारी-कथा न कहे (दोहा १); ब्रह्मचारी को नारी-कथा क्यों नहीं शोभा देती ? (दो० २) ; जो बार-बार नारी कथा करता है, उसका ब्रह्मचर्य कैसे टिक सकता है ? (गाथा १ ) ; नारी का कैसा वर्णन नहीं करना चाहिए (गा० २-४ ) ; अपवादिक यथातथ्य कथन में दोष नहीं ( गा० ५ ) ; नारी रूप के वखाण से विषय विकार की वृद्धि (गा० ६) ; छह राजा और मल्लिकुमारी ( गा० ७) ; 5-8) चंदप्रद्योत और मृगावती की कथा (गा० ८-९) नंदान पद्मोतर और द्रोपदी की कथा ( गा० १० ) ; नारी-कथा श्रवण से अनेक लोगों के भ्रष्ट होने का कथन ( गा० ११) my in the toge नारी कथा श्रवण पर नींबू फल का दृष्टान्त ( गा० १२ ) ; स्त्री-कथा श्रवण से शंका, कांक्षा, विचिकित्सा की संभावना ( गा० १३ ) ; दूसरी बाड़ के शुद्ध रूप से पालन करने का परिणाम ( गा० १४ ) । टिप्पणियाँ ४–ढाल ४ (दुहा ४ : गाथा १४) : तीजी बाड़ क तीसरी बाड़ में एक शय्या पर बैठने का निषेध (दोहा १ ) ; (2) 285) क ॐ श्र 12 asmen कक :(5 mars 195) (OTR) FISE SP ..अन और घृतकुंभ के दृष्टान्त द्वारा एक शय्या पर बैठने के दुष्परिणाम का उल्लेख उल्लेख (दो० २-३) ; अग्नि और लोह का दृष्टान्त (दो० ४ ) ; 10 sty • एकासन पर बैठने से कामोद्दीपन की संभावना ( गा०. १) एकासन पर बैठने से संसर्ग, फिर स्पर्श, फिर रस-जागृति, फिर व्रत-भंग (गा० २) आसन के भेद ( गा० ३) ; एक शय्या पर बैठने से शंका, मिथ्या कलंक, मिथ्या प्रचार के भय ( गा० ४) ; जिस स्थान से स्त्री तुरंत उठी हो, उसपर एक मुहूर्त के पहले बैठने का ब्रह्मचारी को निषेध ( गा० ५) नारी-वेद के पुद्गलों से पुरुष-वेद-विकार (गा०.६) एक ि वेदानुभव से भोगानुराग होता है अतः ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-स्पर्श निषेध ( गा० ७) क पृष्ठ १८-२० एक बा दिना संभूति मुनि की कथा ( गा० ८-९ ) ; नारी-स्पर्श से शंका, कांक्षा तथा विचिकित्सा की उत्पत्ति (गा० 19 89); ਵਿਲਾਸੀ तीसरी बाड़ के खंडन से ब्रह्मचर्य की हानि : नरक गति तथा भव-भ्रमण ( गा० ११ ) ; काचर और कोहल के दृष्टान्त द्वारा एक आसन पर बैठने से मन के चलित होने का कथन ( गा०१२ ) ; . माता, बहिन या बेटी के भी साथ एक आसन पर बैठने का निषेध ( गा० १३ ) ; met उपसंहार ( गा० १४ ) टिप्पणियाँ ५--ढाल ५ (दुहा २ : गाथा २१) चौथी बाड़ चौथी बाड़ में नारी के रूपादि के निरीक्षण करने का निषेध (दोहा १) ; 'दशवैकालिक सूत्र' के आधार पर चित्रांकित पुतली के अवलोकन का भी निषेध (दो० २) ; क Genres २१-२२ २३-२५ कोि (om) २६-२८ २६-३२ Scanned by CamScanner Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ग] . रागपूर्वक रूप-निरीक्षण से विकार-वृद्धि; स्त्री को रागपूर्वक देखने का निषेध (गाथा १); स्त्री का रूप दीपक के समान : उससे कामी पुरुष का पतंग के समान विनाश (गा० २) कामिनी जादूगरनी (गा० ३) रंभा सदृश मधुर-भाषी नारी को नयन टिका कर देखने से व्रत-हानि (गा० ४); ma कामांध की रूप-आसक्ति और दुर्गति का बन्धन (गा० ५); सुन्दर स्त्री भी मल-मूत्र का भण्डार, अतः अनासक्त होने का उपदेश (गा० ६); ल नारी 'चर्म दीवड़ी' और अशुचि तथा अपवित्रता की थैली (गा० ७); शिवाय देह के क्षण भंगुर तथा औदारिक होने का कथन (गा०.८) मा राजीमती.तथा रथनेमि की कथा.(गा० ९) जार रूपी राजा की कथा (गा० १०); माफी मानला एलाची पुत्र तथा नटी की कथा (गा० ११-१२) को मिली की मणिरथ मैनरहा की कथा (गा० १३) ; - गलामा अरणक की कथा (गा० १४), Om मनमा क्षत्रिय तथा चोर की कथा (गा० १५-१७) ; नामा अनेक व्यक्तियों के नाश का कथन (गा० १८); रूप-कथा श्रवण मात्र से भ्रष्ट होने का कथन (गा० १९); कच्चीकारीवाले का सूर्य की ओर देखने पर अंधा हो जाना, उसी तरह नारी-रूप-दर्शन से ब्रह्मचारी के व्रत की हानि (गा० २०); उपसंहार (गा० २१)।.... टिप्पणियाँ EDITOR - पृष्ठ ३३-३६ ६-ढाल ६ (दुहा ३: गाथा:): पाँचर्चा बाड़ Sinो .. ३७-३८ जहाँ संयोगी स्त्री-पुरुष-पर्दे के अन्तर पर रहते हों, वहाँ ब्रह्मचारी के रहने का निषेध (दोहा १); ... संयोगी के पास रहने से शब्द-श्रवण, शब्द-श्रवण से ब्रह्मचर्य की हानि (दो० २-३) ; .. ब्रह्मचारी को व्रत की रक्षा तथा झूठे कलंक से बचने के लिये पाँचवीं बाड़ सुनने का उपदेश (गाथा १); स्त्री-पुरुष युक्त स्थान पर रहने से उत्पन्न होनेवाले दोषों के वर्णन करने की प्रतिज्ञा (गा० २); ........... प्रियतम के साथ क्रीड़ा करती हुई स्त्री के कूजन, रुदन एवं मधुरालापों के शब्द कान में पड़ने से व्रत के नाश होने की संभावना (गा० ३-५); मेघ-गर्जन और मोर और पपीहे का दृष्टान्त : कामोद्दीपक शब्दों से व्रत की हानि (गा० ६); उपसंहार (गा० ७)। ETD ya mi टिप्पणियाँ: RATON TER : ३६ ७-ढाल ७ (दुहा २: गाथा १५) : छठी बाड़ा लाल किला ४०-४२ चंचल मन को पूर्वसेवित भोगों के स्मरण से अस्थिर न करने का आदेश (दोहा १) भोगों के स्मरण से व्रत की हानि एवं अपयश (दो० २); . स्त्रियों के साथ भोगे हुए पूर्व भोगों के स्मरण से ब्रह्मचर्य की हानि । अत: पूर्व भोगों को स्मरण न करने का आदेश '(गाथा१-७); पूर्व में भोगे हुये शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, में से एक के भी स्मरण से छठी बाड़ का भंग (गा० ८); 127 am बाड़ के खण्डित होने पर ब्रह्मचर्य का नाश : जल और पाल का उदाहरण (गा० ६) जिनरक्षित तथा रयणा देवी की कथा (गा० १०) FEEPEn tre विषयुक्त छाछ पीनेवाले की कथा (गा० ११) । Scanned by CamScanner Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ घ] सर्प-दंशित व्यक्ति की कथा (गा०१२% 3 E जहर के स्मरण से मृत्यु की भाँति भुक्त कामभोगों का स्मरण करने से शील-नाश (गा० १३), कामभोगों के स्मरण से मन में शंका, कांक्षा, विचिकित्सा आदि की उत्पत्ति और व्रत-नाश (गा० १४) । उपसंहार (गा० १५)। पृष्ठ ४२-४४. टिप्पणियाँ माया दादागासातमीमा .. सातवीं बाड़ में सरस आहार-वर्जन (दोहा १); घृतादि से परिपूर्ण गरिष्ठ आहार से धातु-उद्दीपन और विकार की वृद्धि (दो० २); खट्ट, नमकीन, चरपरे आहार से जिह्वा पर वश न होने का कथन और परिणामतः ब्रह्मचर्य का नाश (दो० ३-४); ब्रह्मचारी नित्यप्रति सरस आहार न करे (गाथा १); निरोगी के सरस आहार के परिणमन से विकार की वृद्धि और ब्रह्मचर्य व्रत का नाश (गा० २-३); ढूंस-ठूस कर सरस आहार करने से व्रत-भङ्गः दोनों लोकों का नाश, रोग-शोक की प्राप्ति (गा० ४); अस्वस्थ शरीर में अधिक आहार से अजीर्ण आदि रोग और मृत्यु (गा० ५-७); . . नित्यप्रति सरस आहार का ग्रहण करनेवाला 'उत्तराध्ययन' के आधार पर पापी श्रमण (गा. ८); भूदेव ब्राह्मण की कथा (गा०६); मंगू आचार्य की कथा (गा० १०); . या राजर्षि शैलक की कथा (गा०-११); नाम: कुण्डरीक की कथा (गा० १२); इसी प्रकार सरस आहार से अनेक व्यक्तियों के व्रत-नाश का कथन (गा० १३) ; . सन्निपात के रोगी को दिये हुए दूध-मिश्री की भांति सरस आहार से विकार की वृद्धि (गा० १४); शील-व्रत के शुद्ध पालन के लिये ब्रह्मचारी के लिए नित्य सरस आहार का वर्जन आवश्यक (गा० १५); 5 की आठवीं बाड़ के कथन की प्रतिज्ञा (गा० १६)। टिप्पणियां तक कि मिला ४०-५१ -ढाल : (दहा ४: गाथा ४०): आठमी बोड ५२-५७ टूंस-ठूस कर आहार करने का निषेध और उससे हानि (दोहा) कि मास समाधि माघ अधिक आहार से प्रमाद, निद्रा, आलस्य आदि की उत्पत्ति (दो० २); विषय-वासना की वृद्धि और पेट का फटने लग जाना : हांडी और धान का उदाहरण (दो० ३); अधिक आहार के दुर्गुणों का वर्णन करने की प्रतिज्ञा (दो० ४); .. यवावस्था में अधिक आहार करने से विषय-विकार की वृद्धि, स्त्री का अच्छा लगना, शीलव्रत-पालन में शंका, कांक्षा आदि दोषों की उत्पत्ति (गाथा १-७); ग्रहीत आहार के न पचने पर पेट फटने लगना, अजीर्ण, पेट में जलन, खराब डकार, मरोड़, दस्त, पेशाब बंद होना, अतिसार, श्वास, खाँसी, आँख-कान में वेदना आदि अनेक रोगों की उत्पत्ति (गा० ८-२५); असत्य भाषण, चिढ़ना आदि अवगुणों की वृद्धि, रोगों का आक्रमण, अकाम मृत्यु तथा भवभ्रमण (गा० २६-३५);. कुण्डरीक की कथा (गा० ३६); TE T TE अधिक भोजन से पेट का फटने लग जाना (गा० ३७); ampोको ऊनोदरी में अनेक गुण, ऊनोदरी एक उत्तम तप (गा० ३८-३९); ASEA R T Scanned by CamScanner Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [3] उपसंहार (गा० ४०)। टिप्पणियाँ पृष्ठ ५७-५६ १०-ढाल १० (दुहा ४ : गाथा इ) नवमीं बाड़ ६०-६२ ब्रह्मचारी के लिये विभूषा-शृङ्गार का वर्जन ; विभूषा से बाड़ का खण्डन (दोहा १-२); ब्रह्मचारी के विभूषित होने का कोई कारण नहीं (दो० ३); ब्रह्मचर्य-रक्षा के लिए इस बाड़ का पालन भी आवश्यक (दो० ४); ब्रह्मचारी के लिये देह-विभूषा-पीठी, उबटन, तैल आदि के उपयोग का निषेध (गाथा १); उष्ण या शीतल जल से स्नान, केशर चन्दन आदि का विलेपन, दाँतों का रंगना तथा दंत-धावन का वर्जन (गा० २); बहु मूल्य उज्ज्वल वस्त्र, तिलक, टीका, कंकण, कुण्डल, अंगूठी, हार, एवं केश आदि के संवारने का निषेध (गा० ३-५); अंग-विभूषा कुशीलता का द्योतक, इससे गाढ़ कर्मों का बंध, स्त्री द्वारा विचलित किये जाने का भय (गा० ६-७); शृङ्गार करनेवाले ब्रह्मचारी के शीलरूपी रत्न के लुट जाने का भय (गा० ८); उपसंहार-जन्म-मरणरूपी भव-जल से संतरण के लिये विभूषा-त्याग द्वारा शील को सुरक्षित रखने की आवश्यकता (गा०६)। टिप्पणियाँ ६२-६३ ११-ढाल ११ (दुहा ५ : गाथा १३) कोट । कोट की महत्ता : बाड़ों तथा शील-व्रत की रक्षा के लिये कोट अनिवार्य (दोहा १-३); शहर की रक्षा के लिये मजबूत कोट के समान व्रतों की रक्षा के लिये स्थिर कोट आवश्यक (दो० ४); कोट-निर्माण एवं उसकी रक्षण-विधि बतलाने की प्रतिज्ञा (दो० ५); शब्द के प्रिय तथा अप्रिय दो भेद; ब्रह्मचारी को दोनों में राग-द्वेष रहित होने का आदेश (गाथा १); काला, पीला, नीला, लाल और सफेद-इन पाँच अच्छे बुरे वर्गों में ब्रह्मचारी को समभावी होने का आदेश (गा० २); दो प्रकार के गंध-सुगंध और दुगंध; उनमें ब्रह्मचारी को राग-द्वष रहित होने का उपदेश (गा० ३); पाँच प्रकार के रस और ब्रह्मचारी को उनमें राग-द्वेष न रखने का आदेश (गा० ४); आठ प्रकार के स्पर्शों से ब्रह्मचारी निरपेक्ष रहे (गा० ५); शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्शादि में राग-द्वेष रहित होना ही दसवाँ कोट (गा० ६); शीलरूपी बहुमूल्य रत्न की रक्षा के लिये कोट की आवश्यकता (गा० ७); ब्रह्मचारी के मनोज्ञ शब्दादि से प्रसन्न होने पर कोट का नाश, कोट के नाश से बाड़ों का नाश । परिणामतः ब्रह्मचर्य का नाश (गा० ८); कोट की रक्षा अनिवार्य; उससे शील की रक्षा; उससे अविचल मोक्ष की प्राप्ति (गा०६); शीलरूपी कोट के खण्डन न करने से उत्तरोत्तर आनन्द की प्राप्ति (गा० १०); कोट सहित नव बाड़ों के वर्णन का हेतु-संसार से मुक्ति (गा० ११); रचना का आधार : 'उत्तराध्ययन सूत्र' का सोलहवां अध्ययन (गा० १२); रचना-काल तथा स्थान-फाल्गुन बदी दशमी, गुरुवार, पादुगाँव (गा० १३)। टिप्पणियाँ ६७-७० परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त ७३-११७ परिशिष्ट-ख : आगमिक आधार १२१-१२६ परिशिष्ट-ग:श्री जिनहर्ष रचित शील की नव बाड़ १२७-१३४ परिशिश्ट-घ: सहायक पुस्तक सूची १३४-१३५ Scanned by CamScanner Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो शब्द पाठकों के समक्ष भिक्षु-ग्रन्थमाला का तीसरा ग्रन्थ 'शील की नव बाड' के रूप में उपस्थित है। स्वामीजी की इस कृति के कई संस्करण निकल चके हैं। पर उसका सानवाद और सटिप्पण हिन्दी अनवादयक्त संस्करण यह प्रथम ही है। साधु और गृहस्थ दोनों के लिए ही ब्रह्मचर्य अत्यन्त महत्व का विषय है। भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य में स्थिरता और समाधि प्राप्त करने के लिए जिन नियमों की प्ररूपणा की, उन्हीं की विशद चर्चा प्रस्तुत कृति में है। मल कृति मारवाडी भाषा में है। यह संस्करण उसका हिन्दी अनुवाद सामने लाता है। ___ब्रह्मचर्य जैसे महत्वपूर्ण विषय पर गंभीर और विशद विवेचन करनेवाले दो महापुरुष सन्त टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधी के विचारों को भूमिका में विस्तार से दिया गया है और जैन दृष्टि के साथ उनकी यथाशक्य तुलना की गई है। ___ यहाँ प्रसंगवश महासभा के इस विषयक दो अन्य प्रकाशनों की ओर भी पाठकों का ध्यान आकर्षित किया जाता है। पाठक उन पुस्तकों को भी प्रस्तुत ग्रन्थ के साथ पढ़ेंगे तो विषय की गंभीर जानकारी हो सकेगी। इन प्रकाशनों के नाम हैं-(१) ब्रह्मचर्य (महात्मा गांधी के ब्रह्मचर्य विषयक विचारों का दोहन) और (२) ब्रह्मचर्य (आगमों पर से ब्रह्मचर्य विषयक विचारों का संकलन)। आशा है, महासभा का यह प्रकाशन पाठकों के लिए अत्यन्त लाभप्रद होगा। जैन श्वेताम्बर तेरापन्थी महासभा ३, पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ २८, दिसम्बर, १९६१ श्रीचन्द रामपुरिया व्यवस्थापक, साहित्य-विभाग Scanned by CamScanner Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका S Scanned by CamScanner Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका की विषय सूची पृष्ठ १-३ ३-६ ६-७ ::::::::::::::: १-ब्रह्मचर्य की परिभाषा २-जीवन में ब्रह्मचर्य के दोनों अर्थों की व्याप्ति ३-शाश्वत सनातन धर्म ४-आश्रम-व्यवस्था और ब्रह्मचर्य का स्थान ५-ब्रह्मचर्य और अन्य महाव्रत ६–ब्रह्मचर्य और स्त्री-पुरुष का अभेद ७–ब्रह्मचर्य और संयम का हेतु क्या हो ? ८-व्रत-ग्रहण में विवेक आवश्यक ६-ब्रह्मचर्य महाव्रत के रूप में १०–ब्रह्मचर्य अणुव्रत के रूप में ११-विवाहित-जीवन और भोग-मर्यादा १२-भाई-बहिन का आदर्श १३-विवाह और जैन दृष्टि १४–ब्रह्मचर्य के विषय में दो बड़ी शंकाएँ १५-क्या ब्रह्मचर्य एक आदर्श है ? य स्वतंत्र सिद्धान्त है या उपसिद्धान्त १७-ब्रह्मचर्य की दो स्तुतियां १७–ब्रह्मचर्य की बाड़ें १८-मूल कृति का विषय १६–बाडों के पीछे दृष्टि २०–पूर्ण ब्रह्मचारी की कसौटी २१-महात्मा गान्धी औ ब्रह्मचर्य के प्रयोग २२-बाड़ें और महात्मा गान्धी २३-महात्मा गान्धी वनाम मशरूवाला २४-ब्रह्मचर्य और उपवास २५-रामनाम और ब्रह्मचर्य २६-ब्रह्मचर्य ओर ध्येयवादी २७-ब्रह्मचर्य और आत्मघात . २८-ब्रह्मचर्य और भावनाएं २६-ब्रह्मचर्य और निरन्तर संघर्ष ३०-बाल ब्रह्मचारिणी ब्राह्मी और सुन्दरी ३१-भावदेव और नागला ३२-नंदिषेण ३३–मुनि आर्द्रक ३४-ब्रह्मचर्य और उसका फल ३५-कृति-परिचय ३६-श्री जिनहर्षजी रचित शील की नव बाड़ ३७-प्रस्तुत संस्करण केविषय में ::::::::::::::::::::::::::::: : :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: :: : :::::::::::::::::: :::::::::::::::::::::::::: :: :: :: :: :::::::::: ७-११ ११-१४ १४-१६ १६-१७ १८-१६ १६-२१ २१-२३ २४-२६ २७-२६ ३० ३१-३२ ३२-३३ ३४-३५ ३६-३८ ३६-४० ४०-६२ ६३-६४ ६५-७२ ७२-६२ ६२-१०५ १०५-११४ ११४.११५ ११५-११६ ११६-११८ ११८-१२० १२०-१२४ १२४-१३० १३१-१३३ १३३-१३६ १३६-१३७ १३७-१३८ १३८-१४० १४०-१४१ १४१-१४४ १४५ ::::::::::: ::::::::::::: Scanned by CamScanner Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2009 भूमिका १- ब्रह्मचर्य का परिभाषा 'शील की नव बाड़' में प्रयुक्त 'शील' का अर्थ ब्रह्मचर्य है और 'बाड़' का अर्थ है ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय अथवा ब्रह्मचारी के रहन-सहन की मर्यादाएं धौर शिष्टाचार । श्री मङ्गलदेव शास्त्री के अनुसार सृष्टि के समस्त पदार्थों का जो अजय, कूटस्थ, शावत, दिव्य मूलकारण है वह 'ब्रह्म' है अथवा ज्ञानरूप वेद 'ब्रह्म' है । ऐसे 'ब्रह्म' की प्राप्ति के उद्देश्य से व्रत ग्रहण करना ब्रह्मचर्य है ' । श्री विनोबा कहते हैं : "ब्रह्मचर्यं शब्द का मतलब है....ब्रह्म की खोज में अपना जीवन-क्रम रखना... सबसे विशाल ध्येय परमेश्वर का साक्षात्कार करना । उससे नीचे की बात नहीं कही है ।" महात्मा गांधी लिखते हैं: "ब्रह्मचर्य के मूल अर्थ को सब याद रखें । ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म की - सत्य की शोध में चर्या, अर्थात् तत्— सम्बन्धी आाचार इस मूल अर्थ में से सर्वेन्द्रियसंयमरूपी विशेष अर्थ निकलता है। केवल जननेन्द्रियसंयम रूपी अधूरे घर्ष को तो हमें भूल ही जाना चाहिए।" उन्होंने अन्यत्र कहा है "ब्रह्मचर्य क्या है यह जीवन की ऐसी चर्या है जो हमें ब्रह्म-ईश्वर तक पहुंचाती है। इसमें जननक्रिया पर सम्पूर्ण संयम का समावेश हो जाता है । यह संयम मन, वचन और कर्म से होना चाहिए ४ ।” उपर्युक्त तीनों ही विचारकों ने 'ब्रह्मचर्य' शब्द के अर्थ में सुन्दरता लाने की चेष्टा की है और उसे बड़ा व्यापक विशाल रूप दिया है। पर वंसा अर्थ वेदों में उपलब्ध ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचर्य शब्द का नहीं मिलता। सायण ने ब्रह्मचारी शब्द का घर्ष करते हुए लिखा है"ब्रह्मचारी ब्रह्मणि वेदात्मके अध्येतव्ये चरितुं शीलम् यस्य सः ५ ” – वेदात्मक ब्रह्म को अध्ययन करना जिसका श्राचरण - शील है उसे ब्रह्मचारी कहते हैं। ब्रह्मचर्य की परिभाषा इस रूप में मिलती है" वेद को ब्रह्म कहते हैं। वेदाध्ययन के लिए आचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है।" यहाँ कर्म का अर्थ है समिधादान, भिक्षाचर्या और ऊर्ध्वरेतस्कत्व आदि । कर्म शब्द में उपस्थ- संयम, इन्द्रिय- संयम का समावेश भले ही किया जा सके पर वेद प्रयुक्त ब्रह्मचर्य शब्द की जो प्राचीन परिभाषा है वह ऐसा धर्म नहीं देती, यह स्पष्ट है। महर्षि पतञ्जलि ने ब्रह्मचर्य का अर्थ 'वस्ति निरोध' किया है। अब हम जैन श्रागमों में वर्णित 'ब्रह्मचर्य' शब्द की व्याख्या पर श्रावें । सूत्रता में कहा है "ब्रह्मचर्य को ग्रहण कर मुमुक्षु पदार्थ शाश्वत ही हैं, शाही हैं, लोक नहीं है, मलोक नहीं है, जीव नहीं है, जीव नहीं है आदि-आदि दृष्टियां न रखे ।" यहां "ब्रह्मचर्य' शब्द की व्याख्या करते हुए श्री शीलाङ्क लिखते हैं- “जिसमें सत्य, तप, भूत-दया १ - भारतीय संस्कृति का विकास (प्र० ख० ) पृ० २२८ : सर्वेषामपि भूतानां यत्कारणमव्ययम् । 2 कूटस्थं शाश्वतं दिव्यं वेदो वा, ज्ञानमेव यत् ॥ तदेतदुभयं ब्रह्म ब्रह्मशब्देन कथ्यते । तदुद्दिश्य मतं यस्य ब्रह्मचारी स उच्यते ॥ २ – कार्यकर्ता वर्ग : ब्रह्मचर्य पृ० ३१ ३२ ३- मंगल प्रभात १० १६-१७ क ४– Self Restraint V. Self- Indulgence p. 165 से अनूदित ५ - अथर्ववेद ११.५.१ सायण ६ - अथर्ववेद ११.५.१७ सायण ७-सूत्रकृतांग २.५:१-३२ लाइ Annamalai Whylab fongage f m Our fapy fog forpo f ww fog wife fr 325 Scanned by CamScanner Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील को नव वाड को यदाचर्य कहते हैं " "मोक्ष का हेतु सम्यक् ज्ञान " एवं इन्द्रिय-निरोध रूप ब्रह्म की चर्या-अनुष्ठान हो उस मोनीन्द्र-प्रवचन-जिन-प्रवचन को ब्रह्मचर्य कहते है दर्शन-चरित्रात्मक मार्ग ब्रह्मचर्य है ।" निर्यक्तिकार भद्रबाह ने प्राचाराङ्ग का वर्णन करते हुए लिखा है : "बारह अङ्गों में प्राचाराङ्ग प्रथम अङ्ग है। जा अडों में प्राचाराङ्ग प्रथम अङ्ग है। उसमें मोक्ष के उपाय का वर्णन है। वह प्रवचन का साररूप है।” वे आगे जाकर लिखते हैं : "वेद-पाचाराङ्ग ब्रह्मचर्य नामक नौ अध्ययन मग इसका तात्पर्य यह हुआ कि आचाराङ्ग के ब्रह्मचर्य नामक नौ अध्ययन प्रवचन के साररूप हैं और उनमें मोक्ष के उपाय का वर्णन तरह ब्रह्मचः शब्द मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक सारे प्रशस्त गुण और आचरण का द्योतक शब्द माना गया है। उसमें सारे मल और उत्तर गुणों की साधना का समावेश होता है। उसमें सारा मोक्ष-मार्ग समा जाता है। ......... नियुक्तिकार अन्यत्र कहते हैं : "भाव ब्रह्म दो प्रकार का होता है—एक मुनि का वस्ति-संयम (उपस्थ-संयम) और दूसरा मनि का सम्पूर्ण संयम' । .... .. ...... उपर्युक्त विवेचन से ब्रह्मचर्य के दो अर्थ सामने आते हैं : ... जिसमें मोक्ष के लिए ब्रह्म-सर्व प्रकार के संयम की चर्या अनुष्ठान हो, वह ब्रह्मचर्य है । इसमें सर्व मूल उत्तर गुणों की चर्या का समावेश होता है। माया २-वस्ति-संघम अर्थात् वस्ति-निरोध ब्रह्मचर्य है। इस अर्थ में सर्व दिव्य और औदारिक काम और रति-सुखों से मन-वचन-काय १ सत्रकता २.५:१ और उसकी टीका :। आदाय बम्मचरं च आसुपन्ने इमं वइं। कारण या काम किया । अस्सिं धम्मे अणायारं नायरेज कयाइपि ॥ ब्रह्मचर्य सत्यतपोभूतदयन्द्रियनिरोध लक्षणं तञ्चर्यते अनुष्ठीयते यस्मिन् तन्मौनीन्द्र प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते । तर २-वहीं: मौनीन्द्र प्रवचनं ब्रह्मचर्यमित्युच्यते।......मौनीन्द्रप्रवचनं तु मोक्षमार्गहेतुतया सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकम् । ३–आचाराङ्ग नियुक्ति गा०६ : आयारो अंगाणं पढम अंग दवालसणहंपि। इत्य य मोक्खोवाओ एस य सारो पवयणस्स ... ४-आचाराङ्ग नियुक्ति गा० ११: ) TIS . णवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ। हवइ य सपंचचूलो बहुबहुतरओ पयग्गेणं ॥ ५-आचाराङ्ग नियुक्ति गा• ३० : भावे गइमाहारो गुणो गुणवओ पसत्थमपसत्था। - गुणचरणे पसत्थेण बंभचेरा नव हवंति ॥ ६-वही गा० ३० की टीका : नवाप्यध्ययनानि मुलोत्तरगुणस्थापकानि निर्जरार्थमनुशील्यन्ते ७ वही गा० २८ : दव्वं सरीरभविओ अन्नाणी वत्थिसंजमो चेव । भावे उ वत्थिसंजम णायन्वो संजमो चेव ॥ भावब्रह्म तु साधूनां वस्तिसंयमः , अष्टादशभेदरूपोऽप्ययं संयम एव , सप्तदशविधसंयमाभिन्नरूपत्वादस्येति अष्टादशभेदास्त्वना Scanned by CamScanner Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका और कृत-कारित-अनुमति रूप से विरति ब्रह्मचर्य है। । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी, संत विनोबा आदि आधुनिक विचारकों का चिन्तन प्राचीन जैन चिन्तन से भिन्न नहीं है। वैदिक धारा के अनुसार ईश्वर ब्रह्म है और जैन विचारधारा के अनुसार मोक्ष ब्रह्म है । इतना ही मन्तर है। तुलना से स्पष्ट होगा कि आगमों में उपलब्ध ब्रह्मचर्य शब्द की व्याख्या अधिक स्पष्ट, सूक्ष्म और व्यापक है। बौद्ध पिटकों में ब्रह्मचर्य शब्द तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। यह नीचे के विवेचन से स्पष्ट होगा- माता१-पापी मार बुद्ध से बोला-"भन्ते ! भगवान् अब परिनिर्वाण को प्राप्त हों। यह परिनिर्वाण का काल है ।" तब बुद्ध ने उत्तर दिया-"पापी ! मैं तब तक परिनिर्वाण को नहीं प्राप्त होऊँगा, जब तक कि यह ग्रहाचर्य ऋद्ध, विस्तारित, बहुजनगृहीत, विशाल, देवताओं और मनुष्यों तक सुप्रकाशित न हो जायेगा।" यहाँ स्पष्टत: 'ब्रह्मचर्य' शब्द का अर्थ बुद्ध प्रतिपादित धर्म-मार्ग है । इस अर्थ में 'ब्रह्मचर्य' शब्द का प्रयोग बौद्ध त्रिपिटकों में अनेक स्थलों परं मिलता है । वहाँ ब्रह्मचर्य-वास का अर्थ है बौद्धधर्म में वास। २–भगवान का धर्म स्वाख्यात है। वह स्वाख्यात क्यों है ?......अंथ व्यञ्जन सहित सर्वांश में परिपूर्ण ब्रह्मचर्य को प्रकाशित करने से स्वाख्यात है। यहाँ ब्रह्मचर्य का अर्थ है वह चर्या जिससे निर्वाण की प्राप्ति हो। ३–ब्रह्मचर्य अर्थात मैथन-विरमण। HERE ब्रह्मचर्य शब्द के ये अर्थ जैनधर्म में प्राप्त अर्थों जैसे ही हैं। न २-जीवन में ब्रह्मचर्य के दोनों अर्थों की व्याप्ति ही ब्रह्मचर्य के उपर्युक्त दोनों अर्थों की व्याप्ति जीवन में इस प्रकार होती है । जब मनुष्य जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष—इन पदार्थों के स्वरूप को जान लेता है तब देव और मनुष्यों के कामभोगों को नश्वर जानने लगता है। वह सोचने लगता है"काम भोग दु:खावह हैं। उनका फल बड़ा कट होता है। वे विष के समान हैं। शरीर फेन के बुद्बुद् की तरह क्षणभंगुर है। उसे पहले या पीछे अवश्य छोड़ना पड़ता है। जरा और मरणरूपी अग्नि से जलते हुए संसार में मैं अपनी आत्मा का उद्धार करूँगा।" इस तरह वह विरक्त हो जाता है। जब मनुष्य दैविक और मानुषिक भोगों से इस प्रकार विरक्त होता है, तब वह अन्दर और बाहर के अनेकविध ममत्व को उसी प्रकार छोड़ देता है जिस तरह महा नाग कांचली को। जैसे कपड़े में लगी हुई रेणु-रज को झाड़ दिया जाता है, उसी प्रकार वह ऋद्ध, वित्त, मित्र, पुत्र, स्त्री और सम्बन्धीजनों के मोह को छिटका कर निष्पृह हो जाता है । जब मनुष्य निष्पृह होता है, तब मुण्ड हो अनगारवृत्ति को धारण करता है।जब मनुष्य मुण्ड हो अनगारवृत्ति को धारण करता है, तब वह उत्कृष्ट संयम और अनुत्तर धर्म का स्पर्श करता है५ . इस श्रामण्य का ग्रहण ही उपर्युक्त प्रथम कोटि का ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के प्रथम व्यापक अर्थ को ध्यान में रख कर ही कहा गया हैजो ऐसे श्रामण्य (ब्रह्मचर्यवास) को ग्रहण करता है उसे सहस्रों गुण धारण करने पड़ते हैं, इसमें जीवन-पर्यन्त विश्राम नहीं। यह लोह-भार की . wistine TREA -१-आचाराङ्ग नियुक्ति गा० २८ की टीका : सर्व दिव्यात्कामरतिमुखात् त्रिविधं त्रिविधेन विरतिरिति नवकम् । र औदारिकादपि तथा तद् ब्रह्माष्टादशविकल्पम् ॥ २-दीघ-निकाय : महापरिनिब्बाण सुत्त पृ० १३१E ३--वही : पोट्टपाद पृ० ७५ ४-विशुद्धि मार्ग (पहला भाग) पृ० १६५ ५-(क) दशवकालिक ४:१४-१६ (ख) उत्तरांध्ययन १६:११-१३,१४,२४,२७Enimite : Scanned by CamScanner Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ तरह गुणों का बड़ा बोझ है'। । उपर्युक्त श्रामण्य (ब्रह्मचर्यवास) को ग्रहण करते समय सर्व पापों का त्याग कर मुमुक्षु को जिन महाव्रतों को ग्रहण करना पड़ता है। उनमें उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का भी उल्लेख है। यह महाव्रत अब्रह्म की विरति स्प कहा गया है। इस तरह श्रामण्य (ब्रह्मचय) ग्रहण करते समय अन्य महाव्रतों के साथ महाव्रत ब्रह्मचर्य को ग्रहण करना उपर्युक्त उपस्थ-संयम रूप दूसरी कोटि के ब्रह्मचर्य का धारण करना है। महाव्रत ब्रह्मचर्य सर्व मैथन विरमण रूप होता है। उसके ग्रहण की प्रतिज्ञा की शब्दावलि इस प्रकार है: . "हे भदन्त ! इसके बाद चौथे महाव्रत में मैथुन से विरमण करना होता है । हे भदन्त ! मैं सर्व मथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तियंच सम्बन्धी-जो भी मैथुन है मैं उसका स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरे से उसका सेवन नहीं कराऊँगा और न मथुन सेवन करनेवाला का अनुमोदन करूंगा । त्रिविध-त्रिविध रूप से मन, वचन और काया तथा करने, कराने और अनुमोदन रूप से मथुन सेवन का मुझे यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान है । हे भदन्त ! मैंने अतीत में मैथुन सेवन किया, उससे अलग होता हूँ और पाप का सेवन करने वाली प्रात्मा का त्याग करता हूँ | मैं सर्व मैथुन से विरति रूप इस चौथे महाव्रत में अपने को उपस्थित करता हूँ।" व्रत-परिपालन, ज्ञान-वृद्धि, कषाय-जय, स्वतंत्र वृत्ति की निवृत्ति के लिए यह आवश्यक होता है कि श्रामण्य ग्रहण कर श्रमण ब्रह्माधर्मगुरु के चरणों में रहे। इस उद्देश्य से गुरुकुलवास करने को भी ब्रह्मचर्य कहा है। १-उत्तराध्ययन १६ : २५,३६ २-इन महाव्रतों का उल्लेख अनेक आगमों में है। देखिए दशवैकालिक ४.१-६:१०.१०-२५; उत्तराध्ययन १६.२६-३१; आचाराङ्ग ध्रु० २.१५;स्थानांग ३८६; समवायांग ५ । संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है : इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय-अदिण्णादाण-मेहुणपरिग्गहराईभोयणाओ वेरमणं । अयमाउसो अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते । (औपपातिक सू० ५७) ३-(क) उत्तराध्ययन १६.३४ : कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ अ दारुणो। टक्ख बभव्वयं घोरं धारेउं य महप्पणो ॥ ४-वही १६ : २६ : विरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा। ---- महत्वयं बभ, धारेवव्वं सुदकरंगाय ला सव्वाओ मेहूणाओ वेरमणं ६-(क) दशवकालिक ४.४ (ख) आचारांग श्रु० २.१५ कोरी पाने ७-(क) तत्त्वार्थसूत्र ६.६ भाष्य १० : व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्यं गर्वधीनत्वं गुरुनिर्देशस्थायित्वमित्यर्थ च (ख) वही : ६.६ सर्वार्थसिद्धि : स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् (ग) वही ६.६ तत्त्वार्थवार्तिक २३ : . । अस्वातन्त्र्यार्थ गुरौ ब्रह्मणि चर्यमिति । अथवा ब्रह्मा गुरुस्तस्मिंश्चरणं तदनुविधानमस्य अस्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थ ब्रह्मचर्यमवतिष्ठते Scanned by CamScanner Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका की मैथुन शब्द की व्याख्या इस प्रकार है: स्त्री और पुरुष का युगन मिथन कहलाता है। मिथुन के भाव-बिग्रेप अथवा कम-विशेष को मैथुन कहते हैं । मैथुन ही अब्रह्म है। प्राचार्य पूज्यपाद ने विस्तार करते हुए लिखा है-मोह के उदय होने पर राग-परिणाम से स्त्री और पुरुप में जो परस्पर संस्पर्श की इच्छा होती है, वह मिथुन है। और उसका कार्य अर्थात् संभोग-क्रिया मैथुन है। दोनों के पारस्परिक सर्व भाव अथवा सर्व कर्म मैथुन नहीं, राग-परिणाम के निमित्त से होनेवाली चेष्टा मैथुन है । श्री अकलङ्कदेव एक विशेष बात कहते हैं-हस्त, पाद, पुद्गल संघट्टनादि से एक व्यक्ति का अब्रह्म सेवन भी मैथुन है। क्योंकि यहाँ एक व्यक्ति ही मोहोदय से प्रकट हुए कामरूपी पिशाच के संपर्क से दो हो जाता है और दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं । उन्होंने यह भी कहा—इसी तरह पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री के बीच राग भाव से अनिष्ट चेष्टा भी अब्रह्म है। उपर्युक्त विवेचन के साथ पाक्षिक सूत्र के विवेचन५ को जोड़ने से उपस्थ-संयम रूप ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है: मन-वचन-काय से तथा कृत-कारित-अनुमति रूप से दैविक मानुषिक, तिथंच सम्बन्धी सर्व प्रकार के वषयिक भाव और कर्मों से विरति । द्रव्य की अपेक्षा सजीव अथवा निर्जीव किसी भी वस्तु से मैथुन-सेवन नहीं करना, क्षेत्र की दृष्टि से ऊवं, अघो अथवा तिर्यग लोक में कहीं भी मैथुन-सेवन नहीं करना, काल की अपेक्षा दिन या रात में किसी भी समय मंथन-सेवन नहीं करना और भाव की अपेक्षा राग या द्वेष किसी भी भावना से मंथन का सेवन नहीं करना ब्रह्मचर्य है। - महात्मा गांधी ने लिखा है-"मन, वाणी और काया से सम्पूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य का अर्थ शारीरिक संयम मात्र नहीं है बल्कि उसका अर्थ है-सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन-वचन-कर्म से काम-वासना का त्याग। इस रूप में वह आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-प्राप्ति का सीधा और सच्चा मार्ग है।" ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सर्वेन्द्रिय संयम को आवश्यकता को जैनधर्म में भी सर्वोपरि स्थान प्राप्त है । वहाँ मन, वचन और काय से ही नहीं पर कृत-कारित-अनुमोदन से भी काम-वासना के त्याग को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए परमावश्यक बतलाया है। स्वामीजी सर्वेन्द्रियजयविषय-जय को एक परकोट की उपमा देते हुए कहते हैं शब्द रूप गन्ध रस फरस, भला मुंडा हलका भारी सरस। यो सं राग धेष करणो नाहीं, सील रहसी एहवा कोट माही॥ १–तत्त्वार्थसूत्र ७.११ और भाष्य : मैथुनमब्रह्म स्त्रीपुंसयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा मैथुनं तदब्रह्म २-तत्त्वार्थसूत्र ७.१६ सर्वार्थसिद्धि : स्त्रीपुंसयोश्च चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते। न सर्व । कर्म ।......स्त्रीपुंसयो रागपरिणामनिमित्तं चेष्टितं मैथुनमिति ३-तत्त्वार्थवार्तिक ७.१६.८: एकस्य द्वितीयोपपत्तौ मैथुनत्वसिद्ध : -तथैकस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वं तथैकस्य चारित्रमोहोदयाविवृतकामपिशाच वशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वसिद्धे मैथुनव्यवहारसिद्धिः ४-तत्त्वार्थवार्तिक ७.१६.६ ५-पाक्षिकसूत्र : से मेहुणे चउब्विहे पन्नत्त तंजहा–दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं मेहुणे स्वेसु वा स्वसहमएस वा। खित्तओ मेहुणे उड्ढलोए वा अहोलोए वां तिरियलोए वा । कालओ णं मेहुणे दिवा वा राओ वा । भावओ णं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा - ६-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ०३ Scanned by CamScanner Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ पवलतम साधन के रूप में ग्रहण इस तरह स्पष्ट है कि स्वामीजी ने सम्पूर्ण इन्द्रियों के संयम-विषय के जीतने को ब्रह्मचर्य की रक्षा के प्रबलतम साधन हैकिया है । इस तरह महात्मा गांधी और जैन परिभाषा की व्याख्या शब्दशः एक दूसरे के साथ मिल जाती है । संक्षेप में स्व पर शरीर में प्रवृत्ति का त्याग कर शुद्ध बुद्धि से ब्रह्म में स्व-प्रात्मा में चर्या ब्रह्मचर्य है'। ३-शाश्वत सनातन धर्म, ... भगवान महावीर के ठीक पूर्ववर्ती तीर्थकर पार्श्वनाथ थे। वे सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृपावाद विरमण, सर्व अदत्तादान और सर्व वहिर्दादान (परिग्रह) विरमण-इन चारयामों का प्ररूपण करते थे। भगवान महावीर के समय में भी अनेक पार्श्वपात्य निक साधु वर्तमान थे जो चातुर्याम का पालन और प्रचार करते थे। महावीर ने उपर्युक्त चारयामों में सर्व वहिर्शदान विरमण के पहले सर्व विरमण को और जोड़ दिया और पांचयाम का उपदेश प्रारम्भ किया। उनके निर्ग्रन्थ साधु पाँचयामों का पालन करने लगे। यह एक ही का विषय बन गया। पार्श्वनाथ के शिष्य केशीकुमार और वर्द्धमान के शिष्य गौतम दोनों ही विद्या और चारित्र में परिपूर्ण थे। इस शंका हो जानकर दोनों अपने-अपने शिष्य समुदाय के साथ तिन्दक बनमें मिले । और दोनों में निम्न वार्तालाप हुमा: Po: केशी ने पूछा : गौतम ! वर्धमान पाँचशिक्षा रूप धर्म का उपदेश करते हैं और पार्श्वनाथ ने चारयाम रूप धर्म का ही उपदेश दिया। एक ही कार्य के लिए प्रवृत्त इन दोनों में भेद होने का क्या कारण ? इस प्रकार धर्म के दो भेद होने पर आपको संशय क्यों नहीं होता?" : RES E ..... ... ..... गौतम बोले:"प्रज्ञा ही धर्म को सम्यक रूप से देखती है। तत्त्व का विनिश्चय प्रज्ञा से होता है। प्रथम तीर्थङ्कर के. मुनि ऋजजड थे और अन्तिम तीर्थङ्कर के मुनि वक्रजड़ हैं। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनि ऋजुप्राज्ञ थे। इससे धर्म के दो भेद देखे जाते हैं । प्रथम तीर्थङ्कर के मनि कठिनता से धर्म.समझते और अन्तिम जिन के मुनियों के लिए धर्म-पालन कठिन है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों के लिए धर्म समझना और पालन करना सुलभ होता है । अत: प्रथम और चरम तीर्थङ्कर के मार्ग में ब्रह्मचर्य याम का पृथक् प्ररूपण ही सुखावह है।" अन्य तीर्थङ्कर चारयाम का ही प्ररूपण करते हैं।" १--या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचः प्रवत्तिः। तद्ब्रह्मचर्य व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम् ॥ २-(क) भगवती २.५: तेणं काले णं ते णं समये णं पासावञ्चिजा थेरा भगवतो...सहुंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुगिया नंगरी......तेणेव उवागच्छंति.....तए गंते थेरा भगवतो तिसं समणोवासयाणं......चाउज्जा धम्म परिकहंति (ख) सूत्रकृताङ्क २.७ : त ए णं से उदए पेढालपुत्ते समणं भगवं महावीरं...वंदिता नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि गं भंते ! तुल्भं अंतिए चाउजमाओ धम्माओ पंचमहव्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उपसंपजित्ता णं विहरित्तए...। ३-उत्तराध्ययन २३.१-१५ : .४.-उत्तराध्ययन २३.२.३-२४ : चाउज्जामो य जो धम्मो जो इमो पंचसिक्खिओ। 25TH .. : .. देसिओ वद्धमाणेण पासेण य महामुणी॥ एगकजपवन्नाणं विसेसे कि नु कारणं । धम्मे दुविहे मेहावि कहं विप्पच्चओ न ते ॥ -वही २३.२५-२७,८७. ६-स्थानाङ्ग : पच्छिमवजा मज्झिमगा बावीसं अरिहंता भगवंता चाउज्जामं धम्म पगणवेति तं जहां सव्वतो पाणातिवायाओ वेरमणं एवं मुसावा याओ वेरमणं सव्वातो अदिन्नादाणाओ वेरमणं सव्वओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं Scanned by CamScanner Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका विनोद pr इस चर्चा के बाद केशी श्रमण ने श्रमणसंघ सहित पांचयाम रूप धर्म को ग्रहण किया। उपर्युक्त वार्तालाप के फलित इस प्रकार हैं: -भगवान महावीर ने जो पांचयाम का उपदेश किया, यह कोई नई बात नहीं थी। प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव भी पाँचयाम का उपदेश करते थे। २-पार्श्वनाथ के मुनि ऋजुप्राज्ञ थे अतः मैथुन विरमण याम को वहिर्शदान (परिग्रह) के अन्तर्गत मानने में उनको कठिनाई नहीं होती और चारयाम के धारक होने पर भी मैथुन विरमण को वहिर्शदान विरमण के अन्तर्गत मान व्यवहारतः पाँचों का पालन करते थे। . ३–प्रथम तीर्थङ्कर के मुनि कठिनता से समझते अत: उनके सुखाबोध के लिए सर्व मैथुन विरमण का एक अलग याम के रूप में उपदेश किया गया। चरमै तीर्थङ्कर के मुनियों के लिए पालन करना कठिन था। अत: ब्रह्मचर्य के पालन पर सम्यक् जोर देने के लिए महावीर ने सर्व मैथन विरमण महाव्रत को पुनः पृथक् कर पांचयाम का उपदेश दिया। PARE इस तरह स्पष्ट हो जाता है कि 'सर्व मैथन विरमण महाव्रत' अर्थात 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' जैन परम्परा में एक सनातन धर्म के रूपमें स्वीकृत रहा-कभी पृथक् महाव्रत के रूप में और कभी वहिदान विरमण महावत के अन्तर्गत व्यवहार धर्म के रूप में। इस बात को ध्यान में रख कर ही कहा गया है- "ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। यह जिन-देशित है। पूर्व में इस धर्म के पालन से अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, अभी होते हैं और आगे भी होंगे।" ४-आश्रम व्यवस्था और ब्रह्मचर्य का स्थान ___ मनुस्मृति के अनुसार सारे धर्म का मूल वेद हैं—'वेदोऽखिलो धर्ममूलम्" (२.६)। उसमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास -इन चारों आश्रमों की उत्पत्ति वेद से बताई गई है । पर वेदों में-संहिता और ब्राहाणों में आश्रम शब्द का उल्लेख नहीं मिलता । और न ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रमों के नाम ही मिलते हैं। अत: चतुराश्रम-व्यवस्था वेद-प्रसूत है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वेदों में ब्रह्मचारी और ब्रह्मचर्य शब्द मिलते हैं। शतपथ आदि प्राचीन ब्राह्मण ग्रन्थों में ब्रह्मचर्य शब्द उपलब्ध है ५। इससे प्रमाणित होता है कि ब्रह्मचर्य पाश्रम की कल्पना का बीज वेदों में उपलब्ध था। वेदों में "हे वधु ! हम दोनों की सौभाग्य-स्मृद्धि के लिए मैं तुम्हारा पाणि-ग्रहण करता हूँ। मैंने तुम्हें देवताओं से प्रसाद रूप में गार्हपत्य के लिए गृहस्थ-धर्म के पालन के लिए पाया है। ऐसे सूक्त भी पाये जाते हैं जिससे कहा जा सकता है कि गृहस्थ आश्रम की कल्पना का आधार भी वेदों में है। पर वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम के बीज वेदों में उपलब्ध नहीं हैं। वेदों के "तुम १-उत्तराध्ययन २३.८७ : एवं तु संसए छिन्ने केसी घोरपरक्कमे । अभिवन्दित्ता सिरसा गोयमं तु महायर । पंच महव्वयधम्म पडिवज्जइ भावओ। पुरिमस्स पच्छिमंमि मग्गे तत्थ सुहावहे ॥ -उत्तराध्ययन १६.१७ : एसे धम्मे धुवे निच्चे सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण सिज्झिस्सन्ति तहावरे ।। ३-मनुस्मृति १२.६७ : चातुर्वर्ण्य त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् । भूतं भव्यं भविष्यं च सर्व वेदात्प्रसिद्धयति ॥ Be eg ४—(क) ऋग्वेद १०.१०६.५; अथर्ववेद ५.१७.५; तेत्तिरीय संहिता ३.१०. ५ T (ख) अथर्ववेद ११.५.१-२६ ५-शतपथ ब्राह्मण ६.५.४.१२ ६-ऋग्वेद १०.८५.३६ : । गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं... मह्यत्वादुर्गार्हपत्याय देवाः । 1 36937 Scanned by CamScanner Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाढ़ पनिषद में प्रथम तीन पाश्रमों का संकेत नोकरी" पति पत्नी के साथ जीवन-पर्यंत अग्निहोत्र करे", "पति पत्नीसह जीवनपर्यन्त दर्श और यागों को करे३" ग्रादि विधानों से स्पष्ट है कि वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम की कल्पना के आधार वेद नहीं हैं। उपनिषद् काल में पाश्रम-व्यवस्था का क्रमशः उत्तरोत्तर विकास देखा जाता है। छान्दोग्य उपनिषद में प्रथम तीन साल रूप में वर्णन है। अन्य उपनिषदों में संन्यास-ग्रहण के उल्लेख हैं। जाबालोपनिषद् (४) में चारों आश्रमों का स्पष्ट रूप में नाम-निशा - धर्मसूत्रों के युग में चतुराश्रम-व्यवस्था अच्छी तरह देखी जाती है। प्राचीन-से-प्राचीन धर्मसूत्र में भी चारों पाश्रमों का उल्लेख धिमा का उल्लेख पाया जाता है। 6. उपर्युक्त चार पाश्रमों के ग्रहण की व्यवस्था के सम्बन्ध में छान्दोग्य उपनिषद् में निम्न दो विधान मिलते हैं। : (१) ब्रह्मचर्य को समाप्त कर गृही होना चाहिए। गृहस्थ के बाद वनी-वानप्रस्थ होना चाहिए। वानप्रस्थ के बाद प्रवजित तो. चाहिए। यह समुच्चय पक्ष कहलाता है। -- (२) यदि अन्यथा देखे अर्थात उत्कट वैराग्य हो तो ब्रह्मचर्य से ही संन्यास ग्रहण करे वा गृहस्थाश्रम से वा वानप्रस्थ से संन्यास में गमन करे अथवा जब वैराग्य उत्पन्न हो तभी प्रवजित हो। यह विकल्प पक्ष कहलाता है। - (३) तीसरा मत गौतम और बौधायन जैसे प्राचीन धर्म सूत्रों का है। इनके अनुसार प्राश्रम एक ही है और वह है गृहस्थ आश्रमा ब्रह्मचर्य आश्रम गृहस्थ आश्रम की भूमिका मात्र है। इसे बाध पक्ष कहते हैं । समुच्चय पक्ष के अनुसार पाश्रमों को उनके क्रम से ही ग्रहण किया जा सकता है । बीच के आश्रम को छोड़कर बाद का ग्रहण नहीं किया जा सकता । उदाहरण स्वरूप ब्रह्मचर्य से अथवा गार्हस्थ आश्रम से सीधा संन्यास ग्रहण नहीं किया जा सकता। इस मत के सम्बन्ध में श्री काने लिखते हैं : “यह मत विवाह अथवा वैवाहिक जीवन (Sexual life) को अपवित्र अथवा संन्यास से निम्नकोटि का नहीं मानता। इतना ही नहीं यह गार्हस्थ्य को संन्यास से उच्च स्थान देता है। समुच्चय रूप से अधिकांश धर्मशास्त्रों का झुकाव गार्हस्थ्य आश्रम की महिमा वढ़ाने तथा वानप्रस्थ और संन्यास को पीछे ढकेलने की ओर रहा है । यह बात यहाँ तक पहुंची है कि कितने ही ग्रंथों में यह उल्लेख आया है कि कलिकाल में वानप्रस्थ और संन्यास वजित हैं।" आपस्तम्ब धर्मसूत्र में पाश्रमों का क्रम इस प्रकार है-"आश्रम चार हैं-- गार्हस्थ्य, आचार्यकुल-वास, मौन और वानप्रस्थ ।" यहाँ 'प्राचार्य कुलवास' ब्रह्मचर्य का द्योतक है और 'मौन' संन्यास का । यहाँ गार्हस्थ्य प्राश्रम को सब आश्रमों से पूर्व रखा है। इसका कारण वही है जो श्री काने ने उल्लिखित किया है। समुच्चय और विकल्प पक्ष की आलोचना करते हुए बौधायन धर्मसूत्र में लिखा है-"प्रह्लाद के पुत्र कपिल ने देवों के प्रति स्पर्धा के कारण पाश्रम-भेदों को खड़ा किया है । मनीषी इन पर ध्यान नहीं देते।" १-ऋग्वेद १०.८५.३६ : गृभ्णामि ते सौभगत्वाय हस्तं मया पत्या जरदष्टिर्यथासः २-यावज्जीवमग्निहोत्रं जुहोति ३-यावज्जीवं दर्शपूर्णमासाभ्यां यजेत् ४-छान्दोग्य उपनिषद् २.२३.१ ५--बृहदारण्यक उपनिषद् ३.५.१; ४.५.२; मुण्डक उपनिषद् १.२.११; ३.२.६ ६-जाबालोपनिषद् ४: ब्रह्मचर्य परिसमाप्य गृही भवेद् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्या - यदि वेतरथा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेद्गृहाद्वावनाद्वा । यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत् । ७-(क) गौतम धर्मसूत्र ३.१,३५ : तस्याश्रमविकल्पमेके ब्रुवते । ऐकाश्रम्यं त्वाचार्य प्रत्यक्षविधानाद्गार्हस्थ्यस्य (ख) बौधायन धर्मसूत्र २.६.२६ : ऐकाश्रम्यं त्वाचार्य अप्रजननत्वादितरेषाम् । 5-History of Dharmasastra Vol. 11 Part I p. 424 Scanned by CamScanner Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका समज बोधायन ने यह भी कहा है-"वास्तव में पाश्रम एक है-गृहस्थाश्रम'।" यहाँ संक्षेप में यह भी जान लेना आवश्यक है कि ब्रह्मचर्य पाश्रम में प्रवेश किस तरह होता था और ब्रह्मचारी के विशेप धर्म व कर्तव्य क्या थे। बालक प्राचार्य से कहता-मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया है। मुझे ब्रह्मचारी करें। आचार्य विद्यार्थी से उसका नाम पूछता । इसके बाद प्राचार्य उपनयन करते-उसे अपने नजदीक लेते । और उसके हाथ को ग्रहण कर कहते-तुम इन्द्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारा प्राचार्य है, मैं तुम्हारा प्राचार्य हैं। इसके बाद प्राचार्य उसे भूतों को अर्पित करते । आचार्य शिक्षा देते-जल पीनो, कर्म करो, समिधा दो, दिन में मत सोप्रो, मघ मत खाओ। इसके बाद आचार्य सावित्री मंत्र का उचारण करते। इस तरह छात्र ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचर्याश्रम में प्रतिष्ठित होता। लाः ब्रह्मचारी गुरुकुल में वास करता । प्राचार्य को शुश्रूषा और समिधा-दान आदि सारे कार्य करने के बाद जो समय मिलता उसमें वह वेदाभ्यास करता। उसे भूमि पर शयन करना पड़ता। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना पड़ता। ब्रह्मचर्य उसके विद्यार्थी जीवन का सहचर व्रत था। वेदाध्ययन-काल साधारणत: एक परिमित काल था। इसकी आदर्श अवधि १२ वर्ष की कही गयी है पर कोई एक वेद का अध्ययन करने के बाद भी गुरुकुल वास से वापिस घर जा सकता था। वैसे ही कोई चाहता तो १२ वर्ष से अधिक समय तक भी वेदाध्ययन चला सकता था। ये सब विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहलाते थे। इसके अतिरिक्त नैष्ठिक ब्रह्मचारी भी होते । वे जीवन-पर्यन्त वेदाभ्यास का नियम लेते और 'आजीवन ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते। नैष्ठिक ब्रह्मचारी की परम्परा स्मृतियों से प्राचीन नहीं कही जा सकती हालांकि इसका वीज उपनिषद काल में देखा जाता है। वेदाध्ययन से मुक्त होने पर विद्यार्थी वापिस अपने घर आता था। वह स्नातक कहलाता । अब वह गार्हस्थ्य के सर्व भोगों को भोगने के लिए स्वतन्त्र था । वेदाध्ययन काल से मुक्त होने पर विवाह कर सन्तानोत्पत्ति करना उसका आवश्यक कर्त्तव्य होता था। ऊपर के विस्तृत विवेचन का फलितार्थ यह है : 4 (१) वैदिक काल में वानप्रस्थ और संन्यास प्राश्रम नहीं थे। गार्हस्थ्य प्रधान था । बाल्यावस्था में छात्र गुरुकुल में वास कर वेदाभ्यास करते । इसे ब्रह्मचर्य कहा जाता और वेदाभ्यास करने वाले छात्र ब्रह्मचारी कहलाते थे। चिया (२) ब्रह्मचर्य आश्रम का मुख्य अर्थ है गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्म-वेदों की चर्या-अभ्यास। वेदाभ्यास काल में अन्य नियमों के साथ विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवार्य था। परन्तु इस कारण से वह ब्रह्मचारी नहीं कहलाता था, वेदाभ्यास के कारण ब्रह्मचारी कहलाता था। यह इससे भी स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य ग्रहण करते समय भी "सर्व मैथुन विरमण" जैसा कोई व्रत न छात्र लेता था और न आचार्य दिलाते थे। ..(३) वैदिक काल में वानप्रस्थ और संन्यास की कल्पना न रहने से मुख्य आश्रम गार्हस्थ्य ही रहा। उस समय प्रजोत्पत्ति पर विशेष बल दिया जाता रहा। इस परिस्थिति में जीवन-व्यापी 'सर्व अब्रह्म विरमण' की कल्पना वेदों में नहीं देखी जाती। (४) उपनिषद् काल में क्रमश: वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम सामने आये। इस व्यवस्था में उत्सर्ग मार्ग में संन्यास का स्थान अंतिम रहा । अतः सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य जीवन के अन्तिम चरण में साध्य होता और वानप्रस्थ सपत्नीक भी होता था। (५) उपनिषद् काल में 'यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत्'-इस विकल्प पक्ष ने ब्रह्मचर्य पाश्रम से सीधा संन्यास आश्रम में जा सकने का मार्ग खोल कर जीवन-व्यापी पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन की भावना को बल दिया पर धर्मसूत्रों के काल में इस व्यवस्था पर आक्रमण हुए। वानप्रस्य और संन्यास को अवेदविहित कह कर उन्हें बहिष्कृत किया जाने लगा। गार्हस्थ्य आश्रम ही एक मात्र आश्रम है' कह कर गार्हस्थ्य को पुनः प्रतिष्ठित करने से सर्व प्रब्रह्म विरमण की भावना पनप न पाई। १-यौधायन धर्मसूत्र २.६.२६-३१ : - ऐकाश्रम्यं त्वाचार्या अप्रजननत्वादितरेषाम् तत्रोदाहरन्ति । प्राहादि कपिलो नामासर आस स एतान्भेदांश्चकार देवैः स्पर्धमानस्तान्म नीषी नाद्रियेत । -शतपथ ११.५.४.१-१७ ३–छान्दोग्य उपनिषद् ८.१५.१ : आचार्यकुलाद्वदमधीत्य यथाविधानं गुरोः कातिशेषेणाभिसमावृत्य । -४-History of Dharmasastra Vol. 11 Part 1 pp. 319- 352 0५-छान्दोग्य उपनिषद् २.२३.१ Scanned by CamScanner Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० शील की नव वाद . जैन धर्म में पाश्रम-व्यवस्था को कभी स्थान नहीं मिला। ऐसी परिस्थिति में "जब वैराग्य हो तभी प्रवजित हो जायो" या रहा । वैराग्य होने पर सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य भी जीवन के प्रथम चरण में यावज्जीवन के लिए ग्रहण किया जा सकता है । इसी कारण कुमार में अन्य महावतों के साथ सर्व मैथन विरमण ब्रत ग्रहण कर प्रव्रज्या लेने के महत्वपूर्ण प्रसंगों का उल्लेख पागमों में मिलता है।। जैन धर्म और वैदिक धर्म में प्राथम-व्यवस्था को लेकर एक महान अन्तर है। जैन धर्म इस जीवन-क्रम को स्वाभाविक नहीं पर क्योंकि जीवन, कमल के पत्ते पर पड़े हुए प्रोस-बिन्दु की तरह, अस्थिर है। वैसी हालत में निर्विकल्प धर्म-पालन का क्रम शेष में रखना मना जीवन की वास्तविक स्थिति-'पावीचिमरण' को भूलने जैसा है। जैन धर्म ने इसी दृष्टि से इस आश्रम भेद की जीवन-व्यवस्था को कभी स्वीकार नहीं किया और धर्म में शीघ्रता नहीं होती, इसी बात को अग्रसर रखा है। दोनों संस्कृतियों की भिन्न-भिन्न विचारसरणियों का तुलनात्मक हो निम्न प्रसंग से होगा। जन्म, जरा और मृत्यु के भय से व्याकुल होकर और मोक्ष-प्राप्ति में चित्त को स्थिर कर संसार-चक्र से विमुक्त होने की उत्सुकता से भृगु पुरोहित के दो पुत्रों ने प्रव्रज्या लेने का विचार किया । वे अपने पिता से आकर बोले : “यह विहार-मनुष्य-शरीर अशाश्वत है। विघ्न बहुत हैं । आयु भी दीर्घ नहीं। हमें घरमें रति--प्रानन्द नहीं मिलता। आप आज्ञा दें। हम मौन (श्रामण्य) धारण करेंगे।" यह सुन कर भग पुरोहित बोला: "वेदवित कहते हैं कि पूत्र-रहित को लोक व परलोक की प्राप्ति नहीं होती। हे पुत्रो ! तुम लोग वेदों को पढकर. बाटा को भोजन करा कर, स्त्रियों के साथ भोग भोग कर, पुत्रों को घर सौंप फिर अरण्यवासी प्रशस्त मुनि बनना'।" उपर्युक्त कथन में वैदिक संस्कृति के चार आश्रमों के जीवन-क्रम का ही वर्णन है । ब्रह्मचर्याश्रम में वेदाध्ययन के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के मंगलाचार के रूप में स्नातकों को भोजन कराने की विधि थी। पिता ने पुत्रों से कहा ब्रह्मचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम विताने के। बाद संन्यास लो। इस क्रम को तथ्यहीन बतलाते हुए बालकों ने कहा-'हे पिताजी ! वेदाध्ययन रक्षा नहीं करता। भोजन कराये हुए द्विज तमतमा ले। जाते हैं और उत्पन्न हुए पुत्र रक्षक नहीं होते। ऐसी परिस्थिति में हम लोग आप की बात को कैसे मानें ?" भृगु पुत्रों ने ब्राह्मणों को भोजन कराने में पाप बतलाते हुए गृहस्थाश्रम का खण्डन किया और मोक्ष-प्राप्ति के लिए प्रथम गृहस्थाश्रमी होने की बात को मानने से इन्कार कर दिया। इस आश्रम-व्यवस्था को ब्राह्मणों ने क्यों नहीं स्वीकार किया इसका कारण यह है : "अमोघ शस्त्रधारा के पड़ने से सर्व दिशाओं में पीडित हए इस लोक में अब हम घर में रह कर प्रानन्द को प्राप्त नहीं कर सकते । यह लोक मृत्यु से पीडित हो रहा है। जरा से घिरा हुआ है। रात-दिन अमोघ शस्त्र-धार की तरह बह रहे हैं। जो रात्रि जाती है, वह वापिस नहीं आती। अधर्म करनेवालों की रात्रियां निष्फल जाती हैं। जो धर्म का आचरण करते हैं उनकी रात्रियाँ सफल होती हैं । जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता है, जो उससे भागकर बच सकता है, जो यह जनता है कि मैं नहीं मरूँगा, वही कल की आशा कर सकता है। हम आज ही धर्मग्रहण करेंगे। श्रद्धापूर्वक विषय-राग को दूर करना ही योग्य है।" ब्राह्मण कुमारों ने जो उत्तर दिया वह जैन-धर्म की विचार-पद्धति है । जहाँ पल का भी भरोसा नहीं वहाँ वर्षों का भरोसा करना निरी मूर्खता है । 'यह करूंगा' 'वह करूंगा' ऐसा करते-करते ही काल मनुष्य-जीवन को हर लेता है । वैसी हालत में एक समय का भी प्रमाद करना भयङ्कर भूल है। जैन धर्म की यह विचार धारा, स्पष्टतः उस वैदिक धारा से भिन्न है जो पाश्रम रूप में जीवन के चार भाग करती है। इसके बाद कुमारों ने मौन ग्रहण किया। यह मौन और कुछ नहीं था । सर्व संयम रूप ब्रह्मचर्य और उसको ग्रहण करते समय जो पाँच महाव्रत अङ्गीकार किये जाते हैं और जिनमें सर्व मैथुन विरमण भी होता है, वही था। आश्रम-व्यवस्था के सम्बन्ध में डॉ. ए. एल. बासम के निम्न विचार मननीय हैं : "पाश्रम-व्यवस्था वर्ण-व्यवस्था के बाद का विचार है।....आश्रम-व्यवस्था, वास्तव में एक आदर्श को उपस्थित करती है न कि यथार्थ को। अनेक युवक जीवन के प्रथम क्रम ब्रह्मचर्य आश्रम का १-उत्त० १४.६ : अहिज वेए परिविस्स विप्पे पुत्त परिठ्ठप्प गिहंसि जाया। भोच्चाण भोए सह इत्थियाहि आरएणगा होइ मुणी पसत्था ॥ २-उत्तराध्ययन अ० १४ गा०६-२८ VARTAananesade S HIY . Scanned by CamScanner Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका उसके. बताये हुए रूप में कभी पालन नहीं करते थे। और बहुत थोड़े ही दूसरे क्रम गार्हस्थ्य पाश्रम के उस पार पहुंचते । प्राचीन भारत के बहुत से प्रारण्यक और मुनि आयु में वृद्ध नहीं थे और उन्होंने गार्हस्थ्य प्राश्रम को या तो संक्षिप्त किया था अथवा उसे वाद ही दे दिया। चार आश्रमों की श्रृंखला तथ्यों का प्रादर्शीकरण है और अध्ययन, गार्हस्थ्य और श्रामण्य की विरोधी मांगों को एक जीवन-काल में स्थान देने का कृत्रिम प्रयत्न है। यह संभव है कि आश्रम-व्यवस्था की उत्पत्ति का आंशिक कारण उन अवैदिक बौद्ध और जैन सम्प्रदायों का प्रतिवाद करना रहा हो जो कि युवकों को भी मुनित्व ग्रहण करने की प्रेरणा देते रहे और गार्हस्थ-जीवन को सम्पूर्णत: बाद देते रहे। प्रारंभ में बौद्ध धर्म और जैन धर्म की यह प्रणाली ब्राह्मणों की स्वीकृति प्राप्त नहीं कर सकी, हालांकि बाद में इसके लिए स्थान बनाना पड़ा।" ५-ब्रह्मचर्य और अन्य महाव्रत य महाव्रत एक बार गणधर गौतम ने श्रमण भगवान महावीर से पूछा : "भंते ! मैथुन सेवन करनेवाले पुरुप के किस प्रकार का असंयम होता है ?" महावीर ने उत्तर दिया : "हे गौतम ! जैसे एक पुरुष रूई की नली या वूर की नली में तप्त शलाका डाल उसे विध्वंस कर दे। मैथुन-सेवन करनेवाले का असंयम ऐसा होता है।" आचार्य अमृतचन्द्र ने उक्त बात को इस प्रकार रखा है : 'सहवास में प्राणीवध का सर्वत्र सद्भाव रहता है अतः हिंसा भी अवश्य होती है। जिस प्रकार तिलों की नली में तप्त लोह के डालने से तिल भुन जाते हैं, उसी प्रकार मैथन-क्रिया से योनि में बहुत जीवों का संहार होता है। कामोद्रेक से किञ्चित् भी अनङ्गरमणादि क्रिया की जाती है उसमें भी रागादि की उत्पत्ति के निमित्त से हिंसा होती है।" अब्रह्म में हिंसा ही नहीं अन्य पाप भी हैं। प्राचार्य पूज्यपाद लिखते हैं : " अहिंसादि गुण जिसके पालन से सुरक्षित रहते या बढ़ते हैं, वह ब्रह्म है । जिसके होने से अहिंसादि गुण सुरक्षित नहीं रहते, वह अब्रह्म है । अब्रह्म क्या है ? मैथुन । मैथुन से हिंसादि दोषों का पोषण होता है। जो मैथुन-सेवन में दक्ष है, वह चर-अचर सब प्रकार के प्राणियों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, बिना दी हुई वस्तु लेता है तथा चेतन और अचेतन दोनों प्रकार के परिग्रह को स्वीकार करता है।" १-The Wonder that was India pp. 158-159 २-भगवती २.५ : .... ... मेहुणेणं भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कज्जइ ? गोयमा! से जहा नामए केई पुरिसे रूयनालियं वा, बूरनालियं वा तत्तेणंकणएणं समविद्धंसेज्जा, एरिसएणं गोयमा ! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जइ। - ३–(क) पुरुषार्थसिद्ध युपाय १०७; १०८, १०६ : a . यह दरागयोगान्मथुनमाभधायत तदब्रह्म । अवतरति तत्र हिंसा वधस्य सर्वत्र सद्भावात् ॥ अपतरात हिस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहते तिला यद्वत् । ... बहवो जीवा योनो हिस्यन्ते मेथुने तद्वत् ॥ .. यदपि क्रियते किञ्चिन्मदनोद्रेकादनगरमणादि । तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितंत्रत्वात् ॥ (ख) ज्ञानार्णव १३.२ : : मैथुनाचरणे मूढ म्रियन्ते जन्तुकोटयः । योनिरन्ध्रसमुत्पन्ना लिङ्गसंघटपीडिताः॥ ४-तत्त्वार्थपूत्र ७.१६ सर्वार्थसिद्धि : अहिसादयो गुणा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म । न ब्रह्म अब्रह्म इति । कि तत् ? मैथुनम् । तत्र हिंसादयो दोषाः पुष्यन्ति । यस्मान्मैथुनसेवनप्रवणः स्थास्नॅचरिष्णून् प्राणिनो हिनस्ति मृपावादमाचष्ट अदत्तमादत्त अचेतनमितरं च परि Scanned by CamScanner Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ शील की नय बाड़ SAF"जैन धर्म में सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व भदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण और सर्व परिग्रह विरमण इन पांच को महावत कहते हैं, यह पहले वताया जा चुका है। जो श्रामण्य (ब्रह्मचर्य) को ग्रहण करता है उसे इन पांचों महायतों को एक साथ ग्रहण करना होता है। जो इन्हें युगपत् रूप से सम्पूर्ण रूप में ग्रहण नहीं करता, वह किसी का पालन नहीं कर सकता। स्वामीजी ने इस बात को अपनी एक अन्य कृति गुरु-शिष्य के संवाद रूप में बड़े ही सुन्दर और मौलिक ढंग से समझाया है। उसका सार इस प्रकार है: गुरु : हिंसा, चोरी, झूठ, प्रब्रह्मचर्य और परिग्रह-इन दुष्कर्मों के माचरण से जीय कर्मों को उपार्जन कर चार गति रूप संसार में श्रमण करता है। अहिंसा, अमिथ्या, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-इन पांचों महानतों का निरतिचार पालन करनेवाला पुरुष नये कर्मों का उपार्जन न करता हुआ पुराने कमों का क्षय करता है और इस प्रकार अपनी प्रात्मा को निर्मल कर मोक्ष प्राप्त करता है। शिष्य : मैं पहला महाव्रत ग्रहण करता हूँ-मैं छः प्रकार के जीवों की हिंसा नहीं करूँगा परन्तु मेरी जवान इतनी वश में नहीं कि मैं झूठ छोड़ सकू। अत: मुझे झूठ बोलने की इट है। गुरु : भगवान के बताये हुए पाँच महाप्रत इस तरह ग्रहण नहीं किये जाते । जब तुम झूठ बोलने का त्याग नहीं करते तव यह विश्वास कैसे हो कि तुम हिंसा में धर्म नहीं ठहरावोगे। झूठ बोलनेवाला यह कहते संकोच कैसे करेगा कि देव, गुरु और धर्म के लिए प्राणियों की हिंसा करने में बुराई नहीं और आरंभादि से जीव भली गति को प्राप्त करता है । मिथ्या भाषण द्वारा कोई इस सिद्धान्त का प्रचार करने लग जाय कि हिंसा में भी धर्म है तो महाव्रत की तो बात दूर रही सम्यक्त्व-सत्य दृष्टि का भी लोप हो जाय । शिष्य : स्वामिन् ! मैं हिंसा और झूठ दोनों का त्याग करूंगा परन्तु चोरी नहीं छोड़ सकता । धन से मुझे अत्यन्त मोह है। गुरु : यदि तू जीव-हिंसा और झूठ को छोड़ता है तो तेरी चोरी कैसी निभेगी ? यदि तू चोरी कर सत्य बोलेगा तो लोग तुझे चोरी कब करने देंगे। परधन की चोरी करने से मालिक दुःख पाता है। किसी को दुःख देना हिंसा है । यदि तू कहेगा कि इसमें हिंसा नहीं तो पहले दोनों ही महाव्रत चकनाचूर हो जायेंगे । क्योंकि हिंसा को अस्वीकार करने से झूठ का दोष भी लगेगा। शिष्य : मैं तोनों महाव्रतों को अच्छी तरह ग्रहण करता हूँ। परन्तु चौथा महाव्रत स्वीकार करना मुझ से नहीं बनता । मोहोदय से आत्मा स्ववश नहीं। मैं ब्रह्मचर्यपूर्वक नहीं रह सकता। - गुरु : ब्रह्मचर्य के सेवन से पहले तीनों महाव्रत भंग होते हैं । अब्रह्मचर्य सब गुणों को एक पलक मात्र में उसी तरह छार कर देता है जिस तरह धुनी हुई रूई को आग । मैथुन से पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा होती है । हिंसा नहीं होती, ऐसा कहने से झूठ का दोष लगता है। परप्राण का हरण चोरी है। अब्रह्मचर्य सेवन से प्रभु की आज्ञा का भङ्ग होता है—चोरी लगती है। इस तरह तीनों ही महायत खण्डित हो जाते हैं। शिष्य : मैं चारों ही महाव्रतों को ग्रहण करता हूँ; परन्तु पाँचवां महाव्रत कैसे ग्रहण करूँ ? ममता छोड़ना मेरे लिए कठिन है । मैं नव ही प्रकार का परिग्रह रलूँगा। गुरु : क्षेत्र-वस्तु, धन-धान्य, द्विपद-चीपद, हिरण्य-सुवर्ण और कुम्भी धातु-ये परिग्रह, हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य-इन चारों आस्रवों के मलाधार हैं । तु परिग्रह की छूट रख कर अन्य व्रतों का किस तरह पालन कर सकेगा ?...ऐसा कहना तो तुम्हारी निरी भूल है। शिष्य : खैर; मैं पांचों ही प्रास्रवों का त्याग करता हूं पर एक करण तीन योग से। मेरे स्नेही—संगी बहुत हैं अतः मैं कराने और अनु- मोदन करने की छूट रखता हूँ। - गुरु : घर में तो तुम्हें कोई पूछता ही नहीं था और खाने के लिए तुम्हें अन्न भी नहीं मिलता था और अब भगवान के साधुओं का वेष - ग्रहण करने की इच्छा कर राज्य करने चले हो ! तुमने त्याग कर कितना त्यागा है ? अब तो तुम लोक में हुक्म चलाने की कामना रखते हो ! - इस हिसाब से तुम एक महाराजा से कम कहाँ हो ? शिष्य : मैं पाँचों ही प्रास्रवों का दो करण तीन योग से त्याग करता हूँ। अब केवल अनुमोदन की छूट रहती है। गुरु : अनुमोदन की छूट रखने से तू अपने लिए किया हुआ पाहार आदि स्वीकार करेगा। संयोग बना रहेगा। इससे पांचों ही महाव्रतों में विकार उत्पन्न होगा। हिंसा आदि पाँचों पापों में अनुमोदन की भावना-हर्ष भावना रहने से उनके प्रति तुम्हारा आदर भाव नहीं छूटेगा। इस तरह मन, वचन और काय—इन तीनों ही योगों के विषयों में तुम्हारा प्रार्त-री ध्यान रहेगा। पांच प्रास्रवों का तीन करण तीन योग से VIESS 1028 Scanned by CamScanner Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका परिहार किये बिना कोई अनगार नहीं हो सकता। धर्म और शुक्ल ध्यान से ही अनगार होता है । 20 शिष्य बोला : ग्रात्म-कल्याण के लिए मुझे पाँचों महाव्रत तीन करण तीन योगपूर्वक यावज्जीवन के लिए ग्रहण करावें ? | जैन धर्म में कार्य करने के तीन साधन बताये गये हैं— मन, वचन और काय । इन्हें करण कहा जाता है। कार्य तीन तरह से होता है— करना, कराना और अनुमोदन करना। इन्हें योग कहा जाता है । हिंसा, झूठ, श्रदत्तादान - चोरी, मैथुन और परिग्रह, इन सब के त्याग एक साथ तीन करण और तीन योग से किये जाते हैं तब ही श्रहिंसा, सत्य, श्रचीर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के महाव्रत सिद्ध होते हैं अन्यथा नहीं। किसी भी एक महाव्रत की रक्षा का उपाय दूसरे महाव्रत हैं । . जेसे पाँचों महाव्रतों को एक साथ ग्रहण करना पड़ता है, वैसे ही उनका पालन भी युगपत् रूप से करना पड़ता है। जो एक महाव्रत को भङ्ग करता है वह सब को भङ्ग करता है। स्वामीजी ने इस तत्त्व को निम्न प्रकार से समझाया है : "एक भिखारी को पांच रोटी जितना श्राटा मिला। वह रोटी बनाने बैठा। उसने एक रोटी पका कर चूल्हे के पीछे रख दी। दूसरी रोटी तवे पर सिंक रही थी। तीसरी अंगारों पर थी। चौथी रोटी का घाटा उसके हाथ में था और पांचवीं रोटी का कठौती में एक कुत्ता आया और कठौती से घाटे को उठा ले गया। भिखारी उसके पीछे दौड़ा। यह ठोकर खाकर गिर पड़ा। उसके हाथ में जो एक रोटी का घाटा था वह धूल में गिर पड़ा। वापस आया इतने में चूल्हे के पीछे रखी हुई रोटी बिल्ली ले गयी । तवे की रोटी तवे पर ही जल गयी । अंगारों पर रखी हुई वहीं छार हो गई। एक रोटी का आटा जाने से बाकी चार रोटियां भी चली गयीं। कदाश एक रोटी के नष्ट होने पर अन्य रोटियाँ नष्ट न भी हों, पर यह सुनिश्चित है कि एक महाव्रत के भङ्ग होने पर सभी महाव्रत भङ्ग हो जाते हैं ।" इसी तथ्य के कारण श्रागम में कहा गया है- "एक ब्रह्मचर्य व्रत के भङ्ग होने से सहसा सब गुण भङ्ग हो जाते हैं, मदित हो जाते हैं, मत हो जाते हैं, कंति हो जाते हैं, पर्वत से घिरी हुई वस्तु की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाते है" " महात्मा गांधी लिखते हैं: "पतंजलि ने पाँच यामों का वर्णन किया है। यह सम्भव नहीं कि इनमें से किसी एक को लेकर उसकी साधना की जा सके। ऐसा शक्य हो सकता है तो सिर्फ सत्य के सम्बन्ध में ही, क्योंकि दूसरे चार याम इसमें गर्भित हैं और उससे निकाले जा सकते हैं।... पर जीवन इतना सरल नहीं। एक सिद्धान्त में से अनेक निकाले जा सकते हैं तो भी एक सर्वोपरि सिद्धान्त को समझने के लिए अनेक उपसिद्धान्तों को जानना पड़ता है। १३ "यह भी समझना चाहिए कि सब व्रत समान हैं। एक टूटा कि सब टूटे। हम में यह विश्वास साधारणतः घर कर गया है कि सत्य श्रीर अहिंसा का भङ्ग क्षम्य है । अचौर्य और परिग्रह की तो हम बात ही नहीं करते, उनके पालन की श्रावश्यकता को हम कम ही महसूस करते हैं। उधर कल्पनाप्रसूत ब्रह्मचर्य का भङ्ग भी क्रोध उत्पन्न करता है। जिस समाज में मूल्यों का ऐसा बढ़ा-घटा ग्रांकन होता है उसमें कोई बड़ा दोष होना चाहिए। जब ब्रह्मचर्य को हम अलग कर देते हैं तो उसका स्थूल पालन भी असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता है। अतः यह भावश्यक है कि सब यामों को एक समझ कर अपनाया जाय। इससे ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण अर्थ और मर्म को हृदयगंम करने में सफलता मिलेगी ।" ४ पाँचों इसी तरह उन्होंने एक बार कहा “पाँच मुख्य व्रत मेरे प्राध्यात्मिक साधना के पाँच स्तम्भ हैं। ब्रह्मचर्य उनमें से एक है । परन्तु अविभक्त और सम्बद्ध हैं । वे एक दूसरे से सम्बन्धित और एक दूसरे पर आधारित हैं। यदि उनमें से एक का भङ्ग होता है तो सबका भङ्ग होता है" । " १- मूल ढाल के लिए देखिए भिक्षु ग्रन्थ रत्नाकर (ख. १) आचार की चौपइ ढा० २४ पृ० ८६८-६ । इस ढाल का अनुवाद “आचार्य संत भीखगाजी" नामक पुस्तक में प्रकाशित किया जा चुका है। देखिए पृ० १८७ - भिक्खु दृष्टान्त पृ० ४१ १३- प्रश्नव्याकरण २.४ संभग्गम (हि) थियचन्निय कुस लियपव्त्रयपडियखंडिय परिसडियविणासियं । १८० के लेख के अंश का अनुवाद जंमिय भग्गमि होइ सहसा स ४— Harijan : जून ८, १६४७ पृ० ५- Mahatma Gandhi - The Last Phase Vol. 1P.585. Scanned by CamScanner Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाद के निम्न विचारों से दश व्रतों का पालन है। महात्मा गांधी और स्वामीजी के विचारों में जो साम्य है, वह स्वयं प्रकट है। स्वामीजा न किसी भी एक महावत को दूसरे महावतों के लिए कवच स्वरूप बताया है। यह भाव महात्मा गान्धी के निम्न समर्थित है : "ब्रह्मचर्य एकादश व्रतों में से एक व्रत है। इस पर से कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य की मर्यादा या बाड़ एकादश व्रतों का पालन मगर एकादश व्रतों को कोई बाड़ न माने । बाढ तो किसी खास हालत के लिए होती है। हालत बदली और बाड़ भी गई। मगर एका का पालन तो ब्रह्मचर्य का जरूरी हिस्सा है। उसके बिना ब्रह्मचर्य पालन नहीं हो सकता।" ६-ब्रह्मचर्य और स्त्री-पुरुष का अभेद , तथागत बुद्ध के जीवन की एक घटना इस प्रकार मिलती है। एक बार वे शाक्यों के कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार कर है। तब महाप्रजापति गौतमी वहाँ पाई और वन्दना कर एक ओर खड़ी हो बोली : "भन्ते ! अच्छा हो स्त्रियाँ भी तथागत के धर्म-विनय में प्रयास पावें।" बुद्ध बोले : “गौतमी ! तुम्हें ऐसा न रुचे।" गौतमी ने दूसरी-तीसरी बार भी निवेदन किया पर तथागत ने वही उत्तर दिया गौतमी दुःखी, अश्रुमुखी हो भगवान को अभिवादन कर चली गई। इसके बाद तथागत वैशाली को चल दिये । वहाँ महावन की कूटागारशाला में ठहरे। महाप्रजापति गौतमी केशों को कटा, कपायवस्त्र पहिन बहुत-सी शाक्य-स्त्रियों के साथ कूटागारशाला में पहची। वहाँ द्वारकोष्ठक के बाहर खड़ी हुई। उसके पर फुले हुए थे। शरीर धल से भरा था। वह दुःखी, अश्रुमुखी, रोती हुई खड़ी थी। उसे देख आयुष्मान् प्रानन्द ने पूछा-"गौतमी ! तू ऐसे क्यों खड़ी है ?" वह बोली : "भन्ते आनन्द ! तथागत धर्म-विनय में स्त्रियों की प्रव्रज्या की अनुज्ञा नहीं देते।" "गौतमी ! तू यहीं रह । मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ।" आनन्द तथागत को अभिवादन कर एक ओर बैठ बोले : “भन्ते ! अच्छा हो स्त्रियों को प्रव्रज्या मिले।'' "नहीं प्रानन्द ! ऐसा न रुचे।" प्रानन्द बोले : "भन्ते ! क्या स्त्रियाँ प्रवजित हो स्रोत-आपत्तिफल, सकृदागामिफल, अनागामिफल, अर्हत्त्वफल को साक्षात् कर सकती हैं ?" "साक्षात् कर सकती हैं प्रानन्द !" "भन्ते ! यदि स्त्रियाँ इस योग्य हैं तो अभिभाविका, पोषिका, क्षीरदायिका, भगवान की मौसी महाप्रजापति गौतमी बहुत उपकार करनेवाली है। उसने जननी के मरने पर भगवान को दूध पिलाया। भन्ते ! अच्छा हो स्त्रियों को प्रव्रज्या मिले।" गौतमी ने तथागत के उसी समय स्थापित आठ गुरु-धर्मों को स्वीकार किय उसकी उपसम्पदा--प्रव्रज्या हुई। प्रव्रज्याके बाद बुद्ध प्रानन्द से बोले : "प्रानन्द ! यदि तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या न पातीं तो यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी होता, सद्धर्म सहस्र वर्ष तक ठहरता । अब ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी न होगा, सद्धर्म पाँच ही सौ वर्ष ठहरेगा। आनन्द ! जैसे बहुत स्त्रीवाले मौर थोड़े पुरुषोंवाले कुल, चोरों द्वारा, भंडियाहों द्वारा प्रासानी से ध्वंसनीय होते हैं, उसी प्रकार जिस धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या पाती हैं, वह ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी नहीं होता। जैसे आनन्द ! सम्पन्न लहलहाते धान के खेत में सेतट्टिका नामक रोग की जाति पलती है. जिससे वह शालि-क्षेत्र चिरस्थायी नहीं होता, जैसे सम्पन्न ऊख के खेत में मजेिष्ठिका नामक रोग-जाति पलती है. जिससे वह ऊख का खेत चिरस्थायी नहीं होता, ऐसे ही आनन्द ! जिस धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या पाती हैं, वह ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी नहीं होता।" इस घटना से प्रकट है कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तथागत बुद्ध स्वयं ही नारी के कर्तृत्व के प्रति शंकाशील थे। इसी कारण नारी की प्रव्रज्या । का पठन सामने आने पर वे पेशोपेश में पड़ गये । यह शंका नारी के ब्रह्मचर्य पालन की क्षमता के विषय में थी। वे नारी की प्राजीवन ब्रह्मचय पोजक गले नहीं उतार सके। जैन धर्म के साहित्य में ऐसी शंका या भ्रान्ति कहीं भी परिलक्षित नहीं होती। जन धन नारी के प्रति ब्रह्मचर्य पालन के विषय में वैसी ही अशंकाशील भावना देखी जाती है जैसी कि पुरुष के प्रति । स्त्री में भी आजीवन ब्रह्मचय 'पालन की आत्मिक शक्ति और सामर्थ्य होने में उतना ही विश्वास देखा जाता है जितना कि पुरुष में इनके होने के प्रति। वैदिक परम्परा में नारी को सहधर्मिणी कहा गया है। पुरुष नारी को अपने साथ बैठाये बिना धार्मिक अनष्ठान अथवा क्रिया-कलाप को परा नहीं कर सकता-ऐसी भावना है। इस तरह वैदिक परम्परा न कोसी भावना है। इस तरह वैदिक परम्परा नारी को अपूर्व सम्मान प्रदान करती है परन्तु वहाँ नारा पुरुष १-ब्रह्मचर्य (दूसरा भाग) पृ०५४ २-विनय पिटक : चुल्लवग्ग : भिक्षुणी-स्कंधक 5 ११२ पृ०५०६-२१ वहा नारी पुरुष की पर Scanned by CamScanner Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भूमिका १५ छाई की तरह चलती है । यदि वहाँ पुरुष नारी को छोड़ कर धर्म अनुष्ठान नहीं कर सकता तो नारी भी पुरुष से दूर रह कर प्राध्यात्मिक कल्याण की व्यापक रूप में सम्पादित नहीं कर सकती ऐसी विचारधारा है। वैदिक परम्परा में नारी सन्यास को स्थान नहीं, इसलिए पुरुष से दूर रह कर स्वतंत्र रूप से चरम कोटि की प्राध्यात्मिक साधना के उदाहरण प्रचुर मात्रा में नहीं मिलते। जैन परम्परा में नारी के लिए संन्यास भी हर समय खुला रहा है अतः उच्चतम कोटि की प्राध्यात्मिक साधना में स्त्रियों पुरुषों के समान ही दीप्त रहीं। वैदिक परम्परा में नारी जाति को गौरवपूर्ण उच्चासन दिया गया है और नारो को पुरुष मित्र श्रीर समकक्ष के रूप में श्रंकित करने के दृष्टान्त सामने आते हैं, परन्तु उनमें अंकित वर्णन अधिकांश में नारी को अर्धाङ्गिनी के रूप में हो उपस्थित करते हैं। नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व वहाँ प्रस्फुटित दिखाई नहीं देता और उसकी बहुत ही थोड़ी-सी अभिव्यक्ति वहाँ मिलती है। परन्तु जैन धर्म में नारी का स्वतंत्र व्यक्तित्व शुरू से ही स्वीकृत है और उसके समान ही उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए सम्पूर्ण प्राध्यात्मिक साधना का मार्ग खुला है। 1 जैन धर्म में नारी की धर्म-भावना को वही श्रादर दिया जाता है जो पुरुष की धर्म-भावना को वैवाहिक जीवन में नारी पुरुष की सहचारिणी रहती है, उसकी सेवा-शुश्रूषा करती है और गृहस्थी का भार योग्यतापूर्वक वहन करती है । परन्तु साथ ही साथ श्रात्मा के उत्कर्ष के लिए, आत्मा की शोध-खोज एवं आध्यात्मिक चिन्तन और साधना में भी अपना यथेष्ट समय लगाती है। वैदिक परम्परा में नारी के स्वावसम्बी जीवन की कल्पना नहीं है और यदि है तो अपवाद रूप में ही परन्तु जैन धर्म में स्वावलम्बी नारी जीवन की कल्पना प्रचुर अमान मिलती है। पुरुष के साथ सहधर्मिणी होकर रहना उसके जीवन का कोई यूढान्त नहीं, यदि यह चाहे तो आजीवन ब्रह्मचारिणी रह कर भी आदर्श जीवन प्रतिवाहित करने के लिए स्वतंत्र है । मैं वैदिक परम्परा में नारी का धार्मिक संघ नहीं । बौद्ध परम्परा में भिक्षुणी संघ विच्छिन्न प्रायः है। जैन परम्परा में साध्वियों का भिक्षुणी संघ आज भी भारत भूमि को पवित्र करता है । 1 कहने का तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में जैन धर्म में नारी को उतनी ही स्वतंत्रता है जितनी पुरुष को जैसे पुरुष सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व अदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण और सर्व परिग्रह विरमण रूपी महाप्रतों को ग्रहण करने में स्वतंत्र है, वैसे ही नारी भी । इस विषय में सब धर्मों की स्थिति को उपस्थित करते हुए संत विनोबा लिखते हैं: "इसलाम ने यह विचार रखा है कि गृहस्थ धर्म ही पूर्ण आदर्श है। बाकी के आदर्श, जैसे ब्रह्मचारी का, गौण आदर्श है। वैसे भगवान ईसा तो आदरणीय थे, वे ब्रह्मचारी थे, परन्तु उनका जीवन पूर्ण जीवन नहीं माना जायगा । मुहम्मद का श्रादर्श पूर्ण है । वे गृहस्थ थे। वैसे ब्रह्मचारी को एक्सपर्ट (विशेषज्ञ) जैसा माना जायगा । विशेषज्ञ एकांकी होते हैं, परन्तु समाज को उनकी भी जरूरत होती है। इसी तरह, जिन्होंने शुरू से धाखिर तक ब्रह्मचारी का जीवन बिताया, उनका आदर्श पूर्ण नहीं पुरयोतन, पूर्ण याद तो गृहस्य ही है। स्त्रियों के लिए धीर पुरुषों के लिए, दोनों के लिए, ग्रहस्य का ही आदर्श है इस दृष्टि से मुसलमानों का चिन्तन चलता है। “वैदिक धर्म में ब्रह्मचारी को ही प्रादर्श माना गया है।... बीच के जमाने में स्त्री-पुरुषों में भेद माना गया। जिससे हिन्दूधर्म की दुर्दशा हो गयी। पुरुष को तो ब्रह्मचर्य का अधिकार रहा, लेकिन स्त्री को इसका अधिकार नहीं रहा। इसलिए स्वी को गृहस्थाधमी बनना ही चाहिए। ऐसा माना गया। धर यह यहस्याधमी नहीं बनती है, तो धर्म होता है ... इस तरह बीच के जमाने में यह एक बहुत बड़ा दोष पैदा हुआ। इसलिए अब इस जमाने में संशोधन करना जरूरी है। हक देने पर भी उसका पालन करनेवाले कम ही होंगे। परन्तु कम हों या ज्यादा; स्त्री के लिए ब्रह्मचर्य का अधिकार नहीं है, यह बात ही गलत है उससे आध्यात्मिक डिसएबिलिटी (मपाजता) पैदा होती है। अगर कोई व्यावहारिक पाता होती, तो उसमें सुधार करना सम्भव है। लेकिन माध्यात्मिक ही अपात्रता हो, तो वह बड़े दुख की बात है। हिन्दुस्तान में बीच के जमाने में जो रोगोहानि हुई, उसका यह भी कारण है कि स्त्रियों को ब्रह्मचर्य का अधिकार नहीं रहा ।... लेकिन उपनिषदों में उल्टी बात है। यहाँ स्त्री-पुरुषों में कोई भेद नहीं किया गया है... हिन्दुओं में स्वो की पावता मानी गयी है। यह सब गलत है। "लेकिन, जैनों में स्त्री और पुरुष, दोनों को समान माना है । ईसाइयों में जो कैथोलिक हैं, वे स्त्री-पुरुषों को समान मानते हैं। लेकिन जो प्रोटेस्टेन्ट होते हैं, उनका समान करीब-करीब मुसलमानों के जैसा ही है। वे मानते हैं कि ब्रह्मचर्य अशक्य वस्तु है और गृहस्थाश्रम हीमादर्श है। लेकिन कैथोलिकों में भाई और बहने दोनों ब्रह्मचारी होते हैं।" १- कार्यकर्ता वर्ग : ब्रह्मचर्य पृ० ३५-४० का सार Scanned by CamScanner Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ स्त्रियों को पुरुषों के समान आध्यात्मिक अधिकार देकर महावीर ने कितना बड़ा काम किया-इस सम्बन्ध में संत विनोबा लिखते हैं : E, "महावीर के सम्प्रदाय में स्त्री-पुरुषों का किसी प्रकार कोई भेद नहीं किया गया है ।... पुरुषों को जितने आध्यात्मिक अधिकार मिलते हैं, उतने ही स्त्रियों को भी हो सकते हैं । इन प्राध्यात्मिक अधिकारों में महावीर ने कोई भेद-बुद्धि नहीं रखी, जिसके परिणामस्वरूप उनके शिष्यों में जितने श्रमण थे, उनसे ज्यादा श्रमणियाँ थीं। वह प्रथा आजतक जैन धर्म में चली आ रही है । आज भी जैन संन्यासिनी होती हैं।...यह एक _बहुत बड़ी विशेषता माननी चाहिए।...जो डर बुद्ध को था, वह महावीर को नहीं था, यह देख कर आश्चर्य होता है। महावीर नीडर दीख पड़ते हैं। इसका मेरे मन पर बहुत असर है। इसीलिए मुझे महावीर की तरफ विशेष आकर्षण है ।...महापुरुषों की भिन्न-भिन्न वृत्तियाँ होती हैं; लेकिन _ कहना पड़ेगा कि गौतम बुद्ध को व्यावहारिक भूमिका छु सकी और महावीर को वह छु नहीं सकी । उन्होंने स्त्री-पुरुषों में तत्त्वत: भेद नहीं रखा। वे इतने दृढ़ प्रतिज्ञ रहे कि मेरे मन में उनके लिए एक विशेप ही सादर है। इसी में उनकी महावीरता है। कि "महावीर स्वामी के वाद २५०० साल हुए, लेकिन हिम्मत नहीं हो सकती कि बहिनों को दीक्षा दे। मैंने सुना कि चार साल पहले रामकृष्ण परमहंस-मठ में स्त्रियों को दीक्षा दी जाय-ऐसा तय किया गया। स्त्री और पुरुषों का प्राश्रम अलग रखा जाय, यह अलग बात है। लेकिन अबतक स्त्रियों को दीक्षा ही नहीं मिलती थी, वह अब मिल रही है । इस पर से अंदाज लगता है कि महावीर ने २५०० साल पहले उसे करने में कितना बड़ा पराक्रम किया" दादा धर्माधिकारी लिखते हैं : 'हम लोगों की अक्सर यह धारणा रही है कि स्त्रियों के विषय में प्राचीन आदर्श ऊंचे थे । और बातों में दे रहे होंगे, लेकिन इतना मुझे नम्रतापूर्वक कह देना चाहिए कि स्त्रियों सम्बन्धी सारे प्राचीन ग्रादर्श, स्त्रियों की मनुष्यता की हानि और अपमान करनेवाले थे।...किसी धर्म में स्त्री का स्वतंत्र व्यक्तित्व कभी नहीं रहा । मेरी माँ कोई धार्मिक विधि अकेले नहीं कर सकती । मेरे पिताजी की वह सहधर्मिणी है, मुख्य धर्मिणी नहीं । पिताजी न हों, तो उसका अपना कोई धर्म नहीं है । पिताजी जो पुण्य करते हैं, उसका प्राधा पुण्य अपनेआप उसे मिल जाता है और वह जो पाप करती है, उसका प्राधा पाप पिताजी को अपने-ग्राप लग जाता है। वह जो पुण्य करती है, उसका प्राधा पिताजी को नहीं मिलता और पिताजी जो पाप करते हैं, उसका आधा उसे नहीं लगता। यह मर्यादा है।...इसलिए मुख्य धर्म और मुख्य कर्त्तव्य पुरुष का है, स्त्री की केवल सहधर्मिणी की भूमिका है, वह सह-जीवनी है, उसका अपना स्वतन्त्र जीवन नहीं है। जैनों और बौद्धों के कुछ प्रयासों को हम छोड़ दें, तो आज तक की जो परम्परा और समाज-स्थिति है, वह यह है कि स्त्री की भूमिका गौण और दोयम रही है। उसका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं रहा । इसलिए ब्रह्मचर्य उसका मुख्य धर्म कभी नहीं माना गया। पुरुष का मुख्य धर्म ब्रह्मचर्य माना गया। "स्त्री मझसे कहती है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्रियाँ अधिक नैतिक हैं। अधिक नैतिकता का मतलब यह तो नहीं कि अधिक संयमी हैं, अधिक ब्रह्मचर्यनिष्ठ हैं । ब्रह्मचर्य का तो उनके लिए निषेध है।...मेरा नम्र सुझाव यह है कि स्त्री के जीवन में ब्रह्मचर्य का स्थान वही होना। चाहिए, जो पुरुष के जीवन में है। इसे मैं ब्रह्मचर्य जीवन का सामाजिक मूल्य कहता हूं।" ७-ब्रह्मचर्य और संयम का हेतु क्या हो ? प्राचार्य विनोबा भावे से किसी ने यह प्रश्न किया था कि भूदान यज्ञ के लिए कोई ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हो तो आप उसके बारे में क्या कहेंगे? इसका जो उत्तर उन्होंने दिया वह सच्चे उद्देश्य को बताने की दृष्टि से बड़ा महत्वपूर्ण और मननीय है। ब्रह्मचर्य व संयम का पालन किस हेतु से होना चाहिए-इस पर उन्होंने पहले भी एक बार प्रकाश डाला था। दोनों विचार नीचे दिये जाते हैं: १-ब्रह्मचर्य का ठीक मतलब भी हमें समझ लेना चाहिए। भीष्म को हम अादर्श ब्रह्मचारी मानते हैं, परन्तु भीष्म ने अपने पिता के लिये ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन किया। उनको ब्रह्म की उपासना की प्रेरणा उससे पहले नहीं हुई थी। वे तो शादी करनेवाले थे। फिर भी उन्होंने ब्रह्मचर्य-प्रत बहुत अच्छी तरह से निभा.लिया। परन्तु उनको हम आदर्श ब्रह्मचारी नहीं कह सकते। साक्षात् ब्रह्म के लिए जो ब्रह्मचारी रहेगा, वही प्रादर्श होगा। उसी को ब्रह्मचारी कहा जा सकता है, जो लोग देश के लिए ब्रह्मचारी रहते हैं, उनके व्रत को ब्रह्मचर्य नहीं लद्देशचर्य ११-श्रमण वर्ष अंक हपृ०.३७-३६ का सार 2013 २-सर्वोदय-दर्शन पृ० २३५-६, २३६-६ : Scanned by CamScanner Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कहना चाहिये। साक्षात् ब्रह्म की प्राप्ति के लिए देह से मुक्त होने के साधन के माने ही ब्रह्मचर्य है। भीष्म आखिर में ऐसे ब्रह्मचारी बने थे और महान् ज्ञानी हुए, फिर भी वे पहले वैसे नहीं थे। शुक के समान वे प्रारम्भ से प्रादर्श ब्रह्मचारी नहीं थे। आजकल कुछ लोगों का देशचर्य या स्वराज-चर्य चलता है और वे उसे बहुत अच्छी तरह से निभाते भी हैं। परन्तु फिर भी उसको ब्रह्मचर्य नहीं कहा जा सकता। उनमें से कई ऐसे होते हैं जो देशचर्य को बाद में ब्रह्मचर्य में परिवर्तित कर देते है। भूदान यज्ञ ऐसा कोई कार्य नहीं है कि जिसके लिए विद्यार्थी को आमरण, पाजीवन ब्रह्मचारी रहने की आवश्यकता हो ।...ब्रह्मचर्य को जिसे अन्दर से प्रेरणा होती है उसे बाहर से कोई निमित्त मिल जाता है तो वह उसका लाभ उठाता है। भीष्म और गान्धीजी के साथ भी यही हुआ था। गान्धीजी ने सामान्य जन-सेवा के खयाल से ब्रह्मचर्य का प्रारम्भ किया और अच्छे ब्रह्मचर्य में उसकी परिणति की। तो भूदान यज्ञ अगर किसी के लिए वैसा निमित्त बन जाता है तो वह उसका लाभ उठा सकता है परन्तु खास इस काम के लिए ब्रह्मचर्य-व्रत लेने की कोई जरूरत नहीं है। २—कुछ लोग–'संयम से संतति-नियमन करो', ऐसा प्रतिपादन करते हैं। लेकिन यह ठीक नहीं। संयम का अपना स्वतंत्र मूल्य है। संतति कम करने के लिए संयम को न खपाइये ।...संयम से आनन्द मिलता है; इसलिए संयमी होने को लोगों से कहिए। उसके लिए भौतिक नफा-नुकसान न सिखाइये। सर जैन आगम में सर्व प्राणातिपात विरमण, सर्व मृषावाद विरमण, सर्व अदत्तादान विरमण, सर्व मैथुन विरमण, सर्व परिग्रह विरमण और सर्व-रात्रि भोजन विरमण-इन प्रतिज्ञाओं को ग्रहण करने के बाद साधक का प्रात्म-तोष इस प्रकार प्रकट होता है : “इन पांच महाव्रत और छ रात्रि-भोजन विरमण को मैंने आत्म-हित के लिए ग्रहण किया है।" इससे स्पष्ट है कि महाव्रतों के-जिनमें ब्रह्मचर्य महाव्रत भी हैग्रहण का हेतु जैन आगमों में भी 'पात्महित' ही बताया गया है । 2वैदिक संस्कृति में भी ब्रह्मचर्य का उद्देश्य यही कहा गया है। ब्रह्मचर्य का उद्देश्य क्या होना चाहिए, यह उपनिषद् के निम्न वार्तालाप से प्रकट होगा : एक "हम आत्मा को जानना चाहते हैं जिसे जानने पर जीव सम्पूर्ण लोकों और समस्त भोगों को प्राप्त कर लेता है"-ऐसा निश्चय कर देवताओं का राजा इन्द्र और असुरों का राजा विरोचन ये दोनों परस्पर स्पर्धा से हाथों में समिधाएं लेकर प्रजापति के पास आए। और बत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्यवास किया। .. प्रजापति ने कहा-"ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तुम किस चीज की इच्छा करते हो?" इन्द्र और विरोचन बोले : “जो आत्मा पाप-रहित, जरा-रहित, मृत्यु-रहित, शोक-रहित, क्षुधा-रहित, तृषा-रहित, सत्यकाम और सत्यसंकल्प है उसका अन्वेषण करना चाहिए और उसे विशेषरूप से जानने की इच्छा करनी चाहिए, यह आपका वाक्य है। आत्मा को जानने की इच्छा से हम यहाँ ब्रह्मचर्यवास में हैं।" प्रजापति ने कहा- "यह जो नेत्रों में दिखायी देता है-प्रात्मा है । यह अमृत है, यह अभय है, यह ब्रह्म है।" उपर्युक्त वार्तालाप में ब्रह्मचर्य का उद्देश्य प्रात्म-प्राप्ति बतलाया गया है। साथ ही यह भी बता दिया गया है कि आत्मा ब्रह्मचर्य से ही प्राप्त होती है। यह ही बात जैन धर्म में संयम रूप ब्रह्मचर्य के उद्देश्य और फल के सम्बन्ध में कही गयी है। जैन आगम दशवकालिक सूत्र में कहा है : "निश्चय ही आचार-समाधि के चार भेद हैं । यथा(१) इहलोक के लिए प्राचार का पालन न करे। (२) परलोक के लिए प्राचार का पालन न करे। (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लाघा के लिए प्राचार का पालन न करे। (४) अरिहंत-निर्दिष्ट हेतु निर्जरा-प्रात्म-शुद्धि के सिवा अन्य किसी प्रयोजन के लिए प्राचार का अनुष्ठान न करे।" इससे भी स्पष्ट है कि साधक के लिए ब्रह्मचर्य का हेतु पात्म-हित, प्रात्म-शुद्धि ही हो सकता है। १-दशवकालिक ४.६: इच्चेइयाई पञ्च महब्वयाईराईभोयणवेरमणछट्ठाई अत्त-हियट्टयाए उवसंपज्जित्ताणं विहरामि। २-छान्दोग्योपनिषद् ८.७ : ६.४ ३-दशवकालिक ६.४.५: चउब्विहा खलु आयार-समाही भवइ, तं जहा-नो इहलोगट्टयाए आयारमहिद्वेज्जा, नो परलोगट्टयाए आयारमहि?ज्जा, नो कित्तिवाण-सह-सिलोगट्ठाए आयारमहि?ज्जा, नन्नत्थ आरहतेहि हेहि आयारमहिढेज्जा चउत्थं पयं भवइ । हा गया हा Scanned by CamScanner Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “१८ शील की नव वाड़ ८-व्रत-ग्रहण में विवेक आवश्यक कभी-कभी मनुष्य वस्तु की दुष्करता पर पूरा विचार नहीं करता और व्रत-ग्रहण कर लेता है। फल यह होता है कि या तो वह उसे मङ्ग कर दूर हो जाता है अथवा छिपे-छिपे अनाचार का सेवन करने लगता है। ज्ञानियों ने कहा है जो बात जैसी हो वसी जान कर व्रत-ग्रहण करो। पागम में कहा है-'कामभोग के रस को जान चुका उसके लिए प्रब्रह्मचर्य से विरति और यावज्जीवन के लिए उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना अत्यन्त दुष्कर है", "संयम बालू के कवल की तरह निरस है२", "जैसे वायु से थैला भरना कठिन है, उसी प्रकार क्लीव के लिए 'संयम का पालन कठिन है", "जिस तरह भुजाओं से रत्नाकर समुद्र का तैरना दुष्कर है, उसी तरह अनुपात प्रात्मा द्वारा दमरूपी समुद्र का तरना दुष्कर है", "जैसे लोहे के यवों का चबाना दुष्कर है, उसी प्रकार संयम का पालन दुष्कर है", "जिस तरह प्रज्वलित अग्नि-शिखा का पीना अत्यन्त दुष्कर है, उसी प्रकार तरुणावस्था में श्रामण्य का पालन दुष्कर है", "जो सुख में रहा है, सुकुमार है, ऐशोपाराम में पला है, वह श्रामण्य के पालन में समर्थ नहीं होता."। इन कथनों का अर्थ यह है कि व्रत-ग्रहण के पूर्व उसकी दुष्करता को पूर्ण रूप से समझ कर आगे कदम बढ़ाया जाय। - इसी तरह पागम में कहा है-'साधक ! अपने वल, स्थाम, श्रद्धा, आरोग्य को देख कर तथा क्षेत्र और काल को जान कर उसके अनुसार प्रात्मा को धर्म-कर्म में नियोजित करे।" इस का अर्थ यह कि वस्तु की दुष्करता के अनुपात से उसके बल, स्याम, श्रद्धा आदि कितने समर्थ हैं, यह भी देख लें। सार यह है कि जो वस्तु की दुष्करता को समझ तथा अपने बल सामध्यं के अनुसार आगे कदम बढ़ाता है, वह स्खलित या अनाचारी नहीं होता । जो ऐसा नहीं करता उसकी क्या गति होती है, उसका भी बड़ा गम्भीर विवेचन पागमों में है-“कायर मनुष्य जब तक विजयी पुरुष को नहीं देखता तब तक अपने को शूर मानता है, परन्तु वास्तविक संग्राम के समय वह उसी तरह क्षोभ को प्राप्त होता है जिस तरह युद्ध में प्रवृत्त दृढ़धर्मी महारथी कृष्ण को देख कर शिशुपाल हुपा था।" "अपने को शूर माननेवाला पुरुष संग्राम के अग्र-भाग में चला तो जाता है परन्तु जब युद्ध छिड़ जाता है और ऐसी घबड़ाहट मचती है कि माता भी अपनी गोद से गिरते हुए पुत्र की सुध न ले सके, तब शत्रुनों के प्रहार से -- क्षतविक्षत अल्प पराक्रमी पुरुष दीन बन जाता है'.'' "ब्रह्मचर्य पालन में हारे हुए मंदमति पुरुष उसी तरह विपाद का अनुभव करते हैं, जिस तरह जाल में फंसी हुई मछली " "जैसे युद्ध के समय कायर पुरुष यह शंका करता है कि कौन जानता है किस की विजय होगी, A m ethy- . १-उतराध्ययन १६ : २६. २-वही १६ : ३८ ३-वही १६:४१ ४-वही १६ : ४३ . . -वही १६ : ३५ ८-दशवकालिक ८.३५ : बलं थामं च पेहाए सद्धामारोगमप्पणो। खेतं कालं च विन्नाय तहप्पाणं निजंजए se ६-सूत्रकृताङ्ग १,३-१ : १ x antarmussian REAT vyani ११-वही १,३-१: १३ a rney insp i r ation Agentinations.org Scanned by CamScanner Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका .. १६ पीछे की ओर, ताकता है और गड्ढा, गहन और छिपा हुमा स्थान देखता है, उसी प्रकार निर्बल साधक अनागत भय की आशंका से . प्रकल्प्य की शरण ले लेते हैं।" . - इस विषय में संत टॉलस्टॉय ने जो विचार दिये हैं, वे आगम-गाथानों की अनुभूत टीका से लगते हैं। वे कहते है : "हम कई बार पहले ही से अपनी विजय की रोचक कल्पना में तल्लीन हो जाते हैं, यह एक भारी कमजोरी है । ऐसे काम में हम लग जाते हैं, जो हमारी शक्ति से वाहर है । जिसका पूरा करना न करना हमारी शक्ति के अन्दर की बात नहीं।...क्योंकि पहले तो हम इस बात की कल्पना नहीं कर सकते कि हमें आगे चल कर किन-किन परिस्थितियों में से गुजरना होगा।...दूसरे, इस तरह की एकाएक प्रतिज्ञा करने से हमें अपने उद्देश की ओर-सर्वोच्च ब्रह्मचर्य के निकट जाने में कोई सहायता नहीं मिलती; उलटे भीतर कमजोर रह जाने के कारण, हमारा पतन अलबत्ता शीघ्र होता है। "पहले तो लोग बाहरी ब्रह्मचर्य को ही अपना उद्देश्य मान लेते हैं। फिर या तो वे संसार को छोड़ देते हैं या स्त्रियों से दूर-दूर भागते. हैं । इतने पर भी जब कामवासना से पिण्ड नहीं छुटता, तब अपनी इन्द्रियों को ही काट डालते हैं। "दूसरे, केवल बाहरी ब्रह्मचर्य को यह समझ कर प्रादर्श मान लेना गलत है कि हम कभी तो जरूर उस तक पहुंच जायंगे, क्योंकि ऐसा करने से प्रत्येक प्रलोभन और प्रत्येक पतन उसकी आशाओं को एकदम नष्ट कर देता है और फिर इस बात पर से भी उसका विश्वास उठने लग जाता है कि ब्रह्मचर्य का प्रादर्श कभी सम्भवनीय या युक्तिसंगत भी है या नहीं। वह कहने लग जाता है कि ब्रह्मचारी रहना असंभव है और मैंने अपने सामने एक गलत आदर्श रख छोड़ा है । फिर वह एकदम इतना शिथिल हो जाता कि अपने को पूरी तरह भोग-विलास के अधीन कर देता है। सारा .. मा ___"यह तो उस योद्धा के समान हुआ, जो युद्ध में विजय-प्राप्त करने की इच्छा से अपने बाहु पर गुप्त शक्तिवाला ताबीज, बांध लेता है और आँखें मूंद कर विश्वास करता है कि वह ताबीज युद्ध-प्रहारों से या मौत से उसकी रक्षा करता है । पर ज्योंही उसे तलवार का एकाध वार लगा नहीं कि उसका सारा धैर्य और पौरुष भगा नहीं। हम अपूर्ण मनुष्य तो यही निश्चय कर सकते हैं कि हम अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार, अपनी भूत और वर्तमान अवस्था तथा चारित्र्य का खयाल कर, अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य का पालन करें। , "दूसरे हम इस बात का भी खयाल न करें कि हम किसी काम को मनुष्यों की दृष्टि में ऊंचा उठने के लिए कर रहे हैं। हमारे न्यायकर्ता मनुष्य नहीं, हमारी अन्तरात्मा और परमेश्वर है। फिर हमारी प्रगति में कोई बाधक नहीं हो सकता। तब प्रलोभन हम पर कोई असर नहीं कर सकेंगे और प्रत्येक वस्तु हमें उस सर्वोच्च प्रादर्श की ओर बढ़ने में सहायक होगी । पशुता को छोड़ कर हम नारायण-पद की ओर बढ़ते यहाँ इस विवेक की बात इसलिए रखी गयी है कि ब्रह्मचर्य या तो महाव्रत के रूप में ग्रहण किया जाता है अथवा अणुव्रत के रूप में। महाव्रत के रूप के त्याग सर्व व्यापक होते हैं और अणुव्रत के रूप के त्याग स्वदार-संतोष-परदार-त्याग रूप । इनमें किस मार्ग को ग्रहण करे, यह साधक के चुनाव का विषय है। चुनाव में विवेक प्रावश्यक है। . Rais -ब्रह्मचर्य महावत के रूप में E f ire समूचे जैन धर्म का उपदेश संक्षेप में कहना हो तो इस प्रकार रखा जा सकता है : “एक से विरति करो और एक में प्रवृत्ति । असंयम से निवृत्ति करो और संयम में प्रवृत्ति । क्रिया में रुचि करी और प्रक्रिया को छोड़ो' । हिंसा, भलीक, चोरी, अब्रह्म तथा भोगलिप्सा और लोभ १-सूत्रकृताङ्ग १,३-३:१, २-स्त्री और पुरुष पृ० ३८-४१ से संक्षिप्त ३-उत्तराध्ययन ३१.२ एगओ विरई कुज्जा एगओ य पवत्तणं । असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं ॥ ४-वही १८.३३ : किरियं च रोयई धीरे अकिरियं परिव्वजए। दिट्ठीए दिट्ठीसंपन्ने धम्म चरस दुच्चरं ।। Scanned by CamScanner Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०. शील की नव बाड़ (परिवह) का परिवर्जन करो' और महिंसा, सत्य, मचौर्य-अस्तेय, ब्रह्म और अपरिग्रह---इन पांच महायतों को ग्रहण करो।" संक्षेप में यही जिनउपदिष्ट धर्म है। इस धर्म को कठिन-दुष्कर कहा है, पर उपदेश भी इसी को ग्रहण कर धैर्यपूर्वक पालन करने का दिया है। हिंसा मादि पांचों पाप भौर अहिंसा मादि पांचों धर्मों का प्रति सूक्ष्म गंभीर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैनों के प्रश्नव्याकरण सूत्र में मिलता है। प्राचाराङ्ग सूत्र भी इनका सूक्ष्म प्रतिपादन करता है। कहा जा सकता है कि सारा जैन वाङ्गमय इन्हीं की भिन्न-भिन्न रूप से चर्चा का विस्तृत भण्डार है। 20 ऋग्वेद में 'सत्य' और 'ब्रह्मचर्य' शब्द प्राप्त हैं । शतपथ ब्राह्मण में सत्य बोलने का कहा गया है और ब्रह्मचर्य का भी उल्लेख है । पर पांचों यामों में से अन्य यामों के नाम इनमें ही नहीं अन्य वेद और ब्राह्मण ग्रन्थों में भी नहीं मिलते । सारेयामों का उल्लेख और उन पर विशद व्याख्या या विवेचन किसी वेद अथवा ब्राह्मण ग्रन्थ में नहीं देखा जाता । महाव्रत शब्द भी वहाँ नहीं है। छांदोग्य उपनिषद् में सत्य के साथ अहिंसा का उल्लेख मिलता है। वृहद् प्रारण्यक उपनिषद् में दया शब्द प्राप्त है। ब्रह्मचर्य का भी उल्लेख है। पर उपनिषदों में से किसी में भी अन्य यामों का उल्लेख नहीं और न उनके स्वरूप का सूक्ष्म प्रतिपादन है। याम या महाव्रत शब्दों का उल्लेख वहाँ भी नहीं। का स्मृतियों में जिन्हें साधारण या सामान्य धर्म कहा गया है, उनका उल्लेख वेद, ब्राह्मण या उपनिषदों में नहीं है । अतः साधारण धर्मों की कल्पना भी उपनिषद्-काल के बाद की ही कही जा सकती है। ... स्मृतियों में भी पांच याम या महाव्रतों का उल्लेख नहीं पर साधारण धर्मों के भिन्न-भिन्न प्रतिपादनों में ही अहिंसा, सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य का उल्लेख उपलब्ध है । गौतम धर्मशास्त्र में दया, शान्ति, अनसूया, शौच, अनायास, मङ्गल, अकार्पण्य और अस्पृहा-इन पाठ को आत्म-गुण कहा है । अस्पृहा को अपरिग्रह कहा जाय तो उस धर्म का यह पहला उल्लेख है। यह निश्चय है कि ऐसे साधारण उल्लेखों के उपरांत अहिंसा आदि तत्वों या धर्म-सिद्धान्तों का सूक्ष्म विवेचन या प्रतिपादन वैदिक संस्कृति के प्राचीन धर्म-ग्रन्थों में नहीं है। मनुष्य सत्य क्यों बोले, अहिंसा से दूर क्यों रहे-ऐसे प्रश्नों का निचोड़ उनमें नहीं मिलता। ___ यहाँ प्रश्न उठता है कि जिन याम आदि धर्मों का उल्लेख वेद-उपदिषदों में नहीं, वे बाद के साहित्य में कहाँ से आये। इसका उत्तर संक्षेप में इतना ही दिया जा सकता है कि संस्कृतियां एक दूसरे के प्रभाव से सर्वथा अछूती नहीं रह पातीं। श्रमण-संस्कृति का अचूक प्रभाव वैदिक संस्कृति पर भी पड़ा है और उसके चिन्तन में श्रमण-संस्कृति के अत्यन्त महत्वपूर्ण अंशों ने भी स्थान प्राप्त किया है और बाद में अपने ढंग का उनका विस्तार हुमा है। आधुनिक विचारकों में महात्मा गांधी ने व्रतों पर गंभीर विवेचन दिया है और वह विवेचन जैन आगमिक वर्णन से काफी मिलता-जलता है। दोनों को समानता पहले एक लेख में दिखाई जा चुकी है। "जिन पांच महाव्रतों का ऊपर उल्लेख पाया है उनके ग्रहण करने की शब्दावली इस रूप में मिलती है : १-मैं प्रथम महाव्रत में सर्व प्राणातिपात का त्याग करता हूँ। मैं यावज्जीवन के लिए सूक्ष्म या बादर, स्थावर या जंगम-किसी भी प्राणी की मन, वचन और काया से स्वयं हिंसा नहीं करूंगा, दूसरे से हिसा नहीं कराऊंगा और न हिंसा करनेवाले का अनुमोदन करूंगा। मैं अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूं और अपने आपको व्युत्सर्ग करता-उससे हटाता हूँ। १-उत्तराध्ययन ३५.३: तहेव हिंसं अलियं चोज्ज अबम्भसेवणं । इच्छाकामं च लोभं च संजओ परिवज्जए॥ २-वही २१.१२ : अहिससच्चं च अतेणगं च । तत्तो य बम्भं अपरिग्गहं च। पडिवज्जिया पंच महन्वयाणि चरिन्ज धम्मं जिणदेसियं विदू ॥ ३-विवरण पत्रिका, वर्ष ८ अंक पृ० २५० से : 'गांधी और गांधीवाद' Scanned by CamScanner Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. भूमिका: २–मैं दूसरे महाव्रत में यावज्जीवन के लिए सर्व प्रकार के मृषा-झूठ बोलने का (वाणी दोष का) त्याग करता हूं। क्रोध से, लोम से, भय से या हास्य से में मन, वचन और काया से झूठ नहीं बोलूंगा, न दूसरों से झूठ दुलाऊँगा, न झूठ बोलते हुए अन्य किसी का अनुमोदन - करूंगा। में अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूं, गर्दा करता हूं और अपने आप को उससे हटाता हूँ ३ में तीसरे महावत में यावज्जीवन के लिए सर्व प्रदत्त का त्याग करता हूं। गांव, नगर या अरण्य में अल्प या बहुत, छोटी या बड़ी, सचित्त या अचित्त कोई भी वस्तु बिना दी हुई नहीं लूंगा, न दूसरे से लिवाऊंगा और न कोई दूसरा लेता होगा तो उसे अनुमति दूंगा। में प्रतीत. के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूं और अपने पापको उससे हटाता हूँ। १ ४-मैं चौथे महाव्रत में सर्व प्रकार के मैथुन का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूं। मैं देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरे से सेवन नहीं कराऊंगा और सेवन करनेवाले का अनुमोदन नहीं करूंगा। मैं अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ और अपने पापको उससे हटाता हूँ। ५-मैं पाँचवे महाव्रत में सर्व प्रकार के परिग्रह का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूं। मैं अल्प या बहुत, अणु व स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी परिग्रह को ग्रहण नहीं करूंगा, न ग्रहण कराऊंगा, न परिग्रह ग्रहण करनेवाले का अनुमोदन करूंगा। मैं अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और अपने आपको उससे हटाता हूँ। जो ब्रह्मचर्य को महाव्रत के रूप में ग्रहण करना चाहेगा उसे उपयुक्त महाव्रतों को उपर्युक्त रूप में एक साथ ग्रहण करना होगा। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है। १०-ब्रह्मचर्य अणुव्रत के रूप में hindi me यहाँ प्रश्न हो सकता है कि महाव्रत तो प्रत्यन्त दुष्कर हैं, उन्हें तो संसार-त्यागी ही ग्रहण कर सकता है । जो गार्हस्थ्य में रहते हुए महिंसा आदि को अपनाना चाहे वह क्या करे ? ___ महावीर ने तीन तरह के मनुष्यों की कल्पना दी है : (१) एक ऐसे हैं जो परलोक की चिन्ता ही नहीं करते और जो घिग्जीवन की ही प्रशंसा करते हैं । जो हिंसा आदि पर-क्लेशकारी पापों से जरा भी विरत नहीं होते और महान् प्रारम्भ, महान् समारम्भ और नाना पाप कर्म कर उदार मानुषिक भोगों में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं । ये अविरत हैं। ऐसे व्यक्ति दो कोटि के होते हैं—एक जिन्हें धर्म पर तो विश्वास है पर जो पापों को छोड़ नहीं सकते। दूसरे वे जो धर्म में भी विश्वास नहीं करते और पापों को भी नहीं छोड़ते।। (२) दूसरे ऐसे हैं जो धन-सम्पत्ति, घर-बार, माता-पिता और शरीर की प्रासक्ति को छोड़कर सर्वथा निरारम्भी और निष्परिग्रही जीवन बिताते हैं। ये ही हिंसा आदि पापों से मन, वचन और काया द्वारा न करने, न कराने और न अनुमोदन करने रूप से सर्वथा जीवनपर्यंत विरत होते हैं। इनके उपर्युक्त पांचों महाव्रत होते हैं। ये सर्व विरत कहलाते हैं। (३) तीसरे ऐसे हैं जो धर्म में विश्वास करते हुए भी पापों को सर्वथा छोड़कर महाव्रत नहीं ले सकते। जो अपने में महाव्रतों को ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं पाते, वे प्रादर्श में विश्वास रखते हुए यथाशक्ति पापों को छोड़ स्थूल व्रतों को ग्रहण करते हैं। उनकी प्रतिज्ञाओं में स्थूल हिंसा-त्याग, स्थूल झूठ-त्याग, स्थूल चोरी-त्याग, स्वदार-सन्तोष-परदार-त्याग, स्थूल परिग्रह-त्याग, दिक्मर्यादा, उपभोग-परिभोग-परिमाण, प्रपध्यानादि रूप अर्नथ दण्ड-त्याग, सामायिक-प्रात्म-पर्युपासन, पौषधोपवास–ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास और अतिथिसंविभाग-इन बारह व्रतों का समावेश होता है। इन्हें विरताविरत कहते हैं। - भगवान ने पहले वर्ग को प्रधर्मपक्षी, कृष्णपक्षी प्रादि कहा है। ऐसे जीवन को उन्होंने अनार्य, अन्यायपूर्ण, अशुद्ध, मिथ्या और प्रसाधु _उन्होंने दूसरे वर्ग को धर्मपक्षी, शुक्लपक्षी प्रादि कहा है। ऐसे उपशांत जीवन को उन्होंने पार्य, संशुद्ध, न्यायसंगत, एकति, सम्यक् और साथ कहा है। १-आचाराब२.२४ Scanned by CamScanner Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ उन्होंने तीसरे पक्ष को शक्लकृष्णपक्षी कहा है। विरति को अपेक्षा से ऐसा जीवन सम्यक् और संशुद्ध होता है और अविरति की अपेक्षा से प्रसम्यक और प्रसंशुद्ध होता है। . . . .. .... विरताविरत के प्रत स्थूल होने के कारण व्रत की मर्यादा के बाहर कितनी ही छूटें रह जाती हैं। ये छूटें जीवन का अधर्म पक्ष हैं। प्रार पालन की प्रात्मशक्ति की न्यूनता की सूचक हैं। प्रतों की अपेक्षा से उसका जीवन धार्मिक माना गया है और अव्रत-छूटों की अपेक्षा अधामिका इसी कारण उसके जीवन को मिश्रपक्षी, धर्माधर्मी प्रादि कहा गया है। जो छूटों को जितना कम करता है, वह प्रादर्श के उतना ही नजदीक जाता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जो महायतों को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं रखता, वह स्थूल व्रतों को ग्रहण कर सकता है। 1, भगवान महावीर के समय में अणुव्रत-स्थूलयत लेने की परिपाटी थी, उसके चित्र प्रागमों में अंकित हैं। जो महाव्रतों को ग्रहण करने में अंसमर्थ होता वह कहता : "हे भन्ते ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है। हे भन्ते ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रतीति है। हे भन्ते ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि है। यह ऐसा ही है भन्ते ! यह तथ्य है भन्ते ! यह अवितथ है भन्ते ! हे भन्ते ! मैं इसकी ईच्छा करता हूँ। हे भन्ते! इसकी प्रति इच्छा करता हूँ। हे भन्ते ! इसकी इच्छा, प्रति इच्छा करता है। पाप कहते हैं वैसा ही है। आप देवानुप्रिय के समीप अनेक व्यक्ति मुण्ड हो अागारिता से अनगारिता में प्रवजित होते हैं। पर मैं वैसे मुण्ट हो प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हूँ। मैं देवानुप्रिय से पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप द्वादशविध गृहिधर्म लेना चाहता हैं" जो बात अन्य प्रतों के बारे में है वही ब्रह्मचर्य महायत के बारे में है । ब्रह्मचर्य महावत ही सर्वोच्च प्रादर्श है। पर जो उसे ग्रहण नहीं कर सकता, वह कम-से-कम स्थूल मैथुन विरमण व्रत को तो ग्रहण करे—यह जैन धर्म की भावना है। गृहपति मानन्द ने महावीर से यह व्रत इस रूप में लिया-"अपनी एक शिवानन्दा भार्या को छोड़ कर अन्य सर्व मैथुन-विधि का प्रत्याख्यान करता हूं।" - इस व्रत का एक प्राचीन रूप इस प्रकार मिलता है : "चतुर्थ अणुव्रत स्थूल मथुन से विरमणरूप है । मैं जीवनपर्यन्त देवता-देवांगना सम्बन्धी मथन का द्विविध त्रिविध से प्रत्याख्यान करता हूं। अर्थात् मैं ऐसे मैथुन का मन, वचन और काया से सेवन नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा। परपुरुष-स्त्री-पुरुष और तिर्यश्च-तिर्यञ्ची विषयक मथुन का एक एकविध एकविध से अर्थात् शरीर से सेवन नहीं करूंगा।" इसका अर्थ यह है (१) इसम व्रतग्रहीता द्वारा स्वदार सम्बन्धी सर्व प्रकार के मथुन की छूट रखा गइ है। ................. (२) देवता-देवांगना के सम्बन्ध में मन, वचन और काय से अनुमोदन की छूट रखी गयी है। .. . (३) पर-स्त्री और तिर्यञ्च सम्बन्ध में शरीर से मथुन सेवन कराने और अनुमोदन की छूट तया मन और वचन से करने, कराने एवं अनुमोदन की छूट रखी गई है। प, इसका कारण यह है कि गार्हस्थ्य में अनुमोदन होता रहता है और अपनी अधीन सन्तान और पशु-पक्षी आदि के मथुन-प्रसंगों का शरीर से कराना और अनुमोदन भी होते ही हैं। मन और वचन पर संयम न होने से अथवा प्रावश्यकतावश उनसे भी करने, कराने और अनुमोदन को छूट रखी गई है। ... महात्मा गांधी ने लिखा है : "हाँ, प्रत की मर्यादा होनी चाहिए। ताकत के उपरांत व्रत लेनेवाला अविचारी गिना जायगा । व्रत में शों के लिए अवकाश है।...प्रत अर्थात् कठिन से कठिन वस्तु करना ऐसा अर्थ नहीं है। व्रत अर्थात सहज अथवा कठिन वस्तु नियमपूर्वक करने का निश्चय।" इस स्थूल व्रत के सम्बन्ध में इतना उल्लेख और है : “इस चतुर्थ स्थूल मैथुन विरमण व्रत के पांच प्रतिचार जानने चाहिए और उनका पाचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-(१) इत्वरपरिगृहीतागमन (२) अपरिगृहीतागमन (३) अनंगक्रीड़ा (४) परविवाहकरण और (५) कामभोगतीवाभिलाषा.।". mista १-(क) सूत्रकृताङ्ग २.१ २.२ (ख) ओपपातिक सू०१२३.१२५, (ग) दशाश्रुतस्कंध द.६. २-उपासकदशा १.१. ३-धर्ममंथन पृ० १२६-७ Scanned by CamScanner Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इनका अर्थ यह है : (१) थोड़े समय के लिए दूसरे के द्वारा गृहीत अविवाहित स्त्री को इत्वरपरिगृहीता कहते हैं। वह वास्तव में परदार न होने पर भी अणुवती उसे परदार समझे और उसके साथ मैथुन सेवन न करे। (२) किसी के द्वारा प्रगृहीत वेश्या आदि परदार नहीं पर अणुव्रती उसे परदार समझे और उसके साथ मैथुन-सेवन न करे। (३) आलिंगनादि क्रीड़ा अथवा अप्राकृतिक क्रीड़ा को अनंगक्रीड़ा कहते हैं । अणुव्रती इन्हें भी मैथन समझे और परस्त्री अथवा किसी के साथ ऐसा दुराचार न करे। (४) अपनी सन्तान अथवा परिवार के व्यक्तियों के अतिरिक्त परसंतति का विवाह न करे। (५) कामभोग की तीव्र अभिलाषा न रखे अथवा कामभोग का तीव्र परिणाम से सेवन न करे। ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रादर्श तो सबके लिए महाव्रत ही हैं, पर पाप-त्याग की सीमा प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार कर सकता है। स्थूल मैथुन-व्रत कामवासना और पत्नीत्व-भावना का स्थानबद्ध कर देता है । स्वदार-संतोष का अर्थ है-प्रब्रह्म में अपनी पत्नी की सीमा के बाहर न जाना। जैन धर्म कहता है कि अपनी पत्नी तक सीमित रहना भी ब्रह्मचर्य नहीं है, कामवासना का ही सेवन है। अत: स्वदार-संतोषी काम-वासना और भोगवृत्ति को क्षीण करता चला जाय। सीमित करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया अन्य व्रतों में ही निहित है। दिग्वत द्वारा वह दिशाओं की सीमा कर ले और उस सीमा-मर्यादा के बाद अब्रह्म का सेवन न करे। उस क्षेत्र-मर्यादा के बाहर वह पत्नी के साथ भी ग्रहाचारी रहे । भोगोपभोग व्रत में दिनों को मर्यादा कर ले और उन दिनों के उपरांत विषय-सेवन में प्रवृत्त न हो। इसी तरह दिवा-मैथुन का त्याग कर मर्यादित हो जाय । पार्त-रौद्र ध्यान से बचकर मानसिक संयम साधे। अपनी मर्यादानों को दैनिक नियमों द्वारा और भी सीमित करे। पूर्व दिनों में पौषधोपवास कर ब्रह्मचर्य में रात्रियां बिताये। अपने जीवन को इस तरह दिनोंदिन संयमी करता हुआ अपने साथी की ब्रह्मचर्यभावना को भी बढ़ाता जाय । और इस तरह बढ़ते-बढ़ते अपनी पत्नी के प्रति भी पूर्ण ब्रह्मचारी हो जाय । जैन धर्म का यही उपदेश है कि अपने गृहस्थ-जीवन में भी पति-पत्नी अति भोगी न हों पौर विषय-वासना को दिनों-दिन घटाते जाय। - महात्मा गांधी लिखते हैं : "अपनी स्त्री के साथ संग चालू रख कर भी जो पर-स्त्रो संग छोड़ता है, वह ठीक करता है। उसका ब्रह्मचर्य सीमित भले ही माना जाय लेकिन इसे ब्रह्मचारी मानना, इस महा शब्द का खून करने के बराबर है।" जैन धर्म की दृष्टि से भी गृहस्थ वास्तव में ही ब्रह्मचारी नहीं है । वह स्वदार-संतोषी है। अपनी स्त्री के साथ भोग भोगने की उसकी छुट व्रत नहीं, यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। छूट की अपेक्षा वह अब्रह्मचारी है। परदार-त्याग की अपेक्षा वह ब्रह्मचारी है। 2 उपनिषद् में एक विचार मिलता है-"जो दिन में स्त्री के साथ संयोग करता है, वह प्राण को क्षीण करता है और जो रात में स्त्री के साथ संयोग करता है, वह ब्रह्मचर्य ही है। इसके बदले में जैन धर्म का विचार है-ऐसा मनुष्य दिवा-मैथुन के त्याग की अपेक्षा से अणुव्रती है और रात्रि-मैथुन की अपेक्षा से प्रब्रह्मचारी। मैथुन-काल-रात्रि में भी संभोग करनेवाला ब्रह्मचारी नहीं है। स्मृति में उल्लेख है-"जो छः दूषित रात्रि, निन्दित आठ रात तथा पर्व दिन का त्याग कर सोलह रात में केवल दो रात--स्त्री-संगम करता है; वह चाहे जिस पाश्रम में हो ब्रह्मचारी है।" जैन धर्म के अनुसार अन्य रात्रियों का त्याग ब्रह्मचर्य है । दो रात्रि का भोग अब्रह्म है, उससे कोई ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता। १-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० १०१ २-प्रश्नोपनिषद् १.१३: । प्राणं वा एते प्रस्कन्दति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते ब्रह्मचर्यमेवेतद्यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते । -मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५० नन्द्यास्वष्टास चान्यास स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन् । * ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन ॥ -- THEHRESSES Scanned by CamScanner Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ ११-विवाहित-जीवन और भोग-मर्यादा ईसा का मादेश है-"अपने माता-पिता, बीबी-बच्चे मादि को छोड़ कर मेरा अनुसरण कर ।" प्रश्न है जो माता-पिता, बीबी-बच्चे को नहीं छोड़ता क्या वह ईसा का अनुसरण नहीं कर सकता ? संत टॉलस्टॉय इसका उत्तर देते हुए लिखते हैं-"इन शब्दों का अर्थ तुमने ग़लत समझा है। जब मनुष्य के चित्त में धार्मिक और पारिवारिक कर्तव्यों के बीच युद्ध छिड़ जाय, तब समझौते की शतें बाहर से पेश नहीं की जा सकतीं। बाहरी नियम या उपदेश कोई काम नहीं कर सकते। इनको तो मनुष्य को अपनी शक्ति के अनुसार खुद ही सुलझाना चाहिए। प्रादर्श तो वही रहेगा-'अपनी पत्नी को छोड़ कर मेरे पीछे चल' पर यह बात तो केवल वह प्रादमी और परमात्मा ही जानता है कि इस प्रादेश का पालन वह कहाँ तक कर सकता है ?" टॉल्स्टॉय के कथन का अभिप्राय यह है कि अगर ऐसी शक्ति न हो तो वह पुरुष पत्नी के साथ रहता हुपा ही यथाशक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करे। उन्होंने लिखा है : “मैं तो केवल एक ही बात सोच और कह सकता हूँ। विवाह हो जाने पर भी पाप को बढ़ाने का मौका न देते हुए अपनी शक्ति भर और जीवन भर अविवाहित का-सा सयंमशील जीवन व्यतीत करने की कोशिश करनी चाहिए।" ... "मनुष्य को चाहिए कि वह हमेशा और हर हालत में, चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, जहाँ तक वह रह सकता ही ब्रह्मचर्य से रहे। यदि वह पाजीवन ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर सकता है, तो इससे अच्छा वह और कुछ कर ही नहीं सकता। परन्तु यदि वह अपने आपको रोक नहीं सकता, अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त करने में असमर्थ है, तो उसे चाहिए कि जहाँ तक हो सके, वह अपनी इस 'निर्बलता के बहुत कम वशीभूत हो, और किसी अवस्था में विषयोपभोग को प्रानन्द की वस्तु न समझे।" - महात्मा गांधी लिखते हैं : "विविध रंगों का चाहे-जसा मिश्रण सौन्दर्य का चिह्न नहीं है, और न हर तरह का पानन्द ही अपने-पाप में कोई अच्छाई है । कला और उसकी जो दृष्टि है उसने मनुष्य को यह सिखाया है कि वह उपयोगिता में ही प्रानन्द की खोज करे। इस प्रकार अपने विकास के प्रारंभिक काल में ही उसने यह जान लिया था कि खाने के लिए ही उसे खाना नहीं खाना चाहिए, बल्कि जीवन टिका रहे, इसलिए खाना चाहिए। ....."इसी प्रकार जब उसने विषय-सहवास या मैथुनजनित प्रानन्द की बात पर विचार किया तो उसे मालूम पड़ा कि अन्य प्रत्येक इन्द्रिय की भांति जननेन्द्रिय का भी उपयोग दुरुपयोग होता है और इसका उचित कार्य याने सदुपयोग इसी में है कि केवल प्रजनन या संतानोत्पत्ति के ही लिए सहवास किया जाय। इसके सिवा और अन्य प्रयोजन से किया जानेवाला सहवास अ-सुन्दर है।... "यही अर्थ गृहस्थाश्रमी के ब्रह्मचर्य का है अर्थात्--स्त्री-पुरुष का मिलन सिर्फ संतानोत्पत्ति के लिए ही उचित है, भोग-तृप्ति के लिए कभी नहीं। यह हुई कानुनी बात अथवा प्रादर्श की बात। यदि हम इस आदर्श को स्वीकार करें तो यह समझ सकते हैं कि भोगेच्छा की तप्ति अनचित है और हमें उसका यथोचित त्याग करना चाहिए। आजकल भोग-तृप्ति को आदर्श बताया जाता है। ऐसा आदर्श कभी हो नहीं सकता, यह स्वयंसिद्ध है। यदि भोग आदर्श है तो उसे मर्यादित नहीं होना चाहिए । अमर्यादित भोग से नाश होता है, यह सभी स्वीकार करते हैं। त्याग ही प्रादर्श हो सकता है और प्राचीन काल से रहा है। - "स्त्री-पुरुष के समागम का उद्देश्य इन्द्रिय-सुख नहीं, बल्कि सन्तानोत्पादन है और जहां संतान की इच्छा न हो वहाँ संभोग पाप है।" 2, महात्मा गांधी के अनुसार स्त्री-भोग विवाहित जीवन में भी अल्प बार ही हो सकता है। उन्होंने लिखा है-"संतति के कारण ही तो एक ही बार मिलन हो सकता है। अगर वह निष्फल गया तो दोबारा उन स्त्री-पुरुषों का मिलन होना ही नहीं चाहिए। इस नियम को जानने के बाद इतना ही कहा जा सकता है कि जब तक स्त्री ने गर्भ धारण नहीं किया तब तक, प्रत्येक ऋतुकाल के बाद, प्रतिमास एक बार स्त्री-पुरुष मिलन क्षतव्य हो सकता है, और यह मिलन भोग-तृप्ति के लिए न माना जाय।" जैन धर्म के अनुसार संतान-प्राप्ति के लिए सहवास भी विषय-सेवन है और उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहा जा सकता जैसा कि कहा गया है-"जो दंपत्ति गृहस्थाश्रम में रहते हुए केवल प्रजोत्पत्ति के हेतु ही परस्पर संयोग और एकांत करते हैं, वे ठीक ब्रह्मचारी हैं।" १-स्त्री और पुरुष पृ०६७ -२-वही पृ०६८ ३-वही पु०३६ ४-ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ० २५-२६ ५–ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ०१७ -अनीति की राह पर पृ०७४ । -ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ० १७ न E-बही पृ०८१ Scanned by CamScanner Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका एक पुरानी कथा इस रूप में मिलती है : Se वशिष्ठ की कुटिया के सामने एक नदी बहती थी। दूसरे किनारे विश्वामित्र तप करते थे । वशिष्ठ गृहस्थ थे। जब भोजन पक जाता तो पहले संवती थाल परोसकर विश्वामित्र को खिलाने जाती, बाद को वशिष्ठ के घर पर सब लोग भोजन करते, यह नित्य-क्रम था । एक रोज बारिश हुई और नदी में बाढ़ आ गई । प्रधती उस पार न जा सकी। उसने वशिष्ठ से इसका उपाय पूछा । उन्होंने ने कहा'जाओ, नदी से कहना, मैं सदा निराहारी विश्वामित्र को भोजन देने जा रही हूँ, मुझे रास्ता दे दो।' अरुंधती ने इसी प्रकार नदी से कहा- और उसने रास्ता दे दिया । तब अरुंधती के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ कि विश्वामित्र रोज तो खाना खाते हैं, फिर निराहारी कैसे हुए ? जब विश्वामित्र खाना खा चुके तब श्ररुंधती ने उनसे पूछा- 'मैं वापस कैसे जाऊँ, नदी में तो बाढ़ है ?' विश्वामित्र ने उलट कर पूछा - ' तो आई कैसे ?' उत्तर में अरुंधती ने वशिष्ठ का पूर्वोक्त नुसखा बतलाया। तब विश्वामित्र ने कहा- 'अच्छा तुम नदी से कहना, सदा ब्रह्मवारी वशिष्ठ के यहाँ लौट रही हूँ । नदी, मुझे रास्ता दे दो ।' श्रहंती ने ऐसा ही किया और उसे रास्ता मिल गया । श्रथ तो उसके अचरज का ठिकाना न रहा। वशिष्ठ के सौ पुत्रों की तो वह स्वयं ही माता थी। उसने वशिष्ठ से इसका रहस्य पूछा कि विश्वामित्र को सदा निराहारी और श्राप को सदा ब्रह्मचारी कैसे मानूं ? वशिष्ठ ने बताया- 'जो केवल शरीर रक्षण के लिए ईश्वरार्पण-बुद्धि से भोजन करता है, वह नित्य भोजन करते हुए भी निराहारी है और जो केवल स्व-धर्म पालन के लिए अनासक्तिपूर्वक सन्तानोत्पादन करता है, वह संभोग करते हुए भी पारी ही '' २५ इस पर टिप्पणी करते हुए महात्मा गांधी लिखते हैं : '...... धार्मिक दृष्टि से देखें तो एक ही संतति 'धर्मज' या 'धर्मजा' है। मैं पुत्र और पुत्री के बीच भेद नहीं करता हूँ; दोनों एक समान स्वागत के योग्य हैं। वशिष्ठ, विश्वामित्र का दृष्टान्त साररूप में अच्छा है उससे इतना ही सार निकालना काफी है कि सन्तानोत्पत्ति के ही अर्थ किया हुआ संयोग ब्रह्मचर्य का विरोधी नहीं है। कामानि की तृप्ति के कारण किया हुआ संभोग त्याज्य है। उसे निद्य मानने की आवश्यकता नहीं । असंख्य स्त्री-पुरुषों का मिलन भोग के ही कारण होता है, और होता रहेगा ।..... इस विषय में संत टॉल्स्टॉय के विचार प्रायः उपर्युक्त विचारों से मिलते हैं मैं समझता हूँ विवाह में सहवास (संभोग) एक आचारविरुद्ध कर्म (व्यभिचार ) नहीं है; परन्तु इस बात को प्रमाण के साथ लिखने के पहले मैं इस प्रश्न पर कुछ अधिक ध्यानपूर्वक विचार कर लेना चाहता हूँ। क्योंकि इस कथन में भी कुछ सत्यता प्रतीत होती है कि काम पिपासा बुझाने के लिए अपनी धर्म पत्नी के साथ भी किया गया संभोग पाप है। मैं तो समझता हूँ इन्द्रिय-विच्छेद कर देना वैसा ही पाप कर्म है, जैसा कि विषय सुख के लिए संभोग (रति) करना। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार कि आवश्यकता से अधिक खा लेना । जो भोजन मनुष्य को अपने अन्य भाइयों की सेवा करने के योग्य बनाता है, वह न्यायोचित भोजन है, और इसी प्रकार वह मैथुन भी न्यायोचित ( जायज ) है, जो सन्तानोत्पत्यर्थ (वंश चलाने के उद्देश्य से) किया जाता है । ... यह कहना सही है कि स्व-पत्नी के साथ किया हुआ संभोग भी प्राचार विरुद्ध अर्थात् व्यभिचार है, यदि वह बिना श्राध्यात्मिक (विशुद्ध) प्रेम के, केवल विषय-सुख के लिए और इसलिए नियत समय के ऊपर न किया गया हो; पर यह कहना सर्वथा अनुचित और भ्रममूलक है कि सन्तानोत्पत्यर्थ और विशुद्ध श्राध्यात्मिक प्रेम के होते हुए किया गया मैथुन भी पाप है। वास्तव में वह पाप नहीं किन्तु ईश्वर की आज्ञा का पालन करना है ।" 5 संभोग के दो प्रयोजन हो सकते हैं- एक विषय-वासना की पूर्ति और दो जरूरत से प्रजोलादन। ऊपर के दोनों वक्तव्यों का सार यह है कि विवाहित जीवन का यह नियम होना चाहिए कि कोई भी पति-पत्नी बिना श्रावश्यकता के प्रजोसत्ति न करें और प्रजोत्पादन के हेतु बिना संभोग न करें। महात्मा गांधी की दृष्टि से संभोग एक ही सन्तान के लिए हो सकता है; उसके बाद नहीं होना चाहिए। संत टॉल्स्टॉय के अनुसार १. ब्रह्मचर्य (पहला भाग) पृ० ८५ २ वर्ष (पहला भाग) पृ० ८५८७ का सार ३- स्त्री और पुरुष पृ० ५६-६० से संक्षिप्त www Scanned by CamScanner Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ कर्तव्यपूर्वक जितनी सन्तानों के पालन की क्षमता दम्पति में हो, उतनी सन्तानों के लिए हो सकता है । हिन्दू शास्त्रों के अनुसार भी एक सन्तति का विधान नहीं है, जैसा कि उपर्यक्त कथा से स्पष्ट है। - महात्मा गांधी के अनुसार कामानि की तृप्ति के कारण किया हुआ संमोग त्याज्य है-निन्द्य नहीं। संत टॉल्स्टॉय कहते हैं : "यदि तू स्त्री को-भले ही वह तेरी पत्नी हो-एक भोग और आमोद-प्रमोद की सामग्री समझता है तो व्यभिचार करता है। विषयानन्द.. पतन है।" - जैन दृष्टि से विषय-तृप्ति और सन्तानोत्पत्ति-ये दोनों ही हेतु सावद्य-पापपूर्ण हैं । सन्तान की कामना स्वयं एक वासना है। संभोगक्रिया में फिर वह भले ही किसी भी हेतु से हो-इन्द्रियों के विषयों का सेवन होता ही है। मोह-जनित नाना प्रकार की चेष्टाएँ होती हैं। ये सब विकार हैं। यह संभव है कि कोई संभोग तीत्र-परिणामों से करे और कोई हल्के परिणामों से । जो तीव्र परिणामों से प्रवृत होता है वह गाढ़ बंधन करता है और जो हल्के परिणामों से प्रवृत होता है, उसका बंधन हल्का होता है। समानता . आ सन्तानोत्पत्ति में स्वधर्म पालन जैसी कोई बात नहीं। प्राने पीछे अपना वारिस छोड़ जाने की भावना में मोह और अहंकार ही है। अनासक्तिपूर्वक सन्तानोत्पादन करनेवाला ब्रह्मचारी ही है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। वह भी भोगी है। यदि भावों में तीव्रता नहीं है तो उसका बंधन कठोर नहीं होगा। इतनी ही बात है। हेतु से दोषपूर्ण क्रिया निर्दोष नहीं हो सकती। अशुद्ध साधन हेतुवश-प्रयोजनवश शुद्ध नहीं हो : सकता। जैन दृष्टि से एकवार के संभोग में मनुष्य नौ लाख सूक्ष्म पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा करता है (भगवती २.५ और टीका)। मिनट लिखते 2 योनियन्यसमुत्पन्नाः सुसूत्मा जन्तुराशयः। .... पीढ्यमाना विपद्यन्ते, यत्र तन्मैथुनं त्यजत् ॥ 5 वी प्रश्नव्याकरण सूत्र में प्रब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में कहा है: "प्रब्रह्मचर्य चौथा पाप-द्वार है । यह कितना प्राश्चर्य है कि देवों से लेकर मनुष्य और असुर तक इसके लिये दीन-भिखारी बने हुए हैं। "यह कादे और कीचड़ की तरह फंसानेवाला और पाश की तरह बंधन-रूप है । यह तप, संयम और ब्रह्मचर्य को विघ्न करनेवाला, चारित्र-रूपी जीवन का नाश करनेवाला और अत्यन्त प्रमाद का मूल है। यह कायर और कापुरुषों द्वारा सेवित और सत्पुरुषों द्वारा त्यागा हुआ है। स्वर्ग, नरक और तिर्यक इन तीनों लोक का आधार-संसार की नींव और उसकी वृद्धि का कारण है । जरा-मरण, रोग-शोक की परम्परा वाला है। बध, बन्धन और मरण से भी इसकी चोट गहरी होती है । दर्शन-तत्वों में विश्वास करने और चारित्र-सद्धर्म अङ्गीकार करने में विघ्न करनेवाले मोहनीयकर्म का हेतुभूत-कारण है। जीव ने जिस का चिर संग किया फिर भी जिससे तृप्ति नहीं हुई-ऐसा यह चौथा भास्रवद्वार दुरन्त और दुष्फलवाला है । यह अधर्म का मूल और महा दोषों की जन्मभूमि है। "प्रब्रह्मचर्य-सेवन से अल्प इन्द्रिय-सुख मिलता है परन्तु बाद में वह बहुत दुखों का हेतु होता है । यह प्रात्मा के लिए महा भय का कारण है। पाप-रज से भरा हुमा है। फल देने में बड़ा कर्कश है-दारुण है । सहस्रों वर्षों तक इसका फल नहीं चुकता-जीव को इसके कुफल बहुत दीर्घ काल तक भोगने पड़ते हैं।" अब्रह्म की यह प्रकृति सन्तानोत्पत्ति के हेतु से नहीं मिट सकती और वह हमेशा है जैसी ही सदोष रहेगी। श्रमण भगवान महावीर के अनसार सन्तानोत्तत्यर्थ किया हुआ मैथुन भी पाप है। पति-पत्नी का विषय-तृप्ति के लिए किया हुआ मैथन लोक-निंद्य अवश्य नहीं है पर ज्ञानियों की दृष्टि में अपने मूल स्वरूप में वह भी पाप ही है और जिन-प्राज्ञा सम्मत नहीं। १-स्त्री और पुरुष पृ० १०२ २-योगशास्त्र २.७६ ३-प्रश्नव्याकरण सूत्र : चतुर्थ आस्रव द्वार ४–दशवकालिक सूत्र ६.१७ ५-प्रश्नव्याकरण सूत्र : चतुर्थ आस्रव द्वार Scanned by CamScanner Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका संत टॉलस्टॉय लिखते हैं . "मनुष्य को चाहिए कि वह संयम के महत्व को समझ ले । जो संयम अविवाहित अवस्था में मनुष्य के गौरव की अनिवार्य शर्त है, वह विवाहित जीवन में इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है। विवाहित स्त्री-पुरुष वैषियक प्रेम को शुद्ध भाई-बहिन के प्रेम में परिणत कर दें। 1 १२- भाई बहिन का आदर्श San "विवाह अपनी वैषयिकता को तुष्ट करने का एक साधन नहीं; बल्कि एक ऐसा पाप समझा जाय जिसका प्रायश्चित करना परमावश्यक है । इस पाप का इस तरह प्रायश्चित हो सकता है : " पति और पत्नी दोनों विलासिता और विकार से एक दूसरे की सहायता करें, तथा आपस में उस पवित्र सम्बन्ध की स्थापना करने की भी कोशिश करें, कि प्रेमी और प्रेमिका के बीच ।" मुक्त होने की कोशिश करें और इसमें जो भाई और बहिन के बीच होता है न इसी विचार को महात्मा गांधी ने भी दिया है : "विवाहित अविवाहित सा हो जाय।" "मुझसे कहा जाता है कि यह आदर्श अशक्य है भीर 'तुम स्त्री-पुरुष में जो एक दूसरे के प्रति भाकर्षण है, उसका खयाल नहीं करते ।' पर जिस काम-प्रेरित श्राकर्षण की ओर संकेत है मैं उसे स्वाभाविक मानने से इनकार करता हूँ। वह प्रकृति प्रेरित हो तो हमें जान लेना चाहिए कि प्रलय होने में अधिक देर नहीं है। स्पी और पुरुष के बीच का सहन बाकर्षण यह है जो भाई और बहिन माँ और बेटे, बाप और बेटी के बीच होता है। संसार इसी स्वाभाविक श्राकर्षण पर टिका है। मैं सम्पूर्ण नारी जाति को अपनी बहिन, बेटी और माँ न मानूं तो काम करना तो दूर रहे, मेरे लिए जीना भी कठिन हो जायगा । मैं उन्हें वासनाभरी दृष्टि से देखूं तो यह नरक का सीधा रास्ता होगा ।" "नहीं मुझे अपनी सारी शक्ति के साथ कहना होगा कि काम का आकर्षण पति -पत्नी के बीच भी अस्वाभाविक है ।... पति-पत्नी के बीच भी कामना - रहित प्रेम होना नामुमकिन नहीं है।" नीचे हम एक पुरानी जैन-क्या दे रहे हैं जो धाज के युग में भी नये मूल्यों की प्रतिष्ठा में सहायक होगी और जो पति-पत्नी में भाईबहिन के भाव का विचार बहुत पहले से देती भा रही है : कौशाम्बी नगरी में धनवा सेठ का लड़का विजय कुमार रहता था। एक बार उस नगरी में एक मुनि श्राये । विजय कुमार उनके दर्शन के लिए गया । मुनि ने दर्शन के लिए आए हुए लोगों को धर्मोदेश दिया। विजय कुमार उपदेश से प्रभावित हुआ और उसने यावज्जीवन के · लिए परदार का त्याग लिया। साथ ही उसने कृष्णपक्ष में स्वदार का भी पावज्जीवन के लिए त्याग किया। १ - स्त्री और पुरुष पृ० ७,२६,७६ २ - ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ६७ उसी नगरी में एक दूसरा सेठ धनसार था। उसकी पुत्री का नाम विजय कुमारी था। वह बड़ी लावण्यवती और गुणवती थी। योवनावस्था आने पर विजय कुमार और विजय कुमारी का पाणिग्रहण हुआ। विजय कुमारी जैसी सुन्दर थी वैसा ही विजय कुमार था । - प्रथम रात्रि में विजय कुमारी विजय कुमार के पास आयी । तव कुमार बोला- "तीन दिन मेरे पास नहीं माना है।" कुमारी बोली"आप इस समय मुझे किस कारण से रोकते हैं ?" कुमार बोला – “मुझे कृष्णपक्ष का प्रत्याख्यान है । उसके बीतने में तीन दिन बाकी हैं ।" विजय कुमारी चिन्तित होकर बोली - "मुझे शुक्लपक्ष का प्रत्याख्यान है । श्राप दूसरा विवाह करें।" विजय कुमार बोला - "प्रिये ! सहज ही पाप से बचाव हुआ । प्रब्रह्म अनर्थ का मूल है। हम दोनों यावज्जीवन ब्रह्मचर्य का पालन करें।" विजय कुमारी बोली - "हम लोगों की यह बात छिपी कैसे रह सकेगी ? प्रकट होने पर झापको तो विवाह करना ही पड़ेगा ।" विजय कुमार बोला- “बात प्रकट होने पर दोनों संयम ग्रहण करेंगे और आत्म-शुद्धि के लिए युद्ध करेंगे। हम लोग अनन्त बार कामभोग भोग चुके। उनसे कभी तृप्ति नहीं हुई।" पति-पत्नी दोनों साथ-साथ सामायिक पौषध करते । एक ही शय्या पर सोते और एक दूसरे को भाई बहिन की दृष्टि से देखते हुए -अनीति की राह पर पृ० ७०-१ २७ ४- वही पृ० ७१ क 11-pfi fel Scanned by CamScanner Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नय बार २८ असिधार व्रत का पालन करने लगे। इस प्रकार बारह वर्ष का समय बीत गया। ऐसे समय विमल मुनि नामक कंवली चमानगरी में पधारे। उन्होंने भायी हुई परिषद् को धर्मोपदेश दिया। यहाँ जिनदास नाम सेठ भी उपस्थित थे। उसने पूछा--"मैंने रात्रि में स्वप्न में मासक्षमण के उपवासी ८४ लाख मुनिराजों को प्रतिक्षामित किया। उसका क्या फल है ?" विमल कंवली बोले- सेठ ! कौशाम्बी में विजय कुमार और विजय कुमारी रहते हैं। यह दम्पति तीन करण, तीन गोग से ग्राम चारी है। पति-पत्नी एक ही शय्या पर शयन करते हैं और उन्हें ब्रह्मचर्य पालन करते हुए बारह वर्ष हो गये हैं। एक का कृष्णपक्ष का प्रत्याख्यान है और दूसरे को शुक्लपक्ष का। वे दोनों चरम शरीरी हैं।" यह सुनकर सब विस्मित हुए। जिनदास बोला--"मैं जाकर उन्हें देखेंगा और उनकी स्तुति करूंगा।" मुनि बोले-"तुम्हारे मिलने पर वे संयम लेंगे।" जिनदास परिवार सहित कौशाम्बी पहुँच बाहर बाग में ठहरा और फिर विजय कुमार के पिता से मिलने गया। विमल केवली द्वारा कही हुई बात उससे कही। सेठ ने कुमार को बुला कर पूछा-'अब तुम्हारी क्या इच्छा है ?" कुमार बोला-"मैंने प्रण ले रखा है कि बात प्रकट होते ही संयम लेगा। अत: संयम की अनुज्ञा दें।" पिता के आग्रह पर भी कुमार अपने निश्चय से नहीं डिगा। सेठ ने अनुमति दे दी। विजय कुमार ने प्रव्रज्या ली। विजया कुमारी भी प्रवृजित हुई। दोनों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और दोनों मुक्त हुए। यह कथा अनेक तरह से बोधप्रद है और विवाहित जीवन के लिए निम्नलिखित मुल्यों को प्रतिष्ठित करती है : (१) लिए हुए व्रत को दृढ़ता से निभाना चाहिए। (२) पति-पत्नी एक दूसरे के व्रत को निभाने में सहधर्मी हों। R T ER (३) पति-पत्नी दोनों अन्त में ऐसी अवस्था में आ जायें कि उनका सम्बन्ध भाई-बहिन का सा हो जाय। (४) अन्त में गार्हस्थ्य से मुक्त हो दोनों पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण करें। "ईसा ने कहा है-'अपने माता-पिता, बीबी-बच्चे प्रादि को छोड़ कर मेरा अनुसरण कर।" संत टॉल्स्टॉय लिखते हैं-"स्त्री को छोड़ने के माने हैं. उससे पतित्व का नाता तोड़ देना। संसार की अन्य स्त्रियों की तरह, अपनी बहन की तरह उसे समझना जैन धर्म में भी कहा है-स्त्री, पुत्र, घर, संपति सब को छोड़ कर श्रामग्य (बार्यपास) ग्रहण करो। इस प्रादर्श के उदाहरण जैन साहित्य में काफी उपलब्ध हैं। यहाँ हम जम्ब कुमार का जीवन-गृत देते हैं, जो इस विषय में एक चरमकोटि का बोध-प्रद प्रसंग है। यह मा हम यहाँ स्वामीजी की ही कृति के आधार पर दे रहे हैं। जम्बूकुमार राजगृही के रहनेवाले थे। उनके पिता का नाम ऋषभदत्त और माता का नाम धारिणी देवी था। __एक बार भगवान महावीर के पट्टधर सुधर्मा स्वामी राजगृह पधारे। जम्बू कुमार उनके दर्शन के लिए गये। सुधर्मा के उपदेश को सन कर जम्बकमार का हृदय वराग्य से ओत-प्रोत हो गया। अपने माता-पिता की आज्ञा ले उन्होंने श्रामण्य ग्रहण करने की की और दर्शन कर घर की ओर लौट चले। जब वे अपने घर के समीप पहुंचे तो एक मकान गिर पड़ने से एक पत्थर की शिला ठीक उनके सामने आकर गिरी। उन्होंने सोचा जीवन का क्या भरोसा ? प्रव्रज्या के पहले न जाने कितने विघ्न आ सकते हैं ? मुझे यावज्जीवन के लिए ब्रह्मवर्य ग्रहण कर लेना चाहिए। ऐसा विचार, वे उसी समय सुधर्मा स्वामी के पास पहुंचे और यावज्जीवन के लिए ब्रह्मचर्य ग्रहण कर लिया। इसके बाद घर लौटे और माता-पिता से प्रव्रज्या की अनुमति मांगने लगे। माता-पिता उन्हें बिविध प्रकार से समझाने लगे पर जम्बकमार के विचार नहीं पलटं। आखिर में उन्होंने कहा-"तुम्हारी आठ कन्याओं के साथ सगाई की जा चुकी है। हमारे कहने से इतना ? गाय मंजरी : विजय सेठ विजया सेठानी को चौालियो २.. कर समाई पोपा भेला, काई सूर्व हो एक सेज मझारक । जोव भगिनी भ्रात ज्यू, शील पाले हो खांडेरी धार क ।। २-वैराग्य मंजरी : विजय सेठ विजया सेठाणी को चौढालियो पृ० २८-३४ ३-स्त्री और पुरुष पृ० ६७ Scanned by CamScanner Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका तो मानो कि उनके साथ विवाह कर बाद में रहेगी कि तुम्हारी मांगों का विवाह अन्य किसी २६ प्रव्रज्या मो। मगर तुम विवाह किए बिना ही संयम लोगे, तो हमें यह बात जीवन भर अखरती के साथ हुआ। " माता-पिता को अत्यंत दुःखी और विलाप करते हुए देख जम्बूकुमार सोचने लगे- "मैंनें र्य ग्रहण किया है, विवाह करने का परित्याग नहीं किया है । क्यों न माता-पिता की बात रख दूं ? विवाह के बाद भी मैं ब्रह्मवयं के नियम का नङ्ग नहीं करूंगा और दीक्षा मूंगा।" जम्बूकुमार ने विवाह की स्वीकृति दी । माता-पिता ने बड़े उमङ्ग से दिन निर्धारित किया और हर्षोत्सव मनाये जाने लगे । जम्बूकुमार ने सोचा- "मेरे ससुरालवालों को मेरे ब्रह्मचर्य ग्रहण करने की बात मालूम नहीं। मेरा कर्तव्य है कि इस बात को प्रकट कर दूँ ताकि मेरे माठों हो सास-ससुर और ससुरालवालों को इसका पता रहे, तथा माठ कन्याओं के ध्यान में भी यह बात का जाय। और वे अपना कर्त्तव्य सोच सकें । यदि अपने नियम की सूचना मैं उन्हें नहीं करता तो मेरो ओर से यह एक बहुत बड़े धोखे की बात होगी ।" ऐसा विचार कर जम्बूकुमार ने दूत द्वारा पाठों ससुरालों में इसकी सूचना भेज दी। समाचार पाकर आठों कन्याएं विचार में पड़ गयीं और फिर एकत्र हो विचार किया: "उधर ब्रह्मचर्य ग्रह्ण कर लिया और इबर हम सब से विवाह कर रहे हैं। मालूम होता है उनके परिणाम शिथिल हैं। यदि ब्रह्मचर्य पालन के विचार दृड़ होते तो विवाह ही क्यों करते ? माता-पिता के प्रेमवश उन्होंने हमलोगों से पाणिग्रहण करना मंजूर कर लिया तो हमलोगों के प्रेमवश वे संयम लेने का विचार भी छोड़ देंगे। यदि हम सब के प्रेम-पाश में न पड़ वें प्रत्रज्या ग्रहण करेंगे तो हम सब भी उनका साथ देंगी । हम जंबूकुमार के सिवा किसी के साथ विवाह नहीं कर सकतीं। यह हमलोगों के लिए युक्त नहीं ।" इस तरह दृढ़ निश्चय कर सब ने विवाह करने का विचार स्थिर रखा । माता-पिता से वे बोलीं : "आप फिकर न करें। हम विवाह करेंगी तो जंबूकुमार के साथ ही । इस थोड़ जीने के लिए हमें अन्य किसी के साथ विवाह नहीं कर सकतीं। यदि जंबूकुमार घर में रहते हुए शील का पालन करेंगे तो हम भी वैसा ही करेंगी। यदि वे संयम ग्रहण करेंगे तो हम भी उनका अनुसरण कर संयम ग्रहण करेंगी। यदि वे घर में रह कर गृहवास करेंगे तो वे हमारे कंत होंगे और हम उनकी कामनियाँ । उनकी इच्छा है वैसा वे करें । उसी के अनुसार हम करेंगी। हमारा प्रण है कि हम जंबूकुमार को छोड़ अन्य से विवाह नहीं करेंगी ।” : इसके बाद आठों कन्याओं का पाणिग्रहण जम्बूकुमार के साथ हुआ। विवाह की रात्रि में वे महल में गये । देवाङ्गना सदृश आठों पत्नियाँ यहाँ उपस्थित हुई। जंबूकुमार सोचने लगे इन्होंने मेरा पाणिग्रह किया है, इसलिए इनके साथ रात बिताई। इनके साथ विवाह हुआ है, इसलिए ये मेरी पत्नियाँ हैं और मैं इनका पति हूँ। पर मैं शुद्ध ब्रह्मचारी हूँ उस दृष्टि से ये मेरी माता और बहिन की तरह हैं। मैं इनके प्रति जरा मीट से नहीं देखूंगा और अपने झील में टड़ रहूंगा मुल से विवाह कर ये मेरे पास बाधी है। मेरा कर्तव्य इन्हें भी समझा कर इनके साथ ही घर से निकलूं जिससे मेरे साथ इनकी भी आत्मा का कल्याण हो । यांरो सुन्दर रूप ग्राकार, मल मूत्र नों भंडार । हाड मांस लोही क्ष्य, मांय, त्यां नें रूडी वस्तु न काय ॥ असुचि अपवित्र नों छं ठाम, यां सुं मूल नहीं म्हारे काम । रहिवो आछो नहीं त्यारें पास, यां सूं कुण करे घरवास ॥ पिण यां जोड्या छं म्हां सूं हाथ, तो हिवे श्रातो पूरी करूं रात । परणी लेखे छं म्हांरी नार, हूँ पिण यांरो भरतार ॥ पिण हूँ ब्रह्मचारी सुषमान, तिण लेखे छे मा वेन समान । तो यांयूँ माठी नजर न मालू, शीलव्रत चोखे चित्तपालूं ॥ ए मोनें परणे मो पासे आई, तो ग्राठाई ने हूँ समझाई। यां नें पिण लें निकलूं लार, ज्यूँ यारोई खेवो हुवे पार * ॥ इसके बाद जुम्बूकुमार और उन सब में बड़ा रसप्रद वार्तालाप हुआ। ये जंबूकुमार को अनेक हेतु दृष्टान्तों के द्वारा गृहवास की भोर आकर्षित करने की चेष्टा करने लगीं। जम्बूकुमार वैराग्यपूर्ण हेतु दृष्टान्तों के द्वारा वैराग्य की पिचकारियाँ छोड़ने लगे। रात भर में उन्होंने घों ही पत्रियों को संयम के लिए तैयार कर लिया। रात में प्रभव नामक चोर अपने पांच सौ साथियों के साथ चोरी करने के लिए जम्बूकुमार के महल में घुस गया था। वह दहेज में पाये हुए पन को बटोर ने लगा। तभी उसने जम्बूकुमार और उनकी नव विवाहित पक्षियों के बीच हुई बातचीत को सुना। उसका हृदय राज्य से प्लावित हो गया । उसने भी अपने साथियों सहित संयम ग्रहण करने का निश्चय किया। प्रातः सबको लेकर जम्बूकुमार अपने माता-पिता के पास आये । यह सब देखकर उनके मन में भी वैराग्य उमड़ पड़ा और इन सब ने जम्बूकुमार के साथ दीक्षा ली। जम्बूस्वामी आखिरी केवली थे। वे संयम का अच्छी तरह पालन कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुए । १-मथुरा) र ११४०४८ Scanned by CamScanner Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड १३-विवाह और जैन दृष्टि यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैनधर्म विवाह-विधान नहीं देता। विवाह को अनाध्यात्मिक समझता है । जैनधर्मर निवृत्ति रूप है और गार्हस्थ्य उसमें प्रवृत्ति रूप, अत: वह गार्हस्थ्य का विधान नहीं करता । उसका आदर्श महावत है और उसमें प्रवत्ति इसलिए भी उसमें गार्हस्थ्य से निवृत्ति का ही विधान हो सकता है। ईसा का विवाह सम्बन्धी दृष्टिकोण जन प्ररूपण के बहुत समीप है । संत टॉल्स्टॉय लिखते हैं : Sa "रति (संभोग) तथा ऐसी ही अन्य बातों में जैसे हिंसा, क्रोध आदि-मनुष्य को चाहिए कि वह कभी आदर्श को नीचा न करे और न कभी कोई रूपान्तर ही करे।" "पूर्ण शुद्ध ब्रह्मचर्य आदर्श है। परमात्मा की सेवा करनेवाला विवाह की उतनी ही इच्छा करेगा, जितनी शराब पीने की । पर शुद्ध ब्रह्मचर्य के राजमार्ग में कई मञ्जिलें हैं। यदि कोई पूछ कि हम विवाह करें या नहीं, तो उसे केवल यही उत्तर दिया जा सकता है कि यदि आपको ब्रह्मचर्य के प्रादर्श का दर्शन नहीं हो पाया हो, तो स्वामख्वाह उसके सामने अपना सिर न झुकायो। हाँ, वैवाहिक जीवन में विषयों का उपभोग करते हुए धीरे-धीरे उस आदर्श की ओर बढ़ो। यदि मैं ऊँचा हूँ और दूर की इमारत को देख सकता है और मुझसे छोटे कदवाला मेरा साथी उसे नहीं देख पाता, तो मैं उसे उसी दिशा में कोई नजदीकवाली वस्तु दिखा कर उद्दिष्ट स्थान की कल्पना कराऊँगा । उसी प्रकार जो लोग सुदूरवर्ती ब्रह्मचर्य के आदर्श को नहीं देख पाते, उनके लिए ईमानदारी के साथ विवाह करना उस दिशा की एक पास की मंजिल है। पर यह मेरी और आपकी बतायी मंजिल है । स्वयं ईसा तो सिवा ब्रह्मचर्य के और किसी प्रादर्श को न तो बता सकते थे और न उन्होंने बताया ही है। "धर्म-ग्रन्थ में विवाह की आज्ञा नहीं है। उसमें तो विवाह का निषेध ही है । अनीति, विलास तथा अनेक स्त्री-संभोग की कड़े-से-कडे शब्दों में निन्दा अलबत्ते की गयी है । विवाह-संस्था का तो उसमें उल्लंख भी नहीं है। "ईसाई-धर्म के अनुसार न तो कभी विवाह हुआ है और न हो ही सकता है, क्योंकि धर्म विवाह की प्राज्ञा नहीं करता; ठीक उसी तरह जैसे कि धन-संचय करने का भी आदेश नहीं करता। हाँ, इन दोनों का सदुपयोग करने पर अलबता वह जोर देता है।" वैदिक संस्कृति में गार्हस्थ्य ही प्रधान रहा । क्योंकि वेदों के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम विद्याकाल रहा और उसके बाद गार्हस्थ्य प्रारंभ होता जो जीवन के अन्त तक रहता। उपनिषद्-काल में वानप्रस्थ और बाद में स्मृतिकाल में संन्यास पल्लवित हुआ, फिर भी गार्हस्थ्य प्राश्रम ही धन्य कहा जाता रहा। ऐसी स्थिति में विवाह-संस्था का वैदिक संस्कृति में मुख्यत्व रहा है और वैदिक संस्कृति के क्रियाकाण्ड में सन्तान का प्रजनन आवश्यक होने से विवाह और प्रजनन के भी आदेश वेद जैसे धर्म ग्रंथों में उपलब्ध हैं। एक बार महात्मा गांधी से पूछा गया-"क्या आप विवाह के विरुद्ध हैं ?" उन्होंने उत्तर दिया-"मनुष्य जीवन का सार्थक्य मोक्ष है। हिन्द के तौर पर मैं मानता हूँ कि मोज अर्थात् जीवन-मरण की घट-माल से मुक्ति-ईश्वर-साक्षात्कार । मोक्ष के लिए शरीर के बन्धन टटने चाहिए। शरीर के बन्धन तोड़नेवाली हरएक वस्तु पथ्य और दूसरी अपथ्य है । विवाह बन्धन तोड़ने के बदले उसे उलटा अधिक जकड़ लेता है। ब्रह्मचर्य ही ऐसी वस्तु है जो कि मनुष्य के बन्धन मर्यादित कर ईश्वरार्पित जीवन बिताने में उसे शक्तिमान करता है।...विवाह में तो सामान्य रूप से विषय-वासना की तृप्ति का ही हेतु रहा हुआ है। इसका परिणाम शुभ नहीं । ब्रह्मचर्य के परिणाम सुन्दर हैं जैन दृष्टि का स्पष्टीकरण करते हुए पं० सुखलालजी एवं बेचरदासजी लिखते हैं-"जीवन में गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है। इससे जिस धर्म में गृहस्थाश्रम का विधान किया गया है, वह प्रवृत्तिधर्म और जिस धर्म में गृहस्थाश्रम का नहीं पर मात्र त्याग का विधान है, वह निवृत्तिधर्म है। जैन धर्म निवृतिधर्म होने पर भी उसके पालन करनेवालों में जो गृहस्थाश्रम का विभाग देखा जाता है, वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है। सर्वांश में निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने-जितने अंशों में निवृत्ति का सेवन करता है उतने-उतने अंशों में वह जैन है। जिन अंशों में निवृत्ति का सेवन न कर सके, उन अंशों में अपनी परिस्थिति अनुसार विवेकदृष्टि से वह प्रवृत्ति की रचना कर ले: पर इस प्रवृत्ति का विधान जैन शास्त्र नहीं करता। उसका विधान तो मात्र निवृत्ति का है। इससे जैन धर्म को विधान की दृष्टि से एकाथमी कहा जा सकता है । वह एकाश्रम याने ब्रह्मवर्य और संन्यास आश्रम का एकीकरणरूप त्याग का प्राश्रम" १-स्त्री और पुरुष पृ०४१. २.-वही पृ०४७ ३-वही १०७७ ४-वही प० ७६ ५-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ०८२-८३ -जैन दृष्टिए ब्रह्मचर्यविचार पृ० २ Scanned by CamScanner Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३१ १४- ब्रह्मचर्य के विषय में दो बड़ी शंकाएँ ब्रह्मचर्य के विषय में प्रायः दो शंकाएँ सामने श्राती हैं - (१) क्या ब्रह्मचर्यं श्रव्यावहारिक नहीं ? और (२) उसके पालन से क्या मनुष्य जाति का नाश नहीं हो जायगा ? इन दोनों का निराकरण नीचे दिया गया है : (१) क्या ब्रह्मवर्य अव्यावहारिक नहीं ? इस प्रश्न पर टॉल्स्टॉय ने बड़ े अच्छे ढंग से विचार किया है। उन्होंने कहा है : "कुछ लोगों को ब्रह्मचर्य के विचार विचित्र और विपरीत मालूम होंगे, श्रौर सचमुच विपरीत हैं भी। किन्तु अपने प्रति नहीं, हमारे वर्तमान जीवन क्रम के एकदम विपरीत हैं । "लोग कहेंगे ये तो सिद्धान्त की बातें हैं। भले ही वे सच्ची हों तो भी हैं वे धाखिर उपदेश ये प्रादर्श प्राप्य हैं। ये संसार में हमारा हाथ पकड़कर नहीं ले जा सकते । ये प्रत्यक्ष जीवन के लिए एकदम निरुपयोगी हैं इत्यादि इत्यादि । "दित यही है कि अपनी कमजोरी से मेघ बंठाने के लिए आदर्श को ढीला करते ही यह नहीं सूझ पड़ता है कि नहीं ठहरा जाय ? "यदि एक जहाज का कप्तान कहे कि मैं कम्पास द्वारा बतायी जानेवाली दिशा में ही नहीं जा सकता, इसलिए मैं उसे उठाकर समुद्र में डाल दूँगा, उसकी तरफ देखना ही बन्द कर दूंगा या में कम्पास की सुई को पकड़ कर उस दिशा में बाँध दूँगा, जिघर मेरा जहाज जा रहा है अर्थात् अपनी कमजोरी तक आदर्श को नीचे खींच लूँगा, तो निस्सन्देह बेवकूफ कहा जायगा। . "नाविक का अपने कम्पास श्रर्थात् दिशा दर्शक यन्त्र में विश्वास करना जितना भावश्यक है, उतना ही मनुष्य का इन उपदेशों में विश्वास करना भी है। मनुष्य चाहे किसी परिस्थिति में क्यों न हो, श्रादर्श का उपदेश उसे यह निश्चित रूप से बताने के लिए सदा उपयोगी होगा कि उस मनुष्य को क्या-क्या बातें नहीं करनी चाहिएँ ? पर चाहिए उस उपदेश में पूरा विश्वास, अनन्य श्रद्धा । जिस प्रकार जहाज का मल्लाह या कतान उस कम्पास को छोड़ दायें-बायें आनेवाली और किसी चीज का खयाल नहीं करता, उसी प्रकार मनुष्य को भी इन उपदेशों में पूरी श्रद्धा रखनी चाहिए। " बतलाये हुए श्रादर्शों से हम कितने दूर हैं, यह जानने से मनुष्य को कभी डरना न चाहिए। मनुष्य किसी भी सतह पर या किसी भी हालत में क्यों न हो, वहाँ से वह वरावर प्रादर्श की तरफ बढ़ सकता है। साथ ही वह कितना ही आगे क्यों न बढ़ जाये, वह कभी यह नहीं कह सकता कि अब मैं छेठ तक पहुँच गया या श्रव श्रागे बढ़ने के लिए कोई मार्ग ही न रहा । "प्रादर्श के प्रति और खासकर ब्रह्मचर्य के प्रति मनुष्य की यह वृत्ति होनी चाहिए । "यह सत्य नहीं कि आदर्श के ऊँचे पूर्ण और दुरुह होने के कारण हमें धरने मार्ग में धागे बढ़ने में कोई सहायता नहीं मिलती। हमें उससे प्रेरणा और स्फूर्ति इसलिए नहीं मिलती कि हम अपने प्रति श्रसत्य आचरण करके अपने आपको धोखा देते हैं । "हम अपने श्रापको समझाते हैं कि हमारे लिए अधिक व्यावहारिक नियमों का होना जरूरी है, क्योंकि ऐसा न होने पर हम अपने प्रदर्श से गिरकर पाप में पड़ जायेंगे। इसके स्पष्ट मानी यह नहीं कि आदर्श बहुत ऊंचा है, बल्कि हमारा मतलब यह है कि हम उसमें विश्वास नहीं करते और न उसके अनुसार अपने जीवन का नियमन ही करना चाहते हैं । लोग कहते हैं, मनुष्य स्वभावतः अपूर्ण है उसे वही काम दिया जाये, जो उसकी शक्ति के अनुसार हो। इसके मानी तो यही हुए कि मेरा हाथ कमजोर होने से में सीधी रेखा नहीं खींच सकता, इसलिए सीधी रेखा सींचने के लिए मेरे सामने टेड़ी या टूटी लकीर का ही नमूना रखा जाय । पर बात यह है कि मेरा हाथ जितना ही कमजोर हो, बस, उतना ही पूर्ण नमूना मेरे सामने होना श्रावश्यक है । "किनारे के नजदीक से होकर चलनेवाले जहाज के लिए यह भले ही कहा जा सकता है कि उस सोधी-ऊंची चट्टान के नजदीक से होकर चलो, उस अन्तरीप के पास से उस मीनार के बायें होकर चले चलो। पर अब तो हमने जमीन को बहुत दूर पीछे छोड़ दिया । अब तो नक्षत्रों और दिशा दर्शक यंत्र की सहायता से ही हमें अपना रास्ता ढूँढ़ना होगा और ये दोनों हमारे पास मौजूद हैं ।" १- स्त्री और पुरुष पृ० २० से २८ तक का सार Scanned by CamScanner Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ are of y १२. (२) क्या ब्रह्मवर्य से मनुष्य जाति नाश को प्राप्त न हो जायेगी ? शील की नव बाड़ इस प्रश्न का भी उतर टॉल्स्टॉय ने प्रतीव सुन्दर ढंग से इस प्रकार दिया है : "लोग पूछते हैं-यदि ब्रह्मचर्य विषयोपभोग की अपेक्षा श्रेष्ठ है, तो यह स्पष्ट है कि मनुष्य को श्रेष्ठमार्ग का अवलम्बन करना चाहिए। पर यदि वे ऐसा करें तो मनुष्य जाति नष्ट न हो जायगी ? "किन्तु पृथ्वीतल से मनुष्य जाति के मिट जाने का हर कोई नवीन बात नहीं है। धार्मिक लोग इस पर बड़ी श्रद्धा रखते हैं और वैज्ञानिकों के लिए सूर्य के ठण्डे होने के बाद यह एक अनिवार्य बात है। "इस तरह की दलील पेश करनेवालों के दिमाग में मीति नियम और साद का भेद स्पष्ट नहीं है। 1 ब्रह्मचर्य कोई उपदेश अथवा नियम नहीं, यह तो बादर्श वा आदशों की शर्तों में से एक है बादर्श तो तभी आदर्श कहा जा है जब उसका द्वारा ही सम्भव हो, जब उसकी प्राप्ति अनन्त की 'भाड़ में छिपी हो। घीर इसलिए उसके पास जाने की संभावना भी अनन्त हैं । यदि आदर्श प्राप्त हो जाये, श्रथवा हम उसकी प्राप्ति की कल्पना भी कर सकें, तो वह प्रादर्श ही नहीं रहा । "पृथ्वी पर परमात्मा के राज्य की अर्थात् स्वर्ग की स्थापना करने का प्रादर्श ऐसा ही था ।... श्रतः इस उच्च श्रादर्श की पूर्णता की तरफ कदम बहाने और ब्रह्मवयं को उस आदर्श का एक मानकर चलने से जीवन का विनाश संभव नहीं, बल्कि उसके विपरीत बात तो यह ठीक है कि इस आदर्श का अभाव ही हमारी प्रगति के लिए हानिकारक और इसलिए सच्चे जीवन के लिए घातक होगा । "जीवन कलह को छोड़कर यदि हम मित्र शत्रु, प्राणी मात्र के प्रति प्रेम-धर्म के प्रदेश के अनुसार रहने लग जायें, तो क्या मनुष्य जाति नष्ट हो जायगी ? प्रेम-धर्म के पालन से मनुष्य जाति के विनाश का सन्देह करने के समान ही ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य जाति का विनाश होने की शंका करना है" । "पूर्णता को प्राप्त करने की कुंजी है ब्रह्मचर्य । जीवनोद्देश्य ही सफल हो जाय। फिर मनुष्य के लिए पैदा महात्मा गांधी के सामने प्रश्न आया - " प्राप तो ब्रह्मचर्य का सबके लिए ही श्राग्रह करते होंगे? " उन्होंने उत्तर दिया--"हो, सबके लिए।" प्रर्ता ने कहा- "य तो संसार मिट जायगा ?" महात्माजी बोले- "नहीं, संसार नहीं मिटेगा ऐसी प्रादर्श स्थिति हो जाय तो सब मोच्छुओं का ही समाज होकर रहे मनुष्य मनुष्य न रहें, पर प्रतिमानव होकर बड़े रहें।" १५- क्या ब्रह्मचर्य एक आदर्श है ? "यदि मनुष्य सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने लग जाय तो मानव जाति का होने और जीने की कोई श्रावश्यकता ही नहीं रह जाय" । " १- स्त्री और पुरुष पृ० ११ से १३ तक का सार २ वही पृ० ५७ ३ - ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ८२ ४-स्त्री और पुरुष पृ० ४६ ५- वही पृ० ४६-७ संत टॉल्स्टॉय सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य को एक आदर्श और परीरधारी द्वारा घप्राप्य मानते हैं। उनके विचार इस प्रकार हैं : "इस बात को कभी न भूल कि तू न तो कभी पूर्णतः ब्रह्मचारी रहा है और न रह सकता है। हाँ, तो उसके नजदीक जरूर पहुँच सकता है और इस प्रयत्न में कभी निराशा न होनी चाहिए । "सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य को नहीं पर इसके अधिक-से-अधिक नजदीक पहुँचने को ध्येय मानकर अपना बढ़ना शुरू कीजिए। सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य तो एक आदर्श सृष्टि की वस्तु है । सच-सच कहा जाय तो शरीरधारी मनुष्य उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकता। वह तो केवल उस तरफ बढ़ने का प्रयत्न मात्र कर सकता है क्योंकि वह ब्रह्मचारी नहीं, विकारपूर्ण है। यदि आदमी विकारपूर्ण नहीं होता, तो उसके लिए न तो ब्रह्मचर्य के आदर्श की और न उसकी कल्पनाही की आवश्यकता होती गलती तो यह है कि मनुष्य अपने सामने सम्पूर्ण (बाह्य शारीरिक) ब्रह्मचर्य का पादर्श रखता है। । न कि उसके लिए प्रयत्न करने का प्रयत्न में एक बात ग्रहीत समझी जाती है यह कि हर हालत में और हमेशा ब्रह्मचर्य विकारवशता से श्रेष्ठ है। सदा अधिकाधिक पवित्रता को प्राप्त करना मनुष्य का धर्म है ५ ।" Scanned by CamScanner Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका महात्मा गांधी ने कहा है : "ब्रह्मचर्य का मानी है सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार । पूर्ण ब्रह्मचारी के लिए कुछ भी अशक्य नहीं। पर यह आदर्श स्थिति है जिस तक बिरले ही पहुँच पाते हैं। इसे ज्यामिति की रेखा कह सकते हैं, जिसका अस्तित्व केवल कल्पना में होता है, दृश्य रूप में कभी खींची ही नहीं जा सकती। फिर भी रेखागणित की यह एक महत्त्वपूर्ण परिभाषा है जिससे बड़े-बड़े नतीजे निकलते हैं। इसी तरह हो सकता है, पूर्ण ब्रह्मचारी भी केवल कल्पना जगत में ही मिल सकता हो । फिर भी अगर हम इस आदर्श को सदा माने मानस-नेत्रों के सामने न रखें तो हमारी देशा बिना पतवार की नाव जैसी हो जायगी। ज्यों-ज्यों हम इस काल्पनिक स्थिति के पास पहुँचेंगे त्यों-त्यों अधिकाधिक पूर्णता प्राप्त करते जायंगे।" ऐसा लगता है जैसे संत टॉल्स्टॉय श्रीर महात्मा गांधी एक ही विचार के हों पर दोनों में अन्तर है। 27 महात्मा गांधी श्रादर्श ब्रह्मचर्य को प्राप्य और उसका अखण्ड पालन संभव मानते थे और इस बात में संत टॉल्स्टॉय से भिन्न मत रखते । थे, यह बात निम्न प्रसंग से स्पष्ट होगी। एक बार उनसे पूछा गया- "ब्रह्मचर्य के मानी क्या है ? क्या उसका पूर्ण पालन शक्य है ? और है तो क्या थाप उसका पालन करते हैं ?" उसका उत्तर उन्होंने इस प्रकार दिया था - " ब्रह्मचर्य का पूरा और सच्चा अर्थ है - ब्रह्मचर्य की खोज । ब्रह्म सब में बसता है, इसलिए वह खोज अन्तर्ध्यान और उससे उपजनेवाले अन्तर्ज्ञान के सहारे होती है । अन्तर्ज्ञान इन्द्रियों के सम्पूर्ण संयम के बिना अशक्य है श्रतः मन, वाणी और काया से संपूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है। ऐसे ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालनकरनेवाला स्त्री या पुरुष नितान्त निर्विकार होता है । -- ऐसा ब्रह्मचर्य कायमनोवाक्य से प्रखण्ड पालन हो सकनेवाली बात है, इस विषय में मुझे तिल भर भी शंका नहीं; इस संपूर्ण ब्रह्मचर्य की स्थिति को मैं अभी नहीं पहुँच सका हूँ। और इस देह में ही वह स्थिति प्राप्त करने की प्राशा भी मैंने नहीं छोड़ी है"।" ३३ जैन धर्म के अनुसार संसारी जीव भिन्न-भिन्न प्रकृति ( स्वभाव ) के कर्मों से बंधा हुआ है। इनमें से एक कर्म मोहनीय कहलाता है। जिस तरह मदिरापान से मनुष्य अपने मान को भूल जाता है, बसे ही मोहनीय कर्म के कारण वह मतवाला मूड होता है। इस मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- (१) दर्शन - मोहनीय और (२) चारित्र - मोहनीय दर्शनं मोहनीय कर्म का उदय शुद्ध दृष्टि- श्रद्धा को श्रावरित करता है, उसे प्रकट नहीं होने देता। इससे धर्म में श्रद्धा - विश्वास - रुचि उत्पन्न नहीं होती । चारित्र मोहनीय का उदय चारित्र उत्पन्न नहीं होने देता। वह धर्म को जीवन में नहीं उतरने देता । इसके उदय से कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद ( पुरुष के साथ भोग की अभिलाषा); पुरुष वेद (स्त्री के साथ भोग की अभिलापा ) और नपुंसक वेद ( स्त्री-पुरुष दोनों के साथ भोग की अभिलाषा ) उत्पन्न होते हैं । जैन धर्म मानता है कि इस मोहनीय कर्म का सर्वक्षय मनुष्य जीवन में संभव है। इसका अर्थ है दृष्टि और चारित्र की परिपूर्णता का होना। इस स्थिति में ब्रह्मचर्य श्रादि चारित्र गुण पूर्ण शुद्धता के साथ प्रकट होते हैं। इस तरह जैन धर्म ब्रह्मचर्य का उसके सम्पूर्ण रूप में पालन संभव मानता है । प्रश्नव्याकरण सूत्र ( संवरद्वार च सं० ) में कहा है " ब्रह्मचर्य सरल साधु पुरुषों द्वारा श्राचरित है (ग्रज्ज्वसाहुजणाचरितं ); श्रेष्ठ यतियों द्वारा सुरक्षित और सु-प्राचरित है ( जतिवरसारक्खितं सुचरियं); महा पुरुष, धीर, वीर, धार्मिक और धृतिवान् पुरुषों ने इसका सेवन किया है ( महापुरमधीरसूरवम्मियधितिमताण य), भव्य जनों से अनुचीर्ण है (भव्वजणाणुचिन्न) — श्रतः जब तक मनुष्य श्वेत अस्थियों से संयुक्त है, उसे सर्वथा विशुद्ध ब्रह्मचर्य का यावज्जीवन के लिए पालन करना चाहिए।" इस महाव्रत को इसकी भावना के साथ पालन करनेवाले के द्वारा यह ब्रह्मचर्यं स्पर्शित, पालित, शोधित, तीर्ण, कीर्तित, आज्ञानुसार अनुपालित होता है - ऐसा वहाँ कहा गया है। यह सर्व मैथुन-विरमण रूपं ब्रह्मचर्य की बात है । सम्पूर्ण संयम रूप ब्रह्मवर्य को भी वह प्राप्य और उसका पालन संभव मानता है- "क्लीब के लिए यह अप्राप्य है । जो तृष्णा रहित है उसके लिए दुष्कर नहीं" इ ए निधिवासस् नत्य विचिव कर ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य केवल काल्पनिक श्रादर्श नहीं, वह सम्पूर्ण साध्य है। अतीत में लोगों ने इसका पालन किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में भी करेंगे। १ - अनीति की राह पर पृ० ५० २- वही पृ० ५६ ३- उत्तराध्ययन १६.४४ क * (a) (6) YON 5 Scanned by CamScanner Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ १६-ब्रह्मचर्य स्वतंत्र सिद्धान्त है या उपसिद्धान्त । सा गांधीगी लिखते हैं-"पतंजलि भगवान के पांच महायतों में से....."चार तो सत्य में छिपे हुए हैं ।.... 'सव प्रत सत्यं के पालन में है निकाले जा सकते हैं। तो भी एक सबसे बड़े सिद्धान्त को समझने के लिए अनेक उप-सिद्धान्त जानने पड़ते हैं'।" "वास्तव में देखने के तो दूसरे सभी प्रत एक सत्य व्रत में से ही उत्पन्न होते हैं और उसके लिए उनका अस्तित्व है।" . उन्होंने अन्यत्र कहा है-"अहिंसा को हम साधन माने, सत्य को साध्य । ...'हम एक ही मंत्र जपें-जो सत्य है वही है। वही एक परमेश्वर है।..."उसके साक्षात्कार का एक ही मार्ग, एक ही साधन, अहिंसा है, उसे कभी न छोडगा ।" . उन्होंने फिर महा है-"अहिंसा के पालन को लें उसका पूरा पालन ब्रह्मचर्य के बिना असाध्य है ।""""अहिंसा व्रत का पालन करने वाले से वियाह नहीं बन सकता ; विवाह के बाहर के विकार की तो वात ही पया ?" इसी तरह "जिस मनुष्य ने सत्य को वरा है उसकी उपासना करता है, वह दूसरी किसी भी वस्तु की आराधना करे तो व्यभिचारी बन जाता है।" ... महात्मा गांधी के कहने के अनुसार "परम सत्य अकेला खड़ा रहता है । सत्य साध्य है, अहिंसा एक साधन है।" अन्य प्रत अहिंसा के रक्षक हैं और इसके द्वारा सत्य के गर्भ में रहते हैं। उनके कहने का तात्पर्य है-'सत्य की उपासना करो'- यही विशाल सिद्धांत है। इस सिद्धांत में से महिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह प्रतों की उत्पत्ति है। संत टॉलस्टॉय इस प्रश्न पर विचार करते हुए लिखते हैं : "ईसा ने कहा है-"अपने स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण बन"-यह प्रादर्श है। "जिस प्रकार पथिक को रास्ता बताने के दो मार्ग होते हैं, उसी प्रकार सत्य की शोध करनेवाले के लिए भी नैतिक जीवन का मार्ग दिखानेयाले फेयल दो ही उपाय है । एक उपाय के द्वारा पथिक को उसके रास्ते में मिलनेवाले चिन्हों और निशानों की सूचना दी जाती है. जिनको देख कर वह अपना रास्ता ढूँढ़ता चला जाये, और दूसरे के द्वारा उसको अपने पासवाले दिशा-दर्शक कम्पास की भाषा में रास्ता समझाया जाता है। नैतिक मार्ग-दर्शक पहले उपाय के अनुसार मनुष्य को बाहरी नियम बताते हैं । उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं, इसका साधारण शान दिया जाता है-मसलन सत्य का पालन कर, चोरी मत कर, किसी प्राणी की हत्या न कर, इत्यादि इत्यादि । धर्म के ये बाहरी नीतिनियम हैं और किसी-न-किसी रूप में ये प्रत्येक धर्म में पाये जाते हैं। "मनुष्य को नीति की ओर ले जाने का दूसरा उपाय वह है, जो उस पूर्णता की ओर इशारा करता है, जिसे प्रादमी कभी प्राप्त ही महीं कर सकता। हाँ, उसके 'हृदय' में यह प्राकक्षिा जरूर रहती है कि वह इस पूर्णता को प्राप्त करे । एक आदर्श बता दिया जाता है, उसको देख कर मनुष्य अपनी कमजोरी या अपूर्णता का अन्दाज लगा सकता है और उसे दूर करने का प्रयत्न करता रहता है। "बाह्य नियमों का जो मनुष्य पालन करता है, वह उस मनुष्य के समान है, जो खम्भे पर लगी हुई लालटेन के प्रकाश में खड़ा हो। वह । प्रकाश में खड़ा है, प्रकाश उसके चारों ओर है, पर उसके आगे बढ़ने के लिए मार्ग नहीं है । उपदेशों पर जिसका विश्वास है, वह उस मनुष्य के । समान है, जिसके प्रागे-मागे लालटेन चलती है । प्रकाश हमेशा उसके सामने ही रहता है और उसे बराबर अपना अनुसरण करते हुये आगे बढ़ते । जाने की प्रेरणा करता रहता है। वह बराबर नये-नये दृश्यों को आकर्षित करता रहता है।...एक सीढ़ी पर चढ़ते ही दूसरी पर पैर रखने की .१ ब्रह्मचर्य (दूसरा भाग) पृ०५३: RA P E २–प्रह्मचर्य (श्री०) पृ०४ ३-सप्त महायत अहिंसा पृ०८ ४-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ४. ५-ग्रह्मचर्य (श्री०) पृ०४ ६.--सप्त महायत पृ०१६-२० Scanned by CamScanner Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पावश्यकता हो जाती है, दूसरो पर पहुंचते ही तीसरी सीड़ी दीखने लग जाती हैं। इस तरह वह प्रागे ही आगे बढ़ता जाता है । उसकी प्रगति का कदम अनन्त है।" जैन धर्म के अनुसार मोक्ष साध्य है और अहिंसा उसका साधन । सर्व महाव्रत अहिंसा को पाने के लिए हैं और अहिंसा का महावत मोक्ष को पाने के लिए। इस बात को प्राचार्यों ने इस रूप में रखा है : "व्रत एक ही है । सब जिनवरों ने एक ही व्रत निर्दिष्ट किया है और वह है प्राणातिपांतःविरमण व्रत । अन्य सर्व व्रत उसकी रक्षा के लिए हैं।" "अहिंसा ही मुख्य है। सत्यादि के पालन का विधान उसके संरक्षण के लिए है। "अहिंसां धान की तरह है। सत्यादि व्रत उसके संरक्षण के लिए बाड़ों की तरह हैं।" "अहिंसा जल है। अन्य व्रत उसके बांध की तरह " T 6. इस तरह जैन धर्म के अनुसार ब्रह्मचर्य अहिंसा से निकलता है और उसमें गर्मित है प्रश्नव्याकरण सूत्र में सत्य को ईश्वर कहा है। वहीं कहा है-"सत्य ही लोक में सारभूत है।' आचाराङ्ग सूत्र में कहा है : “पुरुष ! सत्य की पाराधना कर। सत्य की प्राजा में उपस्थित मेघावी मौत को तर जाता है। प्राचाराङ्ग में ही कहा है-"सत्य में घृति कर।" उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है-'प्रात्मा के द्वारा सत्य की गवेषणा कर'.।" यह सत्य क्या है ? यह सत्य कोई वाचा सत्य नहीं। यह सत्य कोई ऐसा साध्य है जो सब से इष्ट है-आत्मा का सब से बड़ा श्रेयस् है । यह और कुछ नहीं, प्रात्मा का शुद्ध स्वरूपं अथवा मोक्ष है। ए सत्य की खोज के उपाय को बताते हुए कहा है-"सर्व भूतों से मैत्री करा।" मैत्री का अर्थ है भद्रोह-माव याने हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से विरत होना। इस तरह सत्य-प्रात्म-स्वरूप-मोक्ष की गवेषणा अहिंसा मादि से होती है। सत्य-मोक्ष साध्य है और अहिंसा और उसके उपसिद्धांत ब्रह्मचर्यादि साधन हैं। E m mmmsviTEM इस तरह जैन दृष्टि से ब्रह्मचर्य अहिंसा के गर्भ में समाता है। उसकी पुष्टि के द्वारा वह मोक्ष का द्वार है। १-स्त्री और पुरुष पृ०१३-१५ का सार . fiilh २-एक्कं चिय एकवयं निदिटुं जिणवरेहि सव्वेहि क state पाणाइवाय विरमण-सन्चासत्तस्स रक्खट्टा ॥ Thosar ३-अहिसपा सता मुख्या, स्वर्गमोक्षप्रसाधनी । .. . .. ... . एतत्संरक्षार्थ च न्याय्यं सत्यादिपालनम् ॥ ४-अहिंसा शस्य-संरक्षणे वृत्तिकल्पत्वात् सत्यादिवतानाम् । अहिंसा पयसः पालि-भूतान्यन्यव्रतानि यत् nah a ti ६-द्वितीय संवर द्वार: सच्चं भगवंEOSfinitig 05 ७ वही: १.२५ कार integories जंतं लोग्गमि सारभूयं nortan t - ८-आचाराङ्ग १२३.३.११२ : 2 परिसा सचमेव समभिजाणाहि, सच्चस्स आणाए से उखटिए मेहावी मार तरह tra d है-वही ११२।१.७ - सच्चम्मि धिइं कुन्बहा. -- - १०-उत्तराध्ययन ६.२:.. . अप्पणा सच्चमेसेजा .. ११ (क) उत्तराध्ययन ६.२ : अप्पणा सच्चमेसेजा, मेत्तिं भूएसु कप्पए msairmaneerime (ख) सूत्रकृताङ्ग १.१५.३ रे ? सया सच्चेण संपन्ने, मेत्ति भूएहि कप्पए Scanned by CamScanner Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नब बाद 3 1 12te १७-ब्रह्मचर्य की दो स्तुतियाँ Hindi ," क)दिक स्तुति अथर्ववेद (१९६५) में निम्न सूक्त मिलता है: "माकाश-पृथ्वी दोनों लोकों को तप से व्याप्त करनेवाले ग्रहवारी के प्रति सब देवता समान मनवाले होते हैं। वह अपने सपने प्राकाश का पोषण करता है और अपने प्राचार्य का भी पोषण करता है ॥१॥ "ब्रह्मचारी के रक्षार्थ पितर, देयता, इन्द्रादि उसके अनुगत होते हैं। विश्वावसु धादि भी उसके पीछे चलते हैं। तेतीस देवता, इन ..... विभूति रूप तीन सौ तीन देवता और छः सहस्र देवता, इन सबका ब्रह्मचारी अपने तप द्वारा पोषण करता है ॥ २॥ उपनयन करनेवाला प्राचार्य, विद्यामय शरीर के गर्भ में उसे स्थापित करता हुप्रा तीन रात तक ग्रहवारी को अपने उदर में रखा है, चौथे दिन देवगण उस विद्या-देह से उत्पन्न ब्रह्मचारी के सम्मुख पाते हैं ॥ ३ ॥ "पृथ्वी इस ब्रह्मचारी की प्रथम समिधा है और आकाश द्वितीय समिधा । प्राकाश-पृथ्वी के मध्य अग्नि में स्थापित हुई समिधा से ब्रह्मचारी संसार को संतुष्ट करता है। इस प्रकार समिधा, मेखला, मौजी, श्रम, इन्द्रियनिग्रहात्मक खेद और देह को संताप देनेवाले अन्य नियमों को पालता हुआ पृथिव्यादि लोकों का पोषण करता है ॥ ४॥ 1 ब्रह्मचारी ब्रह्म से भी पहले प्रकट हुमा, वह तेजोमय रूप धारण कर तप से युक्त हुप्रा । उस ब्रह्मचारी रूप से तपते हुए ब्रह्म द्वारा श्रेष्ठ वेदात्मक ब्रह्म प्रकट हुपा और उसके द्वारा प्रतिपादित अमि प्रादि देवता भी अपने अमृतत्व प्रादि गुणों के सहित प्रकट हुए ॥५॥ "प्रात: सायं अमि में रखी समिधा और उससे उत्सल हुए तेन से तेजस्वी, मृग चर्मधारी ब्रह्मचारी अपने भिक्षादि नियमों का पालन करता है, वह शीघ्र ही पूर्व समुद्र से उत्तर समुद्र पर पहुंचता है और सब लोकों को अपने समक्ष करता है ॥६॥ 2 "ब्रह्मचर्य से महिमा युक्त ब्रह्मचारी ब्राह्मण जाति को उत्पन्न करता है। यही गंगा प्रादि नदियों को प्रकट करता है। स्वर्ग, प्रजापति, परमेष्ठी और विराट को उत्पन्न करता है। वह अमरणशील ब्रह्म की सत्-रज-तम गुण से युक्त प्रकृति में गर्भ रुप होकर सब वर्णन किये हुए प्राणियों को प्रकट करता है और इन्द्र होकर राक्षसों का नाश करता है ॥७॥ बोरामों का नाश करता है॥७॥ माया यह अाकाश और पथिवी विशाल हैं। इन पृथिवी और प्राकाश के उत्पादक प्राचार्य की भी ब्रह्मचारी रक्षा करता है। सब देवता ऐसे ब्रह्मचारी पर कृपा रखते हैं ॥८॥ "पृथिवी और प्राकाश को ब्रह्मचारी ने भिक्षा रूप में ग्रहण किया, फिर उसने उन प्राकाश पृथिवी को समिधा बनाकर अग्नि की प्राराधना की। संसार के सब प्राणी उन्हीं प्राकाश-पृथिवी के प्राश्रय में रहते हैं "पृथिवी लोक में प्राचार्य के हृदय रूप गुहा में एक वेदात्मक निधि है। दूसरी देवात्मक निधि उपरि स्थान में है। ब्रह्मचारी इन निधियों . की अपने तप से रक्षा करता है । वेदविद् ब्राह्मण शब्द और उसके अर्थ से सम्बन्वित दोनों निधियों को ब्रह्म रूप करता है ॥१०॥ "उदय न हुआ सूर्य रूप अग्नि पृथ्वी से नीचे रहते हैं । पार्थिव अग्नि पृथ्वी पर रहते हैं । सूर्योदय होने पर अाकाश पृथ्वी के मध्य यह . दोनों अग्नियां संयुक्त होती हैं। दोनों की किरणें संयुक्त होकर दृढ़ होती हुई आकाश-पृथिवी की प्राश्रित होती हैं। इन दोनों अग्नियों से सम्पन्न । ब्रह्मचारी अपने तेज से अग्नि देवता होता है ॥११॥ . "जल पूर्ण मेघ को प्राप्त हुये वरुण देव अपने वीर्य को पृथ्वी में सींचते हैं। ब्रह्मचारी अपने तेज से उस वरुणात्मक वीर्य को ऊंचे प्रदेश में । सींचता है। उससे चारों दिशायें समृद्ध होती हैं ॥१२॥ _ "ब्रह्मचारी, पार्थिव अग्नि में चन्द्रमा, सूर्य, वायु और जल में समिधायें डालता है। इन अग्नि ग्रादि का तेज पृथक-पृथक् रूप से अन्तरिक्ष । में रहता है। ब्रह्मवारी द्वारा समिद्ध अग्नि वर्षा, जल, घृत, प्रजा आदि कार्य को करते हैं ॥१३॥ २५० "प्राचार्य हो मृत्यु है, वही वरुण है, वही सोम है। दुग्ध, व्रीहि; यव और औषधियां प्राचार्य की कृपा से ही प्राप्त होती हैं। प्रथवा यह । स्वयं ही प्राचार्य हो गए हैं ॥१४॥ Scanned by CamScanner Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका नि "प्राचार्य रूप से वरुण ने जिस जल को अपने पास रखा, वही वरुण प्रजापति से जो फल चाहते थे, वही मित्र ने ब्रह्मचारी होकर प्राचार्य को दक्षिणारूप से दिया ॥१५॥ वन ... "विद्या का उपदेश देकर प्राचार्य ब्रह्मचारीरूप से प्रकट हुये हैं। वही तप से महिमावान् हुए, प्रजापति बने । प्रजापति से विराट होते हये वही विश्व के स्रष्टा परमात्मा हो गये ॥१६॥ BA S T - "वेद को ब्रह्म कहते हैं। वेदाध्ययन के लिये पाचरणीय कर्म ब्रह्मचर्य है। उसी ब्रह्मचर्य के तप से राजा अपने राज्य को पुष्ट करता है और प्राचार्य भी ब्रह्मचर्य से ही ब्रह्मवारी को अपना शिष्य बनाने की इच्छा करता है ॥१७॥ ___ "जिसका विवाह नहीं हुआ है ऐसी, स्त्री ब्रह्मचर्य से ही श्रेष्ठ पति प्राप्त करती है । अनड्वान् आदि भी ब्रह्मचर्य से ही श्रेष्ठ स्वामी को प्राप्त करते हैं। अश्व ब्रह्मचर्य से ही भक्षण योग्य तृणों की इच्छा करता है ॥१८॥ "अग्नि प्रादि देवताओं ने ब्रह्मचर्य से ही मृत्यु को दूर किया। ब्रह्मचर्य से ही इन्द्र ने देवताओं को स्वर्ग प्राप्त कराया ॥१६' "श्रीहि, जो प्रादि औषधियां, वनौपधियां, दिन, रात्रि, चराचरात्मक विश्व, पट ऋतु और द्वादश मासवाला वर्ष ब्रह्मचर्य की महिमा से ही गतिमान हैं ॥२०॥ "प्राकारा के प्राणी, पृथ्वी के देहधारी पशु प्रादि, पंखवाले और बिना पंखवाले ये सभी ब्रह्मचर्य के प्रभाव से ही उसन्न हुये हैं ॥२१॥ "प्रजापति के बनाये हुये देवता, मनुष्य प्रादि सब प्राणों को धारण-पोषण करते हैं। प्राचार्य के मुख से निकला वेदात्मक ब्रह्म ही ब्रह्मचारी में स्थित होता हुआ सब प्राणियों की रक्षा करता है ।।२२।। Em -ms . Sir "यह परब्रह्म देवाताओं से परोक्ष नहीं है। वह अपने सच्चिदानन्द रूप से दीप्तिमान रहता है, उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है, उन्हीं से ब्राह्मण का सर्व श्रेष्ठ धन वेद प्रकट हुया है, और उससे प्रतिपाद्य देवता भी अमतत्व सहित प्रकट हुये हैं ॥२३॥ 5 "ब्रह्मचारी वेदात्मक ब्रह्म को धारण करता और सब प्राणियों के प्राणापानों को प्रकट करता है। फिर व्यान नामक वायु को; शब्दात्मिका वाणी को अन्तःकरण और उसके भावास रूप हृदय को, वेदात्मक ब्रह्म और विद्यारिमका बुद्धि को वही ब्रह्मचारी उत्पन्न करता है ॥२४॥ ___"हे ब्रह्मचारिन् ! तुम हम स्तुति करनेवालों में रूप-ग्राहक नेत्र, शब्द-ग्राहक श्रोत्र, यश और कीर्ति की स्थापना करो। अन्न, वीर्य, रक्त, उदर आदि की कल्पना करता हुमा ब्रह्मचारी तप में लीन रहता और स्नान से सदा पवित्र रहता है तथा वह अपने तेज से दमकता है ॥२५,२६॥ श्री काने के अनुसार इस सूक्त में ब्रह्मचारी (वेद-विद्यार्थी) और ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन है। डॉ० मङ्गलदेव शास्त्री लिखते हैं-"स्पष्ट प्रतीत होता है कि कम-से-कम मंत्र-काल में चारों आश्रमों की व्यवस्था का प्रारंभ नहीं हुआ था। ऐसा होने पर भी ब्रह्मचर्य और गृहस्थ-इन दो पाश्रमों के सम्बन्ध में वेद-मन्त्रों में जो उत्कृष्ट और भव्य विचार प्रकट किये हैं, उनको हम बिना किसी अतिशयोक्ति के भारतीय संस्कृति की स्थायी एवं अमूल्य संपत्ति कहते हैं। वेदों के अनेकानेक मंत्रों में ब्रह्मचर्य और गृहस्थ का बड़ा हृदय-स्पर्शी वर्णन मिलता है। उदाहरणार्थ अथर्ववेद के एक पूरे सूक्त (१११५) में ब्रह्मचर्य की महिमा का ही वर्णन है।" - इस सूक के २४, ४ और १७ ३ मंत्र पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा है--"यहाँ स्पष्ट शब्दों में राष्ट्र की चतुरस्र उन्नति के लिए और मानवजीवन के विभिन्न कर्तव्यों के सफलता पूर्वक निर्वाह के लिए श्रम और तपस्या द्वारा विद्या-प्राप्ति (ब्रह्मचर्य) की अनिवार्य आवश्यकता का प्रतिपादन किया गया है......श्रम और तपस्या पर निर्भर ब्रह्मचर्य-धाश्रम की उद्भावना वैदिक धारा की व्यापक दृष्टि का निसन्देह एक समुज्ज्वल प्रमाण है।" श्री कान और शास्त्री के उल्लिखित मतों के अनुसार ब्रह्मचर्य शब्द का अर्थ है-वेदाध्ययन, ब्रह्मचारी शब्द का अर्थ है-वेद-पाठी और यमचर्य पाथम का अर्थ है-वेदाध्ययन के लिए प्राचार्य कुल में वास करना। इससे इतना स्पष्ट है कि अथर्ववेद के उक्त सूक्त में संयम रूप ब्रह्मचर्य का नहीं, पर वेदाध्ययन रूप ब्रह्मचर्य की महिमा का वर्णन है। १-History of Dharmasastra Vol. II Part I P. 270 २.-भारतीय संस्कृति का विकास (वैदिकधारा) पृ० १३० ३-वही Scanned by CamScanner Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव-बाड़ mpp : : (ख) जैन-स्तुति ब्रह्मचारी और ब्रह्मचर्य की महिमा का बड़ा हृदय-ग्राहक वर्णन जैनागम "प्रश्न व्याकरण" में भी है। वहाँ ब्रह्मचर्य को ३२ उपमाओं से उपमित किया गया है और उसे सब व्रतों में उत्तम कहा गया है। यह अंश पृ०७ पर दिया गया है । इसके अतिरिक्त भी उस पागम में ब्रह्मचर्य का बड़ा सुन्दर गुण-वर्णन है । इसका कुछ अंश उद्धृत किया जा चुका है (देखिए पृ० ६ टि०३).। यहाँ पूरा अवतरण दिया जाता है : 7 "ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र, सम्यक्त्व तथा विनय का मूल है । यम और नियम रूप प्रधान गुणों से युक्त है। हिमवान् पर्वत से महान् और तेजस्वी है। .. . m ore " : "ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने से मनुष्य का अन्त:करण प्रशस्त, गम्भीर और स्थिर हो जाता है | "ब्रह्मचर्य सरल साधुजनों द्वारा प्राचरित है, मोक्ष का मार्ग है, निर्मल सिद्ध-गति का स्थान है। __"यह शाश्वत, अव्याबाध और पुनर्भव को रोकनेवाला है। यह प्रशस्त, सौम्य, शुभ और शिव है। यह अचल है, अक्षयकारी है, यतिवरों द्वारा सुरक्षित है, सु-पाचरित एवं सुभाषित है। D i ctio nary . "मुनिवरों ने, महापुरुषों ने, धीर वीरों ने, धर्मात्मानों ने, धृतिमानों ने ब्रह्मचर्य का सदा पालन किया है। यह भध्य है। भव्यजनों ने इसका आचरण किया है। 2017 2 "यह शंका रहित है, भय रहित है, तुप रहित है, खेद के कारणों से रहित है, निर्लेप है।, RT . "यह समाधि का घर है, निश्चल नियम है, तप-संयम का तना है; पाँचों महाव्रतों में अत्यन्त सुरक्ष्य है। समिति गुप्ति से युक्त है। उतमध्यान की रक्षा के लिए उत्तम कपाटों के समान है, शुभ ध्यान की रक्षा के लिए अगला के समान है। दुर्गति के मार्ग को रोकने तथा पाच्छादित करनेवाला है, सद्गति का पथ प्रदर्शक है और लोक में उत्तम है। मई "यह व्रत पद्मसरोवर और तालाब की पाल के समान है। महा शकट के पारों की नाभि के समान है। अत्यन्त विस्तारवाले वृक्ष के स्कंध के समान है। किसी विशाल नगर के प्राकार के किवाड़ों की अर्गला के समान है। रस्सी से बंधे हुए इन्द्रध्वजा के समान है। तथा अनेक विशद्ध गुणों से युक्त है। "ब्रह्मचर्य का भङ्ग होने पर सहसा सभी व्रतों का तत्काल भंग हो जाता है। सभी व्रत, विनय, शील, तप, नियम, गुण.आदि दही के समान मथित हो जाते हैं, चूर-चूर हो जाते हैं। बाधित हो जाते हैं, पर्वत के शिखर से गिरे हुए पत्थर के समान भ्रष्ट हो जाते हैं, खण्डित हो जाते हैं, उनका विध्वंस हो जाता है, विनाश हो जाता है। sagar म "ब्रह्मचर्य पांच महाव्रतों का मूल है, कषाय रहित साघुजनों ने भावपूर्वक इसका आचरण किया है.। बैर की शान्ति ब्रह्मचर्य का फल है। महा समुद्र के समान संसार से पार होने के लिए घाट रूप है। "तीर्थङ्करों द्वारा सम्यक् प्रकार से प्रदर्शित मार्ग है । नरक गति और तिर्यञ्च गति से बचने का मार्ग है, समस्त पावन वस्तुओं का सार है। मोक्ष और स्वर्ग का द्वार खोलनेवाला है। ... "ब्रह्मचर्य देवेन्द्र और नरेन्द्रों के नमस्यों का भी नमस्य है । समस्त संसार में उत्तम मङ्गलों का मार्ग है । उसको कोई अभिभव नहीं कर सकता, वह श्रेष्ठ गुणों की प्राप्ति का अद्वितीय साधन है और मोक्ष मार्ग के हेतुओं में शिरोमणि है। "ब्रह्मचर्य का निरतिचार पालन करनेवाला ही सुब्राह्मण है, सुश्रमण, सुसाधु है । जो ब्रह्मचर्य का शुद्ध रूप से पालन करता है वही ऋषि ... है, वही मुनि है, वही संयमी और वही भिक्षु है। "यह परलोक में हितकारी है, आगामी काल में कल्याणकारी है, निर्मल है, न्याययुक्त हैं, सरल है, श्रेष्ठ है, समस्त दुःखों और पापों का शान्त करनेवाला है।" अथर्ववेद के सूक्त में वेदाध्ययन रूप ब्रह्मचर्य और वेदाभ्यासी ब्रह्मचारी की महिमा है और जैन आगम में संयम रूप ब्रह्मचर्य और उसके पालन करनेवाले ब्रह्मचारी की महिमा । पहली स्तुति जटिल और दुरूह है और यदि वह वास्तव में ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारी की स्तुति है तो अतिरंजित और जीवन की वास्तविकता है। से खब सम्बन्ध रखनेवाली नहीं है। दूसरी स्तुति अनुभव की वाणी हैं और उसमें बताये ब्रह्मचर्य का स्थान और उसकी महिमा जग विदित और सर्वमान्य है। - १-प्रभव्याकरण २.४ Scanned by CamScanner Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका .... १७-ब्रह्मचर्य की बाड़ें । ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपायों को पागम में गुप्तियाँ अथवा समाधि के स्थान कहा गया है। इन्हें साधारणत: ब्रह्मचर्य की बाड़ें भी कहा जाता है। इन उपायों की संख्या श्वेताम्बर प्रागमों में नौ अथवा दस दोनों ही प्राप्त है। स्थानाङ्ग के अनुसार ये नियम इस प्रकार हैं: १- ब्रह्मचारी विविक्त शयनासन का सेवन करनेवाला हो। स्त्री-पशु-नपुंसक से संसक्त स्थान में न रहे। २-स्त्री-कथा न कहे।' ३-स्त्री के साथ एक प्रासन पर न बैठे। _स्त्रियों की मनोहर डलियों का अवलोकन न करे ५-सरस अाहार का भोजन न करे। ६-जल-भोजन का अतिमात्रा में सेवन न करे। ७-पूर्व क्रीड़ा का स्मरण न करे। 'वह शब्दानपाती. रूपानपाती और इलोकानपाती न हो। -सात और सुख में प्रतिबद्ध न हो। उत्तराध्ययन और दशवकालिक के अनसार उनका स्वरूप संक्षेप में इस प्रकार है : १-ब्रह्मचारी स्त्री-पश-नपंसक सहित मकान का सेवन न करे। १०. वह शब्दान M arth.१ ब्रह्मचारी स्त्री-पशु-पुत २--स्त्री-कथा न कहे। REnglish ३-स्त्री-सहित प्रासन अथवा शय्या पर न बैठे। ४--स्त्री की मनोहर इन्द्रियों पर दृष्टिपात न करे। श्री के हास्य. विलास प्रादि के शब्दों को न सने। -पूर्व क्रीड़ानों का स्मरण न करे। .REEN '७-सरस पाहार का भोजन न करे। ८-अति मात्रा में जल-भोजन का सेवन न करे। १०-शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्शानुपाती न हो। प्रथम निरूपण में स्त्री के हास्य, विलास, कूजन आदि को न सुनने रूप पांचवें समाधि-स्थान का उल्लेख नहीं है। दिगम्बर विद्वान् पण्डित पाशाघरजी ने ब्रह्मचर्य के दस नियमों को निम्न रूप में उपस्थित किया १-मा स्पादिरसं पिपास सुदृशां-ब्रह्मचारी रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द के रसों को पान करने की इच्छा न करे। २-वस्ति मोक्ष' मा कृथा—वह ऐसे कार्य न करे जिससे लिंग-विकार होने की सम्भावना हो। ३-वृष्यं मा भज-ब्रह्मचारी वृष्य-माहार-कामोद्दीपक आहार का सेवन न करे। ४-स्त्री शयनादिकं च मा भज-स्त्रियों से सेवित शयन, असनादि का उपयोग न करे। pm ५-वराङ्ग दृशं मा दा-स्त्रियों के मङ्गों को न देखे। ६-स्त्री मा सत्कुरु-स्त्री का सत्कार न करे। ७-मा च संस्कुरु-शरीर-संस्कार न करे। १-देखिए पृ० १२१,१२६ २-वही ३-अनगारधर्मामृतम् ४.६१ Scanned by CamScanner Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० परत वृत्तं मा स्मर-पूर्व सेवित का स्मरण न करे। 2 ८—रत E - वत्स्येंद् मा इच्छ— भविष्य में क्रोड़ा करने का न सोचे । १० - इष्ट विषयान् मा जुजस्व - इष्ट रूपादि विषयों से मन को युक्त न करे । इन नियमों में १, २, ४, ५, ७, ८ तो ये ही हैं, जो श्वेताम्बर भागों में है। धन्य भिन्न है। वेद अथवा उपनिषदों में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए ऐसे शृंखलाबद्ध नियमों का उल्लेख नहीं मिलता। स्मृति में कहा है- "स्मरण, क्रीड़ा, देखना, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय और क्रिया - इस प्रकार मैथुन आठ प्रकार के हैं। इन आठ प्रकार के मैथुन से अलग हो ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी चाहिए।" स्वामीजी ने इस कृति में उत्तराध्ययन के दस समाधि स्थानों के अनुक्रम से बाड़ों का विवेचन किया है। १८- मूल कृति का विषय : अब हम मूल कृति के विषय पर कुछ प्रकाश डालेंगे । 106 ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में वे जगद्गुरु थे में दिया गया है। पहली डाल में मङ्गलाचरण के रूप में पहिया की वेदी पर सर्वस्व त्यागकर विवाह के मंडप से लौट कर आजीवन ब्रह्मचर्यवास करनेवाले बाइसवें जैन तीर्थंकर श्ररिष्टनेमि भगवान की स्तुति की गई है। क्योंकि उन्होंने पूर्ण युवावस्था में विवाह करने से इन्कार किया। इनका जीवन-वृत्त परिशिष्ट - क कथा - १ राजिमती और परिष्टनेमि की कथा इतनी रसपूर्ण है कि उसने अनेक काव्य-कृतियों को जन्म दिया है। अपने विवाह के निमित्त से होने बाली पशुओं की घासन्न हत्या के विरोध और सहयोग में नेमिनाथ ने आजीवन विवाह न करने का व्रत लिया, यह इतिहास के पन्नों में अहिंसा के लिए एक महान बलिदान की कथा है। विवाह सम्पन्न होने के पूर्व ही नेमिनाथ था के लिए निकल पड़े थे अतः राजिमती कुमारी ही थी • फिर भी उस महाधन्या कुमारी ने पाणि ग्रहण का विचार तक नहीं किया और स्वयं भी ब्रह्मचर्यवास में स्थित हुई। इतना ही नहीं अपने प्रति मोह से विह्वल मुनि रथनेमि को साध्वी राजिमती ने एक बार ऐसा गंभीर उपदेश दिया कि उनका पुरुषार्थ पुनः जागृत हो गया और वे संयम में इतने दृढ़ हुए कि उसी भव में मोक्ष को प्राप्त हुए । गिरते पुरुषार्थ को इस प्रकार दृढ़ सम्बल देनेवाली नारियों में राजिमती का स्थान भी इतिहास के पन्नों में श्रद्वितीय है । उस समय का उनका उपदेश ठोकर खा कर गिरते हुए ब्रह्मचारी के लिए युग-युग में महान् प्रकाशपुज्ज का काम करेगा, इसमें सन्देह नहीं। १ - दक्ष मृति ७.३२ २-अनी ते की राह पर पृ० ५६ मङ्गलाचरण के द्योतक दोहों के बाद ढाल में ब्रह्मचर्य की सुन्दर महिमा है। ब्रह्मचर्य को कल्पवृक्ष की उपमा देकर उसके सारे विस्तार को अनुपम ढंग से उपस्थित किया है। 15 महात्मा गांधी कहते हैं---" ब्रह्मचर्य का सम्पूर्ण पालन करनेवाला स्त्री या पुरुष नितान्त निर्विकार होता है । अतः ऐसे स्त्री-पुरुष ईश्वर के पास रहते हैं । वे ईश्वर तुल्य होते हैं । जो काम को जीत लेता है, वह संसार को जीत लेता है और संसार सागर को तर जाता है"" सन्तॉलस्टॉय ने जिला है- "जितना हो तुम ब्रह्मचर्य के नजदीक जाओगे उतना ही अधिक परमात्मा की दृष्टि में प्यारे होगे और अपना अधिक कल्याण करोगे ४ ।" 777 भगवान महावीर ने कहा था- "जो ब्रह्मचारी होते हैं वे, मोक्ष पहुंचने में सब से आगे होते हैं ।" "जो काम से अभिभूत नहीं होते उन्हें मुक्त पुरुषों के समान कहा गया है । स्त्री परित्याग के बाद ही मोक्ष के दर्शन सुलभ होते हैं" ।" "विषयों में अनाकुल और सदा इन्द्रियों Fast ३० १३५ ४- स्त्री और पुरुष पृ० १५३ ५- देखिए १०६ शील की नव बाड़ M: 1000 les Scanned by CamScanner Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका को वश में करनेवाला पुरुष अनुपम भावसन्धि-(कर्म-क्षय की मानसिक दशा) को प्राप्त करता है" (सूत्र०।१५:१२)। "उत्तम समाधि में अवस्थित ब्रह्मचारी इस संसार-सागर को उसी तरह तिर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को।" . - महात्मा गांधी और टाल्स्टॉय के विचार प्रागमिक विचारधारा से अद्भुत सामञ्जस्य रखते हैं। पागम में ब्रह्मचर्य महापुरुष की गरिमा का माप दण्ड बना है। उदाहरणस्वरूप प्रागम में कहा है-"जैसे तपों में ब्रह्मचर्य उत्तम तप है, उसी तरह महावीर लोगों में उत्तम श्रमण थे।" कि ब्रह्मचर्य की महिमा सभी धर्म-ग्रन्थों में पाई जाती है। उपनिषद् में कहा है: "जिसे क्षीणदोष संयमी देखते हैं, उस ज्योतिमय शुभ्र प्रात्मा को सत्य द्वारा, तप द्वारा, सच्चे ज्ञान द्वारा और ब्रह्मचर्य के नित्य सेवन द्वारा अन्तःकरण में देखा जा सकता है। अन्य उपनिषद् में कहा है : "जिसे 'यज्ञ' कहते हैं, वह ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि जो ज्ञाता है, वह इसके द्वारा ही ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है। जिसे 'इष्ट' कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि इसके द्वारा खोज करके ही पुरुष प्रात्मा को प्राप्त करता है। जिसे 'सत् त्रायण' कहा जाता है, वह भी ब्रह्मचर्य ही है। क्योंकि उसके द्वारा ही वह सत्-प्रात्मा का त्राण प्राप्त करता है। जिसे 'मौन' कहते हैं, वह भी ब्रह्मचर्य ही है । क्योंकि इसके द्वारा ही आत्मा को जान कर पुरुष उसका मनन करता है...." बुद्ध कहते हैं : "ब्रह्मचर्य बिना पानी का स्नान है५" " ii पहली बार (दाल):विविक्त डायनासन E a rera प्रागम में ब्रह्मचारी के शयन-वास-स्थान और प्रासन-उठने-बैठने के स्थान के सम्बन्ध में समुच्चय आज्ञा यह है कि जिस स्थान में मन विभ्रम को प्राप्त हो, व्रत के सम्पूर्ण रूप से या अंश रूप से भंग होने की आशंका हो और आर्त एवं रौद्र ध्यान उत्पन्न होते हों, उस स्थान का पाप-भीरु ब्रह्मचारी वर्जन करे । ब्रह्मचारी का शयन-प्रासन विविक्त–एकति होना चाहिए। जहां स्त्री-पशु-नपुंसक बसते हों उस स्थान में उसे वास अथवा उठ-बैठ नहीं करनी चाहिए। . __ स्वामीजी ने इस बाड़ का स्वरूप बतलाते हुए तीन बात कही है... ................ (१) ब्रह्मचारी स्त्री प्रादि से शून्य एकांत में रात्रि-वास करे। (२) अकेली नारी की संगति न करे। (३) अकेली स्त्री के साथ पालाप-संलाप न करे; यहाँ तक कि उससे धर्म-कथा भी न कहे। इस प्रकार पहली बाड़ में संसक्तवास, स्त्री-संगति और स्त्री के साथ एकान्त में पालाप-संलाप करने का वर्जन है। तवेस वा उत्तम बम्भचेरं लोगुत्तमे समणे नायपुत्ते ३-मंडकोपनिषद् ३.१.५ : सत्येन लभ्यस्तपसा ह्यप आत्मा सम्यग्ज्ञानेन ब्रह्मचर्येण नित्यम् । अन्तःशरीरे ज्योतिर्मयो हि शुभ्रो यं पश्यन्ति यतयः क्षीणदोषाः॥ profile ४-छान्दोग्योपनिषद् ५.८:१-४ ५-संयुक्तनिकाय १.८.६ ६-पृ० १५ टि०५. ७-पृ०.१५ टि०२,४ ८-ढाल २ दो० ५,८, गा० ३,४,५ ६-ढाल २ दो०६, गा०३ १०-दाल २ दो०६ Scanned by CamScanner Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड़ इस मागमिक प्राज्ञा का कारण संकुचित दृष्टि नहीं, परंतु पुरुष-स्त्री के स्वभाव का मनोवैज्ञानिक ज्ञान है । शानियों का ज्ञान कहता स्त्री-पुरुष एक दूसरे के लिए 'पंकभूमाउ' भूत-कादे के समान हैं। स्त्री का शरीर पुरुष के लिए और पुरुष का शरीर स्त्री के लिा प्रकार भय का स्थान है जिस प्रकार कुक्कुट के बच्चे के लिए बिल्ली। जिस तरह अग्नि के पास रखा हुमा लाख का घड़ा शीघ्र तप्त हो नाश को प्राप्त होता है, वैसे ही संसक्त सहवासवाले ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष का संयम शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है। बाड़ में पाए हुए बिल्ली और चूहा, बिल्ली और कुक्कुट आदि के जो उदाहरण हैं, वे प्रागमोक्त ही हैं। ये स्त्री और पुरुष दोनों के प्रति समान रूप से लागू पड़ते हैं। इनका भावार्थ है-ब्रह्मचारिणी स्त्री के लिए पुरुष का सहवास बुरा है और ब्रह्मचारी पुरुष के लिए स्त्री का संगम ब्रह्मचारिणी अपने को चूहे, मोर और कुक्कुट के बच्चे के स्थान में समझे और पुरुष को बिल्ली के स्थान में । इसी तरह ब्रह्मचारी स्त्री को विला के स्थान में समझे और अपने को चूहे, मोर और कुक्कुट के स्थान में । सहवास से मूर्ख ब्रह्मचारी मनोहर स्त्री के वश में होता है और मुर्ख बना चारिणी पुरुष के वश में हो जाती है। ज्ञानियों का अनुभव है कि ससंक्तवास 'लाख और अग्नि', 'दूध और विष' की तरह द्रावक और पार ____ कहा है : "माता, बहन, या पुत्री किसी के साथ एकान्त में न बैठना चाहिए। क्योंकि इन्द्रियों का समूह बड़ा बलवान होता है, वह विद्वानों को भी अपनी ओर खींच लेता है।" इसी तरह जैन आगमों में कहा है "जो मन, वचन और काय से गुप्त है और जिसे विभूपित देवाङ्गनाएं मी काम-विह्वल नहीं कर सकतीं, ऐसे मुनि के लिए भी एकान्त-वास ही हितकर और प्रशस्त है। जिसके हाथ, पैर एवं कान कटे हुए हैं तथा जोली वर्ष की वृद्धा है, ऐसी स्त्री की संगति का भी ब्रह्मचारी वर्जन करे" ये बातें ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी दोनों के लिए लागू होती हैं। यहाँ प्रश्न हो सकता है कि यह कोई शाश्वत नियम नहीं है । अन्यथा मुनि स्थूलिभद्र कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास कैसे कर सकते। उन्होंने गुरु की आज्ञा ले कोशा गणिका के घर चातुर्मास व्यतीत किया । भोग के सारे साधन थे। साधु बनने के पूर्व वे उसी वेश्या के साथ बारह वर्ष तक भोगासक्त रहे। अत: वह सुपरिचित थी। षट्रसयुक्त भोजन, सुन्दर महल, सारा श्रृंगार उपस्थित था। ऋतु अनुकूल थी। कोशा की ओर से बड़ा अनुनय-विनय और भोग-सेवन के लिए आमन्त्रण था। ऐसी स्थिति में भी वेश्या के साथ एक मकान में रहने पर भी स्थलिभद्र का कुछ नहीं बिगड़ा । 'मनचंगा तो कठौती में गङ्गा।' स्थलिभद्र की कथा पु० ८२ पर दी हुई है। स्थूलिभद्र की यह जीवन-घटना इस बात के लिए प्रमाण है कि ब्रह्मचारी को अपने व्रत में कितना दृढ़ होना चाहिए । पर इस बात का प्रमाण नहीं कि मोह-जनक स्थानों में रहना ब्रह्मचारी के लिए खतरे का घर नहीं और न इस बात का सबूत है कि ब्रह्मचारी को ऐसे स्थानों में रहने की भी आज्ञा है । और न इससे यह फलित होता है कि ब्रह्मचारी को ऐसे स्थानों में रह कर ही अपने ब्रह्मचर्य की साधना करनी चाहिए अथवा ब्रह्मचारी होने का सबूत पेश करना चाहिए। यह उदाहरण तो इस बोध के लिए है कि अनायास ऐसा विकट प्रसंग उपस्थित हो जाय, तो भी ब्रह्मचारी मोह-ग्रस्त होकर विचलित न हो। ऐसे सब संयोगों के अवसर पर भी वह असीम १-उत्तराध्ययन २.१७ २-पृ० १६ टि०६ ३-सूत्रकृताङ्ग ११४.१ : २७: जतुकुम्भे जोइउवगूढे, आसुऽभितत्ते णासमुवयाइ। एवित्थियाहि अणगारा, संवासेण णासमुवयंति ॥ ४-पृ० १७ टि० १३ ५-पृ० १६ टि०८ ६-पृ० १० टि०८ ७- मनुस्मृति २.२१५ : मात्रा स्वना दुहित्रा वा, न विविक्तासनो भवेत्। बलवानिन्द्रियग्रामो, विद्वांसमपि कर्षति । Scanned by CamScanner Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका मनोबल का परिचय दे और कामराग को पूर्णरूप से जीते । जो एकान्त स्थान में रहकर ब्रह्मचर्य का पालन करता है उसमें कोई दोष नहीं, पर उसकी परीक्षा तय होती है जब वह मोह उत्पन्न करनेवाले संयोगों में प्रा फंसता है। ऐसे अयसर पर इन्द्रियों पर सम्पूर्ण संयम रखना ही ब्रह्मचारी की कसौटी है। ऐसे समय उसे स्थूलिभद्र की कथा याद कर अपने को उस पांच से भी सम्पूर्णतः निदाग रखना चाहिए।' तो पठियं तो गुणियं तो मुणियं तो अडओ अप्पा भावडिय पल्लिया मंतओवि, जइ न कुणइ अकजं ॥ -उसी का पढ़ना, गुनना, जानना और प्रात्म-स्वरूप का चिंतन करना प्रमाण है, जो प्रापत् में पड़ने पर भी प्रकार्य की ओर कदम नहीं बढ़ाता। जो ब्रह्मचारी मोह-जनक संसक्त स्थानों का वर्जन नहीं करता और जान बूझकर ऐसे स्थानों का प्रसंग करता है, उसकी गति वही होती है जो सिंहगुफावासी यति की हुई। स्थलिभद्र के गुरुभाई इस मुनि ने उनकी स्पर्धा से उसी कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास किया और काम-विह्वल हो भोग की प्रार्थना करने लगा। वेश्या कोशा, जो मुनि स्थलिभद्र के प्रयत्न से श्राविका हो चुकी थी, उसे प्रतिबोध न देती तो उनका पतन अन्तिम सीमा तक पहुंचे बिना नहीं रहता । ब्रह्मचारी कैसे स्थानों में रहे, इसका सम्यकबोध स्थलिभद्र की कथा में नहीं पर सिंहगुफावासी यति के प्रसंग से समझना चाहिए। _ब्रह्मचारी अपने मनोबल पर खूब भरोसा न करे, बल्कि वह विनम्र रहे, अहंकार न रखे। वह निरहंकार-भाव से अपने को अनुकूल वास में रखे। इस बाड़ से सम्बन्धित कुलबालुड़ा की कथा इस बात का ज्वलन्त प्रमाण है कि जो ब्रह्मचारी स्त्री के साथ एकांत-सेवन करने लगता है तथा उसकी संगति, सहवास और स्पर्श का निवारण नहीं करता, उसका पतन कितना शीघ्र होता है। कोणिक की मागधिका गणिका ने स्वस्थ न हो तब तक रुग्ण मुनि कुलबालड़ा की सेवा करने की छूट उनसे चाही। मुनि कुलबालड़ा ने उसको सेवा के लिए सहवास की यह छूट दी। अन्त में यह सहवास मुनि कुलबालुड़ा के पतन का कारण हुमा। श्रीमद् भागवत में कहा है : धर्मव्यतिक्रमो दृष्ट ईश्वराणां च साहसम् । तेजीयसां न दोषाय वह्नः सर्वभुजो यथा ॥ मैतत्समाचरेज्जातु मनसापि ह्यनीश्वरः । विनश्यत्याचरन् मौढ्याद् यथाऽरुद्रोऽधिज विपम् ॥ ईश्वराणां वचः सत्यं तथैवाचरितं क्वचित् । तेषां यत्स्ववचोयुक्त बुद्धिमांस्तत्समाचरेत् ॥ १०॥३३३३०-३२ -कभी कभी महान शक्ति संपन्न व्यक्ति साहस के साथ नियमों का उल्लंघन (व्यतिक्रम). करते हुये देखे गये हैं। परन्तु जिस प्रकार सर्वभुक्-संपूर्ण वस्तुओं को जलानेवाली-अग्नि को दोष नहीं होता, उसी प्रकार नियमों के ये व्यतिक्रम तेजस्वियों के लिये दोष के कारण नहीं होते। -अनीश्वर-जिसके पास असाधारण दिव्य शक्तियां नहीं हैं, ऐसा व्यक्ति-ऐसी वस्तुओं को करने का कभी मन से भी विचार न करे, क्योंकि उनको करने से वह विनाश को प्राप्त होगा। जैसे कि शंकर ने समुद्र से उत्पन्न विष को पान कर लिया था, यह सुनकर कोई मूर्खता से विष पान करने लगे तो उसकी मृत्यु ही होगी। - महान व्यक्तियों की वाणी सत्य होती है और उनके द्वारा किये कार्य कभी ठीक होते हैं (और कभी ठीक नहीं भी होते)। अतः बुद्धिमान व्यक्ति उनके उसी पाचरण का अनुवर्तन करे, जो उनकी वाणी (प्राज्ञामों) के अनुकूल पड़ते हों। प्राचार्य तुलसी कहते हैं : "एकान्तवासी भी विचलित हो जाते हैं तब स्त्री के संसर्ग में रहकर ब्रह्मचर्य को निभानेवाले विरले ही मिलेंगे। रात में स्त्री रहे वहाँ पुरुष न रहे, पुरुष हो वहाँ स्त्री न रहे।" १-देखिए पृ० ८३ । ब्रह्मचर्य के विषय पर इतनी मार्मिक, रसयुक्त और बोधप्रद कथा अन्यत्र देखने में नहीं आती। Scanned by CamScanner Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४: दूसरी बाड़ (ढाल ३) स्त्री-कथा वर्जन * कि जो भी कथा मन को चंचल करे, करे, उसका ब्रहाचारी वर्जन करे। दूसरी माड़ में ब्रह्मचारी को स्त्री-कथा से दूर रहने का नियम दिया गया है। इस विषय में श्रागमों में साधारण श्राज्ञा यह है काम-राग को बढ़ावे, हास्य, श्रृंगार तथा मोह उत्पन्न करे तथा तर्प, संयम और ब्रह्मचर्य का विनाश यहाँ वर्जन करने का अर्थ है ऐसी विलासयुक्त कथा न कहे, न सुने और न उसका चिन्तन करे । निम्र कथाएँ रमी कथाएं है 1 (१) स्त्री के मुख, नेत्र, नासिका, होठ, हाथ, पाँव, कटि, नाभि, कोख तथा अन्य अङ्ग-प्रत्यङ्गों का मोह उत्पन्न करनेवाला वर्णन | उनकी बोली, चाल-डाल, हाव-भाव और चेष्टाओं का शृङ्गारपूर्ण वर्णन * । (२) नव विवाहित पति-पत्नी की कथा । (२) विवाह करनेवाले वर-वधू की कथा। (४) स्त्रियों के सौभाग्य- दुर्भाग्य की कथा । (५) कामशास्त्र की बातें । (६) शृंगार रस के कारण मोह उत्पन्न करनेवाली कथा-कहानी । 1 स्त्री-कथा से किस प्रकार विकार उत्पन्न होता है, यह बताने के लिए स्वामीजी ने भीबू का दृष्टान्त दिया है उसे नीबू की बात कहने, सुनने या चिन्तन करने से मुंह में पानी छूटने लगता है, उसी तरह स्त्री कथा कहने, सुनने या चिन्तन करने से ब्रह्मचारी का मन विषयराग से प्रसित हो जाता है। उसके परिणाम पलित हो जाते है" । शील की नव बाड़ d-winn ि १-ढाल ३. दो० १-२ गा० १४; पृ० २१ टि० १ २१० २१ टि० १,२ ३- पृ० २१ टि० १, २ -ढाल ३ गा० १-४ 2 ५-ढाल ३ गा० १२ ६-२०१६ १ जिसके मन में विषयों के प्रति रस न हो, यही ब्रह्मचारी कहा जा सकता है जिस ब्रह्मचारी का मन वश में होगा उसके मुंह से विकार पूर्ण शब्द ही नहीं निकल सकते। न वह विषयको उत्तेजित करनेवाली बातों में रस लेकर उन्हें सुनेगा और न उनका चिन्तन हो करेगा | स्वामीजी कहते हैं जो बार-बार स्त्री-क्या करता है, उसे ब्रह्मचर्य व्रत से प्रेम नहीं रहता। उसके विषय विकार की वृद्धि होगी और अन्त में परिणाम विचलित होने से वह व्रत से च्युत होगा। इसी तरह जो स्त्री कथा सुनता है या चिन्तन करता है उसकी गति भी ऐसी ही होती है । PRIC श्राज कथाएँ कही नहीं जातीं; पुस्तकों में कहानी, उपन्यास, कविता और कामशास्त्र के रूप में श्राती हैं । श्रृंगारिक चित्रों में आती हैं । श्रतः सुनने का अर्थ आज पढ़ना भी हो जायगा । आज इस बाड़ का अर्थ ऐसा भी होगा कि ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी हो तो स्त्री-कथा न कहे, न लिखे, न पढ़, न सुने और न उसका चिन्तन करें। प्र जिस अनुचित भावुकता के साथ स्त्रियों का चरित्र-चित्रण किया जाता है, उनके शरीर सौंदर्य का जैसा अश्लील और असभ्यतापूर्ण वर्ण किया जाता है, उसके विषय में महात्मा गान्धी ने कहा था - "क्या स्त्रियों का सारा सौंदर्य और बल केवल शारीरिक सुन्दरता ही में है ? पुरुषों की लालसा भरी विकारी प्राँखों की तृप्ति करने की क्षमता में ही है ?... जैसी वे हैं वैसी ही उन्हें क्यों नहीं बताया जाता ? वे कहती हैं, 'न तो हम स्वर्ग की अफसराएं है, न गुड़िया हैं, और न विकार और दुर्बलताओं की गठरी ही हैं। पुरुषों की भांति हम भी तो मानव प्राणी ही हैं ।' मुझ stars in Fire सपना की (स) पण (or fert die b फोन Scanned by CamScanner Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ४५ से यह भी कहा गया है— हमारे साहित्य में स्त्रियों का खामखा देवता के सहस वर्णन किया गया है। मेरी राय में इस तरह का चित्रण भी बिलकुल गलत है।" ऐसे साहित्य से जो हानि होती है, उसके बारे में वे कहते हैं, "कितने ही लेक स्त्रियों की माध्यामिक प्यास को शांत करने के बजाय उनके विकारों को जागृत करते हैं। नवीना यह होता है कि बेचारी कितनी हो भोली स्त्रियां यही सोचने में धरना समय बरबाद करती रहती हैं कि उपन्यासों में चित्रित स्त्रियों के वर्णन के मुकाबले में वे किस तरह अपने को सजा और बना सकती हैं। मुझे बड़ा आश्चर्य होता है कि साहित्य में उनका नख-शिख वर्णन क्या अनिवार्य है ? क्या आप को उपनिषदों, कुरान और बाइबिल में ऐसी चीजें मिलती हैं ? फिर भी क्या पता नहीं कि बाइबिल को अगर निकाल दें तो अंग्रेजी भाषा का भण्डार सुना हो जायगा ।... कुरान के अभाव में अरबी को सारी दुनिया भूल जायगी और तुलसीदास के प्रभाव में जरा हिन्दी की कल्पना तो कीजिए धानकल के साहित्य में स्त्रियों के विषय में जो कुछ मिलता है, ऐसी बातें आपको तुलसीकृत रामायण में मिलती है " टॉल्स्टॉय लिखते हैं---"मानव स्वभाव का वह कितना घोर पतन है जब मनुष्य पाशविक विकार को सिंहासन पर अभिषिक्त कर इसकी सहायक इन्द्रियों की तारीफों के पुल वांचता है पर धान के चित्रकार, सङ्गीतशास्त्री और सभी जिलाविद् यही करते हैं।" ब्रह्मचर्य की दूसरी बांड़ ने श्राज राष्ट्रीय महत्व ग्रहण कर लिया है। श्रृंगारपूर्ण कथाओं को उपस्थित करनेवाले चित्रकार, सङ्गीतधात्री, शिल्पकार, कथाकार, उक्यासकार एवं देश के जीवन की साम्यात्मक निति को हिला रहे हैं। राष्ट्र की शीत-नृति को कामुक कवाय से विनष्टकर रहे हैं। उनकी कृतियों को पढ़ने, देखने श्रीर सुननेवालों का जो श्रधःपतन हो रहा है, वह स्त्री कथा परिहार न करने का ही परिणाम है । यदि राष्ट्र में संयम की भावना को पुनः प्रतिष्ठित करने की आवश्यकता है और जिसे कोई अस्वीकार नहीं करता तो स्त्री कथा का त्रिविध कहिय्या न सुगियय्वा न चितिच्या" वर्जन मानव मात्र के जीवन में लाना आवश्यक है। रूप में राष्ट्र की रक्षा की दृष्टि से ऐसा साहित्य सर्जित न हो, इस भावना से महात्मा गांधी ने निम्न विचार दिये थे : "एक सोधी-सी कसौटी मैं आपके सामने रखता हूँ। उनके विषय में लिखते समय श्राप उनकी किस रूप में कल्पना करते हैं ? आपको मेरी सूचना है कि आप कागज पर कलम चलाना शुरू करें, उससे पहले यह खयाल कर लें कि स्त्री जाति श्रापकी माता है। और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आकाश से जिस तरह प्यासी धरती पर सुन्दर शुद्ध जल की वर्षा होती है, उसी तरह श्रापकी लेखनी से साहित्य बहने लगेगा। याद रखिए एक स्त्री धापनी पत्नी बनी उससे पहले एक रवी भाप की माता थी।" भी शुद्ध ते शुद्ध इस बाड़ से सम्बन्धित मल्लिकुमारी, मृगावती और द्रोपदी की कथाएँ परिशिष्ट-क में पृ० ८६,६७, ६५ पर दी हुई हैं । स्त्री के रूपादि के वर्णन को सुनने से किस तरह मोह उत्पन्न होता है, उसका हृदयग्राही वर्णन इन कथाओं में है । मल्लिकुमारी के लावण्य को कथा को सुन और चित्रपटों से जान कर उसे प्राप्त करने के लिए उसके पिता राजा कुम्भ पर भिन्न-भिन्न देशों के नृपतियों ने एक साथ पढ़ाई कर दी। दोनों चोर से बुद्ध छिड़ गया। मल्लिने नृपतियों की चढ़ाई की प्राशंका से पहले से ही अपने रूप-रंग से मिलती हुई एक स्वर्ण- प्रतिमा बनवा रखी थी। उसमें प्रति दिन भोजन डाला जाता जो सड़ता जाता था। वह प्रतिमा पेचदार ढकन से बंद होती थी । मल्लि ने अपने पिता से युद्ध बंद करने का अनुरोध किया । उन नृपतियों को निमंत्रित कर अपने महल में बुलाया प्रतिमा को मलिकुमारी समझ सब और भी विमुग्ध हो गये अव मल्लिकुमारी स्वयं उपस्थित हुई और प्रतिमा के ढक्कन को दूर कर दिया। महल दुर्गन्ध और बदबू से भर गया। सब ने अपने नाक ढक लिए । मल्लि ने पूछा“ऐसा क्यों ?” नृपों ने उत्तर दिया--"इस प्रतिमा में से भयङ्कर दुर्गन्ध निकल रही है।" मल्लि बोली - "मेरा यह शरीर, जिसके सौन्दर्य पर तुम १ - ब्रह्मचर्य (प० भा० ) पृ० १५७-१५८ २ -- ब्रह्मचर्य (प० भा० ) १५८-९ २-स्त्री और पुरुष ४-महाचर्य (१० भा०) १० १५३ श्री dwar Scanned by CamScanner Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. शील की नव बाई इतने मुग्ध हो भी तो ऐसा ही दुर्गन्धयुक्त है। यह भी प्रशचि से भरा है। इस तरह पशुचि भावना को जागृत कर मल्लि ने नृपों को मोह-रहित किया। दूसरी कथा में राजा चन्द्रप्रद्योत मृगावती के रूप के वर्णन को सुनकर उस पर मुग्ध होता है । विधवा मृगावती को पाने के लिए उसके राज्य पर चढ़ाई कर देता है। इसी बीच श्रमण भगवान महावीर पधारते हैं। मृगावती भगवान महावीर की शरण में पहुंच राजा चन्द्रप्रद्योत्र को विकारपूर्ण दृष्टि से अपनी रक्षा करती है। । कुमारी मल्लि और विधवा रानी मृगावती दोनों ने पांचों महाव्रत ग्रहण कर प्रव्रज्या ग्रहण की। तीसरी कथा में नारद द्वारा वर्णित द्रौपदी के रूप को सुन कर राजा पद्मनाभ उस पर मुग्ध हो उसका हरण करवाता था। फिर कृष्ण द्रौपदी का उद्धार करते हैं। ... तीसरी बाड़ (ढाल ४) : एक आसन का वजन - तीसरी बाड़ में ब्रह्मचारी साधु के लिए यह नियम है कि वह स्त्री के साथ एक शय्या या प्रासन पर न बैठे। पहली बाड़ में स्त्री आदि से संसक्त स्थान में रहने का वर्जन है। इस बाड़ में सह-पासन तथा सह-शय्या का वर्जन है। यह स्थूल वर्जन है । सूक्ष्म रूप में स्त्रीसंसर्ग, स्त्री-परिचय, स्त्रियों से ममता, उनकी आगत-स्वागत, उनसे बार-बार बात-चीत, यदा-कदा मिलना-जुलना और उनके साथ घुमनाफिरना और उनके स्पर्श आदि के परिवर्जन की भी शिक्षा इस बाड़ में है । नारी और पुरुष की पारस्परिक, शारीरिक या वाचिक सन्निकटता ब्रह्मचर्य के लिए वैसी है जैसे कि घी, लाख, लोह आदि की अग्नि के साथ सन्निकटता। घी और लाख की तो वात ही क्या लोह जसी कठोर वस्तु भी अग्नि के संसर्ग से पिघल जाती है। वैसे ही घोर ब्रह्मचारी भी स्त्री-संसर्ग से ब्रह्मचर्य को खो बैठता है। इस दृष्टि से राजमार्ग यही दिया गया है कि सुतपस्वी भी स्त्री के साथ एकासन पर न बैठे। ब्रह्मचारी यह नियम पराई स्त्रियों के साथ ही नहीं, माँ, बेटी, बहिन जैसी स्त्रियों के साथ भी पालन करे, ऐसा कहा है। ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियों का संसर्ग विष-लिप्त कंटक के समान है । वह ताल विष की तरह है । ब्रह्मचारिणियों के लिए भी पुरुष-संसर्ग को ऐसा ही समझना चाहिए। स्वामीजी ने इस बाड़ के महत्व को हृदयंगम कराने के लिए काचर, कोहला तथा प्राटे का मौलिक दृष्टान्त दिया है। काचर, कोहला को "पाटे में डालकर गूंथने से आटा लसरहित हो जाता है-वह संधता नहीं। वैसी ही नारी-प्रसंग से, स्त्री के साथ एक शय्या, आसनादि पर बैठने आदि से ब्रह्मचारी के परिणाम चल-विचलित हो जाते हैं और ब्रह्मचर्य से ध्यान छूट जाता है। वह समाधियोग से भ्रष्ट हो जाता है। एक प्रासन पर बैठने से ब्रह्मचारी का किस प्रकार पतन होता है, इसका क्रम इस ढाल में बड़े ही सुन्दर ढंग से बतलाया है। : 'स्त्रीशयनादिकं च मा भज'-इस नियम के पीछे एक विशेष वैज्ञानिक भूमिका है जिसका उल्लेख ढा० ४ गा०५-७, १० में आया। है। वहाँ इस बात का जिक्र है कि नारी वेद के पुद्गलों का स्पर्श पुरुष में और पुरुष वेद के पुद्गलों का स्पर्श नारी में काम-विकार उत्पन्न करता है। इस वेद-स्वभाव को ध्यान में रखकर ज्ञानियों ने यहाँ तक नियम किया है कि जिस स्थान पर नारी बैठ चुकी हो उस स्थान पर ब्रह्मचारी एक मुहर्त तक न बैठे। ब्रह्मचारी को सावधान किया गया है कि वह वेद-स्वभाव को हमेशा स्मृति में रखे और नारी-प्रसंग का सदा परिवर्जन करता रहे। स्त्री-संस्पर्श से सम्भूत मुनि का पतन किस प्रकार हुआ, इसका रोमाञ्चकारी उल्लेख इस बाड़ की ढाल में है । यह कथा परिशिष्ट-क में । पृ० १०१ पर दी गई है। १--ढाल ४ दो० २,३ तथा पृ० २६ टि० १ २-ढाल ४ दो० २,४ पृ० २६ टि० २,३ ३-ढाल ४ गा० १३ , पृ० २८ टि० १२ ४-पृ० २६ टि० १ अन्तिम पेरा : पृ० २८ टि० १२ ५-ढाल ४ गा० २, पृ० २७ टि०४ ६-ढाल ४ गा० ८-६ Scanned by CamScanner Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका पहली और तीसरी बाड़ में जो नियम दिए गये हैं, उनकी आवश्यकता टॉल्स्टॉय भी महसूस करते थे । उन्होंने एक बार कहा : "कोई पूछ सकता है कि हम अपने जाति के व्यक्तियों के साथ जिस मित्रता से रहते हैं, वैसे स्त्री पुरुष जाति के साथ या पुरुष स्त्रीजाति के साथ मित्रतापूर्वक क्यों नहीं रह सकते क्या यह बुरा है? ठीक है, यदि हम अपने हृदय को कलंकित न होने दें, तो हम जरूर ऐसा कर सकते हैं।...... पर एक सच्चा और विवेकशील प्राणी फौरन कहेगा कि ऐसे सम्बन्ध बड़े नाजुक होते हैं ।" परस्पर सान्निध्य न करने के पीछे उन्होंने यह मनोवैज्ञानिक कारण बतलाया है : "यदि आदमी अपने को धोखा न दे, तो वह ध्यान से देख सकता है कि बनिस्बत पुरुषों के सान्निध्य के उसे स्त्रियों के सान्निव्य में एक विशेष श्रानन्द आता है । वे आपस में जल्दी-जल्दी मिलने की उत्कण्ठा रखने लगते हैं । ""प्राध्यात्मिक प्रेम के क्षेत्र से तुच्छ वैषयिक क्षेत्र में उतर आना सबके लिए साधारण है ।" इस सम्बन्ध में विनोबाजी लिखते हैं: "मैं तो मानता हूँ कि पुरुष पुरुष के बीच भी शारीरिक परिचय होना गलत बात है । परिचय तो मानसिक होना चाहिए। शारीरिक परिचय भी केवल सेवा के वास्ते जितना आवश्यक है, उतना ही होना चाहिए। हम देखते हैं कि पुरुष नाहक दूसरे पुरुष मित्र के गले में हाथ डालते हैं । इस तरह जो चलता है वह हमें पसन्द नहीं श्राता है । शरीर परिचय की जो एक सामान्य मर्यादा है वह न सिर्फ स्वी धीर पुरुष के बीच होनी चाहिए, बल्कि पुरुष पुरुष के बीच और स्त्री-नवी के बीच भी यही मर्यादा होनी चाहिए। यह दर्शन हो गया है कि स्त्री और पुरुषों में भेद किया जाय। स्वी-पुरुषों का भेद तो हम आकृतिमात्र से ही पहचानते हैं । अन्दर की प्रारमा तो एक ही है। मनुष्य ने माना है कि दोनों के बीच मर्यादाएं होनी चाहिए। लेकिन यह कोई सर्वोत्तम वस्तु नहीं है। होना तो यह चाहिए कि दोनों खुले दिल से एक-दूसरे के सामने श्रायें। वैसे शरीर सम्पर्क की एक सर्व सामान्य मर्यादा हो । पुरुष पुरुष के बीच भी ज्यादा सम्पर्क न हो ४ ।" पाठक देखेंगे कि तीसरी बाढ़ में स्त्री-परिचय, स्त्री-संसर्ग, यदा-कदा मिलना-जुलना आदि के परिवर्तन की जो बात कही गयी है, वह आधुनिक चिन्तकों द्वारा भी समर्थित है । इस बाढ़ का एक नियम सारा ध्यान आकर्षित करने जैसा है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपायों को बताते हुए पं० [माणाधरजी ने लिखा है- "मा स्त्री कुर" इसका पर्व है-स्त्रियों का सरकार मत करो। धाचाराङ्ग में कहा है “जो संपसारण, णो ममाए णो कयकिरिए अर्थात् स्त्रियों के साथ एकान्त का सेवन मत करो, उनके प्रति ममत्व मत करो, उनके प्रति कृतक्रिय मत हो ।" यहाँ स्त्री के प्रति दाक्षिण्यभाव के प्रदर्शन की मनाही की गई है। आचार्य विनोबा भावे ने लिखा है: "आजकल समाज में सुधरे हुए लोगों में अधिकाधिक कृत्रिमता आ गयी है । इसलिए स्त्री के लिए ज्यादा श्रादर दिखाना, जिसे 'दाक्षिण्य भाव' कहते हैं, चलता है। स्त्री को देवी कहा जाता है। इस तरह एक बाजू से तो स्त्री के लिए घृणा और तिरस्कार होता है, अपात्रता होती है और दूसरी तरफ से स्त्री के लिए अधिक भावना होती है। पुरुष अपने को स्त्री का सेवक मानता है। हम मानते है कि इससे विषय-वासना बढ़ती ही है जैसे स्त्री के लिए कोई पात्रता समझना गलत है, उसी तरह स्त्री के लिए अधिक भाव या ऊँची भावना रखना भी गलत है। होना तो यह चाहिए कि श्रात्मा में तो स्त्री और पुरुष का भेद नहीं है, यह भेद तो शरीर का है, इसका भान हो जाय । यह भान होने से वासना से निवृत्त होना आसान हो जायगा " । " 1 ५ स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध में दोष पैदा होने के कारणों को गिनाते हुए श्री किशोरलाल मधवाना ने मनावश्यक स्त्रीदाक्षिण्य' को भी गिनाया है। उनके विचारों की भूमिका इस प्रकार है : "स्त्रियों को अपने शील की रक्षा के लिए हमेशा अधिक अभिमान और अधिक चिता रहती है। इसलिए जब मैं स्त्री के पतन की बात सुनता हूँ, तब कुछ दिङ्मूढ सा वन जाता हूँ । इङ्गलैण्ड के मशहूर मानसशास्त्री १ - स्त्री और पुरुष पृ० १३६-३७ २वही १३- स्त्री और पुरुष पृ० १४२ ४ कार्यकर्ता वर्ग पृ० ४२,४३,४४ ५ कार्यकर्ता वर्ग ४५ इस्त्री-पुरुष मर्यादा ५० ३६-२० 108 6 क ४७ BH warisay Scanned by CamScanner Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नय बाद ૪૯ डॉ० कडूगल इस बारे में जो थोड़ा स्पष्टीकरण करते हैं, यह विचारने जैसा है। उनका कहना है कि स्मी का स्वभाव अधिक भावनावश होता है। उसके लिए जो ममता या सहानुभूति बताई जाती है, उसका असर उस पर पुरुष की बनिस्बत ज्यादा होता है । इसलिए उसके प्रति जो दाक्षिष्य (Chivalry) बताया जाता है, उसकी प्रतिध्वनि उसके हृदय में उठे बिना नहीं रहती । ... अपने प्रति ममता या सहानुभूति बतानेवाले को सन्तुष्ट करने के लिए वह सब कुछ करने को तैयार हो जाती है । धूर्त पुरुष स्त्री के इस स्वभाव का लाभ उठाता है और उसे अपना शिकार बनाता है । "इसका यह मतलब नहीं कि स्त्रियां कभी पुरुष से ज्यादा विकारवश या धूर्त होतीं ही नही, और पुरुष उन्हें फंसाने के बजाय उसके जाल में कभी फंसता ही नहीं" " प ऐसी स्थिति में दोषोत्पत्ति से बचने का राजमार्ग क्या है, यह बताते हुए उन्होंने लिखा है "इसलिए राजमार्ग संकड़ों स्त्रियों के लिए निर्भयता से चलने का मार्ग तो यही है कि पर-पुरुष चाहे जितना सच्चा सादा मल शुद्ध और प्रादर्शवादी मालूम हो, तो भी उसके साथ एकान्त में न रहा जाय, उससे हंसी मजाक न किया जाय, विशेष प्रयोजन के बिना उका अंग स्पर्श न किया जाय या न होने दिया जाय, अर्थात् मर्यादा को लांघ कर उसके साथ बरताव न किया जाय । "लाखों मनुष्यों में कोई बिरले स्त्री-पुरुष ही ऐसे हो सकते हैं, जो मर्यादा के बन्धन में न रहते हुए भी पवित्र रहें। वे अपनी उमर हमेशा पांच वर्ष के बालक जितनी ही अनुभव करते हैं और दूसरे स्त्री-पुरुषों के लिए माता या पिता अथवा लड़की या लड़के के सिवा दूसरी दृष्टि को समझ ही नहीं सकते । ऐसी साध्वी स्त्री या साधु पुरुष पूजने लायक है। लेकिन जो कभी भी विकार का अनुभव कर चुके हैं, उन्हें तो भागवत का यह वचन सच मानकर ही चलना चाहिए : तत्सृष्टप्रसृष्टेषु कोऽभ्वखंडितधीः पुमान् । ऋषि नारायणमृते योषिन्मय्येह मायया ? - एक नारायण ऋषि को छोड़ कर ब्रह्मा, देव, दानव, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि में से कोई एक भी ऐसा है जो सर्जन कार्य में स्त्रीरूपी माया से खंडित न हुआ हो ? "जो पुरुष को लागू होता है, वह स्त्री को भी लागू होता है।" चौथी बाड़ (ढाल ५) इन्द्रिय-दर्शन - परिहार 'पराङ्गद मादा' वह उसके बाढ़ में यह शिक्षा है कि ब्रह्मवारी नारी के एप को 'न निरखे' पर दृष्टि न डाले। हो सकता है सर्वत्र है। स्थान-स्थान और घर-घर में बिहार करनेवाला साधु उनके दर्शन से कैसे बच सकता है। इस नियम कामाचा से स्पष्ट हो जाता है। वह कहा गया है- "यह संभव नहीं कि घाँखों के सामने आए हुए रूप को कोई न देखे परतु निक्षु उसमें राय-द्वेष न करे।" स्वामीजी ने 'जोइये नहीं पर राग' (५.१), 'नजर मेरे ने निरखता है (५.४) बादि वाक्यों द्वारा स्पष्ट कर दिया है कि ब्रह्मवारी को रागपूर्वक, टकटकी लगा कर, नजर गड़ा कर स्त्री के रूप को नहीं देखना चाहिए। वह नारी के रूप में मोहित, मूच्छित, प्रासक्त न हो । बिना राव-भाव स्वियों का दर्शन होता है, यह ब्रह्मचारी के लिए दोषरूप नहीं माना गया है और ऐसा दर्शन इस बाढ़ का वर्ज्य नहीं है। इस बाड़ का प्रतिपाथ है 'वो वा चस्तु संदेशा ब्रह्मचारी स्त्रियों पर पशु न सावे उन पर ताक न लगाये। जो ब्रह्मचारी वि के रूप का लोभी होता है और उनके प्रति प्रेमभाव से ताका करता है, उसको भ्रष्ट होते देर नहीं लगती। रूप में ऐसे बारात मनुष्य लिए स्वामीजी ने 'शील' (५-१०) शब्द का प्रयोग किया है। १ - स्त्री-पुरुष मर्यादा पृ० ३६-४१ २ स्त्री-पुरुष मर्यादा ४२-४३ १ -आचाराङ्ग २११५ : नामविसयमागर्व रागदोसा जे सत्य ते मिक्यू परिव App 32.7.99 जय vg fabery Scanned by CamScanner Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका बाइबिल में कहा है-"तू ने सुना है उन लोगों ने प्राचीन काल में कहा था कि तू पर-स्त्री गमन न कर। परन्तु मैं तुझ से कहता हू कि जो व्यक्ति किसी भी स्त्री को प्रोर काम-वासना से देखता है, वह उसके साथ अपने मन में व्यभिचार कर चुका' ।" "इसी तरह पैगम्बर मुहम्मद ने कहा है : "दूसरे की पत्नी के प्रति काम-भाव से देखना चक्षु का व्यभिचार है और उस वात का कहना, जिसकी मुमानियत है, जिह्वा का व्यभिचार " ब्रह्मचारी के लिए चच-कुशीलता से बचना कितना पावश्यक है, यह क्राइस्ट के दूसरे गढ़ वाक्य से प्रकट होगा : "और यदि तेरी दाहिनी प्रांख अपराध करती हो तो तू इसे अपने अङ्ग से निकाल दे क्योंकि तेरे लिए यह अधिक लाभकर है कि तेरे मानव-गात्र के एक ही अंग का नाश हो, न कि तेरा सारा गात्र नरक में पड़ जाय।" सूरदास ने तो जसे इस उक्ति को चरितार्थ कर के ही दिखा दिया । पर इस तरह चमों को निकाल अथवा उन्हें फोड़ ब्रद्दाचर्य की रक्षा का उपाय करना जैन धर्म के अनुसार पुरुषार्थ का द्योतक नहीं है पोर न वह अभीष्ट और स्वीकृत ही है । इस सम्बन्ध में पैगम्बर मुहम्मद का एक वाक्य बड़ा बोधप्रद है । "मैंने कहा, 'हे ईश्वर के दूत ! मुझे नपुंसक होने की इजाजत दो' । उसने कहा, 'वह मनुष्य मेरा नहीं है जो दूसरे को विकलेन्द्रिय कर देता है अथवा स्वयं वसा हो जाता है। क्योंकि जिस तरीके से मेरे अनुयायी नपुंसक बनते हैं वह उपवास और निवृत्ति का है।" मन को जीत कर चक्षु को विनीत रखना, यही इस बाड़ का मर्म है। 'नारी रूप नहीं निरखणो' (४ दो० १) इसमें रूप शब्द का अर्थ बड़ा व्यापक है। स्त्रियों की नेत्रादि इन्द्रियाँ, अधर, स्तनादि अङ्गप्रत्यङ्ग, लावण्य, विलास, हास्य, मंजुल भाषण, अंग-विन्यास, कटाक्ष, चंष्टा, गति, क्रीड़ा, नृत्य, गीत, वाद्य, रंग-रूप, प्राकार, यौवन, शृङ्गार प्रादि को मोह भाव से देखना, उनका अवलोकन करना रूप-कुशीलता है। ब्रह्मचारी को इन सब से दूर रहना चाहिए। माजकल के सिनेमा, नाट्य, अभिनय, सौन्दर्य-प्रदर्शनियां प्रादि चक्षु-कुशीलता की उत्पत्ति के स्थान हैं। इन स्थानों में जाना इस बाड़ का भङ्ग करता है। 'चितभित्ति न निझाए'-इस सूक्ति के प्राज अधिक पल्लवित रूप में प्रचारित होने की आवश्यकता है। नारी को जो 'पाश' और 'दीपक' की उपमा दी गई है (५.१,५.२), वह पागम वर्णित है । जसे हरे जौ के खेत को देख कर मोहित मृग जाल में फंस जाता है और दीपक के प्रकाश को देखकर मोहित पतङ्ग उसमें अपने कोमल अङ्गों को जला डालता है, वैसे ही स्त्रियों की मनोहर, मनोरम इन्द्रियों के प्रति मोहित ब्रह्मवारी अपना भान भूलकर संसार के मोह-जाल में फंस श्रमणत्व से हाथ धो बैठता है। सूत्रकृताङ्ग में इसका फारुणिक वर्णन है। स्त्री के प्रति चक्ष-संयम के लिए पुरुष को जो उपदेश दिया गया है, वही पुरुष के प्रति चक्षु-संयम रखने के लिए स्त्री पर भी लागू होता है। वह भी मृग अथवा पतङ्ग की तरह पुरुष के रूप पर मोहित न हो। १-St. Matthew5.27-28 : Ye have heard that it was said by them of old time, Thou shalt not commit adultery : But I say unto you, That whosoever looketh on a woman to lust after her hath committed adultery with her already in his heart. २-The sayings of Muhammad : Said Lord Muhammad, “Now, the adultery of the eye is to louk with an eye of desire on the wife of another; and the adultery of the tongue is to utter what is forbidden. (136) ३-St. Matthew 5.29 : And if thy right eye offend thee, pluck it out, and cast it from thee: for it is profitable for thee that one of thy members should perish, and not that thy whole body should be cast into hell. ४-The sayings of Muhammad : I said, “O Messenger of God, permit me to become a eunuch." He said, “That person is not of me who maketh another a eunuch, or becometh so himself; because the manner in which my followers become eunuchs is by fasting and abstinence.” (152). ५-सूत्र० ११४.२.१-१८ Scanned by CamScanner Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ रूप के प्रति मासक्ति भाव को दूर करने के लिए पशुचि भावना के चिन्तन का मन्त्र दिया गया है (५.६.८) । यह मंत्र बौद्ध धर्म में 'कायगता-स्मृति' नाम से विख्यात है'। विषय को हृदयंगम कराने की दृष्टि से इस दाल में रचनेमि, रूपी राय, इलाची पुत्र, मनरथ, अरणक प्रादि की कथापों की ओर संकेत कर बताया गया है कि नारी के रूप-अवलोकन से ब्रह्मचारी का कैसे पतन होता है। क्षत्रिय और चोरों का दृष्टान्त, कच्ची कारी और मूर्यप्रकाश के दृष्टान्त बड़े हृदयग्राही हैं। दशवकालिक में कहा गया है-"नारी पर नेत्र पड़ जाय तो जैसे उन्हें सूर्य की किरणों के सम्मुख से हटा लेते हैं, उसी तरह शीघ्र हटा लें (टि० ३ पृ. ३३)।" सूत्रकुताङ्ग में कहा है-"भिक्ष स्त्रियों पर चक्षु न साधे। इस प्रकार साधु अपनी प्रात्मा को सुरक्षित रख सकता 'मदर्शन' को ब्रह्मचारी के लिए हमेशा हितकर कहा है (टिप्पणी ११०३३)। अन्य धर्मों में भी इसका उल्लेख है। बुद्ध मृत्य-सम्या पर थे तब उनसे बौद्ध भिक्षुमों ने पूछा-"भन्ते ! स्त्रियों के साथ हम कैसा बर्ताव करेंगे?" "प्रदर्शन (न देखना) प्रानन्द !" "दर्शन होने पर भगवन् कैसे बर्ताव करेंगे?" "मालाप (बात) न करना, प्रानन्द !" "बात करनेवाले को कसा करना चाहिए ?" "स्मृति (होश)को संभाल रखना चाहिए।" दक्षस्मृति में 'दर्शन' या 'प्रेक्षण' को पाठ मैथुनों में चौथा मैथुन कहा गया है और प्रेक्षण से दूर रहकर ब्रह्मचर्य के पालन करने का कहा गया है। महात्मा गांधी एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इस बाड़ के विषय पर लिखते हैं : “कहा गया है कि ऐसा ब्रह्मचर्य यदि किसी तरह प्राप्त किया जा सकता हो तो कंदराओं में रहनेवाले ही कर सकते होंगे। ब्रह्मचारी को तो, कहते हैं, स्त्रियों का स्पर्श तो क्या, उनका दर्शन भी कभी नहीं करना चाहिए। निस्संदेह किसी ब्रह्मचारी को काम-वासना से किसी स्त्री को न तो छना चाहिए, न देखना चाहिए और न उसके विषय में कुछ कहना या सोचना चाहिए। लेकिन ब्रह्मचर्य विषयक पुस्तकों में हमें यह वर्णन जो मिलता है उसमें इस महत्वपूर्ण अव्यय 'काम-वासना पूर्वक' का उल्लेख नहीं मिलता। इस छूट की वजह यह मालूम पड़ती है कि ऐसे मामलों में मनुष्य निष्पक्ष रूप से निर्णय नहीं कर सकता और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि कब तो उस पर संपर्क का असर पड़ा और कब नहीं। काम-विकार अक्सर अनजाने ही उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में आजादी से सबके साथ हिलने-मिलने पर ब्रह्मचर्य का पालन यद्यपि कठिन है, लेकिन अगर संसार से नाता तोड़ लेने पर ही यह प्राप्त हो सकता हो तो उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं है।" ..... स्वामीजी ने प्रदर्शन का अर्थ रागपूर्वक न ताकना ही किया है, यह हम ऊपर स्पष्ट कर आये हैं। आगमों में भी मदर्शन के पीछे यही भावना है, वैसी हालत में जैन और गांधीजी की विचारधारा में अन्तर नहीं परन्तु अद्भुत साम्य ही है। जैन धर्म ने कन्दरामों में बैठकर ब्रह्मचर्य साधने की बात पर कभी बल नहीं दिया। अतः महात्मा गांधी की आलोचना शील की नौ बाड़ में प्रदर्शन का जैसा रूपजनों द्वारा अंकित है उसके प्रति नहीं पड़ती। १-मुत्तनिपात १.११; विशुद्धि मार्ग (पहला भाग) : परिच्छेद ८ पृ० २१८-२६० - -सूत्रकृताङ्ग १४.१.५ : नो तास चक्खु संधेजा एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ३-दीघनिकाय (महापरिनिब्याण सत्त) २.३ : पृ० १४१ सालमा ४-वक्षस्मृति ७.३२ ५-ब्रह्मचर्य (प. भा०) ०१०३ d on w aledutails Scanned by CamScanner Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१: भूमिका महात्मा गांधी लिखते हैं- "जो व्यक्ति परम रूपवती रमणी को देखकर अविचल नहीं रह सकता, वह ब्रह्मचारी नहीं" ।" "स्त्री पर नजर पड़ते ही ... जिसे विकार हो जाता है, वह ब्रह्मचारी नहीं। उसके लिए सजीव पुतली श्रौर काष्ठ की निश्चेष्ट पुतली एक-सी होनी चाहिए ।" महात्मा गांधी ने जो बात यहाँ कही है, वह आदर्श ब्रह्मचारी की कसौटी है । जो श्रप्सरा को देख कर भी विचलित न हो, वह ब्रह्मचारी है। कवि रायचंद्र ने भी कहा है : निरखी ने नवयौवना देश न विषय विकार । गणे काष्ठ नी पुतली ते भगवान समान ॥ ब्रह्मचारी स्त्रियों को देख नहीं सकता - बाढ़ इस रूप में नहीं है, पर वह उन्हें मोहपूर्वक न देखे इस रूप में है जैसे स्त्री पर नजर पड़ते ही जिसे विकार हो जाता है, वह ब्रह्मचारी नहीं वैसे ही जो स्त्री को मोह-भाव से ताकता रहता है, वह भी ब्रह्मचारी नहीं है। विनोबा लिखते है "ब्रह्मचारी की दृष्टि यह नहीं होनी चाहिए कि वह स्त्री को देख ही नहीं सकता एक दफ़ा साबरमती आश्रम में 'नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले । नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ' वाक्य पर चर्चा चली। बापू तो क्रान्तिकारी ही थे । उन्होंने कहा कि 'लक्ष्मण का यह वाक्य मुझे अच्छा नहीं लगता।' फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि 'तेरी इस पर क्या राय है ? ' तो मैंने कहा कि 'आप ने जिस दृष्टि से वह वाक्य नापसन्द किया, वह दृष्टि हो, तो वह वाक्य नापसन्द करने ही लायक है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी था और उसने सीता का मुख ही नहीं देखा था । अगर ब्रह्मचारी ऐसी मर्यादा से रहे कि वह स्त्री का मुख ही नहीं देखता, तो वह गलत बात है ।'...... इसलिए जहाँ ब्रह्मचारी के मन में यह भावना श्रायो कि सामने जो स्त्री श्रायी है, उसे मैं नहीं देख सकता हूँ, तो वह उसकी कमी मानी जायगी ४ ।" विनोबा भावे के कथनानुसार भी यही है कि ब्रह्मचारी स्त्री को न देख सके, ऐसी बात नहीं पर वह श्रासक्तिपूर्वक न देखे। श्रांख के संयम के विषय में महात्मा गांधी ने लिखा है : "आँख को निश्चल और अच्छा रखना चाहिए। आँख सारे शरीर का दीपक है, और शरीर का उसी तरह श्रात्मा का दीपक है, ऐसा कहें तो भी चल सकता है; कारण जब तक आत्मा शरीर में वसता है तब तक उसकी परीक्षा आँख से हो सकती है। मनुष्य अपनी वाचा से कदाचित् प्राडम्बर कर अपने को छिपा सकता है, परन्तु उसकी आँख उसका उघाड़ कर देगी। उसकी आँख सीधी, निश्चल न हो तो उस के अन्तर की परख हो जायगी। जिस प्रकार शरीर के रोग जीभ की परीक्षा कर परखे जा सकते हैं, उसी प्रकार प्राध्यात्मिक रोग आँख की परीक्षा कर परखे जा सकते हैं" " पाँचवीं बाड़ (ढाल ६) शब्द-श्रवण का परिहार इस बाढ़ में स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, विलास, ऋन्दन, विलाप, प्रेम आदि के शब्द सुनने का निषेध है। ब्रह्मचारी संभोग समय के स्त्री-पुरुष के प्रेमालाप के शब्दों को न सुने। ऐसे शब्दों के सुनने से ब्रह्मचारी को कैसी दशा होती है, इसे समझाने के लिए स्वामीजी ने मेघ गर्जन और मोर तथा पपीहा का दृष्टान्त दिया है, जो मौलिक होने के साथ-साथ अत्यन्त संगत भी है। जैसे मेघ से भरे बादलों के गर्जन को सुन कर मोर और परीहा विकार ग्रस्त होकर नाचने लगते हैं, से ही भोग-समय के नाना प्रकार के शब्दों को सुनने से मन चञ्चल होने की संभावना रहती है । इसलिए ऐसे स्थानों में जहां कि संयोगी स्त्री-पुरुषों के विषयोत्पादक शब्द कानों में गिरते हों, वहाँ ब्रह्मचारी न रहे । स्मृतियों में ब्रह्मचारी को 'गीतादिनिस्पृहः' रहने का उपदेश है । १- ब्रह्मचर्य (प० भा० ) पृ० ५४ २ सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४३ रामचन्द्र नेमणजी को शंका की ओर के रास्ते में फेंके हुए गहने दिखाये और पूछा कि क्या ये गहने सीता के है ? ने कहा था- "केयर और कुण्डल को तो मैं नहीं पहिचानता हूँ लेकिन नूपुरों को पहिचानता है क्योंकि में प्रतिदिन सीताजी की पद वन्दना करता रहा ।" ४- कार्यकर्ता वर्ग पृ० ४० ४१ ५- व्यापक धर्मभावना (०) पृ० १६५ ६ उशनस्मृति ३.२० अनन्यदर्शी सततं भवेद् गीतादिनिःस्पृहः Scanned by CamScanner Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ छठी बाड़ (ढाल ७) : पूव-क्रीड़ाओं के स्मरण का वर्जन इस बाड़ का विषय है : 'रत वृत्तं मा स्मरस्मार्य'-सेवित क्रीड़ाओं का स्मरण न कर। स्मृतियों में 'स्मरण' को मैथुन का प्रकार कहा है । ब्रह्मचारी के लिए पूर्व रति, पूर्व क्रीड़ा के स्मरण का निषेध ह । ब्रह्मचारी स्त्री के साथ भोगे हुए भोग, हास्य, क्रीड़ा, मैथुन, दर्प, सहसा वित्रासन आदि के प्रसंगों का चिन्तन न करे। वह मनोहर गीत, वाद्य, नाटक प्रादि की स्मृति न करे। ब्रह्मचारी चंचल मन को वश में रखे–यही इस बाड़ का मर्म है। स्वामीजी ने पूर्व बाड़ों के साथ इस बाड़ का सम्बन्ध बड़े सुन्दर ढंग से बतलाया है। पांचवीं बाड़ में कामोद्दीपक शब्द सुनने का वर्जन है, चौथी बाड़ में रूप देखने का वर्जन है। तीसरी वाड़ में स्पर्श का वर्जन है । दूसरी बाड़ में स्त्री-कथा का वर्जन है। इस बाड़ में पूर्व में भोगे शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श के अनुस्मरण का निषेध है। इन पाँच प्रकार के कामभोगों में से किसी एक भी प्रकार के कामभोग का स्मरण इस छठी बाड़ का उल्लंघन है । स्वामीजी ने बतलाया है कि पाल के टूटने पर जैसे जल-प्रवाह नहीं रुकता, उसी तरह बाड़ के भङ्ग होने पर काम-विकार को रोकना असंभव होता है। ...... स्वामीजी ने सातवीं ढाल में इस बाड़ का विवेचन करते हुए तीन दृष्टान्त या कथाएँ दी हैं जो, परिशिष्ट में दे दी गई हैं। सातवीं और आठवीं बाड़ (ढाल ८ और ९) : सरस आहार और अति आहार का वर्जन - ब्रह्मचर्य महाव्रत की पांच भावनाओं में एक भावना प्रणीत, स्निग्ध, दर्पकारी पाहार-वर्जन पर जोर देती है। संयमी को ऐसा आहार करना चाहिए जिससे संयम-यात्रा का निर्वाह हो, मोह का उदय न हो और ब्रह्मचर्य धर्म से वह न गिरे । उसके लिए नियम है-'वृष्यंमा भज।' दूध दही, घृत आदि युक्त कामोद्वीपक आहार न करें। इस महाव्रत की अन्य भावना कहती है-विम्रम न हो, धर्म से भ्रश न हो पाहार उतनी ही मात्रा में होना चाहिए। जो इन नियमों से युक्त होता है, उसकी अन्तर आत्मा पागम में ब्रह्मचर्य में तल्लीन, इन्द्रियों के विषयों से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय से युक्त कही गयी है। सरस मसालेदार उत्तेजक आहार का वर्णन सातवीं बाड़ और अति प्राहार का वर्जन पाठवीं बाड़ का विषय है । सरस और प्रति आहार की आत्मिक और शारीरिक बुराइयों को दिखाते हुए स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य-रक्षा के इन नियमों पर हृदयग्राही प्रकाश डाला है। ब्रह्मचारी शरीर में पासक्त न हो। वह वर्ण के लिए, रूप के लिए, बलवीर्य की वृद्धि के लिए या विषय-सेवन की लालसा से भोजन न करें। केवल संयमी जीवन की जरूरी क्रियाओं के सम्यक् पालन की दृष्टि से सहभूत शरीर के निर्वाह की दृष्टि रखे। जिस तरह धरा में तेल डाला जाता है और घाव पर औषधि का लेप किया जाता है, उसी तरह देह में प्रमूछित ब्रह्मचारी केवल संयमयात्रा के निर्वाह के लिए ही सादा और परिमित पाहार करे । स्वाद के लिए नहीं। उत्तराध्ययन सूत्र (३५.१७) में कहा है : ... अलोले न रसे गिद्धे, जिब्भादंते अमुच्छिए। न रसट्टाए भुंजिज्जा, जवणट्ठाए महामुणी॥ आहार के विषय में ब्रह्मचारी इन्हीं सूत्रों पर दृष्टि रखता हुआ चले । यह पागम की वाणी है। 15 DEORATE (१) बंधन की कथा नियम ज्ञाता धर्म में दो कथाएं हैं जो इस आदर्श पर गंभीर प्रकाश डालती हैं। पहली कथा के विषय में काका कालेलकर लिखते हैं"मात्मा अनात्मा का भेद जान लेने के पश्चात् हमारी सम्पूर्ण निष्ठा आत्मतत्त्व पर होते हुए भी अनात्मतत्त्व-शरीर को अनासक्त भाव से निभाये बिना छुटकारा नहीं, यह वस्तु सार्थवाह घन्य और विजय चोरवाली वार्ता में जिस प्रकार बतायी गयी है, वैसे असरकारक ढंग से बताई गई अन्यत्र कहाँ मिलती है ?"", संक्षेप में यह कथा इस प्रकार है : राजगृह में धन्य नामक एक सार्थवाह रहता था। उसकी भार्या का नाम भ्रद्रा था। देवताओं की मनौतियाँ मनाते-मनाते उनके एक पुत्र हुआ । उसका नाम उन्होंने देवदत्त रखा । सार्थवाह के पंथक नामक एक दासपुत्र था । वह देवदत्त को खिलाया करता। राजगृह के बाहर विजय नामक एक तस्कर रहता था। एक दिन पंथक बालक को अकेला छोड़, अन्य बालकों के साथ खेलने लगा। विजय बालक को उठा ले गया। और उसके शरीर से गहने उतार उसे मार मालकाकच्छ में छिप गया। पंथक ने पाकर सारी बात सार्थवाह से कही। कोतवाल चोर के पाद-चिन्हों की खोज करता हुया मालकाकच्छ पहुंचा। वहाँ उसने विजय चोर को पकड़ लिया। बालकों के चोर, बालकों के घातक उस विजय १-भगवान महावीर नी धर्मकथाओ: दृष्टि अने बोध पृ० १६ का अनुवाद देवताओं को मार बालकों के अवदत्त को खिलाया मनाते मनाते . रार से गहने उताइन पंथक बालकमक एक दासपुत्र Scanned by CamScanner Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिकां ५३ चोर को कैदखाने में डाल दिया गया। भाग्यवश कुछ दिनों बाद सार्थवाह भी किसी राज्य अपराध में पकड़ा गया। राजा ने विजय चोर के साथ एक ही बेड़ी में उसे बांध रखने का हुम दिया ना ने पंचक के साथ सार्थवाह के भोजन के लिए आहार भेजा। सार्थवाह को भोजन करते देख विजय चोर बोला – “इस विपुल भोजन-सामग्री में से मुझे भी कुछ दो ।" धन्य सार्थवाह बोला- "मैं बची हुई सामग्री को कौओं और कुत्तों को खिला दूंगा, परन्तु तुम जैसे पुत्रघातक वैरी, प्रत्यनीक और श्रमित्र को तो एक भी दाना नहीं दूंगा।" सार्थवाह को शौच और लघुशंका की हाजत हुई । सार्थवाह वोला - "विजय ! एकान्त में चलो जिससे मैं हाजत पूरी कर सकूँ।" विजय बोला - " भोजन तो तुमने किया है। मैं तो भूखा-प्यासा ही हूँ। मुझे हाजत नहीं। तुम अकेले ही एकान्त में जाकर हाजत पूरी करो ।" दोनों एक ही बेड़ी में बंधे हुए थे । सार्थवाह की प्रकल ठिकाने ग्रा गई। मन न होते हुए भी परवशता से सार्थवाह ने विजय चोर को आहार तथा जल देना स्वीकार किया। विजय चोर और सार्थवाह दोनों एक साथ एकान्त में गये। सार्थवाह ने अपनी हाजत पूरी की। सार्थवाह विजय चोर को रोज अपने भोजन में से कुछ बाहार देता यह बात पंथ के वरिए भद्रा के कानों तक पहुँची सबंधि समाप्त होने पर सार्थवाह कंद से मुक्त हुषा और घर पहुँचा । सवने उसका स्वागत किया पर भद्रा ने न उसका स्वागत किया और न उससे बोली । सार्थवाह ने इसका कारण पूछा तब भद्रा बोली - "ग्रापके श्राने का मुझे हर्ष कैसे हो ? श्राप तो मेरे पुत्र के प्राण हरण करनेवाले विजय तस्कर को ग्राहार देते रहे !" सार्थवाह बोला- "मैंने उसे धर्म समझकर नहीं दिया, कृतज्ञता के भाव से नहीं दिया, लोक-यात्रा के लिए नहीं दिया, न्याय समझ कर नहीं दिया, बान्धव समझ कर नहीं दिया; केवल एकमात्र शरीर चिन्ता से दिया। विजय चोर के साथ दिये बिना लघुशंका जैसी जरूरी हाजतों को दूर करने के लिए एकान्त में जाना भी मेरे लिए असम्भव था।" यह सुन भद्रा शांत और प्रसन्न हुई । इस कथा का उपनय यह है : विजय चोर और सार्थवाह की तरह पौद्गलिक शरीर और अजर अमर आत्मा केवल कर्म संयोग से जुड़े हुए हैं। सार्थवाह को विजय चोर की जरूरत हुई, उसी तरह शरीर श्रौर श्रात्मा का बन्धन होने से श्रात्मा को शरीर के सहचार की भी जरूरत होती है । जीवन रक्षा के लिए सार्थवाह को विजय चोर का पोषण करना पड़ा, उसी तरह आत्मा के उद्धार के लिए - संयम यात्रा के योगक्षेम के लिए मोक्षार्थी को शरीर की श्रावश्यकता भी पूरी करनी पड़ती है। don यह शरीर विजय चोर की तरह विषय सेवन का श्राधार है। विभूषा और स्त्री- संसर्ग का त्याग करदेनेवाला ब्रह्मचारी सद्गुणों की उपासना तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप की आराधना के लिए ही शरीर का पोषण करने की दृष्टि रखे। (२) सुंसुमा दारिका की कथा the दूसरी कथा सुसुमादारिका की है। वह संक्षेप में इस प्रकार है : राजगृह में धन्य सार्थवाह रहता था। उसकी भार्या का नाम भद्रा था। उनके एक पुत्री थी जिसका नाम संसुमा था। उस सार्थवाह के चिलाति नामक दासचेटक था। वह संसुमा को रखता था। विलाति बड़ा नटखट और दुष्ट था। पड़ोसियों की शिकायत के कारण सार्थवाह ने विलाति की भलना कर उसे घर से निकाल दिया। चिलति इधर-उधर भटकता हुआ मद्यपी, चोर, मांसभोजी, जुम्रारी, वेश्यागामी भौर परदार- श्रासक्त हो गया । राजगृह के बाहर सिंहगुफा नामक एक चोर पल्ली थी। वहाँ विजय नामक चोर सेनापति अपने पांच सौ चोर साथियों के साथ रहता था । चिलाति विजय सेनापति का यष्टि धारक हो गया। विजय की मृत्यु के बाद वह चोरों का सेनापति हुआ । उसने संसुमा के हरण का विचार कर सार्थवाह के घर पर छापा मारा । सार्थवाह भयभीत हो अपने पाँचों पुत्रों के साथ एकान्त में जा छिपा । विपुल धन सम्पत्ति और सुसुमा को ले चिलाति चोर पल्ली की घोर अग्रसर हुआ । ENTRY सार्थवाह नगर रक्षकों के पास पहुँचा और उसने उनसे सहायता मांगी। नगर-रक्षकों ने चिलाति का पीछा किया और उसके नजदीक पहुँच उससे युद्ध करने लगे। चोर क्षतविक्षत हो, घन फेंक दिशा-विदिशाओं में भाग गये । नगर-रक्षक घन ले लौट गये। अपनी सेना को क्षतविक्षत देवतातिमा को जंगल में घुस गया। सार्थवाह अपने पांचों पुत्रों सहित उसका पीछा करता रहा। चोर सेनापति पक कर शान्त हो गया। उसने खड्ग निकाल सुंसुमा का शिरच्छेद कर दिया और शव को वहीं छोड़ मस्तक को हाथ में ले निर्जन वन में घुस गया । सार्थवाह और उसके पांचों पुत्र पीछे दौड़ते-दोड़ते तृषा और भूख से व्याकुल हो गये । संसुमा का सिर कटा देख कर तो उनके शोकसंताप का कोई ठिकाना नहीं रहा । १२ विस्तृत कथा के लिए देखिए लेखक की 'इप्टा और धर्मकथाएँ' नामक पुस्तक३-१५ Scanned by CamScanner Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वा या अटवी में चारों ओर खोज करने पर भी कहीं जल नहीं मिला। सार्थवाह बोला-"हमलोग ऐसे तो राजगृह पहुंचने से रहे लोग मुझे मार मांस और रुधिर का आहार कर अटवी को पार करो।" पर यह किसी भी पुत्र को स्वीकार नहीं हुआ। पुत्रों ने भी अपनी.. ओर से ऐसा ही प्रस्ताव किया, पर किसी का भी प्रस्ताव दूसरों द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ । अब धन्य सार्थवाह बोला: "पुत्रो ! संसमा का जीव-रहित है। हम इसके मांस और रुधिर का आहार करें।" सब ने अग्मि कर सुंसुमा के मांस को पका उसका पाहार किया और पी प्यास मिटाई। इस तरह वे राजगृह पहुँच सबसे मिले। 2 . जिस तरह धन्य सार्थवाह ने शरीर की आवश्यकता को पूरी करने तथा राजगृह पहुँचने के लिए ही चोर को प्राहार दिया और मत के मांस और लोही का भक्षण किया। उसी तरह ब्रह्मचारी श्रमण औदारिक शरीर के वर्ण, रूप, रस, बल और विषय-वृद्धि के लिए प्राहारी करते-संयम-यात्रा के लिए शरीर को टिकाए रखने की दृष्टि से प्रहार करते हैं। । स्वामीजी ने ब्रह्मचारी के लिए ऊनोदरी को उत्तम तप बतलाया है। खुराक से कम भोजन करना-पेट को खाली रखना बिना व के नहीं होता और वैराग्य ही ब्रह्मचर्य की मूल भित्ति है । महात्मा गांधी ने कहा है : "स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं बल्कि मन है ऊनोदरी करता है, वह मन को जीतता है, स्वाद पर विजय प्राप्त करता है। प्राचाराङ्ग में कहा है : "विषयों से पीड़ित ब्रह्मचारी निर्वल-निःसत्व आहार करे, कम खाये...।" इस तरह सरस पाहार और अति पाहार का वर्जन ब्रह्मचर्य की साधना के अनिवार्य अङ्ग हैं। इन नियमों का पालन न करने से किस प्रकार पतन होता है, इसका प्रतीक सुन्दर वर्णन स्वामीजी की ढालों में है : "घृतादि से परिपूर्ण गरिष्ठ आहार अत्यधिक धातु-उद्दीपन करता है, जिससे विकार की वृद्धि होती है । खट्ट, नमकीन, चटपटे और मीछे भोजन तथा जो विविध प्रकार के रस होते हैं, उनका जिह्वा प्रास्वाद लेती है। जिसकी रसना वश में नहीं, वह सरस आहार की चाह करता है। परिणाम स्वरूप व्रत भङ्ग कर ब्रह्मचारी सारभूत ब्रह्मचर्य व्रत को खो देता है (पु० ४५)। गा० १४ में सन्निपात के रोगी का उदाहरण देकर इस बात को हृदयग्राही ढंग से बतलाया है कि सरस आहार से किस तरह विकार की वृद्धि होती है। अति आहार से विषयविकार की वृद्धि होती है, इससे भोग अच्छे लगने लगते हैं। ध्यान विकार ग्रस्त होता है। स्त्री मन को भाने लगती है। शील पालं या नहीं, ऐसी डांवाडोल स्थिति हो जाती है। इस तरह क्रमशः पतन होता है (पु० ५३)। . महात्मा गांधी लिखते हैं-"मिताहारी बनिए, सदा थोड़ी भूख बाकी रहते ही चौके पर से उठ जाइए।" "अधिक मिर्च-मसालेवाली और अधिक घी-तेल में तली-पकी साग-भाजियों से परहेज रखिए......। जब वीर्य का व्यय थोड़ा होता है तब थोड़ा भोजन भी काफी होता "इन्द्रियों में मुख्य स्वादेन्द्रिय है। जो अपनी जिह्वा को कब्जे में रख सकता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य सुगम हो जाता है |.."पर हम तो अनेक चीजों को खा-खा कर पेट को ठसाठस भरते हैं और फिर कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो पाता।..."विकारोत्तेजक वस्तुएं खाने-पीने वाले को तो ब्रह्मचर्य निभा सकने की आशा ही न रखनी चाहिए।" "मेरा अपना अनुभव तो यह है कि जिसने जीभ को नहीं जीता, वह विषय-वासना को नहीं जीत सकता। जीभ को जीतना बहुत ही कठिन है। पर इस विजय के साथ ही दूसरी विजय मिलती है। जीभ को जीतने का एक उपाय तो यह है कि मिर्च-मसाले का बिल्कुल या जितना हो सके त्याग कर दिया जाय। दूसरा उससे अधिक बलवान उपाय यह है कि मन में सदा यह भाव रखे कि हम केवल शरीर के पोषण १-ज्ञाताधर्मकथाङ्ग अ० १८ : देखिए लेखक की · दृष्टान्त और धमकथाएँ ' नामक पुस्तक पृ० ७६ ... २-आत्मकथा भा० १ अ०१७ पृ०६४ । ३-आचाराज १५.४: उब्बाहिज्जमाणं गामधम्मेहि अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कजा ४-अनीति की राह पर : वीर्यरक्षा पृ. ११० ५-वही पृ० ११० ६ –ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ०११ मा Scanned by CamScanner Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका के लिए खाते हैं, स्वाद के लिए कभी नहीं खाते। हम हवा स्वाद के लिए नहीं लेते, बल्कि सांस लेने के लिए लेते हैं । पानी जैसे महज प्यास बुझाने के लिए पीते हैं, वैसे ही श्रन्न केवल भूख मिटाने के लिए खाना चाहिए ।" ब्रह्मचर्य से स्वाद बहुत पनिष्ट सम्बन्ध रखनेवाला है मेरा अनुभव ऐसा है कि इस व्रत का पालन किया जा सके तो ब्रह्मचर्य श्रर्थात् जननेन्द्रिय संयम विल्कुल सहज हो जाता है। "जिस तरह दवा खाते समय वह स्वादिष्ट है या नहीं, इसका विचार नहीं करते, बल्कि शरीर को उसकी श्रावश्यकता है, यह समझ कर उसे उचित परिणाम में खाते हैं, उसी तरह अन्न के विषय में समझना चाहिए । "जो 'मनुष्य प्रत्याहारी है, जो प्राहार में कुछ विवेक या मर्यादा ही नहीं रखता, वह अपने विकारों का गुलाम है। जो स्वाद को नहीं जीत सकता, वह कभी इन्द्रियजीत नहीं हो सकता। इसलिए मनुष्य को युक्काहारी धीर अल्पाहारी बनना चाहिए। शरीर आहार के लिए नहीं बना, श्राहार शरीर के लिए बना है २ ।" "ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो स्वादेन्द्रिय 'जीभ' को वश में करना ही होगा। मैंने खुद करके देखा है कि जीभ को जीत से तो ब्रह्मचर्य का पालन बहुत मासान हो जाता है३" महावीर और स्वामीजी ने जो कहा है, दूसरे शब्दों में महात्मा गांधी ने भी वही कहा है महात्मा गांधी ने धामों में स्वाद को जोड़ा। जैन धर्म में उस पर पहले से ही अत्यधिक बल दिया हुआ है। महात्मा गांधी लिखते हैं छः मेरे भोजन विषयक प्रयोग ब्रह्मचर्य की दृष्टि से भी होने लगे। मैने प्रयोग करके देख लिया कि हमारी खुराक थोड़ी, सादी और बिना मिर्च मसाले की होनी चाहिए और प्राकृतिक अवस्था में खाई जानी चाहिए। अपने विषय में तो मैंने वर्ष तक प्रयोग कर देख लिया है कि ब्रह्मचर्य का आहार वनपक्व फल हैं। फलाहार के समय ब्रह्मचर्य सहज था। दुग्धाहार से वह कष्ट-साध्य हो गया । '''''दूध का आहार ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नकारक है, इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं ।" "अपने विकारों को शान्त करना चाहता हो उसे घी-दूध का इस्तेमाल थोड़ा ही करना चाहिए। ई चीजें न खायें या थोड़ा खायें।" वनपक्व अन्न खा कर निर्वाह किया जा सके तो आाग पर पकाई श्रागमों में ब्रह्मचारी साधु के लिए दूध, दही, घी, नवनीत, तेल, गुड़, खाण्ड, शकर, मधु, मद्य, मांस, खाजा श्रादि विकृतियों से रहित भोजन का विधान है। ब्रह्मचारी इनका रोज-रोज आहार न करे और प्रति मात्रा में तो उनका प्रहार करे ही नहीं । कच्चे वनपक्व फलश्रथवा सब्जियों का सीधा व्यवहार अहिंसा की दृष्टि से निग्रंथ साधु मात्र के लिए वर्ग्य है। वैसी हालत में प्रासुक वस्तुनों में से ब्रह्मचारी अपने लिए रूक्ष प्रहार प्राप्त कर कम मात्रा में खाये । मियं कालेज धम्म पणि नाइमत्तं तु भुंजेज्जा, बम्भचेररओ सया ॥ मनुस्मृति में कहा है- "मधु मांसञ्च वर्जयेत्" ब्रह्मचारी मदिरा और मांस का वर्जन करे। गीता में प्रति कटु, प्रति खट्टा, अति नमकीन, अति उष्ण, अति तीक्ष्ण, रूक्ष और अत्यन्त दाह करनेवाले आहार को राजस कहा गया है। उसे दुःख, शोक और रोगप्रद कहा है"। १ - ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ११-१२ २- वही पृ० १०५ ३- अनीति की राह पर पृ० १२५ ४- वही पृ० १२५ -६ ५-वही : पृ० १३६ ६- उत्तराध्ययन १६.८ ७ - गीता १७.६: - कट्वम्हसवणात्युष्णतीरणरूक्षविदाहिनः । आहारा राजसस्वष्टा दुःखशोकामयप्रदाः ॥ tele 是 512 अ) Scanned by CamScanner Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बार नवीं बार बाल विभपा-परिवर्जन E ntiy नवीं बाड़ में शरीर-शगार का निषेध किया गया है। ब्रह्मचारी अभ्यङ्गन, मर्दन, विलेपन न करे। चटकीले-भड़कीले, खूब स्वच्छ वात को न पहने । प्राभूषण धारण न करे। दांतों को न रंगे। बेशों को न संवारे। गन्ध-माल्य को धारण न करे। अञ्जन न लगाये। जा छाता धारण न करे। पागम में विभूषा को तालपुट विष की तरह कहा है। वहाँ कहा है "बनाय-ठनाव करनेवाला ब्रह्मचारी स्त्रियों की कार का विषय हो जाता है अतः वह विभूषानुपाती न हो।" स्वामीजी ने दृष्टान्त दिया है-"जैसे रक के हाथ मे रहे हुए रल को राजकर्मचारी कार लेते हैं, वैसे ही स्त्री शौकीन ब्रह्मचारी थे. ब्रह्मचर्य-रल को छीन कर उसे खाली हाथ कर देती है।" एकबार टॉल्स्टॉय से पूछा गया-"विकार से झगड़ने का कोई उपाय बताइए।" उन्होंने कहा--"ठीक है, परिश्रम, उपवास प्रालि छोटे उपायों में सब से अधिक कारगर उपाय है दारिद्रय-निर्धनता, बाहर से भी अकिंचन दिखाई देना जिससे मनुष्य स्त्रियों के लिए आकर्षण की वस्तु न रहे'।" टॉल्स्टॉय ने जो कहा वह आगम-वाणी से शब्दशः मिलता है--'विभूसावत्तिए विभूसिय सरीरे इत्थिजणस्य अभिलसणिजे हवइ ।' * यह नियम भी स्त्री और पुरुष दोनों के लिए लाग है। टॉल्स्टॉय कहते हैं : "स्त्रियों में निर्लज्जता बढ़ती जाती है। कुलीन स्त्रियाँ नीच कुलटायों की देखादेखी नित्य नये फैशन सीखती जाती है और पुरुषों के चित में काम की आग भड़कानेवाले अपने अङ्गों का प्रर्दशन करने में जरा भी नहीं हिचकिचातीं । क्या यह पतन का सीधा मार्ग नहीं है । आगम में कहा है-"जो शौकीन स्त्री-पुरुष एक दूसरे के काम्य बनते हैं उन्हें अपने व्रत में शंका उत्पन्न होती है, फिर विषय-भोगों की आकांता-कामना उत्पन्न होती है और फिर ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है या नहीं ऐसी विचिकित्सा-विकल्प उत्पन्न होता है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का नाश हो जाता है। उनके उन्माद और दूसरे बड़े रोग हो जाते हैं और अन्त में चित्त-समाधि भङ्ग होने से केवलि-भाषित धर्म से भ्रष्ट होते हैं।" or स्मतियों में कहा गया है-"ब्रह्मचारी दर्पण में मुंह न देखे, दातुन न करे, शरीर की शोभा का त्याग करे। वह सुगन्धित द्रव्य-गन्ध Scanned by CamScanner Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका का टॉलस्टॉम लिखते हैं-"समी बाह्य इन्द्रियों को लुभानेवाली चीजों से विकार उत्पन्न होता है । घर की सजावट, चमकीले कपड़े, सङ्गीत, सुगन्ध, स्वादिष्ट भोजन, मृदुल स्पर्शवाली चीजें सभी विकारोत्तंजक होती हैं।" ... एकबार लड़कियां लड़कों की हरारतों से अपना बचाव कैसे करें-यह प्रश्न महात्मा गांधी के सामने पाया। इन हरकतों का प्राधार कछ अंश में स्वयं लड़कियां ही किस प्रकार है, यह बताते हुए महात्मा गांधी ने लिखा : - "मुझं डर है कि पाजकल की लड़की को भी तो अनेकों की दृष्टि में आकर्षक बनना प्रिय है। वे मति साहस को पसंद करती हैं। प्राजकल की लड़की वर्षा या धूप से बचने के उद्देश्य से नहीं, बस्कि लोगों का ध्यान अपनी मोर खींचने के लिए तरह-तरह के भड़कीले कपड़े पहनती है। वह अपने को रंगकर कुदरत को भी मात करना और असाधारण सुन्दर दिखाना चाहती है। ऐसी लड़कियों के लिए कोई अहिंसात्मक मार्ग नहीं है । हमारे हृदय में अहिंसा की भावना के विकास के लिए भी कुछ निश्चित नियम होते हैं। अहिंसा की भावना बहुत महान् प्रयत्न है। विचार और जीवन के तरीके में यह क्रांति उत्पन्न कर देता है। यदि लड़कियां..."बताये गये तरीके से अपने जीवन को बिल्कुल ही बदल डालें तो उन्हें जल्दी ही अनुभव होने लगेगा कि उनके सम्पर्क में पानेवाले नौजवान उनका पादर करना तथा उनकी उपस्थिति में भद्रोचित व्यवहार करना सीखने लगे हैं।" टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधी दोनों ने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए आगम के 'विभूषानुपाति' न होने की बात का समर्थन किया है। ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष दोनों ही अपने वेषभूषा और रहन-सहन में सादा हों, यह ज्ञानियों का निष्कर्ष है। 'मा च संस्करु'-शरीर-संस्कार मत करो, यह सूत्र स्त्री-पुरुष दोनों को भापत से बचाता है। 22-12- 2 . कोट (ढाल ११): इन्द्रिय-जय और विषय-परिहार स्यादि रसं मा पिपास'-रूप प्रादि रसों का पिपासु मत हो । यही दसर्वा समाधि-स्थान है। पागम में दसवें समाधि-स्थान में ब्रह्मचारी के लिए शब्द, स्य, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पांच दुर्गय काम-गुणों का परिवर्जन प्रावश्यक बतलाया है। ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में प्रेम अनुराग न करे-'विसरम मान्ने पे नाभिनित्रेसर' (दश० ८.५८)। वह प्रात्मा को शीतल कर तृष्णा-रहित हो जीवन-यापन करे-'विणीय-तग्रहो विहरे सीईभूएण अप्पणा' (दश० ८.५६)। श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस और स्पर्श—ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-ये क्रमशः उपर्युक्त इन्द्रियों के विषय हैं । ये विषय पच्छे या बुरे दो तरह के होते हैं। स्वामीजी ने बतलाया है कि अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में मध्यस्थ भाव रखना-निरपेक्ष रहना यही कामगुणों का जीतना है। ब्रह्मचारी के लिए अच्छे-बुरे सब विषयों में समभाव रखना परमावश्यक है। स्वामीजी ने अन्यत्र कहा है-"मनोरम शब्दादि में हैत-प्रीति न करना और अमनोरम के प्रति द्वेष नहीं करना, यही इन्द्रियों का निग्रह, दमन, वश करना और संवरण है। मासिक पारी इम निग्रह करणी दमणी जीतणी, वस करणी संवरणी इण रीत ॥ हरतइन्द्री में निग्रह इण विध करणी, मन गमता शयद तूं मगन न थाय । अमनोगम उपरे धेप न आणे, तिण सरतइन्द्री निग्रह कीधी छे ताय॥ मुरतइन्द्री में निग्रह कही जिण रीते, दमणी में जीतणी इमहीज जाणो। इमहिज बस करणी में संवर लेणी, या पांचों रो परमारथ एक पिछीणो॥ १-स्त्री और पुरुष पृ० १४६ २-उत्त० १६.१०: सद्दे स्वे य गन्धे य रसे फासे तहेव य। पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए । ३-भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खगडः १): इन्द्रियवादी री चौपइ ढाल १४ दोहा । ४-वही गा० ५.६ Scanned by CamScanner Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की 10 तर कामगुणों के परिहार का पर्व है सब इन्द्रियों का सम्पूर्ण संयम जो ब्रह्मचारो कामगुणों का परिहार अथवा इन्द्रियसंयम करता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य सहज साध्य हो जाता है। स्वामीजी ने इस नियम को सर्वोपरि महत्व का स्थान दिया है। प्रथम नौ नियम बाढ़ों की तरह है और दसवां नियम उनी नियमों के चतुर्दिक परकोटे की तरह है जो परकोटे की रक्षा नहीं करता, वह धन्य बाड़ों के द्वारा अपने ब्रह्मचर्य रूमी खेत की रक्षा नहीं कर सकता। -जिस तरह परकोटे के मन होने पर बाहों के भ होने में समय नहीं लगता, उसी तरह इस नियम के अभाव में धन्य नियमों के भट्ट होते देर नहीं लगती (देखिए पृ० ६४ तथा ६५ टि० १) । परकोटे के प्रभाव का अर्थ है-बाड़ों का नाश, बाड़ों के नाश का अर्थ है - शस्य का नाशः । इसी तरह इन्द्रियों के संयम के प्रभाव का अर्थ है—दूसरे नियमों का नाम और उन नियमों के नाम का अर्थ है- मूल महाचर्य का नाश ०४८ स्वामीजी के भाव इस प्रकार रखे जा सकते हैं : कान शब्द को ग्रहण करता है और शब्द काम का ग्राह्य विषय है ही मरण पाता है, उसी तरह शब्दों में तीव्र श्रासक्ति रखनेवाला पुरुष शीघ्र ही अपने ब्रह्मचर्य को खो बैठता है । चक्षु रूप को ग्रहण करता है और रूप चक्षु का ग्राह्य विषय है। जिस तरह रागातुर पतङ्ग दीपक की ज्योति में पड़कर अकाल में ही मरण पाता है, उसी तरह रूप में प्रासक्त ब्रह्मचारी शीघ्र ही अपने ब्रह्मचर्य को खो बैठता है । नाक गंध को ग्रहण करता है और गंध नाक का ग्राह्य विषय है। जिस तरह श्रौषधि की सुगन्ध में श्रासक्त रागातुर सर्प पकड़ा जाकर मका में हो मारा जाता है, उसी तरह से सुगन्ध में तीव्र मासक्ति रखनेवाला ब्रहाचारी शीघ्र ही अपने ब्रह्मचर्य को सो बैठता है जिह्वा रस को ग्रहण करती है और रस जिह्वा का ग्राह्य विषय है। जिस तरह मांस में श्रासक्त रागातुर मछली लोहे के कांटे से भेदी जाकर काल ही में मारी जाती है, उसी तरह रस में तीव्र मूर्च्छा रखनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही ब्रह्मचर्य को खो बैठता है । शरीर स्पर्श का अनुभव करता है और स्पर्श शरीर का विषय है। जैसे ठंडे जल में आसक्त भैंस मगरमच्छ से पकड़ी जाकर अकाल में हो मारी जाती है, उसी तरह स्पर्श में तीव्र मूर्च्छा रखनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही ब्रह्मचर्य को खो बैठता है । मन भाव को ग्रहण करता है और भाव मन का विषय है। जिस तरह कामाभिलाषी रागातुर हाथी हथिनी के पीछे भागता हुआ कुमार्ग में पड़ कर अकाल ही में मारा जाता है, उसी तरह भाव में तीव्र श्रासक्ति रखनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही ब्रह्मचर्य को खो बैठता है ।. 'का महात्मा गांधी ने लिखा है : " ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ है- ब्रह्म प्राप्ति की चर्या । संयम के बिना ब्रह्म मिल ही नहीं सकता । संयम में सर्वोपरि इन्द्रियसंयम इन्द्रियों को निरा छोड़ देनेवाले का जीवन कर्णधारहीन नाव के समान है, जो नियम पहली चट्टान से ही भटकने टकरा कर पूरपूर हो जायगी ।" "निसह अन्य इन्द्रियों को जहाँ-तहाँ मटन देकर एक ही इन्द्रिय (जननेन्द्रिय) को रोकने इरादा रखना तो भाग में हाथ डालकर जलने से बचने के प्रयत्न के समान है ।" "हम जननेन्द्रिय का नियमन करना चाहते हैं तो हमें सभी इन्द्रियों पर अंकुश रखना होगा। श्राँख, कान, नाक, जीभ, हाथ और पाँव की लगाम ढीली कर दी जाय तो जननेन्द्रिय को काबू में रखना असंभव होगा।" Bir Beps of day the wood s भगवान महावीर और स्वामीजी ने जो कहा है उसी को हम महात्मा गांधी की वाणी में अन्य शब्दों में पाते हैं। प्रनुभव की वाणी एक ही है कि इन्द्रिय-जब बिना ब्रह्मचर्य में सफलता असंभव है। fu महात्मा गांधी लिखते हैं "हृदय पवित्र हो तो इन्द्रिय को विकार की प्राप्ति ही न रहे। जैसे-जैसे हम लोग पवित्रता में चढ़ते हैं, विकारों का शमन होता है । विकार इन्द्रियों में हैं ही नहीं । इन्द्रियाँ मनोविकार के प्रदर्शित होने के स्थान हैं । इनके द्वारा हम मनोविकार को पहचानते हैं। धतः इन्द्रियों के नाश करने से मनोविकार जाता नहीं हिमड़े लोग विकार से भरे-पूरे देले जाते हैं। जन्म से पुरुष में इतने विकार होते हैं कि वे अनेक काम करते हुए देखे जाते हैं" । " Budg १ माचर्य (श्री०) पृ० १०६ २ - वही पृ० १०२ जिस तरह संगीत में मूच्चित रागातुर हरिण बीधा जाकर मकान में ३- वही पृ० ६ ४ - वही पृ० ४१ ५- वही पृ० १०६-७ : -7.83 4173 - Scanned by CamScanner Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ५६ भगवान महावीर ने कहा है इन्द्रियों और मन के विषय (शब्दादि) रागी मनुष्य को ही दु:ख के हेतु होते हैं। ये ही विषय वीतराग को कदाचित् किंचित् मात्र भी दुःख नहीं पहुंचा सकते। शब्द, रूपा गंध, रस, स्पर्श और भाव-इन विषयों से विरक्त पुरुष . शोक रहित होता है। .....कामभोग-शब्दादि समभाव के हेतु नहीं हैं और न विकार के हेतु हैं। किन्तु जो उनमें परिग्रह-राग अथवा द्वेष करता है, वही मोह-राग-द्वेष के कारण विकार उत्पन्न करता है । जो इन्द्रियों के शब्दादि विषयों से विरक्त है, उसके लिए ये सब विषय मनोज्ञता या अमनोज्ञता का भाव पैदा नहीं करते । जो वीतराग है वह सर्व तरह से कृतकृत्य है..." 20 1 3 । स्वामीजी ने इसके मर्म का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है "इन्द्रियों के विकार राग-द्वेष हैं। वे इन्द्रियों और उनके गुणों से अलग हैं। .. इन्द्रियाँ शब्दादि सुनती-देखती आदि हैं । राग होने पर शब्दादिक प्रिय लगते हैं । शब्दादिक को यथातथ्य जानने-देखने से पाप नहीं लगता। पाप तो राग-द्वेष पाने से लगता है. । राग-द्वेष ही विषय-विकार हैं। राग और द्वेष के क्षय होने से वीतराग-गुण की प्राप्ति होती है।" इसी बात को स्वामीजी ने दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा है : .... "पांचों इन्द्रियाँ और राग-द्वेष के स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं । इन्द्रियों के स्वभाव में दोष नहीं। कषाय और राग-द्वेष के परिणाम बुरे हैं। शब्दादिक काम और भोग हैं; वे समभाव के हेतु नहीं और न वे असमभाव के हेतु हैं । इनसे विकार की उत्पत्ति नहीं होती । शब्दादिक कामभोगों पर राग-द्वेष लाना ही विकार, विषय और कषाय हैं।" .. "काम-भोग अनर्थ के मूल नहीं हैं। उनमें गृद्धि भाव अनर्थ का मूल है। इसी तरह इन्द्रियाँ भी शत्रु नहीं हैं । शत्रु तो शब्दादिक से रागद्वेष के परिणाम हैं। यदि इन्द्रियाँ ही पाप की हेतु हों तब तो वे घंटें वसा उपाय करना ही धर्म हुआ। पादरी लोग ब्रह्मचारी रहने के लिए अपनी इन्द्रिय को काट लेते थे। इस पर टोका करते हुए टॉल्स्टॉय ने लिखा है : नारी 2. "खासकर अपनी तथा दूसरों की इन्द्रियों को काटना तो सच्ची ईसाइयत के साफ़-साफ़ विपरीत है । ईसा ने ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश ११-उत्त० ३२ : १००,४७,१०१, १०६, १०८ २-भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खगडः १): इन्द्रियवादी री चौपई ढाल १३:४१-४२.. .. ! इंदरयां रा विकार राग धेष छे, ते इंदरयां रा गुण थी न्यारा रे। R EET इंदरयां तो शब्दादिक सुणे देखले, शब्दादिक राग सूं लागे प्यारा रे ॥ शब्दादिक जथातथ जाण्यां देषीयां, पाप न लागे लिंगारो रे। mistan . पाप लागे छे राग धेष आणियां, राग धेप छे विषय विकारो रे ॥ Di g in . ........ ३-वही ढाल १२.३७-३६ : पांचं इंदरयां ने राग धेष रो रे, सभाव जूओरछे ताम रे। इंदरयां रा सभाव मांहें अवगुण नहीं रे, काय तणा खोटा परिणाम रे ॥ ma ri 17. काम में भोग शब्दादिक तेह थी रे, समता नहीं पामें जीव लिगार रे। ... असमता पिण नहीं पामें छे एहथी रे, याँ सू मूल न पामें जीव विकार रें। जो राग ने धेष आणे त्यां ऊपर रे, ते हिज विकार विषय कपाय रे । T ian and ते कह्यो छे उत्तराधेन बत्तीस में रे, सो उपरली पहली गाथा माय रे | niratiotheraic ... वही ढाल १४:३७REATE R I. T EE .... काम में भोग अनर्थ रा मूल नाही, त्यां सं प्रिध पणे अनर्थ रो मूल जाणो। RE E T ज्यं इंदरयां पिण सत्र छ नाही, सत्र तो शब्दादिक सं राग पिछांगो ॥ icati o n mind डाल दो जो इंद्रयां सावध हुवे, तो इन्द्री घटे ते करणो उपाय । जे इन्द्रयां ने सावद्य कहे, तिणरी सरधा रो ओहीज न्याय ॥ Scanned by CamScanner Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ दिया है पर यथार्थतः उसी ब्रह्मचर्य का सच्चा मूल्य और महत्व है, जिसका अन्य सद्गुणों की भाँति श्रद्धापूर्वक हर संकल्प से विकारों के साथ युद्ध करने के लिए पालन किया जाता है। उस संयम का महत्व ही गया, जहाँ पार की सम्भावना ही नहीं यह तो वही बात हुई कि कोई मनुष्य अधिक खाने के प्रलोभन से बचने के लिए किसी ऐसी दवा को से जिससे उसकी भूल ही कम हो जाय, या कोई युद्धप्रिय आदमी अपने को लड़ाई में भाग लेने से बचाने के लिए अपने हाथ पैर बंधवा ले; श्रथवा गाली देने की बुरी प्रादतवाला अपनी जबान को ही इस खयाल से काट डालें कि उसके मुंह से गाली निकलने ही न पावे । परमात्मा ने मनुष्य को ठीक वैसा ही पैदा किया है जैसे कि वह यथार्थ में हैं। उसने उसकी मरणाधीन काया में प्राणों को इसलिए प्रतिष्ठित किया है कि वह शारीरिक विकारों को अपने अधीन कर के रखे। यही संघर्ष तो मानव-जीवन का रहस्य है। यह शरीर उसे इसलिए नहीं मिला है कि ईश्वरप्रदत कार्य के लिए स्वयं को या दूसरे को विकलांग बना दे। "मनुष्य पूर्ण बनने के लिए बनाया गया है। "ऐ मनुष्य, अपने स्वगथ पिता के समान पूर्ण बन ।" इस पूर्णता को प्राप्त करने की कुंजी ब्रह्मचर्य है। केवल शारीरिक ब्रह्मचर्य नहीं, बल्कि मानसिक भी विषय-वासना का सम्पूर्ण प्रभाव । - - धर्माचरण कल्याणप्रद होता है (ईसा ने कहा है मेरा जुम्रा और बोझ हलका है) और हर प्रकार की हिंसा की निन्दा करता है। यदि वह श्राघात या कष्ट दूसरे को पहुँचाता हो, तब तो पाप ही है। पर खुद अपने ऊपर भी ऐसा अत्याचार करना नियमों का भङ्ग करना है। " विवाहित जीवन में भी ईसा ने संयम पर ज्यादा से ज्यादा जोर दिया है। मनुष्य के केवल एक ही पत्नी होनी चाहिए। इस पर शिष्यों ने शंका की (पद्य १०) कि यह संयम तो बड़ा मुश्किल है; एक ही पत्नी से काम चलना तो नितान्त कठिन है। इस पर ईसा ने कहा कि यद्यपि मनुष्य जन्मजात अथवा मनुष्यों के द्वारा बनाये गये नपुंसक पुरुष की भाँति विषय-भोग से अलग नहीं रह सकते, तथापि कई ऐसे लोग हैं जिन्होंने उस स्वर्गराज्य की अभिलाषा से अपने को नपुंसक बना लिया है, अर्थात् आत्मबल से विकारों को जीत लिया धर्म है कि वह इनका अनुकरण करे। 'स्वर्गीय राज्य की अभिलाषा से अपने को नपुंसक बना लिया ।' इन शब्दों का अर्थ की विजय करना' होना चाहिए न कि जननेन्द्रिय को मिटा देना ? है "केवल श्रात्मा ही जीवन देनेवाली है । ऐच्छिक रूप से या जबरन मनुष्य को विकलांग कर देना धर्म की आत्मा के बिल्कुल विपरीत और प्रत्येक मनुष्य का 'शरीर पर श्रात्मा है। " वासना शरीर का धर्म तो है नहीं। यह तो एक मानसिक वस्तु है। वैषयिकता से बचने के लिए विचार-शुद्धि परमावश्यक है । प्रलोभनों के सामने धाने पर जो विकारोद्भव होता है, धन्तर्युद्ध ही उसका उपाय है। 2112 इन्द्रिय-विनाश करना तो उसी सिपाही का सा काम है, जो कहता है कि मैं लड़ाई पर जाऊंगा, पर सभी जब मुझे आप यकीन दिला दो कि निश्चय ही मेरी विजय होगी। ऐसा सिपाही सच्चे शत्रुम्रों से तो दूर ही दूर भागेगा, पर काल्पनिक शत्रुओंों से अलबत्ता लड़ेगा । वह कभी युद्ध कला सीख ही नहीं सकता। उसकी पराजय ही होगी ।" 15 शाताधर्मकथासूत्र में इन्द्रियों की स्वच्छन्दता और शब्दादिक विषयों में बासति के दुष्परिणाम बतलानेवाली दो कयाएं उपलब्ध है। पहली कथा कछुए की है । एक दिन सूर्यास्त हुए काफी समय हो चुका था। संध्या की वेला बीत चुकी थी, मनुष्यों का आवागमन बन्द हो चुका था, उस समय दो से बाहर निकल मांगतीर ग्रह के पास-पास माजीविका के लिए फिरने लगे। उस समय दो पापी सियार आहार के लिए वहाँ आये। सियारों को देख कछुनों ने अपने हाथ, पांव, ग्रीवा प्रादिश्रङ्गों को अपने शरीर में छिपा लिया और निश्चल, निस्पंद और चुपचाप हो स्थिर हो गये । सियार समीप पहुँच कछुओंों को चारों ओर से देखने लगे। उन्हें नखों से नोचने और दांतों से काटने की चेष्टा की पर उनके शरीर को जरा भी क्षति नहीं पहुँचा सके । चमड़ी छेदन करने में असमर्थ रहे। सियारों ने एक चाल चली। वे एकांत में जा निश्चल, निस्पंद हो ताक लगाने लगे। एक कछुए ने सोचा - सियारों को गये बहुत देर हो गई। वे बहुत दूर चले गये होंगे। उसने चारों श्रोर नजर डाले बिना ही अपना एक पैर बाहर निकाल दिया। सियार यह देख कर तेजी से पा नलों से उसके पैर को विदण कर दांतों से काट, मांस खा शोणित पिया। इसी तरह सियारों ने क्रमशः उसके अन्य पैर और अन्य में ग्रीवा को खा डाला। दूसरा कछुवा स्पिन्द पड़ा रहा। जब सियारों को गये बहुत देर हो गई तो उसने धीरे-धीरे अपनी प्रीवा बाहर निकाली सर्व दिशाओं का अच्छी तरह अवलोकन किया। सियारों को कहीं 1 प्रि १- स्त्री और पुरुष पृ० ५५-५६ से संक्षिप्त २- स्त्री और पुरुष पृ० ३६-४० Scanned by CamScanner Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ भूमिका न देख चारों पर एक साथ बाहर निकाल अत्यन्त तेज गति से दौड़ता हुआ वह मयंगतीर द्रह के समीप पहुँच उसमें प्रविष्ट हो सम्बन्धियों के साथ मिल कर सुखी हुप्रा । इस कथा का उपनय यह है कि जो ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखता, विषयार्थी और प्रमादी होता है, वह गुप्तेन्द्रियविषयी कछुए की तरह प्रात्मार्थ से पतित हो दुःखित होता है । जो मुमुक्षु गुप्तेन्द्रिय होता है तथा अप्रमादी कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है और विषयों को पास में नहीं फटकने देता, वह आत्मार्थ को साथ कर सुखी होता है ? । इसकी तुलना गीता के निम्न श्लोक में है : यदा संहरते चायं कर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । -इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्तस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ २५८ 1 दूसरी कथा अश्व की है । हत्यिसीस नामक नगर में अनेक धनाढ्य वणिक रहते थे। एक बार वे सामुद्रिक यात्रा कर लौटें, तब उन्होंने वहाँ के राजा कनककेतु को बहुमूल्य भेंट उपहार में दी । राजाने प्रसन्नता पूर्वक भेंट स्वीकार कर पूछा - "इस बार की यात्रा में तुम लोगों ने कौन सो पाश्चर्य की वस्तु देखी, उसे मुझे बताओ वणिकों ने कहा- कालिकद्वीप में हमलोगों ने अनेक रङ्ग-विरंगे सुन्दर जाति के पोड़े देखे। हमारे शरीर की गंध पा वे घबरा उठे और दौड़ लगा अनेक योजन दूर ऐसे स्थान में चले गये जहाँ विस्तृत मैदान, प्रचुर तृण और पेट भर पीने को जल था। वहाँ वे निर्भय, उद्वेगरहित और सुखपूर्वक विचरने लगे । राजा ने अनेक भृत्य साथ में किये। घोड़ों को लुभाने की नानाविध सामग्रियाँ दीं । तथा वणिकों को वापिस जा घोड़े लाने की प्राज्ञा दी । कालिकद्वीप पहुँच उन्होंने जहाँ-जहाँ घोड़े बैठते, सोया करते, ठहरते या लेटा करते वहाँ-वहाँ सर्वत्र शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में उत्कृष्ट भोग-सामग्रियों को धर दिया और निश्चल और निःशब्द हो छिप कर घोड़ों को पकड़ने का प्रयत्न करने लगे । घोड़े सदा की तरह वहाँ प्राये । इन अपूर्व भोग सामग्रियों को देख कर भी कई घोड़े उनसे मोहित और आकृष्ट नहीं हुए वे उडिझ भयभीत हो, वहाँ से दूर दौड़ गये। जो मुन्ध हुए वे वहीं रह गए। वे वीणा यादि वाद्य यन्त्रों के मधुर शब्दों से मोहित हो सुन्दर, सुसज्जित, स्वादिष्ट और सुस्पर्शवाली वस्तुओं को भोगने में तल्लीन हो गये। इस तरह निशंक हो विचरने लगे । व्यापारियों ने उनके गले और पैरों में रस्सियां डाल उन्हें गाढ़ बन्धन में बांध लिया और वापिस श्रा राजा को श्रश्व सौंपे। राजा ने उन्हें अश्व मर्दकों को सौंपा। • अश्व मर्दकों ने अनेक प्रयोग और उपायों से उन घोड़ों को सुशिक्षित किया। अब वे सवारी के काम में आने लगे । . इस कथा का उपनय है जो ब्रह्मचारी शब्द (गीत- गान), रूप (स्त्री प्रादि के सौन्दर्य), रस (खट्टे-मीठे आदि पांच प्रकार के स्वाद - सरस आहार), गंध (सुगन्धित द्रव्य) और स्पर्श ( शय्या, स्त्री आदि के सुकोमल स्पर्श) इन पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषय में राग नहीं करते, मूच्छित नहीं होते हैं, वे अन्त में मोक्ष प्राप्त करते हैं। जन्म, मरण, जरा आदि व्याधियों से मुक्ति प्राप्त करते हैं। जो ब्रह्मचारी शब्द, रूपादि विषयों में राग, मूर्च्छा करते हैं, गृद्ध होते हैं और विषयों में स्वच्छंद विचरते हैं, वे भ्रष्ट हो पापों के शिकार होते हैं । अब्रह्म महात्मा गांधी ने कहा है जो ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहते है ये विषय भोग में दुःख ही दुःख है, इसे सदा स्मरण रखें " उमास्वाति ने दो सूत्र दिए हैं। पहला सूत्र है "हिंसादिविहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ४" साधक को हिंसा, मृषा, प्रदत्त और परिग्रह में, इस लोक और परलोक में निरन्तर सवाय और प्रवद्य का दर्शन-चिन्तन करना चाहिए। अपाय का पर्व है-प्रभ्युदय धौर निःश्रेयस की साधक क्रिया के विनाश का प्रयोग और अवध का पर्व है ग सामक हमेशा यह भावना रखें कि अझ अभ्युदय और निःस इन दोनों अर्थी के विनाश का हेतु है और इसलिए गह्य' है। वह सोचे : "श्रब्रह्मचारी विभ्रम को प्राप्त हो उद्भ्रान्त चित्त बन जाता है। उसकी इन्द्रियाँ बेलगाम होती है। वह मदांध हाथी की तरह निरखुश हो जाता है। वह मोह से अभिभूत हो कर्तव्य-प्रकर्तव्य का भान भूल जाता है। ऐसा कोई बुरा काम नहीं, जो वह न कर बेडे । लम्पट को इस लोक में वैरानुबन्ध, वध आदि क्लेश प्राप्त होते हैं। परलोक में दुर्गति होती है५ ” । १ - ज्ञाताधर्मकथा अ० ४ देखिए; लेखक की 'दृष्टान्त और धर्मकथाएँ' नामक पुस्तक पृ० २६-२६ २ - ज्ञाताधर्मकथा अ० १७ देखिए; लेखक की 'दृष्टान्त और धर्म कथाएँ' नामक पुस्तक पृ० ८७-६२ ३ - ब्रह्मचर्य (श्री) पृ० ३३ ४ — तत्त्वार्थसून ७.४ ५-बही भाष्य Scanned by CamScanner Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नकावाड़ . .. . । उनका दूसरा सूत्र है : "दुःखमेव वा हिंसा यावत् परिग्रह में दुःख ही है। साधक सोचे! स्पर्शन-इन्द्रिय जत्य सुखरूप मालूम होने पर भी वास्तव में मैथुन राग-द्वेष रूप होने से दुःखरूप ही है। अब म व्याधि का प्रतिकार मात्र है। जिस प्रकार कोई दाद या खाज का रोगी खुजाते समय सुख का अनुभव करता है परन्तुं वह सुख नहीं सुखाभास है उसी तरह मैथुन की बात है।": : :: : उमास्वाति कहते हैं कि ऐसी भावनाएं रखने से ब्रह्मचारी, ब्रह्मचर्य में स्थर्य को प्राप्त करता है-"इत्येवं भावयतो व्रतिनो बृते स्थैयं भवति।" महावीर कहते हैं-“काम शल्य रूप है, काम विषरूप है, काम-दृष्टि विष की तरह है । कामों की प्रार्थना करते-करते प्राणी उनको प्राप्त किए बिना ही दुर्गति को जाते हैं।" "काम-भोगक्षण मात्र ऐन्द्रिय-सुख देनेवाले हैं और बहुकाल दुःख देनेवाले । उनमें सुख तो अणु मात्र है और दुःख का ठिकाना नहीं५ ।" "काम-भोग अनर्थ की खान हैं। देवताओं से लेकर सारे लोक को जो भी कायिक या मानसिक दुःख हैं, वे कामासक्ति से उत्पन्न हैं। काम-भोगों में वीतराग पुरुष सर्व दुःखों का अन्त करता है।" "जिस तरह किम्पाक फल खाते समय रस और वर्ण में मनोरम होने पर भी पचने पर जीवन का अन्त करते हैं, उसी तरह से भोगने में मनोहर काम-भोग विपाक काल में फल देने की अवस्था में अधोगति के कारण होते हैं।" "काम-भोग संसार को बढ़ानेवाले हैं। गृद्ध पक्षी के दृष्टान्त को जान कर विवेकी पुरुष, गरुड़ के समीप सर्प की तरह काम-भोगों से सशंकित रहता हा डर-डर कर चले .... महात्मा गांधी लिखते हैं N . .: "विकार उत्पन्न न हो और इन्द्रिय न चले. इसके लिए तात्कालिक उपाय मांगना यह बंध्यापुत्र के इच्छा करने के सदृश है। यह काम बहुत धीरज से होता है। एकान्त सेवन, सत-संग-शोधन, सत्कीर्तन, सत्वाचन, निरंतर शरीरमंथन, अल्पाहार, फलाहार, अल्प निद्रा, भोगविलास-त्याग-इतना जो कर सकता है, उसे मनोराज्य हस्तामलक की तरह प्राप्त होता है । जब-जब मनोविकार हो तब-तब उपवासादिक व्रतों का पालन करना चाहिए .. . TE 2 महावीर कहते हैं - "ये काम-भोग सरलता से पिण्ड नहीं छोड़ते। अधीर पुरुषों से तो वे सुगमता से छोड़े ही नहीं जा सकते। सुव्रती साधु इन दुस्तर भोगों को उसी तरह पार कर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को." "एकान्त शय्यासन के सेवी, अल्पाहारी और जितेन्द्रिय पुरुष के चित्त को विषयरूपी शत्रु पराभव नहीं कर सकता। प्रौषध से जैसे व्याधि पराजित हो जाती है, वैसे ही इन नियमों के पालने से विषय रूपी शत्रु पराजित हो जाता है.. . . ...) महात्मा गांधी लिखते हैं: ब्रह्मचारी को भोग-विलास के प्रसंग मात्र का त्याग कर देना चाहिए। उनकी ओर मन में अरुचि उत्पन्न करनी चाहिए। इसलिए कि अरुचि या विराग के बिना त्याग केवल ऊपरी त्याग होगा और इस कारण टिक न सकेगा। भोग-विलास किसे कहें, यह बताने की जरूरत नहीं। जिस-जिस चीज से विकार उत्पन्न हों; वे सभी त्याज्य हैं।" महावीर ने कहा है : "ब्रह्मचारी दुर्जय काम-भोगों का सदा परित्याग करें तथा ब्रह्मचर्य के लिए जो शंका-विघ्न के स्थान हों, उन्हें एकाग्र मन से वर्जन करे-टाले ३" CRETED १-'तत्त्वाथसूत्र ७.५ भाष्य ४. उत्तराध्ययन ६.५३ . i n a niy ६-उत्त० ३२.१६ ७-उत्त० ३२.२० ८-उत्त० १५.१७ F_बहाचर्य (श्री)000 १०-उत्त० ८.६ ११-उत्त० ३२.१२ १२--ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० १३ १३- उत्त० १६.श्लो०१४ Scanned by CamScanner Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जी Amirk१९-बांडों के पीछे धिongी ? " ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए जो दस उपाय बतलाये गये हैं, उनके पीछे अनेक दृष्टियाँ हैं। उनका स्पष्टीकरण नीचे किया जाता है। .......(१) स्त्रियों के साथ एक घर में वास; मनोहारी स्त्री-कथा ; स्त्री-संस्तव (स्त्री-संग और परिचय), स्त्रियों की इन्द्रियों पर दृष्टि स्त्रियों के कूजन, रूदन, हास्यादि के शब्दों का सुनना; रसपूर्ण खान-पान ; अति प्राहार: गात्र-विभूषा पूर्व क्रीड़ाओं का स्मरणः और काम भोगों का सेवन-ये सब आत्मगवेपी ब्रह्मचारी के लिए तालपुट विष की तरह है। ब्रह्मचर्य की इन अगप्तियों से शान्ति का भेद, शान्ति का भङ्ग होता है। (२)जो स्त्री-संसक्त मकान में वास न करना आदि उपर्युक्त समाधि-स्थानों के प्रति असावधान रहता है, उसे धीरे-धीरे अपने व्रत में शंका होनी उत्पन्न होती है, फिर विषय-भोगों की प्राकक्षिा-कामना. उत्पन्न होती है और फिर ब्रह्मचर्य की आवश्यकता है या नहीं ऐसी विचिकित्सा-विकल्प उत्पन्न होता है । इस प्रकार ब्रह्मचर्य का नाश हो जाता है, उसके उन्माद और दूसरे बड़े रोग हो जाते हैं और अन्त में चित्त की समाधि भङ्ग होने से वह केवली-भाषित धर्म से भ्रष्ट-पतित हो जाता है। (३) स्त्री-संसक्त मकान में वास न करना आदि उपर्युक्त दसविध उपायों के पालन करने से संयम और संवर में दृढ़ता होती है। चित्त की चंचलता दूर होकर उसमें स्थिरता पाती है। मन, वचन, काय तथा इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होकर अप्रमत्त भाव से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती S (४) स्त्रियों के साथ वास न करना; उनकी संगति, स्पर्श, सह-पासनादि न करना प्रादि सभी नियम ब्रह्मचारी के उत्तम शिष्टाचार हैं। ये नियम उसकी शोभा को बढ़ाते हैं। इन नियमों का प्रभाव शिष्ट-व्यवहार की कमी का सूचक है। (५) ये नियम ब्रह्मचारी के प्रति किसी प्रकार की शङ्का अथवा लोक-निन्दा को उत्पन्न नहीं होने देते। उसके विश्वास को नहीं उठने देते। (६) ब्रह्मचारी के पास आनेवाली स्त्रियों के प्रति शङ्का उत्पन्न नहीं होने देते। उनकी आबरू की रक्षा करते हैं। इस तरह वातावरण स्वच्छ एवं शुद्ध रहता है। :37(७) ये भ्रष्टाचार को सहज ही पनपने नहीं देते। और न अशुद्ध लोक-व्यवहार का आदर्श उपस्थित होने देते हैं। महात्मा गांधी ने अपने जीवन की एक घटना का वर्णन इस प्रकार किया है-"मैं सावधान अधिक था। पूजनीया माताजी की दिलाई हुई प्रतिज्ञा रूपी ढाल मेरे पास थी। विलायत की बात है । मैं जवान था। दो मित्र एक घर में रहते थे। थोड़े ही दिन के लिए वे एक गांव में गये। मकान मालकिन आधी वेश्या थी। उसके साथ हम दोनों ताश खेलने लगे। विलायत में मां बेटा भी निर्दोष भाव से ताश खेल सकते हैं, खेलते ही हैं। मुझे तो पता भी नहीं था कि मकान मालकिन अपना शरीर बेचकर अपनी जीविका चलाती है। ज्यों-ज्यों खेल जमने लगा त्यों-त्यों रंग भी बदलने लगा। उस.बाई ने विषय-चेष्टा प्रारंभ कर दी।..."मित्र मर्यादा छोड़ चुके थे। मैं ललचाया। मेरा चेहरा तमतमा गया। उसमें व्यभिचार का भार भर गया। मै अधीर हो गया। मेरे मित्र ने मेरा रंग-ढंग देखा। "मित्र ने देखा कि मेरी बुद्धि बिगड़ गई है। उन्होंने देखा कि यदि इस रंगत में रात अधिक जायगी तो मैं भी उनकी तरह पतित हुये बिना न रहूँगा......राम ने उनके द्वारा मेरी सहायता की। उन्होंने प्रेम-बाण छोड़ते हुए कहा-'मौनिया ! मौनिया ! होशियार रहना !......अपनी मां के सामने की हुई, प्रतिज्ञा याद करो।"....."मैं उठ खड़ा हुआ। अपना विस्तरा संभाला । सबेरे में जगा । राम-नाम का प्रारम्भ हुआ। मन में कहने लगा, कौन बचा, किसने बचाया, धन्य प्रतिज्ञा, धन्य माता, धन्य मित्र । धन्य राम ! मेरे लिए तो यह चमत्कार ही था ।......अपने जीवन का सब से भयङ्कर समय में इस प्रसंग को मानता हूँ। स्वच्छन्दता का प्रयोग करते हुए मैंने संयम सीखा । राम को भूलाते हुए मुझे राम के महात्मा गांधी टहलते समय बहिनों के कंधे का सहारा लेते । आलोचना हुई—“लोक-स्वीकृत सभ्यता के विचार को चोट पहुंचती है।" १-उत्तराध्ययन १६.११-१३ -आचाराङ्ग २.१५ चौथे महाव्रत की भावना -उत्तराध्ययन : १६.१-१० ४--वही १६.१ ५-संयम-शिक्षा पृ० २२-२५ Scanned by CamScanner Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बार "यह मादत दूसरों के लिए उदाहरण बन गयी तो.।" महात्मा गांधी ने लोक-संग्रह की दृष्टि से उसका तात्कालिक त्याग किया। महात्मा गांधी ने नोपाखाली के यज्ञ के समय एक प्रयोग प्रारंभ किया। वे रिस्ते में अपनी पौत्री और धर्मपुत्री मनु वहन को शाम से अपनी शय्या में सुलाते। ... साने, जिन्होंने उनकी अनुपस्थिति महा "इस बात के लिए मुझे अपने प्रिय - इससे बड़ी हलचल मची। उनके दो साथियों ने, जिन्होंने उनकी अनुपस्थिति में हरिजन के सम्पादन-कार्ग का जिम्मा अपन पर लिया था, इसके प्रतिवाद मौर मसहयोग के रूप में इश्तिफा दे दिया। महात्माजी ने मा० कृपलानी को लिखा-"इस बात के लिए मुझे अपने प्रिय साथियों का मूल्य चुकाना पड़ा है।" .. प्राचार्य कृपलानी ने महात्मा गांधी के प्रति पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करते हुए उत्तर में दो मुर्द रखे---कभी मैं सोचता हूं-कहीं आप मनयों का उपयोग साध्य के बतौर न कर साधन के बतौर तो नहीं करते।..."मुझे पाश्चर्य हुमा-कहीं प्राप गीता के लोक-संग्रह के सिद्धान्त को तो भङ्ग नहीं कर रहे हैं५.....?" मित्रों ने तर्क किया-"आप महात्मा हैं, पर दूसरे पक्ष के बारे में क्या कहा जाय।" महात्मा गान्धी ने एक दिन के प्रवचन में कहा-"मैं जानता हूं कि मुझको लेकर कानाफूसी और गुपशुप चल रही है। मै इतने सन्दे पौर अविश्वास के बीच में हं कि अपने अत्यन्त निर्दोष कार्यों के बारे में कोई गल्तफहमी और उल्टा प्रचार होने देना नहीं चाहता।" • दूसरे दिन के भाषण में उन्होंने चेतावनी दी-"मैंने अपने प्रतरङ्ग जीवन के बारे में कहा है वह अन्धानुकरण के लिए नहीं है। मैं जो चाहता हूं वह सब कर सकते हैं, वशतें वे उन शर्तों को पालें जिनका मैं पालन करता हूं। अगर ऐसा नहीं करते हुए मेरी बात का अनुसरण करने का बहाना करेंगे तो वे ठोकर खाये बिना नहीं रहेंगे।" ठक्कर बप्पा का भी प्रश्न रहा–'यदि आपके उदाहरण का अनुसरण किया गया तो ?" यह बात अनेकों के अन्त तक गले नहीं उतरी। इन थोड़ी-सी घटनाओं से प्रकट हो जाता है कि समाधि-स्थानों की उपेक्षा से कैसे धर्म-संकट उपस्थित हो जाते हैं। बाहर में कैसा शंका-शील वातावरण बन जाता है । और किस तरह की बुरी धारणायें महात्मा ही नहीं पर महासती के विषय में भी प्रचारित हो जाती हैं। ___ इस तरह ब्रह्मचर्य के समाधि-स्थान अथवा बाड़ों की नींव कमजोर नहीं है । उनका आधार गहरा अनुभव और मानव-स्वभाव का गंभीर विश्लेषण है। यह सत्य है कि ब्रह्मचारी वह है जो किसी भी परिस्थिति में भी विचलित न हो । पर यह भी सत्य है कि बाड़ों की अपेक्षा करने से जो स्थिति बनती है उसका भी निवारण नहीं हो सकता। कदाश परिणाम अडिग न रहने पायें तो 'हुवें वरत पिण फोक' । यदि यह न भी हो तो भी शंका में लोक', 'पा प्रछतो पाल सिर', को कौन रोक सकता है ? यह भी निश्चित है कि जो बाड़ों को नहीं लोपता उसका व्रत अभङ्ग रहता है क्योंकि बाड़ें केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक शुद्धता पर भी जोर देती हैं। इसीलिए स्वामीजी ने कहा है ... "बाड़ न लोपें तेहन रहें वरत अभंग । ते वेरागी विरकत थका, ते दिन दिन चढते रंग ॥" इस तरह यह स्पष्ट है कि बाड़ों के पालन से संसर्ग और संस्पर्श के अवसर ही नहीं आ पाते। मन विकार-प्रस्त होने से बच जाता है। अपनी सुरक्षा होती है। अपने द्वारा दूसरे का पतन नहीं हो पाता । अपने कारण किसी के प्रति शङ्का का वातावरण नहीं बनता। लोक-व्यवहार अथवा सभ्यता को धक्का नहीं पहुंचता। दूसरों का अन्धानुकरण करने का बल नहीं मिलता। ब्रह्मचर्य का सुगमतापूर्वक पालन होता है। .. . " हम MER E ...१–ब्रह्मचर्य (प. भा.) पृ०६७ २-यापू की छाया में पृ० २०२ _Mahatma GandhiThe Last Phase p. 598 ४-वही पृ० ५८१ . ५–वही पृ० ५८२ ६-वही पृ०५८३ -वही पृ० ५८० ८-वही पृ०५८१ ६ वही पृ० ५८६ Scanned by CamScanner Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका बीसवीं सदी में हिंसा और ब्रह्मचर्य के इन दो के ही नाम सर्वोपरि रखे जा सकते हैं। प्रदान की। महात्मा गांधी धौर संत टॉल्स्टॉय के चिन्तन में न केवल वैचारिक एकता ही है. पर धावकारी शाब्दिक साम्य भी देखा जाता है। यह एक स्वतंत्र लेख का विषय है, इसलिए हम उसमें नहीं जायेंगे। यहाँ इतना ही लिख देना पर्याप्त है कि महात्मा गांधी के विचारों को संत टॉल्स्टॉय के विचारों से प्रचुर खाद्य प्राप्त हुआ है। कहा जा सकता है कि संत टॉल्स्टॉय के विचार महात्मा गांधी की चिन्तनधारा की भव्य नींव है । महात्मा गांधी और संत टॉल्स्टॉय दोनों का ही धाग्रह सत्य, पहिया धीर ब्रह्मचर्य के लिए रहा। दोनों ही इन्हें जीवन के पा अंग मानते रहे। २०- पूर्ण ब्रह्मचारी की कसौटी विषय में गंभीर और विशद विचार करनेवाले चिंतकों में संत टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधीइन विषयों में इन महापुरुषों ने महान वैचारिक क्रांति उत्पन्न की धौर मानव को दिव्य दृष्टि : महात्मा गांधी ने एकबार कहा था महात्मापन कौड़ी काम का नहीं यह तो मेरी बाह्य प्रवृत्तियों, मेरे राजनीतिक कामों का प्रसाद है, जो मेरे जीवन का सब से छोटा अंग है, फलतः चंदरोजा चीज है। जो वस्तु स्थायी मूल्यवाली है वह है मेरा सत्य, अहिंसा और ब्रह्मचर्य का यही मेरे जीवन का सच्चा चंग है। बड़ी मेरा सर्वस्व है " दूसरी बार उन्होंने कहा में...... एक ब्रह्मचर्य है। दुनिया मामूली चीजों की तरफ दौड़ती है। शाश्वत चीजों के लिए उसके पास समय ही नहीं रहता। तो भी हम विचार करे तो देखने कि दुनिया शाश्वत चीजों पर हो निमती है" " जीवन के सात भागों शाश्वत महात्मा गान्धी ने ब्रह्मचर्य के विषय को लेकर अनेक प्रयोग किये थे, जिनका जिक्र कुछ बाद में ही किया जानेवाला है। इन प्रयोगों की भीत्ति को सरलता से समझा जा सके, इसलिए महात्मा गान्धी ने ब्रह्मचर्य की क्या परिभाषा दी और वे उसके कितने नजदीक पहुँच सके, यह जान लेना आवश्यक है। यह भी जान लेना आवश्यक है कि जैन दृष्टि से ये पूर्ण ब्रह्मचर्य के कितने नजदीक अथवा दूरं कहे जा सकते हैं। सन् १९२० में ब्रह्मचर्य का अर्थ बतलाते हुए महात्मा गान्धी ने लिखा "ब्रह्मचर्य का पर्व उसके अंग्रेजी पर्याय 'सेलिवेसी (विवाह-प्रत से अधिक व्यापक है । ब्रह्मचर्य के मानी है सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार ..... घाध्यात्मिक पूर्णता की प्राप्ति के लिए मन, वाणी और कर्म सब में पूर्ण संयम का पालन श्रावश्यक है ।" : बाद (१९२४, २५ में) ब्रह्मचर्य के अर्थ पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने तिला "ब्रह्मचर्य का लौकिक अथवा प्रचलित अर्थ तो मन, वचन धीर काय से विषयेन्द्रिय का संयम माना जाता है। उसकी विस्तृत व्याख्या सब इन्द्रियों का संयम है५ ।" इसके ग्यारह वर्ष बाद ( सन् १९३६ में ) उन्होंने लिखा : " ब्रह्मचर्य का मूलार्थ इस प्रकार बताया जा सकता है- वह श्राचरण जिससे कोई व्यक्ति ब्रह्म या परमात्मा के सम्पर्क में आता है । इस आचरण में सब इन्द्रियों का संपूर्ण संयम शामिल है। इस शब्द का यही सच्चा और सुसंगत अर्थ है । "वैसे आमतौर पर इसका अर्थ सिर्फ जननेन्द्रिय या शारीरिक संयम ही लगाया जाने लगा है। इस संकीर्ण अर्थ ने ब्रह्मचर्य को हल्का करके उसके प्राचरण को प्रायः बिल्कुल असंभव कर दिया है। जननेन्द्रिय पर तब तक संयम नहीं हो सकता जबतक कि सभी इन्द्रियों का उपयुक्त संयम न हो, क्योंकि वे सब अन्योन्याश्रित हैं। मन भी इन्द्रियों में ही शामिल है। जब तक मन पर संयम न हो, खाली शारीरिक संयम चाहे कुछ समय के लिए पास भी हो जाय, पर उससे कुछ हो नहीं सकता।" १- अनीति की राह पर पृ० ६६. २ – ब्रह्मचर्य (दू० भा०) १० ५३ ३- अनीति की राह पर पृ० ५० ४ - वही पृ० ५८ ५यही पृ० ६१ ६-महाचर्य (० भा०) पृ० ११ Scanned by CamScanner Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड़. सन् १९३६ के उपयुक्त विश्लेषण में उन्होंने वही बात कही है जो १९२६ में चुम्बकरूप में इस प्रकार कही थी : ''ब्रह्मचर्य का अर्थ शारीरिक संयम-मात्र नहीं है, बल्कि उसका अर्थ है-सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन-वचन-कर्म से काम-वासना का त्याग'।" अंत में (सन् १९४७) में भी उन्होंने ब्रह्मचर्य की यही परिभाषा दी : "जो हमें ब्रह्म की तरफ ले जाय, वह ब्रह्मचर्य है। इसमें जननेन्द्रिय का संयम पा जाता है। वह संयम मन, वाणी और कर्म से होना चाहिए।" . इस तरह महात्मा गांधी का आदि, मध्य और अन्तिम चिन्तन एक ही रूप में बहता रहा। उन्होंने ग्राजीवन ऐसे ब्रह्मचर्य को ही प्रात्मसाक्षात्कार या ब्रह्म-प्राप्ति का सीधा और सच्चा रास्ता माना। - ब्रह्मचर्य की इस परिभाषा की कसौटी पर ही वे कहते रहे : (१) पुरुष स्त्री का, स्त्री पुरुष का भोग न करे, यही ब्रह्मचर्य है । भोग न करने का अर्थ इतना ही नहीं कि एक दूसरे को भोग की इच्या से स्पर्श न करे, बल्कि मन से इसका विचार भी न करे । इसका सपना भी न होना चाहिए। (२) ब्रह्मचर्य का अर्थ खाली दैहिक प्रात्म-संयम ही नहीं है।..."इसका मतलब है सभी इन्द्रियों पर पूर्ण नियमन । इस प्रकार प्रशुद्ध विचार भी ब्रह्मचर्य का भंग है और यही हाल क्रोध का है। (३) जो मनुष्य मनसे भी विकारी होता है, समझना चाहिए कि उसका ब्रह्मचर्य स्खलित हो गया। जो विचार में निर्विकार नहीं, वह पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं माना जा सकता । (४) अगर कोई मन से भोग करे और वाणी व स्थूल कर्म पर काबू रखे तो यह ब्रह्मचर्य में नहीं चलेगा। 'मन चंगा तो कठौती में गंगा'। मन पर काबू हो जाय, तो वाणी और कर्म का संयम बहुत प्रासान होता है। सच्चा पूर्ण ब्रह्मचारी कैसा होता है, इसपर भी उन्होंने कई बार लिखा । एक बार उन्होंने कहा- "बुढ़ापे में बुद्धि मन्द होने के बदले और तीक्ष्ण होनी चाहिए। हमारी स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि इस देह में मिले हुए अनुभव हमारे और दूसरे के लिए लाभदायक हो सकें और जो ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसकी ऐसी स्थिति रहती भी है। उसे मृत्यु का भय नहीं रहता और मरते समय भी वह भगवान को नहीं भूलता और न वेकार ही हाय-हाय करता है। मरण-काल में उपद्रव भी उसे नहीं सताते और वह हंसते-हंसते यह देह छोड़कर मालिक को अपना हिसाब देने जाता है। जो इस तरह मरे, वही पुरुष और वही स्त्री है। " बाद में लिखा: "अल्पाहारी होते हुए भी ऐसा ब्रह्मचारी शारीरिक श्रम में किसी से कम नहीं रहेगा। मानसिक श्रम में उसे कम-से-कम थकान लगेगी। बुढ़ापे के सामान्य चिह्न ऐसे ब्रह्मचारी में देखने को नहीं मिलेंगे। जैसे पका हुआ पत्ता या फल वृक्ष की टहनी पर से सहज ही गिर पड़ता है, वैसे ही समय आने पर मनुष्य का शरीर सारी शक्तियां रखते हुए भी गिर जायेगा। ऐसे मनुष्य का शरीर समय बीतने पर देखने में भले ही क्षीण लगे, मगर उसकी बुद्धि का तो क्षय होने के बदले नित्य विकास ही होना चाहिए और उसका तेज भी बढ़ना चाहिए। ये चिह्न जिसमें देखने में नहीं पाते, उसके ब्रह्मचर्य में उतनी कमी समझनी चाहिए।" -- १-अनीति की राह पर पृ० ७२ २-ब्रह्मच (दू० भा०) पृ०५२ - ३-अनीति की राह पर पृ०७० ४-आरोग्य साधन पृ० ५६-५७ ५-ब्रह्मचर्य (प० भा०)पृ० १०२ ६-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०७ ७-वही पृ० ५२ ८-अनीति की राह पर पृ०६१ ६-आरोग्य की कुंजी पृ० ३५ Scanned by CamScanner Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका सन् १९४७ में उन्होंने लिखा : "मेरी कल्पना का ब्रह्मचारी स्वाभाविक रूप से स्वस्थ होगा, उसका सिर तक नहीं दुखेगा, वह स्वभावतः दीर्घजीवी होगा, उसकी बुद्धि तेज होगी, वह पालसी नहीं होगा, शारीरिक या बौद्धिक काम करने में थकेगा नहीं और उसकी बाहरी सुघड़ता सिर्फ दिखावा न होकर भीतर का प्रतिबिंब होगी। ऐसे ब्रह्मचारी में स्थितप्रज्ञ के सब लक्षण देखने में पायेंगे। ऐसा ब्रह्मचारी हमें कहीं दिखाई न पड़े तो उसमें घबराने की कोई बात नहीं।. . ...... - "जो स्थिरवीर्य हैं, जो ऊर्ध्वरेता हैं, उनमें ऊपर के लक्षण देखने में पावें तो कौन बड़ी बात है ? मनुष्य के इस वीर्य में अपने-जैसा जीव पैदा करने की ताकत है, उस वीर्य को ऊँचे ले जाना ऐसी-वैसी बात नहीं हो सकती। जिस वीर्य की एक बूंद में इतनी ताकत है, उसके हजारों बंदों की ताकत का माप कौन लगा सकता है।"... - महात्मा गांधी के सामने प्रश्न आते ही रहते–'क्या आप ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करते हैं ?' 'क्या प्राप ब्रह्मचारी हैं ?' महोत्मा गांधी मे ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुए अपनी स्थिति पर कई बार प्रकाश डाला। सन् १९२४ में एक बार उन्होंने कहा : "मन, वाणी और काय से सम्पूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है। इस सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य की स्थिति को मैं अभी नहीं पहुंच सका हूं। पहुंचने का प्रयत्न सदा चल रहा है।"..."काया पर मैंने काबू पा लिया है । जाग्रत अवस्था में में सावधान रह सकता हूं। वाणी के संयम का यथायोग्य पालन करना भी सीख लिया है। पर विचारों पर प्रभी बहुत काबू पाना बाकी है। जिस समय जो बात. सोचनी हो, उस क्षण वही बात मन में रहनी चाहिए। पर ऐसा न होकर मौर बातें भी मन में प्रा जाती हैं और विचारों का द्वन्द्व मचा ही रहता है। - "फिर भी जाग्रत अवस्था में मैं विचारों का एक-दूसरे से टकराना रोक सकता हूँ। मैं उस स्थिति को पहुंचा हुआ माना जा सकता हूं जब गन्दे विचार मन में पा ही नहीं सके। पर निन्द्रावस्था में विचार के ऊपर मेरा काबू कम रहता है। नींद में अनेक प्रकार के विचार मन में आते हैं, अनसोचे सपने भी दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसी देह में की हुई बातों की वासना जग उठती है। ये विचार गन्दे हों तो स्वप्नदोष होता है। यह स्थिति, विकारयुक्त जीवन की ही हो सकती है। .. "मेरे विचारों के विकार क्षीण होते जा रहे हैं। पर अभी उनका नाश नहीं हो पाया है। अपने विचारों पर मैं पूरा काबू पा सका होता तो पिछले दस बरस के बीच जो तीन कठिन बीमारियां मुझे हुई...''वे न हुई होती। ."यह अद्भुत दशा तो दुर्लभ ही है । नहीं तो में अब तक उसको पहुंच चुका होता, क्योंकि मेरी प्रात्मा गवाही देती है कि इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए जो उपाय करने चाहिए, उनके करने में में पीछे रहनेवाला नहीं हूं।"पर पिछले संस्कारों को धो डालना सब के लिए सहज नहीं होता। इस तरह लक्ष्य तक पहुंचने में देर लग रही है, पर इससे मैंने तनिक भी हिम्मत नहीं हारी है। कारण यह है कि निर्विकार दशा की कल्पना में कर सकता हूं। उसकी धुंधली झलक भी जब-तब पा जाता हूं और इस रास्ते में में अब तक जितना मागे बढ़ सका हूं, वह मुझे निराश करने के बदले आशावान ही बनाता है।" महात्मा गान्धी को एक अभिनन्दन पत्र में नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा गया था। उत्तर में बोलते हुए सन् १९२५ में उन्होंने कहा: "जब.. मुझे कोई नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहता है तब मुझे अपने-पर दया आती है। जिसके बाल-बच्चे हुए हैं, उसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कसे कह सकते हैं ? नैष्ठिक ब्रह्मचारी को न तो कभी बुखार आता है, न कभी सिर दर्द करता है, न कभी खांसी होती है और न कभी अपेंडिसाइटिस होता है ।...... मुझ पर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के पालन का आरोपण कर के कोई मिथ्याचारी न हो । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का तेज तो मुझ से अनेक गुना अधिक होना चाहिए। मैं आदर्श ब्रह्मचारी नहीं। हाँ, यह सच है कि मैं वसा बनना चाहता हूं।" जब महात्मा गांधी ने स्वप्न-स्खलन की बात स्वीकार की तब एक सज्जन ने लिखा कि ऐसे स्वीकार का प्रभाव अच्छा नहीं हो सकता। १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ५२ २-अनीति की राह पर पृ०५६५८ ३.-ब्रह्मचर्य (०भा०)पृ० १२२-३ Scanned by CamScanner Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड़ महात्मा गांधी ने उत्तर दिया : “जो आदमी जैसा है उसे वैसा जानने में सदा सब का हित है। इससे कभी कोई हानि नहीं होती। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मेरे झट अपनी भले स्वीकार कर लेने से लोगों का हर तरह हित ही हमा है। कम-से-कम मेरा तो इससे उपकार ही हुआ है। - "यही बात में बुरे सपनों का होना स्वीकार करने के बारे में भी कह सकता हूं। पूर्ण ब्रह्मचारी न होते हुए भी में होने का दावा करूं तो इससे दुनिया की बड़ी हानि होगी। यह ब्रह्मचर्य की उज्ज्वलता को मलिन और सत्य के तेज को धूमिल कर देगा। झूठे दावे करके ब्रह्मचर्य का मूल्य घटाने का साहस मैं कैस कर सकता हूँ ? आज मैं यह देख सकता हूं कि ब्रह्मचर्य-पालन के लिए जो उपाय मैं बताता हूं, वे काफी नहीं सावित होते, वे हर जगह कारगर नहीं होते, और केवल इसलिए कि में पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं हूं। मैं दुनिया को ब्रह्मचर्य का सीधा रास्ता न दिखा सकू और मुझे पूर्ण ब्रह्मचारी माने, यह बात उसके लिए बड़ी भयानक होगी। "मैं सच्चा खोजी हूं, मैं पूर्ण जाग्रत हूँ, मेरा प्रयत्न अथक और अजित है-इतना ही जान लेना दुनिया के लिए काफी न हो ? "सत्य, ब्रह्मचर्य और दूसरे सनातन नियम मुझ-जैसे अधकचरे जनों की साधना पर आश्रित नहीं होते। वे तो उन बहुसंख्यक जनों की तपश्चर्या के अटल प्राधार पर खड़े होते हैं जिन्होंने उनकी साधना का यत्न किया और उनका पूर्ण पालन कर रहे है।" .. सन् १९३६ में गांधीजी बीमार हुए। एक दिन की अपनी स्थिति का वर्णन उन्होंने निम्न रूप में किया - Err "१८६६ से मैं जानबूझ कर और निश्चय के साथ बराबर ब्रह्मचर्य का पालन करने की कोशिश कर रहा हूं। मेरी व्याख्या के अनुसार, इसमें न केवल शरीर की, बल्कि मन और वचन की शुद्धता भी शामिल है। पौर सिवा उस अपवाद के जिसे मानसिक स्खलन कहना चाहिए, अपने ३६ वर्ष से अधिक समय के सतत एवं जागरूक प्रयल के बीच मुझे याद नहीं पड़ता कि कभी भी मेरे मन में इस सम्बन्ध में ऐसी बेचनीर पैदा हुई हो, जैसी कि इस बीमारी के समय मुझे महसूस हुई। यहाँ तक की मुझे अपने से निराशा होने लगी; लेकिन जैसे ही मेरे मन में ऐसी भावना उठी, मैंने अपने परिचारकों और डाक्टरों को उससे अवगत कर दिया।"""इस अनुभव के बाद मैंने उस पाराम में ढीलाई कर दी, जो कि मुझ पर लादा गया था और अपने इस बुरे अनुभव को स्वीकार कर लेने से मुझे बड़ी मदद मिली। मुझे ऐसा प्रतीत हुमा मानो मेरे ऊपर से बड़ा भारी बोझ हट गया और कोई हानि हो सकने से पहले ही मैं संभल गया ।...''इससे अपनी मर्यादाएं और अपर्णताएं भलीभांति मेरे सामने आ गई; लेकिन उनके लिए मैं उतना लज्जित नहीं हूं जितना कि सर्वसाधारण से उनको छिपाने में होता।" - महात्मा गांधी ने सन् १९३२ में भी कहा-"मैं अपने को सोलह पाने पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं मानता।" और यही बात वे अपने जीवन के अन्त तक कहते रहे। उन्होंने पूर्ण ब्रह्मचारी होने का दावा नहीं किया, इसके चार कारण उन्होंने बताये : (१) मन के विकार काबू में रहते हैं लेकिन नष्ट नहीं हो पाये । "जब तक विचारों पर ऐसा काबू नहीं प्राप्त होता कि इच्छा बिना एक भी विचार न पावे, तब तक सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं। विचारमात्र विकार है।" (२) दूषित स्वप्न पाते हैं : "सम्पूर्ण ब्रह्मचारी के स्वप्न में भी विकारी विचार नहीं होते, और जब तक विकारी स्वप्न होते हैं तब तक ब्रह्मचर्य बहुत अपूर्ण है, ऐसा मानना चाहिए।" (३) वे ब्रह्मचर्य की अपनी व्याख्या को पूर्णतया पहुंच नहीं सके। मेरी व्याख्या को मैं नहीं पहुंचा है, इसलिए मैं अपने को प्रादर्श ब्रह्मचारी नहीं मानता।" १-अनीति की राह पर पृ०६७-६६ २-जागृत अवस्था में उत्तेजन और स्राव ३-ब्रह्मचर्य (प. भा.) पृ० १०६-११० सयाजी ४-सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४१ ५-(क) ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० ३४ (ख) वही पृ० १०४ (ग) ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०७ (घ) आरोग्य की कुंजी पृ. ३२ (क) ब्रह्मचर्य (दू भा०) पृ० ४७ ... ६-ब्रह्मचर्य (दू० भा) पृ०७ ७-आत्मकथा (गु०) पृ० २६२ ८-आत्मकथा (गु०) पृ० ३६७ ६-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२ १०-संयम अने संततिनियमन (गु०) पृ० १३ Scanned by CamScanner Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (४) पूर्ण ब्रह्मचारी में जो स्थिति उत्पन्न होती है, वह उनमें उत्तन नहीं हुई। सन् १९४७ में उन्होंने गीता में पाए हुए स्थितप्रज्ञ के वर्णन की कसौटी पर अपने को कसते हुए कहा : "मैं स्वीकार करता है कि स्थितप्रज्ञ की स्थिति को पहुंचने की कोशिश करने पर भी मैं अभी उससे बहुत दूर हूं'।" स्थितप्रज्ञ पूर्ण ब्रह्मचारी का ही दूसरा नाम है। महात्मा गांधी ने लिखा है : "जो मनुष्य अपनी प्रांखों में तेज लाना चाहता है, जो स्त्री-मात्र को अपनी सगी माता या बहन मानता है, उसे तो रज-कण से भी क्षुद्र होना पड़ेगा। उसे एक खाई के किनारे खड़ा समझिए। जरा भी मुंह इधर-उपर हुमा कि गिरा। वह अपने मन से भी अपने गुणों की कानाफूसी करने का साहस नहीं कर सकता... । नारद की कथा स्मरण रखो। नारद ने ज्यों ही ब्रह्मचर्य का अभिमान किया कि गिरे।" महात्मा गांधी ने अपने विषय में जो कहा है कि वे पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं सम्भव है कि उसमें नम्रता की इस भावना ने भी कुछ कार्य किया हो पर साथ ही अपने अन्तर चित्रों को उपस्थित करते हुए उन्होंने सत्य स्थिति नहीं रखी हो, यह भी नहीं कहा जा सकता। निश्चय हो उन्होंने अपना चित्रण इस भावना से किया है-"जो प्रादमी जैसा है, उसे वैसा जानने में सदा सबका हित है। इससे कभी कोई हानि नहीं होती।" ऐसी स्थिति में हम उनके अपने अङ्कन को सही मान लें तो भी गलती नहीं करेंगे। महात्मा गांधी ने जो कहा है कि वे पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं, उससे कोई ऐसा अर्थ न लगावे कि इतने-इतने भगीरथ प्रयत्न करने पर भी जव महात्मा गांधी पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं हो सके तब दूसरों की तो हस्ती ही क्या है ? महात्मा गांधी ने एक बार नहीं अनेकों बार कहा है : "अपने आदर्श से दूर होते हुए भी मैं यह मानता हूं कि जब मैंने इस व्रत का प्रारम्भ किया तब मैं जहाँ पर था, उससे आगे बढ़ गया हूं।"..."मैं अपनी व्याख्या को पूर्णतया पहुँच नहीं सका, तो भी मेरी दृष्टि से मेरी खासी अच्छी प्रगति हुई है५...।' एक बार उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा : "मैं भी विचार के विकार से दूर न हो सका तो दूसरों के लिए क्या प्राशा, ऐसी गलत त्रिराशि जोड़ने के बदले ऐसी सीधी त्रिराशि क्यों न लगायी जाय कि जो गांधी एक समय विकारी और व्यभिचारी था, वह आज अपनी स्त्री के साथ अविकारी मित्रता रख सकता हो, यदि वह आज रंभा जैसी युवती के साथ भी अपनी लड़की या बहिन के समान रहता हो, तो हम सब भी ऐसा क्यों न कर सकेंगे। हमारे स्वप्नदोष, विचार-विकार ईश्वर दूर करेगा ही। यही सीधा मेल है।" पूर्ण ब्रह्मचारी होना संभव है, इस बात को महात्मा गांधी ने इस प्रकार रखा : “जब विचार पर पूर्ण काबू प्राप्त हो जाता है तब पुरुष स्त्री को अपने में समा लेता है और स्त्री पुरुष को। इस प्रकार के ब्रह्मचारी के अस्तित्व में मेरा विश्वास है।" ऐसे ब्रह्मचारी दुनिया में बिरले ही होते हैं पर नहीं होते, ऐसा नहीं है। महात्मा गांधी लिखते हैं : "ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले इस दुनिया में बहुतेरे पड़े हैं। पर वे गली-गली मारे-मारे फिरें तो उनका मूल्य ही क्या होगा ? हीरा पाने के लिए हजारों मजदूरों को घरती के पेट में समा जाना पड़ता है। इसके बाद भी जब धूप-कंकड़ों का पहाड़ धो डाला जाता है, तब कहीं मुट्ठी-भर हीरा हाथ लगता है। तब सच्चे ब्रह्मचर्यरूपी हीरे की तलाश में कितनी मेहनत करनी होगी, इसका जवाब हर आदमी त्रैराशिक करके निकाल सकता है।" उन्होंने लिखा है : "ब्रह्मचर्यादि महावतों की सत्यता या सिद्धि मेरे जैसे किसी पर अवलम्बित नहीं, इसके पीछे लाखों ने तेजस्वी तपश्चर्या की है, और कितनों ही ने सम्पूर्ण विजय प्राप्त की है। १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ६६ २.-ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० ५५-५६ ३-अमृतवाणी पृ० ११५ ४-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ. ७ ५-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२ ६-संयम अने संततिनियमन (गु०) पृ० ५६ ७-वही (गु०)पृ०६३ ८-अनीति की राह पर पृ०.६२ -संयम अने संततिनियमन (गु०) पृ० ५६ Scanned by CamScanner Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० यह महात्मा गांधी का उनकी अपनी दृष्टि से विचार है। भगवान महावीर के अनुसार कार्य की निष्यति 'तिविद्धं तिपिटे इस मंत्र के अनुसार होती है मन, वचन और कामये तीन किया मेहेतुकरण है। धीर करना, कराना धीर धनुमोदन करना, ये किया के तीन तरीके योग है। तीन करण, तीन योग से कार्य उपना है। उन्होंने कहा- जो पूर्ण ब्रह्मचारी होना चाहता है, उसे यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से सर्व प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान - करना होगा "नेव सर्व मेदुणं सेविता नेवमेदि मेट्रणं सेवाविया मेहूणं सेऽवि अन्नेन समजावाजावरजीवाणु तिथि गणे अन्नं न समाजाविनीया" भगवान महावीर के धनुसार जो मन-वचन-काम ब्रह्म का सेवन नहीं करता, वह देश ग्रहाचारी है। पूर्ण महाचारी यह है जो मन-वचन-काय का सेवन नहीं करता, न करवाता है गे से या कापून करेमि [न] कारवेमिक : वायाए और न करनेवाले का अनुमोदन करता है। महात्मा गांधी ने एक बार लिया "किसी का भी विवाह करने का अथवा उसमें भाग लेने का धदया उसे उत्तेजन देने का मेरा काम नहीं। पुनः श्राश्रम की भूमि पर विवाह हो, यह श्राश्रम के श्रादर्श के साथ मिलती वस्तु नहीं कही जा सकती। मेरा धर्म ब्रह्मचर्य का पालन करने-कराने का रहा है। मैं इस काल को प्रापत्तिकाल मानता हूं। वैसे समय में विवाह हो या प्रजावृद्धि हो, यह श्रनिष्ट समझता हूं। ऐसे कठिन समय में समझदार मनुष्य का कार्य योग कम करने पर त्यागवृत्ति बढ़ाने का होना चाहिए ।" इन उद्गारों से महात्मा गांधी का प्राग्रह पूर्ण ब्रह्मचर्य के लिए ही था, यह स्पष्ट है। ऐसा पक्ष, इच्छा धीर श्रादर्श होने पर भी महात्मा 'गांधी ने कितने ही विवाह अपने हाथों से कराये। एक बार उन्होंने कहा "मैं हूं कि भाप ब्रह्मचारी बनें तो क्या यह होनेवाली बात है ? वह तो एक आदर्श है; इसलिए मैं तो विवाह भी करा देता हूं। एक श्रादर्श देते हुए भी यह तो जानता हूं कि ये लोग भोग भी करेंगे।" शील की नय बाद इस तरह भौगोलिकी परम्परा को प्रसरण करनेवाले प्रसंगों में महात्मा गांधी भी मदानन्दा भाग लेते हुए देखे जाते हैं। एक बार महात्मा गांधी से पूछा गया पति को उपदंश जैसा कठिन रोग हो तय स्त्री क्या करे !" उन्होंने उत्तर दिया ...ऐसे पति को क्लब समझ कर उसे दूसरी शादी कर लेनी चाहिए...।" यह उत्तर दो अपेक्षा से ही हो सकता है - ( १ ) भोगी पति की अपेक्षा से, जो ऐसे रंग के समय भी संयम नहीं रख पाता । इस अपेक्षा से ऐसा उत्तर 'पाय' समाचरेत् ही होगा। (२) भोग की कामना रखनेवाली पत्नी की धपेक्षा से इस धपेक्षा से यह उत्तर मोग की राह दिखाता है। संयम का मार्ग नहीं । महात्मा गांधी कहा करते थे : "स्त्री-पुरुष के पत्नी यति तरीके के सांसारिक जीवन के मूल में भोग है।" एक पति को छोड़कर दूसरे पति के साथ विवाह करने में तो प्रत्यक्षतः यह एक मूल बात है। ऐसी हालत में विवाह का सुझाव श्रब्रह्म का ही अनुमोदन कहा जा सकता है। एक बार बलवन्तसिंहजी ने पूछा, "कुछ लोग वासना का क्षय करने के लिए विवाह की आवश्यकता मानते हैं । क्या भोग से वासना का क्षय हो सकता है ? " बापू ने जवाब दिया- " हरगिज नहीं" । " यह ठीक वैसा ही उत्तर है, जैसा श्री हेमचन्द्राचार्य ने दिया : "जो स्त्री संभोग से कामज्वर को शान्त करना चाहता है, वह घी की श्राहुति से अमि को शमन करना चाहता है।" स्त्रीसंभोगेन यः कामश्वरं प्रतिचिकीर्षति । तात्याहुत्या विध्यापयितुमिच्छति ॥ १ - त्यागमूर्ति भने बीजा देखो पृ० १७४ २ - ग्रहाचर्य (१० मा० ) पृ० ८० ३ - वही पृ० ६० ४ - बापु ना पत्रो -५ कु० प्रेमावहेन कंटकने पृ० १०३ ५- बापू की छाया में पृ० २०० ६ - योगशास्त्र २.८१ Scanned by CamScanner Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका कि ७१ ऐसा होते हुए भी वापूने ने एक बार लिखा-"स्त्री को देखकर जिसके मन में विकार पैदा होता हो, वह ब्रह्मचर्य-पालन का विचार छोड़कर, अपनी स्त्री के साथ मर्यादापूर्वक व्यवहार रखे ; जो विवाहित न हो, उसे विवाह का विचार करना चाहिए.""........... .. - यहां विकार की शांति का उपाय बताते हुए उन्होंने एक तरह से विवाहित-संभोग का अनुमोदन कर दिया। इस तरह अनुमोदन के अनेक प्रसंग महात्मा गांधी के जीवन में देखे जाते हैं। उन्होंने एक बार कहा-"विवाहित स्त्री-पुरुष यदि प्रजोत्पत्ति के शुभ हेतु बिना विषय-भोग का विचार तक न करें, तो वे पूर्ण ब्रह्मचारी माने जाने के लायक हैं।" दूसरी बार कहा-"जो दंपति गृहस्थाश्रम में रहते हुए केवल प्रजोत्पत्ति के हेतु ही परस्पर संयोग और एकान्त करते हैं, वे ठीक ब्रह्मचारी हैं।" उन्होंने फिर कहा-“सन्तानोत्पत्ति के ही अर्थ किया हा संभोग ब्रह्मचर्य का विरोधी नहीं . इस तरह संतान के हेतु अग्रह्म का उनसे अनुमोदन हो गया। - एक बार महात्मा गांधी के साथी बलवन्तसिंहजी ने पूछा- "आप कहते हैं कि संतान के लिए स्त्री-संग धर्म है, बाकी - व्यभिचार है; और निर्विकार मनुष्य भी संतान पैदा कर सकता है। वह ब्रह्मचारी ही है । लेकिन जिसने विकार के ऊपर काबू पाया है, वह क्या संतान की इच्छा करेगा?" महात्मा गांधी ने उत्तर दिया : "हाँ, यह अलग सवाल है। लेकिन ऐसे भी लोग हो सकते हैं, जो निर्विकार होने पर भी पुत्र की इच्छा रखते हैं।" बलवन्तसिंहजी ने कहा: "अधिकतर तो संतान की भाड़ में काम की तृप्ति करते हैं।" महात्माजी वोले : "हां, यह तो ठीक है । अाजकल धर्मज संतान कहाँ है ? मनु की भाषा में एक ही संतान धर्मज है, बाकी सब पापज हैं।" . महात्मा गांधी ने 'पुत्र की इच्छा' को भोगेच्छा से जुदा माना है। उन्होंने भोगेच्छा को विकार माना है, सन्तानेच्छा को नहीं। उनके विचार को संभवतः इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि एक आदमी रसोई बनाने के लिए अग्नि सुलगाता है और दूसरा आदमी घर में आग लगाने के लिए अग्नि सुलगाता है। पहले मनुष्य का कार्य अनैतिक नहीं, दूसरे का अनंतिक है। उसी तरह जो विषय-भोग की कामना से भोग करता है, उस का कार्य अनैतिक है-अधर्म है। सन्तान की इच्छा से भोग करता है उसका नहीं। ...... जो शुद्ध दृष्टि पर गये हैं, उन ज्ञानियों का कहना है कि अग्नि जलाना मात्र हिंसा है, फिर वह किसी दृष्टि या प्रयोजन से ही क्यों न हो। रसोई बनाने के लिए अग्नि सुलगाना अनिवार्य हो सकता है। पर इस अनिवार्यता के कारण वह अहिंसा की दृष्टि से आध्यात्मिक नहीं कहा जा सकता। वैसे ही संयोग भले ही सन्तानेच्छा के लिए हो, वह कभी धर्म या प्राध्यात्मिक नहीं है। जननेन्द्रियों का उपयोग विषय-भोग की इच्छा से भी हो सकता है और सन्तान की इच्छा से भी। दोनों उपयोग अधर्म और अनाध्यात्मिक हैं । 'सन्तान की इच्छा पूरी करने की प्रक्रिया विषय-भोग ही है। 'सन्तान की इच्छा' और 'विषय-भोग की इच्छा' एक ही ब्रह्म.रूपी सिक्के के दो बाजू हैं । उन्हें भिन्न-भिन्न नहीं माना जा सकता। - भगवान महावीर और स्वामीजी की दृष्टि से निम्नलिखित तीनों प्रकार के कार्य अब्रह्मचर्य की कोटि के हैं : १-मन-वचन-काय से प्रब्रह्म का सेवन करना २-मन-वचन-काय से प्रब्रह्म का सेवन कराना ... । ३-मन-वचन-काय से प्रब्रह्म-सेवन का अनुमोदन करना - इस दृष्टि से जो मन-वचन-काय से प्रब्रह्म का सेवन तो नहीं करता पर उसका सेवन करवाता या अनुमोदन करता है, वह भी ब्रह्मचारी नहीं। १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०८ २–आरोग्य की कुंजी पृ० ३३ ३-ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० ८१ ४- वही पृ०७७ ५-बापू की छाया में पृ० २०० Scanned by CamScanner Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड महात्मा गांधी ने लिखा है कि उनके मन के विकार शांत नहीं हए. इसलिए वे ब्रह्मचारी नहीं। श्रमण भगवान महावीर की दृष्टि से उन्होंने मन-वचन-काया से करने, कराने रूप भङ्गों का भी मोचन नहीं किया, इसलिए भी पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं। sleyns, प्राचार्य भिक्ष ने कहा- भगवन् ! मैने यह समझा है और इसी तुला से तोला है कि जिसका करना धर्म है, उसका कराना और अनुमोदन करना भी धर्म है और जिसे करना अधर्म है, उसका कराना और अनुमोदन करना भी अधर्म है। "न को काटने में पाप है तो उसे काटने के लिए कुल्हाड़ी देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं। "गांव जलाने में पाप है तो उसे जलाने के लिए अग्नि देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है। ": "युद्ध करने में पाप है तो युद्ध करने के लिए शस्त्र देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है।" इसी तरह किसी भङ्ग से प्रब्रह्मचर्य का सेवन करनेवाले ही प्रब्रह्मचारी नहीं, पर सेवन करानेवाला और अनुमोदन करानेवाला भी प्रब्रह्मचारी है। महात्मा गांधी ने पूर्ण ब्रह्मचारी की एक कसौटी दी है। श्रमण भगवान महावीर और 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई' इस तरह भगवान महावीर को माननेवाले स्वामीजी ने भी कसौटी दी है। इन कसौटियों पर अपने को कसता हुआ जो अपने हृदय के एक-एक कोने से ब्रह्म के कड़े कचरे को दूर करता जायगा, वह निश्चय ही एक दिन पूर्ण ब्रह्मचारी हो जायगा, इसमें कोई सन्देह की चीज नहीं। २१-महात्मा गांधी और ब्रह्मचर्य के प्रयोग (१) कंधे का सहारा और साथ टहलनामा सन् १९४२ में महात्मा गांधी ने कहा : "ज्यों-ज्यों हम सामान्य अनुभव से आगे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों हमारी प्रगति होती है। अनेक अच्छीबुरी शोधं सामान्य अनुभव के विरुद्ध जाकर ही हो सकी हैं। चकमक से दियासलाई और दियासलाई से बिजली की शोध इसी एक चीज की प्राभारी है। जो बात भौतिक वस्तु पर लागू होती है, वही आध्यात्मिक पर भी होती है।..."संयम धर्म कहाँ तक जा सकता है, इसका प्रयोग करने का हम सब को अधिकार है। और ऐसा करना हमारा कर्तव्य भी है।" इसी भावना से वे ब्रह्मचर्य के विषय में कई प्रकार के प्रयोग करते रहे। महात्मा गांधी बालिकाओं और स्त्रियों के कंधे का सहारा लेकर घूमा करते। भारतवासियों के लिए यह एक नया प्रयोग ही था। इस प्रयोग की शरूपात के सम्बन्ध में महात्मा गांधी ने लिखा है : "सन् १८९१ में विलायत से लौटने के बाद मैंने अपने परिवार के बच्चों को करीब-करीब अपनी निगरानी में ले लिया, और उनके-- बालक-बालिकामों के कंधों पर हाथ रखकर उनके साथ घूमने की आदत डाल ली। ये मेरे भाइयों के बच्चे थे। उनके बड़े हो जाने पर भी यह प्रादत जारी रही। ज्यों-ज्यों परिवार बढ़ता गया, त्यों-त्यों इस प्रादत की मात्रा इतनी बढ़ी कि इसकी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित होने लगा।" यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह प्रयोग बाद में आश्रम की बहिनों के साथ भी चला। सन् १९२६ में एक सज्जन ने उत्तेजित होकर लिखा : "इस सम्बन्ध में मेरी विनति है कि ऐसा प्रयोग आपको भी नहीं करना चाहिए। काष्ठ की पुतली भी मनुष्य को फंसा लेती है तो पराई -स्त्रियों के कंधे पर हाथ रख कर फिरना और चाहे जिस तरह स्पर्श करना, यया यह मनुष्य को अधःपतन के रास्ते पर ले जानेवाला नहीं ?...आपने तो योगाभ्यास ठीक साधा होगा, ऐसा मान भी लिया जाय तो दुनिया का वैसा साधा हा नहीं होता । दुनिया प्राज, बोलने के वनस्वित पाप क्या करते हैं, यह देखने और उस प्रकार करने के लिए प्रेरित होती है, और बिना विचारे अनुकरण के लिए चल पड़ती है।" १-भिक्षु विचार दर्शन पृ०-७६-८० -आरोग्य की कुंजी पृ० ३३ ३-हरिजन सेवक, २७-६-३५ : ब्रह्मचर्य (प: भा०) पृ०६७ . Scanned by CamScanner Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इसके उत्तर में महात्मा गान्धी ने जो लिखा, उससे इस प्रयोग के पीछे रही हुई उनकी भावना पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उन्होंने लिखा : "लेखक प्राश्रम में स्त्रियों के प्रति मेरे व्यवहार में, उनके मेरे मा समान स्पर्श में दोष देखते हैं। इस विषय की प्राश्रम में मैंने अपने साथियों के साथ चर्चा की है । श्राश्रम में जो मर्यादित छूट पड़ या अनपढ़ बहनें भोगती हैं, वैसी छूट धन्य कहीं हिन्द में वे भोगती हों, ऐसा मैं नहीं जानता । पिता अपनी पुत्री का निर्दोष स्पर्श सब के सामने करे, उसमें मैं दोष नहीं देखता । मेरा स्पर्श उसी प्रकार का है। मैं कभी एकान्त में नहीं होता। मेरे साथ रोज बालिकाएं घूमने को निकलती है तब उनके कंधे पर हाथ रखकर में चलता हूं उस स्पर्श की निरपवाद मर्यादा है, वह वे बालिकाएं जानती हैं और सब समझती हैं । "अपनी लड़कियों को हम बनाते हैं, उनमें अयोग्य विकार उत्पन्न करते हैं, और जो उनमें नहीं है उसका प्रारोप करते हैं, और फिर हम उन्हें कुचलते हैं, और बहु बार व्यभिचार का भाजन बनाते हैं। ये यही मानना सोखती है कि वे अपने शीस की रक्षा करने में प्रथम हैं। इस अपंगता से बालिकाओं को मुक्त करने का श्राश्रम में भगीरथ प्रयत्न चल रहा है। इस प्रकार का प्रयत्न मैंने दक्षिण अफ्रिका में ही प्रारंभ किया था। मैंने उसका खराब परिणाम नहीं देखा। किन्तु प्राथम की शिक्षा से कितनी ही बालिकाएं, बीस वर्ष तक की हो जाने पर भी निर्विकार रहने का प्रयत्न करनेवाली हैं, दिन-दिन निर्भय और स्वाश्रयी बनती जाती हैं। कुमारिका मात्र के स्पर्श से या दर्शन से पुरुष 'विकारमय होता ही है, ऐसी मान्यता पुरुष के पुरुषत्व को लज्जित करनेवाली है—- ऐसा मैं मानता हूं। यह बात अगर सच ही है, तो ब्रह्मचर्य प्रसंभव ठहरेगा । "इस संधिकाल के समय इस देश में स्त्री-पुरुष के बीच परस्पर सम्बन्ध की मर्यादा होनी ही चाहिए। छूट में जोखम है । इसका में रोज प्रत्यक्ष अनुभव करता हूं धतः स्त्री-स्वातन्त्र्य की रक्षा करते हुए जितनी मर्यादा रखी जा सकती हो उतनी प्रथम में मंडित है मेरे सिवा कोई पुरुष बालिकाओं का स्पर्धा नहीं करता, करने का प्रसंग ही नहीं होता। पितृत्व निया-दिया नहीं जा सकता। "मैं स्पर्श करता हूं उसमें योगबल का जरा भी दावा नहीं है। मुझमें योगबल जैसा कुछ नहीं है में दूसरों ही की तरह विकारमय माटी का पुतला हूं। पर विकारमय पुरुष भी पितारूप में देखने में धाये हैं। मेरी धनेक पुत्रियाँ हैं, अनेक बहिनें हैं। एक पत्नीव्रत से में बंधा हुआ हूं। पत्नी भी केवल मित्र रही है। भतः राहून विकराम विकारों पर दबाव डालना पड़ता है माता ने मुझे भर जवानी में प्रतिज्ञा का सौन्दर्य जानना सिखाया । वज्र से भी अधिक प्रभेद्य ऐसी प्रतिज्ञा की दीवाल मुझे सुरक्षित रखती है। मेरी इच्छा के विरुद्ध भी इस दीवाल ने मुझे सुरक्षित रखा है। भविष्य रामजी के हाथ में है ।" इस विषय का कु० प्रेमाबहन कंटक ने अपने एक पत्र में जिक्र किया। उसके उत्तर में (१८-८- ३२ को) महात्मा गांधी ने लिखा : "लोकमत याने जिस समाज के मत की हमको दरकार है, उसका मत यह मत नीति से विरुद्ध न हो तब तक उसे सम्मान देना धर्म है। धोबी के किस्से पर से शुद्ध निर्णय करना कठिन है। हम लोगों को तो बाज वह जरा भी अच्छा नहीं लगेगा। ऐसी टीका को सुनकर अपनी पक्षी का त्याग करनेवाला निर्दय धीर धन्यायी हो कहलायेगा । "लड़कियों के साथ मेरी छूट से श्राश्रमवासियों को प्राघात पहुँचता हो तो छूट लेना मुझे बन्द कर देना चाहिए, ऐसी मेरी मान्यता है। यह छूट लेने का कोई स्वतंत्र धर्म नहीं और लेने में नीति का भंग नहीं। पर ऐसी छूट न लेने से लड़कियों पर बुरा असर होता हो, तो मैं श्राश्रमवासियों को समझाऊँगा और छूट लूंगा। लड़कियाँ ही मुझे न छोड़ें तो फिर क्या करना, यह देखना मेरा काम रहा। मैं जो छूट जिस प्रकार से लेता हूं उसकी नकल तो कोई भी न करे 'धान से मुझे छूट लेनी है इस प्रकार विचार कर कृत्रिम रूप से कोई छूट नहीं ली जा सकती और कोई इस तरह से, तो यह बुरा ही कहा जायगा ।..... "मूल बात यह है कि जो कोई विकार के वश होकर निर्दोष से निर्दोष लगनेवाली छूट भी लेता है, वह खुद खाई में गिरता है धौर दूसरों को भी गिराता है। धरने समाज में जब तक स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं होता, तब तक अवश्य चेतकर चलने की जरूरत है। इस सम्बन्ध में सबको लागू पड़े- ऐसा कोई राजमार्ग नहीं ... लौकिक मर्यादा मात्र खराब है, ऐसा कहकर समाज को भाषात नहीं पहुंचाना चाहिए।" : १-जीवन २०७५६ त्यागमूर्ति अने यीजा सेखो १० २६२-२४ कु० प्रेमाबहेन कंटकने (०) पृ० १२६-३० से संक्षिप्त बापूना पत्रो Scanned by CamScanner Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ ४ • साबरमती में एक प्राश्रमवासी ने महात्माजी से कहा कि पाप जब बड़ी-बड़ी उम्र की लड़कियों और स्त्रियों के कन्धों पर हाथ रखकर चलते हैं, तब इससे लोक-स्वीकृत सभ्यता के विचार को चोट पहुँचती मालूम देती है। किन्तु पाश्रमवासियों के साथ चर्चा होने के बाद यह चीज जारी ही रही। सन् १९३६ में महात्मा गांधी के दो साथी वर्धा प्राये, तब उन्होंने महात्मा गांधी से कहा कि आपकी यह पादत संभव है कि दूसरों के लिए उदाहरण बन जाय । , महात्मा गांधी को यह दलील जंची नहीं। फिर भी वे इन चेतावनियों की अवसहना करना नहीं चाहते थे और उन्होंने पांच पाश्रमवासियों से इसकी जांच करके सलाह देने के लिए कहा। . इसी बीच एक निर्णयात्मक घटना घटी। यूनिवर्सिटी का एक तेज विद्यार्थी अकेले में एक लड़की के साथ, जो उसके प्रभाव में थी, सभी तरह की प्राजादी से काम लेता था, और दलील यह दिया करता था कि वह उस लड़की को सगी बहन की तरह प्यार करता है। उसपर कोई अपवित्रता का जरा भी प्रारापण करता तो वह नाराज हो जाता। वह लड़की उस नौजवान को बिल्कुल पवित्र और भाई के समान मानती। वह उसकी उन चेष्टाओं को पसन्द नहीं करती ; आपत्ति भी करती। पर उस वेचारी में इतनी ताकत नहीं थी कि वह उन चेष्टानों को रोक सकती। - इस घटना ने गांधीजी को विचार में डाल दिया। उन्हें साथियों की चेतावनी याद आई। उन्होंने अपने दिल से पूछा कि यदि उन्हें यह मालूम हो कि वह नवयुवक अपने बचाव में उनके व्यवहार की दलील दे रहा है तो वह कैसा लगे? इस विचार के बाद महात्मा गांधी ने उपर्युक्त प्रथा का परित्याग कर दिया। उन्होंने १२ सितम्बर, १९३५ के दिन यह निर्णय वर्षा के प्राश्रमवासियों को सुनाया। अपनी मानसिक स्थिति को उपस्थित करते हुए महात्मा गांधी ने लिखा था-"जहाँ तक मुझे याद है, मुझे कभी यह पता नहीं चला कि मैं इसमें कोई भूल कर रहा हूँ।"." यह बात नहीं कि यह निर्णय करते समय मुझे कष्ट न हुआ हो। इस व्यवहार के बीच या उसके कारण कभी कोई अपवित्र विचार मेरे मन में नहीं पाया।" उन्होंने फिर लिखा : "मेरा पाचरण कभी छिपा हुआ नहीं रहा है। मैं मानता हूँ कि मेरा आचरण पिता के जैसा रहा है और जिन भनेक लड़कियों का मैं मार्ग-दर्शक और अभिभावक रहा हूं, उन्होंने अपने मन की बातें 'इतने विश्वास के साथ मेरे सामने रखीं कि जितने विश्वास के साथ शायद और किसी के सामने न रखतीं।" A. प्रश्न उठ सकता है कि ऐसी शुद्ध मानसिक स्थिति के होने पर भी उन्होंने यह प्रयोग क्यों बन्द किया। इसका कारण महात्मा गांधी ने इस प्रकार बताया है : "यद्यपि ऐसे ब्रह्मचर्य में मेरा विश्वास नहीं, जिसमें स्त्री-पुरुष का परस्पर स्पर्श बचाने के लिए एक रक्षा की दीवार बनाने की जरूरत पड़े और जो ब्रह्मचर्य जरासे प्रलोभन के प्रागे भंग हो जाय तो भी जो स्वतंत्रता मैंने ले रखी है, उसके खतरों से मैं अनजान नहीं हूँ। इसलिए मेरे अनुसंधान ने मुझे अपनी यह आदत छोड़ देने के लिए सचेत कर दिया, फिर मेरा कन्धों पर हाथ रखकर चलने का व्यवहार चाहे जितना पवित्र रहा हो।" इस परित्याग के समय महात्माजी ने यह भी सोचा : "मेरे हरेक पाचरण को हजारों स्त्री-पुरुष खब सूक्ष्मता से देखते हैं। मैं जो प्रयोग कर रहा हूं, उसमें सतत जागरूक रहने की पावश्यकता है। मुझे ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिन का बचाव मुझे दलीलों के सहारे करना पड़े।" : साधारण लोगों को चेतावनी देते हुए महात्मा गांधी ने कहा-"मेरे उदाहरण का कभी यह अर्थ नहीं था कि उसका चाहे जो अनुसरण करने लग जाय।.....मैंने इस प्राशा से यह निश्चय किया है कि मेरा यह त्याग उन लोगों को सही रास्ता सुझा देगा, जिन्होंने या तो मेरे उदाहरण से प्रभावित होकर गलती की है या यों ही।" - इस त्याग के थोड़े दिनों के बाद (२८-६-३५ को) उन्होंने एक बहिन को लिखा-........ मेरे त्याग के विषय में जब तू सब जानेगी तब तू भी मुझसे सहमत होगी, ऐसा मुझे विश्वास है।" उसी बहिन को उन्होंने पुनः (६-५-३६ को) लिखा : "लड़कियों के कन्धे पर हाथ रखना बन्द किया, उसके साथ मेरी विषय-वासना का कोई सम्बन्ध नहीं।" १-हरिजन सेवक, २७-६-३५ : ब्रह्मचर्य (प० भा०) १०६७-६६ २-बापूना पत्रो-५ कु. प्रेमाबहेन कंटकने पृ० २३५ ३-वही पृ० २३६ Scanned by CamScanner Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका त्याग के उपरान्त भी यह प्रयोग पुनः चालू कर दिया गया। इस सम्बन्ध में श्री बलवन्तसिंहजी ने बापू से एक पत्र में प्रकाश चाहा। बापू ने उत्तर देते हुए लिखा है : - "तुम्हारा पत्र बहुत ही अच्छा है, निर्मल है । और तुम्हारी सब शंका उचित है। भय भी स्थान पर है। भौर सावधानी स्वागत योग्य है। "१९३५ की प्रतिज्ञा लिखी गई है अंग्रेजी में। गुजराती अथवा उसका हिन्दी अनुवाद मैंने पढ़ा नहीं था। मूल अंग्रेजी का अर्थ है'बहनों के कन्धे पर हाथ रखने का मुहावरा मैंने रखा है, उसका मैं त्याग करता हूँ। "लेकिन लोक-संग्रह की दृष्टि से उसका त्याग किया। दिल में कभी यह अर्थ नहीं था कि मैं कभी किसी लड़की के कन्धे पर हाथ नहीं रखंगा। मुझे खयाल नहीं है कि सेगांव में कन्धे पर हाथ रखने का मैंने किस लड़की से शुरू किया। लेकिन मुझे इतना खयाल है कि मुझ को १९३५ की प्रतिज्ञा का पूरा स्मरण था और वह स्मरण होते हुए मैंने उस लड़की के कन्धे पर हाथ रखा। हो सकता है उस लड़की के प्राग्रह को मैं रोक न सका, अथवा मुझे उसके कन्धे के टेक की दरकार थी। ऐसा तो मैं कैसे कह सकता हूँ कि दुर्बलता के कारण ही मैंने सहारा लिया। और अगर ऐसा भी था तो मैं प्रतिज्ञा के कायम रखने के लिए किसी भाई का सहारा ले सकता था। लेकिन मेरी प्रतिज्ञा का ऐसा व्यापक अर्थ था नहीं, मैंने कभी किया नहीं। "अब रही अमल की बात । मैंने मेरे निर्णय का अमल शुरू किया, उसके बाद ही भाष्य चला। प्रथम भाष्य में जो अमल तीन चार दिन के बाद करने की बात थी, उसको मैंने दूसरे ही दिन शुरू कर दिया। जहां तक मेरी निर्विकारता अधरी रहेगी, वहाँ तक भाष्य होना ही है। शायद वह आवश्यक भी है। सम्पूर्ण ज्ञान मौन से ज्यादा प्रकट होता है, क्योंकि भाषा कभी पूर्ण विचार को प्रकट नहीं कर सकती। अज्ञान विचार की निरंकुशता का सूचक है, इसलिए भाषारूपी वाहन चाहिए । इस कारण ऐसा अवश्य समझो कि जहां तक मुझे कुछ भी समझाने की आवश्यकता रहती है वहाँ तक मेरे में अपूर्णता भरी है अथवा विकार भी है। मेरा दावा छोटा है और हमेशा छोटा ही रहा है । विकारों पर पूर्ण अंकुश पाने का अर्थात् हर स्थिति में निर्विकार होने का मैं सतत प्रयत्न करता हूं, काफी जाग्रत रहता हूँ। परिणाम ईश्वर के हाथ में है । मैं निश्चिन्त रहता हूँ (११-६-३८)।'" hendi m a (२) स्त्रियों के साथ खला जीवन : 5000 महात्मा गांवी स्त्रियों के साथ आजादी से मिलते-जुलते थे। उन्होंने लिखा है : "दक्षिण अफ्रिका में भारतियों के बीच मुझे जो काम करना पड़ा, उसमें स्त्रियों के साथ आजादी के साथ हिलता-मिलता था। ट्रांसवाल और मेटाल में शायद ही कोई भारतीय स्त्री हो जिसे मैं न जानता होऊ।" H EROINER A L 1 ऐसे घले-मिले जीवन में भी उन्होंने ब्रह्मचर्य की किस तरह रक्षा की, इसकी झांकी उन्होंने इस रूप में दी: : ...."दुनिया में आजादी से सबके साथ हिलने-मिलने पर ब्रह्मचर्य का पालन यद्यपि कठिन है, लेकिन अगर संसार से नाता तोड़ लेने पर ही यह प्राप्त हो सकता है तो इसका कोई विशेष मूल्य ही नहीं है। जैसे भी हो मैंने तो तीस वर्ष से भी अधिक समय से प्रवृत्तियों के बीच रहते हुए, ब्रह्मचर्य का खासी सफलता के साथ पालन किया है।" अपनी दृष्टि के विषय में उन्होंने लिखा है : "मेरे लिए तो इतनी सारी स्त्रियो बहनें और बेटियां ही थीं।..."धार्मिक साहित्य में स्त्रियों को जो सारी बुराई और प्रलोभन का द्वार बताया गया है, उसे मैं इतना भी नहीं मानता।" आगे जाकर उन्होंने लिखा है......"स्त्रियों को मैंने कभी इस तरह नहीं देखा कि कामवासना की तृप्ति के लिए ही वे बनाई गई हैं, बल्कि हमेशा उसी श्रद्धा के साथ देखा है जो कि मैं अपनी माता के प्रति रखता हूं।"..... 'सत्याग्रह पाश्रम के इतिहास' से पता चलता है कि पाश्रम में ब्रह्मचर्य की व्याख्या पूर्ण रखी गयी थी। पाश्रम में स्त्री-पुरुष दोनों रहते थे। और उन्हें एक दूसरे के साथ मिलने की काफी प्राजादी थी। आदर्श यह था कि जितनी स्वतंत्रता मां-बेटे या बहिन-भाई भोगते हैं, वही प्राश्रमवासियों को मिल सके। इस प्रयोग में जो जोखिम थी, उससे महात्मा गांधी परिचित थे और उन्होंने लिखा है :१-बापू की छाया में पृ० २४६-५० २-हरिजन सेवक, २३-७-३८ : ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ०१०४ ३-सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४२ . Scanned by CamScanner Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील व बार "स्त्री-पुरुष एक ही प्राश्रम में रहें, साथ काम करे, इ तरे को देदा में और ब्रह्मचर्य रखने की कोशिष्य करें, तो इन्ने डर बद्दल है। इसमें एक हद र पश्चिम की जानदनकर नकल है। हकप्रयंट करने की पत्नी यांच्या में मप्र शाक है। मगर यह तो मेरे बारे प्रयायों के बारे में कहा जा सका है। यह बात जोरदार है, मोनिए किन्ही को अपना शिष्य नौ मनता। मम्बा करनी प्राथम में प्रायेमद जोखमों को जानते हुए भी साथी के रूप में प्राश्रम में पाये हैं। लड़के और लड़कियों को मैं अपने दन मानता है। मलिए वे बहन ही मेरे प्रयोगों में पीटे जाते हैं। सत्र प्रयोग सायम्मी परमेश्वर के नाम पर है। यह कुम्हार है और इन उके हाथ में न्ट्रिी इस तरह नीलम यार ब्रह्मार्य-पालन करने की कोशिश के प्रयोग में निरामा सानुभव महात्मा गांधी को नहीं हमा। के अनुनय के अनुसार स्त्री-पुरुष दोनों की कुल मिलाकर मान ही इमा। सबसे ज्यादा कायदा स्त्रियों को प्रा' प्रयोग करने में कुछ स्त्री-पुरुष नाकामयाब रहे, मुख गिर करके। महात्मा गांवी ने लिखा है: "प्रयोग मात्र में ठोकर, अटो खानी ही होती है। जिसमें मोर प्रने मलता है, वह प्रयोग नहीं । वह दो सर्वत्र का स्वभाव रहा वायगा। प्राश्रमवासियों के बारे में महात्मा गांबी के पास शंकाएं मादी व एक बार महाना गांवी ने सिवा : "प्राश्रम में दो गुटम्द-नाना के नाम पर पतर में विषयों का सेवन करते होगे, दे दो टीमरे, प्रत्र्यायवाले मिष्याचारी हैं। हम यहां लयात्रारी की वाट कर रहे हैं। मोर. यह सोच रहे हैं कि सत्याचारी को क्या करना चाहिए। इसलिए प्राश्रम में प्रगर ए सदी लोग कुटम्द-बावना का डग करके विषयों का मेवन करते हों, तो भी प्रार १ वी मी बाहर और नीटर से केवल कुटन-भावना का ही सेवन करठे हों, तो उसने प्राथम कृतार्थ हो जायगा। इसलिए हमें यह नहीं सोचता है कि दूसरा क्या करता है। हमें दो यही विचार करना है कि अपने लिए व एम्ब-मावना की पृष्ठभूमिका में मिदान्त क्या है, इसकी चर्चा करते हुए न्होंने कहा: "इसके साथ ही साथ इशना दो नही है कियी का महल देख कर हम पानी प्रॉड़ी न उचाई। कोई कुटम्ब-भावना से हमने का दावा करे, मगर हम अपने में यह शनि पारे दो उसके दावे की स्वीकार करते हुए भी हम तो कुटुम्ब की दुत मे दूर ही रहें। प्राश्रम में हम एक नया, और इसलिए भयंकर प्रयोग कर रहे हैं। इस कोशिश में सत्य की रक्षा करते हुए जो घुलमिल म, वे घुलमिल जाय। जो न धुलमिल सके, वे दूर रहें। हमने ऐने वर्म को कसना नहीं की है कि प्राश्रम में ममी सव तरह से स्त्री मात्र के साथ घुर्ने मिले। इस तरह घुलने-मिलने की हमने सिर्फ छूट रती है। वर्म का सेवन करते हुए बोस छूट को मे सम्ठा है, वह ने ले। मार इस छूट को मेने में जिसे धर्म सो बने का डर है, वह प्राश्रम में रहते हुए नो उसमे मो कोम दूर भाग सकता है।" इस प्रयोग में महमा मधिी एक वैज्ञानिक की मी दृढ़ता से बने थे : "हाइड्रोजन और प्राक्सीजन को मिलाने पर बदाका होना संभव है, यह जानते हुए मो रसायनशास्त्री इस प्रयोग को छोड़ थोड़े ही देने? हमारे यहां ऐसे घढाके होते रहो. किन्न इससे क्या हमा ..."सौ में पांच प्रयोग गलत साविठ हुए हो, तो उसमे क्या हमा! हम भून करने का अधिकार है। जहां से भूत होगी, यहाँ से फिर मिलने और प्रागे बढ़ेगे।" (३) बहिनों से पत्रव्यवहार : - महात्मा गांधी का पत्रव्यवहार विवाहित-अविवाहित अनेक बहिनों के साथ चलता रहा। पत्रों द्वारा दे बहिनों को मनेक प्रकार की शिजाएं देते, उनकी समस्याओं का हन करने और प्रारिमक उन्नति की बातें बठलाते। जब कभी बहन ब्रह्मचर्य प्रथवा टढ़ सम्बन्धी विषयों पर प्रश्न पूछती व वे उन्हें पूरा उत्तर देते। बहिनों के पत्रों में ऐसे प्रश्नों को छूना नाजुक था और भारत-भूमि में यह एक नया प्रयोग ही कहा -सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४३ -यही पृ.४३ ३-बही पृ०४४ ४-महादेव भाई की डायरी (पहला भाग) पृ. १०८. ५-यही (तीसरा भाग) पृ० ११ ६-वही (पहला माग) पृ० १०६ Scanned by CamScanner Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका जायेगा। महात्मा गांधी के साथ बहिनों के पत्र-व्यवहार के प्रतेक संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और वे बड़े प्रभावक है। बहिनों के साथ ब्रह्मचर्य सम्बन्धी प्रश्नों पर भी कैसे खुलकर बात-चीत होती थी, उसका नमूना कुछ पत्रों के निम्न उद्धरणों से पाठकों के सामने पा सकेगा। "रक्तपित मादि रोग जिसके हुए हैं, उसे जबरदस्ती से नपुंसक करने की प्रथा को पसन्द करने में अनेक हकावट पाती है। इससे भनेक प्रकार के अनर्थ होने की संभावना है। पुन: किसी भी रोग को असाध्य मान लेना भी उचित नहीं। संयम का प्रचार कर जितना फल प्राप्त किया जा सके, उतने से संतुष्ट रहना, इसीमें मुझे सही-सलामत लगती है । पद-पद पर मुझे कायरता की गंध पाती है। कायर कातने वाला सूते में पड़ी हुई गुत्थी को चाकू से निकालेगा। कुशल कातनेवाला धीरज से और कला से उसे सुलझायेगा और मूते को प्रविछिन्न रखेगा। ऐसा ही कुछ अहिंसक मनुष्य प्रसाध्य मानी जानेवाली व्याधि से पीड़ित लोगों के लिए ढूंढेगा (२-६-३५)." "महाराष्ट्र के पत्र की बात बिल्कुल सत्य है। पर उसकी कल्पना बिल्कुल प्रसत्य है। लड़कियों के कंधों पर हाथ रखकर मैं अपनी विषय-वृत्ति का पोषण करता था, ऐसा इस लिखनेवाले के पत्र का प्रथं किया जा सकता है। इसका कथन तो जुदा ही था। पर बात यह है कि, लड़कियों के कंधों पर हाथ रखना बन्द किया उसके साथ मेरी विषय-वासना का कोई सम्बन्ध नहीं। "इसकी उत्पत्ति केवल निकम्मे पड़े रहकर खाते रहने में थी। मुझं स्राव हुआ, पर मैं जाग्रत था और मन अंकुश में था। कारण समझ गया और तब से डाक्टरी पाराम लेना बन्द कर दिया। मौर ब तो मेरी जो स्थिति थी उससे अधिक सरस की कल्पना की जा सके तो सरस है। इस विषय में तुझे विशेष पूछना हो तो पूछ सकती हो, क्योंकि तुम से मैंने बड़ी प्राशाएं रखी है । अतः तू मुझसे मेरे विषय में जो जानना हो वह जान ले। "जननेन्द्रिय विषय के लिए है ही नहीं, यदि यह स्पष्ट हो जाय तो समूची दृष्टि ही न पलट जाय ? जैसे कोई रास्ते में क्षय रोगी के खंखार को मणि समझकर उसे हाथ में लेने के लिए उत्सुक होता है, पर खंखार है, ऐसा समझते ही वह शान्त हो जाता है। उसी प्रकार जननेन्द्रिय के उपयोग के विषय में हैं। बात यह है कि यह मान्यता ऐसो दृढ़ और स्पष्ट कभी थी नहीं। और अब तो नया शिक्षण इस मत की निंदा करता है, मर्यादित विषय-सेवन को सद्गुण मानने को कहता है, और उसकी मावश्यकता है, ऐसा सुझाता है। इन सब पर विचार कर देखना (६-५-३६) ।" जब इस बहिन ने महात्मा गांधी से उन्हें स्वप्न होते हैं या नहीं, यह जानने की इच्छा की तो उन्होंने लिखा: . . "तूने प्रश्न उचित पूछा है। अब भी और अधिक स्पष्टता से पूछ सकती है। मुझे (स्वप्न में) स्खलन तो हमेशा हुए हैं। दक्षिण अफ्रिका में वर्षों का अन्तर पड़ा होगा, मुझे पूरा याद नहीं। यहां महीने के अन्दर होता है। स्खलन होने का उल्लेख मैंने अपने दो-चार लेखों में किया है। यदि मेरा ब्रह्मचर्य स्खलन-रहित होता तो आज मैं जगत के सम्मुख बहुत अधिक वस्तु रख सकता। पर जिसे १५ वर्ष की उम्र से लेकर ३० वर्ष की उम्र तक, फिर चाहें अपनी स्त्री के विषय में ही रहा हो, विषयभोग विया है, वह ब्रह्मचारी होकर वीर्य को सर्वथा रोक सके, यह लगभग अशक्य जैसा मालूम होता है। जिसकी संग्राहक शक्ति १५ वर्ष तक दिन प्रतिदिन क्षीण होती रही है, वह एकाएक इस शक्ति को प्राप्त नहीं कर सकता । उसका मन और शरीर दोनों निर्बल हो चुके होते हैं। अत: अपने स्वयं को मैं बहुत अपूर्ण ब्रह्मचारी मानता हूं। पर जिस तरह जहाँ वृत नहीं होता वहाँ एरंड ही प्रधान होता है, वही मेरी स्थिति है। यह मेरी अपूर्णता संसार को मालूम है।" ... रूपणता में जो अनुभव हुमा उसको विशेष रूप से जानने को जिज्ञासा का उत्तर उन्होंने उपर्युक्त पत्र में ही इस प्रकार दिया: "जिस अनुभव ने मुझं वम्बई में तंग किया, वह तो विचित्र और दुःखदायी था। मेरे सारे स्खलन स्वप्नों में रहे, उन्होंने मुझे सताया नहीं। उन्हें मैं भूल सका हूं। पर वम्बई का अनुभव तो जाग्रत स्थिति में था। इस इच्छा को पूरी करने की तो मूल में ही वृत्ति न थी, मूढ़ता जरा भी न थी। शरीर पर काबू पूरा था। पर प्रयत्न होने पर भी इन्द्रिय जागृत रही, यह अनुभव नया था और शोभा न दे, ऐसा था। उसका कारण तो मैंने बताया ही है। यह कारण दूर होने पर जाति बंद हुई। अर्थात् जाग्रत अवस्था में बन्द।" ___ इसके बाद पत्र में अपनी शुद्धि और ब्रह्मचर्य की साध्यता के विषय पर एक सुन्दर प्रवचन-सा ही है। १-बापुना पत्रो-५ कु. प्रेमाबहेन कंटकने पृ० ०३५ २-इसका सम्बन्ध बीमारी के समय की उस बेचैनीपूर्ण घटना से है जिसका उल्लेख पीछे पृ०६८ पर आया है। ३-यापुना पन्नो-५ कु. प्रेमावहेन कंटकने पृ० २३६-७ Scanned by CamScanner Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नय बाड़ "मेरी मपूर्णता होने पर भी एक यस्तु मेरे लिए सुसाध्य रही है। वह यह कि मेरेप स हजारों स्त्रियाँ सुरक्षित रही है। ऐसे प्रसंग मेरे जीवन में माए हैं, जब भमक बहिनों को, उनमें विषय-वासना होने पर भी ईश्वर ने उन्हें, अथवा पाहो मुझे बचाया है। यह ईयरी ही कुति है, ऐसा मैं शत-प्रतिशत मानता हूँ। इससे मुझे इस बात का जरा भी मभिमान नहीं। यह मेरी स्थिति मरणान्त तक कायम रहेकी ईश्वर से मेरी नित्य प्रार्थना रहती है। 4. "शुकदेव की स्थिति प्राप्त करने का मेरा प्रयन है । यह प्राप्त नहीं कर सका हूं। यह स्थिति पैदा हो तो वीर्यवान होते हुए भी मैं नपुंसक बनूं मौर स्खलन भसंभव हो। ... .. "पर ब्रह्मचर्य के विषय में जो विचार इधर में दर्शाये हैं, उनमें कोई न्यूनता नहीं, अतिशयोक्ति नहीं। इस प्रादर्श तक प्रयत्न से चाहे जो स्त्री-पुरुष पहुंच सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि इस मादर्श को मेरे जीते जगत या हजारों मनुष्य पहुंच जायंगे। इसे हजारों वर्ष लगन हों तो भले ही लगें, पर यह वस्तु सच्ची है, साध्य है, सिस होनी ही चाहिए। "मनुष्य को भभी तो बहुत मार्ग काटना है। अभी उसकी वृत्ति पशु को है। मात्र प्राकृति मनुष्य की है । ऐसा लगता है, जैसे हिंसा चारों भोर फैल रही है। असत्य से जगत भरा है। तो भी सत्य-अहिंसा धर्म के विषय में शंका नहीं, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य के विषय में समझो। "जो प्रयत्न करते हैं फिर भी जलते रहते हैं, वे प्रयत्न नहीं करते। जो अपने मन में विकारों का पोपण करते रहने पर भी केवल स्खलन नहीं होने देना चाहते, स्त्री-संग नहीं करना चाहते, उनके प्रति दूसरा अध्याय लागू पड़ता है। ये मिथ्याचारियों में गिने जायंगे। - "मैं अभी जो कर रहा हूँ, वह है विचार शुद्धि। "माधुनिक विचार ब्रह्मचर्य को अधर्म मानता है। इससे कृत्रिम उपायों से संतति को रोक कर विषय-सेवन का धर्म-पालन करना चाहता है। इसके सम्मुख मेरी मात्मा विद्रोह करती है। ... "विषयासक्ति जगत में रहेगी ही, पर जगत की प्रतिष्ठा ब्रह्मचर्य पर है और रहेगी (२१५-३६)" 2. इन पत्रों की प्रथा ने भी काफी बवंडर उत्पन्न किया। महात्मा गांधी को लिखना पड़ा : "साबरमती आश्रम की सदस्या प्रेमाबहन कंटक के नाम लिखी गई मेरी चिट्टियां भी मेरे पतन को सिद्ध करने के काम में लाई गई हैं। प्रेमाबहन एक ग्रंजएट महिला और योग्य कार्यकी है। वह ब्रह्मचर्य और इसी प्रकार के दूसरे विषयों पर प्रश्न पूछा करती थी। मैं उन्हें पूरे जवाब भेजता था। उन्होंने यह सोच कर कि ये जवाब सर्व साधारण के लिए भी उपयोगी होंगे, मेरी इजाजत से उन्हें प्रकाशित कर दिया। में उन्हें बिल्कुल निर्दोष और पवित्र मानता (8) औपचारिक मालिश और स्नान दक्षिण अफ्रिका में महात्मा गांधी स्त्री-पुरुषों की प्राकृतिक चिकित्सा किया करते । सेवाग्राम पाश्रम में स्त्री-पुरुष परस्पर रोगी की परिचर्या करते। स्वयं महात्मा गांधी स्त्रियों से मालिश करवाते और उनसे प्रौपचारिक स्नान लेते । मालिश कराते समय वे प्रायः नग्न होते । बहिन भी मालिश करतीं। यह प्रयोग भी भारतभूमि में नया ही कहा जायगा। इस छूट की भी प्रालोचना हुई । एक बार महात्मा गांधी ने कहा: . 'मालिश और प्रौपचारिक स्नान-ये बातें ऐसी हैं, जिनके लिए मेरे पास-पास के व्यक्तियों में डॉक्टर सुशीला नयर सब से अधिक योग्य हैं। उत्सुक व्यक्तियों की जानकारी के लिए यह बतला दूं कि ये काम तनहाई में कभी नहीं किये जाते। ये काम डंढ़ घंटे से भी अधिक देर तक होते रहते हैं, और इसके बीच में प्रायः सो जाता हूं"..'या दूसरे साथियों के साथ काम भी करता हूं।" मालिश और स्नान का कार्य अन्य बहिनें भी करतीं। R asi .. 'महात्मा गांधी ने अपनी इन प्रवृत्तियों को लक्ष्य कर लिखा : को "मेरे इस जीवन में कोई गोपनीयता नहीं है । कमजोरियां मुझमें भी हैं जहर । लेकिन अगर कामुकता की ओर मेरा झुकाव होता तो मुझ -बापुना पत्रो-५ कु. प्रेमाबहेन कंटकने पृ० २३५-४० . २-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० २६isha p ata n i ३-वही पृ०२८ Scanned by CamScanner Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका में इतना साहस है कि मैं उसको कबूल कर लेता।" उन्होंने माने खुले जीवन के बारे में लिखा है : "जब मेरे अन्दर अपनी पत्नी के साथ विषय-संबन्ध रखने की अरुचि काफी बढ़ गई, और इस सम्बन्ध में मैंने काफी परीक्षा कर ली, तभी मैंने १९०६ में ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। उसी दिन से मेरा खुला जोवन शुरू हो गया। सिर्फ उस अवसर को छोड़ कर, जिसका कि मैंने 'यंगइन्डिया' और 'नवजीवन' के अपने लेखों में उल्लेख किया है, और कभी मैं अपनी पत्नी या अन्य स्त्रियों के साथ दरवाजा बंद करके सोया या रहा होऊ, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता । और वे रात मेरे लिए सचमुच काली रातें थीं। लेकिन जैसा कि मैंने बार-बार कहा है, अपने बावजूद ईश्वर ने मुझे बचाया है। "जिस दिन से मैंने ब्रह्मवर्य शुरू किया, उसी दिन से हमारी स्वतंत्रता का प्रारंभ हुआ है। मेरी पत्नी मेरे स्वामित्व के अधिकार से मुक्त हो गई, और में अपनी उस वासना की दासता से मुक्त हो गया, जिसकी पूर्ति उसे करनी पड़ती थी। . "जिस भावना में मैं अपनी पत्नी के प्रति अनुरक्त था, उस भावना में और किसी स्त्री के प्रति मेरा आकर्षण नहीं रहा है। पति के रूप में उसके प्रति मैं बहुत बफादार था और अपनी माता के सामने किसी अन्य स्त्री का दास न बनने की मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसके प्रति भी मैं वैसा ही बफादार था। ___ "जिस तरह मेरे अन्दर ब्रह्मचर्य का उदय हुआ, उसके कारण अदम्यरूप से स्त्रियों को मैं मातृभाव से देखने लगा। स्त्रिया मेरे लिए इतनी पवित्र हो गई कि में उनके प्रति कामुकतापूर्ण प्रेम का खयाल ही नहीं कर सकता। इसलिए तत्काल हरेक स्त्री मेरे लिए बहन या बहन की तरह हो गयी। "फिनिक्स में मेरे पासपास काफी स्त्रियां रहती थीं। दक्षिण अफ्रिका में अंग्रेज व हिंदुस्तानी अनेक बहनों का विश्वास प्राप्त था।""भारत लौटने पर यहां भी जल्दी ही में भारतीय स्त्रियों में हिलमिल गया।".."दक्षिण अफ्रिका की तरह यहां भी मुसलमान स्त्रियों ने मुझसे कभी परदा नहीं किया। पाश्रम में मैं स्त्रियों से घिरा हुआ सोता हूँ, क्योंकि मेरे साथ वे अपने को हर तरह सुरक्षित महसूस करती हैं। मुझे यह भी याद दिला देनी चाहिए कि सेगांव-पाश्रम में कोई पेशादगी नहीं है। ... . "अगर स्त्रियों के प्रति मेरा कामुकतापूर्ण झुकाव होता तो, अपने जीवन के इस काल में भी, मुझमें इतना साहस है कि मैंने कई पलिया रख ली होतीं। . "गुप्त या खुले स्वतंत्र प्रेम में मेरा विश्वास नहीं है। उन्मुक्त प्रेम को मैं तो कुत्तों का प्रेम समझता हूं। और गुप्त प्रेम में तो, इसके मलावा कायरता भी है।".. " . .. (५) अन्तिम और सबसे बड़ा प्रयोग ..... . सन् १९४७ के साम्प्रदायिक दंगे के समय महात्मा गान्थी नोनाखाली गये। मनु बहन गान्धी श्रीरामपुर में उनके साथ हुई। उस समय बहिन की उम्र १८-१६ वर्ष की रही। मनु बहिन रिस्ते में महात्मा गांधी की पोती होती थी। उनकी माता का देहान्त उस समय हो गया जब वह केवल बारह साल की'. थी। बा ने कभी इन्हें मां की कमी महसूस न होने दी। प्रागीखान महल में वा की अस्वस्थता के समय मन बहन सरकार द्वारा उनकी परिचर्या के लिए नांगपुर जेल से वहां भेजी गई। तेरह महीने तक मनु बहन बा की सतत सेवा करती रही। बा का मनु बहन पर असीम स्नेह था। सन् ४४ की २२ फरवरी को बा का देहावसान हुआ। उसी रात को, बा के अग्निदाह के बाद बापू ने मनु बहन को अपने पास बुलाया और बाकी की कई चीजें उसके हाथ में दीं। उनमें बा को हाथी दांत की दो पुरानी चड़ियां भी थीं। उस समय बापू ने कहा:"...अब तुम्हारा काम यह है कि जैसे भरत ने राम के बदले राम की पादुका को गादी पर बैठाकर उनसे प्रेरणा ली थी, वैसे ही तुम भी इन चीजों से प्रेरणा लो। और या कसी सती थी ! उसका सबूत यह है कि उनकी ये चूड़ियां मनों लकड़ियों की प्राग में से भी सही सलामत निकली हैं।" बापू मनु बहन को प्यार में 'मनुड़ी' कहते। और इस १४-१५ साल की बच्ची की देख-भाल करते। वे बार-बार कहा करतें—'मैं तो तुम्हारी माँ बन चुका १-हरिजन-सेवक, ४-११-३६ ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० २६-३१ का सारांश Scanned by CamScanner Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव थार ८० हूं न ? वैसे बाप तो बहुतों का बन चुकता, लेकिन मां सिर्फ तुम्हारी ही बना हूँ।".. गांधीजी नोमाखाली जान को थे। उस समय मन बहन के पिता जय खलाल भाई को पत्र दिया जिसमें लिखा-इस समय मन का स्थान मेरे पास ही हो सकता है।..." मनु बहन ने उत्तर में लिखा: “यदि मुझं किसी गांव में बैठाने का इरादा हो तो मुझे वहाँ नहीं माना है; परन्तु पाप अपनी व्यक्तिगत सेवा करने देने की शर्त पर प्राने दें तो ही मेरी इच्छा वहाँ पाने की है।" बापू ने तार द्वारा प्रस्ताव स्वीकार किया। मनु ने उत्तर में लिखा : ".."एक बार..."पादि मेरी सभी सहेलिया जानेवाली थी; तब मैंने कहा था, 'बापू, अब तो मैं अकेली हो गयी।' तब मापने मुझ से कहा था, 'तुम और मैं अकेले ही रहेंगे। मैं जीता हूँ तब तक तुम अकेली कैसे हो ।' और फिर पापने गीता के 'पापूर्यमाणम्'...श्लोक का अर्थ समझाया था। वह दिन सचमुच पा गया। मैं तो ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि वह मुने अन्त तक प्रामाणिकता से अापकी सेवा करने की शक्ति दे। ...सेवा करते-करते कोई छुरा भी भोंक देगा तो खुशी से वह दुःख सह लेंगी।...... " ____ मनु बहन पाने पिता के साथ ता० १९-१२-४६ को श्रीरामपुर पहुंची। गांधीजी ने जयमुखलाल भाई से कहा :..."यहाँ तो करना या मरना है। इसके लिए मनु की तैयारी होगी, इसका मुझे विश्वास नहीं था। ...यहाँ इसकी परीक्षा होगी। मैंने इस हिन्दू-मुस्लिम एकता को यज्ञ कहा है। इस यज्ञ में जरा भी मैल हो तो काम नहीं चल सकता। इसलिए मनु के मन में जरा भी मैल होगा तो इसका बुरा हाल होगा। यह सब तुम समझ लो, जिससे अब भी वापस जाना हो तो यह तुम्हारे साथ चली जाय। बाद में बुरा हाल होने पर जाय, उसके बजाय अभी लौट जाना ज्यादा अच्छा है।" र रात में महात्माजी ने मनु बहन को अपने साथ पानी शय्या में सुलाया। रात को ठीक १२॥ बजे सिर पर हाथ फर कर बापू ने मनु बहन को जगाया। बंले : "मनुड़ी, जागती हो क्या ? मुरो तुम्हारे साथ बातें करनी हैं । तुम पाना धर्म अच्छी तरह समझ लो।..." मनु बहन का निश्चय रहा: "जहाँ माप वहाँ मैं, मेरी यह एक शर्त प्रापको मंजूर हो तो फिर मैं किसी भी परीक्षा का और आपकी किसी भी शर्त का स्वागत करूंगी।" गांधीजी ने पत्र लिखा: "वि० मनुड़ी, अपना वचन पालन करना। मुझ से एक भी विचार छिपाना मत। जो बात पर्छ उसका बिल्कुल सच्चा उतर देना। आज मैंने जो कदम उठाया, वह खूब विचारपूर्वक उठाया था। उसका तुम्हारे मन पर जो असर हुमा हो वह मुझे लिख देना । मैं तो अपने सब विचार तुम्हें बताऊंगा ही। परन्तु इतना वचन मुझे तुम्हारी ओर से चाहिये । यह हृदय में अंकित करके रख लेता कि मैं जो कुछ कहूंगा या चाहूंगा, उसमें तुम्हारा भला ही मेरे सामने होगा।" मनु बहन ने मरते दम तक सब कष्ट सहन करने का वचन दिया। गांधीजी ने लिखा : "तुम्हारो श्रद्धा सवमुव ही यहाँ तक पहुंच गई हो तो तुम सुजित हो। तुम इस महायज में पूरा भाग अदा करोगी-मूर्ख हो तो भी..." जब मनु बहन के पिताजी लोटने लो तब गांवीजी ने कहा : "मेरी धारणा है कि जब तक मैं जिंदा है तब तक उसे जाने को नहीं कहूंगा। यह तंग पा जाय तो ले ही जा सकती है। परन्तु मेरा तो अभयदान है कि वह चाहे तो मुझे छोड़ सकती है, पर मैं इसे नहीं छोडगा ।......४" दिन में गांधी ने कहा-"अपनी मां से कुछ भी छिपामोगी तो पाप लगेगा। भले अच्छा विचार माये या बुरा, सब मुझं कह देना।" जर इस तरह मनु बहन गांधीजी की सार-सम्भाल में रहने लगी। गान्धीजी मनु बहन को अपनी ही शैया पर सुलाने लगे। इस कार्य के पीछे कई भावनाएं थीं। ...१-१९ वर्ष की प्रायु में भी मनु बहन में कामोद्रेक महीं, ऐसा उसका पहना था गांधीजी के मन में विचार उठा या तो 'मनहीं अपने मन को नहीं जानती प्रयवा स्वयं को धोखा दे रही है। उन्होंने सोचा मां के रूप में मेरा कर्तव्य है कि मैं असली बात जाने । १-बापू-मेरी माँ पृ० ३-१२ कला. चलो रे पृ० ४-६ -कला चलो रे पृ० ७-६ ४-बही पृ० १०-११ ५-वही पृ०१२ ६-My days with Gandhi P. 155 -- - Scanned by CamScanner Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांधीजी इस राय के थे कि सड़कियां भी मन हो ती ब्रह्मचारिणी रह सकती हैं, पर मन में विकार का पोषण करते हुए विवाह न करने के हिमायती नहीं थे। यदि इस बात की सच्ची प्रचि हो सके कि मन की क्या स्थिति है, तो एक समस्या का हल हो सकता था । महात्मा गांधी ने एक बार कहा: "मैं इस समय तुम्हारी माँ के रूप में हूं....मैं तुम्हारे जरिये इस बात का साक्षी बनना चाहता हूं कि एक पुरुप भी मां बन कर बेटी की हर तरह की गुत्थी को मुलझा सकता है।" २-उनकी यह धारणा थी कि यदि मनु बहन का दावा सत्य नहीं है, तो वह माँ से छिपा नहीं रह सकता। यदि कोई कमी होगी ठी वह प्रकट होकर ही रहेंगी। यदि उसमें कोई कमी नहीं होगी तो सत्य, माहम और बुद्धि में उसका क्रमशः विकास होता चला जायगा। -माथ ही प्रासंगिक रूप से महात्मा गांधी यह भी जानना चाहते थे कि वे पूर्ण ब्रह्मचर्य की दिशा में कहाँ तक बढ़े हुए हैं । इस प्रयोग के पीछे केवल निदान की दृष्टि ही नहीं यो, पर एक दृष्टि और भी थी। योगशास्त्र में कहा है : 'पूर्ण अहिंसक के सम्मुख वर नहीं टिक सकता। इसी तरह, महात्मा गांधी की धारणा थी कि पूर्ण ब्रह्मचारी के सम्मुख विषय-विकार दूर हो जाना चाहिए। होरेस एलेक्जेण्डर के साथ हुमा निन्न वार्तालाप उपर्युक्त बातों को स्पष्ट करता है। महात्माजी मे उन्होंने कहा : "ब्रह्मचर्य की जाँच के लिए ऐसे अन्तिम छोर के कदम की आवश्यकता नहीं थी। यह जाँच तो अन्य तरीके भी की जा सकती थी। मोम्योन स्टाइलिट स्तंभ पर चढ़कर अपनी प्रात्म-संयम की शक्ति का प्रदर्शन किया करता था। मैंने कभी इसकी प्रशंसा नहीं की। 'सब बातों में नम्रता'-यह एक अच्छा मूत्र है।" गांवीडी ने उत्तर में कहा-"यह ठीक है। सीम्योन स्टाइलिट वास्तव में कोई अनुकरणीय आदर्श नहीं, क्योंकि वह अहंभावी और क्रोधी था। मैंने जो यह कदम उठाया है वह यह दिखाने के लिए नहीं कि मैं क्या कर सकता हूं, वरन् यह तो पौत्री की शिक्षा की दिशा में जरूरी कदम है। यह तो मनु ने जो मुझे विश्वास दिया है, उसकी परीक्षा है और प्रानुसंगिक रूप में यह मेरी भी एक जाँच है। यदि मेरी मुच्चाई उस पर असर डाल सकी और उसमें उन खूवियों का विकास कर सकी, जिसको मैं चाहता हूं तो इससे यह प्रमाणित होगा कि मेरी सत्य की खोज सफल हुई है। तब मेरी सच्चाई मुसलमान, मुस्लिम लीग के मेरे विरोधी और जिन्ना पर भी असर डाल सकेगी जो कि मेरी मत्यता पर सन्देह करते रहे, तथा उसके द्वारा अपना तथा भारतवर्ष का नुकसान करते रहे।" ४-वे मनु बहन का एक प्रादर्श नारी के रूप में निर्माण करना चाहते थे। जब महात्मा गांधी के सामने प्रश्न पाया कि ऐसे समय में जब कि अाप ऐसे महत्त्व के काम में लगे हुए हैं, ऐसे कार्य में ध्यान कैसे दे सकते हैं ? तब उन्होंने मन बहन से है समझते हैं। उनके अज्ञान पर मुझे हसी पाती है। उनमें समझ का अभाव है। मैं तुम पर समय और शक्ति लगा रहा हूँ, वह सार्थक है। यदि भारत की करोड़ों लड़कियों में से मैं एक को भी प्रादर्श माँ बनकर, प्रादर्श स्त्री बना सकू, तो मैं स्त्री-जाति की अपूर्व सेवा कर सकंगा। पूर्ण ब्रह्मचारी होकर ही कोई स्त्रियों की सेवा कर सकता है।" ५-मनु बहन को एक बार उन्होंने कहा था : "यह न समझना कि मैंने तुम्हें यहाँ केवल अपनी सेवा के लिए ही बुलाया है। मेरी सेवा तो तुम करोगी ही। परन्तु जहाँ छोटी-सी लड़की या वृद्ध स्त्री भी सुरक्षित नहीं, वहाँ तुम्हें १६-१७ वर्ष की जवान लड़की को, मैंने अपने पास रखा है। यदि कोई नौ गुण्डा तुम्हें तंग करे और तुम उसका सामना बहादुरी के साथ कर सको अथवा सामना करते-करते मर जावो तो मैं खुशी से नाचूगा। तुम्हें बुलाने में यह भी एक प्रयोग है Tim e s 1-Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. I, pp. 575-76 २-अकला चलो रे पृ०२३ ३-Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. I, P. 576 ४-वही पृ० ५७६ -वही पृ०५७७ -वही पृ०५८० -वही पृ० १७८ ८-कला चलो रे पृ०११ Scanned by CamScanner Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोल की नव बाड़ ६-महात्मा गांधी यह भी देखना चाहते थे कि उनमें नपुंसकत्व की सिद्धि कहाँ तक है। उन्होंने एक बार लिखा था-"जिसकी विषयासक्ति जलकर खाक हो गई है, उसके मन में स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है और मिट जाना चाहिए। उसकी सौंदर्य की कल्पना भी दूसरा रूपले लेती है। वह बाहर के आकार को देखता ही नहीं।...इसलिए सुन्दर स्त्री को देखकर वह विह्वल नहीं बन जायेगा। उसकी जननेन्द्रिय भी दूसरा रूप ले लेगी अर्थात् वह सदा के लिए विकार-रहित बन जायगी। ऐसा पुरुष वीर्यहीन होकर नपुंसक नहीं बनेगा, मगर उसके वीर्य का परिवर्तन होने के कारण वह नपुंसक-सा लगेगा । सुना है कि नपुंसक का रस नहीं जलता। जो रस मात्र के भस्म हो जाने से ऊर्ध्वरेता हो गया है, उस का नपुंसकपना बिल्कुल अलग ही किस्म का होता है। वह सबके लिए इष्ट है। ऐसा ब्रह्मचारी विरला ही देखने में आता है।" महात्मा गांधी ऐसे नपुंसकत्व के कामी थे और उनमें ऐसा नपुंसकत्व है या नहीं, इसकी जांच वे इस कठोर आँच में करना चाहते थे । ७–महात्मा गांधी जानना चाहते थे कि उनकी अहिंसा कहीं ब्रह्मचर्य की कमी के कारण तो निस्तेज नहीं है। • एक कांग्रेस-नेता ने बातचीत के सिलसिले में १९३८ में गांधीजी से कहा- 'यह क्या बात है कि कांग्रेस अब नैतिकता की दृष्टि से वैसी नहीं रही, जैसी कि वह १९२० से १९२५ तक थी ? तबसे तो इसकी बहुत नैतिक अवनति हो गई है ।......क्या आप इस हालत को सुधारने के लिये कुछ नहीं कर सकते?" इसका उत्तर गांधीजी ने इस प्रकार दिया : "अहिंसा की योजना में जबर्दस्ती का कोई काम नहीं है। उसमें तो इसी बात पर निर्भर रहना पड़ता है कि लोगों की बुद्धि और हृदय तक-उसमें भी बुद्धि की अपेक्षा हृदय पर ही ज्यादा-पहुँचने की क्षमता प्राप्त की जाय। - "इसका अभिप्राय हुआ कि सत्याग्रह के सेनापति के शब्द में ताकत होनी चाहिये-वह ताकत नहीं जो कि असीमित अस्त्र-शस्त्रों से प्राप्त होती है, बल्कि वह जो जीवन की शुद्धता, दृढ़ जागरूकता और संतत आचरण से प्राप्त होती है। यह ब्रह्मचर्य का पालन किये वगैर असम्भव है। इसका इतना सम्पूर्ण होना आवश्यक है, जितना कि मनुष्य के लिए संभव है। "जिसे अहिंसात्मक कार्य के लिए मनुष्य-जाति के विशाल समूहों को संगठित करना है, उसे तो इन्द्रियों के पूर्ण निग्रह को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना ही चाहिए। "इस बात का मैंने कभी दावा नहीं किया कि मैं अपनी परिभाषा के अनुसार पूरा ब्रह्मचारी बन गया हूँ। अब भी मैं अपने विचारों पर उतना नियंत्रण नहीं रख सकता हूं जितने नियंत्रण की, अपनी अहिंसा की शोधों के लिये मुझे आवश्यकता है। लेकिन अगर मेरी अहिंसा ऐसी हो जिसका दूसरों पर असर पड़े और वह उनमें फैले, तो मुझे अपने विचारों पर और अधिक नियंत्रण करना ही चाहिए। इस लेख के प्रारंभिक वाक्यों में नेतृत्व की जिस प्रत्यक्ष असफलता का उल्लेख किया गया है, उसका कारण शायद कहीं-न-कहीं किसी कमी का रह जाना ही है" (हरिजन सेवक, २३-७-'३८) । - इसी तरह उन्होंने फिर कहा था-"जब तक यह ब्रह्मचर्य प्राप्त नहीं हो जाता, मनुष्य उतनी अहिंसा तक जितनी कि उसके लिए शक्य है. पहुंच नहीं सकता" (हरिजन सेवक, २८-१०-३६) हर गांधीजी की यह धारणा नोग्राखाली के दंगे के समय भी रही। उनकी ब्रह्मचर्य की साधना में कोई कमी तो नहीं-यह वे जानना चाहते थे। यदि वे सच्चे ब्रह्मचारी हैं तो उसका असर वातावरण पर पड़े बिना नहीं रह सकता-यह उनका विश्वास था। ठक्कर बापा से उनकी जो बातचीत हुई, वह इस सम्बन्ध में यथेष्ट प्रकाश डालती है : ठक्कर बापा ने पूछा- “यह प्रयोग यहाँ क्यों ?" गान्धीजी ने उत्तर दिया-"बापा ! भूल कर रहे हो। यह प्रयोग नहीं है पर मेरे यज्ञ का सायुज्य अंग है । प्रयोग बाद दिया जा सकता है. पर कोई अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ सकता। अब यदि मैं किसी बात को अपने यज्ञ-पवित्र कर्तव्य का अंश मानता हूं तो सार्वजनिक मत मेरे खिलाफ होने पर भी मैं उसका त्याग नहीं कर सकता। मैं तो प्रात्मशुद्धि प्राप्त करने में लगा हुआ हूं। पांच महाव्रत मेरे आध्यात्मिक प्रयत्नों १-आरोग्य की कुंजी पृ० ३१-२ २–ब्रह्मचर्य ( पहला भाग) पृ० १००, १०२, १०३, १०४-५ - ३–ब्रह्मचर्य (दूसरा भाग) पृ० ७ MISHRASADURISES . Scanned by CamScanner Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ८३ के पांच प्राधार हैं । ब्रह्मचर्य इन्हीं में से एक है। ये पांचों अविभाज्य हैं तथा परस्पर सम्बन्धित और अन्योन्याधित हैं । यदि उनमें से एक का भङ्ग किया जाता है तो पांचों का भङ्ग हो जाता है। ऐसा होने से यदि में किसी को प्रसन्न करने के लिए ब्रह्मचर्य की साधना में फिसलूं तो में ब्रह्मचर्य को ही जोखिम में नहीं डालता पर सत्य, अहिंसा और सब महाव्रतों को भी जोखिम में डालता है। में दूसरे व्रतों के सम्बन्ध में व्यवहार और सिद्धान्त में कोई अन्तर नहीं लाने देता। यदि में केवल ब्रह्मचर्य के विषय में ही ऐसा करूं तो क्या इससे मैं ब्रह्मचर्य की धार को मन्द नहीं करूंगा ? सत्य की मेरी साधना को दूषित नहीं करूंगा? जब से मैं नोग्राखाली में पाया हूं, मैं अपने से यह प्रश्न पूछता रहा हूं, कि वह कौन-सी बात है, जो मेरी अहिंसा को कार्यकारी होने से रोक रही है। यह मंत्र काम क्यों नहीं कर रहा है ? कहीं मैंने ब्रह्मचर्य के बारे में तो गलती नहीं की कि जिसका यह परिणाम हो।" बापा बोले-"आपकी अहिंसा असफल नहीं है। विचार करें यदि आप यहाँ नहीं पाते तो नोपाखाली के भाग्य में क्या बदा होता ? दुनिया ब्रह्मचर्य के बारे में उस रूप में नहीं सोचती, जिस रूप में आप सोच रहे हैं।" गान्धीजी बोले-'यदि मैं आपकी बात को मान लूँ तो उसका अर्थ यह हुमा कि दुनिया को नाराज करने के भय से मैं उस बात को छोड़ दूं, जिसे मैं ठीक समझता हूं। अगर मैं अपने जीवन में इस तरह से आगे बढ़ता तो न मालूम मैं कहाँ होता ? मैं अपने को किसी गडढे के तले में पाता । बापा ! आप इसका कोई अनुमान नहीं लगा सकते, पर मैं इसका दृश्य अपने लिए प्रोक सकता हूं। मैंने अपने वर्तमान साहसपूर्ण कार्य को यज्ञ-तप कहा है। इसका अर्थ है-परम आत्म-शुद्धि। ऐसी प्रात्म-शुद्धि कसे हो सकती है, यदि मैं अपने मन में एक बात रक्खू और उसे खुल्लम-खुल्ला व्यवहार में लाने की हिम्मत नहीं कर सकूँ ? क्या उस बात के करने के लिए भी, जिसे व्यक्ति अपने हृदय से कर्तव्य समझता है, किसी की सलाह या स्वीकृति की आवश्यकता रहती है ? ऐसी परिस्थिति में मित्रों के लिए दो ही मार्ग खुले हैं या तो वे मेरे उद्देश्य की पवित्रता में विश्वास रखें, फिर भले ही वे मेरे विचारों को समझने में असमर्थ हों या उनसे असहमत हों, अथवा वे मुझसे ही हट जायं । बीच का कोई रास्ता नहीं। उस हालत में जब कि मैं एक यज्ञ में उतरा हूं जिसका अर्थ है सत्य का पूर्ण प्रयोग, मैं उस बात का साहस नहीं कर सकता कि मेरे तर्क-सिद्ध विश्वासों को काम में परिणत न करूं। न यही उचित है कि मैं अान्तरिक विश्वासों को छिपाऊँ, या अपने तक ही रखू । यह तो मेरी मित्रों के प्रति अवफादारी होगी।.....मैं इस जांच से कैसे दूर भाग सकता हूँ? मैंने अपने मन को स्थिर कर लिया है। ईश्वर के एकाकी मार्ग पर, जिस पर कि मैं चल रहा हूं, मुझे किसी पार्थिव साथी की आवश्यकता नहीं। "हजारों हिन्दू-मुसलिम स्त्रियाँ मेरे पास पाती हैं। ये मेरे लिए अपनी मां, बहन और पुत्रियों की तरह हैं। यदि ऐसा अवसर प्रा जाय, जिससे आवश्यक हो जाग कि मैं उनके साथ अपनी शय्या का उपभोग करूं तो मुझे जरा भी हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए ? यदि मैं वैसा ब्रह्मचारी हूं, जैसा कि मेरा दावा है। यदि मैं इस परीक्षा से अलग होऊं, तो मैं अपने को डरपोक और धोखेबाज साबित करूंगा।" बापा-"और यदि आपका कोई अनुकरण करगे लगे तो?" गांधीजी : "यदि मेरे उदाहरण का कोई अंधानुकरण करे अथवा उसवा अनुचित फायदा उटाये, तो समाज उसे सहन नहीं करेगा और न उसे सहन करना ही चाहिए। पर यदि कोई सच्चा और इमानदारीपूर्ण प्रयत्न करता हो, तो समाज. को उसका स्वागत करना चाहिए और यह उसकी भलाई के लिए ही होगा। जैसे ही मेरी यह खोज पूर्ण होगी, मैं खुद ही उसका परिणाम सारी दुनिया के सामने रखुंगा।".... बापा-"कम-से-कम मैं तो आपमें कोई बुरी बात होने की कल्पना नहीं करता । पाखिर मनु तो आपकी पौत्री ही है। मैं यह स्वीकार करता हूं कि प्रारंभ में मेरे मन में कुछ विचार थे। मैं नम्रता के साथ अपनी शंका को आपके सामने जोर से रखने के लिए आया था। मैं समझ नहीं पाया था। आपके साथ आज जो बातचीत हुई, उसके बाद ही मैं गहराई से रामझ सका हूं कि आप जिस बात के करने के प्रयल में हैं, उसका अर्थ क्या है ?" गांधीजी बोले : "क्या इससे कोई वास्तविक अंतर पड़ता है ? कोई अन्तर नहीं पड़ता और न पड़ना चाहिए । पाप मनु और अन्य बालाओं में भेद करना चाहते हैं । मेरे मन में ऐसा भेद नहीं है । मेरे लिए तो सब पुत्रियाँ हैं।" ठक्कर बापा के साथ महात्मा गांधी की जो बातचीत हुई, उसके बाद मनु बहन गांधीजी के पास आकर बोली : "यद्यपि प्रारम्भ में. ठक्कर बापा को कार्य के प्रौचित्य के बारे में शंका थी। परन्तु अपने छह दिनों के निकट सम्पर्क और निरीक्षण से उनकी शंकाए पूर्णरूप से दूर हो गई १-Mahatma Gandhi-The Last Phase pp. 585-87 Scanned by CamScanner Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ है । और उनको इस बात की तसल्ली हो गई है कि पाप जो कर रहे हैं, उसमें कोई बुराई या अनौचित्य नहीं है और न इससे सम्बन्धित व्यक्तियों में। उन्होंने अपने मित्रों को भी यह बात लिखी है। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके विचारों में परिवर्तन सब से अधिक यह देख कर हुमा है कि हम दोनों की नींद निर्दोष और गहरी होती है। तथा मैं एकाग्रता और अथक श्रद्धा के साथ कर्तव्य का पालन करती रहती हैं। ऐसी हालत में यदि बापू को स्वीकार हो तो मैं इस बात में कोई हानि नहीं देखती कि ठपकर बापा का यह सुझाव, कि इस प्रयोग को फिलहाल स्थगित कर दिया जाय, स्वीकार कर लिया जाय।" मन बहन ने यह भी स्पष्ट किया कि जहाँ तक विचारों का प्रश्न है, वह महात्मा गांधी के विचारों से एकमत है। मौर वह एक इंच भी पीछे नहीं हट रही है। गान्धीजी ने इस बात को स्वीकार किया। प्रयोग को स्थगित करने का निश्चय हैमचर में हमा। जबतक महात्मा गांधी बिहार में रहे, तब यह प्रयोग स्थगित रहा। बाद में जब दिल्ली पहुंचे, तब वह पुन: चालू कर दिया गया और महात्माजी की मृत्यु तक जारी रहा। महात्मा गांधी ता० २४-२-'४७ को हैमचर पहुंचे। उनसे ठक्कर बापा की बातचीत केवल आध घंटा ता० २६-२.४७. को हुई। उसी का परिणाम ऐसा निकला। मनु ने अपना निवेदन संभवत: २-३-०४७ को महात्मा गांधी के सामने रखा था| मई के अन्तिम सप्ताह में गांधीजी ने पटना छोड़ा और दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। इस तरह लगभग तीन महीना प्रयोग स्थगित रहा। - महात्मा गांधी ने इस प्रयोग को अपने जीवन का सब से बड़ा और अन्तिम प्रयोग कहा था५ । उन्होंने कहा : ''मैंने खूब विचार किया है। चाहे मुझे सारी दुनिया छोड़ दे पर मेरे लिए जो सत्य है, उसे मैं छोड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। यह एक धोखा और मोह-पाश हो सकता है। पर मुझे खुद को वह वैसा मालूम होना चाहिए। इसके पहले भी मैं खतरे मोल ले चुका हूँ। अगर यह प्रयोग खतरा ही होना है तो होकर रहे ।" इसके पहले उन्होंने मीरा बहिन को लिखा था : "सत्य का मार्ग खप्पड़ों से छाया हुअा रहता है, जिस पर हिम्मत के साथ चलना पड़ता है।" इसी तरह उन्होंने लिखा-: "तुम रास्ते में बिछे काटे, पत्थर और खड्डों से घबड़ायोगे तो ब्रह्मचर्य के रास्ते पर नहीं चल सकते। यह संभव है कि हम ठोकर खा जायं, हमारे पैरों से खून बहने लगे, यहाँ तक कि हमारे प्राण भी चले जायं। पर हम उस से मुड़ नहीं सकते।" राला र महात्मा गांधी ने यह प्रयोगः ता० १६-१२-'४६ को प्रारंभ किया था । थोड़े ही दिनों में आस-पास कानाफूसियाँ होने लगीं। बाहर से भी आपत्तियाँ आई। महात्मा गांधी १-२-४७ की प्रार्थना सभा में अपने प्रयोग का जिक्र करते हुए बोले : "मैं इतने सन्देह और अविश्वास के बीच में हैं कि मैं नहीं चाहता कि मेरे अत्यन्त निर्दोष कार्य इस तरह उलटे समझ जायें और उनका उलटा प्रचार किया जाय । मेरी पोती मेरे साथ है। वह मेरे साथ मेरे बिछौने पर सोती है। _ "पैगम्बर चीर-फाड़ के द्वारा नपुंसकत्व प्राप्त करने की निन्दा करते थे। ईश्वर की प्रार्थना के बल पर जो नपुंसक होते थे, उनका वे स्वागत करते थे। मेरी भावना भी ऐसे ही नपुंसकत्व की प्राप्ति की है। इस तरह एक ईश्वर-कृत नपुंसक की भावना से मैं कर्तव्य में लगा है। R-Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. 1, pp. 587. 591. 598 २–अकलो जाने रे पृ० १७० ३-वही पृ० १७८ (पहली पंक्ति ४-विहारनी कोमी आगमां पृ० ३६८ ५-Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. I. p. 591 -वही पृ० ५८१ -वही ८-वही पृ० ५८४<--My days with Gandhi p. 115 Scanned by CamScanner Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका यह तो मेरे यज्ञ का एक अविभाज्य अङ्ग है। मुझे सब कोई पाशीर्वाद दें। मैं जानता है कि मेरे मित्रों में भी मेरे कार्य की पालोचना है, परन्तु अत्यन्त अभिन्न मित्रों के लिए भी कर्तव्य को नहीं छोड़ा जा सकता।" ता०२-२-४७ के प्रार्थना-प्रवचन में उन्होंने कहा-"मैंने जानबूझ कर खानगी जीवन की बात कही हैं, क्योंकि मैं यह कभी नहीं मानता कि मनुष्य का खानगी जीवन, उसके सार्वजनिक कार्यों पर कोई असर नहीं डालता। मैं यह नहीं मानता कि अपने जीवन में अनंतिक रहते हुए भी में जनता का सच्चा सेवक रह सyगा। अपने खानगी चरित्र का असर सार्वजनिक कार्यों पर पड़े बिना नहीं रह सकता। खानगी और सार्वजनिक जीवन में दूध के कारण बहुत बुराई हुई है । मेरे जीवन में अहिंसा की जांच का यह सर्वोपरि अवसर है । ऐसे अवसर पर में ईश्वर और मनुष्य के सम्मुख अपने प्रान्तरिक और सार्वजनिक दोनों कार्यों के योगफल के माधार पर जांचा जाना चाहता हूं। मैंने वर्षों पूर्व कहा था कि अहिंसा का जीवन, फिर चाहे वह व्यक्ति का हो, चाहे समूह का हो, चाहे एक राष्ट्र का, पात्म-परीक्षा और प्रात्मशुद्धि का. होता है।" .. ता० ३-२-'४७ के प्रवचन में महात्माजी ने कहा : "मैंने अपने खानगी जीवन के बारे में जो बातें कही हैं, वह प्रधानुकरण के लिए नहीं है। मैंने यह दावा नहीं किया कि मुझ में कोई असाधारण शक्ति है। मैं जो पर रहा हूं वह सबके, करने योग्य है, यदि वे उन शर्तों का पालन करें जिन का मैं करता हूँ। ऐसा नहीं करते हुए जो मेरे अनुकरण का बहाना करेंगे, वे पछाड़ खाये बिना नहीं रह सकते। मैं जो कर रहा हूं, वह अवश्य खतरे से भरा हुमा है। पर यदि शतों का कठोरता से के साथ पालन किया जाय तो यह खतरा नहीं रहता।" उपर्युक्त उदगारों से स्पष्ट है कि महात्मा गांधी इस प्रयोग को, अपने यज्ञ का अविभाज्य अंश मानते. रहे। वे इसे इतना पवित्र मानते रहे कि उन्होंने जनता को इसकी सफलता के लिए आशीर्वाद देने को आमंत्रित किया। इस प्रयोग का विवरण दो पुस्तकों में प्राप्त है : (१) श्री. प्यारेलालजी लिखित 'महात्मा गांधी–दी लास्ट फेज' और (२) श्री निर्मल बोस लिखित-माई डेज विथ गांधी'। महात्मा गांधी ने जिस प्रयोग की खुल्ले में चर्चा की है, उसी प्रयोग के बारे में. उपर्युक्त दोनों विवरणों में अत्यन्त रहस्यपूर्ण ढंग से और गोपनीयता के साथ चर्चा की गई है। सम्मान और नम्रता के साथ कहना होगा कि दोनों विवरण पूरे तथ्यों को उपस्थित नहीं करते और ऐतिहासिक दृष्टि से दोषपूर्ण हैं। ... भार श्री प्यारेलालजी ने महात्मा गांधी की पौत्री श्री मनु तक परिमित रख कर ही इस प्रयोग की चर्चा की है। श्री बोस. के अनुसार यह प्रयोग अन्य बहनों को साथ लेकर भी किया गया था और प्रथम बार ही नहीं था । और उनके अनुसार महात्मा गाँधी ने ऐसा स्वीकार भी किया था। महात्मा गांधी का यह प्रयोग सीमित था या व्यापक, इसका स्वयं उनकी लेखनी से कोई विवरण न मिलने पर भी यह तो निश्चत ही है कि इस प्रयोग को वे ऐसा समझते थे कि जिसमें पौत्री मनु और अन्य बहन का अन्तर नहीं. किया जा सकता। ऐसी परिस्थति में इस प्रयोग को व्यापक प्रयोग समझ कर ही उसकी चर्चा की जाती तो सत्य के प्रति, न्याय होता। १-अमिशापाड़ा का प्रार्थना-प्रवचन । देखिए-My days with: Gandhi p. 155; Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol 1, p. 580 2-Mahatma Gandhi –The Last Phase Voli 1, p. 584 ३–दशघरिया का प्रवचन । देखिए---My days with Gandhi p; 1551; Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. I, p. 581 8—My days with Gandhi pp. 134, 154, 174, 178 -वही, पृ० १३४, १७८ . ६--(क) वही पृ० १७७ : The distinction between Manu and others is meaningless for our discussion. That she is my grand-daughter may exempt me from criticism. But I do not want that advantage..... (ख) देखिए पृ० ८३ Scanned by CamScanner Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड़ जहाँ तक पता चला, इस विषय में पहली आपत्ति नोपाखाली में गांधीजी के टाइपिस्ट श्री परशुराम की तरफ से पाई। उन्होंने तीन : बार महात्मा गांधी से बातचीत की और चौथी बार में फूलस्केप साइज के १० पेज जितने लम्बे पत्र में अपनी भावना महात्मा गांधी के सामने रखी। श्री प्यारेलालजी इन सब की नोंच तक नहीं लेते। श्री बोस ने भी न बातचीत का सार दिया है और न उस पत्र की बातों का उल्लेख किया है। एक बातचीत में श्री परशुराम के विचार किस रूप में फूट पड़े, इसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार दिया है : “गांधीजी की दृष्टि चाहे जो भी हो, पर एक साधारण मनुष्य की तरह मुझे कहना चाहिए कि गांधीजी को ऐसा मौका नहीं देना चाहिए कि जिस से उनके प्रति कोई गलत धारणा बन पाय। यदि गांधीजी के व्यक्तिगत आचरण पर आक्षेप पाते हैं, तो जिस उद्देश्य के लिए वे खड़े हुए हैं. वह क्षतिग्रस्त होता है। यह एक ऐसी बात है जो मुझसे सहन नहीं होती। जब मैं स्कूल में था तब मैं अपने साथियों के साथ इसी बात पर मुक्कामुक्की करने लगा था कि उन्होंने महात्मा गांधी के प्राचरण के प्रति दोषारोपण किया था। और भी अधिक, क्या उन्होंने अपने सेवाग्राम के साथियों से यह प्रतिज्ञा नहीं की थी कि वे स्त्रियों को अपने संसर्ग से दूर रखेंगे?" ___ महात्मा गांधी ने अपनी स्थिति को परिष्कृत करते हुए कहा : "यह सत्य है कि मैं स्त्री कार्यकत्रियों को अपनी शय्या का व्यवहार करने देता हूँ। समय-समय पर यह आध्यात्मिक प्रयोग किया गया है। मुझ में विकार नहीं, ऐसी मेरी धारणा है। फिर भी यह असंभव नहीं कि कुछ लवलेश बच गया हो और इससे उस लड़की के लिए संकट उपस्थित हो सकता है जो प्रयोग में शरीक हो। मैंने यह पूछा है कि कहीं बिना इच्छा भी, मैं उनके मन में थोड़ा भी विकार उत्पन्न करने का निमित्त तो नहीं हुआ? मेरे सुप्रसिद्ध साथी नरहरि (परीख) और किशोर लाल (मशरूवाला) ने इस प्रयोग पर आपत्ति उठाई थी और उनकी एक शिकायत यह थी कि मुझ जैसे उत्तरदायित्ववाले नेता का उदाहरण दूसरों पर क्या असर डालेगा?" इस वार्तालाप से पता चलता है कि यह प्रयोग पहल भी हुआ और वह अन्य स्त्रियों के साथ रहा। 'श्री परशराम ने जो सुझाव रखे वे महात्मा गांधी को स्वीकार नहीं हुए अत: साथ छोड़ कर चले गये। यह ता०२ जनवरी १९४७ इसके बाद अपने एक मित्र को महात्मा गांधी ने पत्र लिखा जिसमें श्री परशुराम के चले जाने का मुख्य कारण बताया गया था, उनका गांधीजी के सिद्धान्तों में विश्वास न होना और मनु का उनके साथ एक शय्या पर सोना। इस पर टिप्पणी करते हुए श्री बोस लिखते हैं कि गांधीजी का ऐसा लिखना परशुराम के प्रति अन्याय था। उनका कहना है—गांधीजी के सिद्धान्तों में परशुराम की पूर्ण श्रद्धा थी। श्री परशुराम की मुख्य शंका मनु वहन के साथ के प्रयोग को लेकर नहीं थी, बल्कि अन्य स्त्री-पुरुषों की स्थिति के विषय को लेकर थी। उनके यह समझ में नहीं पा रहा था कि साधारण स्तर पर रहे हुए स्त्री-पुरुषों का सर्श किस तरह एक आध्यात्मिक आवश्यकता हो सकती है। श्री बोस के विवरण से पता चलता है कि इस बार भी श्री मशरूवाला और श्री नरहरि परीख आपत्ति करनेवालों में थे। जनवरी '४७ के अन्तिम सप्ताह में उनका आपत्तिकारक पत्र पहुंचा । श्री मशरूवाला के पत्र का उत्तर महात्मा गांधी ने तार से दिया, जिस में लिखा गया था कि वे ता.१-२-'४७ के सार्वजनिक वक्तव्य को देखें। पत्र दिया जा रहा है । इसके बाद किशोरलाल मशरूवाला और नरहरि परीख का तार पाया, जिसमें उन्होंने ता० १-२.'४७ के पत्र की पहुंच देते हुए लिखा था कि वे हरिजन पत्रों के कार्यभार से मुक्त हो रहे हैं। पत्र देखें । फरवरी के अन्तिम सप्ताह में भी मशरूवाला का पत्र था । श्री बोस के अनुसार उस पत्र का सार यह था कि स्त्रियों के साथ के व्यवहार १-My days with Gandhi pp. I27, 131, I34 २-वही पृ० १३३-३४ ३-वही पृ० १३४ ४-My days with Gandhi p. 137: Only, his point of view was the point of view of the com mon man; he did not realise how contact with men and women on a common level might be a spiritual need for Gandhiji. ५-वही पृ. १५४ -वहीं पृ०- १५५ i ta ... ७—वही पृ० १५८ Scanned by CamScanner Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका में गांधीजी मोहभाव से ग्रस्त थे। र इनके प्रश्न थे: (१) बीमारी के कारण परिचर्या की आवश्यकता न होते हुए भी अथवा परवशता के अन्य अवसरों को छोड़कर भी क्या कोई बिना जरूरत, नग्न अवस्था में मनुष्य अथवा स्त्री के सामने आ सकता है, जब कि वह ऐसे समाज का व्यक्ति नहीं जिस में नग्नता एक प्रथा हो? (२) जिनमें पति-पत्नी का सम्बन्ध न हो अथवा जो मुक्त रूप में ऐसा व्यवहार न रखते हों, ऐसे स्त्री-पुरुष क्या एक शय्या का साथ उपयोग कर सकते हैं ? श्री प्यारेलालजी इस सारे पत्र-व्यवहार का जिक्र नहीं करते और न विरोध में पाए हुए पत्रों का सार ही देते हैं। हरिजन पत्र के सम्पादन कार्य से दो साथियों के हटने का वे उल्लेख करते हैं, पर वे साथी कौन थे, इस बात से भी वे पाठकों को अन्धेरे में रखते हैं। - श्री प्यारेलालजी इस बात का उल्लेख अवश्य करते हैं कि महात्मा गांधी ने इस विषय में अनेक पत्र लिखे और राय जाननी चाही पर नाम उन्हीं के प्रकाशित किए हैं, जिन्हें कोई आपत्ति न थी अथवा जिनको बाद में कोई आपत्ति नहीं रही। जिनकी अन्त तक आपत्ति रही उनके नामों को तो उन्होंने सर्वत्र ही बाद दिया है। ____ फरवरी के अन्तिम सप्ताह में जब श्री किशोरलाल मशरूवाला का एक पत्र आया, तब गांधीजी ने श्री बोस को अपने पास बुलाया और उनमें तथा उनके निकट के साथियों में किस तरह मतभेद हो गया है, यह बतलाया। गांधीजी ने साथियों द्वारा उठाई गई आपत्तियों के विषय में श्री बोस के विचार जानने चाहे । मनु बहन ने श्री मशरूवाला का पत्र अनुवाद कर बताया और फिर प्रयोग का पूरा विवरण बताया। श्री बोस को जो जानकारी हुई, उसके अनुसार महात्मा गांधी अपनी शय्या पर बहिनों को सुलाते। प्रोढ़ने का कपड़ा एक ही होता। और फिर गांधीजी इस बात को जानना चाहते कि उनमें या उनके साथी में क्या अल्प-मात्र भी विकार उत्पन्न हुआ? इस तरह अपनी परीक्षा के लिए स्त्रियों का सहारा लेना श्री बोस को नागवार मालम दिया। उनके मत से गांधीजी जो कईयों द्वारा, निजी सम्पत्ति माने जाने लगे थे, उसका कारण यही था। उनकी दृष्टि से कईयों का व्यवहार स्वस्थ मानसिक सम्बन्ध का परिचय नहीं देता था। इस प्रयोग का मूल्य खुद गांधीजी के जीवन में कितना ही क्यों न हो, उसका असर उन दूसरों के व्यक्तित्व के लिए घातक था, जो कि नैतिक स्तर में उतने हस्तिवाले नहीं थे और जिनके लिए इस प्रयोग में शरीक होना कोई आध्यात्मिक आवश्यकता नहीं थी। मनु की बात दूसरी थी जो रिश्ते में पोती थी। दूसरा या जाति म पाता था . . . . _कई पालोचकों ने कहा-"हम यह मानने के लिए तैयार हैं कि आप इस साधना से प्राध्यात्मिक प्रगति कर सकते हैं, पर यह तो सम्मुख पक्ष के बलिदान पर होगा, जिसमें आप की तरह का संयम नहीं है ।" , ___ महात्मा गांधी ने कहा-"नहीं ऐसा नहीं हो सकता। यह तो परस्पर टकरानेवाली बात है। दूसरे के नुकसान पर अपनी प्राध्यात्मिक उन्नति नहीं हो सकती। साथ ही उचित खतरा उठाना ही होगा, अन्यथा मनुष्य-जाति प्रगति नहीं कर सकती।" उन्होंने एक दृष्टान्त दिया"जब एक कुम्हार मिट्टी का बर्तन बनाने लगता है, तब वह यह नहीं जानता कि मिट्टी में देने पर उनमें तेरें पड़ जायंगी अथवा अच्छी तरह पक कर बाहर निकलेंगे। यह अनिवार्य है कि उनमें से कई टूट जायं, किन्हीं में तेरे चल उठे और थोड़े ही पक कर सख्त हों, अच्छे बर्तन के रूप में बाहर पायें। मैं तो एक कुम्हार की तरह हूं। मैं आशा और श्रद्धापूर्वक कार्य करता हूँ। अमुक बर्तन टूटेगा या उसमें दरार होगी -यह एक कुदरत और भाग्य की ही बात होगी। कुम्हार को चिन्ता नहीं करनी चाहिए। अगर कुम्हार ने इतनी चौकसी ले ली हो कि मिट्टी अच्छी किस्म की है और उसमें मिलावट या कूड़ा-कर्कट नहीं है और उसे ठीक आकार दिया गया है, तो इसके बाद की उसे चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं।".....मैंने जानबूझ कर अपने जीवन में कोई गलत कार्य नहीं किया है। यदि कभी अनजाने में कोई मुझसे गलत १-My days with Gandhi p. I60 : The main charge seemed to have been that Gandhiji was obviously suffering from a sense of self-delusion in regard to his relation with the upposite sex. २-वही पृ०१८६ ३-वही पृ० १५६-६० ४-वही पृ०.१७४ ५-वही पृ० १७४-५ . a Scanned by CamScanner Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाद कार्य हो गया हो तो मैंने तुरन्त उसे जनता के सामने स्वीकार किया और पता चलते ही उसका उचित प्रायश्चित किया। इसी तरह इस बात में भी किसी भी समय मुझे मिट्टी में अगर कोई अशुद्धि या मिलावट दिखाई देगी अथवा मुझमें मालूम देगी तो मुझे उसका त्याग करने में एक क्षण भी नहीं लगेगा और सारी दुनिया के सामने अपनी अयोग्यता स्वीकार कर लूंगा'।" श्री बोस के अनुसार स्वामी प्रानन्द और श्री केदारनाथजी भी विरोधी मत रखते थे। श्री प्यारेलालजी यह ती लिखते हैं कि महात्मा गांधी बिहार में पाये तब दो मित्रों ने उनसे लगातार पांच दिन तक बातचीत की। पर ये दोनों, स्वामी प्रानन्द और श्री केदारनाथजी थे. इसको गोपनीय रखते हैं । महात्मा गांधी और इनमें जो वार्तालाप हुमा, उसका सार इस प्रकार है: प्रश्न-"इस नये प्रयोग को प्रारम्भ करते समय मापने अपने साथियों से क्यों नहीं कहा और उन्हें अपने साथ क्यों नहीं रखा ? यह गुप्ताचरण क्यों ?" गान्धीजी : "इस बात को गुप्त रखने का इरादा नहीं था। सारी बात स्पष्ट थी। जैसी यह बात है उसमें मित्रों की पूर्व सलाह की तो कोई बात ही नहीं थी, पूर्व स्वीकृति अनावश्यक थी। फिर भी प्रारंभ में ही इस बात के अच्छी तरह प्रचार के लिए मुझे जोर देना चाहिए था। अगर मैंने ऐसा किया होता तो पाज जो संकट और हलचल है, वह बहुत कुछ बचाई जा सकती। ऐसा न करना एक बड़ी त्रुटि हुई । जब ठक्कर बापा मेरे पास आये तब मैं सोच रहा था कि इसका समुचित प्रायश्चित क्या है । बाद की बात तो आप जानते ही हैं।" प्रश्न : “यदि आप नैतिक संस्कारों की नींव को, जिस पर कि समाज टिका हुआ है और जो कि एक लम्बे और कष्टपूर्ण अनुशासन से निर्मित है, ढीला करेंगे तो उससे जो अपूर्तिकर क्षति होगी, वह स्पष्ट है । गढ़े हुए संस्कारों का इस तरह भंग करने से ऐसा कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं दिखाई देता, जो उसके औचित्य को सिद्ध करे। पापका बचाव क्या है ? हम आपको नीचा दिखाने के लिए नहीं पाये हैं और न पाप पर विजय पाने के लिए ही आये हैं। हम तो केवल समझना चाहते हैं।" गान्धीजी : "यदि कोई कट्टर संस्कारों के बाहर जाने को तैयार न हो तो कोई नैतिक उन्नति या सुधार की संभावना नहीं । सामाजिक . रूढ़ियों के सिंकजों में अपने को जकड़ कर हम लोगों ने खोया ही है । ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित नौ बाड़ों की जो रूढिगत कल्पना है, वह मेरे विचारों से अपर्याप्त और दोषपूर्ण है। मैंने अपने लिए कभी इसे स्वीकार नहीं किया। मेरे मत से इन बाड़ों की आड़ में रहकर सच्चे ब्रह्मचर्य का प्रयल भी संभव नहीं। मैं बीस वर्ष तक दक्षिण अफ्रिका में पश्चिमी लोगों के साथ गहरे सम्पर्क में रह चुका हूं। हवलांग इलिस और बःण्ड रसल जैसे ख्यातनामा लेखकों को कृतियों को और उनके सिद्धान्तों को मैंने जाना है। वे सभी प्रसिद्ध विचारक खरे और अनुभवी हैं। अपने विचारों के कारण और उन्हें प्रकाशित करने के कारण उन्हें कष्ट उठाने पड़े हैं। विवाह और प्रचलित नैतिक आचार-विधि की सम्पूर्ण अावश्यकता को - न मानते हुए भी ( यहाँ मेरा उनसे मतभेद ही है ) वे ऐसी संस्था और रीति-रिवाजों के बिना ही स्वतंत्ररूप से जीवन में पवित्रता लाना सम्भव है और उसे लाना आवश्यक है, ऐसा मानते हैं। पश्चिम में ऐसे स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में पाया हूं जो कि पवित्र जीवन बिताते रहे हैं, हालांकि - वे प्रचलित प्रथानों और सामाजिक विश्वासों को वे नहीं मानते और न उनका पालन करते हैं। मेरी खोज कुछ-कुछ उसी दिशा में है। यदि आप, जहाँ प्रावश्यक हो पुरानी बात को दूर कर सुधार करने की आवश्यकता और इच्छा रखते हों और वर्तमान युग के साथ मेल खाते हुए प्राध्यात्म और नैतिकता के आधार पर एक नई पद्धति का निर्माण करना चाहते हों, तो उस हालत में दूसरों की इजाजत लेने अथवा उन्हें समझाने का प्रश्न ही नहीं उठता। एक सुधारक उस समय तक नहीं ठहर सकता, जब तक कि सब में परिवर्तन होजाय। पहले सुधारक को ही करनी होगी और सारे संसार के विरोध के सन्मुख अकेले चलने का साहस करना होगा। मैं अपने अनुभव, अध्ययन और सुन के प्रकाश में ब्रह्मवर्य की उस वर्तमान परिभाषा की जांच करना चाहता हूं और उसे विस्तृत तथा संशोधित करन चाहता हूं। प्रतः जब भी अवसर पाता है तब मैं उससे बच कर नहीं निकलता और न उससे दूर ही भागता हूं। इसके विपरीत मैं अपना यह कर्त्तव्यधर्म मानता हूं कि मैं उसका सामना करूँ। और इसका पता लगाऊँ कि वह कहाँ लेजाकर छोड़ता है। और मैं कहाँ पर खड़ा हूं। स्त्री के स्पर्श से बचना और भयवश उससे दूर भाग जाना मेरी दृष्टि में सच्चे ब्रह्मचर्य की कामना करनेवाले के लिए अशोभनीय है। मैंने काम१-Mahatma Gandhi-The Last Phase pp. 583-84 २-श्री बोस और मनु बहन के अनुसार यह बात दो ही दिन हुई । पांच दिन संभवतः भूल से लिखा गया है। वे दोनों ता० १४-३-४७ को बिहार आये । ता० १५ और १६ को बातचीत हुई। -देखिए My days with Gandhi पृ० १७३, बिहारनी कोमी आगमां पृ० ४८, ५२, ६१,६४ Scanned by CamScanner Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ भूमिका वासना की तृप्ति के लिए स्त्रियों से सम्पर्क साधने की कभी चेष्टा नहीं की मैं इस बात का दावा नहीं करता कि मैं अपने में से काम विकार को सम्पूर्णत: दूर कर सका हूं, पर मेरा यह दावा है कि मैं इसे काबू में रख सकता हूँ ।" प्रश्नः "हम लोगों की यह जानकारी नहीं है कि आपने जनता के सामने अपने इन विचारों को रखा है। इसके विपरीत आपने जनता के सामने ऐसे ही विचार रखे हैं, जिनके साथ हम लोग परिचित हैं आपके प्रयतों के साथ उन विचारों को ही समझा है। आपका क्या खुलासा है?" गान्धीजी : "श्राज भी मैं, जहाँ तक सर्वसाधारण का सवाल है, उन्हीं विचारों को उनके सामने रखता हूँ, जिनको आप मेरे पुराने विचार कहते हैं। साथ ही जैसा कि मैंने कहा है, मैं धाधुनिक विचारों से बहुत गहराई तक प्रभावित हूं। हम लोगों में तांत्रिक विचारधारा भी है, जिसने कि न्यायाधीश, सर जोन उड्रफ जैसे पश्चिमी विद्वानों को भी प्रभावित किया है। मैंने यरवदा जेल में उनकी कृतियों का अध्ययन किया। बाप रूढ़िगत संस्कारों में पले-से हैं मेरी परिभाषा के अनुसार थाप ब्रह्मचारी नहीं माने जा सकते। धाप जब कभी बीमार पड़ जाते हैं । सब तरह की शारीरिक व्याधियों से ग्रसित हैं। मैं यह दावा करता हूं कि सच्चे ब्रह्मचर्य का प्रतिनिधित्व में आपसे अच्छा करता हूं। 20 आप सत्य, अहिंसा, अचौर्य के भङ्ग को इतनी गम्भीर दृष्टि से नहीं देखते। पर ब्रह्मचर्य का स्त्री और पुरुष के बीच के सम्बन्ध का - काल्पनिक भङ्ग भी आप को पूर्णतः विचलित कर देता है ब्रह्मचर्य की इस कल्पना को में संकुचित प्रतिगामी घोर रूढिग्रस्त मानता हूँ। मेरे लिए सत्य, हिंसा और बह्मचर्य के प्रादर्श समान महत्व रखते हैं। और सबके सब हमारी ओर से समान प्रयत्न की अपेक्षा रखते हैं । उनमें से किसी का भी भङ्ग मेरे लिए समान चिन्ता का यह मानता हूँ कि मेरा आचरण ब्रह्मचर्य के सच्चे आदर्श से दूर नहीं गया है। इसके विपरीत उस ब्रह्मचर्य का, जो क्या नहीं करना, यहीं तक सीमित रहता है, असर समाज पर बुरा ही पड़ता है। उसने आदर्श को नीचे गिरा दिया है। और उसके सच्चे तत्त्व को छीन लिया है। यह मैं अपना उच्चतम कर्तव्य समझता हूं कि मैं इन नियमों और बन्धनों को समुचित स्थान में रखें और ब्रह्मचर्य के आदर्श को उन बेड़ियों से मुक्त कर दूं, जिनसे कि वह जकड़ लिया गया है।" म विषय होता है करना और क्या प्रश्न: "यदि आपके विचार मीर याचार धारम-संयम के पालन में इतने धागे बढ़ गये है तो इनका चापके चारों ओर के वातावरण पर लाभकारी असर क्यों नहीं दिखाई देता ? हम ग्रापके चारों और इतनी प्रशान्ति और दुःख को क्यों पाते हैं ? आपके साथी विकारों से मुक्त क्यों नहीं होते ?" गान्धीजी - " मैं अपने साथियों के गुण और कमियों को अच्छी तरह जानता हूं। आप उनके दूसरे पक्ष को नहीं जानते । ऊपराऊपरी निरीक्षण के पापार पर तुरन्त किसी निर्णय पर पहुंच जाना सत्यशोधक के लिए अशोभनीय है। धाप लोग सोचते हैं, वैसा में खो नहीं गया हूं। मैं तो आपसे इतना ही कह सकता हूं कि आप लोग मुझ में विश्वास रखें। मैं आपके कहने पर उस बात को नहीं छोड़ सकता, जो मेरे लिए गहरे विश्वास का विषय है। मुझे खेद है, में असहाय हूं" प्रश्न:, "हम नहीं कह सकते कि आपने हमें समझा दिया। हम संतुष्ट नहीं हैं। हम लोग इस बात को यहीं नहीं छोड़ सकते। हम लोग आपके साथ निरन्तर प्रयास करते रहेंगे। यदि श्राप बनी हुई मर्यादा के खिलाफ फिर जाने को प्रेरित हों तो अपने दुःखित मित्रों का भी खयाल करें।" गान्धीजी - "मैं जानता हूं। पर मैं क्या कर सकता हूँ, जब कि मैं कर्तव्य - भावना से प्रेरित हूं। मैं ऐसी परिस्थिति की कल्पना कर सकता हूं, जब कि मैं स्थापित नियमों के विरुद्ध जाना अपना स्पष्ट कर्तव्य समझैं । ऐसी परिस्थितियों में में अपने को किसी भी वायदे के द्वारा बंधन में डालना नहीं चाहता।' on bites outw arents S HOME इस वार्तालाप के बाद ता० १६-३-२४७ की डायरी में महात्मा गांधी ने लिखा : "ब्रह्मचर्य की मेरी परिभाषा के अनुसार प्राज के इनके ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विचार दूषित अथवा अधूरे लगे। उनमें मेरे मार्ग के अनुसार सुधार की प्रतिमावश्यकता है। मैंने विकार पोसने के लिए कभी भी जानबूझ कर स्त्री-संग का सेवन नहीं किया। एक अपवाद बतलाया है। अपने प्राचार से मैं मागे बढ़ा हूं और अभी अधिक की आशा करता हूँ" ११- बिहारनी कोमी आगमां पृ० ६१ picted in firs Scanned by CamScanner Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० शील की नव बाड़ इसके बाद भी पत्र-व्यवहार चलता ही रहा। अन्त में महात्माजी के सामने यह सुझाव पाया कि चूकि दोनों ही पक्ष एक दूसरे को नहीं समझा सके हैं, अत: स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध और स्त्री-पुरुष-व्यवहार के सम्बन्ध में वर्तमान स्थितियों के अनुकूल मर्यादा स्थिर करने का प्रय कितने ही व्यक्तियों पर छोड़ा जाय। १-गान्धीजी का मत रहा-प्रस्तावक पुराने परम्परा के नियमों से दूर जाना नहीं चाहते और मैं सत्य की अनन्त खोज में उन शर्तों से बद्ध नहीं हो सकता, जो उस खोज में बाधक हो। उन्होंने लिखा-पाप ही की स्वीकृति के अनुसार नया विधान आप पर लाग नहीं होगा। जी तक मेरा सवाल है, वहां तक मैं अपनी ही मर्यादानों से बंधा रहूंगा। इस तरह दोनों जहाँ हैं, वही रहेंगे। ऐसी परिस्थिति में कोई लाभ नहीं कि हम लोग भूसी में से धान निकालने के काम में लोगों को लगावें। उपर्युक्त वार्तालाप के दो दिन बाद (ता.१८-३-'४७ को) महात्मा गांधी ने श्रीमती अमृतकौर को जो पत्र लिखा, वह इस प्रकार है: "तुम्हें मेरे इस वक्तव्य को मंजूर करने में कोई कठिनाई नहीं होगी कि हम लोगों में से ब्रह्मचर्य की पूरी कीमत और उसका अर्थ कोई नहीं जानता और हम मूों में, मैं ही कम मूर्ख हैं और अधिक से अधिक अनुभवी।"..."मैंने हजारों स्त्रियों का स्पर्श किया है, परन्तु मेरे । स्पर्श का अर्थ कभी भी विकार-भाव नहीं रहा। मेरा स्पर्श दोनों के हित के लिए रहा। जिनका अनुभव इससे भिन्न हो, वे मेरे विरुद्ध .. अपने सबूत पेश करें।""""ब्रह्मचर्य का मेरा अर्थ यह है-वह ब्रह्मचारी है जिसके मन में कभी भी विकार नहीं होता। और जो ईश्वर के प्रति अपनी निरन्तर मौजदगी के द्वारा ऐसा संयमी हो गया है कि वह नग्न स्त्रियों के साथ नग्नरूप में सो सकता है, चाहे वह कितनी भी सुन्दर क्यों न हो और ऐसा करने पर भी जिसमें किसी तरह की विषय-भावना की जागृति नहीं होती। ऐसा व्यक्ति कभी झूठ नहीं बोलेगा। दुनिया में किसी भी स्त्री व पुरुष के प्रति किसी तरह की क्षति नहीं करेगा व क्रोध और द्वेष से मुक्त होगा और भगवद्गीता की परिभाषा के अनुसार स्थितप्रज्ञ होगा। ऐसा पुरुष पूर्ण ब्रह्मचारी है । ब्रह्मचारी का शाब्दिक अर्थ है-वह व्यक्ति जो कि ईश्वर की ओर क्रमशः हमेशा बढ़ता जाता है और जिसका प्रत्येक कार्य इसी ध्येय से किया जाता है और किसी अभिप्राय से नहीं ।" प्रयोग स्थगित करने के पहले और बाद में महात्मा गांधी की जो भावना रही, वह उपर्युक्त उद्धरणों से स्पष्ट है। प्रयोग स्थगित किया गया, उसका कारण ठक्कर बापा के अनुरोध की रक्षा और लोगों को इस प्रयोग के मर्म को समझने के लिए कुछ अवकाश देना मात्र था। इस प्रयोग के विषय में निम्न बातें चिन्तनीय हैं : महात्मा गांधी ने इस प्रयोग पर विचार जानने के लिए अनेक मित्र और साथियों से पत्र-व्यवहार किया। उपर्युक्त दोनों पुस्तकों से जो पत्र सामने आते हैं, उनमें प्रयोग के साथ उनकी पौत्री मनु बहन का ही नामोल्लेख है। सार्वजनिक भाषण में भी उन्होंने मन बहिन का ही उळख किया। जिन्होंने इस प्रयोग में कोई दोष नहीं देखा, उनके विचार भी प्रायः इसी बात पर आधारित थे अथवा महात्मा गांधी के प्रति अत्यन्त श्रद्धा पर अवलम्बित थे। इसके दो नमने नीचे दिये जाते हैं : (१)श्री अब्दुल गफ्फारखा ने एक बार वहा : "उनमें तो साधारण सन्तुलन भी नहीं। वे यह क्यों नहीं देखते हैं कि मन तो आपके लिए एक महीने की बच्ची के तुल्य है।...."मन आपके साथ एक ही बिछौने पर सोती है, इसमें मैं जरा भी दोष नहीं देखता। मैं समझ नहीं पाता कि एक विचारशील व्यक्ति ऐसी साधारण बात भी क्यों नहीं समझ सकता।" 8-Mahatma Gandhi-The Last Phase p. 591 M ay २-Mahatma Gandhi--The Last Phase p. 587 : The concession was only to feelings and sen timents of those who could not understand his stand and might need time for new ideas to sink into their minds.... S a ne -5.. ३-My days with Gandhi p. 136 ( Letter to a friend name not mentioned ); वही पृ० १५५ (श्री सतीश चन्द्र मुखर्जी के नाम पत्र); Mahatma Gandhi-The Last Phase p. 581 (श्री आचार्य कृपलानी के नाम पत्र); वही पृ० ५८० (हारेस एलेक्जेण्डर के नाम पत्र)। AAYER ४-My days with Gandhi p. 154; Mahatma Gandhi-The Last Phase p. 580........ .. ५-Mahatma Gandhi The Last Phase p. 592 Scanned by CamScanner Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका इसमें प्रयोग पर सार्वभौम दृष्टि से विचार नहीं है। (२) प्राचार्य कृपलानी ने महात्मा गांधी के ता० २४-२-४७ के पत्र' का उत्तर देते हुए ता. १-३-४७ के पत्र में उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा व्यक्त करते हुए लिखा: "ऐसे प्रश्न मेरे बूते के बाहर हैं । दूसरों का न्याय करने बढ़े-खास कर उनका जो नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से मुझसे अनेक कोस दूरी पर है-उसके पहले अपने को नैतिक दृष्टि से सीधा रखने के लिए मुझे बहुत कुछ करना है । मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि मुझे आपमें पूर्ण विश्वास है। कोई भी पापी मनुष्य आपकी तरह कार्य नहीं कर सकता। अगर कोई सन्देह होता भी तो मैं अपनी आँखों और कानों का ही अविश्वास करता । क्योंकि मैं मानता हूं कि मेरी इन्द्रियाँ मुझे अधिक धोखा दे सकती हैं, बनिस्बत प्राप, अत: मैं तो निश्चित हूं। कभी मैं सोचा करता हूं..."आप कहीं मनुष्यों का प्रयोग साध्य के रूप में न कर, साधन के रूप में तो नहीं कर रहे हैं । पर मैं यह विचार कर धैर्य ग्रहण कर लेता हूं कि आप अवश्य ही ऐसा ऊहापोह रखते होंगे। यदि आप स्वयं अपने विषय में निश्चित हैं, तो दूसरों को इससे हानि नहीं हो सकेगी। मुझे आश्चर्य हुमा कहीं पाप गीता के लोक-संग्रह का भंग तो नहीं कर रहे हैं। परन्तु इस प्रयोग में यह विचार भी आप की दृष्टि से अोझल नहीं होगा।"".""मैं जानता हूं स्त्रियों के प्रति प्रापकी जो भावना है, वही सही है। क्योंकि आप उनमें से हैं, जो स्त्री को साध्य मानते हैं केवल साधन नहीं। आपने कभी स्त्री-जाति से अनुचित लाभ नहीं उठाया।" यह उत्तर श्रद्धा भावना से प्रेरित है और प्रकारान्तर से उसमें ग्रापत्तियाँ दिखा ही दी गयी हैं। २–महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में इस प्रयोग के पीछे जो दृष्टियाँ बतलायी हैं, वे ऐसी नहीं जो सहज हृदयंगम हो सकें। मनु बहिन के मन की स्थिति के परीक्षण के लिए ऐसे प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी। मनु बहिन जैसी सच्ची, निश्छल स्त्री अपने पितामह को अपने मनोभाव बिना प्रयोग के ही सही-सही कह देगी, ऐसा महात्मा गांधी को विश्वास होना चाहिए था। जो बात, बातचीत से जानी जा सकती थी, उसके लिए ऐसे प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी। सम्पर्क में आनेवाली बहिनों के मनोभावों को जानने के लिए ऐसे प्रयोग की सार्वभौम प्रयोजनीयता सिद्ध नहीं होती, फिर भले ही ऐसा प्रयोग कोई ब्रह्मचारी ही करे। ३-योगसूत्र में यह अवश्य कहा है कि-"अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ पैरत्यागः"-अहिंसक के सान्निध्य में वैर नहीं टिकता, पर यहाँ सान्निध्य का अर्थ खूब सन्निकटता नहीं है । दूर या समीप, अहिंसक का ऐसा प्रभाव पड़ता है। ब्रह्मचारी के समीप भी विकार शान्ति को प्राप्त होते हैं, यह सत्य है, पर इसके लिए क्या एक शय्या के सान्निध्य की आवश्यकता होगी ? पतंजलि का सूत्र ऐसी बात नहीं कहता । ... ४–यह पौत्री मनु के शिक्षण की दिशा में जरूरी कदम किस दृष्टि से था, यह भी स्पष्ट नहीं है। ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में किसी भी बहिन के शिक्षण के साथ इस प्रयोग का सीधा सम्बन्ध कसे बैठता है, यह समझ में नहीं पाता। नोग्राखाली जैसे भयंकर क्षेत्र में अपनी पौत्री के साथ स्थित हो, वहां की जनता में अदम्य साहस लाने और परिस्थिति का निर्भयता के साथ-साथ मुकाबिला करने का अनुपम प्रादर्श जरूर रखा गया था, पर बहिनों के सह-शय्या-शयन के साथ उसका सम्बन्ध नहीं बैठता। .. ५-नपुंसकत्व-प्राप्ति की साधना के लिए भी ऐसे प्रयोग की आवश्यकता नहीं। बिना ऐसे प्रयोग के नपुंसकत्व सिद्ध हुआ है, ऐसा इतिहास बतलाता है । कोई स्वयं ब्रह्मचर्य में कहाँ तक बढ़ा हुआ है, इस बात को जानने के लिए ऐसा प्रयोग उन्हीं आपत्तियों को सामने लाता है, जो प्राचार्य कृपलानी द्वारा प्रस्तुत हुई थीं। ६-मनु बहिन का एक आदर्श नारी के रूप में निर्माण करने की भावना के साथ भी सह-शय्या के प्रयोग का सीधा सम्बन्ध नहीं बैठाया जा सकता। इस प्रयोग के न करने से वह कैसे रुकता, यह बुद्धिगम्य नहीं होता। '७-सह-शय्या-शयन नोपाखाली यज्ञ का सायुज्य अङ्ग कसे था, इस पर महात्मा गांधी का कथन स्पष्ट नहीं है। १-इस पत्र में बात इस रूप में रखी हुई है-Manu Gandhi my grand-daughter, as we consider blood-rela tion, shares the bed with me, strictly as my very blood as part of what might be called my last yajna. २-Mahatma Gandhi The Last Phase pp. 582-3 Scanned by CamScanner Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ -महात्मा गांधी को मानव-मात्र का प्रतीक मानें और मनु बहिन को बहिन-मात्र का, तो इस प्रयोग का सार यह हो सकता है कि सब मनुष्य स्त्री-मात्र को अपनी पौत्रियाँ समझें और स्त्रियाँ पुरुष-मात्र को अपना पितामह। यह प्रयोग ऐसे पदार्थ-बोध के लिए हो तो भी उचित नहीं कहा जा सकता। क्योंकि ऐसा आदर्श महापुरुष हमेशा देते आए हैं, पर ऐसा करने के लिए उन्हें कभी ऐसा प्रयोग करना पड़ा हो. ऐसा इतिहास नहीं बताता। २२-बाड़ें और महात्मा गांधी, ऊपर महात्मा गांधी के प्रयोगों का जो उल्लेख पाया है, उससे स्पष्ट है कि महात्मा गांधी ने प्रथम तीन बाड़ों की अवगणना की है। निर्विकार संसर्ग, स्पर्श, एक शय्या-शयन और एकान्त में अकेली स्त्री को धर्मोपदेश-यह उनके जीवन में चलते रहे। महात्मा गांधी शील की नव बाड़ों के सम्बन्ध में अपना स्वयं का चिन्तन रखते थे। वे इस विषय में सापेक्ष दृष्टि से चलते रहे। नीचे काल क्रम से उनके विचारों को दिया जा रहा है : १-एक भाई ने पूछा- "मेरी दशा दयनीय है, दफ्तर में, रास्ते में, रात में, पढ़ते समय, काम करते हुए और ईश्वर का नाम लेते समय भी वही विचार मन में आते रहते हैं। विचारों को किस तरह काबू में रखू ? स्त्री-मात्र के प्रति मातृ-भाव कसे पैदा हो ?” महात्मा गांधी ने जवाब दिया-"यह स्थिति हृदय-द्रावक है। यह स्थिति बहुतों की होती है। पर जब तक मन उन विचारों से लड़ता रहे, तब तक डरने का कोई कारण नहीं। आँखें दोष करती हों तो उन्हें बन्द कर लेना चाहिए। कान दोष करें तो उनमें रूई भर लेनी चाहिए। आँखों को सदा नीची रख कर चलने की रीति अच्छी है। इससे उन्हें और कुछ देखने का अवकाश ही नहीं रहता। जहाँ गन्दी बातें होती हों, या गन्दे गीत गाये जा रहे हों, वहां से तुरन्त रास्ता लेना चाहिए। जीभ पर पूरा काबू हासिल करना चाहिए। पर विषय-वासना को जीतने का रामबाण उपाय तो रामनाम या ऐसा ही कोई मंत्र है ।" (२५-४-२४) २--ब्रह्मचर्य का यह अर्थ नहीं है कि मैं स्त्री-मात्र का, अपनी बहन का भी,स्पर्श न करूं । ब्रह्मचारी होने का यह अर्थ है कि जैसे कागज को छूने से मेरे मन में कोई विकार उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही स्त्री का स्पर्श करने से भी नहीं होना चाहिए। मेरी बहन बीमार हो और ब्रह्मचर्य के कारण मझे उसकी सेवा करने से हिचकना पड़े तो वह ब्रह्मचर्य कोड़ी काम का नहीं। मुर्द को छुकर हम जिस अविकार दशा का अनुभव कर सकते हैं : उसी अविकार दशा का अनुभव जब किसी परम सुन्दरी युवती को छुकर भी कर सकें, तभी हम सच्चे ब्रह्मचारी हैं 1(२६-२.२५) ३-विवाहित जीवन में ब्रह्मचर्य-पालन के उपाय बताते हुए महात्मा गांधी ने लिखा है : (१) विवाहित पुरुष को अपनी स्त्री के साथ एकान्त में मिलना-जुलना बन्द करना होगा। थोड़ा विचार करने से हर आदमी देख सकता है कि संभोग के सिवा और किसी बात के लिए अपनी स्त्री से एकान्त में मिलने की जरूरत नहीं होती। (२) रात में पति-पत्नी को अलग-अलग कमरों में सोना चाहिए। (३) दिन में दोनों को अच्छे कामों और अच्छे विचारों में सदा लगे रहना चाहिए। (४) जिनसे अपने सद्विचार को उत्तेजना मिले, ऐसी पुस्तकें पढ़ें। ऐसे स्त्री-पुरुष के चरित्रों का मनन कर । और विषय-भोग में दुःख ही दुःख है, इसे सदा स्मरण रखें। जो भगवान को पाने के लिए ब्रह्मचर्य-व्रत लेगा, उसे जीवन की लगाम ढीली कर देने से मिलनेवाले सुखों का मोह छोड़ना ही होगा। और इस व्रत के कड़े बन्धनों में ही सुख मानना होगा। वह दुनिया में रहे भले ही, पर उसका होकर नहीं रहेगा। उसका भोजन, उसका काम-धन्धा, उसके काम करने का समय, उसके मनवहलाव के साधन, उसका साहित्य, जीवन के प्रति उसकी दृष्टि, सभी साधारण जनसमुदाय से भिन्न होंगे। (५-६-२६) १-अनीति की राह पर पृ० ५६,६० २-वही पृ० ६४-६५ ३--वही पृ०६८-66 ४-वही पृ० १०६ Scanned by CamScanner Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ४-पाज़ मेरे ५६ साल पूरे हो चुके हैं । फिर भी उसकी कठिनता का अनुभव तो होता ही है। यह प्रसि-धारा व्रत है-इस बात को दिन-दिन अधिकाधिक समझ रहा हूँ। निरन्तर जाग्रत रहने की आवश्यकता देख रहा हूँ। । ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो स्वादेन्द्रिय-जीभ' को वश में करना ही होगा।..."हमारी खुराक थोड़ी, सादी और बिना मिर्च मसाले की होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का प्राहार वनपक्व फल है। दुग्धाहार से यह कष्ट-साध्य हो जाता है। 1. बाह्य उपचारों में जैसे पाहार के प्रकार और परिमाण की मर्यादा आवश्यक है, वैसे ही उपवास को भी समझना जाहिए। इन्द्रियाँ इतनी बलवान हैं कि उन पर चारों और से, ऊपर और नीचे से, दशों दिशाओं से घेरा डाला जाय, तभी काबू में रहती हैं । पाहार के विना वे काम नहीं कर सकतीं। उपवास से इन्द्रियों को काबू में लाने में मदद मिलती है। उपवास का सच्चा उपयोग वहीं है, जहाँ मन भी देहदमन में साथ देता है। मन में विषय-भोग के प्रति विरक्ति हो जानी चाहिए । विषय-वासना की जड़ें तो मन में ही होती हैं । उपवास के विना विषयासक्ति का जड़ मूल से जाना संभव नहीं। अत: उपवास ब्रह्मचर्य-पालन का अनिवार्य अङ्ग है। है. संयमी और स्वच्छंद, त्यागी और भोगी के जीवन में भेद होना ही चाहिए। दोनों का भेद स्पष्ट दिखाई देना चाहिए। अाँख का उपयोग दोनों करते हैं। पर ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता है। भोगी नाटक सिनेमा में लीन रहता है। कान से दोनों काम लेते हैं। पर एक भगवद् भजन सुनता है, दूसरे को विलासी गाने सुनने में आनन्द पाता है। जागरण दोनों करते हैं। पर एक जाग्रत अवस्था में हृदय-मन्दिर में विराजनेवाले राम को भजता है, दूसरे को नाच-रंग की धून में सोने का खयाल ही नहीं रहता। खाते दोनों हैं। पर एक शरीररूपी तीर्थ क्षेत्र की रक्षार्थ देह को भोजनरूपी भाड़ा देता है, दूसरा जबान के मजे की खातिर देह में बहुत सी चीजों को ढूंसकर उसे दुगंधमय बना देता है। यों दोनों के प्राचार-विचार में भेद रहा ही करता है और यह अंतर दिन-दिन बढ़ता जाता है, घटता नहीं। या ब्रह्मचर्य के मानी है, मन-वचन-काय से सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम । इस संयम के लिए ऊपर बताये हुए त्यागों की आवश्यकता है, यह मुझे आज भी दिखाई दे रहा है। प्रयत्नशील ब्रह्मचारी तो अपनी कमियों को हर वक्त देखता रहेगा। अपने मन के कोने में छिपे हुए विकारों को पहचान लेगा और उन्हें निकाल बाहर करने की कोशिश सदा करता रहेगा। जब तक विचारों पर यह काबू न मिल जाय कि अपनी इच्छा के बिना एक भी विचार मन में न आये, तब तक ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण नहीं। उन्हें वश में करने का मानी है, मन को वश में करना। ____ जो लोग ईश्वर साक्षात्कार के उद्देश्य से, जिस ब्रह्मचर्य की व्याख्या मैंने ऊपर की है, वैसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, वे अपने प्रयत्न के साथ-साथ ईश्वर पर श्रद्धा रखनेवाले होंगे तो उनके निराश होने का कोई कारण नहीं। .. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः। म पर रसवज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ । अत: रामनाम और रामकृपा, यही आत्मार्थी का अन्तिम साधन है, इस सत्य का साक्षात्कार मैंने हिन्दुस्तान आने पर किया। आत्मकथा ख० ३ अ० ५-विषय-मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है। निस्संदेह, जो अन्य इन्द्रियों को जहां-तहां भटकने देकर एक ही इन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है। कान से विकारी बातें सुनना, आंख से विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु का स्वाद लेना, हाथ से विकारों को उभारनेवाली चीज को छूना और फिर भी जननेंद्रिय को रोकने का इरादा रखना तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने के प्रयत्न के समान है। इसलिए जननेंद्रिय को रोकने का निश्चय करनेवाले के लिए इंद्रिय-मात्र का, उनके विकारों से रोकने का निश्चय होना ही चाहिए । (५.८-३०) ६-कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अपनी या परायी स्त्री के लिए विकारवश होने में, उन्हें विकारी बनकर छूने में, ब्रह्मचर्य का भंग नहीं १-निराहार रहनेवाले के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस बना रहता है। ईश्वर के दर्शन से वह भी चला जाता है। गीता २:५६ २-ब्रह्मचर्य (पहला भाग): पृ०७ Scanned by CamScanner Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ "होता यह भयंकर भूत है। इसमें स्थूल ब्रह्मचर्य का सीधा भंग है। इस तरह रमनेवाली अपने को और दुनिया को धोखा देते हैं। . ऐसे लोगों की अन्तिम क्रिया बाकी रहती है, तो उसका श्रेय उन्हें नहीं, हालात को है । वे पहले ही मौके पर फिसलनेवाले हैं'। (१९-६-३२) ७ श्रह्मचर्य के पालन के लिए सिर्फ इतना ही काफी नहीं है कि ब्रह्मचारी स्त्री या पुरुष को बुरी नजर से न देखें। लेकिन वह मन से भी विषयों का चिन्तन या भोग न करे । कोपर्य ९४ अपनी पत्नी या दूसरी स्त्री हो, अपना पति हो या दूसरा पुरुष हो किसी के भी विकारमय स्पर्श, या वैसी बातचीत या फिर कोई वैसी ही चेष्टा से भी स्थूल ब्रह्मचर्य टूटता है। यह विकारमय चेष्टा यदि पुरुष पुरुष के बीच ही हो या स्त्री स्त्री के बीच ही हो या दोनों की किसी चीज के लिए हो, तो भी स्थूल ब्रह्मचर्य का भंग होता है । संग न करने में जो ब्रह्मचर्य का आदि और मानते है, नेवारी नहीं हैं.....दूसरे सब भोग भोगते हुए जो पुरुष स्त्री-संग से दूर रहने की इच्छा रखता होगा, या ऐसी कोई स्त्री पुरुष संग से दूर रहना चाहती होगी, उसकी कोशिश बेकार है। कुएं में जानबूझ कर उतर कर पानी से अछूता रहने के प्रयत्न जैसा हो यह प्रयक्ष है। जो स्त्री-पुरुष संग के त्याग को आसान बनाना चाहते हैं, उन्हें उसे उत्तेजना देनेवाली सभी जरूरी चीजें छोड़नी चाहिए। उन्हें जीभ के स्वाद छोड़ने चाहियें, श्रृंगार रस छोड़ना चाहिए। और विलास मात्र छोड़ना चाहिए। मुझे जरा भी शक नहीं कि ऐसे लोगों के लिए ब्रह्मचर्य श्रासान है । (१९-६ ३२) गीता के दूसरे मध्याय में कहा है कि "निराहारी के विषय तक भले ही दब गये, जब तक निराहार जारी रहे। मगर उसका रस नहीं मिटता। वह तो तभी मिटेगा जब पर के यानी सत्य के यानी ब्रह्म के दर्शन हो जायेंगे । "...... इस श्लोक में पूर्ण सत्य कह दिया है। उपवास से लगाकर जितने संयमों की कल्पना की जा सकती है, वे सब ईश्वर की कृपा के बिना बेकार हैं। ब्रह्म का दर्शन यानी ब्रह्म हृदय में निवास करता है, ऐसा अनुभव ज्ञान। यह न हो तब तक रस नहीं मिटता। इसके प्राते ही रस मात्र सूख जाते हैं । ...... यह ज्ञान लगातार प्रयास से ही होता है।......सत्य के दर्शन के अन्त में परमानन्द है । (१६-६-३२) १०-......उपवास करके उलटे सिर लटक कर हाथ सुखाकर, पैर सुखाकर किसी भी तरह विषयों की निवृत्ति करनी ही है५ । (२५-६-३२) ११- शुद्ध प्रेम में शरीर करने की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु उसका अर्थ यह तो नहीं है कि स्पर्श मात्र अपवित्र होता है। मेरा मेरी माँ पर शुद्ध प्रेम था। जब उसके पांव दर्द करते, तब मैं उन्हें दवाता था उसमें कोई पवित्रता नहीं थी विकारी पदूषित है। यतः मैं ऐसा कहूंगा कि पारीर-स्पर्श के बिना शुद्ध प्रेम है, ऐसा करनेवाले ने युद्ध प्रेम समझा ही नहीं' 1 (२६-५०३७) १२ – ...... मेरा ब्रह्मचर्य पुस्तकीय नहीं है। मैंने तो अपने तथा उन लोगों के लिए जो मेरे कहने पर इस प्रयोग में शामिल हुए हैं, अपने ही नियम बनाए हैं। और अगर मैंने इसके लिए निर्दिष्ट निषेधों का अनुसरण नहीं किया है, तो स्त्रियों को धार्मिक साहित्य में जो सारी बुराई और प्रलोभन का द्वार बताया गया है, उसे मैं इतना भी नहीं मानता। पुरुष ही प्रलोभन देनेवाला और श्राक्रमण करनेवाला है । स्त्री के स्पर्श से वह अपवित्र नहीं होता; बल्कि वह खुद ही उसका स्पर्श करने लायक पवित्र नहीं होता। लेकिन हाल में मेरे मन में संदेह जरूर उठा है कि स्त्री या पुरुष के संपर्क में आने के लिए ब्रह्मचारी या ब्रह्मचारिणी को किस तरह की मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। मैंने जो मर्यादायें रखी हैं, वे मुझे पर्याप्त नहीं मालूम पड़तीं, लेकिन वे क्या होनी चाहिएँ, यह मैं नहीं जानता । हरिजन सेवक, (२३-७-३८) १ - सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४२ २- वही पृ० ६१ ३- सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४०-४१ ४- वही पृ० ४२-४४ ५-यही पृ० ४५ ...... अमृतवाणी पृ० १५५ - ब्रह्मचर्य (प० भा० ) पृ० १०२, १०३-४ Scanned by CamScanner Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १३ ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानी जानेवाली बाड़ को मैंने हमेशा के लिए आवश्यक नहीं माना है। जिसे किसी बाह्य रक्षा की जरूरत है, वह पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं। इसके विपरीत, जो बाड़ को तोड़ने के ढोंग से प्रलोभनों की खोज में रहता है, वह ब्रह्मचारी नहीं, किन्तु मिथ्याचारी है। ऐसे निर्भय ब्रह्मचर्य का पालन कसे हो ? मेरे पास इसका कोई अचूक उपाय नहीं, क्योंकि मैं पूर्ण दशा को नहीं पहुंचा हूं। पर मैने अपने लिए जिस वस्तु को अावश्यक माना है, वह यह है : विचारों को खाली न रहने देने की खातिर निरंतर उन्हें शुभ चिन्तन में लगाये रहना चाहिए। रामनाम का इकतारा तो चौबीसों घंटे, सोते हुए भी, श्वास की तरह स्वाभाविक रीति से. चलता रहना चाहिए। वाचन हो तो शुभ, और विचार किया जाय, तो अपने पारमायिक कार्य का। विवाहितों को एक-दूसरे के साथ एकान्त-सेवन नहीं करना चाहिए। एक कोठरी में एक चारपाई पर नहीं सोना चाहिए। यदि एक दूसरे को देखने से विकार पैदा होता हो तो, अलग-अलग रहना चाहिए। यदि साथ-साथ बातें करने में विकार पैदा होता हो, तो बातें नहीं करनी चाहिए। जो मनुष्य कान से बीभत्स या अश्लील बातें सुनने में रस लेते हैं, अाँख से स्त्री की तरफ देखने में रस लेते हैं, वे ब्रह्मचर्य का भंग करते अनेक.."ब्रह्मचर्य-पालन में हताश हो जाते हैं, इसका कारण यह है कि वे श्रवण, दर्शन, वाचन, भाषण आदि की मर्यादा नहीं जानते ।..."जो पुरुप स्त्री के चाहे जिस अङ्ग का सविकार स्पर्श करता है, उसने ब्रह्मचर्य का भङ्ग किया है, यह समझना चाहिए। जो ऊपरी मर्यादा का ठीक-ठीक पालन करता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य सुलभ हो जाता है । पालसी मनुष्य कभी ब्रह्मचर्य का पालन नहीं कर सकता। वीर्य-संग्रह करनेवाले में एक अमोघ-शक्ति पैदा होती है। उसे अपने शरीर और मन को निरंतर कार्यरत रखना ही चाहिए। हर एक साधक को ऐसा सेवा कार्य खोज लेना चाहिए कि जिससे उसे विषय-सेवन करने के लिए रंचमात्र भी समय न मिले। साधक को अपने आहार पर पूरा काबू रखना चाहिए। वह जो कुछ खाये, वह केवल औषधिरूप में शरीर-रक्षा के लिए, स्वाद के लिए कदापि नहीं। इसलिए मादक पदार्थ, मसाले वगैरह उसे खाना ही नहीं चाहिए। ब्रह्मचारी मिताहारी नहीं, किन्तु अल्पाहारी होना। चाहिए । सब अपनी मर्यादा को बांध लें। 3. उपवासादि के लिए ब्रह्मचर्य-पालन में अवश्य स्थान है। क्षणिक रस के लिए मैं क्यों तेजहीन होऊँ ? जिस वीर्य में प्रजोत्पत्ति की शक्ति भरी हुई है, उसका पतन क्यों होने दूं ?......" इस विचार का मनन यदि साधक नित्य करे, और रोज ईश्वर-कृपा की याचना करे, तो संभवतः वह इस जन्म में ही वीर्य पर काबू प्राप्त कर ब्रह्मचारी बन सकता है' । (२८-१०-३६) १४–पर मेरा ब्रह्मचर्य उसका पालन करने के लिए बने हुए कट्टर नियमों के बारे में कुछ नहीं जानता। मैंने तो जब जैसी जरूरत देखी, उसके अनुसार नियम बना लिये। लेकिन मेरा यह विश्वास कभी नहीं रहा कि ब्रह्मचर्य का उपर्युक्त रूप में पालन करने के लिए स्त्रियों के किसी भी तरह के संसर्ग से बिल्कुल बचना चाहिए। जो संयम अपने विपरीत वर्ग के सब संसर्गों से, फिर वह कितना ही निर्दोष क्यों न हो, बचने के लिए कहे, वह बलात् संयम है, जिसका कोई महत्त्व नहीं। इसलिए सेवा या काम-काज के लिए स्वाभाविक संसर्गों पर कभी कोई प्रतिबन्ध नहीं रहा । (४-११-'३६) १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ७-१० २-दही पृ० २६-३१ Scanned by CamScanner Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाढ़ १५ एक भाई ने गांधीजी से प्रश्न दिया : "में जानना चाहता हूं कि क्या धाप पुरुष और स्त्री सत्याग्रहियों का स्वच्छन्दतापूर्वक मिलना-जुलना और उनका एक साथ काम करना पसन्द करेंगे अथवा अलग इकाइयों के रूप में उनका संगठन करना।” गांधीजी ने उत्तर दिया : "मैं तो थलग इकाइयाँ रखना ही पसन्द करूंगा । औरत के पास औरतों के बीच करने के लिए काफी से ज्यादा काम है।... सिद्धान्त की दृष्टि से भी में स्त्री-पुरुष दोनों के अलग-अलग अपना काम करने में विश्वास रखता हूँ। लेकिन इसके लिए कोई कठोर नियम नहीं बना सकता। दोनों के बीच के सम्बन्ध पर विवेक का नियंत्रण होना चाहिए। दोनों के बीच कोई अंतराय न होना चाहिए। उनका परस्पर का व्यवहार प्राकृतिक और स्वेच्छापूर्ण होना चाहिए ।" (१-६-२४०) १६... जो ब्रह्मचर्य पालन के सामान्य नियमों को अवगणना करके वीर्य संग्रह की बाधा रखते हैं, उन्हें निराश होना पड़ता है, और कुछ तो दीवाने-जैसे बन जाते हैं । दूसरे निस्तेज देखने में प्राते हैं । वे वीर्य संग्रह नहीं कर सकते, और केवल स्त्री-संग न करने में सफल हो जाने पर अपने आपको कृतार्थ समझते हैं । ( ११-१०-४२ ) १७ – ब्रह्मचर्य स्त्रियों के साथ पवित्र सम्बन्ध रखने से, या उनके आवश्यक स्पर्श से अशुद्ध नहीं हो जायगा । ब्रह्मचारी के लिए स्त्री और पुरुष का भेद नहीं-सा हो जाता है। इस वाक्य का कोई अनर्थ न करे। इसका उपयोग स्वेच्छाचार का पोषण करने के लिए कभी नहीं होना चाहिये । ( १०-११ - ४२ ) १८ -- प्रगर मन कमजोर है तो बाहर की सब सहायता बेकार है, और मन पवित्र है, तो सब अनावश्यक है। इसका यह मतलब कदापि नहीं समझना चाहिए कि एक पवित्र मनवाला श्रादमी सब तरह की छूट लेते हुए भी बेदाग बचा रह सकता है। ऐसा श्रादमी खुद ही अपने साथ कोई छूट न लेगा उसका सारा जीवन उसकी अंदरुनी पवित्रता का सच्चा सबूत होगा । (२०५०४६) के १६- मैं पुरानी धारणा से जैसा कि हम उसे जानते हैं, मागे जाता हूं। मेरी परिभाषा हिलाई को स्थान नहीं देती। मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता जिसका पर्व है स्त्री का स्पर्श न करना में जो धाज करता हूं वह मेरे लिए नया नहीं है जहाँ तक मैं अपने को जानता हूँ, मैं श्राज वही विचार रखता हूं जो कि मैं ४५ वर्ष पूर्व, जब कि मैंने व्रत ग्रहण किया था, रखता था । व्रत लेने या, तब भी मैं स्वतंत्रता पूर्वक स्त्रियों से मिलता जुलता था, और फिर भी वहां रहते समय मैं अपने को ब्रह्मचर्य वह विचार और चर्या है, जो कि ब्रह्म के साथ सम्पर्क कराता है और उस तक ले जाता है। निश्चय ही मैं भी नहीं हूं, परन्तु मैं उस दशा को पहुंचने की चेष्टा कर रहा हूं और मेरे विचार से मैंने काफी प्रगति की है। पहले जब मैं इग्लैण्ड में विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहता था मेरे लिए, दयानन्द इस अर्थ में ब्रह्मचारी नहीं थे । मैं उस अर्थ में श्राधुनिक नहीं हूँ जिस अर्थ में श्राप समझते हैं। मैं उतना ही पुराना हूं, जितनी कल्पना की जा सकती है। और अपने जीवन के अन्त तक वैसा ही रहने की प्राशा करता हूं५ । ( १७-३- '४७ ) २० - जिस ब्रह्मचर्य की चर्चा की है, उसके लिए कैसी रक्षा होनी चाहिए ? जवाब तो सीधा है। जिसे रक्षा की जरूरत हो, वह ब्रह्मचर्य ही नहीं । मगर यह कहना आसान है। उसे समझना और उस पर अमल करना बहुत मुश्किल है। यह बात पूर्ण ब्रह्मचारी के लिए ही सभी है। ......जो ब्रह्मचारी बनने की कोशिश कर रहा है, उसके लिए तो अनेक बंधनों की जरूरत है। ग्राम के छोटे पेड़ को सुरक्षित रखने के लिए उसके चारों तरफ बाड़ लगानी पड़ती है । छोटा बच्चा पहले मां की गोद में सोता है, फिर पालने में और फिर चालन- गाड़ी लेकर चलाता है। जब बड़ा होकर खुद चलने-फिरने लगता है, तब सहारा छोड़ देता है। न छोड़े तो उसे नुकसान होता है। ब्रह्मचर्य पर भी यही चीज लागू होती है । ब्रह्मचर्य की मर्यादा या बाड़ एकादश व्रतों का पालन है। मगर एकादश व्रतों को कोई बाड़ न माने । बाड़ तो किसी खास हालत ६ १- मापर्य (द्र० भा० ) पृ. ४० २ - आरोग्य की कुंजी पृ० ३० ३- वही पृ० ३६-३७ ४- ब्रह्मचर्य ( दू० भा० ) पृ० ४५ ४६ k - My days with Gandhi pp. 176-77 P Scanned by CamScanner Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका के लिए ही होती है । हालत बदली और बाढ़ भी गई। मगर एकादश व्रत का पालन तो ब्रह्मचर्य का जरूरी हिस्सा है। उसके बिना ब्रह्मचर्य - पालन नहीं हो सकता । श्राखिर में ब्रह्मचर्य मन की स्थिति है। बाहरी श्राचार या व्यवहार उसकी पहचान, उसकी निशानी है। जिस पुरुष के मन में जरा भी विषय-वासना नहीं रही, वह कभी विकार के वध नहीं होगा वह किसी धौरत की चाहे जिस हालत में देले, चाहे जिस रूप-रंग देतो भी उसके मन में विकार पैदा नहीं होगा यही रमी के बारे में भी समझना चाहिए। मगर जिसके मन में विकार उठा ही करते हैं, उसे तो सगी बहन या बेटी को भी नहीं देखना चाहिए। मैंने अपने कुछ मित्रों को यह नियम पालन करने की सलाह दी थी ।......इसका पालन किया, उन्हें फायदा हुआ है। अपने बारे में मेरा उजवा है कि जिन चीजों को देखकर दक्षिणी अफ्रीका में मेरे मन में कभी विकार पैदा नहीं हुआ था, उन्हीं से दक्षिणी अफ्रीका से वापस आने पर मेरे मन में विकार पैदा हुया । श्रौर, उसे शांत करने में मुझे काफी मेहनत करनी पड़ी। " ६७ ब्रह्मचर्य की जो मर्यादा हम लोगों में मानी जाती है, उसके मुताबिक ब्रह्मचारी को स्त्रियों, पशुओं और नपुंसकों के बीच नहीं रहना चाहिए। ब्रह्मचारी अकेली स्त्री या स्त्रियों की टोली को उपदेश न करे । स्त्रियों के साथ, एक श्रासन पर न बँडे । स्त्रियों के शरीर का कोई हिस्सा न देखे । दूध, दही, घी वगैरह चिकनी चीजें न खाये। स्नान-लेपन न करे। यह सब मैंने दक्षिणी अफ्रीका में पढ़ा था। वहाँ जननेन्द्रिय का संयम करनेवाले पश्चिम के स्त्री-पुरुषों के बीच में मैं रहता था। मैं उन्हें इन सब मर्यादाओं को तोड़ते देखता था। खुद भी उनका पालन नहीं करता था । यहाँ श्राकर भी न कर सका । मुझे लगता है कि जो ब्रह्मचारी बनने की सी कोशिश कर रहा है, उसे भी ऊपर बताई हुई मर्यादाओं की जरूरत नहीं है। ब्रह्मचर्य जबरदस्ती से यानी मन से विरुद्ध जा कर पालने की चीज नहीं। वह जवरदस्ती से नहीं पाला जा सकता। यहाँ तो मन को वश में करने की बात है। जो जरूरत पड़ने पर भी स्त्री को छूने से भागता है, वह ब्रह्मचारी बनने की कोशिश नहीं करता। इस लेख का मतलब यह नहीं कि लोग मनमानी करें। इसमें तो सच्चा संयम पालने की बात बताई गई है। दंभ या ढोंग के लिए यहाँ कोई जगह हो ही नहीं सकती। जो छुपे तौर से विषय सेवन के लिए इस लेख का इस्तेमाल करेगा, वह दंमी और पापी गिना जायगा । ब्रह्मचारी को नकली बाड़ों से भागना चाहिए। उसे अपने लिए मर्यादा बना लेनी चाहिए। जब उसकी जरूरत न रहे, तब तो उसे तोड़ना चाहिए । ( ५-६ - ४७ ) २१ - ब्रह्मचर्य क्या है, यह बताते हुए मैंने लिखा था कि ब्रह्म यानी ईश्वर तक पहुँचने का जो श्राचार होना चाहिए, वह ब्रह्मचर्य है ।... ईश्वर मनुष्य नहीं है । इसलिए वह किसी मनुष्य में उतरता है या श्रवतार लेता है, ऐसा कहें तो यह निरा सत्य नहीं है। है कि ईश्वर एक शक्ति है, तत्त्व है, शुद्ध चैतन्य है, सब जगह मौजूद है। मगर हैरानी की बात यह है कि ऐसा होते हुए सहारा या फायदा नहीं मिलता, या यों कहें कि सब उसका सहारा पा नहीं सकते । १ - अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, असंग्रह, शरीरश्रम, अस्वाद, सर्वत्र भयवर्जन । सर्वधर्मी, समानत्व, स्वदेशी, स्पर्शभावना, हीं एकादश सेवावीं नम्रत्व व्रतनिश्चये ॥ २ - ब्रह्मचर्य ( दू० भा० ) पृ० ५४-५६ ३ वही पृ० ५७-५८ सच बात तो यह भी सब को उसका बिजली एक बड़ी शक्ति है। मगर सब उससे फायदा नहीं उठा सकते। उसे पैदा करने का अटल कानून है। उसके अनुसार काम किया जाय तभी बिजली पैदा की जा सकती है। बिजली जड़ है, बेजान चीन है, उसके इस्तेमाल का फायदा चेतन मनुष्य मेहनत करके जान सकता है। जिस पेतनामय बड़ी भारी शक्ति को हम ईश्वर कहते हैं, उसके प्रयोग का भी नियम तो है ही। ...... उस नियम का नाम है ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचर्य को पालने का सीधा रास्ता रामनाम है। यह मैं अपने अनुभव से कह सकता हूं... | इस तरह विचार करते हुए मैं कह सकता हूं कि ब्रह्मचर्य की रक्षा के जो नियम माने जाते हैं, वे तो खेल ही हैं। सच्ची श्रोर श्रमर रक्षा तो रामनाम ही है । (१४-६-४७) २२ - विलायत में अच्छी तरह शिक्षाप्राप्त एक हिन्दुस्तानी भाई ने अपनी एक उलझन गांधीजी के सामने इस प्रकार रखी एक तरफ से लगता है कि स्त्री-पुरुष के सम्बन्ध को ज्यादा कुदरती बनाने से बुराई और पापाचार कम होगा। दूसरी तरफ से लगता है कि " Scanned by CamScanner Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड एक-दूसरे को छूने से बुराई पैदा हुए बिना रह नहीं सकती।......मुझे लगता है कि स्पर्श-सुख की वजह से प्रादमी, बदमाश हो तो, एक महीने या एक हफ्ते में और भला हो तो, धीरे-धीरे १० बरस में भी पाप की तरफ झुके बिना नहीं रह सकता ।...यह भी खयाल आता है कि स्पर्श-मात्र-छोड़ देने से क्या काम चल सकेगा ?..." महात्मा गांधी ने उत्तर दिया : "बहुतेरे नौजवान लड़के-लड़कियों की यही हालत होती है। उनके लिए सीधा रास्ता यही है : उन्हें स्पर्शमात्र का त्याग करना ही चाहिए। किताबों में लिखी हुई मर्यादाएं उस समय में होनेवाले अनुभव से बनाई गई हैं। लेखकों के लिए वे जरूरी भी थीं। साधक को अपने लिए उनमें से कुछ मर्यादाएँ या दूसरी कुछ नई मर्यादाएं बना लेनी होंगी। अन्तिम मंजिल को बीच में रखकर उसके प्रासपास एक दायरा खीचें तो मंजिल तक पहुंचने के कई रास्ते दिखाई देंगे। उनमें से जिसे जो प्रासान हो, उसपर चले और मंजिल पर पहुंचे। जिस साधक को अपने-आप पर भरोसा नहीं, वह अगर दूसरों की नकल करने लगे तो जरूर ठोकर खायगा।..... "जिसका राम दिल में बसता है, ऐसे साधक के लिए सारी स्त्रियां बहन या मा हैं । उसे कभी यह खयाल भी नहीं आता कि स्पर्श मात्र बुरा है। उसमें से दोष पैदा होने का डर नहीं रहता। वह सारी स्त्रियों में उसी भगवान को देखता है, जिसे व अपने में पाता है। . "ऐसे लोग हमने नहीं देखें, इसलिए यह मानना कि वे हों ही नहीं सकते, घमंड की निशानी है। इससे ब्रह्मचर्य की महिमा घटती है।......” (२६-६-४७) ... - २३-.......सबको अपनी कमजोरी पहचाननी चाहिए। जान-बूझकर उसे जो छिपाता है और वलवान की नकल करने जाता है, वह ठोकर खायेगा ही। इसलिए मैंने तो कहा है कि हरेक को अपनी मर्यादा खुद बांधनी चाहिए। - मुझे नहीं लगता कि किशोरलाल भाई जिस चटाई पर स्त्री बैठी हो, उस पर बैठने से इनकार करेंगे। ऐसा हो तो मुझे ताज्जुब होगा। मैं तो ऐसी मर्यादा को समझ नहीं सकता। मैंने उनके मुंह से ऐसा कभी नहीं सुना। स्त्री की निर्दोष संगति की तुलना सांप के बिल से करना मैं तो अज्ञान ही मानता हूं। इसमें स्त्री-जाति का और पुरुष का अपमान है। क्या जवान लड़का अपनी मां के पास नहीं बैठेगा ? बहन के पास नहीं बैठेगा ? रेल में उसके साथ एक पटरी पर नहीं बैठेगा। ऐसे संग से भी जिनका मन चंचल होता हो, उसकी हालत कितनी दयाजनक मानी जायगी? यह मैं मानता हूँ कि लोक-संग्रह के लिए बहुत कुछ छोड़ना चाहिए। मगर इसमें भी समझ से काम लेना होगा। यूरोप में नंगों का एक संघ है। उन्होंने मुझे इसमें खींचने की कोशिश की। मैंने साफ इन्कार कर दिया। .......नंगों की मिसाल को मैं लोक-संग्रह की आवश्यकता में गिनूंगा। मगर लोक-संग्रह की दलील देकर मुझ पर दबाव डाला गया कि मैं छुआछूत मिटाने की बात छोड़ दूं। लोक-संग्रह की दृष्टि से नौ बरस की लड़की की शादी करने का रिवाज चालू रखने की बात कही गई है। लोक-संग्रह की खातिर दरिया पार जाने से रोका जाता था। ऐसी और भी कई मिसालें दी जा सकती हैं। मगर घर के कुएं में हम तेरें, डूब न मरें। बन्धन ऐसे तो नहीं होने चाहिए कि जिनसे स्त्री-पुरुष का भेद हम भूल ही न सके। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे अनेक कामों में इस फर्क के लिए कोई जगह नहीं है। दरअसल इस भेद को याद करने का मौका एक ही होता है, वह तब, जब काम सवारी करता है। जिन स्त्री-पुरुषों पर सारे दिन ही काम सवार रहता है, उनके मन सड़े हुए हैं। मैं मानता हूं ऐसे लोग लोक-कल्याण नहीं कर सकते। इन्सान की हालत आमतौर पर ऐसी नहीं होती। करोड़ों देहाती अगर सारे दिन इसी चीज का खयाल किया करें, तो वे किसी भी शुभ काम के लायक नहीं रह सकते । (१३-७-'४७) महात्मा गांधी के पांच प्रयोगों का विस्तृत वर्णन ऊपर पाया है। इन प्रयोगों में स्त्रियों के साथ एक-स्थान में वास, एकशय्या-शयन, एकांत भाषण और स्त्री-स्पर्श होते रहे। सर्दी की मौसम में महात्मा गांधी को कभी-कभी कंपन होने लगता। वह बड़े जोरों से होता और कुछ समय तक रहता। उस समय जो समीप में होते, वे महात्मा गांधी के शरीर को अपने शरीर से सटा कर रखते, जिससे कि उनके कांपते हुए १- ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ६२-६३ २-वही पृ० ६५-६६ Scanned by CamScanner Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका P शारीर को गर्मी पहुंच सके। ऐसे अवसरों पर बहनें भी होती. प्रभ हो सकता है-ऐसी स्थतियों में महात्मा गांधी को ब्रह्मचारी कहा जा सकता है या नहीं। ऐसा प्रभ उठा। इस प्रश्न का उत्तरजनी एकातहष्टि से नहीं दे सकता। महात्मा गांधी ने इन सारे प्रयोगों के अवसर पर अपनी मानसिक स्थिति को सम्पूर्णतः निविकार बतलाया है। उन्होंने कहा है-"पिता अपनी पुत्री का निर्दोष स्पर्श सब के सामने करे, उसमें दोष नहा दखता। मेरा स्पर्श उस प्रकार का है।" "इस व्यवहार के बीच अथवा उसके कारण कभी कोई अपवित्र विचार मेरे मन में नहीं पाया।""""मेरा माचरण कभी छिपा नहीं रहा है।...""मेरा माचरण पिता के समान रहा है" "मेरे लिए तो इतनी सारी स्त्रियाँ बहिन और बच्चियाँ ही पी।" मगर महात्मा गांधी की मानसिक, वाचिक भौर कायिक स्थिति ऐसी ही थी तो कोई भी जनी उन्हें अब्रह्मचारी कहने का साहस नहीं कर सकेगा। पर उनके मन में जरा भी.मोह रहा होगा, अगर ये प्रवृत्तियां मोह-वश ही होती रही होंगी, तो महात्मा गांधी अपनी तुला में ही पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं ठहरगे। उन्होंने स्वयं ही कहा था-"जिस बात की जांच करना आवश्यक है, वह है मेरी मानसिक पृत्ति-वह ठीक है अथवा उसमें काम-वासना का भवशेष है ।" भगर उसमें "अज्ञातभाव से भी काम-वासना" का अवशेष रहा तो उन्हें ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकेगा। . स्थलिभद्र ने कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास किया। स्पर्श और एक-शय्या-शयन से दूर रहे, पर जहाँ तक अन्य बाड़ों का प्रश्न था उनकी स्थिति वहां नहीं ही कही जा सकती है। रागवती वेश्या के घर में वास था। एकात था। वेश्या अनुगा थी। षट्रसयुक्त भोजन था। सुन्दर महल था। वेश्या का सुन्दर रूप-दर्शन था। युवावस्था थी। वर्षाऋतु.थी। मधुर संगीत था। नाना प्रकार का अनुनय-विनय था। ये सब होने पर भी स्थूलिभद्र दुष्कर, दुष्कर-दुष्कर, महा दुष्कर करनेवाले कहे गये हैं। महात्मा गांधी ने स्पर्श और एक-शय्या-शयन का प्रयोग किया। उन्होंने स्थलिभद्र से भी मागे का कदम उठाया। यदि कसौटी ठीक है, यदि स्थलभद्र कई बाड़ों की अनवस्थिति में भी प्रात्मजय, मनजय के कारण मादर्श ब्रह्मचारी हो सके तो वैसी ही स्थिति में महात्मा गांधी ब्रह्मचारी नहीं हो सकते, ऐसा कोई भी जैनो नहीं कह सकता। . इस दिशा में सुदर्शन का प्रसंग भी एक प्रकाश देता है। सुदर्शन चम्पा नगरी के बारह व्रत धारी श्रावक थे । इस नगरी के अधिपति पात्रीवाहन राजा का मंत्री कपिल, सुदर्शन का मित्र था। उसकी पत्नी का नाम कपिला था। एक बार प्रसंग-वश सुदर्शन अपने मित्र कपिल के घर ठहरे। कपिला उसके सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गयी। एक दिन कपिल घर पर नहीं थे। कपिला ने दासी के द्वारा सुदर्शन को कहलाया"कपिल बीमार हैं और माप को याद कर रहे हैं।" मित्र के स्नेहवश सुदर्शन कपिल के घर पहुंचा। दासी उसे महल में ले गई। कंपिला ने दार बन्द कर लिया और सुदर्शन से भोग की प्रार्थना करने लगी। सुदर्शन निर्विकार रहे। कपिला काम-विह्वल हो उनके शरीर से लिपट गई। फिर भी सुदर्शन निर्विकार रहा। कपिला बोली : "क्या आप में पुरुषत्व नहीं ?" सुदर्शन बोले : "हां मैं नपुंसक हूं।" - मनोरमा के अतिरिक्त सब स्त्रियां सुदर्शन के लिए मां-बहिन के समान थीं। वह वास्तव में उन सब के प्रति नपुंसक-से थे। कपिला उनसे दूर हुई। सुदर्शन घर लौटे। एक बार राजा ने नगरी में वसन्त-महोत्सव रचा । सब का जाना अनिवार्य था । सुदर्शन की पत्नी मनोरमा भी अपने पुत्रों सहित उत्सव में उपस्थित हई। महारानी अभया ने, मनोरमा के देवकुमार सदृश पुत्रों को देखकर दासी से पूछा-"ये पुत्र किस के हैं ?" दासी ने कहा"यह नगर के सुदर्शन सेठ के पुत्र हैं। मनोरमा इनकी मां है"। अभया सुदर्शन के प्रति मोहित हो गई। एक बार सुदर्शन चतुर्दशी के दिन पोषध कर रात्रि में श्मसान में ध्यानस्थ थे। रानी के कहने से धाय सुदर्शन को उसी अवस्था में उठा कर महल में ले भाई। अभया सुदर्शन को आकर्षित करने लगी, पर वह तो मिट्टी के से पुतले बने रहे। वे प्रभया के समीप भी उसी तरह समाधिस्थ रहे, जैसे श्मसान में हों । अन्त में रानी कुपित हो चिल्लाने लगी--"बचानो ! बचायो !! सुदर्शन मुझ पर अत्याचार कर १-My days with Gandhi p. 204 २-पृ०७३ ३-पृ०७४ ४-पृ०७५ ५-Mahatma Gandhi-The Last Phase p. 591 Scanned by CamScanner Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाद १०० रहा है।" द्वारपालों ने सुदर्शन को कंद कर लिया पाणीवाहन राजा ने सुदर्शन को धूली पर चढ़ाने का आदेश दिया। सुदर्शन शांत रहे। नगुकारमंत्र का ध्यान करने लगे झूली सिंहासन के रूप में परिणत हुई। इसके बाद सुदर्शन धर्मघोष स्थविर के उपदेश से गृहत्याग कर मुनि हुए भय एक दवदंती नामक वेश्या मुनि सुदर्शन के रूप पर मोहित हो गयी। उसने श्राविका का रूप बनाया। मुनि सुदर्शन आहार के लिए उसके घर आये । वेश्या ने गृह-द्वार बन्द कर लिया और मुनि को अपने वश में करने का प्रयत्न करने लगी। मुनि उस सुन्दरी वेश्या के सम्मुख भी निर्विकार रहे। वेश्या ने अाखिर उन्हें छोड़ दिया। सुदर्शन ने अपनी साधना से मोक्ष प्राप्त किया। महात्मा गांधी ने जितने गुण ब्रह्मचारी के बतलाये हैं, वे सारे के सारे सुदर्शन में देखे जाते हैं । उनमें नपुंसकत्व की सिद्धि थी। वे ऐसी स्थिति में आ गये जब स्पर्शादि की बाड़ें स्वयं नहीं रहीं, फिर भी अपनी मानसिक, वाचिक और शारीरिक स्थिति के कारण वे ब्रह्मचारी के आदर्श उदाहरण समझे जाते हैं। स्थूलिभद्र और सुदर्शन की स्तुति में कवियों की लेखनी झंकृत हो उठी : नविआए पमयवणंमि वुच्छों ॥ वशिनः सहस्रशः । वशिनः सहस्र सिरसव न सो मुणी श्रयंतो अतो वासं दुरं बलंबतोडणं, अंबयलुंबतोडणं, न दुकरं तं दुक्करं तं च महानुभावं, जं गिरौ गुहायां विजने वनान्तरे, हम्यति रम्ये युवतीजनांतिके, श्रीनंदी पेणरथनेमिमुनीवराई शान नेमिखदर्शनानाम्, तुर्यो भविष्यति निहत्य श्रीनेमिवोपि तं विचार्य, मन्यामहे वयम वशी स एकः या त्वया मदन रे १- भिक्षु ग्रन्थ खाकर ०२ र १६० ३१ से २६६ २- पृ० ७२ ३- वही ४- पृ० ७३ शकडालनंदनः ॥ मुनिरेष दृष्टः । रणांगणे माम् ॥ Serie भटमेकमेव । देवोर्गमा जिगाय मोहं धन्मोहनाव्यमयं तु वशी प्रविश्य ॥ महात्मा गांधी ने स्वयं अपने लिए ऐसी स्थिति उत्पन्न की जिसमें बाढ़ नहीं रहीं। अगर उनकी स्थिति बहिनों के सम्पर्क में भी विशुद्ध रही तो स्थूलभद्र और सुदर्शन की तरह वे भी ब्रह्मचारी क्यों न कहे जा सकेंगे ? यह एक प्रश्न है जिस पर जैनियों को गंभीर विचार करना है । ६ मुनिः स्थूलभद्र ने आचार्य संभूतिविजय से वेश्या के यहाँ चातुर्मास करने की आज्ञा ली स्पूलिभद्र का यह प्रयोग इस बात का प्रमाण बन गया कि ब्रह्मचर्य की साधना में एक मुनि कितना आगे बढ़ा हुआ हो सकता है। महात्मा गांधी के स्वप्रयोग भी इसी दृष्टि से थे। वह इस बात की खोज में थे कि 'संयम धर्म कहाँ तक जा सकता है। इस मुनि स्थलिभद्र और महात्मा गांधी के दृष्टान्त केवल इसी दृष्टि से ढ़ होना चाहिए और कितनी ऊंचाई तक पहुंचा हुआ होना चाहिए महात्मा गांधी अपने प्रयोगों में रहे हुए खतरों से अच्छी तरह अवगत थे। "स्त्री-पुरुष के बीच परस्पर सम्बन्ध की मर्यादा होनी ही चाहिए छूट में जोखम है, इसका मैं रोज प्रत्यक्ष अनुभव करता है। जो कोई विकार के क्या होकर निर्दोष से निर्दोष लगनेवाली भी छूट लेता है, वह खुद खाई में गिरता है और दूसरों को भी गिराता है।" "मेरे उदाहरण का जैसे स्थूलिभद्र का प्रयोग उनके गुरुभाई सिंहगुफावासी मुनि के लिए एक धर्म के रूप में नहीं हुआ था और उनके अनुकूल नहीं पड़ा, वैसे ही महात्मा गाँधी ने भी कहा था : "निर्दोष स्पर्श की छूट लेना कोई स्वतंत्र धर्म नहीं । समीक्ष अनुकरणीय हैं कि मनुष्य को अपने ब्रह्मचर्य की आराधना में कितना ने इस बात का आदर्श नहीं रखते कि सब को ऐसा करना चाहिए। उनके निम्न शब्द हर समय साधक के कानों में गूंजते रहने चाहिए : bub Scanned by CamScanner Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०१ कभी यह अर्थ नहीं कि उसका चाहे जो अनुसरण करने लग जाय'।" प्राचार्य तुलसी ने अनुभव-वाणी में कहा है : "सभी स्त्रियों को माता की दृष्टि से देखें। माता पूज्य होती है । उसमें विकार की दृष्टि नहीं बनती ।" 'मातृस्वसृसतातुल्यं दृष्ट्वा स्त्रीत्रिकरूपकम् ब्रह्मचर्य-पालन में सबसे बड़ी चीज स्त्रीमात्र में माता, बहिन और पुत्री-भाव का साक्षात्कार करना है । महात्मा गांधी के अनुसार उन्होंने ऐसी भावना को सम्पूर्णरूप से उत्पन्न कर लिया था। अत: असाधारण प्रयोगों में भी वे सम्पूर्ण निर्दाग रह सके, ऐसा उनका स्वयं का आत्मनिरीक्षण उन्हें कहता था। गांधीजी के बाड़, विषयक विचार ऊपर में विस्तार से दिये गये हैं। उनमें "ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित नौ बाड़ों की जो रूढिगत कल्पना है, वह मेरे विचारों से अपर्याप्त और दोषपूर्ण है। मैंने अपने लिए कभी इसे स्वीकार नहीं किया। मेरे मत से इन बाड़ों की प्राड़ में रह कर सच्चे ब्रह्मचर्य का प्रयत्न भी संभव नहीं" (पृ० ८८), "मुझे लगता है कि जो ब्रह्मचारी बनने की सच्ची कोशिश कर रहा है, उसे भी ऊपर बताई हुई मर्यादाओं की जरूरत नहीं" (पृ. ६७), जैसे वाक्य मिलते हैं। ऐसे वाक्यों को एक बार दूर रखा जाय तो देखा जायगा कि प्रारंभ से अन्त तक महात्मा गांधी बाड़ों की आवश्यकता का ही प्रतिपादन कर सके हैं, उनके खण्डन का नहीं। उन्होंने समय-समय पर वैसे ही नियम बतलाये हैं जो जैन धर्म की बाड़ों में मिलते हैं। र सन् १९३२ में महात्मा गांधी ने कहा : "ब्रह्मचारी की अपनी व्याख्या का अर्थ ...."पूरी तरह स्पष्ट तो आज भी नहीं हुआ। 'जब मैं उस स्थिति में (निर्विकार स्थिति में) पहुंच जाऊंगा, तब इसी व्याख्या को नयी आँखों से देखूगा।" सन् १९४२ में उन्होंने लिखा : "मैंने ब्रह्मचर्य-पालन का व्रत १६०६ में लिया था, अर्थात् मेरा इस दिशा में छत्तीस वर्ष का प्रयत्न है।..."मेरे कितने ही प्रयोग समाज के सामने रखने की स्थिति को प्राप्त नहीं हुए। जहाँ तक मैं चाहता हूं, वहाँ तक वे सफल हो जाये तो मैं उन्हें समाज के आगे रखने की आशा रखता हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि उनकी सफलता से पूर्ण ब्रह्मचर्य शायद प्रमाण में कुछ सहज बन जाय।" 2 072 महात्मा गांधी के इस दिशा के प्रयोग कौन-से थे और उनमें वे पूर्ण सफल हुए या नहीं, खोज करने पर भी इसका पता नहीं लग सका । ब्रह्मचर्य प्रमाण में कुछ सहज बन जाय, ऐसा कोई नया नियम उनकी ओर से सामने नहीं पाया। क्योंकि उन्होंने ब्रह्मचर्य-पालन के लिए वही नियम अन्त तक बतलाये, जो उन्होंने शुरू-शुरू में बतलाये थे। उनके सन् १९४७ में बतलाये हुए नियम वे ही हैं, जो उन्होंने सन् १९२० में बतलाये। ब्रह्मचर्य के समाधि-स्थानों का जैसा सुव्यवस्थित रूप जैन धर्म में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। गांधीजी द्वारा बताये हुए नियम भगवान महावीर द्वारा वर्णित समाधि-स्थानों से जरा भी भिन्न नहीं और न कोई नयी बात सामने रखते हैं। महात्मा गांधी कहते हैं- "मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता जिसका अर्थ है-स्त्री का स्पर्श न करना।" "स्त्री का स्पर्श न करना ब्रह्मचर्य है"-ब्रह्मचर्य की ऐसी परिभाषा जैन आगम अथवा अन्य ग्रंथों में नहीं मिलती। जैन धर्म में कहा गया है कि स्त्री-स्पर्श न करने से ब्रह्मचर्य ... सुरक्षित रहता है। पर ऐसा नहीं कहा गया है कि स्त्री-स्पर्श न करना ही ब्रह्मचर्य है। जब साधक पूछता है कि ब्रह्मचर्य-पालन की सुगमता के लिए मेरा रहन-सहन कैसा हो, तब ज्ञानी गुरु कहते हैं-वह स्त्री-संसर्ग आदि का वर्जन करता हुआ रहे : inition १-साधक स्त्री-ससंक्त, नपुंसक-ससंक्त, पशु-संसक्त स्थान में रहनेवाला न हो। . .. २-वह शृंगार-पूर्ण विकारी स्त्री-कथा करनेवाला न हो। ३-एक शय्या, आसन प्रादि का सेवन करनेवाला न हो। ४-स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियादि की भोर ताकनेवाला न हो। ५-प्रणीतभोजी न हो। १-पृ०७४ २-पथ और पाथेय पृ० ४० ३-सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ०४१ ४-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२ Scanned by CamScanner Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ शील की नव बाड़ ६-प्रतिमात्रा में प्राहार करनेवाला न हो। -पर्व रति, क्रीडानों का स्मरण करनेवाला न हो। . - STRES S ८-शब्दानुपाती, रूपानुपाती और श्लोकानुपाती न हो। -सुखाभिलाषी न हो। १०-शरीर-विभूषा करनेवाला न हो। .. . . महात्मा गांधी ने भी प्रश्नकर्ताओं को ठीक ऐसे ही उत्तर दिये हैं, जो उद्धृत अंशों में जगह-जगह प्राप्त हैं। महात्मा गांधी के चिन्तन स्वयं अस्थिर से लगते हैं। कभी उन्होंने बाड़ों की अत्यन्त आवश्यकता महसूस करते हुए उनके पालन पर अत्यन्त बल दिया और कभी जब उन्होंने स्वतंत्र प्रयोग किये और आलोचना हुई तब बाड़ों की निरर्थकता पर काफी जोर दिया। कभी साधक के लिए उन्हें जरूरी माना और कभी उसके लिए भी उनकी जरूरत न होने की बात कह दी। ऐसा होते हुए भी महात्मा गांधी बाड़ों का खण्डन नहीं कर पाये। पर उन्होंने स्वयं वही बाड़ें दी हैं, जो श्रमण भगवान महावीर ने दी। नीचे तुलनात्मक तालिका दी जाती है, जिससे यह बात स्पष्ट होगी:-१--ब्रह्मचारी स्त्री-नपुंसक-पशु-संसक्त स्थान में न रहे।. १-पति और पत्नी को अलग-अलग कमरों में रहना चाहिए। TA ...अलग-अलग कमरों में सोना चाहिए। २-वह मोहोत्तेजक स्त्री-कथा न करे, एकान्त में स्त्री के साथ २–यदि साथ-साथ बातें करने में विकार पैदा हों तो बातें नहीं .. बात न करे। पर करनी चाहिए । ........ ३-वह स्त्री के साथ एक शय्या, एक आसन पर न बैठे। ३–पति-पत्नी को एकांत से बचना चाहिए। उन्हें एक-दूसरे के ... साथ एकान्त-सेवन नहीं करना चाहिए। एक कोठरी में एक दिन चारपाई पर नहीं सोना चाहिए . .. ४-वह स्त्री की मनोहर इन्द्रियों पर टकटकी न लगाये। , ४–पाँखें दोष करती हों तो उन्हें बन्द कर लेना चाहिए ।..... 23 अखिों को सदा नीची रखकर चलने की रीति अच्छी है। ५-वह कामुक शब्दों को न सुने। ५-अनेक...ब्रह्मचर्य-पालन में हताश हो जाते हैं. इसका कारण, राय यह है कि वे श्रवण, दर्शन...भाषण प्रादि. की र्मयादाएं नहीं जानते।...कान दोष करें तो उनमें रूईभर लेनी चाहिए। जहाँ गन्दी बातें हों या गन्दे गीत गाये जा रहे हों, वहाँ से 'तुरन्त रास्ता लेना चाहिए। १-(क) देखिए पृ० १२६ (ख) उपदेशमाला गा०३३४-३३६ : य TRan .. इत्थिपमुसंकिलिह, वसहि इत्यीकहं च वजतो । इत्थिजगसंनिसिज', निरुवणं अंगुर्वजाणं ॥ पुन्वरयाणुस्सरणं, इत्थीजणविरहरूवविलवं च । अइबहुभं अइबहुसो, विवजतो अ आहारं ॥ - वजतो. विभूसं, जइज इह बंभचेरगुत्तीस । साहु तिगुत्तिगुत्तो, निहुओ दंतो पसंतो ॥ २-अनीति की राह पर पृ० ५५ ear ३-देखिए पीछे पृ०६२ ४-देखिए पीछे पृ०६५ ५-अनीति की राह पर पृ०५५ ६-देखिए पीछे पृष्ठ ६५ ७-देखिए पीछे पृ०६२ " पृ०६५ " पृ.१२ ६ Scanned by CamScanner Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका :१०३ ६-वह पूर्व क्रीड़ा का स्मरण न करे। ७ वह विषयवर्द्धक गरिष्ट पाहार का वर्जन करे . . -वह प्रति माहार न करे ६-वह शरीर-विभूषा और शृंगार को दूर रखे ६-जो शरीर को तो वश में रखता हुअा जान पड़ता है पर मन में विकार का पोषण करता, वह मूढ मिथ्याचारी है ।... जहाँ मन होता है वहाँ शरीर अन्त में घसिटाए बिना नहीं रहता'। ७-दूध का आहार ब्रह्मचर्य के लिए विघ्नकारक है, इस विषय में मुझे तनिक भी शंका नहीं है। मेरी अपनी राय यह है कि जो अपने विकारों को शान्त करना चाहता हो, उसे घीदूध का इस्तमाल थाहा हा . दूध का इस्तेमाल थोड़ा ही करना चाहिए...""विकारोतंजक वस्तुएं खाने-पीनेवाले को तो ब्रह्मचर्य निभा सकने की प्राशा ही न रखनी चाहिए। ब्रह्मचारी को मिर्च-मसाले जैसी गरमी और उत्तेजना पैदा करनेवाले और मिठाइयां, तली-भुनी चीजों जैसे पाचन में भारी पड़नेवाले पदार्थों से परहेज करना चाहिए। -मित पाहारी बनिए, सदा थोड़ी भूख रहते ही चौके पर से उठ जाइए । ब्रह्मचारी मित आहारी नहीं किन्तु अल्पाहारी होना चाहिए। है-पुरुप के पागे अपनी देह की सुन्दरता दिखाना क्या उसे पसन्द होगा? 0 -पहला काम है ब्रह्मचर्य की आवश्यकता को समझ लेना। दूसरा काम है इन्द्रियों को क्रमश: वश में लाना। ब्रह्मचारी को ( क ) अपनी जीभ को तो वश में लाना. ही चाहिए। . उसे जीने के लिए खाना चाहिए-रसना-सुख के लिए नहीं, (ख) अाँख से वही चीजें देखनी चाहिए जो शुद्ध निष्पाप हों, गन्दी चीजोंकी अोर से उसे अपनी आँखें बन्द कर लेनी चाहिए। 2 . निगाह निची कर के चलना-उसे इधर-उधर नचाते न रहना शिष्ट संस्कारवान होने की पहिचान है (ग) ब्रह्मचारी को अश्लील बातें सुनने और (घ) नाक-से तीव्र उत्तंजक गंध सूंघने से भी परहेज रखना होगा। (ङ) अपने हाथपरों को किसी-न-किसी अच्छे काम में लगाये | ...कान से विकारी बातें सुनना, आंख से विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु का स्वाद लेना, यी हाथ से विकारों को उभारनेवाली चीज को सुना और फिर भी जननेन्द्रिय रोकने का इरादा रखना तो पाग में हाथ . डाल कर जलने से बचने के प्रयत्न के समान है। RSim ... पांचों इन्द्रियों के विषयों के सेवन से दूर रहे 1 B irt h malini A n ti -5 1 E -ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ. ८ २-आत्मकथा ३.८ ३-अनीति की राह पर पृ० १३६ ४-वही पृ०५५ .५-वही पृ० ११० र N E ७-अनीति की राह पर पृ० ७२. ८-ब्रह्मचर्य (५० भा०) पृ०७ Scanned by CamScanner Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ महात्मा गांधी ने कहा है कि साधक अपनी बाड़ें खुद बना लें। इसमें जैन धर्म का मतभेद नहीं । ब्रह्मचर्य की समाधि के लिए जो दस नियम दिये गये हैं, वे अन्तिम संख्या के सूचक नहीं हैं । श्रागमों में स्पष्ट उल्लेख है कि जो भी ब्रह्मचर्य में विघ्न डालनेवाली बातें हैं, उनक ब्रह्मचारी वर्जन करे । for महात्मा गांधी ने सूप में कही हुई बाड़ों के अप्याहारों को पूरे रूप से जाने बिना ही उनके पुटित रूप को उपस्थित कर उनकी आलोचना की है। भगवान महावीर ने संघ में श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका — इन चारों को स्थान दिया। हजारों वर्षों से यह संघ-पद्धति चला रही है। श्रमण, श्रमणियों श्रथवा गृहस्थ बहिनों का स्पर्श नहीं करते और न श्रमणियां श्रथवा गृहस्थ बहनें श्रमणों का। फिर भी संघ में सेवा कार्य भाप से चलता रहा है। परस्पर वैयावृत्य करते हुए भी स्पर्श की आवश्यकता ही नहीं घाठी सेवा के लिए स्पर्श आवश्यक होगा है, ऐसी कोई बात नहीं। महात्मा गांधी ने जो प्रयोग किये, वे स्वयं स्वर्णमूलक रहे। वे सेवा के लिए स्पर्श के प्रसंग के नहीं कंधों का सहारा लेना, नग्न अवस्था में बहिनों से सर्व प्रङ्ग स्नान करना, एक शय्या पर सोना, सेवा के लिए स्पर्श नहीं, पर स्पर्शमूलक प्रवृत्तियाँ हैं । कौन सकता है कि स्वयं मोहमूलक न हों ? कह श्रमण श्रमणियों का श्रादर्श है कि वे एक दूसरे का स्पर्श नहीं करते, पर शुद्ध सेवा के अवसर पर एक दूसरे का स्पर्श नहीं करता, ऐसा महावीर अथवा उनकी बाड़ों का विधान ही नहीं। वास्तविक वैयावृत्त्य की स्थितियों के अतिरिक्त, जैन धर्म में श्रमण श्रमणी का परस्पर स्पर्श पिता-पुत्री, माता-पुत्र, भाई-बहिन में भी निरपवाद वर्जित रहा। गृहकल्पसूत्र में निम्न सूत्र मिलते हैं : १ - यदि निग्रंथ के पैर में कीला, काँटा, कांच का टुकड़ा या निकालने में अथवा समाप्त करने में असमर्थ हो, तो उसे निकालती हुई नहीं करती ॥ ३ ॥ २ यदि निकी में कोई जीव, बीज या रज पड़ जाय और वह उसे स्वयं निकालने में अथवा विशोधन करने में असमर्थ हो, तो उसे निकालती हुई अथवा विशोधन करती हुई निग्रंथी तीर्थंकर की श्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती ॥ ४ ॥ कंकड़ गड़ गया हो और वह गड़कर टूट गया हो और वह स्वयं उसे अथवा विशोधन करती हुई निग्रंथी तीथंकर की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण ३- यदि निग्रंथी के पैर में कील, कांटा, कांच या कंकड़ गड़ गया हो और गड़ कर टूट गया हो और वह स्वयं उसे निकालने में या विशोधन करने में असमर्थ हो, तो उस कांटे को निकालता हुआ निग्रंथ तीर्थंकर की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ ५ ॥ ४ - यदि निग्रंथी की आँख में कोई जीव, बीज या धूलि पड़ जाय और वह उसे स्वयं निकालने में या विशोधन करने में असमर्थ हो "तो उसे निकालता हुमाधववा विशोधन करता हुआ निबंध तीर्थंकर की भाशा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ ६ ॥ २५ – यदि निग्रंथी दुर्ग कठिन, विषम-ऊंचे-नीचे प्रथवा पर्वतीय स्थानों में चल रही हो और वह गति के स्खलन से गिर रही हो या गिरनेवाली हो, तो ऐसी स्थिति में अपनी मुनाओं से उसके अंग को पकड़ता हुआ या उसकी भुजा अथवा सम्पूर्ण शरीर को पकड़ कर उसे धवलम्बन देता हुआ निर्बंध तीर्थकरों की भाशा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ ७ ॥ ६ – यदि निग्रंथी जल-सीकरों से युक्त जलाशय में, पंक में, ढीलें कीचड़वाले जलाशय में, उदक की प्रतीति होनेवाले जलाशय में डूब रही हो तो ऐसी स्थिति में उसको पकड़ कर अवलम्बन देता हुआ निर्ग्रन्थ तीर्थकरों की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करता ॥ ८ ॥ ७- जिस समय निग्रंथी नाव में चढ़ रही हो या नाव से उतर रही हो उस समय उसे पकड़ता हुआ या अवलम्बन देता हुआ निग्रंथ तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १ ॥ निपी के जिस चित्त होने पर उसे ग्रहण करता हुआ या अवलम्बन देता हुआ निग्रंथ तीर्थकरों की धाशा का प्रतिक्रमण नहीं ८. करता ॥ १० ॥ हुआ -यदि निधी सत्ता - साभादि के मद से परवशीभूत हृदय हो गई हो तो उसे ग्रहण करता पकड़ता हुआ या अवलम्बन देता निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करता ॥ ११ ॥ संकाथाणाणि सव्वाणि वज्जा पणिहाण १- उत्तराध्ययन] १६.१४ Scanned by CamScanner Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०-निर्ग्रन्थी के यशाविष्ट होने पर उसे ग्रहण करता हुमा निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १२ ॥ ११-उन्मादप्राप्ता निग्रन्थी को पकड़ता हुमा निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करता ॥ १३ ॥ "१२-उपसर्ग को प्राप्त हुई निर्ग्रन्थी को पकड़ता हुमा निग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥:१४ ॥ १३-यदि निर्ग्रन्थी साधिकरण-क्लेशपूर्ण स्थिति में हो तो उसे पकड़ता हा निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १५॥ १४-प्रायश्चित्त के मा जाने पर क्लान्ता या विषण्णवदना 'निर्ग्रन्थी को पकडता हमा निर्ग्रन्थ तीर्थकरों की आज्ञा का अतिक्रमण .. नहीं करता ॥ १६ ॥ १५-भात-अन्न-पानी का प्रत्याख्यान करनेवाली निग्रन्थी (यदि मच्छित हो रही हो) को पकड़ता हुआ निग्रन्थ तायकरा का प्राशा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १७॥ १६-यदि अर्थजात-द्रव्य से उत्पन्न होनेवाले कारणों से निग्रंन्थी मच्छित हो जाय तो उस स्थिति में उसे ग्रहण करता हुआ निग्रंन्य तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १८ ॥ पाठक देख कि जन-धर्म का बाड़-विधान शद्ध सेवा-कार्य के अवसर उपस्थित होने पर उनसे पराडमख होना नहीं सिखाता। विकट स्थितियों में श्रमण-श्रमणी भी निर्विकार भाव से एक दूसरे के स्पर्श-प्रसंगों में भाग ले सकते हैं। पर ऐसी स्थितियाँ जीवन में थोड़ी ही होती हैं। ऐसी परिस्थितियों को छोड़ कर स्पर्श-वर्जन सार्वजनिक और सर्वकालिक नियम रहा है, उसमें कोई दोष नहीं बता सकता। -गृहस्थ-जीवन में जहाँ माता-पुत्र, भाई-बहिन जैसे सम्बन्ध हैं, वहां अनिवार्य आवश्यक स्पर्श मर्यादा के साथ हर समाज में स्वीकृत है। उपर्युक्त सम्बन्धों में परिचर्या आदि की आवश्यकतावश निर्विकार स्पर्श किसी भी समाज में गृहस्थों के मर्यादित ब्रह्मचर्य का उल्लंघन नहीं माना गया है। महात्मा गांधी की यह दलील भी ठीक नहीं कि पुत्र अपनी मां के पैर दबा सकता है, वैसे ही निविकार अवस्था में वह स्त्री-मात्र का स्पर्श करे तो दोष नहीं। निर्विकार स्पर्श अपने आप में कोई दोष नहीं पर स्त्री-पुरुषों में ऐसे निर्विकार स्पर्श का प्रचलन भी हितावह नहीं हो सकता। वह विषेला अङ्कर है, जो विष-वृक्ष के रूप में ही पल्लवित हो सकता है, अमृत-फल के वृक्ष के रूप में नहीं। महात्मा गांधी के स्पर्श-मूलक प्रयोगों पर निर्विकार पुत्र का माता के पैर दबाने का उदाहरण लागू नहीं पड़ता। २३-महात्मा गांधी बनाम मशरूवाला - महात्मा गांधी ने बाड़ों के सम्बन्ध में विचार देते हुए लिखा है : "संसार से नाता तोड़ लेने पर ही ब्रह्मचर्य प्राप्त हो सकता है, तो इसका कोई मूल्य नहीं है।" ब्रह्मचर्य का यह अथ नहीं कि मैं स्त्री-मात्र का, अपनी बहिन का भी स्पर्श न करूं,... मेरी बहिन बीमार हो पौर ब्रह्मचर्य के कारण उसकी सेवा करने से हिचकिचाना पड़े, तो वह ब्रह्मचर्य कौड़ी काम का नहीं।" "मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता, जिसका अर्थ है-स्त्री का स्पर्श न करना ।" "जिसे रक्षा की जरूरत हो, वह ब्रह्मचर्य नहीं।" "मेरा यह विश्वास कभी नहीं रहा कि ब्रह्मचर्य का उपयुक्त रूप में पालन करने के लिए स्त्रियों के किसी भी तरह के संसर्ग से बिल्कुल बचना चाहिए।” पाठक देखेंगे कि यहाँ संसक्त-शय्या परिहार, स्त्रीसंग परिहार, एकशय्यासन वर्जन-ये बाड़ें विकृत रूप में अवतरित हुई हैं और ऐसी परिस्थिति में उनकी आलोचना भी बेबुनियाद-सी बन गई हैं। महात्मा गांधी ने उपर्युक्त वाक्यों में बाड़ों की जो आलोचना की है, उस विषय में मशरूवाला का चिन्तन भी सामने आ जानापावश्यक है । उन्होंने स्त्री-पुरुष-मर्यादा और स्पर्श-मर्यादा पर चिन्तनपूर्ण विचार दिये हैं। हम नीचे उनके कई लेखों का सारांश उपस्थित करते हैं: -"क्या समाज में और क्या संस्थाओं में, स्त्री-पुरुष के बीच अनैतिक या नाजुक सम्बन्ध पैदा होने के उदाहरण हम बहुत बार सुनते हैं। ..."यह शायद प्रासानी से कहा जा सकता है कि प्राजकल की भोग-विलास की प्रेरणा देनेवाली जीवन-पद्धति तथा स्त्रियों और पुरुषों को परसर सहवास के अधिक अवसर देनेवाली प्रवृत्तियां इसमें बहुत ज्यादा वृद्धि कर रही हैं।"..... "अपने सामने पवित्र जीवन का आदर्श रखनेवाले और उसके लिए बहुत प्रयत्नशील रहनेवाले अनेक स्त्री-पुरुषों के जीवन में भी अनैतिक सम्बन्ध पैदा होने के किस्से सुने गये हैं। ईश्वर की कृपा से मैं आज तक ऐसी स्थिति से बच सका हूँ। अपने चित्त की परीक्षा करते हुए मैं ऐसा Scanned by CamScanner Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाद १०६ बिलकुल नहीं मानता कि मेरे दिल में ईश्वर ने कोई विशेष प्रकार की पवित्रता रख दी है और उसकी वजह से मैं बच गया हूं। मी साधारण पुरुष की तरह ही विकार भरे हैं. और उनके साथ मझे हमेशा झगड़ा जारी ही रखना पड़ता है। "फिर भी, हम जिन्हें अनैतिक या अपवित्र सम्बन्ध मानते हैं, वैसे सम्बन्धों से मैं और जहाँ तक जानता हूं, मेरे परिवार के बाद आज तक बचे हुए हैं । ईश्वर की कृपा के अलावा में एक ही कारण मानता हूं। और वह है सदाचार के स्थूल नियमों का पालन । मात्रा स्वस्रा दुहिता वा विजने तु वयःस्थया । अनापदि न तैः स्थेयं..." "जवान मां, बहन या लड़की के साथ भी आपत्काल के बिना एकान्त में नहीं रहना चाहिए-शिक्षापत्री का यह सूत्र हमें बचपन रटाया गया था। और मेरे पिताजी तथा भाइयों के जीवन में जिसका पालन करने और कराने का प्राग्रह में बचपन से देखता रहता था। __ "स्त्री-पुरुष आपस में आजादी से हिले-मिलें, एक दूसरे के साथ अकेले घूमें-फिरें, एकान्त में भी बैठे और फिर भी उनमें विकार हो या वे नाजुक स्थिति में न फंसे, तो उसे मैं केवल ईश्वरीय चमत्कार ही समझूगा। ऐसे चमत्कार कदम-कदम पर नहीं हो सकते। सैकड़ों बरसों में कोई एक स्त्री या पुरुष भले ही ऐसा पैदा हो। लेकिन मैं हर किसी के बारे में तुरन्त ऐसी श्रद्धा नहीं कर लेता; और ऐसा दावा करने वाले हर किसी के शब्दों पर विश्वास भी नहीं करता। कोई मनुष्य बड़ा ब्रह्मनिष्ठ और योगीराज माना जाता हो और मुझसे कोई यह सलाह पूछे कि उसके निर्विकारी होने के दावे पर विश्वास किया जाय या नहीं, तो मैं पूछनेवाले से यही कहूंगा कि विश्वास न करने से उसकी या आपकी कोई हानि न होगी। ..... "इस विषय में स्त्री के बनिस्वत पुरुष की स्थिति को ज्यादा संभालने की जरूरत होती है । कोई पुरुष ५० वर्ष तक विकारों से बचा रखा हो, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि अब वह सुरक्षित हो चुका है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि ७० वें वर्ष में भी विकारों का शिकार होने का भय उसे नहीं रहेगा । इसलिए अगर कोई यह कहे कि अब मुझे पर स्त्री या पुरुष के साथ एकान्तवास न करने के स्थल नियमों का पालन करने की जरूरत नहीं रही, तो मुझे यह शंका हुए बिना नहीं रहेगी कि वह ढोंग करता है। र "इन स्थूल नियमों का सख्ती से पालन करने का संस्कार मुझ पर पड़ा है, और मुझे लगता है कि इसी कारण से मैं आज तक किसी विषम परिस्थिति में फंसने से बच सका हूं। 70-26 .......... एकान्त-वास का अर्थ अधिक समझने की जरूरत है । जवान स्त्री-पुरुषों के बीच खानगी और लम्बे पत्र-व्यवहार का सम्बन्ध भी एकान्त-वास की ही गरज पूरी करता है, और उसी में स्थूल एकान्त-वास उत्पन्न होता है। "प्राधनिक जीवन में दूसरे भी बहुत से भयस्थान बढ़ गये हैं। ये भयस्थान एकान्त-वास से उलटे ढंग के अर्थात् अति-सहवास के होते हैं। अनेक प्रकार के कामकाज और शहरी जीवन के कारण कभी अनजान में, कभी अनिवार्यरूप में और कभी अचानक स्त्री-पुरुषों को एक दूसरे के अंगों का स्पर्श हो जाता हैं। रेलगाड़ियों में, मोटरों में, सभाओं में, रास्तों में एक दूसरे से सटकर बैठना पड़ता है, चलना पड़ता है, बातचीत करनी पड़ती है; शिक्षकों को लड़कियों या बालाओं को पढ़ाना होता है-और ये सब दोनों के लिए भयस्थान हैं। इन सब परिस्थितियों में जो अपनी पवित्रता के लिए प्रावश्यकता से अधिक अभिमान करता है, वह गिरता ही है; जो जाग्रत रहता है, ऐसे अवसरों को सुखरूप नहीं बल्कि आपत्ति-रूप समझता है और यह मनोवृत्ति रखता है कि पास पाने के बजाय यथासंभव इनसे इंच भर भी दूर रहा जाय, वही ईश्वर की - "जहाँ-जहाँ हम ऐसे दोष पैदा होने की बात सुनते हैं, वहाँ-वहाँ यह देखने मे आयेगा कि दोष पैदा होने से पहले ऊपर के स्थूल नियमों के पालन में लापरवाही, उन नियमों के लिए थोड़ा-बहुत अनादर, अपनी संयम-शक्ति पर झूठा विश्वास और बहत बार अनावश्यक स्त्री-दाक्षिण्य ichivalryही । " जिसे स्वयं जिन दोषों से बचना हो और समाज का खास करके भोली बालाओं का बचाव करना हो, वह इन नियमों का प्रक्षरश: - पालन करे। यही राजमार्ग है। "जब-जब मेरे जीवन में स्त्रियों और बढ़ती हुई उमर की लड़कियों को पढ़ाने का मौका आया है, तब-तब मैंने सदा इस बात का ध्या, रखा है और आज भी रखता हूं, कि मेरी पली मेरे पास मौजूद रहे या कई स्त्रियां साथ में हो और मैं ऐसी खुली जगह में बैठकर पढ़ाऊ, पर Scanned by CamScanner Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ofs १०७ मुझे मालूम हुए बिना हर कोई था सके। यह चीज मैंने अपने पिताजी और बड़े भाई से सीखी है। स्त्रियों के साथ एक मासन पर पटकर बैठने की बात मुझे आधुनिक जीवन में निभा लेनी पड़ती है, किन्तु, अच्छी बिलकुल नहीं लगती । श्रपने भाइयों की जवान लड़कियों का भी आशीर्वाद के बहाने में जान बूझकर अंग स्पर्श नहीं करता या नहीं होने देता। यदि कोई स्त्री लापरवाही से अथवा भाजकल जैसी स्वतंत्रता सी जाती है, उसे निर्दोष मानकर मेरे पास आकर बैठ जाती है तो मुझे दुःख होता है । ऐसा बर्ताव आज के जमाने में 'श्रति-मर्यादी' (Ultra-Puritan) समझा जाता है, यह भी मैं जानता हूँ । लेकिन इसमें मैंने अपनी और समाज की दोनों की रक्षा मानी है' । ........मैंने अपने को कभी पूरी तरह सुरक्षित नहीं माना विशेष मनोबलवाला नहीं माना। वेदान्त-निष्ठा से सुरक्षित रहा जाता है, ऐसा मैं नहीं मानता । इस अभिमान से गिरने और फिसलनेवालों के उदाहरण मैंने बहुत देखे हैं । ईश्वर की कृपा से, बड़े-बूढ़ों के दिये हुए संस्कारों से और ऊपर बताये गये स्थूल नियमों के पालन से ही में अभी तक बच रहा हूं, ऐसा में मानता हूँ और इसी के बल पर धागे भी बचे रहने की आशा रखता हूं।" ( २३-९-२३४ ) २ - " जहाँ तक मैं जानता हूँ हिन्दुस्थान में – हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में— जो सदाचार-धर्म माना गया है, वह जवान मां, और बेटी को पर स्त्री की कोटि में ही रखता है और दूसरे की स्त्री के साथ व्यवहार करने में जो मर्यादायें पालनी चाहिए, उन्हीं को इनके बहन साथ के व्यवहार में भी पालने की सूचना करता है। मैंने हिन्दू-आदर्श को इस तरह समझा है कि पर स्त्री को मां, वहन या बेटी के समान मानना चाहिए और मां, बहन या बेटी के साथ भी एक खास उमर के बाद मर्यादायुक्त व्यवहार ही करना चाहिए। इस तरह वह सभी स्त्रियों के साथ एक-सा व्यवहार करने का प्रादेश देता है । अर्थ सिर्फ इतना ही है कि करोड़ों मनुष्यों में एकाध के लिए सदा अपवाद रहता ही है। लेकिन समाज सहन नहीं करेगा; यानी उनकी निन्दा किए बिना नहीं रहेगा । इसलिए, इस विचार के विरले पवित्र व्यक्ति के लिए इसका अपवाद हो सकता है। लेकिन जो पिता अपनी मां, बहन या हरण के लिए कंधे पर हाथ रखकर चलने में संकोच रखता है, वह संकुचित मनोवृत्तिवाला है, "यह बात विचारने जैसी है कि मां, बहन या बेटी को भी इस तरह दो हाथ दूर रखने की प्रथा का खण्डन आवश्यक और उचित है या नहीं, धर्म और समाज के सुधार के लिए आवश्यक है या नहीं । एकाध लोकोत्तर विभूति का व्यवहार इस प्रथा के बन्धन से परे हो, यह दूसरी बात है। उसकी लौकिक या लोकोत्तर विशेषता के कारण समाज उसमें कोई दोष न मान कर उसे सहन कर लेता है लेकिन 'दोष न मानने' का अगर सभी मनुष्य उस प्रथा को तोड़ें, तो साथ मेरा बहुत विरोध नहीं है कि किसी बेटी का निकट से स्पर्श करने में— उदाऐसा कहा जाय तो यह मुझे ग्राह्य नहीं लगता । नाम से गांधीजी ने एक पत्र छापा था। उसमें पत्र लेखक चटाई पर नहीं बैठना चाहिए १ – २७ जुलाई, १९४७ के 'हरिजनबन्धु' में 'पुराने विचारों का बचाव' मेरा उल्लेख करके लिखते हैं कि ये तो "यहां तक कहते हैं कि स्त्री-पुरुष को एक इस पर गांधीजी लिखते हैं "अगर यह सच है कि जिस पटाई पर कोई स्त्री बैठी हो, उस पर किशोरीखाल भरई न बैठे तो मुके आश्चर्य होगा । मैं ऐसी पाबन्दी को नहीं समझ सकता। उनके मुंह से ऐसा मैंने कभी नहीं सुना ।" : मेरा खयाल है कि पत्र लेखक ने ऊपर के धेरे के विचारों का उल्लेख किया है। इन विचारों में आज भी में कोई परिवर्तन करने का कारण नहीं देखता । एक चटाई पर बैठना और एक ही आसन - यानी आम तौर पर जिस पर एक ही आदमी अच्छी तरह स ऐसी जगह पर या दूसरी काफी जगह होते हुए भी मेरे पलंग पर आकर बैठ जाना, इन दोनों में बड़ा फर्क है। रेलगाड़ी, ट्राम, भीड़भाड़ खचाखच भरी सभा आदि में ऐसा होना अलग बात है । परन्तु किसी के घर मिलने गये हों या अकेले हों, तब ऐसा व्यवहार मुझे बुरा और असभ्य मालूम होता है । इस तरह पुरुष का पुरुष के साथ या स्त्री का स्त्री के साथ बैठना भी जरूरी नहीं माना जायगा । सदाचार यह नियम “मेहनत का काम न करनेवाले सफेदपोश मध्यमवग का” नहीं है; सच पूछा जाय तो यही वर्ग इस नियम का कम पालन करता है। शहर के मजदूरों के बारे में तो निश्चयपूर्वक में कुछ नहीं कह सकता, लेकिन में यह मानता हूँ कि गाँव के किसान और कारीगर जिस ढंग से रहते और काम करते हैं" उनमें यह नियम अधिक पाला जाता है । ( जनवरी १६४८ ) २ - स्त्री - पुरुष - मर्यादा ( स्त्री-पुरुष सम्बन्ध ) पृ० ३४-३८ ३- इस वाक्य में 'सदा अपवाद रहता ही है' के बदले में अब मैं यह सुधार करना चाहता हूँ 'समाज उदारता से या निर्बलता से उस पुरुष के दूसरे महान गुणों को ध्यान में रखकर उसके दोषों की उपेक्षा करता है। (जनवरी, १६४८ ) - इसलिए... अपवाद हो सकता है' यह वाक्य मैं निकाल देना चाहूंगा। (जनवरी, १६४८) Scanned by CamScanner Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाद "सच पूछा जाय तो स्त्री-पुरुष के बीच की जो मर्यादा है, उसका पालन स्त्री स्त्री में या पुरुष पुरुष में करना जरूरी नहीं, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । स्त्रियां स्त्रियों के साथ और पुरुष पुरुषों के साथ जान-बूझ कर श्रावश्यकता से अधिक स्पर्शादि करें तो वह दोष ही माना जायगा। यानी स्त्री-पुरुष के बीच जो मर्यादाएँ बताई गई हैं, वे दो विभिन्न जातियों के कारण ही नहीं बताई गई हैं। बात इतनी ही है कि दो विभिन्न जातियों के लिए उनका ज्यादा स्पष्टीकरण किया गया है— उन पर ज्यादा जोर दिया गया है। "गांधीजी कहते हैं— "जो ब्रह्मचर्य स्त्री को देखते ही डर जाय, उसके स्पर्श से सौ श्रावश्यकता होती है । लेकिन अगर वह स्वयं साध्य बन जाय तो वह ब्रह्मचर्य नहीं । मिट्टी का स्पर्श एक-सा होना चाहिए ।" १०८ कोस दूर रहे, वह ब्रह्मचर्य नहीं। साधना में उसकी ब्रह्मचारी के लिए स्त्री का, पुरुष का, पत्थर का, "इस भाषा को आवश्यक अध्याहारों के साथ समझें, तो यह मुझे ठीक मालूम होती है । अध्याहार ये हैं: "जो ब्रह्मचर्य धर्म पैदा हो जाने पर भी स्त्री को देखते ही डर जाय." तथा "विवेक दृष्टि रखकर ब्रह्मचारी के लिए स्त्री का " जिस तरह हम गीताजी के सम दृष्टिवाले श्लोकों में इन शब्दों को अध्याहार के रूप में समझते हैं, उसी तरह यहां भी समझना चाहिए। यहाँ जैसे समदृष्टि का अर्थ यह नहीं होता है कि गाय की तरह ब्राह्मण को भी बिनौले और घास खिलाया जाय, या ब्राह्मण की तरह गाय के लिए भी श्रासन बिछाया जाय बल्कि यह होता है कि हर प्राणी के प्रति समान वृत्ति रखते हुए भी हरएक की विवेकयुक्त सेवा करनी चाहिए, वैसे ही यहाँ भी हरएक का समान वृत्ति से परन्तु केवल विवेकयुक्त स्पर्श किया जाय। दो वर्ष की बाला और २५ वर्ष की युवती के स्पर्श के प्रति ब्रह्मचारी की समान वृत्ति 'चूम होनी चाहिए। फिर भी दो वर्ष की बाला को वह गोद में बैठाये, उसके साथ बालोचित खेल खेले और श्रादत होने के कारण कभी-कभी उसे भी ले, तो वह निर्दोष माना जायगा। लेकिन २५ वर्ष की युवती के साथ वह यह सब नहीं करेगा — नहीं कर सकता । अर्थात् संकट का कारण पैदा किए बिना नहीं करेगा और उसे चूम लेने की तो संकट में भी कल्पना नहीं की जा सकती। यह भेद किस लिए इसका कारण यह है कि दोनों के बारे में एक-सा निर्विकारी होने पर भी किसके साथ क्या वर्ताव उचित है, यह उसकी माँ जानती है, मन जानता है और बुद्धि जानती है । यही उसका विवेक है । ; 2 कोई मनुष्य पूर्ण ब्रह्मचारी हो, अपनी निर्विकारी अवस्था के बारे में उसके मन में जरा भी शंका न हो, वह छाती ठोक कर यह भी कह सके कि कैसी भी परिस्थिति में उसके मन में विकार पैदा नहीं होगा, फिर भी यदि वह मनुष्य समाज में साधारण जनता के लिए सदाचार के को नियम श्रावश्यक मालूम हों उनकी मर्यादा में रहे, तो क्या इसे उसके ब्रह्मचर्य का दोष माना जायगा ? और यदि ऐसे नियम पालने से वह अधूरा ब्रह्मचारी माना जाय तो इससे क्या ? क्योंकि वह कितना निर्विकार है, इसकी अपने संतोष के लिए परीक्षा करने या जगत के सामने यह सिद्ध कर दिखाने की उसकी जिम्मेदारी – पैदा हुम्रा धर्म नहीं है । उसकी जिम्मेदारी या धर्म तो हर बात में अपना श्राचरण ऐसा रखने की है, जिसका यदि अविवेकी पुरुष अनुकरण करे तो भी उससे समाज में दोषयुक्त आचरण का निर्माण न हो उसका अनुकरण करने से समाज में रसिक स्त्री-पुरुषों की मनोदशा को पोषण न मिले। बल्कि संयमी स्त्री-पुरुषों की मनोदशा का निर्माण हो और उसे पोषण मिले। ; 1 " किन्हीं मनुष्यों में बड़ी-बड़ी संख्याओं का मुंह से गुणाकार कर देने की शक्ति होती है। यह उसकी विशेष सिद्धि मानी जायगी। फिर भी यदि वह शिक्षक बन जाय, तो उसे बालकों को संख्यायें लिखकर और एक-एक अंक लेकर गुणा की रीति इस तरह सिखानी होगी, मानो उसके पास ऐसी कोई सिद्धि है ही नहीं। यदि ऐसी सिद्धि प्राप्त करने की कोई विशेष रीति हो तो, वह बालकों को बतानी चाहिए । यदि वह केवल जन्मसिद्ध शक्ति हो, तो किसी समय भले ही वह उसका उपयोग करे। लेकिन इससे गुणाकार करने की गणित की पद्धति का निषेध नहीं किया जा सकता, और बालकों को सिखाने के लिए तो वह उसी पद्धति का उपयोग कर सकता है। उसी तरह जो दृढ़ ब्रह्ममहाक चारी हो, उसे ऐसे नियमों का शोधन व पालन करना चाहिए, जो समाज के प्रयत्नशील साधकों श्रोर भोगियों के लिए ब्रह्मचर्य के मार्ग पर चलने में सहायक सिद्ध हों। मैं इसी दृष्टि से इस प्रश्न पर विचार किया करता हूं । "गांधीजी का एक दूसरा वाक्य यह है-"स्त्री के स्पर्श के मौके ढूंढे बिना बनायास ही स्त्री का स्पर्श करने का मौका था पड़े, तो ब्रह्मचारी उस स्पर्श से भागेगा नहीं।" इस वाक्य में भी 'कर्तव्य की दृष्टि से' 'धर्म समझ कर जैसे शब्द जोड़ देने चाहिए, क्योंकि यह निश्चय करना कठिन है कि क्या अनायास श्रा पड़ा है और क्या अनायास श्रा पड़ा मान लिया गया है। किसी क्रिया को करने की आदत डालने से वह Scanned by CamScanner Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १०६ सहज या स्वाभाविक हो जाती है और फिर वह अनायास आ पड़ी मालूम होती है। उदाहरण के लिए, मुझे लेख लिखने की आदत है, इसलिए कई संपादक मुझसे लेखों की मांग किया करते। अब एक तरह से देखें तो यह कहा जा सकता है कि 'लेख लिखने का काम मुझ पर सहज ही आ पड़ता है। लेकिन हर समय वह धर्म के रूप में प्रा पड़ता है, ऐसा कहना कठिन है। लेख लिखने का धर्म आ पड़ा है, ऐसा तो कुछ अंश में भी तभी कहा जायगा, जब उस लेख के प्रकाशन की जिम्मेदारी मुझ पर हो अथवा कोई विचार मुझे इतना महत्त्वपूर्ण लगे कि उसे जनता को समझाना विवेक-बुद्धि से मुझे जरूरी मालूम होता हो। हम जानते हैं कि विवेक-बुद्धि का उपयोग करने में भी कभी-कभी आत्म-वंचना होती है। फिर भी यह तो माना ही जायगा कि यथासंभव हमने विवेक-बुद्धि का उपयोग किया है। सारांश यह है कि अनायास पा पड़नेवाला प्रत्येक कर्म, धर्म नहीं ठहरता; और इसलिए यह बचाव नहीं किया जा सकता कि कोई कर्म अनायास आ पड़ा, इसलिए किया गया। गीता में यह अवश्य कहा गया है कि 'सहजं कर्म कौन्तेय, सदोषमपि न त्यजेत् ।' लेकिन जो धर्म न हो, उसे गीता ने कर्म ही नहीं माना है। वह विकर्म है, और इसलिए अपकर्म है। उसके लिए अनायास प्रा पड़ने का बहाना नहीं किया जा सकता। फिर गीता में 'सहज' का अर्थ 'अनायास मा पड़नेवाला नहीं, बल्कि सह-ज-साथ उत्पन्न हुमा-स्वाभाविक, प्रकृति-धर्म के अनुसार है। कोई कर्म सहज हो और कर्तव्यरूप में आ पड़ा हो, तो भी वह दोषयुक्त होने पर भी नहीं छोड़ा जा सकता। "पाप यह स्वीकार करते हैं कि ब्रह्मचर्य की साधना बड़ी कठिन है। इसका अर्थ यही है कि हमारे जमाने में करोड़ों मनुष्यों के लिए ब्रह्मचर्य असंभव-सा है। एकाध के लिए वह स्वाभाविक हो सकता है ; और अति-पुरुषार्थी के लिए प्रयत्न-साध्य है । अत: करोड़ों के लिए तो ऐसा ही धर्म बताना होगा, जिससे वे भोग में मर्यादा का पालन कर सकें, अति भोग की तरफ न बह जायं और मर्यादा-पालन करनेवालों की दिनोंदिन संयम की ओर प्रगति हो।"""""मुझे लगता है कि ब्रह्मचर्य की साधना के मार्ग का और मर्यादा के नियमों का इस तरह विचार होना चाहिए। .. - "इस बारे में हम सिर्फ कल्पना के घोड़े दौड़ाना चाहें, तब तो कहीं के कहीं पहुंच सकते हैं। यदि ऐसा कहें कि जो स्त्री के सहज या साधारण स्पर्श से भागे, वह ब्रह्मचारी नहीं, तो जो एकान्त-वास से या बलात्कारपूर्वक संभोग करना चाहनेवाले से डरकर भागे, उसे भी ब्रह्मचारी कसे कहा जाय ? और शंकर की कथा में बताया गया है वैसे क्रोध से कामदेव को जला देनेवाला भी ब्रह्मचारी कैसा ? ब्रह्मचारी तो भागवत में नारायण की कथा में बताये गये मनुष्य को कहा जा सकता है। यानी जो अप्सराओं से कह सके कि "तुम भले ही नाचो परन्तु मेरे तप के प्रभाव से मैं या तुम दोनों में से किसी में भी विकार पैदा नहीं होगा।" विकारी वातावरण में स्वयं तो निर्विकार रहे ही, पर जो विकारी के विकार को भी शान्त कर दे, वही सच्चा ब्रह्मचर्य है । ऐसे ब्रह्मचर्य को साध्य मानें, तो उसकी साधना क्या है ? इसमें मुझे कोई शंका नहीं कि वह साधना अनावश्यक सामान्य स्पर्श करते रहना या स्त्री-पुरुष के साथ एकान्त-वास के प्रयोग करते रहना तो हो ही नहीं सकती। मुझे तो लगता है कि जिस स्पर्श की कोई जरूरत ही नहीं, ऐसा हर तरह का स्पर्श त्याज्य ही माना जाना चाहिए । न केवल स्त्री या पुरुष का, न केवल प्राणियों का, बल्कि जड़ पदार्थों का भी ऐसा स्पर्श त्याज्य है। स्पर्शेन्द्रिय सारी त्वचा पर फैली हुई है। वह चाहे जिस जगह से प्रार चाहे जिसके स्पर्श से विकार पैदा कर सकती है । भोग में उसकी सीमा अवश्य है। जहाँ जड़ या चेतन-किसी का भी लिपटकर स्पर्श करने की इच्छा होती है, वहाँ सूक्ष्म कामोपभोग है। इस तरह की स्पर्शच्छा न हो और यदि हो तो उसके प्रति मन निर्विकार रहे-ऐसी शक्ति और दृष्टि प्राप्त करना ही ब्रह्मचर्य की साधना है। यह सच है कि इसमें अन्त में भागने की आवश्यकता नहीं रहेगी; लेकिन प्रारम्भ में या अन्त में भी लिपटने की, स्पर्श को खोजने की या उसकी आदत डालने की जरूरत नहीं होनी चाहिये। सूक्ष्म स्पर्श अनायास नित्य के जीवन में होते ही रहते हैं। आदत के लिए, परीक्षा के लिए उतना स्पर्श काफी है। जिस प्रकार त्वचा को जीतने के लिए सर्दी या धूप में बैठना, पंचाग्नि में तपना, काटों पर सोना आदि साधना जड़ और तामसी है, उसी प्रकार इन स्पर्शों के सेवन को साधना कहें तो वह रसिक और राजसी साधना है। इस रास्ते में गिरे तो बहुत हैं, परन्तु पार कौन लगे हैं, यह तो प्रभ ही जाने। "इस बारे में गांधीजी का अनुकरण करने का मोह छोड़ देना चाहिये। गान्धीजी की तो सब मागों में पराकाष्ठा होती है। उनके त्याग, दीर्घश्रम और व्रत-पालन का अनुकरण करके उन्हें कोई अपना जीवन-धर्म नहीं बनाता, लेकिन उनकी संगीत की रुचि, स्त्रियों के साथ निःसंकोच व्यवहार और कुछ सूक्ष्म सुघड़ता की आदतों का अनुकरण करने का मोह होता है। परन्तु गान्धीजी को जिस बात में जिस क्षण अपनी भूल मालम हो जाती है, उसमें से उसी क्षण पीछे हटने और सारे जगत के सामने अपना अपराध स्वीकार करके माफी मांगने में उन्हें कभी संकोच नहीं Scanned by CamScanner Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शील की नव बाड़, होता। दूसरों को तो प्रतिष्ठा के और ऐसे दूसरे कितने ही विचार आते हैं। - "मुझे लगता है कि गीता के श्लोक को आपने बहुत गलत तरीके से लागू किया है । अापके अर्थ के अनुसार तो संयम के सारे प्रार मिथ्याचार में शामिल हो जायेंगे। विवाह की इच्छा रखनेवाले एक वृद्ध पुरुप को मैंने इस श्लोक का ऐसा ही अर्थ करते सुना है। दे र कि जब मेरे मन में तीव्र विषय-वासना है, तब मेरे स्थल संयम-पालने से क्या होगा? यह तो केवल मिथ्याचार ही होगा। इसलिए मझेदार कर लेनी चाहिए। 'अ' शराब के लिए तड़पता रहता हो, 'ब' पराई स्त्री को कुदृष्टि से देखता हो, 'ग' का किसी की घड़ी चुरा लेने का करता हो, परन्तु वे अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हों, तो क्या इसे मिथ्याचार माना जायगा ? क्या उन्हें शराब का नशा, व्यभिचार जोर मादि करना चाहिये ? विषयों का स्मरण हो सकता है, इच्छा भी हो सकती है, परन्तु इस कारण कर्मेन्द्रियों का संयम गलत है-ऐसा इस श्लोक का अर्थ करना मुझे ठीक नहीं लगता। जैसा कि मैंने ऊपर कहा—'गीता के अनुसार जो कर्म धर्म नहीं, वह कर्म ही नहीं है; वह विकर्म या अप. कर्म है।' विकर्म की तरफ चाहे जितना हमारा मन दौड़े, हमें वह पागल भी बना दे, तो भी उससे कर्मेन्द्रियों को हमेशा हठपूर्वक रोकनाही चाहिये । परन्तु जो कर्म धर्म्य हों, उनमें इन्द्रियों का संयम करना चाहिये या नहीं, यह प्रश्न पैदा हो तो गीता कहती है कि 'मन में उनकी प्रासनि रखना और स्थूल त्याग करना ठीक नहीं है। सबसे उत्तम होगा तो यह होगा कि मासक्ति न रखकर वे कर्म किये जायं।......' ........""कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें करने की धर्म-सदाचार-इजाजत देता है। लेकिन वे अनिवार्य कर्त्तव्य के रूप में नहीं होते। ऐसे कर्मों के बारे में भी यह श्लोक लागू हो सकता है। उनमें प्रासक्ति हो तो धार्मिक ढंग से उन्हें करते क्यों नहीं ? लेकिन आसक्ति न हो तो कोई उन्हें करने को नहीं कहता। परन्तु आसक्ति है, इसलिए अधार्मिक ढंग से उन्हें करना ता ठीक नहीं। 2 "लेकिन प्रासक्ति होने पर भी ये कर्म करने ही चाहिए, ऐसा कोई नहीं कहता । साधक पासक्ति के समय में ही संयम का प्रयत्न करता है । वह इन्द्रियों को रोकता है, मन को मोड़ना चाहता है, पर सफल नहीं होता । उसका यह संयम कैसा माना जायगा ? सफलता नहीं मिलती, इसलिए उतने समय के लिए हम भले ही उसे मिथ्याचार कहें। परन्तु यह उसी तरह मिथ्या है, जिस तरह गणित के किसी अटपटे सही सवाल को रीति से किये जाने पर भी कहीं नजर से भूल हो जाने के कारण गलत उत्तर प्रावे और हम उसे मिथ्या कहें। इसमें उत्तर गलत आया है, लेकिन रीति सही है । उसी तरह संयम का प्रयत्न भले निष्फल गया, लेकिन उसकी रीति तो सही है । वह मिथ्याचार है, इसका यह अर्थ नहीं कि वह सत्य-विरोधी प्राचार है ; उसका अर्थ केवल इतना ही है कि वह उस क्षण के लिए गलत-मिथ्याचार है। उसे मिथ्याचार कहें तो, ऐसे सैकड़ों मिथ्याचार उचित माने जायंगे ।" (२५-४-'३५) चार उचित माने जायंगे।" (२५.४.३५ ३-....."धर्म की रक्षा के लिए व्यवहार की मर्यादा बांधना और पालना जरूरी तो है, लेकिन उस मर्यादा की भी कोई मर्यादा होनी चाहिए, वरना वह मर्यादा भी अधर्म बन जायेगी। उदाहरण के लिए खाने-पीने की चीजों, बर्तनों, कपड़े-लत्ते वगैरह के बारे में स्वच्छता का नियम बेशक होना चाहिये। परन्तु जव हम इस स्वच्छता को एक ऐसा धर्म बना डालें कि वह धर्म का अङ्ग बनने के बजाय धर्म की मात्मा का महत्व ग्रहण कर ले, तब स्वच्छता का वह नियम दोषरूप ही माना जायेगा। झाड़ की रक्षा के लिए बाड़ लगानी चाहिए। लेकिन यदि यह बाड़ ही झाड़ को निगल जाय, तो वह रक्षक के बदले भक्षक बन जायगी। "चूंघट या पर्दा की प्रथावाले समाज में भी मां, बहन या लड़की अपने पुत्र, भाई या पिता का पर्दा नहीं करती। अगर ऐसा हो तो वह अतिशयता ही कही जायेगी। फिर भी मां, बहन या लड़की के साथ भी एकान्त में न रहा जाय और मर्यादा में रहकर ही हिला-मिला जाय, इस सूचना में धर्म की मर्यादा बांध दी गई है। जो नियम मां, बहन या लड़की के साथ के बरताव में पाला जाय, वही दूसरी स्त्रियों के साथ के बरताव में विशेष प्राग्रह से पाला जाय, यही धर्म है। ..१-कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥३-५ . .. -कर्मेन्द्रियों का संयम करके जो मूढ़ पुरुष मन में विषयों का स्मरण किया करता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। -स्त्री-पुरुष-मर्यादा (स्पर्थ की मर्यादा) पृ०६९-७६ Scanned by CamScanner Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका "किसी स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के सम्बन्ध में आना ही नहीं चाहिए, ऐसा धर्म नहीं बनाया जा सकता। यदि दोनों एक-दूसरे का मुल नहीं देखें, ऐसा धर्म बना कर स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एक-सा लागू किया जाय तो उससे भी सामाजिक जीवन शक्य बन जायेगा। कोई सूरदास यदि यह देखकर अपनी आँखें फोड़ ले कि वह पापी बने बिना नहीं रहतीं, तो वह उसकी अपनी पसन्दगी मानी जायगी। लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि शील और पवित्रता की रक्षा के लिये माँ फोड़ लेना धर्म है। यदि कोई भक्त संप्रदाय धाँ फोड़ने को धर्म बना ले, तो उसे रोकने का भी कर्त्तव्य पैदा हो सकता है । उसी तरह कोई निवृत्ति-मार्गी भक्त या साधक ब्रह्मचर्य पालने के लिए स्त्री सहवास का आठों प्रकार से त्याग करें, तो वह उनकी स्वतंत्र पसन्दगी मानी जायगी, और वह कभी जरूरी भी नहीं हो सकती है। लेकिन इसे यदि समाज का धर्म बना दिया जाय, तो उसमें प्रतियता का धर्म माना जायगा। उसी तरह यदि कोई सुन्दर स्त्री को यह अनुभव होता हो कि पनी या पुरुषों की रक्षा के लिए, उसका मुंह छिपाकर रखना ही सुरक्षित मार्ग है। श्रीर जिस कारण से वह स्वेच्छा से बुर्का पहने या घूंघट करे, तो उसके खिलाफ शिकायत करने की शायद हमें जरूरत न रहे। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा करना उसका धर्म है । अगर यह अनुभव हो कि स्त्रियों के पर्दा करने से पुरुषों के विकार कुछ शान्त रहते हैं, तो भी उसे धर्म का नियम नहीं बनाया जा सकता । "मैं जब यह कहता हूँ कि सिर्फ मन की पवित्रता पर आधार न रखकर स्थूल नियम भी पालने चाहिये, तो उसका यह मतलब नहीं है कि मैं स्थूल नियमों के पालन को मन की पवित्रता का स्थान देता हूं। " ( ७-१० - ३४) ४.यह जरूर है कि मैं स्त्री-पुरुषों के परस्पर मिलने में मर्यादा-पालन की आवश्यकता मानता हूं और जो मर्यादाएँ मैले सुझाई हैं, वे मेरे खयाल से स्त्री-पुरुष के साथ मिलकर काम करने में बाधा नहीं डालतीं। मैं यह सोच भी नहीं सकता कि साथ मिलकर काम करने के लिए एक-दूसरे के साथ एकांत में रहने, एकांत में गुप्त बातें करने या जान-बूझ कर एक-दूसरे के श्रङ्गों को छूने की जरूरत क्यों पैदा होनी चाहिए। एक खास उम्र में केवल पुरुष-पुरुष का और स्त्री-स्वी का ऐसा सहवास भी अनिष्ट होता है, तब यदि स्त्री-पुरुष का सहयास व्यादा अनिष्ट सिद्ध हो, तो कोई अचरज की बात नहीं। के साथ आाजादी से उनका जीवन पवित्र मैं चाहता है कि उनकी वही स्थिति जीवन के अन्त तक बनी रहे। फूल कर कुप्पा न हो जायं। यह तो वैसी ही बात हुई, जैसे कोई कहे "कुछ नवयुवक इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि ३० वर्ष की भरी जवानी में होते हुए और जवान लड़कियों मिलते हुए भी उन्होंने पवित्र जीवन बिताया है और मेरी बताई हुई मर्यादानों के पालन की जरूरत महसूस नहीं की। रहा है, यह उनकी बात मैं सच मान लेता हूं और उन्हें बधाई देता हूँ लेकिन मैं उन्हें सावधान कर देता हूं कि जीवन के इतने ही अनुभव से वे कि हम २० वर्ष तक आग से जले नहीं, इसलिए ग्राग से जलने का डर झूठा है । "बहुत से नवयुवकों को शायद यह पता नहीं होगा कि पुरुष के जीवन में और खास करके महत्वाकांक्षी पुरुष के जीवन में नीचे गिरने का समय ३५-४० की उम्र के बाद प्रारंभ होता है । डॉक्टरों, मनोवैज्ञानिकों और वृद्धों का अनुभव है कि पिछले २५ वर्षों के श्रांकड़े यह बताते हैं कि व्यभिचारी जीवन बितानेवाले पुरुषों का बड़ा हिस्सा ३५-४० की उम्र पार कर चुकनेवालों का रहा है। इसके पीछे कारण भी रहता है। इस उम्र तक उत्साही नवयुवकों के हृदय में विषय-भोग की अपेक्षा छोटी-मोटी अभिलापायें पूरी करने के मनोरथ ज्यादा बलवान होते हैं । भोग-विलास का इस उम्र में प्रमुख स्थान नहीं होता। इसलिए वे इस इच्छा को दबा भी देते हैं। इस उम्र में भी जो भोगों के 'युवक पीछे पड़ा हो, वह रोगी कहा जा सकता है। इस उम्र के बाद उसके जीवन में थोड़ी स्थिरता आती है, वह दौड़-धूप और चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है, शायद वाला, स्वतंत्र और पहले की अपेक्षा खाने-पीने के ज्यादा सुभीते पा सकनेवाला हो जाता है। उसकी महत्वाकांक्षायें ठंडी पड़ जाती है, और अगर उसका जीवन प्रपंच में बीता हो तो यह थोड़ा बहुत नैतिकता की भावना शिथिल हो, तो उसके गिरने की संभावना बढ़ जाती है। हिस्सा इस उम्र को पार कर चुकनेवाला होता है। धूर्त भी बन जाता है। इसके साथ यदि उसकी सदाचार मौर इसलिए यह कहा जाता है कि व्यभिचारी पुरुषों का बढ़ा (0723 "इस पर से यह कहा जा सकता है कि ३० वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालने की बात कहना किसी असंभव वात की सूचना नहीं है । लेकिन इसका यह घर्ष नहीं किया जा सकता कि इस उम्र तक नियम पालन करने की जरूरत नहीं, या इस उम्र से पहले विवाह सम्बन्ध जोड़े बिना १ स्त्री-पुरुष मर्यादा (पर्दा और धर्मरक्षा) पृ० ४३.४५ १११ - Scanned by CamScanner Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ शील की नव बाड़ किया गया विषय-भोग निर्दोप है। यह तो वैसा ही होगा जैसे यह कहना कि आमतौर पर 'केन्सर' ३५-४० की उम्र के बाद होता है, इसलिए इस उम्र तक यह रोग उत्पन्न करनेवाली चीजें छूट से खाई जा सकती हैं।" (२१-१०-३४) ५-"हिसा न करनी जंतकी, परत्रिया संगको त्याग ; मांस न खावत, मद्य को पीवत नहीं बड़भाग। विधवा को स्पर्शत नहीं, करत न आत्मघात ; चोरी न करनी काहुकी, कलंक न कोउको लगात । निन्दत नहीं कोउ देवको, बिन खपतो नहीं खात ; विमुख जीव के बदन से कथा सनी नहीं जात । यह विधि धर्म सह नियम में, वर्ते सब हरिदास; भजे श्री सहजानन्द प्रभु, छोड़ी और सब आस । रही एकादश नियम में करो श्रीहरिपद प्रीत ; प्रेमानन्द के धाम में, जाओ निःशंक जग जीत ।" "-यह स्वामिनारायण-संप्रदाय की सायं-प्रार्थना के नित्य पाठ का एक हिस्सा है। मेरे पिताजी जीवन में इसे अक्षरशः पालने और और दूसरों से पलवाने का आग्रह रखते थे। बम्बई शहर में रहकर भी वे स्वयं इन नियमों का इतनी सख्ती से पालन करते थे कि भुलेश्वर तीसरे भोइवाड़े के संकड़े और भीड़-भड़क्केवाले रास्तों पर भी किसी विधवा का स्पर्श न हो जाय, इसका ध्यान रखते थे। और कभी स्पर्श हो जाता, तो एक बार का उपवास कर लेते थे। "एकान्त से बचने के बारे में उन्होंने हमें जो शिक्षा दी थी, उसका एक किस्सा यहाँ कह दूं। एक बार मेरी छोटी बहन (१२-१३ साल की) एक कमरे में कंघी कर रही थी। उस बीच कोई परिचित गृहस्थ उस कमरे में दाखिल हुए। कमरा खुला था। उसकी बनावट ऐसी थी कि पाते-जाते किसी की भी नजर अन्दर पड़ जाती थी। मेरी बहन उनके आने पर कमरे से उठकर चली नहीं गई और कंघी करती रही। मेरे पिताजी ने दूसरे कमरे में से यह सब देखा । उन्होंने बहन को पास बुलाकर 'मात्रा स्वस्रा दुहिता वा सहजानन्द स्वामी की आज्ञा समझाई। फिर कहा कि इस प्राज्ञा का भङ्ग हुआ है, इसलिए प्रायश्चित्त के रूप में तुम्हें एक दिन का उपवास करना चाहिए। .... "स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध' नाम के मेरे लेख पर कुछ नवयुवक और प्रौढ़ युवक भी चिढ़ गये थे..... 'जो मर्यादा-धर्म में विश्वास रखते हैं, उन में से भी कुछ को ऐसा लगेगा कि मेरे पिता का यह बरताव मर्यादा की भी मर्यादा को लांघ गया था। कुछ यह भी कहेंगे कि इस तरह पाला गया सदाचार वास्तव में सदाचार ही नहीं है ; इस तरह पाला गया ब्रह्मचर्य वास्तव में ब्रह्मचर्य ही नहीं है। लेकिन यह राय भी कोई नई नहीं है। स्थल नियम-पालन का यह विरोध स्मृतियों जितना ही पुराना है। . ... ... ............"एक बार एक वैरागी साधु ने सहजानन्द स्वामी के साथ चर्चा करते हुए कहा : "स्वामिनारायण, आपने सब कुछ तो अच्छा किया, लेकिन एक बात बहुत बुरी की। प्रापने स्त्री-पुरुष के अलग-अलग बाड़े बनाकर ब्रह्म में भेद डाल दिया।" सहजानन्द स्वामी ने उत्तर दिया : "बाबाजी, यह भेद कोई रहनेवाला थोड़े ही है। मैं एक विशेष घिनवाला मागया हूं, इसलिए मैंने यह भेद कर डाला है। मेरी थोड़ी-बहुत घिन इन लोगों (शिष्यों) को लगी है। वह जब तक टिकेगी, तब तक यह भेद रहेगा। फिर तो आपका ब्रह्म पुनः एक ही हो जाने वाला है।" ................ये कड़े नियम संसारी समाज के लिए न तो बनाये गये और न सोचे गये थे। परन्तु यदि नियमों को धिन' का नाम दिया जाय, तो कहा जा सकता है कि संसारी समाज में भी कुछ मर्यादारूपी घिन की छूत उन्होंने जरूर लगाई थी। यह छत मेरे पिताजी को विरासत में मिली थी। उन्होंने विचारपूर्वक उसका पोषण किया था और हमें भी वह छूत लगाने की कोशिश की थी। मेरी शक्ति के अनुसार मझमें यह घिन' टिकी रही है और मैं मानता हूं कि उसके टिके रहने में मेरा अपना और समाज का हित ही हमा है।.. "घिन' शब्द का उपयोग तो सहजानन्द स्वामी ने व्याजोक्ति से किया था। सच पूछा जाय तो उनके मन में स्त्री-जाति के लिए कभी अनादर नहीं रहा। इतना ही नहीं, वे व्यक्तिगत रूप में स्त्रियों के साथ कभी घृणा का बरताव नहीं करते थे। और स्त्रियों की उन्नति के लिए उन्होंने ऐसी बहुत-सी प्रवृत्तियां चलाई और संस्थाएं कायम की थीं, जिन्हें उस जमाने की दृष्टि से नवीन कहा जा सकता था।" (जनवरी; १९३७) १-स्त्री-पुरुष मर्यादा (अभी इतना ही) पृ० ४६-४८ २-स्त्री-पुरुष-मर्यादा (प्रस्तावना) पृ० ४-६ - Scanned by CamScanner Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मी ११३ " ६--''.''स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध में एकान्त, शरीर स्पर्श (सजातीय या विजातीय नौजवानों या किशोरों का एक-दूसरे से लिपटना, एक दूसरेपर रिना या दूसरी तरह से लाइमरे नखरे करना) काम को भड़कानेवाले दृश्यों, नाटकों, पुस्तकों, संगीत यादि में साथ-साथ भाग लेना, भाईबहन मां-बाप जैसे कौटुम्बिक संबंध न होने पर भी सम्बन्ध कायम करने की बात मन को समझाकर, सगे भाई-बहन और मां-बाप के साथ भी न किये हों, ऐसे लाड या घनिष्ठता ( intimacy ) की छूट लेना -- शादि मलिनता या खतरे के स्थान माने जा सकते हैं। यदि ऐसा आग्रह न रहे कि चाप द्वारा भी उनके साथ के व्यवहार में भी प्रमुक स्वतंत्रता तो कभी ली ही नहीं जा सकती; हमारा शरीर एक पवित्र तीर्थ ( गंगाजल या मंत्रपूत जल ) या पवित्र भूमि है और श्रापद्धर्म के सिवा जैसे पवित्र तीर्थ या क्षेत्र को थूक, मल-मूत्र या पवि के स्पर्श से अपवित्र नहीं किया जा सकता या पवित्र बनकर ही स्पर्श किया जा सकता है, से ही अपने दशरीर को भी जिसके साथ विवाह-सम्बन्ध बांधा हो ऐसे पति या पत्नी के सिवा - पवित्र रखने का श्राग्रह न हो; और विषय भोग की तीव्र इच्छा होते हुए भी किसी कारण से विवाह करने का साहस न होता हो, तो कभी न कभी, युवावस्था बीत जाने पर भी मन के मलिन होने का डर बना रहता है' ।' ( १४-१-१४५ ) ७ म्रास में कोई नाता-रिश्ता न रखनेवाले स्त्री-पुरुषों के बीच कभी-कभी एक दूसरे के "धर्म के भाई-बहन" का सम्बन्ध बांधने का रिवाज पुराने समय से बता पाया है।...... ऐसे नाते पवित्र बुद्धि से जोड़े जाते हैं और कुलीनता के खयाल से धन्त तक निमाये जाते हैं। इनमें स्त्री-पुरुष मर्यादा के नियमों को शिथिल करने का जरा भी इरादा नहीं होता हो भी नहीं सकता क्योंकि मर्यादा के जो नियम बताये गये हैं, वे वही हैं, जिन्हें सगे भाई बहन मां बेटे वा बाप-बेटी के बीच भी पालना जरूरी होता है। T भूमिका "परन्तु कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि मर्यादा के पालन में पैदा हुई शिथिलता का बचाव करने के लिए भी ऐसा सम्बन्ध बताया जाता है। दो एकसी युवाले स्त्री-पुरुष के बीच मैत्री होती है और उसमें से वे छूट से एक-दूसरे के साथ हिलने-मिलने लगते हैं। यह छूट समाज को खटकती है, या घटने का उन्हें डर लगता है। यह छूट उचित नहीं होती, फिर भी दोनों उसे छोड़ना नहीं चाहते। ऐसे मौके Bryn पर धर्म के भाई-बहन होने की दलील दी जाती है। TRBIC P "सच पूछा जाय तो ऐसी स्थिति में यह दलील केवल बहाना ही होती है। क्योंकि वे अपने सगे भाई-बहन के साथ या सगे लड़के-लड़की जैसा 'छूट का व्यवहार नहीं रखते, वैसा व्यवहार इन माने हुऐ भाई-बहन, मां-बेटे या बाप-बेटी के साथ रखते हैं । के साथ "धर्म का नाता जोड़नेवाले को यह सोचना चाहिये कि यह नाता धर्म के नाम पर जोड़ना है। अर्थात् उसमें परमार्थ की, पवित्रता की, कुलीनता की, गंभीरता की बुद्धि होनी चाहिए। यह संबंध एकांत में गप्पे मारने की, साथ में घूमने-फिरने की, पीठ या सिर पर हाथ रखते रहने की, एक-दूसरे के साथ सटकर बैठने की या कारण-अकारण किसी न किसी बहाने से एक दूसरे को स्पर्श करने की छूट लेने के लिए नहीं होना चाहिये। यह एक दूसरे की प्रावरू रखने और बढ़ाने के लिए होना चाहिये, और समाज में उसका ऐसा परिणाम माना ही चाहिये । उसमें निन्दा के लिये कोई गुंजाइश ही नहीं आनी चाहिये ।" ( मई १९४५ ) 9 कमी शिवार 17 ८ – ८...... एक-दूसरे की सहायता करने में शरीर का स्पर्श, एकांत वास श्रादि की संभावना रहती ही है । "उनका धीरे-धीरे बढ़नेवाला परिचय स्त्री-पुरुष मर्यादा के नियमों का पालन ढीला करा देता है । दोनों एक दूसरे को भाई-बहन या 'धर्म के भाई-बहन' कहते हैं, परन्तु सगे भाई-बहिन के बीच भी न पाई जानेवाली निकटता और निःसंकोचता अनुभव करते हैं। उनके उठने-बैठने, बातचीत करने वगैरह में शिष्टाचार जैसी कोई चीज नहीं रह जाती। यह व्यवहार आसपास के लोगों की निगाह में आता है ! उन्हें इसमें सच्ची या झूठी विकार की शंका होती हैं । मनुष्य-स्वभाव के अनुसार वे अपनी शंका मुंह पर जाहिर नहीं करते या उस व्यवहार के बारे में रुचि अरुचि शुरू में ही प्रकट नहीं करते। लेकिन अन्दर ही अन्दर उनकी निन्दा करते हैं और लोगों में बातें फैलाते हैं । अन्त में वे दोनों वितरूप में अपनी निन्दा होती अनुभव करते हैं । विवाहित या अविवाहित दोनों को यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि शुद्ध व्यवहार का विश्वास उचित मर्यादाओं के पालन से ही कराया जा सकता है, मनमाने व्यवहार से नहीं जो लोग मर्यादा पालन में विश्वास नहीं रखते, वे खुद ही लोक निन्दा को प्रोत्साहन देते हैं। उन्हें लोक-निन्दा से चिढ़ने पर गुस्सा करने का कोई अधिकार नहीं है।" ( मई १९४५) १-स्त्री-पुरुष-मर्यादा ( संस्थाओं का अनुशासन ) ० १६५-१६६ २ - वही ( धर्म के भाई - बहन ) पृ० १६७ - १६८ बुढ़ापे में विवाह) पृ० १७०-१७३ topn vo 38 wr पवित Scanned by CamScanner Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड़ --"."जो स्त्री यह चाहती है कि उसकी पवित्रता कभी खतरे में न पड़े, उसे ज्यादा सचेत रहने की जरूरत है। " "उसे पहले यह खयाल या घमण्ड तो छोड़ ही देना चाहिए कि सती-धर्म या पतिव्रत-धर्म के उसके संस्कार जितने बलवान हैं कि उनके कारण वह किसी पुरुष की ओर आकर्षित होगी ही नहीं। यह संस्कार बड़े महत्त्व के हैं। उनका बल भी बहुत होता है। फिर भी इस बल को इतना महत्त्व नहीं दिया जाना चाहिये, जिससे कोई स्त्री यह सोचने लगे कि पुरुषों के सहवास या संसर्ग में किसी तरह की मर्यादा का पालन न करने पर भी वह सुरक्षित है। इसलिए यह मानते हुए भी कि इन संस्कारों का बल बहुत बड़ा है, स्थूल मर्यादा के पालन में कभी लापरवाही नहीं करनी चाहिए'।" (३०-९-३४) २४-ब्रह्मचर्य और उपवास महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य के साधनों में उपवास को भी गिनाया है (देखिए पृ० ६३ पेरा ४)। उनके अनुसार इन्द्रिय-दमन के उद्देश्य से इच्छापूर्वक किये हुए उपवास से इन्द्रिय को काबू में लाने में बहुत मदद मिलती है। गीता में कहा है-'निराहार रहनेवाले के विकार दव जाते हैं, पर आत्म-दर्शन के बिना प्रासक्ति नहीं जाती।' महात्मा गांधी इस पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं : "गीता के श्लोक का अर्थ यह नहीं है कि काम को जीतने में निराहार व्रत से कोई सहायता नहीं मिलती। उसका मतलब तो यह है कि निराहार रहते हुए भी कभी थको नहीं और ऐसी दृढ़ता तथा लग्न से ही प्रात्म-दर्शन हो सकता है। वह हो जाने पर प्रासक्ति भी चली जायगी।" ....... प्रश्न हो सकता है कि जिस उपवास को महात्मा गांधी ने अपने अनुभव से ब्रह्मचर्य-पालन का अनिवार्य अङ्ग कहा है, उसको भगवान महावीर ने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए बताये गये नियमों में स्थान क्यों नहीं दिया? इसका क्या कारण है ? यह पहले बताया जा चुका है कि बाड़ों का अर्थ है-ब्रह्मचारी के शील-आचार-व्यवहार की तालिका । उपवास ब्रह्मचारी का प्रति रोज का शील-प्राचार-व्यवहार नहीं। ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के लिए उपवास की कम प्रावश्यकता नहीं, पर वह रोज का शील-धर्म नहीं। इसलिए उसका उल्लेख बाड़ों के प्रकरण में नहीं पाया। Sa n char __ ब्रह्मचर्य की साधना करते हुए जब कभी भी प्रावश्यक हो, उपवास करना चाहिए। स्थानाङ्ग में ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए माहार छोड़ने की बात का उल्लेख पाया है। _ निशीथ चणि में लिखा है : "यदि निवृत्त प्राहार, निर्बल पाहार, ऊनोदरी मादि से विकार की शान्ति न हो तो उपवास यावत् ण्ट मासिक तप करे। पारण में निर्बल पाहार ले। उस से भी उपशम न हो तो कायोत्सर्ग करें"-"""तह वि ण णाति चउत्यादि-जावछम्मासियं तवं करेति; पारणाए णिब्बलमाहारमाहारेति । जइ उवसमति तो सुंदरं । अह णोवसमति "ताहे" उद्घट्टाणं महंत करेति कायोत्सर्गमित्यर्थः । - इस तरह पाठक देखेंगे कि एक दो दिन के उपवास को ही नहीं, पर षट् मासिक जैसे दीर्घ उपवास को भी ब्रह्मचर्य की उपासना में स्थान है। '. ऐसा उल्लेख भी प्राप्त है कि यदि सारे उपाय कर चुकने के बाद भी ब्रह्मचारी अपने विकारों को शान्त करने में समर्थ न हो, तो वह जीवन भर के लिए पाहार छोड़ दे, पर स्त्री में मन न करे :Byउब्बाहिज्जमाणे गामधम्मेहि अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कुजा अवि उड्ढं ठाणं ठाइज्जा अवि गामाणुगाम दुइजिजा अवि आहारं वच्छिदिज्जा अवि चए इत्थीस मणं । PROPERTIENT S 25 जैन धर्म के अनुसार मनशन बारह तपों में से एक तप है। अवशेष तप इस प्रकार हैं : ऊनोदरिका, भिक्षाचर्या, रस-परित्याग, काय १-स्त्री-पुरुष-मर्यादा (शील की रक्षा) पृ० ४१ amarpa n २-अनीति की राह पर पृ० १३८ . R e ad ३-ठाणाङ्ग सू० ५०० : छहि ठाणेहि समणे णिग्गंथे आहारं वोच्छिदमाणे णाइकमइ तं० आतंके उवसग्गे तितिक्खणे बंभचेरगुत्तीए पाणिदया तव हेडं सरीखुच्छोयणठाए ४-निशीथसूत्रम् सू० १ भाष्यगाथा ५७४ की चूर्णि Scanned by CamScanner Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ११५ लेश, प्रतिसंलीनता, प्रायश्चित्त, विनय, वयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्यत्सर्ग। जैन धर्म में इन सब तपों को ब्रह्मचर्य की साधना में सहायक २५-रामनाम और ब्रह्मचर्य मित्रा कुछ 2 महात्मा गांधी ने रामनाम,प्रार्थना, उपासना, ईश्वर में विश्वास-इनको ब्रह्मचर्य-रक्षा की साधना में अनन्य स्थान दिया है । वे लिखते "ब्रह्मचर्य की रक्षा के जो नियम माने जाते हैं, वे तो खेल ही हैं। सच्ची और अमर रक्षा तो रामनाम है।" विषय-वासना को जीतने का रामबाण उपाय तो रामनाम या ऐसा कोई मंत्र है।.."जिसकी जैसी भावना हो, वैसे ही मंत्र का वह जप करे।"""हम जो मंत्र अपन लिए चन, उसमें हमें तल्लीन हो जाना चाहिए।" "जब तुम्हारे विकार तुम पर हावी होना चाहें, तब तुम घुटनों के बल झुक कर भगवान स मदद की प्रार्थना करो।" "विकाररूपी मल की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक जीवन-जड़ी है५" "जो ......ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, वे अपने प्रयत्न के साथ-साथ ईश्वर पर श्रद्धा रखनेवाले होंगे तो उनके निराश होने का कोई कारण नहीं।" गांधीजी के अनुसार राम कहिए अथवा ईश्वर "शुद्ध चैतन्य है।" "वह पहले था, आज भी मौजूद है, आगे भी रहेगा । न कभी पैदा हुआ न किसी ने उसे बनाया"। जैन दर्शन में रामनाम के स्थान में नवकार मंत्र है। नवकार मन्त्र के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह चौदह पूर्व अर्थात् सारे जनबाडमय का सार है। इस मन्त्र के सम्बन्ध में प्राचीन ऋषियों ने कहा है-"यह सर्व पाप का प्रणाश करनेवाला है। सर्व मङ्गलों में प्रधान मङ्गल है।" एसो पंच-नमोक्कारो, सव्व-पाव-प्पणासणो । मंगलाणंच सव्वेसि, पढम हवइ मंगलं ॥ यह नवकार मन्त्र इस प्रकार है : "नमो अरिहंताणं, नमो सिद्धाणं, नमो आयरियाणं, नमो उवझायाणं, नमो लोए सव्व-साहणं ।" इस मन्त्र में पहले पद में अरिहंतों को नमस्कार किया जाता है। जिन्होंने प्रात्मा के राग-द्वेष मादि समस्त शत्रुओं का हनन कर इस देह में ही मात्मा के शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लिया है, उन्हें अरिहंत कहते हैं। अरिहंतों के सम्बन्ध में कहा गया है कि वे स्वयं संबुद्ध, पुरुषोत्तम, लोकप्रदीप, अभयदाता, चक्षुदाता, मार्गदाता, शरणदाता, संयमी जीवन के दाता, बोधिदाता, धर्मसारथी, अप्रतिहत श्रेष्ठ ज्ञानदर्शन के धारक, जिन, देह होते हुए भी मुक्त एवं सर्वज्ञ होते हैं। वे सारे भय स्थानों को जीत चुके होते हैं। दूसरे पद में सिद्धों को नमस्कार किया जाता है । जो देह से मुक्त हो, जन्म-मरण के चक्र से सदा के लिए छुटकारा पा चुके हैं और मोक्ष को पहुंच चुके हैं, उन्हें सिद्ध कहते हैं । सिद्ध प्रशरीर-"शरीर-रहित होते हैं । वे चैतन्यघन और केवलज्ञान-केवलदर्शन से संयुक्त होते हैं। साकार १–तत्त्वार्थसूत्र ६.१६ भाष्य : (क) अस्मात्पविधादपि बाह्यात्तपसः सङ्गत्यागथरीरलाघवेन्द्रियविजयसंयमरक्षणकर्मनिर्जरा भवन्ति । (ख) निशीथ भाष्य गाथा ५७४ : . णिवितिगणिब्बले ओमे, तह उद्घटाणमेव उभामे । TEE 2 वेयावच्चा हिंडण, मंडलि कम्पटियाहरणं ॥ २-देखिए पीछे पृ० ६७STMEEN71- 0 7 THREE ३-ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० १०३ को ४-रामनाम पृ० ६ ५-गांधी वाणी पू०७४- Aadha a r ६-देखिए पीछे पृ० १३ T ATE रामनाम पृ० २३ FEE हा पृ०२२ Scanned by CamScanner Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ शील की नव बाड़ 1157 और अनाकार उपयोग उनका लक्षण होता है। सिद्ध केवलज्ञान से संयुक्त होने से सर्वभाव, गुणपर्याय को जानते हैं और अपनी अनन्त केवल कि से सर्वभाव देखते हैं। न मनुष्य के ऐसा सुख होता है और न सब देवों के, जैसा कि अव्यावाध गुण को प्राप्त सिद्धों के होता है। सिद्धों का सुख अनुपम होता है। उनकी तुलना नहीं हो सकती। निर्वाण-प्राप्त सिद्ध सदा काल तृप्त होते हैं। वे शाश्वत सुख को प्राप्त कर प्रया. बाधित सुखी रखते हैं। सर्व कार्य सिद्ध होने से वे सिद्ध हैं, सर्व तत्त्व के पारगामी होने से बुद्ध हैं, संसार-समुद्र को पार कर चके होने से पारंगत हैं, हमेशा सिद्ध रहेंगे इससे परंपरागत हैं। वे सब दुखों को छेद चुके होते हैं। वे जन्म, जरा और मरण के बन्धन से विमुक्त होते हैं। वे अव्याबाध सुख का अनुभव करते हैं और शाश्वत सिद्ध होते हैं। अनन्त सुख को प्राप्त हुये वे अनन्त सुखो वर्तमान अनागत सभी काल में से ही सुखी रहते हैं।" तीसरे पद में प्राचार्य की वन्दना की जाती है। जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्राचरण दें, उन्हें प्राचार्य कहते हैं। ___ चौथे पद में उपाध्यायों को नमस्कार किया जाता है । जो अज्ञान-अन्धकार में भटकते हुए प्राणियों को विवेक-विज्ञान देते हैं शास्त्रज्ञान देते, उन्हें उपाध्याय कहते हैं। जो पांच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों की सम्यक् अाराधना करते हैं, उन्हें साधु कहते हैं। पांचवें पद में ऐसे साधुओं को नमस्कार किया जाता है। इसके उपरान्त चतुर्विशतिस्तव में सिद्धों की स्तुति, वन्दना और नमस्कार किया जाता है : एवं मए अभिथुआ, विहुय-रयमला पहीण-जरमरणा । . चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ . कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । म porape आरग-बोहिलाभ, समाहि-वरमुत्तमं दितु ॥ चंदेस निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासरा । सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ -जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्मरूप धूल के मल से रहित हैं, जो जरा-मरण दोनों से सर्वथा मुक्त हैं, वे अन्तः शतुनों पर विजयपानेवाले धर्मप्रवर्तक चौबीसों तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हों। -जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, पूजा-अर्चा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं. वे सिद्ध-तीर्थकर भगवान मुझे आरोग्य-सिद्धत्व अर्थात् प्रात्म-शान्ति, बोधि–सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ, तथा उत्तम समाधि प्रदान करें। --जो अनेक कोटाकोटि चन्द्रमामों से भी विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयंभरमण जैसे महासमद के समान गम्भीर हैं, वे सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि अर्पण करें, अर्थात् उनके पालम्बन से मुझे सिद्धि--मोक्ष प्राप्त हो। इस तरह जैन धर्म में भी साधक के लिए आवश्यक है कि वह रोज मन्त्र-स्मरण, प्रार्थना, उपासना करे। २६-ब्रह्मचय आर व्ययवादगार imms संत विनोबा ने दुष्कर ब्रह्मचर्य सुकर कसे हो जाता है-इस पर एक विचार, बार-बार दिया है, वह इस प्रकार है : "अपने अनभव से मेरा यह मत स्थिर हुमा कि यदि आजीवन ब्रह्मचर्य रखना है, तो ब्रह्मचर्य की कल्पना अभावात्मक (Negative) नहीं होनी चाहिए। विषय-सेवन मत करो, कहना प्रभावात्मक प्राज्ञा है ; इससे काम नहीं बनता। सब इन्द्रियों की शक्ति को प्रात्मा में खर्च करो, ऐसी भावात्मक (Positive) प्राज्ञा की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में, यह मत करो, इतना कहकर काम नहीं बनता। यह करो. कहना चाहिए। 'ब्रह्म' अर्थात् कोई भी बृहत् कल्पना। कोई मनुष्य अपने बच्चे की सेवा उसे परमात्मस्वरूप समझ कर करता है और वह इच्छा रखता है कि उसका लड़का ससुरुष निकले, तो वह पुत्र ही उसका ब्रह्म हो जाता है। उस बच्चे के निमित्त से उसका ब्रह्मचर्य १-ओपपातिक सू० १७८-१७६ Scanned by CamScanner Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १७ मासान होगा। इसी प्रकार ब्रह्मवारी मनुष्य का जीवन त रहता है पर उसके सामने वाली विशाल कल्पना के हिसाब से सारा संयम उसे अल्प ही जान पड़ता है। इन्द्रिय-निग्रह में करता है, ऐसा कर्तरि प्रयोग न रहकर इन्द्रिय-निग्रह किया जाता है, यह कर्मणि प्रयोग बच जाता है । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले की श्राँखों के सामने कोई विशाल कल्पना होनी चाहिए, तभी ब्रह्मचर्यमासान होता है। ब्रह्मचर्य को में विशाल ध्येयवाद और तदयं संयमाचरण कहता हूँ" श्री मशरूवाला इसी विचार को और भी स्पष्ट रूप से रख पाये हैं: जॉन डाल्टन के बुढ़ापे में किसी ने उनसे पूछा बाप किस उद्देश्य से विवाहित रहे ' ने इस से विचार में पड़ गये। थोड़ी देर बाद बोले – 'भाई, आज ही आपने यह प्रश्न सुझाया है। मेरा जीवन विज्ञान के अध्ययन में कैसे बीत गया, इसका मुझे पता ही नहीं चला। मेरे मन में यह विचार ही कभी पैदा नहीं हुआ कि विवाह किया जाय या न किया जाय, श्रथवा मैं विवाहित हूं या अविवाहित ।' "हमारे पुराणों में अत्रि ऋषि और सती धनसूया की कथा भी ऐसी ही बादर्शयाली है। ये विवाहित दम्पति थे, लेकिन ऋषि कायनकालने पास में और सती की युवावस्था ऋषि के लिए सुविधाएं जुटाने और काम-काज में ऐसी बीत गई कि बुढ़ापा ब गया,इसका उन्हें पता नहीं चला। पुराणकार कहते हैं कि एक बार अत्रि ऋषि अपने श्रध्ययन में लगे हुये थे, इतने में दिये में तेल खत्म हो गया। उन्होंने तेल मांगने की की इच्छा से ऊपर देखा, तो थकावट के कारण अनसूया की श्राँख लगी मालूम हुई । श्रत्रि ने जब अनसूया की तरफ ध्यान से देखा तो वे बूढ़ी जान पड़ीं। इसलिए उन्होंने अपनी दाढ़ी की तरफ देखा, तो वह भी सफेद दिखाई दी। तारुण्य अवस्था कब चली गई, इसका अत्रि को पता ही नहीं चला। इस कथा में काव्य की श्रतिशयोक्ति जरूर होगी, लेकिन ब्रह्मचारी के लिए श्रभ्यासपूर्ण जीवन बिताने का एक उत्तम श्रादर्श बताया गया है, और डाल्टन की अनुभव वाणी का यह कथा समर्थन करती है २ ।" श्री विनोबाजी और मशरूवाला ने जो विचार दिया है, वह ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में बहुत पुराना है। निशीथ सूत्र की चूर्णि में निम्न कथा, मिलती है, जो इस विषय को स्वयं स्पष्ट कर देती है : वह "" "एक गृहस्य लड़की निल्ली और मुखपूर्वक रहती थी मर्दन उन स्नान विलेपनादि पारीरिक शृंगार में परायण थी। बनाव- गार के कारण उसके मन में मोह जागृत हुआ। वह अपनी धाय मां से बोली - "मेरे लिये कोई पुरुष ले श्रावो ।" उस घाय मां ने उसकी मां को जाकर कहा। मां ने उसके पिता को कहा। पिता ने अपनी पुत्री को बुला कर कहा - " पुत्री ! ये दासियां अपना सब धन अपहरण करके ले जाती हैं, अतः तुम स्वयं कोठे की देखरेख करो। उसने कहा- ठीक, और कोठे के देख-रेख का काम करने लगी। वह किसी को भोजन देती, किसी को उसकी तनख्वाह वृत्ति और किसी को चावल देती। कितना कोठार में प्राया है, कितना व्यय हुआ है, इस प्रकार दिनभर काम में व्यतीत हो जाता। वह दिनभर के काम से खूब थक जाती और अपनी शय्या पर आकर सो जाती। एक दिन घाय मां ने कहा- "बेटी पुरुष लाऊं ?" वह बोली - "मुझे पुरुष से क्या काम ? अब मुझे सोने दो" । " इस प्रकार गीतार्थी के भी दिनभर सूत्रार्थ में लगे रहने से, स्वाध्याय में तन्मय रहने से काम संकल्प उत्पन्न नहीं होते ।" उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि किसी ध्येय में रात-दिन सने रहने से ब्रह्मचर्य का पालन एक महान चीज बन जाती है। विनोबाजी ने सब से विशाल ध्येय परमेश्वर का साक्षात्कार करना कहा है। वे लिखते हैं- ११ - विनोबा के विचार (दू० भा० च० आ०) पृ० १६०-६१. २- स्त्री-पुरुष मर्यादा पृ० २४-२६ 0 ३- नि० गा० ५७४ चूर्णि : g तस्स य अभंगुव्वट्टण-गृहाण-विलेवणादिपरायणाए मोहुभयो । एग्गस्स कुटुंबिगस्स घूया णिक्कम्मवावारा मुहासणत्था अच्छति । अम्मात भगति । आनंदि मे पुरिसं सीए अम्मधातीय माउए से कहिये। सीए वि पिठो पिडा वाहिरचा भणिया। पुत्तिए ! एताओ दासीओ सव्वधणादि अवहरंति, तुमं कोठायारं पडियरस, तह त्ति पडिवन्नं, सा-जाब अगणस्स भत्तयं देवि, गण विधि अस्त्र संदला, अस आर्य देक्खति, अगगल्स वयं एवमादिकिरिया बाबा दिवस गतो । रणी विणा अम्मघातीते भणिता – आणेमि ते पुरिसं ? साभणेति सुत्तपोरिसि दतस्स अतीव तत्थे वावडस्स कामसंकप्पो ण जायइ । मे पुरिसेण कज्जं, हिं लहामि भणि" च "काम ! जानामि ते सा अतीव खिराणा एवं गीयत्थस्स वि मूल "सिलोगो ॥ Scanned by CamScanner Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव याद "किसी भी विशाल ध्येय के वास्ते भी ब्रह्मचर्य की साधना की जाती है। जैसे, भीष्म ने अपने पिता के लिए ब्रह्मचर्य की प्रतिमा थी।"""उनका जो प्रारंभ हमा, वह ब्रह्म की प्राप्ति के लिए नहीं हमा। फिर भी उनका जो ध्येय था, यह बड़ा ही था। अपने पिता के लिए उन्होंने त्याग किया और फिर उसका अर्थ उन्होंने गहरा सोच लिया। उसी तरह गांधीजी ने भी समाज की सेवा के लिए ब्रह्मचर्य का प्रारंभ किया। ...''लेकिन बाद में उनका विचार उस चीज की गहराई में पहुँचा। गांधीजी ने भी जो प्रारम्भ किया, वह अन्तिम उद्देश्य से.. ब्रह्म की प्राप्ति के उद्देश्य से नहीं किया, बल्कि समाज-सेवा के लिए किया। वह भी एक विशाल ध्येय है। फिर उनका विचार विकसित होता गया। - "इसी तरह ब्रह्मचर्य दूसरी बातों के लिए भी होता है।....."तन्मयता में एक बड़ी शक्ति है। किसी एक ध्येय में तन्मय हो जानो, रात दिन वही बात सूझे, तो ब्रह्मचर्य सध सकता है। माना कि वह पूरा ब्रह्मचर्य नहीं है। कारण, जब तक ब्रह्मनिष्ठा उत्पन्न नहीं होती है, तब तक पूरा ब्रह्मचर्य नहीं कहा जा सकेगा।"- ...... . 27 जैन धर्म में सबसे विशाल ध्येय है प्रात्म-शोधन । जो रात-दिन प्रात्म-शोधन में लगा रहता है, उसका ब्रह्मचर्य अपने पाप सधता है । २७-ब्रह्मचर्य और आत्मघात 7 ऐसे अवसर पा सकते हैं, जब किसी बहिन पर बलात्कार होने की परिस्थति पैदा हो गई हो। ऐसी स्थिति में अपने शील की रक्षा के लिए बहिन क्या करे ? ऐसे ही प्रश्न का उत्तर देते हुए, एक बार महात्मा गांधी ने कहा था : “.."बहुत स्त्रियाँ यह मानती हैं कि अगर उनकी रक्षा करनेवाला कोई तीसरा आदमी न हो या वे खुद कटारी या बन्दूक वगैरह का इस्तेमाल करना न सीखी हों, तो उनके लिए जालिम के वश में होजाने के सिवा और कोई उपाय ही नहीं। ऐसी स्त्री से मैं जरूर कहूंगा कि उसे पराये के हथियार पर भरोसा रखने की कोई जरूरत नहीं। उसका शील ही उसको रक्षा कर लेगा। मगर वैसा न हो सके, तो कटारी वगैरह काम में लेने के बजाय, वह प्रात्म-हत्या कर सकती है। अपने को कमजोर या अबला मान लेने की कोई आवश्यकता नहीं।" (३-७-'३२) - उन्होंने दूसरी बार कहा-"जिसका मन पवित्र है, उसे विश्वास रखना चाहिए कि पवित्रता की रक्षा ईश्वर जरूर करेगा। हथियारों का आधार झूठा है। हथियार छीन लिए जाय तो? अहिंसा-धर्म का पालन करनेवाला हथियारों का भरोसा न रखे ; उसका हथियार उसकी महिंसा, उसका प्रेम है।" ......"जो अहिंसा-धर्म का पालन करता है, वह मरकर ही अपनी रक्षा करेगा, मारकर नहीं। स्त्रियों को द्रौपदी की तरह विश्वास रखना चाहिए कि उनकी पवित्रता (यानी ईश्वर) उनकी रक्षा करेगी ... ३।" (३१-७-'३२) - इसी समस्या पर विचार करते हुए उन्होंने बाद में लिखा : "यदि लड़कियों को मालूम होने लगे कि उनकी लाज और धर्म पर हमला होने का खतरा है, तो उनमें उस पशु मनुष्य के आगे प्रात्म-समर्पण करने के बजाय मर जाने तक का साहस होना चाहिए। कहा जाता है कि कभी-कभी लड़की को इस तरह बांधकर या मुंह में कपड़ा लूंसकर विवश कर दिया जाता है कि वह आसानी से मर भी नहीं सकती, जैसे कि मैंने सलाह दी है । लेकिन मैं फिर भी जोरों के साथ कहता हूं कि जिस लड़की में मुकाबिले का दृढ़ संकल्प है, वह उसे असहाय बनाने के लिए बांधे गये सब बन्धनों को तोड़ सकती है। दृढ़ संकल्प उसे मरने की शक्ति दे सकता है।" (३१-१२-३८) _महात्मा गांधी ने एक बार यह भी कहा-"प्रात्म-हत्या करने का धर्म अपने आप सूझना चाहिए । कोई स्त्री बलात्कार न होने देने के लिए प्रात्म-हत्या करना पसन्द न करे, तो मुझे या तुम्हें यह कहने का हक नहीं है कि उसने अधर्म किया।" (३-७-३२)-giri महात्मा गांधी ने शील-रक्षा के लिए प्रात्म-हत्या की राय दी, उसके पीछे निम्न भावना थी:Fo"कोई औरत प्रात्म-समर्पण करने के बजाय निश्चय ही प्रात्म-हत्या करना ज्यादा पसंद करेगी। दूसरे शब्दों में जिंदगी की मेरी योजना में आत्म-समर्पण को कोई जगह नहीं। लेकिन मुझसे यह पूछा गया था कि प्रात्म-हत्या या खुदकुशी कैसे की जाय ? मैंने तुरंत जवाब दिया १-महादेवभाषी की डायरी (पहला भाग) पृ. २६४ लामा २-वही पृ० ३३०. M ३-ब्रह्मचर्य (प: भा०) पृ० ११५ . .... ४-महादेवभाषी की डायरी (पहला भाग) पृ०२६४ 15 ... samaARTE BAREnfini t ivissa Scanned by CamScanner Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ११६ कि प्रात्म-हत्या के साधन सुझाना मेरा काम नहीं। और ऐसी हालतों में मात्म-हत्या की स्वीकृति देने के पीछे यह विश्वास था, भौर है कि जो नाम-हत्या करने के लिए भी तैयार है, उनमें ऐसे मानसिक विरोध मौर मात्मा की ऐसी पवित्रता के लिए वह जरूरी ताकत मौजूद है, जिसके सामने हमला करनेवाला अपने हथियार डाल देता है'।" (२७-१-४७) विकारी व्यक्ति के लिए पात्म-हत्या किस तरह धर्म रूप में उत्पन्न होती है, इसपर प्रकाश डालते हुए महात्मा गांधी ने लिखा है : "साधारण तौर से जैन धर्म में भी प्रात्मघात को पाप माना जाता है। परन्तु जब मनुष्य को मात्मघात भौर प्रयोगति के बीच चुनाव करने का प्रसंग भावे, तब यही कहा जा सकता है कि उस हालत में उसके लिए पात्म-धात ही कर्तव्यरूप है। एक उदाहरण लीजिए किसी पुरुष में विकार इतना बढ़ जाय कि वह किसी स्त्री की प्राबरू लेने पर उतारू हो जाय और अपने आप को रोकने में असमर्थ हो, लेकिन यदि उस वक्त उसमें थोड़ी भी बुद्धि जाग्रत हो और वह अपनी स्थल देह का अन्त करदे, तो वह अपने माप को इस नरक से बचा सकता है।" (१२-१२-४८) इस सम्बन्ध में भगवान महावीर के विचार निम्न रूप में प्राप्त हैं : "जिस भिक्षु को ऐसा हो कि मैं निश्चय ही उपसर्ग से घिर गया है और शीत-स्पर्श को सहन करने में समर्थ नहीं है, वह संयमी अपने समस्त ज्ञान-बल से उस प्रकार्य को न करता हुमा, अपने को संयम में अवस्थित करे। (अगर उपसर्ग से बचने का कोई उपाय नजर नहीं माये तो) तपस्वी के लिए श्रेय है कि वह कोई वेहासनादि अकाल-मरण स्वीकार करे। निश्चय ही यह मरण भी उस साधक के लिए काल-पर्यायसमय-प्राप्त मरण है। इस मरण में भी वह साधक कर्म का अन्त करनेवाला होता है। यह मरण भी मोह-रहित व्यक्तियों का पायतन-स्थल रहा है। यह हितकारी है, सुखकारी है, क्षेमकर है, निःश्रेयस है और अनुगामी-पर-जन्म में शुभ फल देनेवाला है।" STORE टीकाकार ने मूल के 'सीयफासं' (शीत-स्पर्श) शब्द का अर्थ किया है-स्त्री आदि का उपसर्ग (स्त्र्याद्युपसर्गवा)। 'विहमाइए' का अर्थ किया है-विहायोगमनादि मरण। वे लिखते हैं-"मन्दसंहनन के कारण यदि भिक्षु के मन में ऐसा अध्यवसाय हो कि मैं स्त्री-उपसर्ग से स्पृष्ट हो गया हूँ अत: मेरे लिए शरीर छोड़ना ही श्रेय है ; मैं स्पर्श को सहन करने में असमर्थ हूँ तो उसे भक्तपरिज्ञा, इङ्गित, पादोपगमन मरण करना . चाहिए। यदि उसे ऐसा लगे कि कालक्षेप का अवसर नहीं तो वह वेहानस, गाईपृष्ठ जैसे अपवादिक मरण को प्राप्त हो। यदि साधु को अर्द्ध-कटाक्ष, निरीक्षण प्रादि के उपसर्ग हों तो वह स्वयं ये कार्य न करे। अपनी प्रात्मा को व्यवस्थित रखे। यदि उसे स्त्री द्वारा उपसर्ग प्राप्त हो और विष-भक्षण आदि उपायों के करने में तत्पर होते हुए भी वह स्त्री उसे नहीं छोड़े तो ऐसे उपसर्ग के समय ऐसा मरण ही श्रेय है। जैसे किसी को अपने आदमियों द्वारा सपत्नीक कोठे में प्रविष्ट कर दिया जावे तथा प्रणय मादि भावों से वह प्रेयसी भोग की प्रार्थना करने लगे और वहां से निकलने का उपाय नहीं हो तो प्रात्मोद्वन्धन के लिए वह भिक्षु विहाय मरण को प्राप्त हो, विष-पान करले, गिर पड़े अथवा सुदर्शन की तरह प्राणों को छोड़े। "यहाँ प्रश्न हो सकता है-वेहासनादि बालमरण कहे गये हैं । वे अनर्थ के हेतु हैं। प्रागम में कहा है : “इच्चएणं बालमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहि नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं संजोएइ जाव अणाइयं च णं अणवयग्गं चाउरतं संसारकतारं भुजो भुजो परियहह' ति"। फिर इस मरण की संगति कसे ? इसका उत्तर यह है कि अर्हतों ने एकांतत: न किसी बात का प्रतिषेध किया है और न किसी का प्रतिपादन । एक मैथन ही ऐसा है, जिसका सदा प्रतिषेध है। द्रव्यक्षेत्रकाल भाव के अनुसार जिसका प्रतिषेध होता है, वह प्रतिपाद्य हो जाता है। उत्सर्ग मार्ग भी गुण के लिए है और अपवाद मार्ग भी गुण के लिए। जो कालज्ञ है उसके लिए मैथुन से बचने के अभिप्राय से वेहानसादि मरण भी कालप्राप्त मरण की तरह ही है।" १-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०५१ । २-वही पृ० ७६ ३-आचाराङ्ग १७.४ : जस्स गं भिक्खुस्स एवं भवह पुट्ठो खलु अहमंसि नालमहमंसि सीयफासं अहियासित्तए से वसमं सव्वसमन्नागय पन्नाणेणं अप्पाणणं केड अकरणाए आउट्टे तवस्सिणो हु तं सेयं जमेगे विहमाइए तत्थावि तस्स कालपरियाए सेऽवि तत्थ विअंतिकारए इच्चेयं विमोहायतणं हियं सुहं खमं निस्सेसं आणुगामियं ति बेमि । -आचाराङ्ग ११७.४ की टीका Scanned by CamScanner Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० शील की नय भाष स्थनाङ्ग सूत्र में बारह प्रकार के मरण का उल्लेख है- Nirmirmire (१) वलन्मरण-परीषह मादि की बाधा के कारण संयम से भ्रष्ट होकर मरना। (२) वशात मरण-स्निग्ध दीपक-कलिका के अवलोकन में प्रासक्त पतंग प्रादि के मरण की तरह, इन्द्रियों के पक्ष में होकर मरमा। (३) निदान मरण-समृद्धि और भोग आदि की कामना करते हुए मरना। (४) तद्भव मरण-जिस भव में हो, उसी भव की प्रायु का बन्ध करके मरना। 2 (५) गिरिपतन मरण-पर्वत से गिरकर मरना TEEN ANSAR (६) तरुपतन मरण-वृक्ष से गिर कर मरना। ... (७) जलप्रवेश मरण-जल में प्रविष्ट होकर मरना। in E n ts (८) अग्निप्रवेश मरण-अग्नि में प्रवेश कर मरना। (6) विषभक्षण मरण—विष खाकर मरना। hi (१०) शस्त्रावपाटन मरण-छुरिकादि शस्त्र से अपने शरीर को विदीर्ण कर मरना । REAPHARNation fire (११) वहायस मरण-वृक्ष की शाखा से बन्धकर-लटक कर मरना। HER MAN. (१२) गृध्रस्कृष्ट मरण-गृद्धों द्वारा स्पष्ट होकर मरना । TRE mpire Tom इन ऊपर के मरणों के सम्बन्ध में कहा गया है कि भगवान महावीर ने कभी इनकी प्रशंसा नहीं की, कीर्ति नहीं की, और अनुमति नहीं दी। कारण होने पर केवल अन्तिम दो को निवारित नहीं किया। कारण का खुलासा करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि 'शीलरक्षणादी' अर्थात् शील-रक्षण प्रादि प्रयोजन के लिए अन्तिम दो मरण निवारित नहीं है। एक प्राचीन गाथा में इन दोनों मरणों को अनुज्ञात कहा है। उपर्युक्त विवेचन से फलित है कि जैन धर्म के अनुसार संयम से भ्रष्ट होकर मरना, इद्रियों के वश होकर मरना, गह्य है और उन्हें बालमरण कहा है। वैसे ही संयम की रक्षा के लिए वहायस, गृद्धस्पृष्ट मरण की अनुज्ञा भी दी है। । यह यहाँ स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैन साध्वियां अपने पास विहार के समय रस्सियाँ रखती हैं और शील विषयक उपसर्ग के उत्पन्न होने पर उनके द्वारा फाँसी खाकर शील-रक्षा कर सकती हैं। Pos m २ ८-ब्रह्मचर्य और भावनाएँ Parihari R om जैन धर्म में ऐसी भावनाएं-अनुपेक्षाएं-दृष्टियों का भी वर्णन मिलता है, जिनका बार-बार चिन्तन करने से ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य में दृढ़ रह सकता है। उदाहरणस्वरूप : ...(१) त्यागे हुए भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करना वमन की हुई वस्तु को पीना है । इससे तो मरना भला | दो मरगाइ समणेणं भगवया महावीरेणं समणाणं णिग्गंथागं णो णिञ्च वरिणायाइ णो णिच्च कित्तियाई णो णिच्चं घुझ्याइणो गि पसल्याइणो गिचं अभगुन्नायाई भवंति, कारणणं पुण अप्पडिकुटाइ तं जहा-हाणसे चेव गिद्धपिठे चेव । तर २-ठाणाङ्ग सू० १०२ की टीका में उद्धृत गदादिभक्खणं गद्धपट्टमुब्बंधणादि वेहासं। एते दोन्निऽवि मरणा कारणजाए.अणुन्नाया ॥ TRA : .३-उत्तराध्ययन २२ : ४२-४३ range s tants form ation injana धिरत्यु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। ने पाली वत इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ।। Scanned by CamScanner Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका (२) यदि समभावपूर्वक विचरते हुए भी यह मन कदाचित् बाहर निकल जाय तो साधक सोपे मेरी है और न मैं उसका हूँ ।" jets ( ३ ) नरक में गये हुए दुःख से पीड़ित और निरन्तर क्लेशवृत्तिवाले जीव की जब नरक सम्बन्धी पल्योपम और सागरोपम की श्रायु भी समाप्त हो जाती है, तो फिर मेरा यह मनोदुःख तो कितने काल का है ? ( ४ ) यह मेरा दुःख चिरकाल तक नहीं रहेगा। जीवों की भोग-पिपासा श्रशाश्वती है । यदि विषय-तृष्णा इस शरीर से न जायगी, तो मेरे जीवन के अन्त में तो अवश्य जायगी । S 40 (५) जब कभी इन मनोरम कामभोगों को छोड़कर पल बसना है। इस संसार में धर्म ही त्राण है। धर्म के शिया अन्य वस्तु नहीं है को दुर्गति से रक्षा कर सके। ( ६ ) जैसे घर में भाग लगने पर गृहपति सार वस्तुनों को निकालता है और प्रसार को छोड़ देता है, उसी तरह जरा और मरणरूपी श्रग्नि से जलते हुए इस संसार में अपनी आत्मा का उद्धार करूँगा। (७) जिसमें मैं मूति हो रहा हूँ-वह जीवन और रूप विद्युत्सम्पात की तरह है। (८) स्त्री का शरीर जिसके प्रति मैं मोहित हूँ, अशुचि का भण्डार है । १ दशकालिक २४ : समाइ पेहाइ परिव्वतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा मई नो वि आईपि तीसे इमेव ताओ रा if the २कालिक पू० १.१५ : इमरसता नेरइयस्स जंतुणो, दुहवीवहस किलेस पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ॥ mig me ३ यही १.१६३ अनेकन न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सह, असासया भोगपिवास जंतुणो । न में सरीरेण इमेणऽविस्सइ, भविस्सई जीवियपज्जवेण मे ॥ ४- उत्तराध्ययन १४. ४० : मरिहिसि रायं जया तथा वा, मणोरमे कामगुणे पहाय । एको हु धम्मो नरदेव ! ताणं, न विज्जई अन्नमिहेह किचि ॥ ५ - वही १६. २३-२४ जहा गेहे पलितम्मि, तस्स गेहस्स जो पहू। सारभवडाणि नीणे, असारं अवभद !! एवं लोए पलित्तम्मि, जराए मरणेण य । अप्पाणं तारइस्सामि, तुब्भेहि अणुमन्निओ ॥ ६-वही १८.१३ : जीवियं वेव रूवं च, विज्जुसंपायचञ्चलं । जसं मुरसि राय, पेच्चत्थं नाव बुज्झसि ॥ -आचाराङ्ग १, २-५ : ॥ Forbes क sy joy to pitem je sebine in sizfvar saint अंतो-अंतो देहं तराणि पासह पुढोविसवंताई' पंडिए पडिलेहाए hub prah en aften fire :$$. stone for b ग :07 STARTE :). Pre ine ( 200 : F3.37 FROSTROS (3) -- fam () १२१ ড় (a) Scanned by CamScanner Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ १२२ (६) जीव जो शुभ अथवा अशुभ कर्म करता है, उन कर्मों से संयुक्त हो परलोक को जाता है। उसके दुःख में दूसरा कोई भागी बंटा सकता। मनुष्य को स्वयं अकेले को ही दु:ख भोगना पड़ता है। कर्म, करनेवाले का ही पीछा करता है ; उसे ही कर्म-फल भोग पड़ता है। (१०) ये काम-भोग त्राणरूप नहीं, शरणरूप नहीं। कभी तो मनुष्य ही काम-भोगों को छोड़कर चल देता है। और कभी काम ही मनुष्य को छोड़ कर चल देते हैं। ये काम-भोग अन्य हैं और मैं अन्य हूँ। फिर मैं इन काम-भोगों में मूच्छित क्यों होता हूँ? (११) यह शरीर अनित्य है, अशुचिपूर्ण है और अशुचि से उत्पन्न है। यह आत्मारूपी पक्षी का अस्थिर वास है और दु:ख तथा क्लेशही भाजन है। अत: मुझे मानुषिक काम-भोग में पासक्त, रक्त, गृद्ध, मूच्छित नहीं होना चाहिए और न अप्राप्त भोगों को प्राप्त करने की लाल करनी चाहिए । (१२) विषय और स्त्रियों में आसक्त जीव स्थावर और जंगम योनियों में बार-बार भ्रमण करता है । (१३) जो सर्व साधुओं को मान्य संयम है, वह पाप का नाश करनेवाला है। इस संयम की आराधना कर बहुत जीव संसार-सागर से पार हुये हैं और बहुतों ने देव-भव प्राप्त किया है५ । म (१४) जैसे लेपवाली भित्ति लेप गिराकर क्षीण कर दी जाती है, उसी तरह अनशनादि तप द्वारा अपनी देह को कृश करना चाहिए। १-(क) उत्तराध्ययन १८.१७ : तेणावि जं कयं कम्मं, मुहं वा जइ वा दुहं। ॐ कम्मुणा तेण संजुत्तो, गच्छइ उ परं भवं ॥ (ख) वही १३.२३ : न तस्स दुक्खं विभयन्ति नाइओ, न मित्तवग्गा न सुया न बंधवा । मा एक्को सयं पञ्चणुहोइ दुक्खं, कत्तारमेव अणुजाइ कम्म" २-सूत्रकृताङ्ग २, १.१३ : .., इह खलु कामभोगा णो ताणाए वा णो सरणाए वा । पुरिसे वा एगया पुचि कामभोगे विप्पजहइ, कामभोगा वा एगया पुब्विं पुरिसं विप्पजहन्ति । अन्ने खलु कामभोगा अन्नो अहमंसि । से किमंग पुण वयं अन्नमन्नेहि कामभोगेहि मुच्छामो ? ३-(क) उत्तराध्ययन १६.१३ : इम सरीरं अणिच्चं, असई असुइसंभवं । असासयावासमिणं, दुक्खकेसाण भायणं । (ख) ज्ञाताधर्म कथाङ्ग ८: तं मा णं तुम्भे देवाणुप्पिया, माणुस्सएमु कामभोगेस । सज्जह रज्जह गिज्झह, मुज्झह अज्झोववज्जह ॥ ४-सूत्रकृताङ्ग १, १२.१४ : - जमाहु ओहं सलिलं अपारगं, जाणाहि णं भवगहणं दमोक्ख । PORE र 'जंसी विसन्ना विसयंगणाहि, दुहओऽवि लोयं अणुसंचरन्ति॥ ५-वही १, १५. २४ : - मयं सव्वं साहणं, तं मयं सल्लगत्तणं । साहइचाण तं तिण्णा, देवा वा अभविसु ते ॥ -वही १, २।१.१४ : धुणिया कुलियं व लेववं । किसए देहमणसणा इह ॥ Scanned by CamScanner Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १२३ ....(१५) मुझे प्रात्मा को कसना चाहिए। उसको जीर्ण-पतली करना चाहिए। तप से शरीर को क्षीण करना चाहिए'। (१६) जिन्हें तप, संयम और ब्रह्मचर्य प्रिय हैं, वे शीघ्र ही अमर-भवन को प्राप्त करते हैं । (१७) मनुष्यों के सब सदाचार सफल होते हैं। जीवन प्रशाश्वत है। जो इसमें पुण्य, सत्कृत्य और धर्म नहीं करता, वह मृत्यु के मुख में पड़ने के समय पश्चात्ताप करता है ।कार32 (१८) भोग से ही कर्मों का लेप-बन्धन-होता है । भोगी को जन्म-मरण रूपी संसार में भ्रमण करना पड़ता है, जब कि अभोगी संसार श्री (१९) काम-भोग शल्य रूप हैं । काम-भोग विषरूप हैं। काम-भोग जहरी नाग के सदृश हैं । भोगों की प्रार्थना करते-करते जीव विचारे उनको प्राप्त किए बिना ही दुर्गति में चले जाते हैं। ... (२०) आत्मा ही सुख और दुःख को उत्पन्न करने औरन करनेवाली है । आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार से अमित्र-शत्रु है । (२१) अपनी आत्मा के साथ ही युद्ध कर। बाहरी युद्ध करने से क्या मतलब ? दुष्ट आत्मा के समान युद्ध योग्य दूसरी वस्तु दुर्लभ है। .. १-आचाराङ्ग १, ४।३ : ४-५ : कसेहि अप्पा जरेहि अप्पाणं का १. इह आणाकंखी पंडिए। का। अणिहे एगमप्पाणं । सपेहाए धुणे सरीरगं । क २–दशवैकालिक ४.२८ : पच्छा वि ते पयाया, खिप्पं गच्छन्ति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो, संजमो अ खन्ती अ बंभचेरं च ॥ ३-उत्तराध्ययन १३. १०, २१ : सव्वं सुचिएणं सफलं नराणं, कडाण कम्माण न मोक्खो अस्थि । । अत्थेहि कामेहि य उत्तमेहि, आया ममं पुगणफलोववेए॥ इह जीविए राय असासयम्मि, धणियं तु पुण्णाई अकुव्वमाणो। से सोयई मच्चुमुहोवणीए, धम्म अकाऊण परंमि लोए॥ ४-वही २५. ४१ : उवलेवो होई भोगेस, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥ ५-वही ६.५३: RAP E मकामा विकास कामा आसीवियोमा कामे य पत्थेमाणा, अकामा जति दोग्गई॥ Giantamanialisation ६-वही २०.३७ : अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सहाण य । अप्पा मित्तममितं च, दुप्पट्टिय सुप्पढिओ॥ ७-आचाराङ्ग ५॥३, १५३: इमेण चेव जुज्झाहि कि ते जुज्झण वज्झओ। जुद्धारिहं खलु दुल्लभं । Scanned by CamScanner Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ १२४ (२२) तू ही तेरा मित्र है। बाहर क्यों मित्र की खोज करता है ? हे पुरुष ! अपनी प्रात्मा को ही वश में कर। ऐसा करने से ती दुःखों से मुक्त होगा'। आगम में कहा है-"जिसकी प्रात्मा इस प्रकार दृढ़ होती है, वह देह को त्यज देता है, पर धर्म-शासन को नहीं छोड़ता। इति (विषय-सुख) ऐसे दृढ़ धर्मी पुरुष को उसी तरह विचलित नहीं कर सकतीं, जिस तरह महावायु सुदर्शन गिरि को ।" "जिस तरह नौका जल को पार कर किनारे लगती है, उसी तरह जिसकी अन्तर पात्मा भावनारूपी योग-चिन्तन से विशुद्ध निर्मल होती है, वह संसार-समद को तिर कर--सर्व दुःखों को पार कर, परम सुख को प्राप्त करता है। क्षुर अपने अन्त पर-धार पर चलता है और चक्का भी-पहिया भी अपने अन्त-किनारों पर चलता है। धीर पुरुष भी अन्त का सेवन करते हैं-एकान्त निश्चित सत्यों पर जीवन को स्थिर करते हैं और इसी संसार का बार-बार जन्म-मरण का अन्त करते हैं ।" म प नि २९-ब्रह्मचर्य और निरन्तर संघर्ष संत टॉलस्टॉय ने कहा है : “जो पतन से बचा हुआ है, उसे चाहिए कि इसी तरह बचे रहने के लिए वह अपनी तमाम शक्तियों का उपयोग करे । क्योंकि गिर जाने पर उठना सैकड़ों नहीं, हजारों गुना कठिन हो जायगा। संयम का पालन करना अविवाहित और विवाहित-दोनों के लिए श्रेयस्कर है। ____ "मनुष्य का कर्तव्य है कि संयम की आवश्यकता को समझ ले। वह समझ ले कि विवेकशील मनुष्य के लिए विकारों से झगड़ना अप्राकृतिक नहीं, बल्कि उसके जीवन का पहला नियम है । मनुष्य केवल पशु नहीं, एक विवेकशील प्राणी है। __"प्रकृति ने मनुष्य के अन्दर वैषयिकता और अन्य पाशविक वृत्तियों के साथ-साथ ब्रह्मचर्य और पवित्रता की पोषक आध्यात्मिक वृत्ति भी दी है। प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह उसकी रक्षा और संवर्धन करे। "सत्य और सत् के लिए सत् का प्रयत्न करते रहना। अपनी पवित्रता की रक्षा में सारी शक्ति लगा देना। प्रलोभनों के साथ खब झगड़ना, किसी हालत में हिम्मत न हारना। लगाम को कभी ढीली न करना। “मेरा तो उपदेश यही है और इस पर, मैं खूब जोर दूँगा कि अपने जीवन के ध्येय को समझो। याद रक्खो कि शारीरिक विषय-मुख नहीं बल्कि ईश्वर के आदेशों का पालन मनुष्य के जीवन का लक्ष्य और उद्देश्य है । विलासयुक्त नहीं, प्राध्यात्मिक जीवन व्यतीत करो। "ब्रह्मचर्य वह आदर्श है, जिसके लिए प्रत्येक मनुष्य को हर हालत में और हर समय प्रयत्न करना चाहिए। जितना ही तुम उसके नजदीक जानोगे उतना ही अधिक परमात्मा की दृष्टि में प्यारे होगे और अपना अधिक कल्याण करोगे। विलासी बन कर नहीं, बल्कि पवित्रतायक्त जीवन व्यतीत करके ही मनुष्य परमात्मा की अधिक सेवा कर सकता है | YATRA STATE या १-आचाराङ्ग ३।३.११७-८: पुरिसा! तुममेव तुम मितं, कि बहिया मित्तमिच्छसी ? पुरिसा! अत्ताणमेव अभिनिगिज्झ एवं दुक्खा पमोक्खसि ॥ २-दशवैकालिक चू० १.१७:। जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिओ, चइज्जदेहं न हु धम्मसासणं । तं तारिसं नो पइलंति इंदिया, उवितवाया व मुदंसणं गिरि ॥ ३-सूत्रकृताङ्ग १, १५ : ६,१४-१५ : भावणा जोगसद्धप्पा, जले नावा व आहिया। नावा व तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउई ॥ से हु चक्खू मणुस्साणं, जे कंखाए य अन्तए। अन्तेण खुरो वहई, चक्कं अन्तेण लोट्टई ॥ अन्ताणी धीरा सेवन्ति, तेण अन्तकरा इह ॥ - ४-स्त्री और पुरुष पृ० १५०-१५३ Scanned by CamScanner Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ भूमिका on अर्थशास्त्र के क्षेत्र में जिस प्रकार अकाल पीडित को एक बार या अनेक बार भोजन करा देने से उसके पेट का सवाल हल नहीं होता, उसी प्रकार शारीरिक विषयोपभोग से मनुष्य को कभी सन्तोष नहीं होता। फिर सन्तोष कैसे होगा? ब्रह्मचर्य के प्रादर्श की सम्पूर्ण भव्यता को भली-भांति समझ लेने से, अपनी कमजोरी पूर्णतया स्पष्टरूप से देख लेने से. और उसे दूर कर उस उच्च प्रादर्श की ओर बढ़ने का निश्चय करने से। __"संघर्ष जीवनमय और जीवन संघर्षमय है। विश्रान्ति का नाम भी न लीजिए। प्रादर्श हमेशा सामने खड़ा है। मुझे तब तक शान्ति नसीब नहीं हो सकती, जब तक मैं उस आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता। S E PTE - "संसार की जितनी लड़ाइयाँ हैं, उनमें कामाभिलाषा (मदन) के साथ होनेवाली लड़ाई सबसे ज्यादा कठिन है, और सिवाय प्रारम्भिक बाल्यावस्था तथा अत्यन्त वृद्धावस्था के कोई भी ऐसी अवस्था अथवा समय नहीं है, जिसमें मनुष्य इससे मुक्त हो। इसलिए किसी मनुष्य को इस लड़ाई से न तो कभी हताश होना चाहिए और न कभी अवस्था की प्राप्ति की आशा करनी चाहिए जिसमें इसका प्रभाव हो। एक क्षण के लिए भी किसी को निर्बलता न दिखानी चाहिए, किन्तु उन समस्त साधनों को एकत्र कर उनका उपयोग करना चाहिए, जो उस शत्रु को निःशस्त्र बना देते हैं। उन बातों का परित्याग कर देना चाहिए जो शरीर और मन को उत्तेजित ( दूषित) करनेवाली हों और हमेशा काम करने में व्यस्त रहना चाहिए।" ___ "पर प्रधान और सर्वोत्तम उपाय तो अविरत संघर्ष ही है ! मनुष्य के दिल में हमेशा यह भाव जागृत रहना चाहिए कि यह संघर्ष कोई नैमित्तिक या अस्थायी अवस्था नहीं, बल्कि जीवन की स्थायी और अपरिवर्तनीय अवस्था है।" जैन धर्म में भी सतत् जागृति को संयमी का परम धर्म कहा है । वह सोये हुनों में जागृत रहे-"मुत्तेमु या वि पडिबुद्धजीवी" भारंडपक्षी की तरह अप्रमत्त रहे-"भारंडपक्खी व चरेऽपमत्ते", मुहुर्तमात्र भर भी प्रमाद न करे-"महुतमवि णो पमाए"। वीर पुरुष संयम में परति को सहन नहीं करता और न असंयम में रति को सहन करता है। चूंकि वीर पुरुष संयम में अन्यमनस्क नहीं होता, अत: असंयम में अनुरक्त नहीं होता-नारइ सहई वीरे, वीरे न सहई रति । जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे न रज्जई।" वह असंयम जीवन में मानन्द भाव को घृणा की दृष्टि से देखे-"निव्विंद नंदि इह जीवियस्स।" ज्ञानी, जिसे मात्मा-साधना के सिवा अन्य कुछ परम नहीं, कभी प्रमाद नहीं करता-"अणन्नपरमं नाणी, नो पमाए कयाइवि ।" ये सारी आज्ञाएं अविश्रान्त रूप से जागृत रहने की ही प्ररेणाएँ देती हैं। वास्तव में ही संयमी के लिए अन्तिम क्षण तक विश्राम जैसी कोई चीज नहीं होती। "जावज्जीवमविस्सामो"-जीवन-पर्यंत विश्राम नहीं, यही उसके जीवन का सूत्र होता है। संयमी को किस तरह उत्तरोत्तर संघर्ष करते रहना चाहिए-इसका आदर्श सुदर्शन के जीवन-वृत्त द्वारा दिया गया है। सुदर्शन सेठ की कथा संक्षेप में पहले दी जा चुकी है । सुदर्शन का जीवन ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में निरन्तर संघर्ष का रहा। स्वामीजी ने लिखा है: "सुदर्शन ने शुद्ध मन से निरतिचार शील व्रत का पालन किया। घोर परीषह उत्पन्न होने पर भी वह डिगा नहीं। जो निर्मलता पूर्वक शील का पालन करते हैं, वे सब ब्रह्मचारी पुरुष महान् हैं, परन्तु सुदर्शन का चरित्र तो व्याख्यान करने योग्य ही है, क्योंकि उसने घोर परीषहों के सम्मुख अविचल रह ब्रह्मचर्य का पालन किया। उसका चरित्र ऐसा है कि जिसका पतन हो गया हो, वह भी सुने तो ब्रह्मचर्य के प्रति उसके प्रेम की वृद्धि हो और पुनः उसके पालन में तत्पर हो । कायर उसके चरित्र को सुनकर वीर होते हैं और जो शूर हैं, वे और भी अडिग होते हैं।" र कपिल पुरोहित की स्त्री कपिला ने जब प्रपंच रच दासी के द्वारा सुदर्शन को अपने महल में दुला लिया और उससे भोग की प्रार्थना करने लगी तब सुदर्शन की क्या अवस्था हुई, उसका वर्णन स्वामीजी ने इस प्रकार किया है : "कपिला की बात सुनकर और उसके अनुप रूप को देखकर सुदर्शन मन में उदास हो गया। उसका गात्र पसीने से भर गया। शरीर कांपने लगा। वह सोचने लगा-मैं प्रपंच को न समझ. इस प्रकार फंस गया। पर कपिला चाहे कितने ही उपाय करे, मैं अपने शील को खण्डित नहीं करूंगा। यदि मेरी प्रात्मा वश में है. तो मझे १-स्त्री और पुरुष पृ० ४३ । २-वही पृ०४४ ३-वही पृ० ५५ ४-भिक्षुध रत्नाकर (ख०२): सुदर्शन चरित पृ०६३३ Scanned by CamScanner Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ १२६ कोई भी चलित नहीं कर सकता । स्त्री चतुर पुरुष को भी भ्रम में डाल, उसे मूर्ख बना देती है, पर यदि मैं दृढ़ रहूंगा तो यह मेरा तिलमाथ भी बिगाड़ नहीं कर सकती ।" पिण शील न खंडू मांहरो, आ करे अनेक उपाय । जो वश छे म्हारी आत्मा, तो न सके कोइ चलाय ॥ चतुर नें भोल मूर्ख करे, इसी नारी नीं जात । जो हूँ इण आगे सेंठो रहूँ, तो म्हारो बिगडे नहीं तिलमात ॥ इस समय की सुदर्शन की दृढ़ता पर टिप्पण करते हुए स्वामीजी लिखते हैं: "सम्यक् दृष्टि कष्ट के समय भी सम्यक् ही सोचता है । वह कोटों को फूल की तरह ग्रहण करता है। जैसे-जैसे परीषह अधिक बढ़ते हैं, वह अधिकाधिक वैराग्य के साथ व्रत को प्रभङ्ग रख उसका पालन करता है। घर वही है, जो कष्ट पड़ने पर भाग न छूटे जो कायर क्लीब होते हैं, वे ही कष्ट के समय भाग छूटते हैं। जो बेरी के सम्मुख भाग छूटता है, उसका कभी भला नहीं होता। जो पैर थाम कर मुकाबिला करता है, उसे कोई परास्त नहीं कर सकता । " समदृष्टि बेबे समों, पाले व्रत अभंग । ज्यूं ज्यूं परीषह ऊपजे, तिम तिम घडते रंग ॥ कष्ट पड्या कायम रहे, ते साचेला सूर । को कार क्लीव हुवे, ते भांग हुवे चकचूर ॥ वेरी तो पाछे पड्या, जब भागां भलो न होय । Key क पग रोपी साह्यो, मंडे, त्यांसूं गंज न सके कोय ॥ कपिला सुदर्शन के शरीर से लिपट गई । सुदर्शन की वृत्तियाँ और भी अन्तर्मुख हो गई। उसने नियम लिया - यदि मैं इस उपसर्ग से बच गया तो मुझे यावज्जीवन के लिए ब्रह्मचर्य का प्रत्याख्यान है : जो इण उपसर्ग थी ऊबरू, व्रत रहे कुशले खेम । तो शील छे म्हारे सर्वथा, जावजीव लगे नेम ॥ सुदर्शन ने स्त्री- परीषह के समय इस तरह अपना मन दृढ़ कर लिया। सुदर्शन की उस समय की दृढ़ता को स्वामीजी ने इस प्रकार प्रकट किया है : BRE Put. मन दृढ़ कर लियो आपणो, शील कियो अंगीकार । कपिला नारी तो ज्यांही रही, ती मनोरमां नार ॥ अरिहंत सिद्ध साखे करी, पहरो शील सन्नाह मन वच काया वस किया, तिणरे स्यांनी परवाह ॥ आतो कपिला छे बापडी, मल मूत्र नीं भंडार । Cham ford fo पीट most T जो आप उभी रहे अवच्रा, तोही शील न खंडू लिगार ॥ सुदर्शन ने अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की शरण ली और कपिला की तो बात दूर, यावज्जीवन के लिए ब्रह्मचर्य धारण कर, अपनी पत्नी मनोरमा तक के साथ विषय सेवन का त्याग कर दिया। सुदर्शन ने उस अनुकूल परीषह के समय भी भोग को विष के समान समझा । आखिर में कपिला ने निराश हो सुदर्शन को अपने पाश से मुक्त किया और सुदर्शन अपने घर वापिस आया। उसने नियम लिया" आज के बाद मैं पर घर में प्रवेश नहीं करूंगा : " कीम कदा वले मिले जी एहवी, तो छूटीजे केम । तिणसूं पर घर जावा तणो, आज पछे छे नेम ॥ 38208 का जब पापीवाहन राजा की पटरानी अभया ने पंडिता भाव द्वारा सुदर्शन को ध्यानावस्था में महल में मंगाया, तब सुदर्शन के लिए-फिर एक भयानक परीषह उत्पन्न हुआ। अभया सुदर्शन से भोग की प्रार्थना करने लगी । सुदर्शन ने ध्यान पूरा कर आँखें खोलीं तो सारा दृश्य देखकर Scanned by CamScanner Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका लगा। सुदर्शन ने अपने मन को मेरू की तरह दृढ़ कर लिया : ओ उपसर्ग मोटो उपनों, मन गमतो परीसोजाण । जब सेठ मन गाढो कियो, जाणेक मेरू समान ॥ स्वामीजी कहते हैं : गमतो परीसो अस्त्री तणो, सहिवो घणो दलभ । दृढ़ परिणामी पुरुष नें, सहिवो घणो सुलभ ॥ गमता अण गमता बेह, उपसर्ग उपजे आय। जब शर पुरुष साया मंडे कायर भागी जाय। सुदर्शन इस घोर अनुकूल परीषह के समय शील के गुणों का चिन्तन करने लगा : सेठ इसो मन चितवे, शील व्रत हो ब्रता में प्रधान । तिण शील थकी सुद्ध गति मिले, अनुक्रमें हो पामें मुगत निधान ॥ ग्रह नक्षत्र तारांना वृंद में, घणो सोभे हो मोटो जिम चंद। रत्रां में वैडूर्य मोटको, फूलां में हो मोटो फूल अरविद । - ज्यूं व्रतां में शील व्रत बडो॥ रत्नां रा आगर में समुद्र बडो, आभूषण में हो माथा रो मुकुट । श्रीमा वस्त्र मांहे क्षोम वस्त्र मोटको, नदियां मांहें हो सीता नो पट । इत्यादि शील व्रत में ओपमा, सूत्र में हो जिन भाषी बतीस । ए.'ब्रत चोखे चित्त पालसी, तिण री करणी हो जाणो विश्वावीस ॥ शील थकी संकट टले, शील थकी शीतल हुवे आग। शील थी सर्प न आभडे, शील थकी हो वाधे जस सोभाग॥ यशील थी विष अमृत हुवे, शील सेती हो देवे समुद्र थाग। मा वाघ सिंघ ढले शील थी, शील पाले हो तेहनो मोटो भाग ॥ शील थकी अनेक जीव उद्धरघा, कहितां कहितां हो त्यांरी नावें पारा at: इण शील थकी चका तिका, जाय पडिया हो नरक निगोद मझार ॥ इस तरह शील की महिमा का चिन्तन करते हुए सुदर्शन ने प्रतिज्ञा की :- "अभया जैसी कितनी ही स्त्रियां क्यों न मा जायं, मैं शील से अणु मात्र भी दूर नहीं होऊंगा। इन्द्र की अप्सरा भी क्यों न आये, मैं धर्म की टेक नहीं छोड़ सकता। यदि मेरा इस उपसर्ग से उद्धार हुमा तो मैं घर छोड़ कर श्रामण्य ग्रहण करूंगा-"इण उपसर्ग थी हूं बचूं, तो लेतूं संजम भार।" . प्रभया और कामातुर हो गयी। सुदर्शन मौन ध्यान में लीन रहा। अभया ने सुदर्शन को गात्र-स्पर्श से जकड़ लिया, पर सुदर्शन जरा भी डिगा नहीं। उसकी मनःस्थिति ठीक वैसी ही रही, जैसे मानो दो वर्ष के बच्चे को माता ने स्पर्श किया हो : सेठ ने अंग सूं भीडियो, पिण डिग्यो नहीं तिलमात । दोय मास तणा बालक भणी, जाणेक फरस्यो मात ॥ सेठ सुदर्शन सोचने लगा : हिवे सेठ करे रे विचार, एकाई होय जासी कामणी जी। ए आपेइ जासी हार, ए काई करेला माहरो भामणी जी ॥ vi wity ए आय बणी छे मोय, ते कायर हुवां किम छुटिये जी। होणहार जिम होय, मो अडिग में कहो किम लंटिये जी ॥ eringemeraniamine aanemast Scanned by CamScanner Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ शील की नव बाड़, ए प्रत्यक्ष काम में भोग, मोने लागे छे वमिया आहार सारखा जी | . ... ते है किम करूं भोग संजोग, मोन मुगत सुखां री आइ पारिखा जी ॥ जो हूं करूं राणी सूं प्रीत, तो हूँ कर्म बांधे जाऊ कुगत में जी। चिहुँ गत में होऊ फजीत, घणो भ्रमण करूं इण जगत में जी ॥ मोन मरणो छे एक बार, आगल पाछल मो भणी जी। मुख दुःख होसी कर्म लार, तो सेंठो रहूं न चूकं अणी जी ॥ unctre - आ मल मूत्र तणो भंडार, कूड कपट तणी कोथली जी। animals ... इण में सार नहीं थे लिगार, तो हूँ किण विध पा{ इणसूं रली जी ॥ अनेक मिले अपछरा आण, रूप करे रलियामणो जी। त्यांने पिण जाणू जहर समान, म्हारे मुगत नगर में जावणो जी ॥ इस तरह विचार, सदर्शन ने मन को स्थिर कर लिया। उसके मन में काम जरा भी व्याप्त नहीं हुआ। रानी ने सुर्दशन को चलित करने के लिए अनेक मोहक बातें कहीं पर वे सब उसी तरह अनसुनी हुई जैसे कोई पाषाण की मूर्ति के सामने बोल रहा हो-"जाने पाषाण की मूरत आगे, कहिवा लागी वाणी जी।" frofestio n s इस तरह सारी रात बीत गयी। प्रभात होने पर रानी बाहर पायी और उसने जोर-जोर से चिल्लाकर सबको इकट्ठा कर लिया और सुदर्शन पर दुश्चरिता का कलंक लगा दिया। राजा ने सुदर्शन को गिरफ्तार करा लिया और शूली पर चढ़ाने की आज्ञा दे दी। शूली पर चढाने के लिए सेठ सुदर्शन को शूली के नीचे खड़ाकर दिया गया। वह विचार ने लगा : aria सेठ सुदर्शन करे छे विचारणा रे, उभों सूली रे हेठ कर्म तणी गति बांकडी रे, ते भोगवणी मुझ नेठ ॥ किहां अभिया राणी राजा तणी रे, किहां है सुदर्शन सेठ । sex ante: किहा हूँ मसाण भूमिका मांहीं रह्यो रे, किहां है आय उभो सूली हेठ ॥ इण चंपा नगरी में है।मोटको रे, ते सुदर्शन सेठ । र म्हारा बांधा पाप कर्म उदे हुवा रे, तिणसू आय उभों सूली हेठ ॥ कर्म सं बलियो जग में को नहीं रे, विन भुगत्यां मुगत न जाय जे जे कर्म बांध्या इण जीवडे रे, ते अवश्य उदे हुवे आय जी anita TET ज्यू में पिण कर्म बांध्या भवापाछले रे, ते उदे हुवा छे आय । TET RIN K E TERIES HERE पिण याद न आवे कर्म किया तिके रे, एहवो ग्यान नहीं मो माया के में चाडा खाधी चौतरे रे, दिया अणहुंता आल माई -मका ते आल अणहंतो आयो शिर मांहरे रे, निज अवगुण रह्यो रे निहाल के में दोपद चोपद छेदिया रे, के छेदी वनराय । के भात पाणी किणरा में रूधिया रे, के में दीधी त्यांने अंतराय ॥ के में साधु सती संतापिया रे, के में दिया कुपात्र दान | taima के में थील भांग्या निज पारका रे, के में साधां रो कियो अपमान ॥ तीर्थङ्कर चक्रवर्ति छे महा बली रे, बासुदेव ने बलदेव । . त्यांरे पिण अशुभ कर्म उदे हुवा रे, जब भुगत लिया स्वयमेव ॥ .. . मोटी मोटी सतियां थी तेहमें रे, बिखा पड्या छे आय। बले बडा बडा ऋषिश्वर त्यां भणी रे, कष्ट पड्यो त्यां मांय ॥ Scanned by CamScanner Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूविका समें परिणाम परीक्षा सही है, पौड़ता मुक्त महार हा साधु सती हुवा त्यां अणी रे, सेठ याद किया तिण बार ॥ जेहनें जेहवा कर्मज संचिया रे, तेहवा उदे हुवे आय । ८ जिग बोयो पेड़ बंबू को रे, ते अंप कियां थी खाय ॥ तो हूँ कर्म भुगतूं छू मांदरा रे, ते में बांध्या छे स्वयमेव । आम मान להשקיע יות - ****** ६२६ בתוך החברה ורוויץ עד מהווה Pr तो हूँ आमण दुमण होऊ किण कारणे रे, हिये किसो करणो अहमेव ॥ सुदर्शन ने सोचा—“कर्म की गति बड़ी टेढ़ी होती है । कर्मों से बलवान जग में और कोई नहीं है। उन्हें भोगे बिना उनसे छुटकारा नहीं होता। मेरे पिछले कर्मों का उदय हुआा है। मैंने किसी पिछले भव में किसी की चुगली की होगी, किसी पर कलङ्क लगाया होगा, द्विपदचतुष्पदों का छेदन किया होगा श्रथवा वनस्पतिकाय का भेदन अथवा किसी के भात- पानी का विच्छेद किया होगा। मैंने साधु-सन्तों को सन्ताप दिवा होगा या नुपादान दिया होगा। मैंने अपना या दूसरे का शील भंग किया होगा अथवा सामग्री का प्रपमान किया होगा। इसीलिए मैं आज शूली पर चढ़ाया जा रहा हूँ। बड़े-बड़े ऋषि महर्षियों को भी किये का फल भोगना पड़ता है। उन्होंने समभाव से कष्टों को किया। मैं भी उदय में धाये हुए कर्मों को समभाव से लूं। मैंने बबूज बोया तो ग्राम कैसे फलेगा अपने बचे हुए कर्म स्वयं को ही भोगने पड़ते हैं। फिर मैं दुःख क्यों करूं ?" safa Sv sal देवताओं ने मूली को सिहासन के रूप में परिणत कर दिया। सुदर्शन के पीस की महिमा चारों ओर फैल गयी। राजा ने सुदर्शन से अपने अपराध की क्षमा चाही श्रौर बोले : "यह सारा राज्य आपको अर्पित है । आप राज्य करें।" सुदर्शन बोला: "मैंने अभिग्रह लिया या कि यदि मैं उपसर्ग से बच गया तो संयम ग्रहण करूंगा। मेरा उपसर्ग दूर हुमा, भतः धय में संयम ग्रहण करूंगा। प्रभया रानी धीर पंडिता चाय से मैं क्षमत-सामना करता हूँ मुझ से कोई अपराध हुधा हो तो वे जमा करें।" राजा बोले " इन दुष्टाओं ने बड़ा अकार्य किया । । क्षमा : और पंडिता धाय ने तो मेरा उपकार ही किया है। इन्हीं के कारण "बुराई के बदले मलाई करनेवाले जगत में विरले ही होते हैं—एहवा मैं ही इनके प्राण हरण करूंगा।" सुदर्शन बोला: "अभया रानी मेरी कीति हो रही है। अतः प्राप इनकी पात न करें-" राजा बोला ऊपर गुण करे तो विरता से संसार हो साल " : “आज मेरा मनोरथ पूरा हुआ है। इसके बाद सुदर्शन संयम लेने की बाट जोहते हुये रहने लगा। उसकी भावनाएं इस प्रकार रहीं मन-चिन्तित कार्य सिद्ध हुआ है। शील से मेरी लाज बची। मैंने चारों गतियों में भ्रमण किया। कभी जन्म मिला है। जैन धर्म पाया है। बारह प्रकार के तपों का सेवन करूंगा। संशय दूर नहीं हुआ। अब मुझे मनुष्यइस धमूल्य अवसर को पाकर मुझे धर्म का पालन करना चाहिए। मैं पाँचों महावतों को प्रण करूंगा। साधुनों के यहाँ प्राते ही संसार को छोड़ दीक्षा लूंगा ।" मनोरथ पूरो भयो, छ्ण प्राणी रे मन चितव्या सरिया काज, आज 1 प्राणी रे ॥ जग में जस ब्रध्यो घणो, सुण प्राणी रे | म्हारी रही शील सं लाज, आज सुण प्राणी रे ॥ संजम पाले से जीवडा, पाम्यों नहीं भवपार कबटुक नरक निगोद में, कबहु विच मकार कबक इष्ट संजोगियो, कबटुक इष्ट वियोग इस रीते भमत धक, मेयो नहीं भ्रमजाल धर्मता जल करो, अब ऐसो अवसर पाय । धर्म पांच महाबत आदर्श छोडी परियह तास इस भावनां भावतो, मन आयो अति वेराग 1 जामण मरण करतो थको, भमियो ए संसार | कंपडुक घर पर देवता, इम रीते भन्यो संसार ॥ कबहुक भोग भोगल्या, कंदुक अति घणो रोग ॥ अवे अपूर्व पामियो, श्री जिन धर्म रसाछविणा मानवी, गया ते जन्म रामाय ॥.. बारे भेदे तप तयूं, ज्यूं पाहूं शिवपुर बास ॥ जो इहां साधु पधारसी, तो कर संसार नो त्याग आर इसके कुछ दिनों बाद अनेक साधुनों के परिवार के साथ धर्मघोष स्थविर पधारे। सुदर्शन ने उनके हाथ से दीक्षा ग्रहण की। सुदर्शन बड़े तपस्वी मुनि' हुए। गुरु आज्ञा से वे अकेले विहार करने लगे । एक बार विहार करते-करते मुनि सुदर्शन पाटलीपुर नगर पधारे और उसके बाहर बनखण्ड उद्यान में निर्मल ध्यान ध्याते हुए रहने लगे। उस नगर में देवदता वेश्या रहती थी वह उनके रूप पर मोहित हो गई। एक बार मुनि गोचरी करते हुए देवदत्ता के मकान के द्वार Scanned by CamScanner Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० शील की नव बाइ लिए घर के अन्दर गये। में परोस मुनिवर के सम्मुख विचार कर वे वापिस लौट पर मा पहुंचे। वेश्या ने श्राविका का रूप बनाया और मुनि सुदर्शन से गोचरी की अर्ज करने लगी। मुनि गोचरी के लिए पर है वेश्या बोली-"पाप कुछ विश्राम करें। खेद को दूर कर एकांत में बैठ भोजन करें।" यह कह पट्रस भोजन थाल में परोस मनि घर दिया। उस थाल को देखकर साधु सुदर्शन समझ गये-यह श्राविका नहीं, यह तो कोई कुपात्र नारी है। यह विचार कर परन्तु वेश्या ने सारे द्वार बंद कर दिये थे, जिससे बाहर न जा सके और वापिस चौक में आ गये । अब देवदत्ता ने श्राविक पिस चौक में आ गये । अब देवदत्ता ने श्राविका का वेष छोड़ दिया और सोलह शृङ्गार कर उपस्थित हुई और मुनि को भोग भोगने के लिए प्रार्थना करने लगी। मुनि अंश मात्र भी विचलित नहीं हुए। मुनि को दोनों हाथों से पकड़, अपने महल में ले जा, अपनी शय्या पर बिठा दिया। इस तरह तीन दिन बीत गये, पर मुनि अपने ध्यान लित नहीं हुए। मुनि की इस समय की चित्त-स्थिति को स्वामीजी ने इस प्रकार चित्रित किया है : जेहवो गोलो मेणको, ताप लागां गल जाय । TEST ज्य कायर पुरुष नारी कने, तरत डिगजावे ताय॥ जसो गोलो गार को, ज्यू धमे ज्यू लाल।। ज्यं सूर पुरुष स्त्री कनें, अडिग रहे व्रत झाल ॥S a mad. गार गोला री दीधी ओपमा, साधु सुदर्शन में जिनराय । FOR जिम जिम उपसर्ग उपजे, तिम तिम गाढो थाय ॥ ध्या उपसर्ग उपनो वेश्या तणो. समरयो श्री नवकार । तणो. समरचो श्री नवकार। SEN MAmशियो विजिया पारा . तीन रात दिन लगे, खम्यो धरि पार तीन रात दिन लगे, खम्यो घोर परिपड जाण|MITR317 FE rat Time मा सेंटो यो तिणरा जिनवर किया बखाण || 17 जिस प्रकार मोम का गोला ताप लगने से गल जाता है, उसी प्रकार कायर पुरुष नारी के समीप तुरंत डिग जाता है। जिस प्रकार गार का गोला ज्यों-ज्यों तपाया जाता है वैसे-वैसे लाल होता जाता है, वैसे ही शूर पुरुष स्त्री के समीप अडिग रहता है। भगवान ने सुदर्शन को गार के गोले की उपमा दी है । जसे-जैसे उपसर्ग होते गये शील के प्रति उसकी भावना गाढ़ होती गयी। जब यह वेश्या का उपसर्ग उत्पन्न हमा तो उसने नमस्कार मंत्र का स्मरण किया', चारों शरण ग्रहण किये और सागारी अनशन कर दिया। सुदर्शन ने इस तरह तीन दिन तक परिषद स 357 सुदर्शन को अडिग देख कर वेश्या ने उन्हें तीन दिन के बाद डंडे मार कर घर के बाहर निकाल दिया। मे ले मगर प्रब मुनि ने विचार किया-मैं बहुत बड़े उपसर्ग से बचा हूं। उचित है कि अब में संथारा करूं। जिस तरह वीर पुरुषं संग्राम के मंच पर जाने के लिए आगे-मागे बढ़ता जाता है, उसी तरह मुनि ने श्मशान में जाकर संथारा ठा दिया। इधर अभया रानी मर कर व्यंतरी हुई। उसने मुनि सुदर्शन को देखकर उन्हें डिगाने का विचार किया। वह सोलह शृङ्गार कर उनके सम्मुख उपस्थित हुई, बतीस प्रकार के नाटक दिखाए । और भोग-सेवन की प्रार्थना करने लगी। मुनि शुभ घ्यान घ्याते रहे-"निश्चल मन ने थिर कखो, जाणेक मेरु समान ।" जब मुनि विचलित नहीं हुए तब उसने विकराल रूप बना उष्ण परिषह दिया। मुनि ने तब भी समताभाव रखा। अब उसने पक्षिणी का रूप बनाया और चौच में ठण्डा जल भर-भर कर मुनि पर छिड़कने लगी। इस शीत परिषह में भी मुनि ने सम परिणाम रखे । अब देवता प्रगट हुए। व्यंतरी को भगा कर उपसर्ग दूर किया। nिtiy सुदर्शन भनगार चढ़ते हुए वैराग्य से शुक्ल ध्यान में प्रासीन थे। न वे व्यंतरी पर कुपित हुए और न देवताओं पर प्रसन्न । वे रागद्वेष से दूर रह समभाव में अवस्थित रहे। मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ और उसी रात्रि में मोक्ष पहुंचे। उपर्यक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सुदर्शन का जीवन किस तरह उतरोत्तर घोर संघर्ष का जीवन रहा। उनका नाम प्राज भी प्रश्न भी प्रमुख ब्रह्मचारियों में लिया जाता है। ब्रह्मचर्य के मार्ग में साधक को किस तरह तीव्र से तीव्र तर भावना रखनी चाहिए, उसका आदर्श इस अद्भुत चरित्र से प्राप्त होता है। १-जैन-धर्म में नमस्कार-मंत्र को किस तरह रक्षा कवच माना गया है, यह इससे प्रकट है। S Scanned by CamScanner Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका ३० - बाल ब्रह्मचारिणी ब्राह्मी और सुन्दरी हम पहले यह बता चुके हैं कि जैन धर्म में पुरुष और स्त्री दोनों को समानस्य से ब्रह्मचर्य पालन का उपदेश दिया गया है। इस उपदेश का स्थायी प्रभाव यह हुआ कि जैन इतिहास के हर युग में ऐसी प्रादर्श स्त्रियों देखी जाती है, जिन्होंने अतुलित मात्मबल के साथ भाजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और माध्यात्मिक क्षेत्र में पुरुषों के समान ही दीस हुई। जैन इतिहास के अनुसार ऋषभदेवजी जैनों के आादि तीर्थंकर है। उनके ब्राह्मी और सुन्दरी दो पुत्रियाँ थीं और दोनों ही ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया । महात्मा गांधी ने एक पत्र में लिखा था- .........हमारी स्त्रियों को पत्नी बनना श्राता है, बहन बनना नहीं श्राता । यह मेरे खयाल से तो स्वयंसिद्ध है । जगत् की बहन बनने का गुण मुश्किल से श्राता बहन बनने सच्ची में बड़ी त्यागवृत्ति की जरूरत है। जो पत्नी बनती है, वह पूरी तरह बहन बन ही नहीं सकती । सारी दुनिया की बहन हो सकती है। पत्नी अपने को एक पुरुष के हवाले कर देती है । बहन है । जगत् की बहन तो वही बन सकती है, जिसमें ब्रह्मचर्य स्वाभाविक बन गया हो और सेवाभाव बहुत ऊंचे दर्जे तक पहुँच गया हो ।" ब्राह्मी और सुन्दरी का जीवन महात्मा गांधी के विचारों के अनुसार ही स्वाभाविक ब्रह्मचर्य का जीवन था और दोनों जगत्-भर की सेवा परायण बहिनें थीं। प्रिया वि रूपमदेवजी के दो रानियाँ थीं, एक सुमंगला और दूसरी सुनंदा सुमंगला के ब्राह्मी और भरत यमजरूप से उत्पन्न हुए और इसी तरह सुनंदा के सुंदरी और बाहुबल सुमंगला के १८ पुत्र और हुए। इस तरह ब्राह्मी के ९९ सगे भाई थे और सुंदरी के केवल एक बाहुबल । दोनों बहिनों ने ६४ कलाएँ सीखीं। दोनों ही उत्तम स्त्री के बतीस लक्षणों से सुशोभित थीं। ब्राह्मी ने अठारह लिपी सीखी। दोनों ही बहिनें बड़ी शीलवती थीं। उनके मन में कभी विषय वासना श्राती ही नहीं थी। दोनों बहिनों ने अपने पिता ऋषभदेवजी से विनती की : "शील प्रिय है। हमारी सगाई न करें हम किसी की स्त्री कहलाना पसन्द नहीं करतीं हमें सांसारिक प्रियतम की चाह नहीं।" मदेवजी बोले : "तुम दोनों की करनी में कोई कमी नहीं। अच्छा है कि तुम लोगों ने इस मोह जाल को छिन्न-भिन्न कर दिया ।" पुत्रियों की इच्छा से उन्होंने दोनों बहिनों का विवाह नहीं किया। बाद में ऋषभदेवजी ने प्रज्या ले ली और प्रथम तीपंकर के रूप में प्रसिद्ध हुए। "ब्राह्मी को मैं उत्तम स्त्री-रख ब्राह्मी अत्यन्त रूपवती थी। भरतजी अपनी बहिन के प्रति मोहित हो गए। उन्होंने विचार किया के रूप में स्थापित करूं धीर धन्तःपुर में उसे प्रमुख महारानी रूप में रखूं।" ब्राह्मी की इच्छा दीक्षा लेने की थी। उधर भरत उससे प्रेम करते थे, अतः दीक्षा की अनुमति नहीं देते थे । मालूम हुई तो उसने अपने रूप की हानि करने के लिए दो-दो दिन के उपवास की तपस्या प्रारंभ जब ब्राह्मी को भरत के मोह की बात कर दी। पारण में जल के साथ एक लूखा प्रन्न लेती । भरत का मोह नहीं छूटा । ब्राह्मी भी सुदीर्घकाल तक इसी तरह तपस्या करती रही। इस तपस्या से उसका फूल-सा शरीर मुरझा गया। ब्राह्मी के शरीर को इस प्रकार क्षीण देख भरत का मोह दूर हुआ। उसने ममत्व छोड़ ब्राह्मी को दीक्षा की अनुमति दी। ब्राह्मी और सुंदरी दोनों बहिनें दीक्षित हुई और अपनी साधना से दोनों ने मुक्ति प्राप्त की। स्वामीजी ने दोनों बहिनों के चरित्र को इस प्रकार उपस्थित किया है" : रिषभ राजा रे राणी दोय हुई, सुमंगला सुनंदा जूई ए जूई । दोन दोष बेटी जाई, माझी में सुंदरी बाई ज्यां पूरव भव कीनी करणी, बेहूं री काया कोमल कंचन वरणी । वले रूप में कमी नहीं कांई ॥ ते स्वारथ सिद्ध थी चव आई, भरत बाहुबल रे जोडे जाई । बेई बायां रे वा सो भाई भरत बाहुबल दोय मोटा बडे भाई अहाणू डुवा छोटा। चित्त में घणी ज्यांरे चतुराई ॥ ब्राह्मी रे हुवा निनाणू वीरा, जामण जाया अमोलक हीरा । - भरत चक्रवर्ति नीं पदवी पाई ॥ १ - महादेव भाभी की डायरी (पहला भाग) पृ० ३८३ -मि- पन्थ खाकर (ख) भरत चरिता १६, १०४५०-५१ १३१. Ear Sy Hin Scanned by CamScanner Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ 14 मालपारि सुन्दरी रे एक जामण जणियो, बाहुबल कला बहोत्तर भणियो। : .. ..........पछे एनंदा री फूख न खुली काई॥ चतुर वायां सीखी चोसठ कला, गुण ज्यांमें पढिया सगला । त्योरी अकल में कमी नहीं काई ॥ यह बायां हां यतीस लखणी, अठारे लिपि एक ब्राह्मी भणी। : - श्री आदि जिनेश्वर सीखाई ॥ My nangita एक सीलरोस्वाद वस रह्यो मन में, कदे विषेरी वात. न तेवड़ी तन में। छोड दीधी ममता सुमता आई ॥ . येह बेटी वीनवे यापजी आगे, म्हाने सील रो स्वाद वल्लभ लागे। - म्हारी मत करजो कोई सगाई॥ . म्हें तो नारी किणरी नहीं बाजा, म्हें तो सासरारोनाम लेती लाजा। म्हारे पीतम री परवाह नहीं कांइ॥ बापजी बोल्या मुणो बेटी, थेंता मोह जाल ममता मेटी। याना - Memyा थारी करणी में कसर नहीं काई ॥ * भरत नहीं लेवण देवे दीक्षा, ब्राह्मी सील तणी मांडी रक्षा । .. रूप देखी भरत रे वंछा आई॥ :mirmiss सती बेले वेले पारणो कीनों, एक लुखो अन पाणी में लीनों। शाम फूल ज्यूं काया पडी कुमलाई ॥ .. भरत री विपेर जाणी मनसा, तिणसं ब्राह्मी झाली तपसा । साठ हजार वरस री गिणती आई ॥ .... भरत छोड दीनी मन री ममता, सती रो सरीर देखीनें आइ समता । पछे दीपती दीक्षा दराई। . बेई बायां रे बेराग घणो, बेहूं कुमारी किन्या लीधो साधपणो। बेई जिनमारग में दीपाई ॥ वेई रिषभदेव नी हुई चेली. प्रभ बाइबल पासे मेली। सती समझायनें पाठी आई ine . मामी और मुन्दरी के जीवन की एक अनोखी घटना का प्रसंग यहाँ उल्लिखित है। भरत को छोड़ कर सुमंगला के ६८ पुत्र तीर्थकर पभदेव के पास दीक्षित हो गये । बाहुबल भी दीक्षित हो गये। बाहुबल वय में बड़े थे पर, दीक्षा में छोटे थे। दीक्षा के बाद वे घोर तप में प्रवृत्त हए । गणधरों ने अपभदेव से पूछा-"बाहुबल कहाँ हैं ?" उन्होंने उत्तर दिया- 'वह घोर तपस्या में रत है। परन्तु वह अपने से दीक्षा में बड़े पर आयु में छोटे ६८ भाइयों को अभिमानवश वंदना नहीं करता, अतः उसे केवलज्ञान उत्पन्न नहीं होता।" यह सुनकर ब्राह्मी तथा सुन्दरी दोनों बहिन ऋषभदेव के पास आई और बोली-"यदि आप आज्ञा दें तो हम बाहबल को समझा कर मार्ग में लावें।" अपभदेव बोले : "तुम्हें सुख हो वैसा करो। पर तुम लोगों को वह खोजने पर नहीं मिलेगा। अपने शब्द. उसे सुनाना।" अब दोनों बहिने बाहुबल को समझाने चलीं। जङ्गल में जाकर वे गाने लगी: थें राज रमण रिध परहरी, वले · पुत्र त्रिया अनेको रे । पिण गज नहि छटो ताहरो, तूं मन मांहे आण विवेको रे॥ वीरा म्हारा गंज थकी उतरो, गज चढियां केवल न होयो रे। आपो खोजो आपरो, तो तं केवल जोयो रे॥ यह सुन कर बाहुबल सोचने लगे : "मैं कौन से हाथी पर चढ़ा हुआ हूँ कि ये मुझे उससे उतरने के लिए कह रही हैं? मैं सब का त्याग कर चुका । मेरे पास हाथी कहाँ है?". फिर उन्होंने सोचा-"ठीक, मैं पार्थिव हाथी, घोड़े, रथों का तो त्याग कर चुका पर अभिमान रूपी हाथी पर अभी भी आरूढ हूँ, जो अपने से दीक्षा में बड़े-छोटे भाइयों की वंदना नहीं करता । ऐसा सोच वे विनम्रबन गये और भाई-मुनियों को पंदना करने के लिए पैर उठाया। जैसे ही उन्होंने कदम आगे रखा, उन्हें केवलज्ञान हो गया। माझी और सुन्दरी वापिस लौटीं। इसी घटना का संकेत इस गाथा में है। wi -. Scanned by CamScanner Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका निरी SMinistram mom सगली सांधवियों में हरे सिरे, स्योरा वचन अमोलक रख झरे। REVRATI STREATी त्यारी बाली सगला ने सुखदाई ॥ mins वरसो लगे चारिश पाली, त्या दोषण दर दिया टाली। 10 .. त्यांचा जीवा ने दिया समझाई । S RPF घेई बायां री जगती जोडी, येई मगत गई आठ कर्म तोडी। चोरासी लाख पूरव आउ पाई ॥ 1. जैन धर्म में स्त्रियाँ भी किस प्रकार पाजीवन ब्रह्मचारिणी रह सकती थीं, उसका यह नमूना है । भरत के मोह को दूर करने के लिए ग्राही की तपस्या एक मभिनव प्रयोग है। बाद के तीर्थंकरों के युग में भी ऐसे चरित्र-प्राप्त हैं । माज भी जैन संघ में ब्रह्मचारिणी साध्वियां देखी । S NORINE 15. ३१-भावदेव और नागला की कि वे की . जैन धर्म में ऐसी स्त्रियों के अनेक उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने अपने उपदेश से गिरते हुए मनुष्यों को उबारा । राजीमती ने मोहारूढ़ रथनेमि को जो अमूल्य उपदेश दिया, वह परिशिष्ट-क, कथा २० (१०१०२-३) में दिया गया है । साध्वी राजीमती वर्षा में भीगे कपड़ों को उतार कर उन्हें एक गुफा में सूखा रही थी। ऐसे ही समय रथनेमि ने भी गुफा में प्रवेश किया। राजीमती को वहाँ देख उनका मन मोहाच्छन्न हो गया। वे राजिमती से भोग की प्रार्थना करने लगे। राजिमती ने उन्हें फटकारते हुये कहा- भले ही तू रूप में वैश्रवण सदृश हो, और भोगलीला में नलकूबर या साक्षात् इन्द्र, तो भी मैं तेरी इच्छा नहीं करती। अगन्धन कुल में उत्पन्न सर्प जाज्वल्यमान अग्नि में जलकर मरना पसन्द करते हैं, परन्तु वमन किये हुए विष को वापिस पीने की इच्छा नहीं करते। हे कामी ! तू वमन की हुई वस्तु को पीने की इच्छा करता है। इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा'।" "अपनी इन्द्रियों को वश में कर । अपनी मात्माको जीत "-इंदियाई वसे काउं, अप्पाणं उवसंहरे (उत्त०२२.४७),।" रथनेमि पर इसका जो असर पड़ा उसको मागम में इस प्रकार बताया गया है : "राजिमती के संयम की ओर मोड़नेवाले सुभाषित को सुनकर रथनेमि उस तरह धर्म-मार्ग पर मा गये, जिस तरह अंकुश से हाथी पाता है। वे मनगुप्त, वचनगुप्त, कायगुप्त हुए। श्रामण्य का निश्चलतापूर्वक पालन करने लगे। दृढ़वती हुए और अन्त में सर्व कर्मों का क्षय कर अनुत्तर सिद्ध-गति को प्राप्त हुए।" Sair इसी तरह का दूसरा प्रसंग भावदेव और नागला का है। वह नीचे दिया जाता है। भावदेव नागला के पति थे। वे साध हो गये थे, पर बाद में विषय-विमूढ हो पुनः नागला का संग करना चाहते थे। नागला की भी फटकार रही-"चाहे कोई ध्यानी हो, मौनी हो, मुंड हो, बल्कल चीरी हो, तपस्वी हो यदि वह अब्रह्मचर्य की प्रार्थना करता है तो ब्रह्मा होने पर भी वह मुझे नहीं रुचता" नागला ने अपने पर्व पति का पतन स किस प्रकार बचाया, H RAINMMERS ITES .............. १-उत्तराध्ययन २२.४१-४३: जिमि स्वेण संमणो, ललिएण नलकूवरो। DApahe1 amazाविनाच्छामि, जहऽसि सक्खं पुरंदरो॥ gs - पक्खंदे जलियं जोई, धूमकेउं दुरासयं। REE नेच्छंति वतयं भोत्तं कुले जाया अंगधणे ॥ थिरत्थु तेऽजसोकामी, जो तं जीवियकारणा। . इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे . २-उत्तराध्ययन २२.४८- ५० T ETT E .. ! ३ उपदेशमाला पू. १३५ : m e mand .. . रह जइ ठाणी जइ मोगी, जइ मुंडी वक्कली तपस्सी वा। पस्थितो बंभावि न रोचए मझ d i .. indinese Scanned by CamScanner Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ शील की नव-बाड़ भवदेव और भावदेव दोनों एक सम्पन्न परिवार की सन्तान थे। वह परिवार सम्पन्न तो था ही, साथ ही साथ धर्मप्रिय भी था। मातापिता सभी धर्मप्रिय थे। दादी तो उन सबसे दो कदम आगे थी। भवदेव धर्माभिरुचि की पराकाष्ठा पर पहुंच गया। उसने दीक्षा ले ली। संन्यासी जीवन बिताने लगा। एक दिन वह अपने गुरु से बोला-"मैं अपने गांव जाना चाहता हूं।" गुरु ने पूछा "क्यों ?" प्रत्युत्तर मिला "मैं अपना कल्याण तो करता ही हूँ। चाहता हूं, मेरा भाई भी स्वकल्याण करे।" गुरु ने प्राज्ञा देते हुए कहा-"अपने संयम का खयाल रखना।" भवदेव गांव आये। इच्छा लेकर पाये-"मैं जैसा आत्मिक सुख पा रहा हूँ, वैसा ही मेरा भाई भी पाये।" गांव पाने पर मालूम हुमा कि भाई आज ही शादी करके आया है। भावदेव बड़ी खुशी से भ्रात-मुनि के दर्शन करने पाया। मुनि ने पूछा-"शादी कर ली।" भावदेव बोला-"हाँ।" मुनि ने कहा- “फंस गया जाल में । बंध गया बंधन में । अब भी छूट, सांसारिक सुखों में कुछ नहीं है। अपना कल्याण कर, प्रात्म-रमण कर।" भवदेव ने संसार की अनित्यता बतलाई। कुछ वैराग्य ने और कुछ बड़े भाई के संकोच ने 'हो' भरा दी। माता ने सहर्ण अनुमति दे दी। नव विवाहिता बहू से माता ने अनुमति के लिए कहा। उसने भी हाँ भरते हये कहा-"यदि वे दीक्षा ले तो मेरी सहर्ष प्राज्ञा है। मेरा विचार दीक्षा का नहीं है। मैं धाविका-धर्म का पालन करूंगी। आप उन्हें देख लेना। बाद में साधुपन न पला तो घर में जगह नहीं है। मुझसे उनका कोई सरोकार नही रहेगा।" माता बोली-"बहू, ऐसे क्यों बोलती हो ? एक भाई साधु है ही; वह अच्छी तरह साधुपन पालता है। यह भी पाल लेगा।" बहू ने कहा-"पाल लेंगे तो ठीक ही है।" . भावदेव दीक्षित हो गया। दोनों भ्रातृ-मुनि गुरु के पास पाये। भावदेव साधु-जीवन बिताने लगे। किसी तरह की गलती नहीं करते। भाई का संकोच था। पर साधुपन का रंग उनकी रग-रग में जमा नहीं, रमा नहीं। वे सोचते-"मैं कहाँ आ गया, कब गांव जाऊँगा।" विकार उत्पन्न हुमा, पर भाई का संकोच था। प्रतिज्ञा की-भाई के जीते-जी घर नहीं जाऊंगा, साघु ही रहूंगा। एक दिन एक ज्योतिषी आया। भावदेव पूछ बैठा-"मुझे भाई का कितना सुख है ?" ज्योतिषी ने बताया-"बहुत वर्ष बाकी है। भावदेव के मन में पाया यहाँ तो एक-एक क्षण वर्ष की तरह बीत रहे हैं और उधर ज्योतिषी कहता है-बहुत वर्ष बाकी हैं । क्या किया जाय ? कब भाई मरे, कब गांव जाऊँ ? उनके रहते भला कैसे जाऊँ? पूरे बारह वर्ष बीत गये। भाई को बीमारी ने आ घेरा; मुनि भवदेव स्वर्गगामी हो गये। अब भावदेव को रोकनेवाला कौन था? शर्म किस की थी ? बहुत दिनों की पाशा पूर्ण हुई और उसने सुख की सांस ली। सुबह होने को था। लोग मृत शरीर का जलूस निकालने के कार्यक्रम में व्यस्त थे। भावदेव अपनी योजना बना रहा था। उसने नवीन वस्त्रों की गठरी बांधी। फटे पुराने धर्मोपकरणों को छोड़ा; पर साधु-वेष नहीं छोड़ा। सूर्योदय से पूर्व ही उसने यात्रा का श्री गणेश कर ग्राम का रास्ता लिया। भावदेव विचारों में लीन, चलता जाता था। चलते-चलते ग्राम पाया। "सीधा घर कैसे जाऊं?" यह प्रश्न उसके मन में बार-बार उठता। पाखिर गांव के बाहर एक रमणीक बाग में उसने डेरा डाल दिया। ..संयोग ऐसा मिला, कि नागला (इनकी पत्नी) अपनी सहेलियों के साथ कहीं जा रही थी। उसने मुनि को देखा और उसे बड़ा हर्ष हमा। "धन्य भाग्य जो माज सन्त-दर्शन हुए।" उसने दर्शन करने के लिये सहेलियों से चलने को कहा, पर उन्होंने टाल दिया। नागला अकेली ही दर्शन को चली। दर्शन कर उसने पूरी तीन दफे प्रदक्षिणा दी तथा सुखसाता पूछी। उसके मन में पाया-"मुनि अकेले कसे ? अकेला रहना साघु को नहीं कल्पता। गुरु की प्राज्ञा होगी। साध अकेली स्त्री से बात करते ही नहीं। दूर से ही कह देते हैं—'हमे कल्पता नहीं है।' इन्होंने तो कुछ कहा नहीं।". ... इधर मुनि ने सोचा-"यह औरत पाकर जाती है, क्यों न इसी से सब बात पूछी जाय ? " मुनि ने प्रावाज दी। जवाब मिला"महाराज ! मैं अकेली हूँ।" मुनि ने कहा-"ऐसी क्या बात है, तुम दरवाजे के बाहर खड़ी हो, मैं भीतर हूँ।" ... मुनि ने कहा-"तुम्हारे इस सुग्राम में बड़े-बड़े श्रावक थे। एक प्रसिद्ध श्राविका भी थी, जिसका नाम था रेवती, भावदेव की माता। वह अब जीवित है या नहीं?" नागला ने सोचा-'यह सब नाम तो मेरे परिवार के ही हैं। जवाब मुझे सोच-विचार कर देना चाहिए।" असमंजस में पड़ी हुई Scanned by CamScanner Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका, फिर बोली महाराज ! मैं याद कर रही है, कौन रेवती है। नगरी बडी है. यहाँ रेवती कई हैं।" 2. इस तरह नागला बड़े सोच-विचार के बाद जवाब देती है। अपना कुछ भी भेद न देती हुई मुनि का भेद लेती है। विचार के बाद उसने बताया-"मैं रेवती को जानती हूं। बड़ी नामी श्राविका थी। उसके बराबर धावक व्रतों में कोई मजबूत नहीं है। ब्रह्मचर्य-व्रत धारिणी, रात्रि को चौबिहार का त्याग और भी नाना प्रकार के त्याग प्रत्याख्यान किये उसने।" मुनि ने कहा-"यह तो जानता हूँ, बड़ी पकी धाविका थी। अब वह जीवित है या नहीं?" नागला ने बताया-"वह अब जीवित नहीं है। उसे देवलोक प्राप्त हुए कई वर्ष हो गए।" - मुनि ने सुख की श्वास ली। न अब भाई रहा है, न माता । वह दोनों तरफ से आजाद है । मुनि ने कहा-"एक बात फिर पूछनी है। रेवती के लड़के की बहू थी, वह अब जीवित है या नहीं ?" नागला ने मन ही मन कहा-"पाई बात समझ में। ये मेरे लिए पात्र हैं। ये तो वे हैं" उसने थोड़ा क्रोध दिखाते हुए कहा"महाराज ! आप कैसी बाते करते हैं ? कभी रेवती जीवित है या नहीं, कभी नागला जीवित है या नहीं। क्या मतलब है आपको स्त्रियों से ? साधु पूछ सकता है-पाहार-पानी की जोगवाई कहाँ होगी ? लोगों में धर्म-ध्यान की रुचि कसी है ? सो तो नहीं, अमुक जीवित है या अमुक मर गई। मझे शक होता है, पापकी नियत पर। आपको ऐसी बातों से क्या प्रयोजन ?" या मनि ने सोचा कि बात मागे न बढ़ जाय और बोले- वह मेरी पत्नी है, इसीलिए मैंने पूछा है।" HEIR HTT. नागला बोली-"महाराज ! कसी अविचार पूर्ण बातें करते हैं ? न कभी सुना न देखा, कि जन साधु के भी पत्नी होती है !" मुनि बोले-"मरा नाम भावदेव है। पाज से बारह वर्ष पूर्व की वात है। मैं शादी करके प्राया ही था। मैंने अभी 'कंकण-डोरड्का बन्ध भी नहीं तोड़ा था। इसी समय मेरे बड़े भाई ने जो मनि थे, मझ सांसारिक बन्धनों से बचने का उपदेश दिया। मैं उसे टाल न सका: साध बन गया।ITTERISTRICT नागला बीच में ही पूछ बैठी, "तो क्या प्रापको जबरदस्ती साधु बना लिया गया ?" मुनि ने कहा-"नहीं, मेरी रजामन्दी थी। मैं भाई "अच्छा जब बारह वर्ष बित गये तो अब फिर क्या बात है ?" m "अब मैं नागला की खोज में हूँ।" 2. "नागला तन-मन से प्रापकी वाञ्छा नहीं करेगी, वह मेरी सहेली है। उसने रेवती की ठोकर खाई है। वहाँ तक न जाकर यहीं से लौट जाइये। भावदेव को भान नहीं रहा । वे बोल उठे : "तू जानती है दूसरों के मन की वात ? मैं जिस नागला को क्षण भर भी नहीं भूलता, अवश्य वह भी हरवक्त मेरे लिए कौवे उड़ाती होगी। भला, स्त्री के लिए पति के सिवाय और है ही क्या ?" पाप साधु नहीं हैं, मैं पक्की श्राविका ठहरी," "अच्छा चलती हूँ"-नागला बोली। नागला चिन्तातुर घर को चली। क्या किया जाय ? नाड़ी बिल्कुल धीमी पड़ चुकी है। प्राण जानेवाले हैं। नाम मात्र का साध वेष है। मैं क्या करूंगी, घर पा ही गये तो? वह उसी उधेड़दन में घर पहुंची। कुछ हल निकाला जाय। अपनी विश्वासपात्र पड़ोसिन के. पास गई। सारी बात कह सुनाई। सलाह-मशविरा कर, सारी योजना बनाकर दोनों चलीं उस बाग में, जहाँ मुनि ठहरे थे। "मुनि अपने घर की ओर रवाना होना ही चाहते थे कि इतने में नागला अपनी सहेली के साथ मा पहुंची। बोली-"हम सामायिक कर रही हैं।" Nire मावदेव ने सोचा- "इनके देखते कैसे जाऊंगा?" उन्हें सामायिक न करने को कहा। नागला बोली-"हम दो है। यहां रहना कल्पता है।" और दोनों ने सामायिक पचक्ख ली। "प्रब क्या किया जाय? इतनी देर और रुकना पड़ेगा।" भावदेव विचार में पड़ गया। इतने में एक बच्चा भागा-भागा प्राया। और बोला मां! ऐ मा !! और गोद में आने लगा। ना बेटा ! मेरे सामायिक माता ने कहा InsidhA Scanned by CamScanner Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ शील की नब बाड़ "म! ऐ मा !! एक बात कहूँ" और वह गोद में पा ही गया। माता पहले गोद में पाने के लिए मना करती थी। अब पचका दुलारने लगी। For "कहो वत्स ! क्या बात है?" मनि मन ही मन सोचने लगे-"कैसी मूर्ख स्त्री है । अभी-अभी मना कर रही थी। मब दुलार रही है !" ... बच्चा-बोला-"मो ! आज तूने खीर बड़ी अच्छी बनाई । रसास्वाद अच्छा, केशर की गंध और बादाम, नोजा, पिस्ता, चिटकी के से बड़ी स्वादिष्ट बनी । मैं खाने बैठा और खाता ही गया। सारी खीर खाकर ही रहा । पर मां ! के हो पाई। सारी खीर खाई, वैसे ही बार निकल पाई। मेरे हाथ-पैर सभी अंग सन्न हो गये । नीचे न गिरने दी।". ME R "फिर क्या किया ?" माता ने लाड़ से पूछा। "मा ! करता क्या ? खीर बड़ी सुस्वादु थी। गंवाई जा नहीं सकती थी। के में निकली खीर को मैं फिर चाट गया। मां ! वह बड़ी स्वादिष्ट लगी। चाटते-चाटते हाथ-पैरों को भी साफ कर दिया ..... माता ने वात्सल्य-भाव दिखाते हुए कहा- "बहुत अच्छा किया बेटा ! खीर गंवाई नहीं। भला छोड़ी भी कसे जाती ?" .. . मुनि से न रहा गया । एक तरफ ये घिनौनी बातें, ऊपर से माता का लाड़ ! बच्चे ने कुत्ते का काम किया और फिर दुलार-समर्थन ? कैसी उलटी गंगा बह रही है ? वे बोल पड़े-"तुम कितनी मूर्ख हो ? यदि बच्चे के द्वारा कोई अच्छा काम होता तो सराहना भी करती।" बस और क्या चाहिए था, नागला बोल पड़ी “बच्चा है, कर भी लिया तो क्या ? कहने चलो हो किस मुंह से । बारह वर्ण का साघुत्व - गंवाने जा रहे हो। के की तरह छोड़े काम-भोगों को चाटने जा रहे हो। वह तो बच्चा है, चाट भी लिया .! तुम इतने बड़े होकर चाटने की इच्छा रखते हो ? कहते शर्म नहीं पाती । कहना सरल है, करना कठिन ! पर खबरदार यदि घर की तरफ पैर बढ़ाया तो पैर काट लूंगी। मैंने रेवती की ठोकर खाई है । तन, मन, वचन से पुरुष मात्र की वाञ्छा नहीं करती । मापसे मेरा कोई सरोकार नहीं है। न मैं भापकी हूँ न माप मरे हैं। भाप लार चूसनेवाले न हों।" मुनि की आँखें खुल गई। यही है नागला। मैं बड़ा नीच हूं। कहाँ मैं मुनि था, कहाँ भ्रष्ट होने जा रहा हूँ। उसने कहा-"मैं इन कामभोगों को यावज्जीवन के लिए ठुकराता हूँ। आज तुमने मुझे सत्पथ पर ला दिया, इसके लिए प्राभारी हूँ। पर गुरु के पास कैसे जाऊँ ? मैं बिना आज्ञा मा गया था।" . नागला ने कहा : "चलिए । किसी बात का डर नहीं है।" वह उन्हें गुरु के पास ले गई। सारी बात बताई । भावदेव पुनः साधु-जीवन बीताने लगे। वे संयम में रत हो गये। और अन्त में स्वर्ग-सुखों को प्राप्त किया। वे ही अगले जन्म में जम्बूकुमार हुए। जिन्होंने प्रति उच्च वैराग्य-वृत्ति से साधुपन लिया और भगवान महावीर के तीसरे पट्टधर हो मुक्ति प्राप्त की। र ३२-नंदिषण किया जैन इतिहास में ब्रह्मचर्य की साधना से पतन के अनेक रोमाञ्चकारी प्रसंग मिलते हैं। पतन के बाद जो उत्थान के चित्र हैं वे और भी . हदयस्पर्शी है। नंदिषेण का प्रसंग एक ऐसा ही प्रसंग है। 17 mins नंदिषेण मगधाधिपति श्रेणिक के पुत्र थे। एक बार भगवान महावीर राजगृह पधारे। नंदिषेण ने प्रव्रज्या ग्रहण की। ... का एक बार मुनि नंदिषण ने तीन दिन का उपवास किया। पारण के दिन वे भिक्षा के लिए निकले । भिक्षा के लिये भ्रमण करते-करते वे 'एक वैश्या के घर के द्वार पर आ पहुंचे। वेश्या मुनि को देख विनोद करने लगी : "मुझे धर्म-लाभ नहीं चाहिये, अर्थ-लाभ चाहिए।" - मुनि को इस विनोद से क्रोध आ गया। साथ ही उनमें अपनी शक्ति का गर्व भी जागा। उन्होंने अपने तपोबल से वेश्या के घर में रत्नों का ढेर कर दिया। ३ वेश्या साधु की करामात को देखकर आश्चर्य-चकित रह गई। नंदिषेण अत्यन्त रूपवान थे। वेश्या उनके प्रति मोहित हो गयी। उसने १-(क) भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड २): जंबूकुमार चरित-ढाल ३-५ पृ० ५५६-५६३. BE (ख) जैन भारती (१९५३) वर्ष १ अङ्क ८ पृ० ६६-१०२से संक्षिप्त । वहाँ आचार्य तुलसी द्वारा कधि कथा विस्तार से दी हुई है। Scanned by CamScanner Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका १३७ डोण का हाथ पकड़, उन्हें घर के अन्दर खींच लिया और प्रेमपूर्वक बोली : "मापने धर्मलाभ और प्रर्थलाभ तो दिया, पर एक लाभ और द। मोगलाभ की याचना करती हूँ। आप तपस्वी हैं, इतने से आपका तप नष्ट नहीं होगा।" दिछोण का मन विचलित हो गया। उनके पूर्व संस्कार जागृत हो गये। वेश्या की इच्छापूर्ति करने के लिए हो। उन्होंने मन को संतोष देने के लिए नियम लिया कालए नियम लिया-"म यहाँ रह कर भी रोज धर्मोपदेश से दस व्यक्तियों को समझा कर प्रव्रज्या के लिये भगवान महावीर के पास भेजा करूंगा और फिर भोजन करूंगा।" यह क्रम चलता रहा। परन्तु एक दिन नंदिणेण दस व्यक्तियों को प्रतिबोधित नहीं कर सके। उधर भोजन तैयार हो चुका था। भाजन के लिए बार-बार प्रादमी बुलाने के लिए आ रहा था. पर नटिपेण अपनी "सान क लिए आ रहा था, पर नंदिषेण अपनी प्रतिज्ञा को पूरी किये बिना भोजन नहीं कर सकते थ । आखिर वेश्या स्वयं उन्हें बुलाने के लिए आई। नंदिपेण बोले : "अभी तक नौ ही व्यक्ति प्रतिबोधित हुए हैं। एक व्यक्ति आर प्रति बोधित हुए विना मैं भोजन नहीं कर सकता।" गणिका हंसी में वोली : "फिर दसवें आप ही क्यों नहीं हो जाते ?" गणिका की बात नंदिपेण के हृदय को भेद गई। उसने सोचा-"मैं केवल दसरों को प्रतिबोध देता है और स्वयं काद म फसा है। दसवां व्यक्ति में ही बनूंगा।" ___ नंदिपेण उसी समय भगवान महावीर के पास जाने के लिए तैयार हो गये। गणिका रोने लगी। नाना तरह से विलाप करने लगी। अपने विनोद के लिए माफी मांगने लगी, पर नंदिषेण का पुरुषत्व जागृत हो चका था। वे रुके नहीं। सीधे भगवान महावीर के पास पहुच। दुष्कृत्य की निन्दा की । प्रायश्चित लिया। और पुनः दीक्षित हुए। जिस..: दीक्षा के बाद वे तपस्वी जीवन बिताने लगे और अन्त तक दृढ़ता के साथ संयम का पालन किया। ३३-मुनि आद्रक घोर पतन के बाद उत्थान का दूसरा चित्र मुनि आर्द्रक के जीवन में मिलता है। प्रार्द्रक अनार्य देश के निवासी थे। उन्होंने अपने आप दीक्षा ले ली। एक बार विहार करते-करते वे वसंतपुर पहुंचे और नगर के बाहर एक स्थान में ठहरे और ध्यानावस्थित हो गये। - वसंतपुर में देवदत्त नामक सेठ रहता था। उसकी पुत्री का नाम श्रीमती था। वह बड़ी सुन्दर थी । वह अन्य बालाओं के साथ क्रीड़ा करती-करती उसी स्थान में पहुंच गयी, जहाँ मुनि पार्द्रक ठहरे हुए थे। सब बालाएं खेलने लगीं। खेल शुरू करने के पूर्व बालानों ने मापस में तय किया-'सब अपना-अपना मनचाहा वर कर लें।' वालाओं ने एक दूसरे को वर के रूप में चुन लिया। श्रीमती बोली : "मैं तो इन ध्यानस्थ मुनि को ही वर के रूप में चनती हूँ।" बालाएं परस्पर पति-रमण की क्रीड़ा कर अपने-अपने घर चली गयीं। पाक मुनि भी वहाँ से चले गये। देवदत्त श्रीमती की सगाई की चेष्टा करने लगा। उसने वर की तलाश करनी शुरू की। श्रीमती बोली : "मैंने खेल में एक मुनि को पतिरूप में चना था। मेरे पति वे ही हो सकते हैं। मैं और किसी से विवाह न करूंगी।" more mere मुनि वसंतपुर से विहार कर चुके थे और कहाँ थे, इसका पता नहीं चलता था। देवदत्त इससे चिन्तातुर हुआ। अकस्मात् एक दिन मुनि पुन: वसंतपुर आये। व्यवस्था के अनुसार देवदत्त ने मुनि को अपने घर गोचरी पधारने की अर्ज की। मुनि गोचरी पधारे। श्रीमती ने उन्हें पहचान लिया और बोली : “यही वे मुनि हैं, जिन्हें मैंने खेल में वररूप में चुना था।" - सेठ ने श्रीमती के प्रण की बात कही और अपनी पुत्री से विवाह करने का अनुरोध किया। मुनि पाईक दिङ्मूढ़ हो गये। मोह का स्रोत बह चला। उन्होंने विवाह करना स्वीकार किया। केवल एक शर्त रखी : "एक पुत्र होने के बाद घर में नहीं रहेगा।" सेठ तथा श्रीमती ने शर्त स्वीकार की। --पाक और श्रीमती का विवाह हो गया और दोनों सुखोपभोग करते हुए साथ रहने लगे। काल पाकर श्रीमती को पत्र उत्पन्न हमा। पाक जाने के लिए तयार हुए। श्रीमती बोली-“जब तक बच्चा बडा न हो जाय Scanned by CamScanner Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ नायें भी तो यह न होने के बराबर है मेरा गग से लगेगा?" बाईक धबधाईक जाने को तैयार हुए यह बात करने सायक भी हो गया अपनी मां से । गये। बालक बड़ा हुआ धौर चलने-फिरने लगा। श्रीमती चिंतित हो गई, धाविर में उसे एक उपाय श्रीमती बोली "पुत्र ! तुम्हारे पिता हम दोनों को सूझा। एक चर्खा लेकर वह कालने बैठी। पुत्र ने पूछा- "म ! यह क्या करती हो ?" छोड़कर जाना चाहते है। तु अभी छोटा है। कमाने लायक अभी नहीं हुया । श्रतः मैं यह उद्यम सीख रही हूँ, जिससे भविष्य में तुम्हारा पोषण " १६८ यह सुनकर बालक ने माता के काते हुए सूत की गुंडी हाथ में ले ली और पिता के पास पहुँच उस कच्चे सूत से उनके श्रांट देने लगा। [ देखकर माईक हंसने लगे और बोले "तू यह क्या कर रहा है ?" बालक बोला यह "श्राप हम लोगों को छोड़ कर जाना चाहते हैं। मैंने धाप को बांध लिया है। देव धाप कैसे जायेंगे " घाईक गंभीर हो गये। उन्होंने लपेटे हुए मूल के पागे गिने और बालक से बोले "तुमने जितने घांट दिए हैं, उतने वर्ष धीर तुम्हारे साथ रहूँगा।" देखदे-देखते उतने वर्ष बीत गए। पाखिर बाईक ने श्रीमती धीर बालक से विदा ली तथा धमग भगवान महावीर के पास पहुंचे। उनसे अवस्था ग्रहण की धीर संयम का दृढ़तापूर्वक पालन करते हुए रहने लगे। आर्द्रक आईक कुल २४ वर्ष तक श्रीमती के साथ रहे। उसके बाद वे पुनः मुनि हुए। ३४ - ब्रह्मचर्य और उसका फल ब्रह्मचर्य का फल बताते हुए पतञ्जलि ने कहा है- " ब्रह्मचर्य प्रतिष्ठायां वीर्यलाभः " " — ब्रह्मचर्य से वीर्य की प्राप्ति होती है। इसकी टीका में इस सूत्र की व्याख्या करते हुए लिखा गया है— जो मनुष्य ब्रह्मचर्य का पालन करता है, उसको उसके प्रकर्ष से निरतिशय वीर्य का सामर्थ्य का लाभ होता है। वीर्य निरोध ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य के प्रकर्ष से शरीर इन्द्रिय और मन में प्रकर्ष वीर्य-शक्ति उत्पन्न होती है"थः महाचर्यमभ्यस्यति तस्य तत्प्रकपन्निरतिशयं वीयं सामर्थ्यमाविर्भवति वीर्थनिरोधो हि मह्मचर्यम् तस्य प्रकर्षाच्छरीरेन्द्रियमनः श्रीयं प्रकर्षमागच्छति।" 1 पति ने जो बात कही, वही महात्मा गांधी ने धन्य शब्दों में इस प्रकार कही है- "सब इन्द्रियों का संयम करनेवाले के लिए वीर्य संग्रह सहज और स्वाभाविक क्रिया हो जाती है।" उनके अनुभव के अनुसार वीर्यं धनमोल शक्ति है। तन, मन धीर धारणा का बत तेज बनाये रखने के लिए वह परमावश्यक है। वे लिखते हैं-"वीर्य को पचा लेने का सामर्थ्य लंबे अभ्यास से प्राप्त होता है । यह अनिवार्य भी है, क्योंकि इससे हमें तन-मन का जो बल मिलता है, वह और किसी साधना से नहीं मिल सकता" "सारी शक्ति उस वीर्याक्ति की रक्षा धीर गति से प्राप्त होती है, जिससे कि जीवन का निर्माण होता है। मगर इस वीर्य शक्ति को नष्ट होने देने के बजाय संचय किया जाय, तो यह सर्वोत्तम सृजन-शक्ति के रूप में परिणत हो सकती है।" वीर्य की इस श्रमोघ शक्ति को ध्यान में रख कर ही ऋषि ने कहा: “मरणं बिन्दुपातेन जीवन विन्दुधारणात्।" महात्मा गांधी ने कहा है-जिस बी में दूसरे मनुष्य को पैदा करने की शक्ति है, उस वीर्य का फिजूल स्खलन होने देना महान अज्ञान की निशानी है५ ।" "नित्य उत्पन्न होनेवाले वीर्य का अपनी मानसिक, शारीरिक और श्राध्यात्मिक शक्ति बढ़ाने मैं उपयोग कर लेना चाहिए ।" १ - पातज्जल योगसूत्र २.३८ २- आरोग्य की कुंजी पृ० ३ ३- अनीति की राह पर पृ० १०८ ४-महाचर्य (१० भा० ) १० १०५ ४-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२ -यही पृ० ३४ vis क ng ि स (Tha Scanned by CamScanner Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका २३६ ८ चरक संहिता में कहा है-"जिस तरह गन्ने में रस, दही में घी और तिल में तल रहता है. उसी तरह वीर्य भी परीर के प्रत्यक मा व्याप्त है। भीगे हुए कपड़े में से जसे पानी गिरता है, वैसे ही वीर्य भी स्त्री-पुरुष के संयोग से तथा टा, कल्प,पीड़नादिसे अपने स्थान से नात्र गिरता है।" .. महात्मा गांधी लिखते हैं: "रत्ती-भर रति-सुख के लिए हम मन भर से अधिक शक्तिः पल भर में गंवा बैठते है। जब हमारा नशा उतरता है, तो हम रङ्क बन जाते हैं ।" "जान-बूझ कर भोग-विलास के लिए वीर्य स्रोना और शरीर को निचोड़ना कितनी बड़ी मूर्खता है ? वाय का उपयोग तो दोनों की शारीरिक और मानसिक शक्ति को बढाने के लिए है। विपय-भोग में उसका उपयोग करना उसका अति दुरुपयोग है और इस कारण वह बहुतेरे रोगों की जड़ बन जाता है। अत: "प्रकृति ने जो शुद्ध दाक्ति हमें दे रखी है, हमें उचित है कि उसको शरीर में का उपयाग केवल तन को नहीं, मन, बुद्धि और धारणा शक्ति को भी अधिक स्वस्थ-मबल बनाने में करें।" "जिस तरह चूनेवाले नल में भाप रखने से कोई शक्ति पैदा नहीं होती, उसी प्रकार जो अपनी शक्ति का किसी भी रूप में क्षय होने देता है, उसमें उस शक्ति का होना असंभव है।" श्रीमती प्रलाइस स्टॉकहम ने अपने 'उत्पादक शक्ति' शीर्षक निवन्ध में लिखा कि जब मनुष्य को अन्य प्राकृतिक क्षुधानों के साथ-साथ विषय-क्षुघा लगती है, तब वह समझ ले कि यह किसी महान् उत्पादक कार्य के लिए प्रकृति का प्रादेश है। केवल वह विषय-वासना के हीन रूप में प्रकट हो रहा है । वह एक कूवत है जिसको वलिष्ठ इच्छा-शक्ति और दृढ़ प्रयत्न के द्वारा बड़ी आसानी से अन्य शारीरिक अथवा माध्यात्मिक कार्य में परिणत किया जा सकता है। संत टॉल्स्टॉय ने इस निवन्ध पर टिप्पणी करते हुए अपना अनुभव लिखा है : "मेरा भी यही खयाल है। वह सचमुच एक शक्ति है, जो परमात्मा की इच्छा को पूर्ण करने में सहायक हो सकती है। वह पृथ्वी पर स्वर्ग-राज्य की स्थापना करने में अपना महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ब्रह्मचर्य द्वारा इस शक्ति को ईश्वरेच्छा पूर्ण करने में प्रत्यक्ष लगा देना जीवन का सर्वोच्च उपयोग है।" निशीथ भाष्य में कहा है-"जब-जब काम-विकार की जागृति हो साधक को दीर्घ तपस्या, वयावृत्त्य, स्वाध्याय, दीर्घ विहार में प्रवृत्त होना चाहिए।" इसका तात्पर्य भी यही है कि काम-विकार के समय साधक महान् साधना में लग जाय तो वह काम-विकार उपशांत हो उस महान साधना को पूरा होने का अवसर प्रदान करता है। काम-विकार शांत होने पर चित्त-वृत्ति महा तपस्या मादि में परिवर्तित होकर महान् कर्म-क्षय का कारण बनती है। इस सम्बन्ध में श्री मशरूवाला ने लिखा है : "...अब्रह्मचर्य की जड़ तो मनोविकार में है...अर्थात् सब स्थूल नियमों का पालन करते हुए भी अगर मन के सामने विकारी वातावरण हो, तो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया जा सकता। ___ "जैसे किसी तेज झरनों वाले कुएं को साफ करना हो तो उसके झरनों में गुदड़ी या मोटा कपड़ा ठूस कर उसका पानी उलीचना . पी १-चरकसंहिता, चिकि० अ० २: रस इक्षौ तथा दध्नि सर्पिस्तैलं तिले तथा । सर्वत्रानुगतं देहे शुक्र संस्पर्शने यथा ॥...... तत् स्त्रीपुरुषसंयोगे चेष्टासंकल्पपीढनात् । शुक्र प्रच्यवते स्थानाज्जलमात पटादिव ॥ २-अनीति की राह पर पृ०६१ ३-ब्रह्मचर्य (प० मा०) पृ०६ ४-अनीति की राह पर पृ०६०-६१ ५ब्रह्मचर्य (प. भा०) पृ० १०२ ६-स्त्री और पुरुष पृ० ५३-४ -देखिए पृ० ११५ पा० टि० १ (ख) Scanned by CamScanner Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ १४० चाहिए, वर्ना वह कभी खाली नहीं हो सकता; उसी तरह मन को निर्मल और शुद्ध बनाने के लिये उसमें घुसनेवाली चीजों की तरफ ध्यान देना चाहिए।" ..."द्वेषभाव से विकार का चिंतन करके भी हम विकार से बच नहीं सकते। विकार का द्वेषभाव से चिंतन करने में भी विकारही स्मरण तो रहता ही है। विकार की साधना करनेवाले को चाहिये कि वह विकार को भूल ही जाय। इसलिए इसका सबसे अच्छा रास्ता चित्त को दूसरे काम में लगा देना ही है। कोई उदात्त रस चित्त को लगा देना, विकार को दूर करने का सच्चा उपाय है।" ..."यदि विकार पैदा हों तो उनका शत्रभाव या मित्रभाव से विचार करने के बजाय किसी नये ही विचार में मन को रमाने की कोशिश करनी चाहिए।" "भोगों की इन पाहुतियों में पहली पाहुति विषयेच्छा की होनी चाहिये । धर्म, आध्यात्मिक जीवन, आर्थिक स्थिति, शारीरिक स्थिति, राजनीति, स्त्री-शिक्षा, तत्त्वज्ञान इत्यादि-जिस-जिस दृष्टि से भी मैं विचार करता हूं, मेरे विचार मुझे ब्रह्मचर्य की सीढ़ी पर ही लाकर खड़ा कर देते हैं। ...मैं वीर्यरक्षा की बात करता हूं। यदि आपको ऐहिक संकल्पों या पारमार्थिक संकल्पों की कोई भी सिद्धि इसी जीवन में पानी हो. तो उसे ब्रह्मचर्य के बिना पाने की प्राशा मत रखिये।" ३५-कृति-परिचय इस कृति के रचयिता स्वामी भीखणजी का जन्म मारवाड़ के कंटालिया ग्राम में सं० १७८३ में हुआ था। आपके पिताजी का नाम साह बलूजी था और माताजी का नाम दीपावाई। आपने विवाह किया और एक पुत्री भी हुई, पर आपकी चित्तवृत्ति वैराग्य की ओर ही झकी - हुई थी। अन्त में आपने दीक्षा लेने का विचार कर लिया। पत्नी ने भी साथ देना चाहा । प्रव्रज्या की इच्छा से पति-पत्नी दोनों ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने लगे। साथ ही एकान्तर भी करने लगे। जो कुछ अर्से बाद पत्नी का देहान्त हो गया। सम्बन्ध पाने लगे पर स्वामीजी ने विवाह न करने का निश्चय कर लिया। और २५ वर्ष की पूर्ण युवावस्था में प्रवजित हो गये। आपको दीक्षा सं० १८०८ में हुई। सं० १८१६ तक आप आचार्य रुघनाथजी के सम्प्रदाय में रहे । बाद में उनसे पृथक हो आपने नव दीक्षा ग्रहण की। यह घटना आषाढ़ सुदी १५, १८१७ की है। आपका सम्प्रदाय 'तेरापन्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सम्प्रदाय के नायक रूप में आप ४३ वर्ष तक विभिन्न स्थानों में पाद-विहार करते रहे और महान् लोकोपकार किया। प्रापका देहान्त सं० १८६० में हुमा। स्वामीजी उत्कट वैरागी थे । ब्रह्मचर्य के प्रति आपका सहज झुकाव था, यह उपर्युक्त घटना से प्रकट है। यही कारण है कि शील-विषयक आपकी यह कृति सहज प्रसाद-रस से प्रोत-प्रोत है। इस कृति में कुल ११ ढालें हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है पहली ढाल में ब्रह्मचर्य की महिमा का सुन्दर वर्णन है और अवशेष एक-एक ढाल में ब्रह्मचर्य की रक्षा के एक-एक समाधि-स्थानक का सारगर्भित विवेचन। ... इस कृति में कुल मिलाकर ४६ दोहे और १६७ गाथाएँ हैं। प्रत्येक ढाल के प्रारम्भ में दोहे हैं जो उस ढाल के विषय का बड़ा सुन्दर संक्षिप्त परिचय दे देते हैं। यह कृति विभिन्न रागिनीपूर्ण गीतिकाओं में ग्रथित है, अत: श्रुति-मधर होने के साथ-साथ बड़ी भावोत्तेजक है। प्रत्येक ढाल में सहज गंभीर प्रवाह है और हृदय को प्रभावित करनेवाला आध्यात्मिक रस। स्वामीजी ने अपनी अन्य कृतियों की तरह इस कृति का भी अपनी ओर से कोई नाम नहीं दिया। कृति के विषय की सूचना इस रूप में की है : १-स्त्री-पुरुष-मर्यादा पृ० २२२-वही पृ० २३ ३-वही पृ० २६ ४-वही पृ० ७६ Scanned by CamScanner Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका / हिये कई जूजूद सील तमी नय बाद इसमें कोट से चि दिखा महिमा परत सार (ढाल २ दु० १) बाद कही महापरी, हिये इसमों कहें दे कोट ए बाद छोपी वीटें रखो, तिन में मूल व चाले खोट (डा०११ ०१) इन दोहों में तथा इसी कृति में अन्यत्र प्रयुक्त 'नव वाड़' शब्द के श्राधार पर इस कृति का नाम 'शील को नव बाड़' पड़ गया मालूम देता "है और यह कृति इसी नाम से प्रसिद्ध है। इस कृति का मूलाधार उत्तराध्ययन सूत्र का १६ व 'ब्रह्मचयं समाधिस्थानक अध्ययन है, जैसा कि स्वामीजी ने स्वयं ही जिला है उत्तराधेन सोम मकारों, तिणरो लेई में अनुसारों वहां कोट सहीत वही नय बाढ़ से संख्यकों विसतार (डा०६१ गा०१२) उत्तराध्ययन में समाधि-स्थानकों का संक्षेप में वर्णन है। स्वामीजी ने उनका विस्तार से वर्णन किया है। ऐसा करते हुए स्वामीजी ने अन्य आगमों के उल्लेखों को भी गर्भित कर लिया है। संदर्भित श्रागम स्थलों को टिप्पणियों में संगृहीत कर दिया गया है। उन्हें देखने से पता चलेगा कि इस कृति के पीछे कितना गंभीर यागमपध्ययन रहा हुआ है। यह कृति वि० सं० १८४१ में रचित है। इसका रचना स्थल मारवाड़ का पादु ग्राम है। कृति के अन्त में निम्नलिखित गाथा मिलती है। इगताली ने समत अठार, फागुण विद दसमी गुरवार ओट कीर्धी पाहू मकार, समायने नरनार ३६- श्री जिनहर्षजी रचित शील की नव बाड़ १४१ परिशिष्ट में ( पृ० १२८ से १३४) श्री जिनहर्षजी रचित 'शील की नव बाड़' दी गई है। इसकी दो प्रतियां देखने को मिलीं – एक सरदारशहर के संग्रह की और दूसरी श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर के संग्रह की । दोनों ही प्रतियाँ कई स्थलों पर अशुद्ध हैं। हमने सरदारशहर की प्रति को मूल माना है और थोड़े से विशिष्ट पाठान्तर बीकानेर की प्रति से दिये हैं । सरदारशहर की प्रति से रचना-संवत का पता नहीं चलता। भाद्र पदि बीज आलस छांडि" वोकानेर की प्रति से रचना काल सं० छाडि " उसमें रचना संवत इस प्रकार लिखा मिलता है-“निधि नयण सरस १७२६ निकलता है - "निधि नयण सुर ससि भाद्र पद वदि वीज आलस दोनों ही प्रतियाँ विक्रमपुर में लिखित हैं। सरदारशहर वाली प्रति सं० १८४४ की है। प्रशस्ति में लिखा है- "पं० सुगुण प्रमोद मुनि : लिपि कृतं ॥...... महिमा प्रमोद मुनि हुकुम कीयो जिई लिप दीगो ॥" बीकानेर की प्रति में लेखन संवत् नहीं है। अन्त में लिखा हैपं० जीपमाणिक्येन लिपीकृता ।" "दोनों प्रतियों में अनेक स्थलों पर काफी अन्तर है। संभव है कि विक्रमपुर में इस कृति की एकाधिक प्रतियाँ भिन्न-भिन्न प्रतियों के माधार से हो। संभवतः मूलकृति ही विक्रमपुर में हो और पाठान्तर लिपिकर्तायों के कारण बन गये हों। स्वामीजी की कृति सं० १८४१ की रचना है। और श्री जिनहर्षजी की कृति बीकानेर की प्रति के श्राधार से सं० १७२६ की। इस तरह श्री जिनहर्षजी की कृति पुरानी ठहरती है। श्री जिनहर्षजी की कृति में कुल २५ दोहे और ७१ गाथाएं हैं, जब कि स्वामीजी की कृति में कुल ४६ दोहे और १६७ गाथाएं ।' श्री जिनगी की कृति में नो बाड़ों का ही वर्णन है, जब कि स्वामीजी की कृति में उत्तराध्ययन- वर्णित दसवें समाधिस्थानक का भी मोट के रूप में वर्णन है। स्वामीजी ने श्री जिनहणजी की कृति का उपयोग अपनी कृति में किया है। नीचे हम इस विषय में विस्तार से प्रकाश डाल रहें हैं। ढाल - १ श्री जिनहर्षजी की कृति में इस ढाल में ७ गाथाएँ और ७ दोहे हैं और स्वामीजी की कृति में गाथाएँ धौर ८ दोहे । दोहों में से १,२,५,६ और ७ – ये पाँच प्रायः एक-से हैं। सामान्य शाब्दिक परिवर्तन है । - 2.bp तीसरे दोहे का चौथा चरण स्वामीजी की कृति में "जिम पावन हुवइ देह" के स्थान में "पांमें भवजल देह" है । चौथे दोहे के प्रथम चरण में "गुरु जो पोते कड़े के स्थान में स्वामीजी की कृति में "फोड़ केवली गुण करें है और चन्तिम चरण में "तौ पिप्य कक्षा न जाइ " के स्थान में "पूरा कह्या न जाय " है । रही हों और ये प्रतियां Scanned by CamScanner Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नब बाद प्रथम गाथा के प्रथम दो चरण प्रायः मिलते हैं । अन्तिम दो चरण भिन्न हैं। "दंभ कदाग्रह छोड़ने धरीये तिण सुं नेह रे" के स्थान में स्वामीजी की कृति में सीयल तूं सिव ख पानीये त्यांस रो कर नावें छेड़ रे" है। स्वामीजी की दूसरी गाथा नवीन है। जिन की तीसरी गाथा स्वामीजी की कृति में नहीं है। चौथी गाया धन्य शब्दों में है। १४२ छठी गाथा के "जानकरी ग्रुप रापिपट ही अतिरंग आणि रे" के स्थान में स्वामीजी की गाया में "तिण सीयस विश्व राजन ज्यू वेगी पांसों निरवांण रे" है। इसी तरह सातवीं गाथा के "कीधी तिण तरु पापती ए नव वाड़ि सुजांण रे" के स्थान में ८ वीं गाथा में "कीधी तिण विरख नें राखवा, नव बाढ़ दसमों कोट जांण रे" है । इस तरह स्वामीजी की कृति की ८ गाथाओं में से ४३ प्रायः जिनहर्णजी की कृति से मिलती हैं । ढोल - २ ८ श्री जिजी की दूसरी ढाल में ७ गायाएं और बारंभ में २ दोहे हैं। स्वामीजी की कृति में १० गाथाएं और दोहे हैं। स्वामीजी के घाटों दो पुष है। दस गाथाओं में चार मिलती हैं छः पृथ हैं। प्रथम गाथा के "जिण थी सिव सुप पांमीये सुंदर तनु सिणगार हो भवीयण" के स्थान में स्वामीजी की कृति में "जिण थी सि पांमीयें, तू बाड़ म खंडे लिगार हो । ब्रह्मचारी" है । तीसरी गाथा के "कुमुल किहां थी तेहनइ पामें दुप अघोर हो” के स्थान में स्वामीजी की कृति में "कुसल किहां भी रोने मारे घांटी मरोड़ हो" है । ढाल – ३ श्री जिनहर्षजी की कृति में २ दोहे और ८ गायाएं हैं और स्वामीजी की कृति में २ दोहे और १४ गाथाएँ | स्वामीजी के दोनों दोहे पृथक हैं । जिनहर्षजी के दोनों दोहे स्वामीजी की ढाल २ के ६ एवं ७ व दोहे के रूप में मिलते हैं। दूसरे दोहे के "आवे छतौ आल सिरि बीजी बाड़ बिलोक" के स्थान में स्वामीजी के दोहे को शब्द रचना इस प्रकार है-"आयें तो आज सिर, पले हुवे वरत पिन फोक स्वामीजी की १४ गाथाओं में से पहली, दूसरी और तीसरी तीन गाथाएं मिलती हैं। तीसरी गाथा कृतियों में क्रमश: इस प्रकार है : वांणी कोइल जेहवी रे वारण कुंभ उरोज । वाणी कोयल जेहवी रे, हाथ पांव रा करें वखांण । हंसगमणि कृसहरिकटी रे करयुग चरण सरोज रे प्रांणी ॥ ३॥ हंस गमणी कटी सींह समी रे, नाभि ते कमल समांण रे ॥३॥ ढाल - ४ श्री जिनहर्षजी की कृति में ६ गाथाएँ और २ दोहे हैं और स्वामीजी की कृति में १४ गाथाएं और ४ दोहे | स्वामीजी का तीसरा और चौथा दोहा जिनहर्षजी के प्रथम और द्वितीय दोहे से क्रमशः मिलते हैं। जिनहर्षजी के दूसरे दोहे के " इम जांणी रे प्रांणीया तजि आसण त्रियरंग" के स्थान में स्वामीजी के चौथे दोहे में "ज्यूं एकण आसण बेंसतां न रहें वरत सुरंग" है । T स्वामीजी की १४ गाथाओं में से सिर्फ दो पहली धौर दूसरी जिनहजी की रचना से मिलती हैं अन्य पृथक है मिलती गायाओं की शब्द-रचनाएँ इस प्रकार है : तीजी वाड़ि हिवे चित्त विचारौ नारि सहित बइसवौ निवारौ लाल । एक आसग काम दीपाये चौथा व्रत में दोष लगावेा ॥१॥ इस तो आसंगौ धाये आसंगे काया परसाये रे बाल । काया फरस विषै रस- जागे तेहथी अवगुण थाये आगे लाल ॥२॥ डाल -५ ८ 1 श्री जिनही की कृति में २ दोहे और स्वतंत्र है। दूसरा दोहा जिनहर्षजी के पहले दोहे गायाएं हैं और स्वामीजी की कृति में २ दोहे धीर २१ गाथाएं स्वामीजी का पहला दोहा से मिलता है । स्वामीजी की ढाल की ७ वीं और ८ वीं गाथाएं क्रमशः जिनहर्षजी की तीसरी ढाल की ५ वीं और ६ ठीं गाथाम्रों से मिलती हैं । १० "गाथा इस ढाल के दूसरे दोहे के समान है। अवशेष १८ गाथाओं में से छः मिलती-जुलती हैं। शेष भिन्न हैं। जिनहर्षजी की ढाल की ५ वीं गाथा स्वामीजी की दूसरी ढाल की चौथी गाथा से भाव में मिलती है । तीजी बाद हिं चित्त विचारो नारी सहित भासण निवारो लाल । एक आस बैंड कांम दीपें है, ते महाचारी में आछों नहीं है साल ॥१॥ एकण आसण बेठां आसंगो थावें, आसंगे काया फरसावें लाल । काया फरस्यां विषं रस जागें, इम करतां जाबक वरत भांगे लाल ॥२॥ Scanned by CamScanner Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ भूमिका minamainamain रूप रंभा सारिषी मीठा बोली । नारि ।। रूप रंभा सारिपी रे, बले मीठायोली हुवे नार।। तौ किम जोवे एहवी तो भर योवन त धारि सुना०॥६॥ ते निजर भरेनें निरखता रे, वरत ने हो। विगाड ॥ ९० ना० ॥४॥ की अबला इन्द्री जोवतां मन थायें वसि प्रेम अबला इन्द्री निरखता रे, बांधे विप रस पेम । राजमती देषी करी हो तुरत डिग्यो रहनेमि सु० ना०॥॥ राजमती देखी करी रे, तुरत डिग्यों रहनेम ॥ सु० मा० ॥६॥ रूप कूप देषी करी मांहि पढे कांमध। रूप में रूडी देखने रे, मांहें पढें काम अंध।.. - दुष मांणं जांगे नही हो कहै जिनहरप प्रबंध सु० ना सुख मांणे जाणें नहीं रे, ते पाडे दुरगत नो बंध ॥ सु० ना० ॥४॥ ढाल-६ श्री जिनहर्षजी की कृति में २ दोहे और ७ गाथाएं हैं और स्वामीजी के की कृति में ३ दोहे और ७ गाथाए। स्वामीजी का दूसरा दोहा जिनहर्षजी के प्रथम दोहे से मिलता-जुलता है : संयोगी पास रहै ब्रह्मचारी निसदीस। संजोगी पासें रहें, बह्मचारी दिन रात।. कुशल न तेहनां व्रत भणी भाजै विसवावीस ॥१॥ तेह तणा सब्द मुगयां, हुवें वरत नी धात ॥२॥ सामान्य शाब्दिक समानता के अतिरिक्त गाथाएँ प्रायः भिन्न हैं। ढाल-७ जिनहर्षजी की कृति में २ दोहे और ६ गाथाएं हैं, और स्वामीजी की कृति में २ दोहे और १५ गाथाएं। प्रथम दोहा मिलताजुलता है. : तर पर र .. छठी वाडे इम कह्यो चंचल चित्त म डिगाय ॥ हिवें छठी बाढ़ में इम कहों, चंचल मन म ढिगाय। .. पाधौ पीधौ विलसीयौ रे तिण सूंचित म लगाय॥१॥ खाधों पीधों विलसीयों, ते मत याद अणाय ॥१॥... .. गाथाएं सर्वथा भिन्न हैं। जिनरक्षित का शास्त्रीय उदाहरण मिलता है, पर सर्वथा अन्य शब्दों में है। ढाल-८ श्री जिनहर्षजी की कृति में २ दोहे और ७ गाथाएं हैं और स्वामीजी की कृति में ४ दोहे और १६ गाथाए। मिलते-जुलते दोहे इस .. प्रकार हैं: 1 मारक भी ESTERESTERNA पाटा पारा चरचरा मीठा भोजन जेह। खाटा खारा चरचरा, वले मीठा भोजन जेह। । मधुरा मोल कसायला रसना सहु रस लेह ॥१॥ वले विविध पणे रस नीपजें, ते रसना सब रस लेह ॥३॥ Page जेहनी रसना वसि नही चाहै सरस आहार। जेहनी रसना बस नहीं, ते चाहे सरस आहार । ते पामे दुष प्राणीयौ चौगति रूलै संसार ॥२॥ ते वरत भांगे भागल हुवे, खोयें ब्रह्म वरत सार ॥ sai पहली गाथा जिनहर्षजी की दूसरी गाथा से मिलती-जुलती है : mum to start कमल झरै उपाडतां घृत बिदु सरस आहारो रे। कवलांकरें आहार उपारतां, घ्रत विन्यूँ झरतो आहार भारी । ते आहार निवारीय तिण थी वध विकारो रे ॥२॥ एहवो आहार सरस चाप २ में, नित २ न. कर ब्रह्मचारी रे॥ Frt -2230 131 ए बाढ़ म लोपो सातमीं ॥१॥ अन्य गाथाएं सर्वथा भिन्न हैं। कई दृष्टान्त सामान्य होने पर भी बिल्कुल पृथ्क भाषा में है। श्री जिनहर्ष रचित ढाल में २ दोहे और ५ गाथाएं हैं और जब कि स्वामीजी की कृति में ४ दोहे और ४० गाथाएं। मिलते-जुलते दोहै. इस प्रकार हैं: अति आहारे दुष दुवै., गले रूप मुगात । अति आहार थी दुःख हुव, गल रूप : बलं यात 17 आलस नींद प्रमाद घण दोष अनेक कहात ॥१॥ परमाव निद्रा आलस हुव, वले अनेक रोग होय जात ॥ M ars Scanned by CamScanner Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४४ शील की नव बोड़ घणे आहारे विस चढ़े घगेंज फाटे पेट । अति आहार थी विर्षे वर्षे, घणोंइज फाटें पेट । . . धांन अमामौ अरतां हांडी फूटे नेट ॥ २ ॥ धांन अमाउ उरवां, हांडी. " फाटें . नेट ॥ ३ ॥ सर्व गाथाएं बिल्कुल भिन्न हैं। कुंडरीक का शास्त्रीय उदाहरण सामान्य है । जिनहपंजी की द्वितीय गाथा का चौथा चरण 'यो गुण धणाए' स्वामीजी की ३८ वीं गाथा में अवतरित है। ... श्री जिनहर्ष रचित ढाल में २ दोहे और ४ गाथाएं हैं। स्वामीजी की कृति में ४ दोहे और गाथाएं हैं। दोनों कृतियों का एक दोर मिलता है: अंग विभूपा ज कर ते संजोगी होइ। सरीर विभूषा जे करें, ते संजोगी होय । - ब्रह्मचारी तन सोभवै तिण कारण नवि कोइ ॥२॥ ब्रह्मचारी तन सोमवे, ते कारण नहीं कोय ॥३॥ तीन गाथाओं में शब्द-साम्य इस प्रकार है : शोभा न करै देहनी न करे तन सिंणगार । ' सोभा न करणी देहनी रे लाल,नहीं करणो तन सिणगारा ब्रह्मचारी रे॥ ऊगटणा पीठी वलीन करे किण ही वारो रे। पीठी उगटणों करणी नहीं रे लाल, मरदन नहीं करणो लिगार । या मणि चेतन सणि तूं मोरी वीनती तो ने सीप कह हितकारो रे सु०॥ ए नवमी बाड़ ब्रह्म वरत नी रे लाल ॥१॥ उन्हा ताढा नीर सुं न करे अंग अंघोल । ठंडा उन्हा पाणी थकी रे लाल, मुल न करणो अंगोल । । कैसर चंदन कंकमै पात न करइ पोलो रे सु०॥१॥ केसर चंदण नहीं चरचणा रेलाल, दांत रंगे न करणा चोल ब्रिए घणमोला ने उजला न करे वस्त्र वणाव । बहु मोलां में उजला रे लाल, ते वस्त्र में पेंहरणा नाहि । ७॥ घाते काम महा बली चौथा व्रत ने थावौ रे मु० ॥२॥ टीका तिलक करणा नहीं रे लाल; ते पिण नवीं बारेमाहिए० ॥३॥ कांकड कुंडल मुंदडी मोला मोतीग हार पहिरै नहीं । । कांकण कुंडल में मंदडी रे लाल, वले माला मोती में हार ब०॥ साभा भगी जे थायै व्रतधारो रे 'मु० ॥३॥ . ते ब्रह्मचारी पहर नहीं रे लाल, वले गेंहणा विवध परकार बि.ए ॥ ढाल-११ । जिनहर्षजी की कृति में इस ढाल के आदि में दोहे नहीं हैं। गाथाएँ ६ हैं। स्वामीजी की कृति में ५ दोहे और . १३ गाथाएं हैं। दोनों रचनात्रों की इस ढाल का विषय ही पृथक्-पृथक् है। जिनहर्षजी ने इस ढाल में शील की महिमा वर्णित की है जब कि स्वामीजी ने दसवें कोट का वर्णन किया है। जिनहर्ष जी ने नौ बाड़ों पर ही प्रकाश डाला है, जब कि स्वामीजी ने इस ढाल में उत्तराध्ययन में वर्णित दसवें समाधिस्थान का कोट रूप में सुन्दर वर्णन किया है । - कुल मिलाकर स्वामीजी ने जिनहर्षजी के २५ दोहों में से २१ और ७१ गाथानों में से २४१ का उपयोग किया है। २५ दोहे मौर १४२१ गाथाएँ स्वामीजी की अपनी हैं।..: - स्वामीजी की रचना ठेठ मारवाड़ी में है। जिनहर्णजी के उक्त दोहे और गाथानों में शाब्दिक परिवर्तन कर उन्हें सरल करते हुए स्वामीजी ने ठेठ मारवाड़ी भाषा का रूप देकर अपनाया है ।.. .. ३७-प्रस्तुत संस्करण के विषय में काम कर स्वामीजी की इस'कृति के कई संस्करण पहले निकल चुके हैं। संवत् १९६२ में स्वर्गीय श्री राय सेताबचन्दजी नाहर बहादुर की मार से 'ज्ञानावली' नाम से एक ढाल-संग्रह प्रकाशित हुमा था, जिस के प्रथम खण्ड में इस कृति को प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक की तीसरा पावृति संवत् १९६६ में प्रकाशित हुई थी। बाद में चुरू के मणोतों की ओर से जो प्रकाशन हुए, उनमें भी यह कृति प्रकाशित की गई थी। प्रोसवाल प्रेस द्वारा प्रकाशित "वैराग्य मञ्जरी' में भी यह कृति प्रकाशित हुई और इसके कई संस्करण हो चके हैं। ये सभी प्रकाशन मूल मात्र रहे। सानुवाद प्रकाशन यह प्रथम ही है। - इस प्रकाशन, में तेरापत्यः सम्प्रदाय के द्वितीय प्राचार्य श्री भारमलजी स्वामी की हस्तलिखित प्रति के आधार से धारी हुई प्रतिक उपयोग किया गया है। पूर्व प्रकाशनों की मूल पाठ विषयक अनेक भूलें इस प्रकाशन से दूर हो पायेंगी। Scanned by CamScanner Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका हणियों में उन मागम-स्थलों को दे दिया गया है, जिनका उपयोग स्वामीजी ने कृति में किया है। परिशिष्ट-क में कृति में संकेतित कथाएं विस्तार से दे दी गई है। शिष्ट-ख में ब्रह्मचर्य-विषयक प्रागमिक आधारों को एक जगह संगृहीत कर दिया गया है। परिशिष्ट-ग में श्री जिनहर्षजी रचित 'शील को नव बाड़ दी गयी है। परिशिष्ट-घ में पुस्तक के सम्पादन में प्रयुक्त पुस्तकों की विवरण-तालिका दी गयी है। भमिका में भिन्न-भिन्न ३६ मुद्दों पर प्रकाश डाला गया है। याधुनिक विचारकों में संत टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधी का स्थान अग्रगण्य है। उनके विचारों को विस्तार से देते हुए प्रागमिक विचारों से उनकी यथाशक्य तुलना की गई है। महात्मा गांधी के प्रयोग और नव बाड विषयक उनके विचारों को अतीव विस्तार से इसलिए दिया है कि जेनों का ध्यान उस ओर जा सके और वे उनपर गंभीरता-पर्वक चितन कर सकें। भमिका में जन पाठकों के समक्ष कुछ ऐसी बात पायेगी जिनकी पोर उनका ध्यान गया ही न हो अथवा थोड़ा गया हो और जो नया चिंतन तथा खोज चाहती हैं। इस अवसर पर मैं उन सब विद्वानों, लेखकों और प्रकाशकों के प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ, जिनकी कृतियों का उपयोग मैंने इस पुस्तक के सम्पादन में किया है। श्री अगरचन्दजी नाहटा का मैं विशेष रूप से ऋणी हैं, जिन्होंने मुझ थी जिनहर्षजी रचित "शील की नव बाड़" की हस्तलिखित प्रति अवलोकनार्थ देने की कृपा की। स्वामीजी की कृति "शील की नव बाड़" का यह संस्करण पाठकों को कुछ भी लाभप्रद हो सका, तो मैं अपने को कृतार्थ समझंगा। श्रीचन्द रामपुरिया १५, नूरमल लोहिया लेन कलकत्ता २८ दिसम्बर, १९६१ ।। Scanned by CamScanner Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ A-BHUVAcnoramin । Scanned by CamScanner Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ – श्री नेमीसर प्रणमं उठ बावीसमां जिण ब्रह्मचारी २ – सुंदर चरण जुग, परभात | अपछर सम विद्यु भर जोबन में छोड़ी राजल —कोड़ रसना जगत गुर, विख्यात ॥ सारिखी, राजकुमार । जुगति सूं, नार ॥ पालीयो, जिण THES दूधर धरतां तेह तणां गुण भव जल वरणव्यां, छेह ॥ केवली गुण करें, सहस वणाय । तोही ब्रह्मचर्य नां गुण घणां, पूरा कह्या न जाय ॥ BY काया थई, ही न मूर्के आस । वरत घरें, ५ – गलित पलित FOR तरुण पर्णे जे बलीहारी वास ॥ दुहा १ – मैं प्रातः उठकर श्री नेमीश्वर भगवान् के चरण-युगल को नमस्कार करता हूँ, जो वाईसवें जगद्गुरु — तीर्थंकर और विश्वविख्यात ब्रह्मचारी थे । २–राजकुमार नेमिनाथ ने पूर्ण युवावस्था में युक्तिपूर्वक अप्सरा के समान सुन्दर और विद्युत के समान तेजस्विनी राजुल कुमारी ( राजिमती ) का परित्याग किया । ब्रह्मचर्य व्रत का पालन गुण-गान से जीव जन्म ३ – जिन्होंने दुर्घर किया, ऐसे महापुरुष के मरण रूपी समुद्र का पार पाता है।. ४ -करोड़ों केवली सहस्र - सहस्र जिह्वाओं से ब्रह्मचर्य के गुणों का गान करें तो भी उसके इतने अधिक गुण हैं कि उनका पूरा वर्णन नहीं किया जा सकता । ५-काया जीर्ण-शीर्ण हो जाती है तो भी आशा नहीं छूटती । जो तरुण अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत धारण करते हैं, मैं उनकी बलिहारी जाता हूँ । Scanned by CamScanner Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बार ६-जीव विमासी जोय तं, विषय म राच गिवार । थोड़ा सुखां रे कारणे, मूरख घणा म हार ॥ ६ हे जीव ! तू विचार कर देख। हे मर्ज। विषय में रुचि मत कर। हे मूढ़ ! थोड़े वैषयिक सुखों के लिए बहुत सुखों को मत खो । ७–दस दिष्टंते दोहिलो, लाधो नर भव सार । सील पालो नव बाड़ , ज्यू सफल हुवे अवतार ॥ ७-दस दृष्टान्तों ५ के अनुसार दुर्लभ यह सार मानव देह तुम्हें मिली है। नौ बाड़ सहित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर, जिससे कि तुम्हारा - जन्म सफल हो। ८-सील माहे. गुण अति घणा, . ते पूरा कह्या न जाय । - थोड़ा सा . परगट करू, ने सुणजो चित ल्याय ॥ ८-शील में बहुत गुण हैं, उनका पूरा वर्णन करना शक्ति के बाहर है। फिर भी थोड़ा सा वर्णन करता हूँ, चित्त लगाकर सुनो। [मन मधुकर मोहो रह्यो] १-सीयल सुर तरुवर सेवीये, __१-शील रूपी कल्पवृक्ष की आराधना कर। ते वरतां माहे गिरवो छै एह रे। यह व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ है । शील से मोक्ष - सीयल सं "सिव सुख पांमीये, सुख की प्राप्ति होती है, जिसका कभी अन्त, नहीं . त्यां सुखां रो कर्दै नावे छेह रे॥. होता। सीयल सुर तरुवर सेवीये ।।आँ० २-सीयल मोटो सर्व वरत - में, २-शील सब व्रतों में महान है, ऐसा जिनेश्वर, ते- भाग्यो छै श्री भगवंत रे। भगवान् ने कहा है। जिन्होंने सम्यक्त्व, सहित . ज्यां समकत सहीत वरत पालीयो, शीलव्रत का पालन किया है उन्होंने संसार का अंत त्यां कीयो संसार नों अंत रे ॥सी.. कर डाला। 1ne 16 ३-जिण सासण- वन अति भलो, . -ते. नंदण वन अनुसार रे। जिणवर वनपालक तेह में ते करुणा रस भंडार रे॥ सी० - ३–जिन-शासन नन्दन वन के समान अत्यन्त सुरम्य उपवन है, जिसके रक्षक करुण रस के भाण्डार स्वयं जिनेश्वर हैं। रामा Scanned by CamScanner Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डाल: १ गा० ४-८ ४ - विरख तिण वन में सील रूपीयो, दि समकित जांण रे । तिणरें मूल साखा छें महावरत तेहनीं, प्रति साखा अणुवरत वखांण रे || सी० ५- साध साधवी श्रावक श्रावका, त्यांरा गुण रूप पत्र अनेक रे । मधुकर करम सुभ बंधनों, परमल गुण वशेख रे ॥ सी० ६ – उत्तम सुर सुख रूप फूलड़ा, सिव सुख ते फल जांण रे । तिण सीयल विरख रा जतन करों, ज्यू वेगी पांमों निरखांण रे || सी० सीयल ७- संसार थकी उधरे, जो पाले नव कोटी अभंग रे । तो स्वयंभू रमण जितलों तियों, सेष रही नदी गंग रे ॥ सी० ८ - उत्तराधेन बंभ रें 'सोल समाही ठाण कधी तिण विरख ने राखवा, नव बाड़ दसमों कोट जांणः रे ॥ ४- जिन शासन रूपी उस बन में वृक्ष है, जिसका सम्यक्त्व रूपी महात्रत जिसकी शाखाएँ हैं और अणुव्रत प्रशाखाएँ । शील रूपी मूल है, ५ साधु साध्वी, श्रावक एवं श्राविकाओं के नाना गुण उसके विविध पत्र हैं। शुभ कर्म बन्ध उसपर मँडरानेवाले भ्रमर हैं। विशिष्ट चारित्रिक गुण उसके परिमल हैं। .६ - दैविक सुख उसके पुष्प हैं और मोक्ष- मुख उसके फल । ऐसे शील वृक्ष की यत्नपूर्वक रक्षा करो, जिससे शीघ्र ही तुम्हें निर्वाणपद की प्राप्ति हो । ७ जो नव कोटि से शील का अक्षुण्ण रूप से पालन करता है, संसार से उसका शीघ्र ही उद्धार हो जाता है । वह स्वयम्भूरमण को तैर • चुका। उसके लिए गंगा के समान नदी का तैरना ही अवशेष है १० । ८ - उत्तराध्ययन सूत्र का सोलहवाँ अध्ययन ब्रह्मचर्य समाधि स्थानक है। वहाँ शील रूपी वृक्ष - के संरक्षण के लिए तव बाड़ व दसवाँ कोट बताया है" । टिप्पणियाँ [१] दोहा १ : प्रथम दोहे में चोवीस तीर्थंकरों में से नेमिनाथ ( अरिष्टनेमि ) का ही वन्दन किया गया है। प्रन हो सकता है कि अन्य तोर्थंकरों को छोड़कर बाईसवें तीर्थंकर को ही नमस्कार क्यों किया गया ? इसका उत्तर यह है कि चौवीस तीर्थंकरों में से वाईस तीर्थंकर विवाहित होने के बाद ही प्रव्रजित हर थे। केवल मल्लिनाथ और नेमिनाथ ही ऐसे दो तीर्थंकर थे जिन्होंने पाणिग्रहग नहीं किया और कुमार अवस्था में प्रव्रजित हुए । अतः ये दोनों हो सोशंकर वाल- ब्रह्मचारी थे। इन दोनों में नेमिनाथ वाद के तीर्थंकर थे। अतः आसन्न तीर्थंकर होने से शोल के विषय में रचना करते समय कवि ने आदिमंगल के स्थान में एक वाल ब्रह्मचारी के रूप में उनका स्मरण किया है। तीर्थकर मल्लिनाथ का उल्लेख बाद के अन्य प्रसंग में आया है। नेमिनाथ विवाह के लिये उद्यत हुए। वारात रवाना हुई और तोरण द्वार तक पहुंच गई। ऐसे अवसर पर नेमिनाथ तोरण से वापस लौट पड़े । अपूर्व लावण्यवती कुमारी के साथ विवाह का प्रसंग उपस्थित था, ऐसो परिस्थिति में विवाह न करने का निश्चय कर उन्होंने अहिंसा ही नहीं ब्रह्मचर्य के क्षेत्र २ Scanned by CamScanner Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड में भी एक अद्भुत पदार्थ-पाठ संसार के सम्मुख रखा। इस तरह ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में वे अनुपम जगद्गगुरु सिद्ध हुए. इसमें कोई अतिशयोक्ति जैसे तपस्या के क्षेत्र में तीर्थकर महावीर श्रेष्ठ तपस्वी माने जाते हैं, वैसे ही भोग-त्याग के विषय में नेमिनाथ उत्कट त्यागी और ब्रह्मचारी मानना हैं। इसी कारणवश स्वामी जी ने अपनी कृति के आरंभ में उनका स्मरण किया है। श्रीमद् जयाचार्य ने कहा है। प्रभु नेमि स्वामि, तं जगनाथ अंतरजामी। तूं तोरण स्यूं फिरचो जिन स्वाम, अद्भुत वात करी ते अमाम ॥ १॥ राजेमती छांड़ी जिनराय, शिव सुन्दर स्यूं प्रीत लगाय ॥२॥ केवल पाया ध्यान वर ध्याय, इन्द्र शची निरखे हर्षाय ॥ ३ ॥ नेरिया पिण पामै मन मोद, तुझ कल्याण सुर करत विनोद ॥ ४॥ राग रहित शिव सुख स्यूं प्रीत, कर्म हणे वलि द्वेष रहित ॥ ५॥ अचरिजकारी प्रभु थारो चरित्र, हूँ प्रण कर जोड़ी नित्य ॥ ६॥ [२] दोहा १, २ : प्रथम दो दोहों में नेमिनाथ और राजिमती का नामोल्लेख है। जिस जीवन-प्रसंग के कारण उनका नाम-स्मरण किया गया है उसका विवरण 'उत्तराध्ययन' सूत्र के २८ वें अध्ययन में मिलता है। परिशिष्ट में पूरा विवरण दिया गया है। देखिए परिशिष्ट-क : कथा-१। [३] दोहा ४ ब्रह्मचर्य का गुण-वर्णन 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र में इस प्रकार किया गया है: "इस एक ब्रह्मचर्य के पालन करने से अनेक गुण अधीन हो जाते हैं। यह व्रत इहलोक और परलोक में यश, कीर्ति और प्रतीति का कारण है। जिसने एक ब्रह्मचर्य-व्रत की आराधना कर ली-समझना चाहिए उसने सर्व व्रत, शील, तप, विनय, संयम, क्षांति, समिति, गुप्ति यहाँ तक कि मुक्ति की भी आराधना कर ली। "ब्रह्मचर्य व्रत सदा प्रशस्त, सौम्य, शुभ और शिव है। वह परम विशुद्धि-आत्मा की महान् निर्मलता है। भव्य -मुमुक्षु पुरुषों का आचीर्ण-उनका जीवन है। यह प्राणी को विश्वासपात्र-विश्वसनीय बनाता है। उससे किसी को भय नहीं रहता। "यह तुष-भूसी रहित धान की तरह सार वस्तु है। यह खेदरहित है। यह जीव को कर्म से लिप्त नहीं होने देता।. चित्त की स्थिरता का हेतु है। धर्मी पुरुषों का निष्कंप-शाश्वत नियम है। तप-संयम का मूल-आदिभूत द्रव्य है। "आत्मा की अच्छी तरह रक्षा करने में उत्तम ध्यान रूपी कपाट और अध्यात्म की रक्षा के लिए अविकार रूप अर्गला है। दुर्गति के पथ को रोकनेवाला कवच है। सुगति के पथ को प्रकाशित करनेवाला लोकोत्तम व्रत है। “यह धर्मरूपी पद्म-सरोवर को पाल है ; गुण रूपी महारथं की धुरी है और व्रत-नियम रूपी शाखाओं से फैले हुए. धर्म रूपी बट-वृक्ष का स्कन्ध है। "शील रूपी महानगर की परिधि (परकोटे) के द्वार को अर्गला है। रस्सियों से बँधी इन्द्र-ध्वजा के समान अनेक गुणों से स्थिर धर्म-पताका है। “एक ब्रह्मचर्य-व्रत भंग होने से सहसा सब गुण भंग हो जाते हैं : मर्दित हो जाते हैं : मथित हो जाते हैं. कलुषित हो जाते हैं, पर्वत से गिरी हुई वस्तु की तरह टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं और विनष्ट हो जाते हैं।" [४] दोहा ५: पाँचवें दोहे के पूर्वार्द्ध का भाव शंकराचार्य के निम्न लोक से मिलता है: १ अङ्ग गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम् ॥ वृदो याति गृहीत्वा दण्डं, तदपि न मुश्चत्याशा पिण्डम् ॥ मज गोविन्दं, भज गोविन्दं, गोविन्दं भज मूढमते। Scanned by CamScanner Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ : ढाल-१ अर्थात् शरीर के सव अंग गल गये हैं, वाल पक गये हैं. मुख में एक भी दांत नहीं है, वुढापा आ गया है... लाठी के सहारे चलता है, उसपर भी वह वृद्ध आशा का पिण्ड नहीं छोड़ता है। अरे मूर्ख | तु आशा को छोड़कर गोविन्द का भजन कर। . . [५] दोहा ६ 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है : "जैसे एक कंकणी के लिए कोई मुर्ख मनुष्य हजार मोहरों को हार जाता है और जैसे अपथ्य आम को खाकर राजा राज्य को हार जाता है उसी तरह मूर्ख तुच्छ मानुषी भोगों के लिए उत्तम सुखो-देव-सुखों को खो देता है।" "मनुष्यों के काम-भोगों को सहस्रों गुणा करने पर भी आयु और भोग की दृष्टि से देवताओं के काम ही दिव्य होते हैं। मनुष्यों के काम देवताओं के कामों के सामने वैसे ही हैं जैसे सहस्र मोहर की तुलना में कंकणी व राज्य की तुलना में आम । प्रज्ञावान की देवलोक में जो अनेक अयुत वर्षों की स्थिति है उसको दुर्वृद्धि-मूर्ख जीव-सौ वर्ष से भी न्यून आयु में विषय-भौगों के वशीभूत होकर हार जाता है।" . ....... "इस सीमित आयु में काम-भोग कुश के अग्रभाग के समान स्वल्प हैं । तुम किस हेतु को सामने रखकर आगे के योग-क्षेम को नहीं समझते?" स्वामीजी ने इस छ8 दोहे में जो वात कही है वह 'उत्तराध्ययन' आगम के उपर्युक्त प्रवचन से प्रभावित मालूम देती है। ..... कंकणी और आम्रफल की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क : कथा २ और ३1 ... ...................... ........ [६] दोहा ७ ___ मनुष्य भव-प्राप्ति को दुर्लभता को बताने के लिए जो दस दृष्टान्त प्रसिद्ध हैं, उनका विवरण परिशिष्ट में दिया गया हैं। देखिये परिशिष्ट-क कथा ४-१२। [७] ढाल गा० १, २ . 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र में बत्तीस उपमाएँ देकर ब्रह्मचर्य को विनय, शील, तपादि- सब गुण-समूह से प्रधान.बताया है। स्वामीजी का संकेत उसी ओर लगता है। वे उपमाएँ नीचे दी जाती हैं : - १-जिस प्रकार ग्रह, नक्षत्र तारादि में चंद्रमा प्रधान है. उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २जिस प्रकार मणि, मोती, प्रबाल और रत्नों के उत्पत्ति स्थानों में समुद्र प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ३-जिस प्रकार रत्नों में वैडूर्य जाति का रत्न प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। .. 8-जिस प्रकार आभूषणों में मुकुट प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ..... ......... ५-जिस प्रकार वस्त्रों में क्षौम युगल वस्त्र प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। .. ६-फूलों में जिस प्रकार कमल ( अरविंद कमल) प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ७-जिस प्रकार चन्दनों में गोशीर्ष चन्दन प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ८ जिस प्रकार चमत्कारी औषधियों के उत्पत्ति स्थानों में हिमवान् पर्वत प्रधान है. उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ९-जिस प्रकार नदियों में शीतोदा नदी प्रधान है, उसी प्रकारांसव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। --१०-जैसे स्वयम्भू रमण समुद्र सब समुद्रों में महान् अतएव प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ११-जिस प्रकार मानुषोत्तर, कुण्डलवर आदि माण्डलिक पर्वतों में रुचकवर पर्वत श्रेष्ठ एवं प्रधान है. उसी प्रकार ब्रह्मचर्य-व्रत सब व्रतों में प्रधान है। १२-जिस प्रकार हाथियों में शकेन्द्र का ऐरावत हाथी प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। । १-उक्तराध्ययन अ०७: गा० ११ १२ १३, २४ जहा कागिणिए हेठ, सहस्सं हारए नरो । अपच्छं अम्बर्ग भोच्चा, राया रज्ज तु हारए ।। ११ ।। एवं माणुस्सगा कामा, देवकामाण अन्तिए । सहस्सगुणिया भुज्जो, आउं कामा य दिव्विया ॥ १२ ॥ अणेगवासानउया जा, सा पण्णवओ ठिई | जाणि जीयन्ति दुम्मेहा, उणवाससयाउए ।। १३ ॥ कसरगमेत्ता इमे कामा, सन्निरुद्धम्मि आउए । कस्स हेउं पुराकाउं."जोगक्षेमं न संविदे ॥ २४ ॥ Scanned by CamScanner Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील कोलवावाड़ १३-जिस प्रकार हिरण आदि सभी जानवरों में सिंह बलवान एवं प्रधान है। उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १४-जिस प्रकार सुपर्णकुमार जाति के भवनपति देवों में वेणुदेव प्रधान है, उसी प्रकार-सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रता प्रधान है। १५-जिस प्रकार नागकुमार जाति के मवनपति देवों में धरणेन्द्र प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में वह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १६-जिस प्रकार सब देवलोकों में ब्रह्मकल्प नामक पांचवां देवलोक प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १७ जिस प्रकार सभी सभाओं में सुधर्मा सभा प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में वह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १८-जिस प्रकार अनुत्तर विमानवासी देवों की स्थिति सभी स्थितियों में प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १९-जिस प्रकार सव दानों में अभयदान प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २० जैसे कम्बलों में किरमिज रंग की कम्बल प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-तत प्रधान है। . २१-जिस प्रकार छः संहनन में वज्रऋषभनाराच संहनन प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। न है. उसी प्रकार सबवतों में बवाचवताना २२-जिस प्रकार छः संस्थान में समचतुरस्र संस्थान प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २३-जिस प्रकार ध्यान में परम शुक्ल ध्यान अर्थात् अविच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती नामक शुक्क ध्यान का चौथा भेद प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २४-जिस प्रकार मति, श्रुति आदि पाँच ज्ञानों में केवलज्ञान प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-त्रत प्रधान है। २५-जिस प्रकार छहों लेश्याओं में परम शुक्र लेश्या ( सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती नामक शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद में होनेवालो.) प्रधान हे. उसी प्रकार सव.ध्यानों में ब्रह्मचर्य व्रतःप्रधान है,। २६-जिस प्रकार मुनियों में तीर्थकर भगवान् प्रधान है. उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २७-जिस प्रकार सब क्षेत्रों में महाविदेह क्षेत्र अतिविस्तृत एवं प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २८-जिस प्रकार सब पर्वतों में मेरु गिरि प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २९-जिस प्रकार सब वनों में नन्दन-वन प्रधान है। उसी प्रकार सबनतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ३०-जिस प्रकार सव वृक्षों में जम्बूवृक्ष ( सुदर्शन-वृक्ष ) प्रधान है. उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-वत प्रधान है। ३१-जिस प्रकार अश्वपति, गजपति. रथपति और नरपति प्रधान है -प्रसिद्ध है। उसी प्रकार वह्मचर्य-वतःभी.प्रसिद्ध है। ३२- जैसे महास्य में बैठा हुआ रथी शव सेना को पराजित करता है। वैसे ही ब्रह्मचर्य-व्रत भी कर्मशत्रु को सेना को पराजित करता है। इस प्रकार अनेक गुण ब्रह्मचर्य-व्रत के अधीन हैं। चौथे ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने से अन्य व्रतों की भी अरबण्ड आराधना हो जाती है जैसे शील, तप, विनय, संयमा क्षमा गुप्ति, मुक्ति को। ब्रह्मचारी को इहलोक और परलोक में यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है। वह सभी लोगों का विश्वास प्राप्त कर लेता है। " [८] ढाल गा० ३-६: । स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य को उपमा कल्प-तरु से की है। इसका आधार प्रमव्याकरण सूत्र के संवर द्वार का पांचवा अध्ययन है। यहाँ अपरिग्रह-संवर का वृक्ष की उपमा द्वारा वर्णन किया गया है। यह वर्णन इस प्रकार है: “परिग्रह से विरति. इस वृक्ष का वहुविध विस्तार है। सस्यक्त्व इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है।( विलय इसकी वेदिका है। तीनों लोक में व्यापक विपुल यश इसका स्थूल और सुन्दर स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएँ हैं | अनित्यादि भावनाएं इसकी त्वचा है। धर्म ध्यान. शुभ योग और ज्ञान उसके अंकुरित पल्लव हैं। बहुत से गुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है। शील इसकी सुगन्धि है। अनाव इसका मधुर फल है। मोक्ष ही इस वृक्ष के बीज के अन्दर का सार है। मंदराचल पर्वत को शिखर-चोटी के समान मोक्ष में जाने के लिफानिलोभता रूपी जो मार्ग है उसका यह अपरिग्रह रूपी सुन्दर वृक्ष शिखर-भूत है।" [६] ढाल गा० ७ प्रथमाई मन, वचन, काया, को.योग कहते हैं। करना, कराना. और अनुमोदन, करना इन,तीनों को करण कहते हैं... करण और योगों के परस्पर सम्मिलन से त्याग की नौ कोटियां बनती हैं : Scanned by CamScanner Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियां डाल-१ १-एक करण एक योग की कोटि । २-एक करण दो योग की कोटि । ४ -३-एक करण तोन योग की कोटि । ४-दो करण एक योग की कोटि । ५-दो करण दो योग की कोटि । ६-दो करण तीन योग की कोटि । ७-तीन करण एक योग को कोटि । -तीन करण दो योग की कोटि । ९-तोन करण तीन योग की कोटि । साधु के नौ ही कोटियों से अव्रह्मचर्य-सेवन का त्याग होता है। जो मन, वचन, काया और करने, कराने और अनुमोदन के किसी भी भज से अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करते वे ही ब्रह्मचर्य को अखण्डित रूप से पालन करनेवाले कहे जाते हैं। स्वामीजी कहते हैं-जो अखण्ड रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, कहना होगा. उन्होंने सब से बड़ी विजय प्राप्त कर ली। कहा है। इथिओ जे न सेवन्ति आइमोक्खा हु ते जणा। -सू०१.१५:९ : -जो पुरुष स्त्रियों का नहीं सेवन करते वे मोक्ष पहुंचने में अग्रसर होते हैं। जे विनवणाहिजोसिया, संतिण्णेहि सम वियाहिया। तम्हा उड्ट ति पासहा. अदक्खु कामाई रोगवं ॥ -सू०१,२३:२ -काम को रोग-रूप समझकर जो स्त्रियों से अभिभूत नहीं हैं. उन्हें मुक्त पुरुषों के समान कहा गया है। स्त्री-परित्याग के बाद ही मोक्ष के दर्शन सुलभ हैं। जहा नई वेयरणी. दुतरा इह समया । एवं लोगसिनारीओ, दुत्तरा अमईमया ॥ -सू० १,३।४:१६ -जिस तरह वैतरणी नदी दुस्तर मानी जाती है, उसी तरह इस लोक में अविवेकी पुरुष के लिए स्त्रियों का मोह जीतना कठिन है। जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया। सव्वमेयं निराकिच्चा ते ठिया सुसमाहिए | -सू०१. ३।४:१७ -जिन पुरुषों ने स्त्री-संसर्ग और काम-शृगार को छोड़ दिया है, वे समस्त विनों को जीत कर उत्तम समाधि में निवास करते हैं। एए ओघ तरिस्सन्ति, समुद] ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चन्ती सयकम्मणा ॥ -सू०१.३।४:१८ -ऐसे पुरुष इस संसार-सागर को, जिसमें जीव अपने-अपने कर्मों से दुःख पाते हैं, उसी तरह तिर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को। [१०] ढाल गा० ७ उत्तराई संसार में सब से प्रबल आसक्ति नारी की है। इस आसक्ति पर विजय पाने के बाद अन्य आसक्तियों पर विजय पाना कठिन नहीं रहता। यही माव ७ वी गाथा के उत्तरार्द में प्रगट हुआ है। इसका आधार आगम की निम्न गाथाएँ हैं : मोक्खाभिकरिखस्स उ माणवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे । asomniran m EURUZHERasaiCarARATHITAGE Handichiabhiprana Scanned by CamScanner Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. शील की नव बाड नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्थिओवालमणोहराओ। -उत्त०३२:१७ एए य संगे समइक्कमित्ता सुदुत्तरा चेव भवंति सेसा । जहा - महासागरमुत्तरित्ता नई भवे अवि गंगासमाणा || -उत्त० ३२:१८ -जो पुरुष मोक्षाभिलाषी है. संसार-भीर है, धर्म में स्थित है. उनके लिए भी मूर्ख के मन को हरने वाली स्त्रियों को आसक्ति को पार पाने से अधिक दुष्कर कार्य इस लोक में दूसरा नहीं है । -इस आसक्ति को जीत लेने पर शेष आसक्तियों का पार पाना सरल है। महा सागर तिर लेने पर गंगा के समान नदियों का तिरना क्या दुष्कर है? [११] ढाल गा०८: उत्तराध्ययन के संकेतित स्थान का कुछ अंश इस प्रकार है:.: : . ... ..... सब मे आउस तेण भगवया एवमक्खाय। इमे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहिं दस बम्मचेरठाणा पन्नता, जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमवहले संवरबहले समाहिबहले गुते गुत्तिदिए गुतवम्भयारी सया अप्पमते विहरेजा ॥ तं जहा: (2) नो इत्थीपसुपण्डगसंसत्ताइ सयणासणाइ सेवित्ता हवइ से निग्गन्थे। (२) 'नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गन्थे। (३) नो इत्थोणं सद्धिं सन्निसेज्जागए विहरित्ता हवइ से निग्गन्थे । (४) नो इत्थीण इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्झाइत्ता हवइ से निग्गन्थे । (1) नो इत्थीर्ण कुजुन्तरंसि वा दूसन्तरंसि वा भित्तन्तरंसि वा कूइयंस वा रुइयसदं वागीयसह वा हसियसई वा थणियस वा ___कन्दियसई वा विलवियस वा सुणेत्ता हवइ से निग्गन्थे । (६) नो निग्गन्थे पुव्वरय पुव्वकीलिय अणुसरिता हवइ से निग्गन्थे। . (७) नो पणीयं आहार आहरित्ता हवइ से निग्गन्थे। (८) नो अइमायाए पानभोयणं आहारेत्ता हवइ से निग्गन्थे। (९) नो विभूसाणुवादी हवइ से निग्गन्थे। (१०) नो सद्दरुवरसगन्धफासाणुवादी हवइ से निग्गन्थे। ... ...... ......... Scanned by CamScanner Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. हिवें कहूं छू जू सील तणी नव बाड़ । जूइ, दिसा, दसमों कोट ते चिहूँ मां ब्रह्मचर्य वरत सार ॥ FR गांव रे ते न रहें कीधां रहिसी तो खेत इण कीधां दोली २- खेत ३ –ज्यं ब्रह्मचारी विचरें ठम ठांम छै तिण कारण इण वीर कही The do te वेरागी नव ते दिन ४ – बाड़ न लोपें तेहनें, रहें वरत अभंग | थका, विरकत २ चढतें रंग ' ॥ गोर्खे, राड़ | विधें, बाड़ ॥ तिहां, नार । सील री, बाड़ ॥ -अथवा नारी भली न संगति धर्मकथा कहवी बेसी तिणरें ५ – हिवें पेहली बाड़ में इम को, रात । नारी रहें विहां तिण ठामें रहिणों रह्यां वरत वणी हुवे घात ॥ नहीं, एकली, तास । नहीं, पास ।।. प्रथम बाड़ ढाल : २ दुहा १- अब मैं शील की नव बाड़ों का अलग-अलग वर्णन करता हूँ। इन बाड़ों के चारों और दसव कोट है। नव बाड़ और दसवें कोट के भीतर ब्रह्मचर्य रूपी सार व्रत सुरक्षित रहता है। २ - गाँव की सीमा पर बिना बाड़ का खेत झगड़ा करते रहने से सुरक्षित नहीं रह सकता । यह तो तभी सुरक्षित रहेगा, जबकि उस खेत के चारों ओर दुहरी बाड़ लगा दी जायगी । १३- जहाँ ब्रह्मचारी विचरण करता है वहाँ स्थान-स्थान पर स्त्रियाँ हैं । इसी कारण जिनेश्वर • भगवान् ने शील रूपी खेत की सुरक्षा के लिए नव बाड़ का कथन किया है। ४ - जो ब्रह्मचारी बाड़ों का उल्लंघन नहीं करता, उसका शीलत्रत अभंग रहता है। ब्रह्मचर्य में उस विरक्त वैरागी का अनुराग बढ़ता ही जाता है । ५- प्रथम बाड़ में ऐसा कहा है कि जहाँ स्त्री रहती हो वहाँ ब्रह्मचारी को रात्रि में वास नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से व्रत का घात होता है । ६-- अथवा स्त्री अकेली हो तो उसकी संगति . अच्छी नहीं। अकेली स्त्री के पास बैठ कर धर्मकथा भी नहीं कहनी चाहिए । Scanned by CamScanner Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ७- विण संका थी ओगुण उपजे, पां लोक | अछत्तो आल सिर, वले हुर्वे वरत पिण फोक ॥ आवें ८ - तिण सूं ब्रह्मचारी रहिणों छें भणी, एकंत ४ । ..हि कुण-कुण जायगां वरजवी, ज ते मतिवंत " ॥ NE 72 S १ - भाव धरी नित पालीयें, गिरउ ब्रह्म चरत सार हो । ब्रह्मचारी जिण थी सिव सुख पांमीयें, तूं बाड़ म खंडे लिगार हो । ब्रह्मचारी आ पेहली बाड़ ब्रह्मचर्यनी* ॥ २- मंजारी कूकड़ मूसग कुसल संगत मोर थी किहां घांटी मरोड़ ढाल [ नणदल नी देशी ] रमें, हो । ब्र० तेहनें, हो ॥ त्र० शील की नव बाड़ ७ — कारण यह है कि उससे अवगुण उत्पन होते हैं। लोग शंका- प्रस्त होते हैं। बिना कारण सिर पर कलंक आता है और व्रत का भी विनाश हो जाता है। -अस्त्री पसु निपुंसक जिहां बसे, तिहां रहिवो नहीं वास हो । ० तेहनीं संगत वारीए, वरत न करें विणास हो ॥ त्र० ८ - अतः ब्रह्मचारी को एकान्त स्थान मैं रहना कल्प्य है । ब्रह्मचारी को किन-किन स्थानों का वर्जन करना चाहिए, उनको मैं कहता हूँ। बुद्धिमान् ध्यानपूर्वक सुनें । 315 .१ - हे ब्रह्मचारी ! तीव्र भावना के साथ ब्रह्मचर्य - व्रत का पालन कर । ब्रह्मचर्य त सव व्रतों में महान् और सारपूर्ण है। तू ब्रह्मचर्य की इस बाड़ को, खण्डित मत कर, जिससे कि तुझे शिव-सुख की प्राप्ति हो । यह ब्रह्मचर्य की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे । २ - हे ब्रह्मचारी ! चूहे, मोर और मुर्गे यदि बिल्ली के साथ खेल खेलते हैं तो वे सुरक्षित कैसे रह सकते हैं ? बिल्ली गर्दन मरोड़ कर उन्हें मार डालती है। यह ब्रह्मचर्य की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे । | ३ हे ब्रह्मचारी ! जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक वास करते हों उस स्थान में तुम मत रहो । ब्रह्मचारी ! उनकी संगति से दूर रहो, क्योंकि उनकी संगति ब्रह्मचर्य व्रत का विनाश करती है । यह ब्रह्मचर्य की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे । Scanned by CamScanner Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम बाड़ : ढाल : २ गा०४-८ ४-हाथ पांव छेदन कीया, कांन नाक छेद्या तास हो । ७० ते पिण सो वरस नी डोकरी, रहिवों नहीं तिहां वास हो ॥. ४-जिसके हाथ, पैर, कान, नाक कटे हों, ऐसी सौ वर्ष की विकलांगी वृद्धा भी जहाँ रहती हो वहां ब्रह्मचारी का रहना कल्प्य नहीं। ___ यह ब्रह्मचर्य-व्रत की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे। ५-सझ. सिणगार देवांगणा, आई चलावण तास हो । ब्र. तिण आगे तो चलीयों नहीं, तो ही रहिणों एकंत वास हो ॥७० -सोलह शृङ्गार से सुसज्जित देवाङ्गना विचलित करने आये और उससे भी जो पुरुष विचलित न हो उसे भी एकान्त स्थल में ही वास करना चाहिए। यह ब्रह्मचर्य-व्रत की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे। ६-अस्त्री हुवे तिहां वासो रहे, ६–जहाँ स्त्री रहती है वहां ब्रह्मचारी के रहने कदा चल जाओं परिणाम हो । बामणो से संभव है कि कदाचित् उसका मन विचलित हो जब दिढ रहिणों दोहिलों, जाय | उस हालत में दृढ़ रहना मुश्किल हो जाता है मिष्ट हुवें तिण ठाम हो ॥७० और वह उस स्थान पर ही भ्रष्ट हो जाता है। यह ब्रह्मचर्य-व्रत की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे। ७-सीह गुफावासी जती", रहों वेस्या चित्रसाल हो । व. तुरत पस्यों वस तेहन, गयो देस नेपाल हो ॥ ब्र० ७-सिंह-गुफावासी यति वेश्या की चित्रशाला में आकर ठहरा तो वह भी तुरंत उसके वश . में हो गया और अपनी वासना की तृप्ति के लिए कम्बल लाने नेपाल देश गया। .. यह ब्रह्मचर्य-व्रत की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे। ameriIHINDISEMESTERSTA unismakarma- mariomarathi wwyerHTR R ८-कुल बालूरो" साध थो, तिण भाग्यो वरत रसाल हो । ७० कोणक री गणका वस पस्यों, ते रुलसी अनंतो काल हो ॥७० ८-कुल बालुड़ा नामक एक साधु था । कोणिक की गणिका के वशीभूत हो उसने उत्तम व्रत को भंग कर दिया जिसके कारण वह अनन्त काल तक संसार में परिभ्रमण करेगा। यह ब्रह्मचर्य-व्रत की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे। arateam की Scanned by CamScanner Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ रहें, जिहां उंदर ते घात पामे ततकाल पामे ततकाल ज्यं नारी नारी तिहां ब्रह्मचारी हो । प्र० रहें, भांगे सीयल रसाल हो ॥ प्र० १२ ६- मंजारी १० बाड़ सहीत - पालीयें, पूरीजे हो । ० आ सीख दीघी है वो भणी, तूं रहिजे जायगां एकंत हो " ॥ म० सुध मन खांत Cat fax for the let me on 03 ६--पूर्व क्रीड़ा स्मरण का परिहार । ७- विषयवर्द्धक आहार का परिहार । शील की नब बाढ़ ६- जहाँ बिल्ली रहती है, वहाँ यदि चूहे रहे तो वे तुरंत ही विनाश को प्राप्त होते हैं। वैसे ही जहाँ नारी है वहाँ रहने से ब्रह्मचारी के उत्तम शीलत्रत का भङ्ग होना स्वाभाविक है । यह मह्मचर्य व्रत की पहली बाढ़ है कि महावारी एकान्त स्थान में वास करे । -अति आहार का परिहार । ९- शरीर-विभूषा और मजार का परिहार । १०- अतः मनकी पूरी चौकसी के साथ नव बाड़ सहित ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर । हे ब्रह्मचारी ! - भगवान् ने तुम्हें यह शिक्षा दी है कि तू एकान्त जगह में रह । यह ब्रह्मचर्य व्रत की पहली बाड़ है कि ब्रह्मचारी एकान्त स्थान में वास करे । टिप्पणियाँ ये दस नियम निम्न प्रकार हैं: चै १ - एकान्त शयनासन का सेवन स्त्री-सहित मकानादि का परिहार | २- स्त्री कथा का परिहार । ३ - स्त्री के साथ एकासन का परिहार । ४ - स्त्रियों की मनोहार, मनोरम इन्द्रियों के निरीक्षण और ध्यान का परिहार । ५- स्त्रियों के नाना प्रकार के मोहक शब्दों को सुनने का परिहार । [१] दोहा १-४ भगवान् महावीर ने 'उत्तराध्ययन सूत्र ( अ० १६ गाथा १) में वह्मचर्य में समाधि - स्थिरता प्राप्त करने के दस उपाय वतलाए हैं। करना आवश्यक होता है। इन नियमों का नाम गुप्ति है। गुप्ति जोड़कर इन्हें ही ब्रह्मचर्य के दस समाधि स्थान कहा गया है। परकोटे की तरह है। गाँव की सीमा पर अवस्थित खेतों की पशुओं से रक्षा करने के लिए उनके चारों ओर वाड़ लगानी पड़ती है और वाड़ों के बाहर साई सोदनी पड़ती है। इसी तरह से जहाँ बाचारी होते हैं, वहाँ सब जगह स्त्रियाँ भी होती है। अतः शील-ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए कितने ही नियमों का पालन अर्थात् रक्षा का साधन - उपाय - बाड़। गुप्तियाँ नौ कही गई हैं। एक अधिक नियम इनमें से पहले नौ नियम वाड़ों की तरह हैं और दसवाँ नियम उनके चारों ओर कि 3 vier aft TE WRITE JETS RAT fes प्रिंस १० - शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श रूपी विषयों के सेवन का परिहार । ब्रह्मचर्य-रक्षा के इन उपायों के पालन करने से संयम और संवर में दृढ़ता होती है। चित की चंचलता दूर होकर उसमें स्थिरता आती है। मन, वचन, काया तथा इन्द्रियों पर विजय होकर अप्रमत्त भाव से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है। व्रह्मचारी को इन्हें हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। Scanned by CamScanner Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम बाड़ डाल २ टिप्पणियाँ [२] दोहा ५-६ : प्रथम वाड़ को व्याख्या स्वामीजी ने दो प्रकार से की है। जहाँ खो रहती हो वहाँ ब्रह्मचारी रात्रिवास न करे-यह प्रथम व्याख्या है। ब्रह्मचारी किसी भी समय अकेली स्त्री को संगति न करे, यहाँ तक कि अकेली स्त्री को धर्म-कथा मी न कहे—यह दूसरी व्याख्या है। स्वामीजी ने आगे का विवेचन इन दोनों व्याख्याओं को ध्यान में रखकर किया है। प्रथम दाड़ की ऐसी परिभाषा का आधार आगम के निम्न वाक्य हैं : इत्थोपसता - निर्धन्धा, स्त्री, पशु तथा नपुंसक से संसक शयन- आसन आदि का सेवन न करें। समरेसु अगारेषु सन्धीय मह एगो थिए सद्धि नैव चि नये ॥ इस दोहे का आधार आगम का निम्नलिखित श्लोक है : गासमा विचारसिया - उत्त० १:२६ - घर की कुटी में, घरों में, घरों की सन्धियों में और राजमार्ग में अकेला साथ अकेली स्त्री के साथ न खड़ा हो और न उसके साथ संलाप करें। [ ३ ] दोहा ७ : [४] दोहा ८: - आचारांग ०२ : १५ (चौथे महाव्रत को पांचवीं भावना) अदु नाइणं च सुहोणं वा अप्पियं दद एगया होइ। गिद्धा सत्ता कामेश क्लोस मनुस्सोऽसि ॥ आठवें दोहे के प्रथमार्द्ध का आधार निम्नलिखित छोक है - किसी स्त्री के साथ एकान्त स्थान में बैठे हुए साधु को देखकर उस स्त्री के ज्ञातो होता है। वे समझते हैं कि जैसे दूसरे पुरुष काम में आसक्त रहते हैं. इसी तरह यह साधु भी इसका भरण-पोषण भी कर क्योंकि तू इसका पत्ति है । १५ - - सू० १४१: १४ और सुहृदों को कभी-कमी चित्त में अत्रिय-दुःख उत्पन्न कामासक्त है। फिर वे क्रोधित होकर कहते हैं कि तू विवित्तमगणं रहिये इत्योजग य बॅनचेरस्स रखड्डा आलयं तु निसेवर ॥ उत० १६:१ मुमुचर्य की रक्षा के लिए विविक्तसाली अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित स्थान में वास करें। [ ५ ] दोहा ८ : आगे जो वर्णन आया है उसमें ब्रह्मचारी को स्त्री, पशु और नपुंसक से संसक्त स्थान का वर्जन करने का कहा गया है। इस विषय में 'प्रश्नव्याकरण' सूत्र में बड़ा गम्भीर विवेचन है। वहाँ कहा है गोओ कर्हिति य कहाओ व जनजा "जस्य इरिथयात्र अनिक्स मोहोरा राग — जहाँ मोह और रति-काम-राग को बढ़ानेवाली स्त्रियों का वार वार आवागमन हो और जहाँ पर नाना प्रकार को मोहजनक स्त्री-कथाएँ कही जाती हो ऐसे सब स्थान ब्रहाचारी के लिए वर्जनीय है। जत्थ मणोविव्ममो वा मंगो वा मंसणा वा अट्टं रुई च हज्ज झाणं तं तं वज्जेज वज्जमीरु -प्रश्न २४ पहली भावना - जिन स्थानों में रहने से मन विभ्रम को प्राप्त होता हो, ब्रह्मचर्य के सम्पूर्ण रूप से या अंश रूप से मंग होने की आशंका हो और अपध्यानआ और रौद्रं ध्यान उत्पन्न होता हो वै स्थान पाप-भीरु ब्रह्मचारी के लिये वर्जित हैं। Scanned by CamScanner Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ [ ६ ] डाल गा० २-३ : स्वामीजी की इन गाथाओं का आधार निम्नलिखित श्लोक है जहा कुक्कुडपोयस्स निच्च कुललओ मयं एवं भयारिस्स इत्थीविग्गहओ भयं ॥ - दस० ८:५४ जेसे मुर्गी के बच्चे को दिल्ली से हमेशा भय रहता है उसी तरह ब्रह्मचारी को स्त्री-शरीर से भय रहता है। [७] ढाल गा० ४ : स्वामीजी को इस गाथा का आधार निम्नलिखित पाठ है : ; णो णिग्थे इत्थीपसुपंडग सत्ताई सयणासणाई सेवित्तर सिया केवली वूया - णिग्गंथेणं इत्थोपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणे संतिया संतिविभंगा संतिकेवलिपणताओ धम्माओ मेसेजा। हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णनासविकप्पियं । अवि वाससई नारि वंभयारी विवजाए ॥ - आचारांग सुत्र श्रु० २ अ० १५ चौथे महाव्रत की पाँचवी भावना - निर्व्रन्थ, स्त्री, पशु, नपुंसक से संसक्त शय्या, आसन का सेवन न करे केवली भगवान ने कहा है कि स्त्री, पशु तथा नपुंसक से संसक्त शय्या तथा आसन के सेवन से शान्ति का भेद, शान्ति का भंग होता है और निर्ग्रन्थ केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। [८] ढाल गा० ४ : स्वामीजी की इस गाथा का आधार निम्नलिखित श्लोक है : कामं तु देवीहि विभूसियाहिं। न चाइया खोभइउं तहा वि पूर्णताहि लि नच्चा विवितवासी मुगिणं - दस०८:५६ जिसके हाथ पैर एवं कान कटे हुए हैं तथा जो पूर्ण सौ वर्ष की वृद्धा है ऐसी स्त्री की संगति का भी ब्रह्मचारी विवर्जन करे। [ ६ ] ढाल गा० ५ : स्वामीजी को इस गाथा का आधार निम्नलिखित लोक है : vart इसकी कथा परिशिष्ट में देखिए परिशिष्ट-क कथा १४ शील की नव बाद [११] कुल बालूड़ा इसकी कथा परिशिष्ट में देखिए। परिशिष्ट-क कथा १५ [१२] ढाल गा० १ : स्वामीजी की इस गाथा आधार का निम्नलिखित छोक है : तिगुत्ता ॥ पसस्थी ॥ D - उत्त० ३२ : १६ मन, वचन और काया से गुप्त जिस परम संयमी को विभूषित देवाज्ञनाएं भी काम से विह्वल नहीं कर सकतीं उस मुनि के लिए भी एकान्तवास ही हितकर जान स्त्री आदि से रहित एकान्त स्थान में निवास करना ही श्रेष्ठ है। [१०] सिंह गुफावासी यति 11 जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसल्या एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे न वंभयारिस्स समो निवासी ॥ P aveng dad y tr -उत्त० ३२ : १३ —-जैसे विल्लियों के निवास के मूल में- समीप चूहे का रहना शुभ नहीं, उसी तरह से जिस मकान में स्त्रियों का वास हो, उस स्थान में ब्रह्मचारी के रहने में क्षेम-कुशल नहीं । Scanned by CamScanner Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम बाड़: ढाल २: टिप्पणियां जाय। [१३] ढाल गा० १०: स्त्री के साथ सहवास करने में ब्रह्मचारी के लिए बड़ा खतरा है. इसलिए उसे पकान्त स्थान में रहने का उपदेश हा कहा जउकुम्भे जहा उवज्जोई। संवासे विऊ विसीएज्जा ॥ -सू०१,४।१:२६ -जिस प्रकार आग्नक निकट लाख का घड़ा गल जाता है, उसी प्रकार विद्वान पुरुष भी स्त्री के सहवास से विषाद को प्राप्त होता है। अह सेऽणुतप्पई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । एवं विवेगमायाय, संवासो न वि कप्पए दविए । -सू०१.४ | १:१० -विष मिश्रित खोर के भोजन करनेवाले मनुष्य को तरह स्त्रियों के सहवास में रहनेवाले ब्रह्मचारी को पोछे विशेष अनुताप करना पड़ता है। इसलिए पहले से ही विवेक रखकर मुमुक्षु स्त्रियों के साथ सहवास न करे। . Scanned by CamScanner Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ – कथा न कहणी ते जिण कही दूजी जो नारी कथा कहें हु वरत नार नीं, बाड़ ' । तेह सूं, विगाड़ ॥ चरत में, मांय । कथा, नांय ॥ नहीं मन २ - जे झूल रह्या ब्रह्म त्यांरे विर्षे ते ब्रह्मचारी नें नारी करवी सो दूजी बाड़ कथा न कहणी नार नीं ढाल : ३ दुहा ११ - जात रूप कुल देसनीं रे, नारी ढाल [ कपूर हुवें अति उजलो ए ] वार कथा कहें जेह | वार कथा करें, तो किम रहें वरत सूं नेह रे । भवीयण नारी कथा निवार, तूं तो दूजी बाड़ विचार रे || आँ० ॥ १ - जिन भगवान ने दूसरी बाड़ में बताया है कि ब्रह्मचारी को नारी की कथा - चर्चा नहीं करनी चाहिए। नारी की कथा करने से व्रत की क्षति होती है। -चंद मुखी मिरग लोयणी रे, वेणी जां भूयंग | दीप सिखा सम नासिका रे, होठ प्रवाली रे रंग रे ॥ भ० ॥ २ – जो ब्रह्मचर्य व्रत रूपी झूले में झूल रहा है, उसके मन में तनिक भी विषय वासना नहीं होती । ऐसे ब्रह्मचारी को नारी की कथा कहना शोभा नहीं देता । १ - जो स्त्रियों के जाति, रूप, कुल या देश सम्बन्धी कथाएँ बार-बार कहता है, उसका ब्रह्मचर्य के प्रति स्नेह कैसे रह सकता है ? हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर । २, ३, ४ - मन में विवेक लाकर ब्रह्मचारी ऐसा वर्णन न करे - अमुक नारी चन्द्रमुखी है; मृगनयनी है । उसकी वेणी सर्पिणी की तरह काली है । उसकी नासिका दीपशिखा के सदृश है। उसके अधर Scanned by CamScanner Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दजी बाड़ : ढाल : ३ गा० ३-८ ३ वाणी कोयल जेहवी रे. हाथ पांव रा करें वखांण। . हंस गमणी कटी सींह समी रे, नाभि ते कमल समांण रे॥भ०॥ ४-कूख जें जेहनी अति भली रे, वले अंग उपंग . अनेक। त्यांने वारंवार न सरावणा रे, आंणी मन में विवेक रे २ ॥०॥ ५–जथातथ कहितां थकां रे,... दोष नहीं , लिगार। पिण विनां काम कहिवा नहीं रे, - नारी रूप वर्ण सिणगार रे ॥ भ०॥ ६-नारी रूप सरावतां रे, बधैं छे विषे विकार । परिणाम चल विचल हुवे रे, .. हुवे वरत नों विगाड़ रे ॥०॥ प्रवाल के रंग की तरह हैं। उसकी वाणी कोयल की तरह मधुर है। उसके हाथ-पांव इस तरह के सुन्दर हैं। उसकी चाल हंस की तरह है। उसका कटि-प्रदेश सिंह की तरह है। उसकी नाभि कमल के समान है। उसकी कुक्षि अति सुन्दर है। ब्रह्मचारी मन में विवेक लाकर इस तरह नारी के अंग-उपांग की बार-बार सराहना न करे। __ हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ५-यद्यपि यथातथ्य वर्णन करने में जरा भी दोष नहीं, तथापि बिना कारण नारी के रूप, वर्ण एवं शृङ्गार का वर्णन नहीं करना चाहिए। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ६–कारण, नारी के रूप की सराहना–प्रशंसा करने से विषय-विकार की वृद्धि होती है। परिणाम चल-विचल हो जाते हैं, जिससे व्रत में विकृति आती है। हे भव्य । तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ७-मल्लीकुमारी के रूप की प्रशंसा सुन कर छः राजाओं के परिणाम विचलित हो गये और उन्होंने मल्लीकुमारी के साथ सम्बन्ध करने के लिए अपनेअपने दूत भेजे। इससे मल्लीकुमारी के पिता और उनकी मित्रता की तान बिगड़ गई। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ८-इसी प्रकार मृगावती के सौन्दर्य का वर्णन सुनकर चण्डप्रद्योतन राजा ने कोशम्बी नगरी को घेर कर भयंकर नर-संहार करवाया। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ७-मली कुमारी नों रूप सांभल्यो रे, छहूं राजां रा चलीया परिणाम । त्यां सगाई करण ने दूत मेलीयो रे, विगड्यो मांहो मांहीं तान रे * ॥ भ०॥ ८-मिरगावती रो रूप सांभल्यो रे, चंडप्रद्योत राजान ।। तिण कोसंबी नगर घेरो दीयों रे, करायो मिनषां रो घमसांण रे ॥भ०॥ Scanned by CamScanner Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शील की नव बाड़ -तिणरे हाथै न आई मिरगावती रे, ते यही हुओ खुराव । फिट २ हुओ लोक में रे, . घणीं पड़ाइ आव रे ॥भ०॥ १०-पदमोतर राजा नारद कनें रे, द्रोपदी रा रूप री सुण वात । देव कनें मंगाई तिण द्रोपदी रे, तो इजत गमाई साख्यात रे ॥ भ०॥ ११-नारी कथा सुणने विगड्या घणां रे, त्यांरा कहितां न आ पार। ते भिष्ट हुवां वरत भांग में रे, ते हार गया जमवार रे ।। भ०॥ १२-नींव फल नी वारता सुणयां रे, मुख पाणी मेले छ ताय । ...... ज्यं अस्त्री कथा सुणीयां थकां रे, परिणाम थोडा में चल जाय रे ॥ भ०॥ -पर मृगावती उसके हाथ नहीं आई और वह व्यर्थ ही खराब हुआ। वह लोक में धिक्कारा गया। उसने अपनी प्रतिष्ठा खो दी। .. हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। १०-महाराजा पद्मोत्तर ने नारद से द्रौपदी के रूप की बात सुनकर देव के द्वारा द्रौपदी को अपने पास मँगवा लिया। पद्मोत्तर को इस कार्य के कारण अपनी इज्जत देनी पड़ी। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। - ११–नारी-कथा के सुनने से अनेक (व्यक्ति ) बिगड़ चुके हैं, जिनका कहने से पार नहीं आता। वे व्रतों को भंग कर भ्रष्ट हो गये और उन्होंने अपना जन्म व्यर्थ में खो दिया। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। __ १२-जिस प्रकार नीबू ( फल ) का वर्णन सुनने से मुख में पानी छूटने लगता है, उसी प्रकार नारी की कथा सुनने से परिणाम शीघ्र विचलित हो जाता है। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। १३-मन में शंका तथा कांक्षा उत्पन्न होती है। ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है कि मैं शीलवत पालूं या नहीं ? इसी कारण भगवान ने दूसरी बाड़ में कहा है कि ब्रह्मचारी को नारी-कथा नहीं करनी चाहिए। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। ___१४-बार-बार स्त्री-कथा नहीं करनी चाहिए। जो इस दूसरी बाड़ का शुद्ध रूप से पालन करेगा वह अविचल धाम-मोक्ष को प्राप्त करेगा। हे भव्य ! तू दूसरी बाड़ का विचार करता हुआ स्त्री-कथा का वर्जन कर। १३-संका कंखा वितिगछा मन उपजे रे, सीयल परत पालू के नांहीं । तिण सं नारी कथा करवी नहीं रे, दजी बाड़ रे माही रे ॥ भ०॥ १४.-वार वार अस्त्री तणी रे, कथा न कहणी -तांम। ए बीजी बाड़ सुध पालसी रे, ते पांमसी अविचल ठाम रे ॥भ०॥ Scanned by CamScanner Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दजी बाड़ : ढाल : ३ टिप्पणियां टिप्पणियाँ atestandise uPARohirondowsiderstNAAChudaimonic L [१] दोहा १-२ स्वामीजी ने दूसरी बाड़ की जो परिभाषा यहाँ दी है, उसका आधार आगम के निम्न स्थल है। नो इत्थीर्ण कह कहिता हवद से निग्गन्थे -जो स्त्री कथा नहीं कहता वह निग्रंथ है। उत्त० १६:२ मणपाहायजणणी, कामरागविदङ्कणी । वम्भचेररओ मिकरस , थोकहं तु विवज्जए॥ -उत्त० १६ श्रो०२: -ब्रह्मचारी मनको चंचल करनेवाली और विषय-राग को बढ़ानेवाली स्त्री-विषयक कथाएं न कहे। णारीजणस्स मज्झे ण कहियावा कहा विचित्ता। विव्वोयविलाससपउत्ता हाससिंगार लोइयकहटव मोहजपणी ॥ कहाओ सिंगार कलणाओ तवतजमवमचेर घाओवधाइयायो। अणुचरमाणेणं वंभचेर न कहियव्वा न सुणियव्वा न चिंतियव्दा।। प्र०२४ दूसरी मावना -ब्रह्मचारी खियों के बीच में विभ्रम, विलासयुक्त, हास्य, शृङ्गार तथा मोह उत्पन्न करनेवाली विचित्र कथाएँ न कहे। -शृङ्गार-रस के कारण मोह उत्पन्न करनेवाली तथा तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात-उपवात करनेवाली कामुक कथाएँ द्राचारी न कहे. न सुने और न उनका चिन्तन करे। [२] ढाल गा० १-४ : स्वामीजी ने इन गाथाओं में जो बात कही है. उसका आधार आगम के निम्न वाक्य हैं : "न आवाहविवाह वर कहाविव इत्थीणं वा सुभगभग कहा चउसर्व्हि य महिलागुणा ण वण्ण देस जाइ कुल रुव णाम णेवत्थ परिजन कहा इत्थियाण अण्णा विय एवमाइयाओ कहाओ सिंगार कलुणाओ तवसजमवभचेर घाओवघाझ्याओ अणुचर माणेणं वमचेर ण कहियव्वा ण सुणियव्दा म चितियदा. एवं इत्थीकहविरइसमिइ जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरयागामधम्मे जिइंदिए वमचेर गुते। -प्र०२-४ दूसरी मावना -नूतन विवाह किए हए वर-वधू अथवा विवाह करनेवाले वर-वधू की कथा नहीं करनी चाहिए। --स्त्रियों के सौभाग्य-दुर्भाग्य की कथा नहीं करनी चाहिए। -कामशास्त्रों में वर्णित स्त्रियों के चौसठ गुणों का वर्णन नहीं करना चाहिए। स्त्रियों के वर्ण, देश, जाति, कुल, रूप, नाम नेपथ्य और परिजन सम्वन्धी कथाएँ न करनी चाहिए। शृङ्गार रस के कारण मोह उत्पन्न करनेवाली कथाएं न करनी चाहिए। इसी प्रकार की अन्य कथाएँ जो तप, संयम और ब्रह्मचर्य का घात-उपघात करनेवाली हों, उन्हें ब्रह्मचर्य का अनुसरण करनेवाला ब्रह्मचारी न कहे, न सुने और न उनका चिन्तन करे। -ब्रह्मचारी कथा-विरति-समिति के योग से अंतरात्मा को भावित करनेवाला होता है। ऐसा मैथुन से निवृत्त, इन्द्रियों के विषयों से रहित. जितेन्द्रिय पुरुष ब्रह्मचर्य में गुप्त होता है। [३] ढाल गा०६ स्वामीजी ने इस गाथा में जो बात कही है उसका आधार सूत्र के निम्न वाक्य हैं : णो णि अभिक्खणं अभिक्खणं इत्थीण कह कहइत्तए सियाः केवलो व्या-णिग्गथे णं अभिवखणं २ इत्थीर्ण कह कहमाणे संतिमेदा संति विभंगा संति केवलिपण्णताओ धम्माओ मसज्जा -आ०२-१५ : (चौथे व्रत की पहली मावना) Scanned by CamScanner Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ -निग्रंथ वार-वार स्रो-कथा न करें। केवली भगवान ने कहा है-वार-वार स्त्री-कथा करने से मन को शान्ति का भङ्ग तथा विभन्न होता है और ब्रह्मचारी केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। [४ ] ढाल गा०७: 'मल्ली कुमारी' का जीवन वृतांत परिशिष्ट में दिया गया है। परिशिष्ट-क कथा १६ । [५] ढाल गा०८-६: 'मृगावती' की कथा परिशिष्ट में दी गई है। परिशिष्ट-क कथा १७. [६] ढाल गा० १० द्रोपदी को कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा १८ [७] ढाल गा० १३: स्वामीजी ने जो वात यहाँ कही है, उसका आधार सूत्र के निम्न वाक्य हैं: निग्गन्थस्स खलु इत्थोणं कह कहेमाणस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कखा वा विइगिच्या वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा केवलि पण्णताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा नो इत्थीणं कह कहेज्जा। उत्त० १६. २ PF -- -स्त्रियों की कथा करने से निग्रंथ ब्रह्मचारी के मनमें ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है। -उसके कांक्षा और विचिकित्सा उत्पन्न होती हैं। संयम का भेद और भंग होता है। उन्माद की उत्पत्ति होती है । दीर्घकालिक रोगातक होते हैं। वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। इसलिए स्त्री-कथा नहीं कहनी चाहिए। Scanned by CamScanner Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजी बाड़ एकण सय्या नहीं बेंसवों १-तीसरी बाड़ में ऐसा कहा गया है कि ब्रह्मचारी को नारी के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए। यह जिन शासन की रीति है। १-हिवें तीजी बाड़ में इम कयों, ब्रह्मचारी नार सहीत। - एकण सय्या नहीं .. बसवों, ए जिण सासण री रीत '॥ २-अंगन कुंड पासे रहें. १३३" तो प्रगले घृतनों कंभ । का। • ज्यू नारी संगति पुरष नों, रहें किसी पर बंभ २ ॥ - २-अग्नि-कुण्ड के समीप रखा हुआ घी का घड़ा पिघल जाता है वैसे ही स्त्री की संगति करने पर पुरुष का ब्रह्मचर्य कसे रह सकता है ? ___३-हे ब्रह्मचारी! योगी ! यति ! तू नारी का संसर्ग मत कर, क्योंकि स्त्री के साथ एक आसन पर बैठने से ब्रह्मचर्य का भंग हो जाता है। ३-ब्रह्मचारी, जोगी न जती, न करें नार प्रसंग । का एकण : आसण वसतां, थाों वरत नो भंग ॥ ४–पावक गालें लोहने, . जो रहे पावक संग । ____ ज्यू एकण आसण .सतां, . न रहें वरत सुरंग ॥ ४-जैसे अग्नि के संसर्ग में रहने से अग्नि लोहे को गला देती है, उसी तरह नारी के साथ एक आसन पर बैठने से ब्रह्मचर्य सुरङ्ग-स्वच्छ नहीं रहता। ज .. [ अभिया राणी कहे धाय ने ] १-तीजी बाड़ हिवे चित्त विचारो, १-अब तीसरी बाड़ पर विचार करो। हे नारी सहित आमण निवांगे लाल ब्रह्मचारी ! तू नारी के साथ एक आसन पर बैठने ____ एकण आसण बेठां काम दीपं छ, | का त्याग कर। एक आसन पर बैठने से कामोते ब्रह्मचारी ने आछों नहीं , लाल ॥ हीपन होता है ; अतः ब्रह्मचारी के लिए नारी के साथ एक आसन पर बैठना हितकर नहीं। तीजी बाड़ हिवें चित्त विचारो ॥आँ०॥ - ब्रह्मचारी! तुम इस तीसरी बाड़ का मन में चिन्तन करो। DIYE Scanned by CamScanner Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ २-एकण आसण वेठां आसंगो थावें, आसंगे काया फरसावें लाल । काया फरस्यां विषं रस जागें, इम करतां जावक वरत भार्गलाल' ॥ती०॥ २-एक आसन पर बैठने से नारी का संसर्ग होता है। नारी-संसर्ग काया का स्पर्श कराता है। काया के स्पर्श से विषय-रस की जागृति होती है। विषय-रस की जागृति से सम्पूर्ण व्रत भंग हो जाता है। ३–पाट, बाजोट, शैय्या, संस्तारक आदि अनेक प्रकार के आसन हैं। जिनेश्वर भगवान् के वचन को सम्मुख रख कर कोई भी ब्रह्मचारी नारी के साथ एक आसन पर न बैठे। ४-स्त्री के साथ एक आसन पर बैठने से लोगों में ब्रह्मचारी के प्रति शंका हो जाती है। लोग उस पर मिथ्या कलंक लगाते हैं तथा उसके सम्बन्ध में नाना मिथ्या-प्रचार करते हैं। ३-पाट बाजोट सेजा संथारो जांणों, एहवा आसण अनेक पिछांणों लाल। तिहां नारी सहीत बसों मत कोई, जिण वचनां साहमो जोई लाल " ॥ती०॥ ४-अस्त्री सहीत से एकण आसण, तोवले लोक पडें , विमासण लाल । अछतोई आल दे करें फितूरो, वले बोलें अनेक विध कूड़ो लाल' ॥ती०॥ ५-जिन ठांमे बैठी हुवें नारी, तिण ठांमे न उसे ब्रह्मचारी लाल । बसें तो अंतर मूहरत टाली, वेद सभाव संभाली लाल " ॥ती०॥ ६-नारी वेद रा पुदगल विण थी, र नर वेद विकार वेद जिणथी लाल। ॐ यं हीज नारी ने पुरष सूं जाणों, कार ___ माहोमां वेद विकार पिछांणों लाल ॥ती०॥ ७–नारी फरस वेद्यां हुवें भोग रो रागी, जब जावें वरत सं भागी लाल । इण कारण एकण आसण सणों नाहीं 'नारी फरस डरणों मन मांहीं लाल ॥ती॥ ५-वेद के स्वभाव का ध्यान रख कर जिस स्थान से स्त्री उठी हो, उस स्थान पर ब्रह्मचारी तुरंत न बैठे। अगर बैठे तो अन्तर मुहूर्त का समय टाल कर बैठे । कार ६-नारी-वेद के पुद्गलों से पुरुष-वेद विकार को प्राप्त होता है। उसी प्रकार पुरुष-वेद के पुद्गलों से नारी-वेद । इस प्रकार संसर्ग से परस्पर वेद-विकार उत्पन्न होता है। यह समझो । -स्त्री-स्पर्श से वेदानुभव को प्राप्त हो ब्रह्मचारी भोग का अनुरागी बनता है। इससे व्रत भंग or हो जाता है। इसी कारण से ब्रह्मचारी को नारी के संग एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए और नारी-स्पर्श से मन में डरते रहना चाहिए। ८-सम्भूत चक्रवती की रानी ने मन में अनुराग लाकर मुनि को वन्दन किया। मुनि को रानी के हाथों का स्पर्श हुआ। मुनि ने नियाना कर चारित्र खो दिया और दुर्गति का रास्ता अपनाया । ८-श्रीरांणी सम्भूत वांयोआणी मनरागोंकि कर फरस मुनी तन लागों लाल । तिण चारित्र खोय नीहांणों कीधों, दुरगत नों पंथ लीधो लाल ॥ती॥ Scanned by CamScanner Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीजी बाड़ : ढाल ४ : गा०६-१४ १ ते देव थईने चक्रवत हुवों, भोग मांहें गिधी थकों मूंओ लाल । सातमी नरक मांहें जाय पड़ीयो, पाप सं पूर्ण भरीयो लाल ॥ती०॥ ६-मृत्यु के बाद वह मुनि देवता हुआ। वहाँ से च्यवकर चक्रवर्ती हुआ और भोगों में गृद्ध रहता हुआ पापों से परिपूर्ण हो काल प्राप्त कर सातवीं नरक में गया। १०–नारी फरस वेद्यां सं ओगुण अनेक, तिण तूं आसण न वेसणों एक लाल। संखा कंखा वितिगिछा उपजे मनमांहीं सील वरत पालू के नाही लाल " ॥ती०॥ १०-नारी-स्पर्श के वेदन से अनेक दुर्गुण होते हैं। अतः नारी के साथ एक आसन पर नहीं बैठना चाहिए। इससे शंका, कांक्षा उत्पन्न होती है तथा शीलव्रत का पालन करूँ या नहीं, यह विचिकित्सा उत्पन्न होती है। ११-ए बाड़ लोपी तिण वात विगोई, तिण दीयों ब्रह्म वरत खोई लाल । ते नरक निगोद मांहें जाय पडीया, ते संसार में रडबडिया लाल ॥ती०॥ ११-जिसने इस तीसरी बाड़ का लोप किया, उसने व्रत-भङ्ग कर ब्रह्मचर्य व्रत को खो दिया। ब्रह्मचर्य व्रत से पतित होनेवाले नरक निगोद में गिरे और उन्होंने संसार में परिभ्रमण किया ।.. १२-काचर कोहलो फाड्यां कर फाटों, तिण सं वाक तूट हुवे आटो लाल। ज्यं अस्त्री सं एकण आसण बेठांतांम ब्रह्मचारीरा चले परिणाम लाल" ॥ती०॥ १२-जैसे काचर और कोहल (कद्दू) को काटकर आटे में गूंथने से आटा लसरहित हो जाता है, उसी प्रकार एक आसन पर बैठने से ब्रह्मचारी . के परिणाम चलित हो जाते हैं। २-१३-मा बेन बेटी पिण इमहीज जाणों, एकण आसण मतीय वेसाणों लाल। त्यां सं पिण भाग गया , अनंत, ते भाग्यो , श्री भगवंत लाल" ती०॥ १३-माता, बहन या बेटी के प्रति भी यही नियम समझो । ब्रह्मचारी उन्हें भी अपने साथ एक आसन पर नहीं बैठावे, क्योंकि इनसे भी अनेक व्रतधारियों के व्रत भंग हुए हैं, ऐसा भगवान् ने कहा है। १४-इम सांभल तीजी बाड़ म लोपो, ब्रह्मचर्य में थिर पग रोपो लाल । तो सिव रमणी ने वेगी वरसों, आवागमण न करसों लाल ती०॥ १४–अतः उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए तीसरी बाड़ का उल्लंघन मत करों। 'ब्रह्मचर्य । में अपने पैरों को स्थिर रखो, जिससे कि तुम शीघ्र ही शिव-रमणी को वरण करो और आवागमन को मिटा सको। Scanned by CamScanner Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... शील की नव वाड़ टिप्पणियाँ [१] दोहा १: स्वामीजी के इस दोहे का आधार आगम का निम्नलिखित वाक्य है : णो णिग्गथे इत्थीहिं सद्धिं सन्नि सिज्जागए विहरेज्जा -उत्त०१६:३ -निर्ग्रन्थ स्त्री के साथ एक आसन पर न बैठे। दोहा २, ३ के 'नारि-संगति', 'नार-प्रसंग' आदि शब्दों से ऐसा लगता है कि केवल स्त्री के साथ एक आसन पर बैठना ही तीसरी वाड़ नहीं बल्कि स्त्रियों की संगति न करना, उनके साथ घुल-मिलकर वार्तालाप आदि के प्रसंग में न पड़ना, उनके साथ अत्यधिक परिचय न करना आदि भी इस वाड़ के अन्तर्गत आते हैं। .. ....... ... . ... . स्वामीजी के द्वारा प्रस्तुत तीसरी बाड़ के इस व्यापक स्वरूप का आधार आगम के निम्न स्थल हैं: समं च संथवं थीहिं. संकहं च अभिक्खणं । बंभचेर रओ भिक्खू णिच्चसो परिवज्जए॥ -उत्त०१६ लो०३ -ब्रह्मचर्य में रत भिक्ष स्त्रियों के साथ सहवास, परिचय, वार-वार वातचीत का हमेशा परिवर्जन करे । 'गिहिसथवं न कुज्जा, कुज्जा साहूहिं संथवं । -दश०८:५३ -ब्रह्मचारी गृहस्थ स्त्री से परिचय न बढ़ावे। वह साधु से हो परिचय करे। .... णो संपसारए. णो ममाए। णो कयकिरिए, वइगुत्ते अज्झप्प संवुडे परिवज्जए सदा पावं -आचा०-११५:४ -ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ परिचय न करे, उनसे ममता न करे, उनकी आगत-स्वागत न करे, उनसे बात करने में वचन-गुप्त हो। वह मन को वश में कर हमेशा पापाचार से दूर रहे। नो तासु चक्खु संधेज्जा, नो वि य साहसं समभिजाणे। नो सहियं पि विहरेज्जा, एवमप्पा सुरक्खिवो होइ । -सू०१.४।१:५ -ब्रह्मचारी स्त्रियों पर दृष्टि न साधे, उनके साथ कुकर्म का साहस न करे। ब्रह्मचारी स्त्रियों के साथ विहार न करे। इस प्रकार स्त्रीप्रसंग से वचने से आत्मा सुरक्षित होती है। ... ... ... इत्थिसंसग्गो, ... ... ... । नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा | -दश०८:५७ -आत्मगवेषी ब्रह्मचारी के लिए स्त्री-संसर्ग तालपुट विष की तरह है। [२] दोहा २. स्वामीजी के इस दोहा का आधार आगम का निम्न श्लोक है: जउ कुम्भे जोइउवगूढे, आसभित्तते नासमवयाइ । . एवित्थियाहि अणगारा, संवासैण नासमुवयन्ति । सू०१:४१:२७ Scanned by CamScanner Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीजी बाड़: ढाल ४: टिप्पणियाँ minutsukoliticAMACHARiotiauntilads -जैसे अग्नि के पास रखा हुआ लाख का घड़ा शोघ तप्त होकर सा आलाख का घड़ा शनि तप्त होकर नाश को प्राप्त हो जाता है, उसी तरह स्त्रियों के सहवास से अनगार का संयम रूपी जीवन नाश को प्राप्त हो जाता है। स्वामीजी ने घी का दृष्टान्त दिया है। आगम में लाख का दृष्टान्त है। [३] दोहा ४ स्वामीजी ने इस दोहे में जो अग्नि और लोह का उदाहरण 'नआरलाह का उदाहरण दिया है वह उनका मौलिक दृष्टान्त है। स्वामीजी के कथन का सार यह है कि में अग्नि कठोर स कठार लाह का मा उसमें डालने पर गला देती हैं, उसी तरह कोई चाहे कितना हो बड़ा तपस्वी क्यों न हो. यदि वह स्त्रा क साथ पकासन पर बैठता है तो उसका मनोवल क्षीणता को प्राप्त हुए बिना नहीं रह सकता। अतः एकासन पर न बैठना, यह समस्त ब्रह्मचारियों के लिए एक सामान्य नियम है। स्वामीजी के इस दोहे का आधार आगम का निम्नलिखित श्लोक है : जे एयं उंछ' अणुगिढा अन्नयरा हंति कुसोलाण । सुतवस्सिए वि से भिक्खू. नो विहरे सह णमित्थोसु ॥ -सू०१.४।१:१२ -सुतपस्वी भिक्षु भी स्त्री के साथ विहार न करे। [४ ] ढाल गा० १-२ एकासन पर बैठने पर ब्रह्मचारी का पतन किस तरह होता है. इसका वड़ा सुन्दर मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इस गाथा में है। एक आसन पर बैठने पर संसर्ग होता है. संसर्ग से स्पर्श होता है. स्पर्श से तीव्र विषय-वासना की जागृति होती है. विषय वासना की जागृति से संयोग होता हैं। इस तरह ब्रह्मचर्य व्रत का सम्पूर्णतया नाश होता है।। 'गोता' में पतन का क्रम निम्नरूप में मिलता है : ध्यायतो विषयान् पुंसः संगस्तेषूपजायते । सहात् संजायते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥ गते कामः कामात् क्रोधोऽभिजायते ॥ क्रोधात् भवति संमोह संमोहात् स्मृति विभ्रमः । स्मृतिभ्रंशात् बुद्धिनाशो वृद्धि नाशात् प्रणश्यति ॥ -गोता अ० ११: ६२-६३ -विषयों का चिन्तन करनेवाले पुरुष को उनमें आसक्ति उत्पन्न होती है,आसक्ति से कामना होतो है और कामना से क्रोध होता है। क्रोध से मूढ़ता उत्पन्न होती है. मूढ़ता से होश ठिकाने नहीं रहता, होश ठिकाने न रहने से ज्ञान का नाश हो जाता है और जिसका ज्ञान नष्ट हो गया वह मृतक तुल्य है। [५] ढाल गा० ३: गा०३: इस गाथा में 'आसन' शब्द का अर्थ बताया गया है। पाट-अर्थात् बेठने का काठ का तरन्ता-पीठ, बाजोट-पाट से बड़ा तरता. सज्जा-शय्या-सोने का पाट, संथारा-संस्तारक-विद्यौना आदि 'आसन' की परिभाषा में आते हैं। [६] ढाल गा०४: इस गाथा का आधार सूत्र का निम्नलिखित श्लोक है:.. : अदु णाइणं च सहीणं वा, अप्पियं दढ़ एकया होइ। गिद्धा सत्ता कामहिं रक्खणपोसणे मणुस्सोऽसि ॥ -सू०१.४।१:१४ [७] ढाल गा० ५ इस गाथा में ब्रह्मचारी को उस स्थान या आसन का तुरंत उपयोग करने की मनाही है जिस स्थान या आसन पर से स्त्री तुरंत हो उठी ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए यह आवश्यक माना गया है कि ऐसे स्थान या आसन पर साधु अंतर मुहूर्त के पहले न बैठे। melan Scanned by CamScanner Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़, "आचार्य नेमिचन्द्र ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' की टीका में लिखा है-ऐसी साम्प्रदायिक मान्यता है कि ऐसे स्थान पर ब्रह्मचारी एक मुहूर्त तक न वैठे। इसका कारण वेद स्वभाव या प्रकृति है । [८] गा० ६-७: नारी वेद और पुरुप वेद के पुद्गगलों का परस्पर ऐसा कोई आकर्षण है कि उन पुद्गलों के स्पर्श से परस्पर विकार उत्पन्न होने की संभावना रहती है। नारी वेद के पुदगलों के स्पर्श से पुरुष में काम-राग उत्पन्न हो जाता है और पुरुष वैद के पुद्गगलों के स्पर्श से नारी में। अतः इन पुद्गगलों के स्पर्श से बचना ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक और उपयोगी माना गया है। एकासन पर न बैठने के नियम का एक हेतु यह वेद-स्वभाव है। [६] गा० ८-६ सम्भूत चक्रवर्ती की कथा के लिए देखिये परिशिष्ट-क कथा १९ .. [१०] ढाल गा० १०: -स्वामीजी की इस गाथा का आधार आगम के निम्न वाक्य हैं : "णिग्गंथस्स खलु इत्थोहिं सद्धिं सणिसेज्जागयस्स वंभयारिस्स वंभरेचे संका वा कखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भयं वा लमिज्जा, उम्मार्य वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा" -उ०१६:३ -स्त्री के साथ एकासन पर बैठने से, ब्रह्मचारी के मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका होती है। अब्रह्मचर्य को आकांक्षा होती है। उसकी आत्मा में विचिकित्सा होती है। शांति का भेद-भङ्ग होता है। उन्माद होता है। दीर्घकालिक रोगांतक होता है। अंत में वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। [११ ] ढाल गा० १२ स्वामीजी ने काचर और कोहल का जो दृष्टान्त यहाँ दिया है. वह उनकी स्वाभाविक दृष्टान्तिक बुद्धि का सुन्दर नमूना है। ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य के साथ जो एकान्त मनोयोग रहता है वह नारी के साथ एकासन पर बैठने से उसी तरह टूट जाता है जिस तरह काचर और कोहल से आटे के लस का नाश हो जाता है। स्वामीजी की इस गाथा का आधार सूत्र का निम्न स्थान है:.." अपि धूयराहि सुण्हाहिं, धाईहिं अदुव दासीहि । . महईहिं वा कुमारीहिं. संथ से न कुज्जा अणगारे । ... . सू० १.४।१:१३ .... -चाहे वेटी हो, वेटे को वह हो, धाय हो या दासी हो. वड़ी स्त्री हो, या कुमारी हो, अनगार उसके साथ संस्तव-मेलजोल न करे। कुव्वन्ति संथवं ताहि. पब्मट्ठा समाहिजोगेहि। सू०१:४।१:१६ ..... तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित व कण्टगं नया ॥ -जो स्त्रियों के साथ मेलजोल करता है वह समाधि योग से भ्रष्ट हो जाता है। अतः स्त्रियों को विष-लिप्त कटक के समान जानकर ब्रह्मचारी उनके संसर्ग का वर्जन करे । १-उत्त० नेमि० टी० पृ० २२० नो स्त्रीभिः सार्ट सन्निषद्यापीठाद्यासनं तद्गतः सन् "विहर्ता" अवस्थाता भवति, कोऽर्थः ? ताभिः सहकासने नोपविशेत् उत्थितास्वपि तासु मुहूर्त तत्र नौपवेष्टव्यमिति सम्प्रदायः। Scanned by CamScanner Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २.१ - नारी रूप नहीं निरखणो, जिण कही चोथी बाड़ । ए सुध मांन जे पालसी, तिण सफल कीयो अवतार 2 11 चोथी बाड़ नारी रूप नहीं निरखणो दुहा जोवी २ – चित्र लिखित जे पिण केवलग्यांनी • दसवीकालिक इम पूतली, नांहि, कों।. a मांहि ॥ नीं विकार । ४ १- मनहर इंद्री नार तिण दीठांई बधें मिरग जाल ज्यूं पास रच्यो संसार " ||गुण रे || नर भणी रे, जोईये, M रूप न जोइयें नहीं धर राग ॥सु• ॥ ढाल ५ [ मोहन मूंदडी ले गयो ] दीवलो २- नारी रूप भोगी पुरष झंपे सुख रे कारण दा कोमल अंग ॥सु० ना० ॥ 1 रे, पतंग | रे, १ - जिन भगवान् ने चौथी बाड़ में यह कहा है कि नारी के रूप आदि का निरीक्षण नहीं करना चाहिए। जो शुद्ध समझ कर इस बाड़ का पालन करेगा, वह मनुष्य जन्म को सफल करेगा । २ - केवल ज्ञानी भगवान् ने 'दशवेकालिक-सूत्र, कहा है कि साधु को चित्राङ्कित पुतली हो उसका भी अवलोकन नहीं करना चाहिए । में १ - स्त्रियों की इन्द्रियाँ मनोहर होती हैं । उनके निरीक्षण मात्र से ही मन में विकार की वृद्धि होती है। स्त्रियों के मनोहर अंगोपाङ्ग मृगजाल की तरह हैं। मनुष्यों के लिए संसार में यह पाश रचा हुआ है। अतः हे सद्गुणी ! स्त्री के रूप को रागपूर्वक मत देख | २- स्त्री का रूप दीपक के समान है और भोगी पुरुष पतंग के समान । वह सुख प्राप्ति के लिए उसमें गिरता है और अपने कोमल शरीर को जला डालता है । Scanned by CamScanner Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० शील की नव बाड़ ३-कामिनी जादूगरनी है। उसने सारे संसार को वश में कर लिया है। भाग्यवश ही कोई उससे बच पाया है। देव और मानव सभी उसके सामने हार चुके हैं। ४-नारी रूप में रम्भा के सदृश होती है। वह वचन की भी बड़ी मधुर होती है। नारी को नजर भरकर देखने से व्रत नष्ट हो जाता है। . ५-सुन्दर रूपवाली स्त्री को देखकर कामान्ध पुरुप उसमें आसक्त होता है। वह स्त्री-भोग में सुख मानता है ; किन्तु यह नहीं जानता कि स्त्री दुर्गति का बन्धन करनेवाली है। ३-कांमणगारी कामणी रे, वस कीयो सर्व संसार। .. ___ आखी अणी कोयक रह्यो रे, सुर नर गया सर्व हार * ॥सु० ना०॥ ४-रूपें रंभा सारिपी रे, बले मीठाबोली हुर्वे नार । ते निजर भरे ने निरखता रे, वरत ने होवें विगाड ॥सु० ना०॥ ५-रूप में रूडी देखने रे, मांहें पडें काम अंध । - सुख मांणे जाणे नहीं रे, ते पाडे दुरगत नों बंध ॥सु० ना०॥ ६-रूप घणों रलीयामणों रे, ___वले अपछरे रे उणीयार।। ते देखे रीमो किसं रे, आ मल मूतर रो भंडार ॥सु० ना०॥ उ ७-अशुच अपवित्र नों कोथलो रे. कलह . काजल नों ठाम । बार श्रोत वहें सदा रे, चरम दीवडी नाम ॥सु० ना०॥ ८-देह उदारीक कारमी रे, खिण में भंगुर थाय । । सपत धात रोगाकुली रे, जतन करतां जाय ॥सु० ना०॥ &-अबला इंद्री निरखता रे, बाधे विषे रस पेम। राजमती देखी करी रे, तुरत डिग्यों रहनेम "॥सु० ना०॥ ६-भले ही कोई नारी रूप में बहुत मनोहर और अप्सरा के समान हो, किन्तु, उसे देखकर क्यों मुग्ध होते हो ? वह तो मल-मूत्र का . भाण्डार है। ७-नारी अशुचि और अपवित्रता की थैली है। वह कलह रूपी काजल की कोठरी है। उसकी देह से बाहर स्रोत बहते रहते हैं, जिससे उसका 'चर्म दीवड़ी' नाम पड़ा है। ८-यह देह औदारिक और नाशवान है । यह क्षणभंगुर है। सप्त धातु का यह शरीर रोगाकुल है, जो यन्न करते रहने पर भी नाश को प्राप्त हो जाता है। ह-स्त्रियों की इन्द्रियों का निरीक्षण करने से विषय-रस के प्रति अनुराग बढ़ता है। राजीमति को देखकर रथनेमि तत्काल विचलित हो गया। Scanned by CamScanner Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tamacucce %E १०-रूपी राजा नारी-वेद से आकर्षित हो चक्षु-कुशील हो गया। बाड़ को भंग कर वह लाखों भव में भटका। बोधी बाड़ : ढाल ५ : गा० १०-१६ १०-नारी वेद नरपति थयो, वले चल कूसीलीयो ते थाय। बाड़ भांग लाखां भवां रे, रुलीयो रूपी राय ''सु० ना०॥ ११-सेठ घरे जामो लीयो रे, नाम इलापुतर जाण । ते नटवी रूपे मोहीयो रे, ते वसीयो नटवां घरे आंण ॥सु० ना०॥ ११-एलाचीपुत्र ने सेठ के घर जन्म लिया। वह एक नटवी के रूप में मोहित हो गया और नट के घर आकर रहने लगा। १२-एक बार वह बांस पर खेल दिखाने के लिए चढ़ गया। वह हर्ष से फूला नहीं समाता था। एलाचीपुत्र राजा के धन की इच्छा करता था और राजा उसके प्राणघात की। १३-मणिरथ ने मैनरहा के रूप को देखकर अपने भाई युगबाहु की हत्या कर दी। वह भी उसी कारण से मृत्यु को प्राप्त हुआ और दुर्गति रूपी अन्धकूप में जा गिरा। १२ ते बांस उपर चढ़ नाचतो रे, ते मन मांहें हरप न मात । ओ बांछे धन राय नों रे, राय बांछे इणरी घात "॥सु० ना०॥ १३- मणरथ बंधव मारीयो रे, . मेणरेहा रो देखी रूप। - मरण पांम्यो तिण जोग सरे, वले जाय परयो अंध कूप "सु० ना०॥ १४–अरणक संजम आदरयो रे,.. दीधी संसार में पूठ। ते नारी रूपें मोहीयो रे, . ते नारी लीयो तिण लूट "॥सु० ना०॥ १५-एक पत्री आंणों ले जावतां रे, मारग मांहें मिलीयो चोर । तिणनें पत्री वांण वाया घणां रे, चोर फरसी सून्हांख्या तोड ॥सु० ना०॥ १६-हिवें एक बांण बाकी रह्यो रे, जब अस्त्री निज रूप दिखाय। । ते चोर तिणरें रूप बिलंबीयो रे, जब पत्री बांण सूं दीयो ढाय ॥सु० ना०॥ १४-अरणक ने संसार से मुख मोड़कर संयम धारण किया। किन्तु वह नारी के रूप को देखकर मोहित हो गया। स्त्री ने उसका चारित्र लूट लिया ! १५-एक क्षत्रिय गौना कर ससुराल से अपनी पत्नी को लेकर जा रहा था। मार्ग में उसे एक चोर मिल गया। क्षत्रिय ने अनेक वाण छोड़े किन्तु चोर ने फरसे से उन सब वाणों को काट दिया। Sear १६-क्षत्रिय के पास केवल एक वाण बच गया । स्त्री को बचाव का एक उपाय सूझा। उसने चोर को अपना रूप दिखाया। चोर उसके सौन्दर्य को देखने में लग गया। क्षत्रिय ने तुरत वाण छोड़ उसे भूमि पर गिरा दिया। SROSATTI Scanned by CamScanner Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..३२ .....शील की नव बाड़ १७-चोर पस्यों ते देखने रे, पत्री करवा लागों मांण ।। चोर कहें गरवे किसुरे, .. म्हारे नारी नेणारा लागा वांण ॥सु० ना०॥ १७-चोर को गिरा हुआ देखकर क्षत्रिय गर्व करने लगा। तब चोर बोला-क्षत्रिय ! तुम किस कारण से इतना गर्व करते हो ? मैं तेरे वाणों से घायल नहीं हुआ हूँ। मुझे तो नारी के नयन रूपी वाणों ने बींधा है। १८-इस प्रकार अनेक मनुष्यों ने, जिनकी गिनती संभव नहीं, नारी के रूप में आसक्त होकर अपना मनुष्य-जन्म खो दिया है । १६-स्त्री के रूप की कथा कानों से सुनकर ही अनेक व्यक्ति भ्रष्ट हो गये। फिर मनुष्य ! मन में विवेक लाकर समझ-नारी के रूप को देखने से भला कैसे होगा ? . १८-इत्यादिक बहू मानवी रे, त्यांरो कहितां न आवे पार । जे नारी रूप में रीझीया रे, ते गया जमारो हार ।।सु० ना०॥ १६-नारी रूप.. कानें सुणी रे, भिष्ट हुआ छे अनेक '५। . तो दीठां गुण होसी किहां रे, समझो आंण विवेक ॥सु० ना०॥ २०–काची कारी आँख नी रे, सूर्य सामों जोयां अंध होय । ज्यं नारी नेणा निरखीयां रे, ब्रह्म वरत देवें खोय ॥सु० ना०॥ २१–ब्रह्मचारी निरखे मती रे, नारी रूप सिणगार "। . - आ सीख दीधी छे तो भणी रे, रखे चूकला चोथी बाड़ ॥सु० ना०॥ २०-जिस प्रकार आँख की कच्ची कारीवाला मनुष्य सूरज की ओर देखने से अन्धा हो जाता है, उसी प्रकार नारी के रूप को निरखने से ब्रह्मचारी व्रत को खो देता है। ... २१-अतः, हे ब्रह्मचारी ! नारी के रूप और शृङ्गार को मत देख। तुमको यह शिक्षा इसलिए दी गई है कि कहीं तुम चौथी बाड़ से न चूक जाओ । Scanned by CamScanner Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोथी बाड़: ढाल ५ : टिप्पणियां टिप्पणियाँ [१] दोहा १ पूर्वार्द्ध: चौथो वाड़ का स्वरूप आगम के निम्नलिखित वाक्यों पर आधारित है : तम्हा खलु नो निग्गंथे इत्थीणं इंदियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएज्जा निज्झाएज्जा' | उत्त: १६:४ -निग्रंथ स्त्रियों की मनोहर एवं मनोरम इन्द्रियों का अवलोकन न करे, निरीक्षण न करे । न रूवलावण्णविलास हास, न जंपियं इंगियपेहिय वा। इत्थीण चितंसि निवेसइत्ता, दटुं ववस्से समणे तवस्सी ॥ अदंसणं चैव अपत्थणं च, अचिंतणं चेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियझाणजुर्ग, हियं सया वंभवए रयाणं ॥ दम उत्त ३२:१४-१५ -श्रमण तपस्वी स्त्रियों के रूप, लावण्य, विलास, हास्य, मंजल भाषण. अंग-विन्यास. कटाक्ष को चित्त में स्थान दे, देखने का अध्यवसाय न करे। -ब्रह्मचारी को स्त्री के रूप आदि को नहीं देखना चाहिए। उसकी इच्छा नहीं करनी चाहिए, उसका चिंतन नहीं करना चाहिए. उसका कोत्तन नहीं करना चाहिए। ब्रह्मचर्य में रत पुरुष के लिए यह नियम सदा हितकारी और आर्य ध्यान- उत्तम समाधि प्राप्त करने में हितकर है। [२ ] दोहा १ उत्तराई . 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' में कहा है : उत्तमतवणियमणाणदंसणचरित्तसम्मत्त विणयमूलं." मोक्खमगर्ग विसुद्ध सिद्धिगइणिलयं ..." अपुणब्भवं ... ... अक्खयकर ...... णिरुवलेवं .......... सण्णदोच्छाइयदुग्गइपहं सुगइ. पहदेसगं । -प्रश्न० २४१ -ब्रह्मचर्य उत्तम तप, नियम, ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय का मूल है। यह मोक्ष का मार्ग है। विशुद्ध मोक्षगति का स्थान है। पुनर्जन्म का निवारण करनेवाला है। अक्षय सुख का दाता है। निरुपलेप है। यह दुर्गति के मार्ग को रोकता है. सुगति के मार्ग का प्रदर्शक है। ब्रह्मचर्य के इन गुणों के कारण जो इस.व्रत का शुद्धता पूर्वक पालन करता है निश्चय ही वह अपने जन्म को सफल करता है क्योंकि इसके द्वारा वह अपने लिए मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। [३] दोहा २: इस दोहे का आधार आगम का निम्नलिखित श्लोक है : चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलंकियं । भक्खरं पिव दवणं दिट्ठि पडिसमाहरे ॥ . -द०८:५५ -आत्मगतेपी परुष सअलंकत नारी की और यहाँ तक कि दीवार पर अहित चित्र तक की ओर गृद्ध दृष्टि से न ताके। यदि दृष्टि पड़ भी जाय तो जैसे उसे सूर्य की किरणों के सामने से हटाते हैं. उसी तरह हटा ले। १-प्रायः ऐसा ही पाठ आचाराङ्ग २ : १५ (चौथे व्रत की दूसरी भावना ) में मिलता है। ..., Scanned by CamScanner Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील को नव वाड़ [४ ] ढाल गाथा १ का पूर्वाई : इसका आधार 'दशवैकालिक सूत्र' का निम्नलिखित श्लोक है : अंगपच्चंगसंठाणं चारुल्लवियपहियं । इत्थीणं तं न निज्झाए काम राग विवडणं ॥ दश०८:५८ -ब्रह्मचारी स्त्रियों के अङ्ग, प्रत्यश, संस्थान-आकार, उनको मनोहर वाणी और चक्षु-विन्यास पर ध्यान न लगावे क्योंकि ये काम-राग को वृद्धि करने वाले हैं। [५] ढाल गाथा १ का उत्तरार्द्ध: । 'प्रश्नव्याकरण सूत्र' में कहा है का यो पङ्कपणयपासजाल भूयं UHS प्र ०४:२ -अब्रह्मचर्य पंक कीच जाल और पाश की तरह है। संभव है स्वामीजी की गाथा का आधार यही सूत्र वाक्य हो। 0 , [६ ] ढाल गाथा २ : स्वामीजी की यह गाथा आगम के निम्न लिखित श्लोक के आधार पर है स्वेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे से जह वा पयंगे, आलोयलोले समुवेइ मच्चु ॥ ... -उत्त ३२:२४...23 -जिस तरह रागातुर पतंग आलोक से मोहित हो अतृप्त अवस्था में ही मृत्यु को प्राप्त करता है. उसी तरह रूप में तीव्र बुद्धि रखने वाला मनुष्य अकाल में ही मरण को प्राप्त होता है। [७] ढाल गाथा ३:55 ... 'प्रश्रव्याकरण' सत्र में कहा है: 5 E EFT. REE "अब्रह्मचर्य देव, मनुष्य, असुर सबका प्रार्थ्य है। यह स्त्री, पुरुष और नपुंसक का चिह्न है। ऊर्ध्व, अधो और तिर्यक इन तीनों लोकों में इसका आधिपत्य है। यह चिरपरिचित है। अनादिकाल से जीव का पीछा कर रहा है। इसका अंत करना बड़ा ही कठिन है। ____ "मोह से मोहित मतिवाले अब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं। भवनपति, व्याणव्यंत्तर, ज्योतिषी और वैमानिक उसका सेवन करते हैं। मनुष्य, जलचर, थलचर, खेचर मोह से आसक्त-चित्त होते हैं। काम-भोगों में अति तृष्णा सहित हैं. काम भोग के लिये तृषातुर हैं. काम-भोगों की महती, बलवती तृष्णा से अभिभूत हैं। काम-भोगों में गृद्ध और अत्यन्त मूर्धित हैं। जैसे कोई कीचड़ में फंस जाता है वैसे अबह्मचर्य में फंसे रहते हैं। ये तामस भाव से मुक्त नहीं होते। परस्पर एक दूसरों का सेवन करते हुए मानो दर्शन और चारित्रमोहनीय कर्म का पिंजरा अपने लिये तैयार करते हैं।" स्वामीजी को गाथा संभवतः आगम के उपर्युक्त भावों पर अवस्थित है। श्री १-प्रश्न १:४ : अभं ... ": सदेवमणुयासुरस्स लोयस्स पत्थणिज्ज ..." थोपरिसणपुंसवेयचिण्हं ... ... उड्ढणरय तिरियतिल्लोकपठाणं ... ." चिरपरिगयमणुगय दुस्त ... ... तं य पुण णिसेवंति सुरगणा सअच्छरा मोहमोहिय मई ... ... मणुयगणा जलयर थलयरसहयरा य मोहपडिबद्ध चिता अवितण्हा कामभोग तिसिया तण्हाए बलवईए महईए सममिभूया गढिया य अइमच्छिया य अबभै उस्सण्णा तामसेण अणुम्मुक्का दसणचरित्तमोहस्स पंजर विव करेंति अण्णोण्ण सेवमाणा । Scanned by CamScanner Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोधी बाड़ डाल ५ टिप्पणियाँ [८] डाल गा० ४: इसका आधार आगम का निम्न वाक्य है केवली यानि - आचारांग २ : १५ ( चौथे महाव्रत को दूसरी भावना ) -केवली भगवान् कहते हैं- "जो निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों का अवलोकन करता है, निध्यासन करता है, उसकी शान्ति का भंग तथा विभन्न होता है और वह कैवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।" aas इत्थी मनोहराई इंदियाई आलोमागे निझामाने सतिनेया सन्तिविभंगा जाव धम्माओं सेजा।" [१] डाल गा० ६-८ : PORSCHE जब मेघ कुमार ने दीक्षा लेने का भाव प्रगट किया तब उसके माता-पिता ने कहा- "हे पुत्र । तुम्हारी भार्यााएँ सदृश शरीर, सदृश त्वचा, सदृश वय तथा सदृश लावण्य-रूप-यौवन और गुणों से युक्त हैं। तू उनके साथ मानुषिक काम भोग भोगने के बाद फिर प्रव्रज्या ग्रहण करना। यह सुनकर मेघ कुमार वोलाTRENDI एक 2 "माणुस्सगा कामभोगा असूई असासया वंतासवा पित्तासवा खैलासवा सुक्कासवा : सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा दुरुयमुत्तपुरिसपूयवहुपडिपुन्ना उच्चारपासवण खेलजल्ल सिंघाणगर्वतपित्तसुक्क सोणितसंभवा अधुवा अणितया असासया सडणपडणविद्धं सणधम्मा पच्छा पुरं च अवस्साविप्यजह निजा 30 wy -ज्ञाता अ० १ पृ० ५२-५३ - अर्थात् काम-भोगों का आधार स्त्री का शरीर अपवित्र है-अशाश्वत है। वमन का नाला, पित्त का नाला, श्लेष्म का नाला, शोणित का नाला, और बुरे श्वास-निश्वास का नाला है। दुर्गन्धयुक्त मूत्र, विष्टा, पीप से परिपूर्ण है। विष्टा, मूत्र, कफ, पसीना, श्लेष्म, वमन, पित्त, शुक्र, शोणित उस में उत्पन्न होते रहते हैं। यह शरीर अध्रुव है, अनियत है, अशाश्वत है, शटन, पटन और विध्वंस स्वभाव वाला है। पहले या पीछे शरीर का अवश्य नाश होता है। इसी तरह जब छः राजाओं ने मल्लि कुमारी को पाने के लिए महाराजा कुम्भ पर धावा बोला था तब मल्लिकुमारी ने राजाओं को बुलाकर जो उपदेश दिया वह भी प्राय इन्हीं शब्दों में था। उसने अंत में राजाओं से कहा " मा णं सुग्ने देवाच्या मागुस्सर काममगेसु साह राह हि मुह अज्झोववजह" [१०] डाल गा० १ का उत्तराई : -ज्ञाता अ० ८ पृ० १५४ - मानुषिक कामभोगों की संगति मत करो, उन में राग मत करो, उसमें गृद्ध मव होओ। उनमें मोह मत करो। उनका अध्यवसायचिंतन मत करो। स्वामीजी ने प्रस्तुत गाथाओं में जो बात कही है उसका आधार 'ज्ञात्ता धर्म सूत्र' के उपर्युक्त स्थल हैं अथवा अन्य आगमों के ऐसे ही स्थल । राजीमती और रथनेमि की घटना के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २० [११] डाल गाथा १० : ३५ रूपी राय की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २१ [१२] डाल गा० ११-१२ : एलाची पुत्र की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २२ [१३] डाल गा० १३ : NORR मणिरथ मदनरेखा की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २३ [१४] डाल गा० १४ : अरणक की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २४ Scanned by CamScanner Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ [१५] गा० १६ का पूर्वाई : नारी के रूप की कथा सुनकर भ्रष्ट होनेवाले व्यक्तियों के कुछ उदाहरण तीसरो दाल के विवेचन में आ चुके हैं। [१६] ढाल गा० २१ का पूर्वाई : . इस विषय में 'प्रश्न व्याकरण' सूत्र में कहा है : .. __ "तइयं नारीणं हसिय भणियं चेट्ठियविपेक्खेयगइ विलास कीलिय बिब्वोइयणट्टगोय -वाइय सरीर संठाण वण्णकर चरणणयण लावण्ण रूव जोव्वण पयोहराधर वत्थालंकारभूसणाणि य गुज्झोवगासियाई अण्णाणि य एवमाइयाई तवसजम बंभचेरघाओवघाइयाइ अणुचरमाणेणं बंभचेर न चक्खुसा ण मणसा ण वयसा पत्थेयव्वाइं पावकम्माई।" -प्रभ०२-४ तीसरी भावना अर्थात्-स्त्री का हास्य, विकारयुक्त वचन, चेष्टा, नजर, गति, विलास, क्रीड़ा, विब्वोक, नृत्य, गीत, बाजा बजाना, शरीर की बनावट, रंग-रूप, हाथ, पैर, नेत्र, लावण्य, आकार, यौवन, स्तन, अधर, वस्त्र, अलंकार, सजावट, गुह्य अंग तथा इसी प्रकार की अन्य पाप जनक वस्तुएँ, जो तप-संयम तथा ब्रह्मचर्य का पूर्ण या आंशिक रूप से घात करतो हों, ब्रह्मचर्य का अनुष्ठान करने वाले को नयन, मन, और वचन से त्याग देनी चाहिये। “एवं इत्थीरूवविरइसमिइ जोगेण माविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरय गाम धम्मे जिइन्दिए बमचेर गुत्ते।" मापन -प्रम०२-४ तीसरी भावना अर्थात्-इस प्रकार स्त्री रूपविरति-समिति के योग से भावित अंतरात्मा ब्रह्मचर्य में आसक्त, इन्द्रियों की लोलुपता से रहित, जितेन्द्रिय तथा ब्रह्मचर्य गुप्ति से युक्त होता है। Scanned by CamScanner Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - भीत परेच ताटी आंतरें, जिहां रहिता दुर्वे नर नार । तिहां ब्रह्मचारी ने रहिवों ए जिण कही पांचमीं बाड़ ' ॥ नहीं, २ - संजोगी ब्रह्मचारी तेह तणा हुवें वरत ३ - जेवर पार्से दिन पांचवीं बाड़ ब्रह्मचारी ने रहिवों नहीं, सब्द पड़े तिहां कान ढाल : ६ दुहा सब्द रहें, रात । सुण्यां, घात ॥ खलकती, ते सब्द पड़ें तिहां कांन । जब चल जाएं लागे विर्षे ब्रह्म वरत थी, सूंध्यांन ॥ आर्यन भयो १ - ब्रह्मचारी को उस स्थान पर नहीं रहना चाहिए जहाँ दीवार, पर्दा या टाटी की ओट में स्त्री-पुरुष रहते हों। जिन भगवान् ने पांचवी बाड़ कही है। १- बाड़ सुणों हिवें पांचमीं रे लाल, सील तणी रुखवाल | ब्रह्मचारी रे। ज्यँ वरत कुसलें रहें तांहरों रे लाल, व नावे अछतो आल । ब्रह्मचारी रे । बाड़ सुणों हिवें पांचमीं रे लाल ॥ १० २ - यदि ब्रह्मचारी रात-दिन संयोगी के पास रहता है तो उसके शब्दों को सुनने से उसके ब्रह्मचर्य - त की घात होती है । ३- जब जेवर और नुपूर की आवाज करती हुई स्त्री चलती है तो उसके शब्द ब्रह्मचारी के कान में पड़ते हैं, जिससे वह ब्रह्मचर्य व्रत से विचलित हो जाता है और उसका ध्यान विषय में लग जाता है। ढाल [ आनन्द समकित उच्चरे रे लाल १ - हे ब्रह्मचारी ! अब तुम पांचवीं बाड़ सुनो, जो शील- रक्षा की हेतु है, जिससे कि तुम्हारा व्रत कुशल रह सके और तुम पर झूठा कलंक न आये । Scanned by CamScanner Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ २ – भीत परेच ताटी आंतरें रे लाल, - रात । त्र० । अस्त्री पुरष रहिता हुवें तिहां कुण २ दोषण उपजे रे लाल, ते सांभलजे चितलाय | ब्र० बा० ॥ कांम । ब्र० । ३ – केल करें निज कंत सूं रे लाल, ते बोलती जगावें छे कुई सन्द करें तिहां रे लाल, रुदन सब्द करें तिण ठांम । त्र० बा० ॥ ४ – कोयल जिम बोलें कंत सूं रे लाल, गावें मधुरें साद । ब्र० । काम बसें हडि २ हसें रे लाल, बोलती करें उनमाद । प्र० बा० ॥ ५ - वले थणित क्रंदित सब्द तिहां रे लाल, वले विलपति सब्द हुवें तां । त्र० । तिहां रहितां एहवा सब्द सांभलें रे लाल, जब चल जायें तुरत परिणांम २ | ब० बा० ॥ R ६ - गाज तण सब्द सुणी रे लाल, रित पांमें पपहीया मोर । त्र० । यं भोग स रा सब्द सांभल्यां रे लाल, लागें वरत ने खोड | ब्र० बा० ॥ 9- इम सांभल ने रहिवो नहीं रे लाल, सन्द पड़े तिहां कांन । प्र० । ए पांचमी बाड़ सुध पालीयां रे लाल, पांमें मुगति निधांन | त्र० बा० ॥ शील की नव बाड़ २ – जहाँ पर्दा या टाटी की ओट में स्त्री-पुरुष रात में रहते हों वहाँ रहने से कौन-कौन से दोप उत्पन्न होते हैं, उसका वर्णन करता हूँ । ध्यानपूर्वक सुनो। ३ - स्त्री अपने प्रियतम से क्रीड़ा करती है और शब्दों से उसे कामोत्तेजित करती है। वह कभी कूजित - शब्द करती है और कभी रुदन- शब्द । ४ - वह कभी कोयल की तरह मधुर आलाप करती है और कभी मधुर शब्दों में गाती है । काम के वशीभूत होकर वह कभी अट्टहास करती है और कभी मदमत्त शब्द बोलती है । % ५ - इसी प्रकार वहाँ स्थभित, क्रन्दित और विलापात के शब्द होते हैं। ऐसे स्थान पर रहने से ब्रह्मचारी के कानों में उपर्युक्त शब्द पड़ते हैं और उसके भाव विचलित हो जाते हैं। ६- जिस प्रकार घन-गर्जन सुनकर मोर और पपीहा रति को प्राप्त करते हैं; उसी प्रकार भोगदोष लगता है। समय के कामोद्दीपक शब्दों को सुनने से व्रत में केशवर यह सुनकर, जहाँ कानों में शब्द पड़ने की संभावना हो वहाँ ब्रह्मचारी को नहीं रहना चाहिए । जो इस पाँचवी "बाड़ को शुद्ध रूप से पालन करता है वह परम गति मोक्ष को पाता है। Scanned by CamScanner Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापी मार दाल : टिप्पणियाँ टिप्पणियाँ [१] ढाल दोहा १. स्वामीजी की यह व्यारस्या आगमाँ के निम्नलिखित वाक्यों पर आधारित है : तम्हा सलु नो निगायतरसि वा दूसन्तरसि वा मिति(सिवा कायसह वा रुझ्यसह वा गीयसह वा हसियमई वा थणियस वा दियसई या विलवियसः वा सूर्णमाण विहरेजा। -उत्त० १६:५ -टाटी, पर्दे,भीत आदि की ओट में रहकर निर्ग्रन्थ स्त्रियों की मधुर ध्वनि. रदन. गीत. हास्य, विलास और विषय प्रेम के शब्दों को न सुने। यही वात 'उत्तराध्ययन सूटा' मैं अन्यत्र भी कही गयी है। कूपय राय गीय हसिय थणियकन्दिय। बम्भचेररओ थीर्ण सोयगेझ विवज्जए । -उत्त०१६:५ [२] ढाल गा० ५. स्वामीजी की इस गाथा का आधार आगम के निम्नलिखित वाक्य है: निग्रोथस्स खल इत्थीण कुञ्जन्तरसि वा दूसन्तरसि वा मिततरसि वा कुइयस वा रुइयस वा गीयसह वा हसियसदं वा थणियसई वा कन्दियसह वा विलवियसई वा सुणेमाणस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कखा वा विइगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा, उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालिय वा रोगायक हवेज्जा केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसज्जा -उत्त० १६:५ -जो ब्रह्मचारी टाटी, परदे,भीत आदि की ओट में रहकर स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, विलास, क्रन्दन, विलापादि के शब्द सुनता है, उसके मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका उत्पन्न होती है। वह अब्रह्मचर्य की आकांक्षा करने लगता है। ब्रह्मचर्य का पालन करू या नहीं, उसके मन में ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है। ब्रह्मचर्य का भेद होता है। उन्माद और दीर्घकालिक रोगातक होते हैं और वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। Scanned by CamScanner Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - हिव छठी बाड़ में इम कयों, चंचल खाधों मत २- मन मन म पीधों छठी बाड़ खाधों पीधों विलसीयों, ते मत याद अणाय ढाल ७ : दुहा याद डिगाय | विलसीयों, अणाय ॥ भोगव्या, गमता भोग ते याद कीयां गुण ए बाड़ भांग्यां वरत अजस हुर्वे लोक मांहि ' ॥ नांहि । खंड हुर्वे, १ – हाव भाव सब्द नारी तणा, त्यांणीयां बधे विषे विकार रे । हवा सब्द आगे सुणींया दुर्वे, त्यांने याद न करणा लिगार रे । छठी बाड़ सुणो ब्रह्मचर्य नीं ॥ ढाक [ रे जीव मोह अनुकम्पा नांणीए ] -वर्ण गोरादिक सरीर नों रूप सोभायमान अतंत रे । reat अस्त्री सूं भोग भोगव्या, चीतारे नहीं वरतवंत रे ॥ छ० ॥ १ – छठी बाड़ में ऐसा कहा गया है कि तुम अपने चंचल मन को मत डुलाओ। पूर्व सेवित खान-पान, भोग-विलास का स्मरण मत करो । ३- गंध रस चोवा नें चंदणादिक, मधूरादिक अनेक रे । ते पिण अस्त्री संघातें भोगव्या, ते पिण याद न करणों एक रे ॥ छ० ॥ २–पूर्व में भोगे हुए भोगों के स्मरण करने में कोई हित नहीं है। इस बाड़ का भंग करने से ब्रह्मचर्य व्रत खण्डित होता है और लोगों में अपयश फैलता है। १ - स्त्रियों के हाव-भाव पूर्ण शब्दों के श्रवण से विषय विकार बढ़ता है। पूर्व में इस प्रकार के सुने हुए शब्दों का जरा भी स्मरण न कर । हे ब्रह्मचारी ! ब्रह्मचर्य की छठी बाड़ सुनो । २ - गौरादि वर्ण से युक्त अति सुषुमासंपन्न रूपवती स्त्री से भोगे हुए भोगों को व्रतधारी स्मरण न करे । ३ - स्त्री के साथ सेवित चोवा, चन्दन आदि अनेक सुगन्धित द्रव्यों की गन्ध एवं विविध मधुर रसों का स्मरण ब्रह्मचारी को नहीं करना चाहिए । Scanned by CamScanner Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही बाड़: ढाल ७: गा०४-१० ४-हाथ-पांव से सुकुमार कोमलांगी तथा सुख-स्पर्श-वाली स्त्री से पूर्व में की गई क्रीड़ा का मन में चिंतन नहीं करना चाहिए। ५-स्त्री के साथ भोगे गये शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकार के काम-भोगों का स्मरण करना उचित नहीं। .. ६ स्त्री के साथ खेले गये सार-पासा, सोंगटा, . जुवा आदि अनेक खेलों का भी स्मरण नहीं करना चाहिए। -४-हाथ पग सुखमाल नारी तणा, सुखमाल सरीर सुख दाय रे। एहवी अस्त्री सं कीला करी, ते चीतारें नहीं मन मांय रे ॥छ०॥ ५-सब्द रूप गन्ध रस ने फरस, पांच परकार नां काम भोग रे । ते तो अस्त्री संघातें भोगन्या, त्यांने याद करणा नहीं जोग रे ॥छ०॥ ६-रम्या सारी पासा सोगटादिक, जूवटादिक संमत अनेक रे। ते अस्त्री. संघाते. रांमत. करी, त्यांने याद न करणी एक रे । ७–सन्द सुणीयां भांगे बाड़ पांचमी, रूप सूं चोथी बाड़ विगाड रे । फरस सूं भांगे बाड़ तीसरी, अस्त्री कथा सूं दजी वाड़ रे ॥छ०॥ ८–एक याद करें यां माहिलों, तिण सं भांगे छठी बाड़ रे। तो सगलाई याद कीयां थकां, ब्रह्म वरत में हुवें बिगाड रे ॥छ०॥ ६-मन गमता काम भोग भोगव्या, तिण सं हरषत हुवें संभाल रे। तिण बाड़ सहीत वरत खंडीया, पाणी किम रहें फूटां पाल रे' ॥छ०॥ –कामोद्दीपक शब्द सुनने से पांचवीं बाड़, रूप देखने से चौथी बाड़, स्पर्श से तीसरी बाड़ तथा स्त्री-कथा से दूसरी बाड़ भङ्ग होती है। ८-पूर्व में भोगे हुए शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श आदि में से एक का भी स्मरण करने से छठी बाड़ भङ्ग हो जाती है। इन सब को याद करने से ब्रह्मचर्य-व्रत को क्षति पहुंचती है। ६-पूर्व में भोगे हुए मनोरम काम-भोगों को याद कर जो हर्षित होता है उसने बाड़ सहित ब्रह्मचर्य-व्रत का खण्डन किया है। बांध के टूट जाने पर पानी कैसे रुका रह सकता है ? उसी प्रकार बाड़ के खण्डित होने पर ब्रह्मचर्य-व्रत कैसे सुरक्षित रह सकता है ? १०-जिनरिख ने पूर्व में भोगे हुए काम-भोगों का स्मरण कर रयणादेवी से प्रीति की। इससे यक्ष ने उसको अपनी पीठ से फेंक दिया और रयणादेवी ने उसको बुरी तरह से मार डाला। १०-पर्वला काम भोग चीतार ने, कीधी रेणा देवी सं पीत रे। जब जिन रिष ने जप न्हांखीयों, रंणा देवी मास्यों वेरीत रे ॥छ॥ Scanned by CamScanner Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ शील की नव बार ११-जहर सहीत चास पोये चालीयां, त्यांरो वांकोई न हुवाँ वाल रे । त्यांने घणां वरसां पछे कह्यो, तिण सं मरण पांम्यो ततकाल रे " ॥छ०॥ ११-वृद्धा के पुत्र ने विष युक्त छाछको पीकर, प्रस्थान किया किन्तु उसका याळ मी याँका न हुआ। पर, बहुत वर्षों के बाद जय छाछ में जहर होने की बात उसे बताई गई तब स्मरण मात्र से उसके शरीर में तुरंत विप व्याप्त हो गया और वह मर गया। १२-भाई को सर्प ने डस लिया, यह देखकर भी उसने अपने भाई को इसकी सूचना नहीं दी। जिस दिन उसको सर्पदंश की जानकारी दी गई, आघात के कारण उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। १३-जहर की याद दिलाने से अचानक असमाधि को प्राप्त कर उन लोगों की मृत्यु हो गई। इसी तरह काम-भोगों का स्मरण करने से ब्रह्मचारी ___ शील से दूर हो जाता है। १२-भाई ने पवन झंव्यों देखनें, भाई ने न जणायों ताय रे । जणायों जिण दिन धसकों पडे, ततकाल छोडी तिण काय रे ॥छ०॥ १३.-ए मुंआ जहर याद अणावीयां, पांमी अणचितवी असमाध रे। ज्यं भांगे ब्रह्मचारी सील सं, काम भोग में कीधां याद रे ॥छ०॥ १४-काम भोग ने याद कीयां थकां, संका कंखा उपजे मन मांय रे । सील पालू के पालू नहीं, वले जावक पिण भिष्ट थाय रे ॥छ०॥ १५–इम. सांभल में नर नारीयां, मत लोपो छठी वाड़ रे।। तो सील वरत सुध नीपजे, तिण सं हुवे खेवो पार रे ॥छ०॥ १४-काम-भोगों को याद करने से मन में शंका, कांक्षा, शील का पालन करूँ या नही-ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है और फिर वह अपने व्रत से समूल भ्रष्ट हो जाता है। १५ हे स्त्री-पुरुपो ! उपर्युक्त बातों को सोचकर छठी बाड़ का उल्लंघन मत करो। ऐसा करने से शुद्ध शीलवत निष्पन्न होगा जिससे तुम्हारा बेड़ा पार हो जायगा। टिप्पणियाँ [१] दोहा १-२ : स्वामोजी की इस छठी बाड़ की व्याख्या का आधार आगम के निम्न स्थल हैं: नो निरगथे पुष्वरय पुव्वकीलिय अणुसरित्ता हवइ .... -उत्त० १६ : ६ -निर्ग्रन्थ स्त्री के साथ भोगी हुई पूर्व रति और पूर्व क्रीड़ा का स्मरण न करे। हासं कि रइ दप्प, सहसावित्तासियाणि य । बम्भचेररओ थीणं नाणुचिन्ते कयाइ वि ॥ in -उत्त०१६:६.. Scanned by CamScanner Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छठी बाड़ : ढाल ७ : टिप्पणियां ४३ -ब्रह्मचारी गृहस्थ-जीवन में स्त्री के साथ भोगे हुए भोग, हास्य, क्रीड़ा मैथुन, दर्प, सहसा वित्रासन आदि के प्रसंगों का पलरयाई पुन कोलियाई सरमाणे संतिभेदा सन्तिविभंगा संति-केवलोपण्णत्ताओ धम्माओ भसज्जा। पूर्वरत, पूर्व-क्रीड़ित भौगों का स्मरण करने से शान्ति का मन होता है. उसका विभङ्ग होता है और निग्रन्थ कवला प्रर -आचाराङ्ग २ : ४३ भङ्ग होता है. उसका विभङ्ग होता है और निर्ग्रन्थ केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। [२] ढाल गा० १-६ :. . ___ इन गाथाओं का आधार निम्न आगम स्थल लगता है: चउत्थ पुव्वरय पुव्व कोलिय पुळ्व संगंथ गंथ संथुया जे ये आवाह विवाह चोल्लगेस य तिहिस जण्णेस उस्सवेसु य सिंगारागार चारवसाह हावा भाव पललिय विक्खेव विलास सालिणीहि अणुकूल पेम्मिगाहिं सद्धिं अणुभया सयण संपओगा उउसह वर कुसुम सुरभि चन्दन सुगन्धिवर वास धूव सुह रमाणज्जा उज्जगय पउर णडणट्टग जल्ल मल्ल मुट्ठिग वेलंवग कहा पव्वग लासग आइक्खगलंखमंख तूणइल्लतुम्ब वीणिय तालायरपकरणाणि य वहूणि महरसरगीय सुस्सराई अण्णाणि य एवमाइयाणि तवसंजमबंभचेरघाओवघाइयाई अणुचरमाणेणं बंभचेर ण ताइ समर्णण लब्मा दटुंण कहेउं ण वि सुमरिउं। -प्रश्र०२:४ चौथी भावना पहले (गृहस्थ अवस्था में) भोगे हुए काम-भोगों का, पहले की हुई क्रीड़ाओं का, पहले के श्वसुर आदि सम्बन्धियों का, अन्यान्य सम्बन्धियों का तथा परिचित जनों का स्मरण नहीं करना चाहिए। आवाह ( वधु का आगमन) विवाह और वालक के चूडाकर्म के अवसर पर, विशिष्ट तिथियों में, यज्ञ (नाग पूजा आदि ) तथा उत्सव (इन्द्रोत्सव आदि) के प्रसंग पर शृगार से सजी हुई सुन्दर वेष वाली स्त्रियों के साथ, हाव भाव, ललित विक्षेप, विलास से सुशोभित, अनुकूल प्रेमिकाओं के साथ पहले जो शयन या सान्निध्य किया हो उसका स्मरण नहीं करना चाहिए। ऋतु के अनुकूल सुन्दर पुष्प, सुरभित चन्दन, सुगन्धित द्रव्य, सुगन्धित धूप, सुखद स्पर्शवाले वस्त्र, आभूषण आदि से सुशोभित स्त्रियोंके साथ भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना चाहिए। रमणीय वाद्य, गीत, नट, नर्तक (नाटक ). जल्ल ( रस्सी पर खेल करनेवाला नट), मल्ल. मुष्टिक (मुट्ठी से कुस्ती करनेवाला मल्ल), विदूषक, कथाकार, तैराक, रास करनेवाले-भाण्ड, शुभाशुभ वताने वाले आख्यायक, लंख (वड़े वाँस पर खेल करने वाले), मंख (चित्र दिखाकर भीख मांगनेवाले ). तुम्बा बजाने वाले, ताल देने वाले, प्रेक्षक इन सव की क्रियाओं को, माँति-भाँति के मधुर स्वर से गाने वालों के गीतों को, तथा इनके अतिरिक्त तप-संयम-ब्रह्मचर्य का एक देश या सर्व देश से घात करनेवाले व्यापारों को, ब्रह्मचर्य की आराधना करनेवाला पुरुष त्याग दे। वह न कमा इनका कथन करे, न स्मरण करे। [३] ढाल गा० ७-८-६ : इन गाथाओं में छठी वाड़ का पूर्व बाड़ों के साथ क्या सम्बन्ध है यह बताया गया है। पाँचवी वाड़ में कामोत्तेजक शब्द सुनने की मनाही है. चौथी बाड़ में रूप निरीक्षण की मनाही है, तीसरी वाड़ में स्पर्श की मनाही है, दूसरी वाड़ में स्त्री-कथा को मनाही है। इस छठी वाड़ में स्त्री के सुने हुए कामोद्दीपक शब्द को स्मरण करने, जो रूप देखा हो उसका स्मरण करने, जो स्पर्श आदि भोग भोगे हों उनका स्मरण करने, जो स्त्रो-कथायें सुनी हो उनका स्मरण करने की मनाही है। इन में से एक का भी स्मरण करना छठी बाड़ का भग करना है। जो पूर्व में सेवन की गई सारी वातों का स्मरण करता है, उसका ब्रह्मचर्य व्रत विनष्ट हो जाता है। [४] ढाल गा० १०: जिनरिख और रयणादेवी की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २५ [५] ढाल गा० ११ विष मिश्रित छाछ पीनेवाले की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २६ [६] ढाल गा० १२: सर्प दंशित व्यक्ति की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २७ Scanned by CamScanner Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [७] ढाल गा० १४ : इम गाथा का आधार सूत्र के निम्न लिखित वाक्य हैं: निस्स सलु पुव्यरयं पुष्वकीलिये अगुसरमाणस्स बम्नयारिस्स धम्मचेरे संका वा कंसा वा विणिच्छा वा समुपजामेदं व लभेजा उम्मायं वा पाउगिजा देहकालिय वा रोगायक हवेजा केवलिपन्नताओ धम्माओ सेजा। पूर्वरत] पूर्व क्रीडित काम ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है। धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। [८] ढाल गा० १५: शील की नव या - उत्त० १६६ भोगों के स्मरण से ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, अवचर्य की आकांक्षा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करूँ या नहीं ब्रह्मचर्य का भङ्ग होता है। उन्माद उत्पन्न होता है तथा दीर्घकालीन रोगांतक होते हैं और वह केवली प्रणीत इस गाथा का भाव आगम के नि वाक्यों से मिलता है जे एवं पुव्वरय पुव्व कोलिय विरइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरय गाम धम्मे जिइन्दिए वंभचेरगुते । प्रश्न० २४ चौथी भावना । इस प्रकार पूर्व-रत पूर्व-प्रीडित विरति समिति के योग से भावित अंतर आत्मावाला ब्रह्मचर्य में रत इन्द्रिय लोलुपता से रहित जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य-निवाला होता है। Das Scanned by CamScanner Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातमों वाड़ नित नित अति सरस आहार ने वरन्यों सातमी बाड़ ढाल ८ ह जार १-नित नित अति सरस आहार में, वरज्यों सातमी बाड़ । ते ब्रह्मचारी नित भोगवे, तो वरत ने हुवें विगाड ' ॥ १-सातवीं वाड़ में ब्रह्मचारी को नित्य प्रति अति सरस आहार करने का वर्जन किया है। प्रतिदिन सरस आहार के उपभोग से ब्रह्मचर्य व्रत को क्षति पहुंचती है। २-प्रतादिक सं पूरण भस्यों, एहवाँ भारी आहार । ते धातू दीपावें अति घणी, तिण वर्षे , विकार ॥ २-घृतादि से परिपूर्ण गरिष्ठ आहार अत्यधिक धातु-उद्दीपन करता है, जिससे विकार की वृद्धि होती है। ३-खट्टे, नमकीन, चरपरे और मीठे भोजन तथा जो विविध प्रकार के रस होते हैं, उनका जिह्वा आस्वाद लेती है। ३-खाटा खारा चरचरा, वले मीठा भोजन जेह । वले विविध पणे रस नीपजें, ते रसना सब रस लेह ॥ ४-जेहनी रसना बस नहीं, ते चाहें सरस आहार'। ते वरत मांगे भागल हुवे, खोवें ब्रह्म वरत सार' ॥ ४-जिसकी रसना वश में नहीं, वह सरस आहार की चाह करता रहता है। परिणाम स्वरूप व्रत का भंग करके वह भ्रष्ट होता है और सारभूत ब्रह्मचर्य व्रत को खो देता है। ढाल [हवे तो करु' साध ने वंदना] १-कवलां करें आहार उपारतां, १-प्रास उठाते समय जिससे घृत बिन्दु झर घ्रत विन्दु मरतों आहार भारी रे। रहे हों, ऐसा सरस आहार ब्रह्मचारी नित्य प्रति एहवो आहार सरस चांप २ ने, तर लूंस-ठूस कर न करे। नित २ न करें ब्रह्मचारी रे | हे ब्रह्मचारी ! तू इस सातवीं बाड़ का लोप न ए बाड़ म लोपो सातमीं ॥ E % NTERESEAca Scanned by CamScanner Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव था, २–चय तुरणी काया रोग रहीत छ,....... २- वय में तरुण और निरोग शरीर याला ते करें सरस आहारो रे। . . व्यक्ति जब सरस आहार करता है तो यह अच्छी ते आहार रूडी रीत परगमें,......तरह परिणमन करता है। इससे विकार की अत्यन्त तिण सू वधे अतंत विकारो रे ॥ए०॥- वृद्धि होती है । ३-विकार वध्यां ब्रह्म वरत ने, ३-विकार बढ़ने से ब्रह्मचर्य व्रत में अनेक दोष अनेक विध. लागे रे। प्रकार के दोष लगते हैं। अंगों में फुचेष्टाएँ उत्पन्न वलेअंग कुचेष्टा: . उपजें,.. ___ होती हैं और फिर व्रत सर्वथा भंग हो जाता है। ... जाबक वरतः पिण: भांगे रे ॥०॥ ४-सरस आहार नित चापे कीयां, ४-नित्य प्रति लूंस-ठूस कर सरस आहार करने .... वरत भांगे विगडे वेहूँ लोगो रे । से व्रत भंग होता है। दोनों लोक बिगड़ते हैं। वह ... संसार , में - दुखीयों हुवें, संसार में दुःखी होता है और उसके रोग-शोक की वधतो जाए रोग ने सोगो रे ॥५०॥ वृद्धि होती जाती है। ५–वय तुरणी काया जीर्ण पड़ी, ५–तरुण होते हुए भी जिसका शरीर जीर्ण ते. करें सरस आहारो. रे। होता है, वह यदि दूंस-ठूस कर सरस आहार करता तो पेट फाटे - पस्यौं..टलवलें, . है तो उसका पेट फटने लगता है। वह पड़ा पड़ा वले आवे अजीरण डकारों रे॥ए०॥ करवट बदलता रहता है। उसे अजीर्ण की डकारें आने लगती हैं। ....... ६–वले विविध पणे रोग उपजें, ६नित्य प्रति गरिष्ट और सरस आहार करने नित सरस आहार कीधां भारी रे। से विविध प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। धर्म - अकाले मरे धरम खोय ने, खोकर वह अकाल में मृत्यु प्राप्त करता है और र पछे होय जाएं अनंत संसारी रे ॥०॥ अनन्त संसारी बन जाता है। ७-वय तुरणी रो धणी इण विध मरें, ७-नित्य सरस आहार करने से यदि तरुण नित कीधां सरस आहारो रे। वय के स्वामी की इस तरह मृत्यु होती है तो फिर तो बूढा रो कहिवो किसं, वृद्ध का तो कहना ही क्या ? उसका पेट तो तत्काल इणरे पेट तुरत झाले भारो रे ॥ए०॥ ही भारी हो जाता है। "८-द्ध दही विविध पकवान ने, सरस आहार भोगवे रहें सूतों रे । - पाप समण कयों उत्तराधेन में, ते साधपणा थी विगूतो रे ॥०॥ ८ जो नित्य प्रति दूध, दही, घृत और विविध पकवान का सरस आहार करता है और सोवा रहता है, उसको 'उत्तराध्ययन सूत्र में पापी श्रमण कहा है। वह साधुत्व से रहित होता है। Scanned by CamScanner Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातमी बाड़ : ढाल ७: गा०६-१५ MO -चक्रवर्ती के घर के सरस आहार के सेवन से भूदेव नामक ब्राह्मण ने लन्ना छोड़ दी और काम में व्याकुल होकर अपनी बहन-बेटी से दुष्कृत्य किया। . . ... १०-सरस आहार में आसक्त मंगू नामक आचार्य मरकर व्यन्तर योनि में पैदा हुआ। सरस आहार प्रहण कर उसने इस प्रकार. अपने संयम के. " पीछे धूल उड़ाई। ६-चक्रवत नी रसवती भोगवे, भूदेव ब्राह्मण छोडी लाजो रे। काम विटंवा तिण लही, बेन बेटी सूं कीयों अकाजो रे ॥ए०॥ १०–सरस आहार तणों लपटी घणों, मंगू आचार्य तेहो रे। मरने गयों व्यंतरीक में, . संजम लारें उडाई खेहो रे ॥०॥ ११-वले सेलग राय रिषीसरु, ... सरस आहार तणो हुवों निधी रे। .. ने जिम्या वस पडीये थकें, किरीया अलगी घर दी रे " ॥०॥ १२-कंडरीक रस लोलपी थकों, पाछो घर में आयो रे। भारी आहार सं रोग उपज मुंओ, पडीयो सातमी नरक में जायो रे "ए०॥ १३–इत्यादिक बहू साध ने साधवी,. लोपी ने सातमी बाड़ो रे। ब्रह्मचर्य वरत खोय. ने, गया जमारो हारो : रे "ए०॥" ११-राजर्षि शैलक सरस आहार में गृद्ध हुआ। जिह्वा के वशीभूत होकर उसने अपनी क्रिया को अलग धर दिया। ____१२-कुण्डरीक रसलोलुप होकर पुनः घर में आ बसा। भारी सरस आहार करने से उसके । शरीर में रोग उत्पन्न हुए और मरकर वह सातवीं .. नरक में गया। १३-इस प्रकार अनेक साधु-साध्वियों ने सातवीं वाड़ का उल्लंघन कर ब्रह्मचर्य व्रत को खो दिया और मानव जन्म को हारकर चल बसे। १४-सनीपातीयो दध मिश्री पोये, तो सनीपात वधतो देखो रे । ज्यू ब्रह्मचारी ने सरस आहार सं,. विकार वर्षे छ वशेखो रे "ए०॥ १४-सन्निपात के रोगी को जिस प्रकार द्धमिश्री का आहार करने से रोग बढ़ जाता है, उसी प्रकार सरस आहार करने से ब्रह्मचारी के विकार की विशेष रूप से वृद्धि होती है। १५-इम .....सांभल.. ब्रह्मचारीयां, . -नित भारी म करजो आहारो रे।- सील वरत सुध पाल ने, वा गमण निवारो रे ॥ए०॥ . १५-ऐसा सुनकर हे ब्रह्मचारियो ! नित्य भारी सरस आहार मत करो। शीलबत का शुद्ध पालन, कर आवागमन से मुक्त होवो। Scanned by CamScanner Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : शोल की नव वाड़ ४८ १६-सरस आहार तो जीहाई रह्यो, लूखोई पिण आहारो रे। १० चांप चांप दिन प्रतें करणों नहीं, ते कहिलं आठमी बाड़ो रे।ए०॥ १६-सरस आहार तो दूर रहा बल्कि रूखा आहार भी लूंस-ठूस कर नित्य प्रति नहीं करना चाहिए। आठवीं बाड़ में मैं यही बताऊँगा। टिप्पणियाँ [१] दोहा १: इस दोहे में स्वामीजी ने सातवीं बाड़ का स्वरूप बताया है। इस सातवी वाड़ में ब्रह्मचारी के लिए सरस आहार वर्जनीय है। इसका आधार निम्न आगम वाक्य है: नो निग्गथे पणीय आहारं आहरेजा। -उ०१६: ७ -निग्रंथ प्रणीत आहार का सेवन न करे। 'प्रणीत' शब्द का अर्थ है जिससे घृत-विन्दु झर रहे हों ऐसा आहार । उपलक्षण रूप से धातु को अत्यन्त उत्तेजित करनेवाले अन्य आहार भी प्रणीत आहार में समाविष्ट हैं । - ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है कि ब्रह्मचारी सर्व प्रकार के कामोत्तेजक आहार-पान का परिवर्जन करे। स्वामीजी ने स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचासे नित्य-प्रति ऐसा आहार न करे। यदा-कदा सरस आहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो अति मात्रा में उसका सेवन न करे। [२] दोहा २: ब्रह्मचारी के लिए स्निग्ध सरस आहार क्यों वर्जनीय है. इसका कारण इस दोहे में बताया गया है। - 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा है: ...... पणीय भत्तपाणं तु. सिप्प मयविवडणं । . बंभचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए । -उत्त०१६: ७ -प्रणीत आहार कामोद्रेक-विषय-वासना को शीघ्र उत्तेजित करनेवाला होता है। अतः ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु ऐसे भोजन-पान से सर्वदा दूर रहे। स्वामीजी के प्रस्तुत दोहे का आधार 'उत्तराध्ययन सूत्र' का उपर्युक्त श्लोक ही है। मामा .... 'दसवैकालिक सूत्र' में कहा है : . विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणो रसमोयणं । ___ नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ -दस०८ : ५७ -प्रणीत रसयुक्त मौजन, विभूषा और स्त्री-संसर्ग आत्म-गवेषो पुरुष के लिए तालपुट विष की तरह है। घृतादि से परिपूर्ण आहार स्निग्ध-मारी होता है। स्निग्ध आहार धातु को दिप्त करता है। धातु के दीप्त होने से मनोविकार बढ़ता है। मनोविकार बढ़ने से अंग-कुचेष्टा होती है। इससे मनुष्य मोग में प्रवृत्त होता है। इस तरह वह बहुमूल्य ब्रह्मचर्य व्रत को नष्ट कर डालता है। १-उत्त० १६:५ की नैमि० टी० पृ० '२२१ : नो 'प्रणीत' गलद्विन्दु, उपलक्षणत्वाद् अन्यमप्यत्यन्त धातूद्रेककारिणम् आहारम् आहारयिता भवति यः स निन्थः। Scanned by CamScanner Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातमी वाड़ : दाल ८ : टिप्पणियां [३] दोहा ३-४ : - उत्तराध्यन सूत्र में कहा है-"जिहा रस की गाड आरत का ग्राहक है और रस जिहा का ग्राहक है। अमनोज्ञ रस देष का हेतु ओर मनोज्ञ रस राग का हेतु होता है ।।" सान, मधुर, कटुक. कला और तिक्त ये पाँच रस हैं। जिहा इन मत ति य पाच रस हैं। जिहा इन सव रसों को ग्राहक है। जिसकी जिहा संयमित नहीं होती वह र रसों को कामना करता है। जो स्वादिष्ट रसों का नित्य प्रति अथवा अतिमात्रा में सेवन करता है उसके कामोद्रेक हो ब्रह्मचय का नाश होता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है : रसा पगाम न निसेवियव्वा, पायं रसा दित्तिकरा नराण । दितं च कामा समभिद्दवन्ति, दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ -उत्त० ३२:१० -दूध, दही, घी आदि स्निग्ध और खट्टे, मीठे चरपरे आदि रसों से स्वादिष्ट पदार्थों का ब्रह्मचारी वहुधा सेवन न करे। ऐसे पदार्थों के आहार-पान से वीर्य की वृद्धि होती है-वे दीप्तिकर होते हैं। जिस तरह स्वादुफल वाले वक्ष की और पक्षी दल के दल उड़ते चले आते हैं. उसी तरह दोर्य से दीप्ट पुरुष को काम सताने लगता है। [४] दोहा ४ का उत्तराई: स्वामीजी के इन भावों का आधार 'उत्तराध्ययन सूत्र' के निम्न वाक्य हैं : निग्गन्धस्स खलु पणीय आहारं आहारेमाणस्स वम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा, भेदं वा लभेजा, उम्माय दा पाउणिजा दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसज्जा। - उत्त०१६ : ७ -प्रणीत आहार करनेवाले ब्रह्मचारी के मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका होने लगती है। वह अब्रह्मचर्य की आकांक्षा करने लगता है। उसे विचिकित्सा उत्पन्न होती है। ब्रह्मचर्य से उसका मन-भङ्ग हो जाता है। उसे उन्माद हो जाता है। दीर्घकालिक रोगातंक होते हैं और वह केवली प्ररूपित धर्म से गिर जाता हैं। [५] ढाल गा० १ स्वामीजी ने यहाँ जो कहा है उसका आधार 'प्रश्न व्याकरण सूत्र' के निम्न स्थल में मिलता है: पंचमगं आहारपणीयणि मोयण विवज्जए संजए सुसाहू ववगयखीरदहिसप्पिणवणीयतेल्ल गुलखंड मच्छडिग महुमज्ज मंसखज्जग विगइ परिचियकयाहारेण दप्पण"ण य भवइ विब्ममो ण भंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहार विरइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरय मानधन्ने जिइंदिए बमचेरगुत्ते। -प्रभ०२:४ पाँचवों भावना। -संयमी ससाध प्रणीत और स्निग्ध आहार के सेवन का विवर्जन करे। ब्रह्मचारी दूध, दही, घी,नवनीत, तेल, गुड़, खाण्ड,शक्कर, मध, मद्य, मांस खाजा आदि विकृतियों से रहित भोजन करे। वह दर्पकारी आहार न करे। संयमो को वैसा आहार करना चाहिए जिससे संयम-यात्रा का निर्वाह हो. मोह का उदय न हो और ब्रह्मचर्य धर्म से वह न गिरे। है। इस प्रकार प्रगीत-आहार समिति के योग से भावित अंतरात्मा ब्रह्मचर्य में आसक्त मनवाला, इन्द्रिय-विषयों से विरक्त, जिंतेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य मैं गुम होता है। -उव०३२: ६२ रसास जिम गहणं वयंति जिम्माए रसं गहणं वयन्ति । गस्स हेउं समन्नमाहू दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ Scanned by CamScanner Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० [ ६ ] ढाल गा० २- ७ : स्वामीजी ने इन गाथाओं में सरस आहार का दुष्परिणाम वताया है। व्यक्ति चार तरह के हो सकते हैं। एक युवक और शरीर से स्वस्थ, एक युवक पर शरीर से जीर्ण, एक वृद्ध पर शरीर से स्वस्थ और एक वृद्ध तथा शरीर से अस्वस्थ । स्वामीजी कहते हैं: स्वस्थ युवक जब सरस आहार करता है तो उसे शीघ्र पचा डालता है। आहार का परिणमन अच्छी तरह होने से इन्द्रियों का बल बढ़ता है। शरीर में कामोद्रेक होता है। अंगों में कुचेष्टा उत्पन्न होती है। अंग-कुचेष्टा के कारण मनुष्य ब्रह्मचर्य से पतित हो जाता है। परलोक में भी वह संताप को प्राप्त होता है। इससे रोग उत्पन्न होते हैं। तरुण वय में या वृद्धावस्था में जव शरीर स्वस्थ नहीं होता तब किया हुआ आहार हजम न होने से अजोर्णादि रोगों को उत्पन्न करता है। इससे अकाल में ही उसकी मृत्यु होती है। 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा है : - उत्त० ३२ : ६३ जिम तरह रागातुर मछली- आमिष की वृद्धि के वश कोटे से विधी जाकर अकाल में मरण को प्राप्त होती है, उसी तरह जो रस में तीव्र वृद्धि रखता है, वह अकालमें ही विनाश को प्राप्त होता है। [[७] ढाल गा० ८ : स्वामीजी कहते हैं जब सरस आहार से तरुण की ऐसी हालत होती है, तब वृद्ध की इससे भी बुरी हालत हो तो उसमें आश्चर्य हो क्या ? सरस आहार से उसके शारीरिक कष्टों का कोई पार नहीं रहता । . स्वामीजी कहते हैं - जो प्रतिदिन सरस आहार करता है वह अकाल में मृत्यु प्राप्त करता है. धर्म को खोता है और इससे अनन्त संसारी होता है, अर्थात् ब्रह्मचर्य का भङ्ग कर वह अनन्त काल तक जन्म-मरण करता है। स्वामीजी की इस गाथा का आधार निम्न आगम वाक्य है : दुबदही विगईओ आहारे रसेसु जो गेहिमुवेइ तिव्वं अकालिये पावइ से विणासं । रागाउरे वडिसविभिन्नकार मच्छे जहा आमसभोगगिद्धे ॥ [८] ढाल गा० ६: - उत्त० १७ : १५ जो दूध दही आदि विगय का बार बार आहार करता है और तप कर्म से विरत रहता है उसे पापी श्रमण कहा गया है। [8] ढाल गा० १०: भूदेव ब्राह्मण की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २८ अभिक्सर्ग । अरएय सवोकम्मे, पावसमणि तिच्चाई ॥ [१०] ढाल गा० ११ : मंगू आचार्य की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा २९ शील की नव बाड़ [११] ढाल गा० १२ : सैलक राजर्षि की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा ३० कुण्डरिक की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट -क कथा ३१ Scanned by CamScanner Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातमी बाड़ : ढाल ८ : टिप्पणियां [१२] ढाल गा० १३: 'आचाराङ्ग में लिखा है ........."पणीयरसभोयणभोई यति संतिभेदा संतिविभङ्गा सन्तिकेवलिपण्णताओ धम्माओ भसज्जा । जो मिक्ष प्रणोत रसयुक्त आहार का सेवन करता है उसको शान्ति का भड-तिम होता है और तर -आचा०२ : २४ चौथी भावना HP आहार का सपन करता है उसको शान्ति का भङ्ग-विभङ्ग होता है और वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। यह स्पष्ट ही है कि जो धर्म से भ्रष्ट होता है वह दुर्लभ मनुष्य-मव को भी खोता है क्योंकि मनुष्य-भव और धर्म इन दोनों का पाना बड़ा हो दुर्लम है ! [१३] ढाल गा० १४: । यहाँ पर स्वामीजी ने जो उदाहरण दिया है वह उनको औत्पत्तिको वदि का परिचायक है। सन्निपात रोग में दूध और मिश्री का आहार करन से दाय का प्रकोप होजाने से सन्निपात और भी तीव्र हो जाता है, उसी तरह सरस आहार से विकार की विशेष वृद्धि होती है। Scanned by CamScanner Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ – आठमीं बाड़ चांप २ न प्रमांण लोप तो वरत ने हुवें में इम कलों, करणो आहार । इको करें, बिगाड ' ॥ १ ३ – अति आहार थी - घर्णेज फा आठमीं बाड़ आठम बाड़ में इस कह्यों, चांप चांप न करणो आहार ढाल : ६ दुहा २- अति आहार थी गलें रूप बल परमाद निद्रा आलस वले अनेक रोग होय धांन अमाउ हांडी फा दुख हुर्वे, गात । हुर्वे, १ -भर देह जात ॥ विर्षे वर्धे, पेट | उरतां, नेट ॥ ४ – केई बाड़ लोपे विकल थका, आहार । करसी इधक त्यांरें कुण २ ओगुण नीपजें, ते विस्तार ॥ जोबन रे मांहि निरोगी मांहे तेजस रो जोरो घणों ए ॥ हुवें । १ - आठवीं बाड़ में भगवान् ने कहा है - साधु हँस-हँस कर आहार न करे । प्रमाण से अधिक आहार करने से व्रत को क्षति पहुँचती है । रे, २ – अति-आहार से 'मनुष्य दुःखी होता है । रूप, बल और गात्र क्षीण हो जाते हैं। प्रमाद, निद्रा और आलस्य होते हैं तथा अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं । ३ - अधिक आहार से विषय-वासना बढ़ती है। जिस प्रकार सेर की हांड़ी में सवा सेर अनाज डालने से हाँड़ी फूट जाती है, उसी प्रकार अधिक आहार से बुरी तरह पेट फटने लगता है । ढाल [ विमल कैवली एक रे चम्पा नगरी ] ४ – जो विकल होकर, बाड़ की मर्यादा का उल्लंघन कर, अधिक आहार करते हैं— उनमें किनकिन दुर्गुणों की उत्पत्ति होती है, उसका वृतान्त विस्तारपूर्वक सुनो। १ - पूर्ण यौवनावस्था में देह निरोग होती है। और पाचन शक्ति बलवती होती है। Scanned by CamScanner Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठमी बाड़ ढाल ६ : गा० २-१० चांपे करे आहार रे, , २ ते ते पर्चे सताव सूं । तो विषे वर्धे तिण रें घणीं ए ॥ ३ – जब यांन as गमती लागें ४ – हूँ सील पालूं संका गमता लागें माठो -R. भोग रे, रहें । ए ॥ पछें भोग तणी वंछा हुर्वे ए ॥ अस्त्री - मोनें लाभ होसी के नांहि रे, पालीयां । ए ॥ के नांहि रे, उपजें। सील वरत ए पिण सांसों उपजें ८- के ६- जब भिष्ट हुर्वे वरत भांगरे, भेष मांहें hs मेष छोडी हुर्वे गृहस्थी ए ॥ थकां । जे चांपे कीधां आहार रे, पर्चे आछी- . तरें । तो इसडो अनरथ नीपजें ए ॥ रोग रे, कारेंरे दुर्वे इको कीयां आहार वर्धे असातावेदनी ए ॥ मुख पेटें फार्ट पेट अतंत रे, बंधहु नाड़ीयां । वले सास लेवें अबखो थको ए ॥ • --बले हुवें अजीरण रोग M वार्से फालें आफरो रे, रो ए । २ - तब हँस-हँस कर किया हुआ आहार शीघ्र पचता है जिससे अति विषय विकार की वृद्धि होती है। ३ - विषय - विकार की वृद्धि से भोग अच्छे लगते हैं, ध्यान विकार - प्रस्त होता है और स्त्री मन को अच्छी लगने लगती है । ४ - शील का पालन उत्पन्न होती है। फिर लगती है । करूँ या नहीं, ऐसी शंका भोग की कामना होने ५-६ - फिर, शीलव्रत के पालन से मुझे लाभ होगा या नहीं, ऐसा संशय उत्पन्न होता है । इस तरह शंका, कांक्षा, विचिकित्सा उत्पन्न होने से कई वेष में रहते हुए व्रत को भंगकर भ्रष्ट हो जाते हैं और कई साधु का वेष छोड़कर गृहस्थ हो जाते हैं। ७--- हँस-हँस कर आहार करने पर यदि वह अच्छी तरह पचता है तो ऐसा अनर्थ उत्पन्न होता ཐག་ ག है । ८-६ - जब प्रहीत आहार ठीक से नहीं पचता है तो कइयों को रोग आ घेरते हैं। शारीरिक वेदना बढ़ती है। पेट फटने लगता है । नाड़ियों की गति मन्द हो जाती है और श्वास ग्रहण में कठिनाई होती है । 定 सिि १० - फिर अजीर्ण हो जाता है। मुख बुरी तरह बदबू देने लगता है । पेट अफर जाता है। Scanned by CamScanner Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ ११-पेट में जलन होती है। बेचैनी रहने लगती है तथा मुँह से थूक छूटने लगता है। - १२-पित्त का प्रकोप होता है। सिर में चक्कर आने लगता है। मुंह से जल छूटने लगता है। १३-खराब डकार और गुचलकियां आने लगती हैं। इससे आहार का भाग के के द्वारा बाहर आ जाता है। १४पेट में मरोड़े चलने लगते हैं। जोरों का दर्द होता है। खून की दस्ते होने लगती हैं। ११--वले उठ उकाला पेट रे, की चालें कलमली। वले छूटे मुख थूकणी ए... १२--डील फिरें चकडोल रे, पित घुमे घणां। चालें मुजल वले मुलकणी ए॥ १३-आवे माठी घणी डकार रे, वले आवें गूचरका । जब आहार भाग उलटों पड़ें ए॥ १४-वले चालें मरोडा पीड रे, पेट दुखें घणों।" लोही ठाण फेरो हुवे ए॥ १५-वले.. नाड्यां - में हुवं. रोग रे, . ते आहार झेलें नहीं। -- ज्यं खाओं ज्यं नीकलें ए॥ १६-वले. ताव चढ़े ततकाल रे, बंध हुवे मातरो। आहार इधको कीयां थका ए॥ १७-घणी देही पढ़ें :- कथाय रे, आहार .. भावे नहीं। जब मांस लोही दिन २ घटें ए॥ १८-खीण पड़ें. जब देह रे,'.... निबलाई. . पडे। हाथ पगां सोजों चढ़े ए॥ १९ जब ठमे अतीचार रे, ओषध करें घणां। दिन २ फेरो इधको हुवे ए॥ १५ रोगग्रस्त होने से आंतें आहार को ग्रहण नहीं कर सकतीं। खाया हुआ आहार वैसा ही वापिस निकल जाता है। १६-अधिक आहार करने से तत्काल ज्वर चढ़ जाता है। पेशाब बन्द हो जाता है। १७–देह में अत्यन्त पीड़ा हो जाती है। आहार में रुचि नहीं रहती। ऐसी अवस्था में मांस एवं रक्त दिन प्रतिदिन घटने लगते हैं। १८- जब देह क्षीण हो जाती है, तब शरीर निर्बल हो जाता है। हाथ पैर में सूजन हो जाती १६-इससे अतिसार का प्रकोप हो जाता है। ज्यों-ज्यों औषध की जाती है, त्यों-त्यों दस्ते बढ़ती जाती हैं। Scanned by CamScanner Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाठमी बांड़: ढाल ६: गा०२०-२८ २०-ऐसी अवस्था में उससे अन्न सर्वथा - छूट जाता है। वह धर्म-ध्यान नहीं कर पाता, आर्तनाद करने लगता है। ___२१-तब, श्वास, और खांसी के रोग. हो, जाते हैं, जलोदर बढ़ जाता है। शरीर की सुधबुध नहीं रहती। ___२२-तव, अपच का रोग बढ़ जाता है। आहार जरा भी नहीं पचता। कोई भी औषधि कारगर नहीं होती। २३-शरीर में दाह उत्पन्न होता है। निरन्तर जलन रहती है। पेट में अत्यन्त शूल उठने लगता २०-पर्छ "जावक छुटै अन-रे: चुकं धर्म ध्यान थी। वले बोलें घणों दयामणो ए॥ २१-वले हुवें सास ने खास रे 2. जलोदर वधे । .. सून . बूंन देही . पडे. ए॥ २२-वधे: अपचों, रोग . रे, : आहार :: : पर्चे नहीं। ओषध को लागे नहीं ए॥ २३-वले उपनें दाह सरीर-रे.: बलण..: लागी रहें। - पेट मूल चालें घणी ए॥ :२४-वेदन : हुवें आंख ने: कांनः रे, खाज हुवें, घणीं । ____वले रोग पीतंजर उपजें ए॥ २५–इत्यादिक बहु : रोग---रे: - उपजे आहार थी। .. कहि २ ने कितरो कहूं ए॥ २६.-ए हुवें आहार , थी रोग रे, जब नाम ले अवर नों! कूड कपट वधे घणों ए। २७-जे चांपे करें आहार : रे, निधी: पेट रो। त्यांने साच बोलणो दोहिलो ए॥ २८- कोइ: साध-: कहें एमरे ओ आहार, इधको करें। तो घणों कुडे तिण उपरें: ए॥ २४-आँख और कान में वेदना होने लगती है। खुजली हो जाती है। पित्त-ज्वर का रोग उत्पन्न होता है। २५-अधिक आहार से ऐसे. अनेक रोग हो । जाते हैं। उनका वर्णन कहाँ तक किया जाय ? २६-ये समस्त रोग अधिक आहार के सेवन से होते हैं। नाम भले ही कोई दूसरे का ले। इससे कूट-कपट की. अत्यन्त वृद्धि होती है। ___२६-जो पेंटू बन, ढूंस-ठूस कर आहार ग्रहण करता है, उसके लिए सच बोलना दुष्कर हो जाता है। २८-कोई साधु यदि कहता है कि अमुक साधु अधिक आहार करता है तो उसकी बात सुनकर वह उस पर अत्यन्त चिढ़ने लगता है। Scanned by CamScanner Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 有 कहें अनेक रे, आहार घण करें। तो ही कों न मानें केहनों ए ॥ २६ – जो मिलनें ३० – केह पूरण भरें इंधको चांप जब पांणी पूरो मार्वे नहीं ए ॥ ३१ – जब पेट जब टलबलाट करें ३२ – वले जक अजक तिरपा लागें अतंत रे, फार्ट equit घणां ॥ नित पेट रे, खायें आंवला डील रे, नहीं तेहने घणवले जेहनें ए ॥ विपत: -रे ३३- इसडी पडे तो ही ग्रिधी पेट निज अवगुण छोडें नहीं ए ॥ रो । ३४ – जब रोग पीडलें, आंग रे, माठी.. श्री जिण धर्म गमाय मरे तरे । भ्रमण करें अनंत काल दुःख ने ३५ – पर्छ च्यारूं गति रे मांहिं रे, - ५ घण भोगवें ए ३६ - कूंडरीक रे उपनों ए ॥ रोग रे, आहार इधको कीयां । ते मरनें गर्यो नरक सातमीं ए फटें नेट रे ३७-हाडी इको तो पेट न फाटे किण विधे ए ॥ उरीयां शील की नव बाड़ २६- अगर सब मिलकर भी उसे कहें कि तू अधिक आहार करता है तो भी वह किसी की कुछ नहीं मानता। . ३० - कोई प्रति दिन चाप चांप कर अधिक खाता है और पूरा पेट भर लेता है यहाँ तक कि पेट में पानी के लिए भी जगह नहीं रह जाती । ३१ - जब जोरों की प्यास लगने लगती है और पेट फटने लगता है, तब वह कराहने लगता है । ३२- शरीर लोट-पोट होने लगता है। उसको जरा भी चैन नहीं पड़ती। उसे अत्यन्त बेचैनी रहती है ! ३३ - इस प्रकार की विपत्ति पड़ने पर भी अधिक आहार का गृद्ध अपने अवगुण को नहीं छोड़ता । ३४ – जब रोग शरीर को धर दबाते हैं, तब श्री जिनेश्वर देव के धर्म को खोकर वह बुरी तरह से मरता है ! ३५ – फिर वह चारों गतियों में परिभ्रमण करता है और अनन्त काल तक दुःख उठाता रहता है। ३.६ अधिक आहार करने से कुण्डरिक को रोग उत्पन्न हुआ और मरकर वह सातवीं नरक में पहुँचा । ३७ - परिमाण से अधिक अन्न डालने से हांड़ी फूट जाती है। फिर भला अधिक खाने से पेट क्यों नहीं फटेगा ? Scanned by CamScanner Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठमी बाड़: ढाल :: टिप्पणियां ३८-ग्रह्मचारी को यह सब जानकर अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। ऊनीदरी में बहुत गुण हैं। ३८–ब्रह्मचारी इम जांण रे, इधको नहीं जीमीय । अणोदरीए गुण घणां ए॥ ३६-ए उतम अणोदरी तप रे, करतां दोहिलो। वेराग विनां हुवें नहीं ए'॥ ४०-ए कही आठमी बाड़ रे, ब्रह्मचारी भणी । चोखें चित्त आराधजो ए॥ ३६-ऊनोदरी उत्तम तप है। इसका करना बहुत मुश्किल है। यह वैराग्य के बिना नहीं होता। ४०-ब्रह्मचारी के लिए यह आठवी बाड़ है। मुनि उत्तम भाव से इसकी आराधना करे । टिप्पणियाँ [१] दोहा १: इस दोहे में आठवीं वाड़ का स्वरूप बताया गया है कि मात्रा से अधिक आहार करना ब्रह्मचर्य-व्रत के लिए घातक होता है। 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है-"नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणं आहारेज्जा" (१६:)-निग्रंथ अति मात्रा में आहार न करे। यह सूत्र-वाक्य ही इस वाड़ का आधार है। 'प्रश्न व्याकरण' सूत्र में कहा गया है : ण बहुसो, ण णिइगं,ण सायसूवाहियं ण खदं तहा मोतलं जहा से जायामायाय मवई। -प्रभ०२:४: मा०५ --ब्रह्मचारो एक दिन में बहुत आहार न करे, प्रतिदिन आहार न करे, अधिक शाक दाल न खाय, अधिक मात्रा में मोजन न करे, जितना संयम यात्रा के लिए जरूरी हो उसी मात्रा में ब्रह्मचारी आहार करे। __णय भवइ विममो ण मंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहार विरइसमिइजोगेण माविओ मवइ अंतरप्पा आरयमण विरय गाम धम्मै जिइंदिए बंभचेरगुत्ते। -प्रश्न २:४ मा०५ र -विभ्रम न हो. धर्म से दंश न हो-आहार उतनी ही मात्रा में होना चाहिए। इस समिति के योग से जो मावित होता है. उसकी अंतर आत्मा तल्लीन, इन्द्रियों के विषय से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय से युक्त होती है। इसी तरह 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है: धम्मलदं मियं काले जत्थं पणिहाणवं। नाइमतं तु मुंजेज्जा बमचेररओ सया।. -उत्त०१६ श्लो०.... हार जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए ही नियत समय और मित मात्रा में ग्रहण करे। वह कमी मी अति मात्रा में आहार का सेवन न करे। Scanned by CamScanner Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ [२] दोहा २-३: इन दोहों में अति आहार का दुष्परिणाम बड़े ही मार्मिक रूप से बताया गया है। अति मात्रा में आहार करने से रूप, वल और गात्र क्षोण होते हैं। प्रमाद, निद्रा, तथा आलस्य की उत्पत्ति और वृद्धि होती है। कहावत है कि सेर की हाँडी में सवा सेर डालने से वह फूट जाती है। उसी तरह अधिक आहार करने से पेट फटने लगता है। अनेक रोग हो जाते हैं। अति आहार से विषय की वृद्धि होती है। - 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है : जहा दवग्गी पउरिन्धणे वणे । समारुओ नोवसमं उवेइ ॥ एविंदियग्गी वि पगाम भोइणो। न बंभयारिस्स हियाय कस्सई ॥ F - -उत्त० ३२:११ -जैसे प्रचुर इन्धनयुक्त वन में वायु सहित उत्पन्न हुई दावाग्नि उपशम को प्राप्त नहीं होती अर्थात् वुझती नहीं, उसो प्रकार प्रकाम-भोजीविविध प्रकार के रस युक्त पदार्थों को अति मात्रा में भोगनेवाले ब्रह्मचारी की इन्द्रिय रूपी अग्नि शान्त नहीं होती। [३] ढाल गा० १-७: इन गाथाओं में अति आहार से जो आत्मिक पतन होता है उसका गहन मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है। अति आहार से विषयों के प्रति अनुराग उत्पन्न होता है। भोग अच्छे लगने लगते हैं। अपध्यान होता है। स्त्री अच्छी लगने लगती है। ब्रह्मचर्य का पालन करूं या न करूं. इस तरह की शंका उत्पन्न होती है। स्त्री-भोग की आकांक्षा होती है। ब्रह्मचर्य के पालन से लाभ होगा या नहीं. ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है। चित्त की ऐसी स्थिति में ब्रह्मचारी साधु के वेश में ही मिथ्याचार का सेवन करने लगता है और कोई वेश छोड़कर पुनः गृहस्थ हो जाता है। इस तरह अति आहार ब्रह्मचर्य के लिए कितना घातक है, यह स्वयंसिद्ध है। इन विचारों का आधार आगम का निम्न स्थल है: निग्गथस्स खलु पणीयं आहार आहारेमाणस्स भयारिस्स बंभचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा ससुप्पज्जिज्जा, भेदं वा लभेज्जा उम्माय वा पाउणिज्जा दीह कालियं वा रोगायंक हवेज्जा, केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खलु नो निग्गथे पणीयं आहारं आहरेज्जा ॥ -उत्त०१६ : ७ [४ ] ढाल गा० ८-२५ : इन गाथाओं में स्वामीजी ने अति आहार से किस तरह नाना प्रकार के रोगातक उत्पन्न होते हैं, इसका रोमांचकारो वर्णन किया है। 'ज्ञाता धर्मकथा' सूत्र के पुण्डरिक आख्यान में अति आहार के दुष्परिणामों का वर्णन मिलता है। [५] ढाल गा० २५-३५ : इन गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है : अति आहार से ऐसे अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है, जिनका नामोल्लेख ऊपर आया है। ये रोग अति आहार से उत्पन्न होते हैं. पर पूछने पर अति आहार-भोजी इस कारण को छिपाकर अपने रोग का दूसरा ही कारण बताता है। इस तरह वह कपटपूर्ण झूठ बोलता है। जो पेट साध होता है, वह नित्यप्रति लूंस-ठूस कर आहार करता है। ऐसे साधु के लिए सत्य बोलना कठिन हो जाता है। यदि कोई उससे कहता है-तू अधिक आहार करता है. तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए. तो वह उसकी वात न मानकर उस पर चिढ़ने लगता है। जो आहार का गृद्ध होता है. वह इतना अधिक खा लेता है कि पेट में पानी तक का स्थान नहीं रहता । जब उसे अत्यन्त प्यास लगती है. पानी पीने से उसका पेट फटने लगता है और उसे जरा भी चैन नहीं मिलता। ऐसे संकट उपस्थित होते रहने पर भी पेटू अति आहार करने का दोष नहीं छोड़ता। अंत में धर्मच्युत होकर वह बुरी तरह मृत्यु को प्राप्त करता है तथा बार-बार चारों गतियों में भ्रमण करता हुआ अनन्त काल तक दुःख पाता है। Scanned by CamScanner Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठमी बाड़ : ढाल ६ : टिप्पणियां [६] ढाल गा० ३६ : कुण्डरिक की कथा के लिए देखिए परिशिष्ट-क कथा ३२ ... [७] ढाल गा० ३७-३६ : इन उपसंहारात्मक गाथाओं में स्वामीजी कहते हैं कि अति आहार के आध्यात्मिक और आधिभौतिक दोप ऊपर बताये जा चुके है। उन र विचार कर ब्रह्मचारी कभी भी अति मात्रा में आहार न करे। मात्रा से कम खाय। इस प्रकार ऊनोदरी करने में बहुत लाभ है। उनोदरो एक कठिन तप है और वह वैराग्य का द्योतक है। Scanned by CamScanner Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - नवमीं विभूषा न करणी विभूषा कीयां थायें वरत नों २- सर विभूषा ते करें तन वले रहें घठया त्यां लोपी ब्रह्मव्रत बाड़ ब्रह्मचर्य ३- सरीर नवमीं बाड़ नवमीं बाढ़ ब्रह्मचर्य नीं, विभूषा न करणी अंग ढाळ : १० दुहा नीं अंग । थकां, १ भंग ' ॥ विभूषा जे संजोगी ब्रह्मचारी तन ते कारण नहीं जे करें, सिणगार | मठाया, बाड़ ॥ करें, होय । सोभवे, कोय ॥ ४ – बाड़ भांग्यां किण विध रहें, अमोलक सील रतन । तिण सं ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य नां, किण विध करें जतन ॥ [ धीज करें १ - सोभा न करणी देह नीं रे लाल, नहीं करणो तन सिणगार | ब्रह्मचारी रे || पीठी उगणों करणो नहीं रे लाल, मरदन नहीं करणो लिगार | ० || ए नवमीं बाड़ ब्रह्म वरतनीं रे लाल 11 १ - त्रह्मचर्य की नवीं वाड़ यह है कि ब्रह्मचारी को विभूपा - शरीर - शृङ्गार नहीं करना चाहिए । विभूपा - शृङ्गार करने से व्रत भंग हो जाता है। २ - जो शरीर - विभूषा करते हैं, वे तन-शृङ्गार करते हैं तथा तड़क-भड़क से रहते हैं । वे ब्रह्मचर्यत की बाड़ को खण्डित करते हैं । ३ - शरीर की विभूषा करनेवाला ब्रह्मचारी शीघ्र ही संयोगी हो जाता है। ऐसा कोई कारण नहीं दिखलाई पड़ता जिससे ब्रह्मचारी तन को सुशोभित करे । ४ - बाड़ के भंग होने पर शील रूपी अमूल्य रत्न किस प्रकार सुरक्षित रह सकता है ? अतः इस ढाल में यह बताया गया है कि ब्रह्मचारी ब्रह्मचर्य की रक्षा किस प्रकार करे । ढाल सीता सती रे लाल ] १ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें देह - विभूषा अथवा शरीर - शृङ्गार नहीं करना चाहिए। पीठी, उबटन आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए और न बैल आदि का मर्दन ही । यह ब्रह्मचर्यन्त की नवीं बाड़ है। Scanned by CamScanner Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rait बाड़ डाल १० : गा० २-८ २ - ठंडा उन्हा पांणी थकी रे लाल, मूल न करणो अंगोल | ०॥ केसर चंदण नहीं चरचणा रे लाल, दांत रंगे न करणा: चोल । म० ए० ॥ ३ – बहु मोलां नें उजला रे लाल, ते वसत्र ने पेंहरणा नांहि | ० || टीका तिलक करणा नहीं रे लाल, ते पण नवमीं बाड़ रे मांहि । म० ए० ॥ ४ – कांकण कुंडल नें मूंदड़ी रे लाल, वले माला मोती नें हार |० ॥ ते ब्रह्मचारी पेंहरें नहीं रे लाल, चले गेंहणा विवध परकार |० ए० ॥ - ५ – नहीं रहणों घटायों मठारीयो रेलाल, सादिक ने समार ब० ॥ वले सत्रादिक पिण पेंहरने रे लाल, मूल न करणों सिणगार" नि० ए० ॥ ६ - विभूषा अंग छें कुसील नों रे लाल, तिण सूं चोकणा करम बंधाय ॥० ॥ तिणसं पड़े संसार सागर मझे रे लाल, तिरो पार वेगों नहीं आय ' ० ए० ॥ ७ - सिणगार कीयां रहें तेहनें रे लाल, अस्त्री देवें चलाय ० ॥ भिष्ट करें सील वरत थी रे लाल, ठालो कर देवें ताय * ब्र० ए० ॥ ८ - रतन हाथे आयो रांक रें रे लाल, ते दीठां खोस ले राय ॥०॥ यूयं ब्रह्मचारी विभ्रूषां कीयां रे लाल, अस्त्री सील रतन खोसें ताय । न० ए० ॥ १६. herm २ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें उष्ण या शीतल जल से कभी स्नान नहीं करना चाहिए। केशर, चन्दन आदि का लेप नहीं करना चाहिए। न दाँतों को रँगना ही चाहिए और न दन्तधावन ही करना चाहिए । ३ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें बहुमूल्य और उज्ज्वल वस्त्रों को नहीं पहनना चाहिए। टीका तिलक नहीं लगाना चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत की नवीं बाड़ में. यह वर्जित है । ४ – हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें कंकण, कुण्डल, अंगूठी, माला, मोती और हार नहीं पहनना चाहिए। इसी प्रकार ब्रह्मचारी को विविध प्रकार के गहने नहीं पहनने चाहिए । ५ - हे ब्रह्मचारी ! तुम्हें केशादि को सँवार बन-ठन कर नहीं रहना चाहिए । इसी तरह तुम्हें चटकीले भड़कीले वस्त्रों को पहन कर शृङ्गार नहीं करना चाहिए । ६ - हे ब्रह्मचारी ! अंग - विभूषा कुशीलता का द्योतक है । इससे चिकने - गाढ़ कर्मों का बन्ध होता है और मनुष्य दुस्तर संसार - सागर में गिरता है । उसका शीघ्र अन्त नहीं आता । ७ – हे ब्रह्मचारी ! जो शृङ्गार पूर्वक रहता है, उसको स्त्री विचलित कर देती है। उसे व्रत से भ्रष्ट कर वह निठल्ला बना देती है । ८ - हे ब्रह्मचारी ! जिस प्रकार दरिद्र के हाथ रत्न लगने पर उसे देख राजा उससे छीन लेता है, उसी प्रकार शृङ्गार करने वाले ब्रह्मचारी से स्त्री शील रूपी रत्न को छीन लेती है । Scanned by CamScanner Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. १- प्रमचारी इम सांभली रे लाल, सील विभूषा मत करजे लिगार | ० || ज्यू सील रतन कुसलें रहें रे लाल, तिण सूं उतरें भव जल पार त्रि० ए० ॥ टिप्पणियाँ [१] दोहा १-३ : किसे कहते हैं. इसका उत्तर दूसरे प्रथम देहे में स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य की नवीं वाड़ का स्वरूप बतलाया है। शरीर की विनूपा न करना यह नवीं बाड़ है। 'शरीर-विभूषा' दोहे में है शरोर-विमूपा अर्थात् तन-वृङ्गार अथवा तड़क-भड़क से रहना शरीर-विभूपा का दुष्परिणाम तीसरे दोहे में बताया गया है। जो शरीर विभूषा करता है— अर्थात् इस बाढ़ का लोप करता है वह शीघ्र ही संयोगी भोगी हो जाता है। इसलिए कहा है कि ब्रह्मचारी किसी भी तरह का तन-शृङ्गार न करे । इस व्रत की परिभाषा का आधार आगम के निम्न वाक्य हैं : -निर्ग्रथ विभूपानुपाती न हो। [२] ढाल गा० १-५ : शोल की नब बाड़ ६ - हे ब्रह्मचारी ! यह सब सुनकर जरा भी शरीर की विभूषा मत करो जिससे तुम्हारा शीलरूपी रत्न सुरक्षित रहे और तुम जन्म-मरण रूपी भव-जाल से पार उतरो । विभूसं परिवज्जेजा, सरीरपरिमण्ड चम्मचेररओ भिक्स, सिंगारत्थं न धारए ॥ - उत्त० १६ : श्लो० ९ - ब्रह्मचारी विभूपा - शरीर परिमंडन- बनाव उनाव को छोड़ दे। वह मृङ्गार- शोमा के लिए कोई वस्तु धारण न करे। होते हैं। [३] ढाल गा० ६ नोनिग्गन्थे विभूसाणुवादी हविज्जा : इन गाथाओं में स्वामीजी ने आगम के निम्नलिखित स्थलों का विस्तार किया है : सिणाणं अदुवा कक्के लो पउमगाणि अ गाय सुव्वट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ॥ नगिणस्स वा वि मुंडस्स, दीहरोमनहंसिणो । मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाए कारियं ॥ तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिद्वगा || - दस० ६ ६४-६५-६३ - ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ गात्र उर्तन के लिए स्नान, कल्प-चन्दनादि द्रव्य, लोभ, कुंकुम आदि का कदापि प्रयोग नहीं करता। -नग्न, मुण्ड, दीर्घरोग और नखवाले तथा मैथुन से उपशांत - सम्पूर्णतः विरत अनगार को विभूषा से क्या मतलब ? -ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ शीत अथवा उष्ण किसी भी जल से स्नान नहीं करते। वे यावज्जीवन के लिए इस घोर अस्नान व्रत को धारण करनेवाले इस गाथा का आधार आगम के निम्नलिखित स्थल हैं: उत्त० १६९ क विभूसावत्ति भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेर्ण पडइ दुरुतरे ॥ विभूसावत्तिअ चैनं बुद्धा मन्नति तारिस | सावज्जवल चै नेयं ताहि सेवि ॥ -६० ६ ६६-६७ Scanned by CamScanner Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम बाड़ : ढाल १० : टिप्पणियाँ —-विभूषा करनेवाला भिक्षु उस कारण से चिक्कन कर्मों का बन्ध करता है, जिससे दुरुत्तर संसार-सागर में पतित होता है। - ज्ञानी विभूषा-सम्बन्धी संकल्प-विकल्प करनेवाले मन को ऐसा ही दुष्परिणाम करनेवाला मानते हैं। यह सावद्य बहुल कर्म है। यह निर्ग्रथों द्वारा सैव्य नहीं। [ ४ ] ढाल गा० ७ : इस गाथा का आधार सूत्र का निम्न वाक्य है : ६३ विभूसावत्तिए विभूसियसरीरे इत्थिजणस्स' अभिलणिजे हवई - उत्त० १६:९ - विभूषा की भावनावाला ब्रह्मचारी निश्चय हो विभूषित शरीर के कारण स्त्रियों का काम्य- उनकी अभिलाषा का पदार्थ हो जाता है। तओ णं इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दोहकालियं वा रोगायक हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । - उत्त० १६:९ - जो ब्रह्मचारी इस प्रकार स्त्रियों की अभिलाषा का शिकार बनता है उसके मन में ब्रह्मचर्य का पालन करू या नहीं. ऐसी शंका उत्पन्न हो जाती है। वह स्त्री-सेवन की कामना करने लगता है। ब्रह्मचर्य के उत्तम फल में उसे विचिकित्सा - विकल्प - सन्देह उत्पन्न होता है। इस तरह ब्रह्मचर्य से उसका मन भेद हो जाता है। वह उन्माद का शिकार बनता है, उसके दीर्घकालिक रोग हो जाते हैं। वह केवली प्ररूपित धर्म से पतित हो जाता है। ] ढाल गा० ८-६ : गा० ७ में जो बात लिखी है उसी को स्वामीजी ने एक उदाहरण द्वारा समझाया है। जैसे एक गरीव के हाथ में रत्न होने पर उसके प्रति आँख गड़ जाती है और राजा उस रत्न को उससे ले लेता है उसी तरह से जो तन को इरित करता है उस पर स्त्रियों की आँखें टिक जाती हैं और मोहित स्त्रियाँ उसके शीलरूपी सन को उससे छीन लेती है। पुरुष इस तरह स्त्रियों का काम्य न वने । उसका शीलव्रत भङ्ग न हो इसके लिए आवश्यक है कि वह कदापि किसी तरह का शृङ्गार न करे। जो ब्रह्मचारी शृङ्गार से बचता है वह ब्रह्मचर्य की अखण्ड आराधना करने में सफल होता है और फलस्वरूप भव-समुद्र को पार करने में समर्थ होता है। आयकर काट Scanned by CamScanner Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोट सब्द रूप गन्ध रस फरस, भला भूंडा हलका भारी सरस । यां सूं राग घेष करणो नाहीं, रहसी एहवा कोट मांही ॥ ढाल : ११. दुहा ब्रह्मचर्य री, १ – ए नव बाड़ कही हिवें दसम कहें ए बाड़ लोपी तिण में मूल न चाले खोट ॥ छें कोट । वींटे रह्यो, २– कोट भांगा जोखो छें बाड़ नें, बाड़ भांगा वरत नें जांण । तिण सूं कोट भिलण देवें नहीं, ते डाहा चतुर सुजाण ॥ ३ - कोट भांग वघारा पडीयां थकां, बाड़ भांगतां किती एक बार । तिण सूं वशेष कोट रो, करवो जतन विचार ॥ ४- सेर कोट सेंठों हुवें चिंता न पांमें लोक । ज्यू अडिग कोट ब्रह्मचर्य रो, तिण सूं सील न पांमें दोख * ॥ ५- ते कोट करणो किण विध कलों, किण विध करणो जतन । M विवरा सुध, सांभलजों मन ॥ एक १ — ब्रह्मचर्य की नव बाड़ कही जा चुकी हैं। अब दसवें कोट के बारे में कहता हूँ । यह कोट बाड़ों को बाहर से घेरे हुए हैं। इसमें जरा भी दोष नहीं चल सकता । २ - कोट के भंग होने से बाड़ों को जोखिम है और बाड़ों के खंडित होने से व्रत को । इसलिए बुद्धिमान और ज्ञानी पुरुष कोट को गिरने नहीं देते। ३- कोट भंग होकर यदि वह दरार' युक्त हो जाय तो बाड़ों के भग्न होने में कितना समय लगेगा ? यह विचार कर कोट का विशेष रूप से संरक्षण करना चाहिए । ४ – जिस प्रकार शहर का कोट मजबूत होने पर लोग चिन्ताग्रस्त नहीं होते, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत का कोट अगर अडिग हो तो शील पर किसी प्रकार का आघात नहीं आ सकता । ५—अब मैं बतलाता हूँ कि शील-संरक्षण के लिए कोट का निर्माण किस तरह करना चाहिए और किस प्रकार उसका संरक्षण करना चाहिए। हे ब्रह्मचारी ! इसके ब्योरेवार वर्णन को एकाग्र मन से सुनो । Scanned by CamScanner Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोट : ढाल ११ : गा० १-६ Reaजनिकला १-मन गमता सन्द रसाल, अण गमता सन्द विकराल । गमता सन्द सुण्यां नहीं रीझे, अण गमता सुण्यां नहीं खीजें ॥ १-शब्द दो तरह के होते हैं-एक मन को अच्छे लगनेवाले मधुर शब्द और दूसरे मन । को बुरे लगनेवाले विकराल शब्द । ___ ब्रह्मचारी मनोज्ञ शब्दों को सुनकर प्रसन्न न हो और न अमनोज्ञ शब्दों को सुनकर द्वेष ही करे। २-काला, पीला, लाल, नीला और सफेद इन पांच वर्णों के अनेक रूप होते हैं। अच्छे रूप को देखकर ब्रह्मचारी राग न करे और न बुरे रूप को देखकर द्वेष। २-काला नीला राता पीला धोला, की पांच परकार नां रूप बोहला । ४. राग नाणे भला रूप देखती माठा देख न आणणो धेख । ३-गंध सुगंध दुगंध , दोय, : गमता अण गमता सोय । एक गमता सं नहीं रति · सोय, ' - अण गमता सूं अरति न कोय ॥ __३-गन्ध दो प्रकार की होती है-एक सुगन्ध और दूसरी दुर्गन्ध। सुगन्ध मन को अच्छी लगती है और दुर्गन्ध बुरी। ब्रह्मचारी मनोज्ञ गन्ध में रति न करे और न अमनोज्ञ गन्ध में अरति । ४-रस पांच प्रकार के जानो। उनके स्वाद अनेक प्रकार के हैं। ब्रह्मचारी को मनोज्ञ रस में राग नहीं करना चाहिए और न अमनोज्ञ रस में द्वेष । ४–रस पांच परकार ना जाणों, त्यांरा स्वाद अनेक पिछांणों। * गमता सूं. राग न करणो, र अण गमता सूं घेष न धरणो ॥ ५-फरस आठ परकार नां ताम, त्यांरा : जूआ २, नांम। रागी गमतारोअण गमता रो धेखी, यां दोयां सं रहणों निरापेखी ॥ नापी -स्पर्श आठ प्रकार के होते हैं। उनके नाम अलग-अलग हैं। मनुष्य मनोज्ञ स्पर्श से राग करने लगता है और अमनोज्ञ से द्वेष। ब्रह्मचारी को इन दोनों से निरपेक्ष रहना चाहिए। ६-सन्द रूप गन्ध रस फरस, भला भंडा हलका भारी सरस । यां सं राग धेष करणो नांहीं, सील रहसी एहवा कोट मांहीं ॥ ६-शब्द, रूप, गन्ध, रस तथा स्पर्श-अच्छे बुरे, सरस-विरस, हलके-भारी आदि होते हैं। ब्रह्मचारी को इनमें न तो राग करना चाहिए और न द्वेष। यही दसवां कोट है जिसमें शील सुरक्षित रहता है। Scanned by CamScanner Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ - सील वरत छें भारी रतन, तिणरा किण विध करणा जतन । सगला व्रतां मांहें वरत मोटों, तिणरी रिष्या भणी कह्यों कोटों ॥ ८ - जो सब्दादिक सूं हुवें राजी, तो कोट जायें छे भाजी । कोट भांगां बाड़ चकचूरों, ब्रह्म वरत पिण पर जायें पूरों ॥ ६- तिण सं कोट रा करणा जतन, तो कुमले रहें सील रतन । दोख, टल जाओ सगला पांमें अविचल जब १० – इम सांभल ने ब्रह्मचारी, तूं कोट म खंडे लिगारी । ज्यं दिन दिन इधको आनन्द, हम भाष्योंछें वीर जिणंद || मोख ॥ नार । ११ - ए कोट सहित कही नव बाड़, ते सांभल नें नर इण रीत सं ब्रह्म व्रत ज्यूं मिटें सर्व आल जंजालों ॥ पालों, * १२ – उतरा सोलमां तिणरो लेई ने तिहां कोट सहीत कही नव बाड़, ते संखेप कों विसतार " ॥ १३ - इगतालीसें नें समत मकारों, अनुसारों । अठार, फागुण विद दसमीं गुरवार । जोड कीधीं पादू मकार, समझावण ने नर. नार ॥ शील की नव बाड़ ७- शील- श्रत एक बहुमूल्य रत्न है। उसका विधिपूर्वक संरक्षण करना चाहिए। यह सब व्रतों में श्रेष्ठ व्रत है । उसकी रक्षा के हेतु यह कोट कहा गया है। ८-यदि ब्रह्मचारी मनोज्ञ शब्दादि से प्रसन्न होता है तो कोट भंग हो जाता है। के भंग होने पर बाड़ें चकनाचूर हो जाती हैं । ऐसी अवस्था में ब्रह्मचर्य व्रत भी नष्ट हो जाता है। ६ - इसीलिए कोट की सुरक्षा करनी चाहिए जिससे कि शीलरूपी रत्न सुरक्षित रहे । जब समस्त दोषों का निवारण करते हुए ब्रह्मचर्य -त्रत का पालन किया जाता है तब अविचल मोक्ष की प्राप्ति होती है । १० - हे ब्रह्मचारी ! तू यह सुनकर शीलरक्षक कोट को जरा भी खण्डित मत कर । इससे तुम्हें उत्तरोत्तर आनन्द की प्राप्ति . होगी - ऐसा जिनेश्वर भगवान् ने कहा है । ११ – मैंने कोट सहित नव बाड़ का वर्णन किया है। हे नर-नारियो ! इन्हें सुनकर इनके अनुसार ब्रह्मचर्य का पालन करो, जिससे सब तरह के जाल - जंजाल मिट जायँ । १२ – 'उत्तराध्ययन' सूत्र के १६ वें अध्याय में कोट सहित नव बाड़ कही गई है। वहाँ के संक्षिप्त वर्णन का अनुसरण कर मैंने यहाँ विस्तार से वर्णन किया है। १३ – लोगों को समझाने के लिए यह रचना मैंने संवत् १८४१ की फाल्गुन बदी दशमी, गुरुवार के दिन पादुगांव में की है। Scanned by CamScanner Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोट ढाल ११ टिप्पणियाँ टिप्पणियाँ १ दोहा १-४ : ब्रह्मचर्य की सुरक्षा के दस स्थानकों में से अंतिम स्थानक का विवेचन प्रस्तुत दाल में है। ब्रह्मचर्य-रक्षा के प्रथम नौ उपायों में से प्रत्येक को एक बाड़ की संज्ञा दी गई है। इस दसवें स्थानक को कोट कहा गया है। यह कोट वचर्य की रक्षा के लिए प्ररूपित गुडियों अथवा दाड़ों को चारों ओर से घेरे हुए है। बाहर के कोट में दरार होने पर जैसे अन्दर को बाड़ों के भङ्ग होने में देर नहीं लगती और वाड़ों के भंग होने से खेत के नाश होने में देर नहीं लगती, वैसे ही ब्रह्मचर्य के दसवें स्थानक के भंग होने से अन्य स्थानकों के भंग होने में देर नहीं लगती और उनके मन होने से ब्रह्मचर्य रूपी खेत के विनाश होने में देर नहीं लगती। ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि कोट रूपी यह दसवाँ स्थानक बाढ़ रूपी अन्य स्थानको से वहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसे अखण्डित रखना परम आवश्यक है। क्योंकि इसकी सुरक्षा से ही अन्य सुरक्षित रहने से ही मूल ब्रह्मचर्य व्रत सुरक्षित रह सकता है। जिस प्रकार नगर का प्राकार सुदृढ़ रहने से नहीं रहता और वे निश्चिन्त रहते हैं, उसी प्रकार इस दसवें स्थानक को सुरक्षित रखने से अन्य स्थानक किसी प्रकार की आँच नहीं आ सकती। स्थानक सुरक्षित रह सकते हैं और उनके नागरिकों को शत्रु के आक्रमण का मय भी सुरक्षित रहते हैं और ब्रह्मचर्य व्रत को [२] ढाल गा० १-५ : ब्रह्मचर्य की रक्षा के दसवें समाधि स्थानक का स्वरूप इस प्रकार है कि व्रह्मचारी को शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श- इन्द्रियों के इन विषयों मैं राग-द्वेष नहीं करना चाहिए। इस स्वरूप का आधार सूत्र के निम्न वाक्य हैं : सद्दे रुवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे, निच्चसो परिवज्जए ॥ उत्त० १६ : १० - ब्रह्मचारी शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-इन्द्रियों के इन पाँच प्रकार के विषयों को सदा के लिए छोड़ दे। विसयेसु मणुन्नुस्, पेनं नाभिनिवेसए अणिच्च तैसि विन्नाय परिणाम पोग्गलाण य ॥ पोग्गलाण परीणामं, तेसि नच्चा जहा तहा। विणीयतण्हो विहरे, सीईंभूयेण अप्पणा ॥ ६७ दश०८:५९, ६० --शब्द रूप, गन्ध, रस और स्पर्श- पुद्गलों के इन परिणामों को अनित्य जानकर ब्रह्मचारी मनोज्ञ विपयों में राग-भाव न करे वह अपनी आत्मा को शीतल कर, तृष्णा रहित हो, जीवन-यापन करे । प्रस्तुत गाथा १ से ५ में जिन भावों का विश्लेषण है उनका शास्त्रीय आधार इस प्रकार है : ण सका ण सोउं सद्दा, सोयविसयमागता: रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए । - आचारांग सूत्र -कान में पड़े हुए शब्दों न सुनना सम्भव नहीं। भिक्षु कान में पड़े हुए प्रिय शब्दों के प्रति राग और अप्रिय शब्दों के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। ण सका रूवमदठ्ठे चक्खुविसयमागयं रागदोसा उ जे तत्थ ते भिक्सू परिवज्जए। - आचारांग --चक्षु-गोचर हुए रूपों को न देखना सम्भव नहीं। भिक्षु प्रिय रूपों के प्रति राग और अप्रिय रूपों के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। णो सक्का गंधमग्घाउं, णासाविसयमागयं. रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ -- आचारांग Scanned by CamScanner Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र शील की नव बाड़ -नाक में आई हुई गंध को न सूंघना सम्भव नहीं। भिक्ष प्रिय गन्ध के प्रति राग और अप्रिय गंध के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। णो सक्का रसमस्साउं जीहाविसयमागर्य, रागदोसा उ जे तत्थ,ते भिक्खू परिवज्जए। -आचारांग -जिह्वा के सम्पर्क में आए हुए रसों का स्वाद न लेना सम्भव नहीं। भिक्ष प्रिय रस के प्रति राग और अप्रिय रस के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। णो सक्का फासमवेदेउं फासविसयमागयं, रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए। --आचारांग -शरीर के स्पर्श में आए हुए स्पशी का अनुभव न करना सम्भव नहीं। भिक्ष प्रिय स्पशी के प्रति राग ओर अप्रिय स्पशों के प्रति द्वेष करना छोड़ दे। र स्वामीजी कहते हैं : शब्द, रूप आदि विषयों के प्रति उपर्युक्त निरपेक्ष भाव ही ब्रह्मचर्य की सुरक्षा का दसवां स्थानक अथवा सुदृढ़ परकोटा है। [३] ढाल गाथा ६-७ गाथा १ से ५ में जो भाव आये हैं उन भावों का सार संक्षेप में इस गाथा में प्रस्तुत हुआ है। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श दो तरह के होते हैं। अच्छे-बुरे शब्द-रूपादि के प्रति राग-द्वेष न करना समभाव या वीतरागता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है: चक्खुस्स रूवं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाह, समो य जो तेसु स वीयरागो॥ -उत्त० ३२: २२ -रूप चक्षु-ग्राह्य है। रूप चक्ष का विषय है। प्रिय रूप राग का हेतु है और अप्रिय रूप द्वेष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहे तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउ अमणुन्नमाहू, समो य जो तेस स वीयरागो । ..... -उत्त० ३२ : ३५ . -शब्द श्रोत-ग्राह्य है। शब्द कान का विषय है। प्रिय शब्द राग का हेतु है और अप्रिय शब्द देष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है. वह वीतराग है। घाणस्स गधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाह। तं दोसहेउं अमणुन्नमाह. समो य जो तेस स वोयरागो॥APER -उत्त० ३२४ -ध घ्राण-ग्राह्य है। गंध नाक का विषय है। प्रिय गंध राग का हेतु है और अप्रिय गंध द्वेष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है, वह वीतराग है। जिब्भाए रसं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाह । त दोसहेउ अमणुन्नमाहू, समो य जो तेसु स वीयरागो । -उत्त० ३२:६१ -रस जिह्वा-ग्राह्य है। रस जिह्वा का विषय है। प्रिय रस राग का हेतु है और अप्रिय रस देष का। जो इन दोनों में समभाव रखता है. वह वीतराग है। कायस्स फासं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाह. समो य जो तेस स वीयरागो॥ -उत्त० ३२: ७४ Scanned by CamScanner Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोट ढाल ११ : टिप्पणियाँ ६६ —स्पर्श काम-ग्राह्य है । स्पर्श शरीर का विषय है। प्रिय स्पर्श राग का हेतु है और अप्रिय स्पर्श द्वेव का। जो इन दोनों में समभाव र है. वह राग है। मग भाव गहत राहे तु मनुन्नमा तं दोसहे ं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ - भाव मन-ग्राह्य है । भाव मन का विषय है। प्रिय भाव राग का हेतु है और अप्रिय भाव द्वेप का। है। - उत्त० ३२ : ८७ इन दोनों में समभाव रखता है, वह रज ऐसे समभाव या वीतरागता रूपो कोट में ही सुरक्षित रह सकता है। स्वामीजी कहते हैं कि शील रूपी यह बताया जा चुका है कि किस तरह सब व्रतों में महान् है शील एक महामूल्यवान रत्न है जिसको रक्षा के लिए विशेष उपाय करने की आवश्यकता है। इसीलिए भगवान् ने विषयों के प्रति समभाव रूपी इस कोट को ब्रह्मचर्य की समाधि का दसवां स्थानक वतलाया है। जो [४] डाल गाथा ८-११: आठवीं गाया में यह बताया गया है कि यह कोट किस प्रकार भंग होता है और इसके भंग होने से ब्रह्मचारी को क्या हानि होती है। स्वामीजी कहते हैं जो शब्दादि विषयों में रागादि रखता है. वह इस कोट को खंडित करता है उनके विनाश से ब्रह्मचर्य रूपी शस्य विनष्ट होता है। शील रूपी रत्न की रक्षा करनी कोट के अडित रहने से सब विघ्न दूर हो जाते हैं. शील अखंड रहता है और इससे अविचल मोक्ष की प्राप्ति होती है। कोट के भंग होने से वाड़े भी चकनाचूर हो जाती है और हो तो कोट को सुरक्षित रखने का हर प्रयत्न करना चाहिये । आगम में कहा है : सड़े विरतो मणुओं विसोगो, एग दुक्लोहपरम्परेण न लिप्पईं भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥ - उत्त० ३२ : १०० एविंदियत्थाय मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउ मणुयस्स रागिणी । ते चैव थोवं पि क्याइ दुख न वीयरागस्स करेति किचि इन्द्रियों के और मन के विषय रागी मनुष्य को ही दुख के हेतु होते हैं। ये विश्य वीतराग को कदाचित् किंचित् मात्र थोड़ा भी दुःख नहीं पहुंचा सकते। - उत्त० ३२ : ४७ - शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और भाव के विषयों से विरक्त पुरुष शोक रहित होता है। वह इस संसार में वसता हुआ भी दुःख समूह की परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं होता जिस तरह पुष्करिणी का पलाश जल से। सोयराग सकियो, सावरणं सव्वं सओ जान पासर य, अमोह होइ निरंतराए अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवे सुद्धे ॥ । तहेव जं दंसणमावरे, जं चन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥ - उत्त० ३२ : १०८ - जो वीतराग है वह सब तरह से कृतकृत्य है। वह क्षणमात्र में ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर देता है और इसी तरह से जो दर्शन को ढंकता है, उस दर्शनावरणीय और विघ्न करता है, उस अन्तराय-कर्म का भी क्षय कर डालता है। उत्त० ३२ : १०९ - तदन्तर वह आत्मा सब कुछ जानती देखती है तथा मोह और अन्तराय से सर्वथा रहित हो जाती है। फिर आस्रवों से रहित, ध्यान और समाधि से युक्त वह विशुद्ध आत्मा, आयु समाप्त होने पर मोक्ष को प्राप्त होती है। सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं वाहई सययं जंतुमेयं । दीहामयं विप्पमुको पसत्थो, तो होइ अच्चंत सुही कयत्थो । - उत्त० ३२ : ११० फिर वह सर्व से, जो जीव को सतत् पीड़ा देते हैं. मुक्त हो जाती है। दीर्घ रोग से विप्रमुक्त हो वह कृतार्थ आत्मा अत्यन्त प्रशस्त सुखी होती है। Scanned by CamScanner Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र शील की नव बाद [५] ढाल गा० १२: स्वामीजी को रचना मुख्यतः उतराध्ययन के आधार पर है। उत्तराध्ययन का १६वा अध्ययन परिशिष्ट में दिया गया है। देखिए परिशिष्ट-स। Scanned by CamScanner Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त Scanned by CamScanner Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथ और राजीमती. [ इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा १-२ ( पृ० ३ ) के साथ है।] मिथिला नगरी में उग्रसेन नामक एक उच्चवंशीय राजा राज्य करते थे। इनके धारिणी नाम की राणी थी। के एक पुत्र था, जिसका नाम कंस था और एक पुत्री थी, जिसका नाम राजीमती था। राजीमती अत्यन्त सुशील, मन्दर और सर्व लक्षणों से सम्पन्न राजकन्या थी। उसकी कान्ति विद्युत की तरह देदीप्यमान थी। उस समय शौर्यपुर नामक नगर में वसुदेव, समुद्र विजय वगैरह दश'दशाह (यादव) भाई रहते थे। सबसे बोटे वसदेव के रोहिणी और देवकी नामक दो राणियाँ थीं। प्रत्येक राणी के एक-एक राजकुमार था। कुमारों के नाम क्रमशः राम (बलभद्र ) और केशव (कृष्ण थे। . राजा समुद्रविजय की पनि का नाम शिवा था। शिवा की कख से एक महा भाग्यवान और यशस्वी पुत्र का जन्म हुआ। इसका नाम अरिष्टनेमि रक्खा गया। अरिष्टनेमि जब काल पाकर युवा हुए तो इनके लिए केशव (कृष्ण ) ने राजीमती की मांग का प्रस्ताव राजा उग्रसेन के पास भेजा। अरिष्टनेमि शौर्य-वीर्य आदि सब गुणों से सम्पन्न थे। उनका स्वर बहुत सुन्दर था। उनका शरीर सर्व शुभ लक्षण और चिह्नों से युक्त था। शरीर-सौष्ठव और आकृति उत्तम कोटि के थे। उनका वर्ण श्याम था। पेट मछली के आकार-सा सुन्दर था। ऐसे सर्व गुण सम्पन्न राजकुमार के लिए राजीमतीकी मांग को सुनकर राजा उग्रसेन के हर्ष का पारावार न रहा। उन्होंने कृष्ण को कहला भेजा-"यदि अरिष्टनेमि विवाह के लिए मेरे घर पर पधारें, तो राजीमती का पाणिग्रहण उनके साथ कर सकता हूँ।" कृष्ण ने यह बात मंजूर की और विवाह की तैयारियां होने लगी। नियत दिन आने पर कुमार अरिष्टनेमि को उत्तम औषधियों से स्नान कराया गया। अनेक कौतुक और मांगलिक कार्य किए गए। उत्तम वस्त्राभूषणों से उन्हें सुसज्जित किया गया। वासुदेव के सब से बड़े गन्धहस्ती पर उनको बिठाया गया। उनके सिर पर उत्तम छत्र शोभित था। दोनों ओर चंवर डोलाए जा रहे थे। यादव वंशी क्षत्रियों से वे घिरे हुए थे। हाथी, घोड़े, रथ और पायदलों की चतुरंगिणी सेना उनके साथ थी। भिन्न-भिन्न वाजिन्त्रों के दिव्य ओर गगनस्पशी शब्दों से आकाश गुंजायमान हो रहा था। - इस प्रकार सर्व प्रकार की रिद्धि और सिद्धि के साथ यादव-कुलभूषण अरिष्टनेमि अपने भवन से अग्रसर हए।" - अभी बरात राजा उग्रसेन के यहां नहीं पहुंची थी कि रास्ते में कुमार अरिष्टनेमि ने पीजरों और बाड़ों में भरे हुए और भय से कांपते हुए दुःखित प्राणियों को देखा। यह देखकर उन्होंने अपने सारथी से पूछा : "सुख के कामी इन प्राणियों को इन बाड़ों और पीजरों में क्यों रोक रक्खा है ?" . .. इस पर सारथी ने जवाब दिया : "ये पशु बड़े भाग्यशाली हैं, आप के विवाहोत्सव में आए हुए बराती लोगों की दावत के लिए ये हैं।" -उत्तराध्ययन सत्र अ०२२ के आधार पर १३ Scanned by CamScanner Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ शील की नव बाड़ सारथी के मुख से इस हिंसापूर्ण प्रयोजन की बात सुन कर जीवों के प्रति दयावृत्ति-अनुकम्पा रखने वाले महामना अरिष्टनेमि सोचने लगे: "यदि मेरे ही कारण से ये सब पशु मारे जांय तो यह मेरे लिए इस लोक या परलोक में कल्याणकारी नहीं हो सकता।" __ यह विचार कर यशस्वी अरिष्टनेमि ने अपने कान के कुण्डल, कण्ठ-सूत्र और सर्व आभूषण उतार डाले और सारथी को सम्हला दिए और वहीं से वापिस द्वारिका को लौट आए। द्वारिका से वे रैवतक पर्वत पर गए और वहां एक उद्यान में अपने ही हाथ से अपने केशों को लोचकर-उपाड़ कर उन्होंने साधु प्रव्रज्या अंगीकार की। ___उस समय वासुदेव ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया "हे दमेश्वर ! आप अपने इच्छित मनोरथ को शीघ्र पावें, तथा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षमा और निर्लोभता द्वारा अपनी उन्नति करें।" . इसके बाद राम, केशव तथा इतर यादव और नगरजन अरिष्टनेमि को वंदन कर द्वारिका आए। इघर जब राजकन्या राजिमती को यह मालूम हुआ कि अरिष्टनेमि ने एकाएक दीक्षा ले ली है तो उसकी सारी हँसी और खुशी जाती रही और वह शोक-विह्वल हो उठी। माता-पिता ने उसे बहुत समझाया और किसी अन्य योग्य वर से विवाह करने का आश्वासन दिया परन्तु राजिमती इससे सहमत न हुई। उसने विचार किया-"उन्होंने (अरिष्टनेमि ने) मुझे त्याग दिया-युवा होने पर भी मेरे प्रति जरा भी मोह नहीं किया ! धन्य है उनको ! मेरे जीवन को धिक्कार है कि मैं अब भी उनके प्रति मोह रखती हूँ। अब मुझे इस संसार में रहकर क्या करना है ? मेरे लिए भी यही श्रेयस्कर है कि मैं दीक्षा ले लूं।" ऐसा दृढ़ विचार कर राजीमती ने कांगसी-कंघी से सँवारे हुए अपने भंवर के से काले केशों को उपाड़ डाला। तथा सर्व इन्द्रियों को जीत कर रुण्ड-मुण्ड हो दीक्षा के लिए तैयार हुई । राजीमती को कृष्ण ने आशीर्वाद दिया : “हे कन्या ! इस भयंकर संसार-सागर से तू शीघ्र तर"। राजीमती ने प्रव्रज्या ली। कथा २ कंकणी का दृष्टान्त - [इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ६ की टि०५ (पृ०७ ) के साथ है।] कोई निर्धन धनोपार्जन के लिए परदेश गया। वहां उसने एक हजार स्वर्ण मुद्रायें कमायीं और उन्हें लेकर वह घर की ओर चला। दैवयोग से उसे रास्ते में पड़ी हुई एक कौड़ी दिखलाई पड़ी। वह उसे छोड़ कर आगे बढ़ चला। कुछ दूर जाने के बाद उसके मन में उस कौड़ी को ले लेने की इच्छा जाग पड़ी। वह उसे ले लेने के लिए वापस लौटा। रास्ते में उसने सोचा-"मैं व्यर्थ ही इन एक सहस्र मुद्राओं का भार क्यों बहन करूँ? क्यों न इन्हें यहीं गाड़ दं?" यही सोचकर उसने एक वृक्ष के नीचे सहस्र मुद्राओं को गाड़ दिया और कौड़ी लेने के लिए वापस चला। जब वह उस जगह पहुँचा, जहाँ कौड़ी पड़ी हुई थी तो वह भी वहां नहीं थी। उसे पहले ही कोई उठा ले गया था। निराश होकर वह मुद्राओं की ओर चला। उन्हें भी कोई चोर खोदकर ले गया था। जैसे एक कौड़ी के लोम में एक हजार मुद्राओं को गाकर वह मूर्ख पश्चाताप करता हुआ घर आया, उसी प्रकार मुर्ख तुच्छ मानुषी भोगों में फँस उत्तम सुखों को खो देता है। १-उत्तराध्ययन सूत्र अ०७ गा०:११ की नैमिचन्द्रीय टीका के आधार पर। Scanned by CamScanner Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-फ: कथा ३ कथा-३ आन फल' __ [इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ६ को टि०५ (पृ०७) के साथ है। एक राजा था। आम्रफल के अत्यधिक सेवन से उसे विशुचिका रोग हुआ। राजा ने बड़े-बड़े चिकित्सक पलाकर अपनी चिकित्सा करवाई। उसका रोग शांत हुआ। तब वैद्यों ने राजा से कहा-"राजन् ! अब आप आम्र फल न खायें। अगर आपने पुनः आम्र फल का सेवन किया तो फिर यही असाध्य रोग होगा।" राजा ने चिकित्सकों की बात मान ली। कई दिनों के बाद राजा मंत्री को साथ लेकर घूमने के लिए निकला। धूप के कारण रास्ते में उसे थकावट महसूस होने लगी। तब उसने मंत्री से कहा- मैं थक गया हूँ। अतः कहीं विश्राम के लिए ठहरना चाहिये।" पास ही फल से लदा हुआ एक आम्र वृक्ष था। राजा ने उसकी छाया में बैठने के लिए मंत्री से कहा। मंत्री बोला-"राजन् ! आप को आम्र वृक्ष की छाया में भी नहीं बैठना चाहिए। कारण, आप की बीमारी के लिए यह कुपथ्य है। मंत्री के वार-वार कहने पर भी राजा नहीं माना और वह आम्र वृक्ष की छाया में बैठ गया। शीतल हवा बह रही थी। राजा थका हुआ था। बोला : “थोड़ा लेटकर विनाम कर लूँ।" राजा लेटकर विश्राम करने लगा। उसकी आँखें एकटक होकर आम्र फलों को देखने लगीं। मंत्री का कलेजा फटने लगा। वह बोला : “महाराज ! आम्र फलों की ओर देखना वर्जित है।" राजा बोला-"खाना मना है या देखना भी? क्या देखने से भी कभी अनर्थ हुआ है" इतने में हवा के वेग से आमों की एक डाल नीचे राजा की पलथी में आ पड़ी। राजा ने आम उठा लिया। बोला : “ये फल कितने प्रिय थे मुझ को एक दिन। आज इन्हें खा नहीं सकता तो सूंघकर तो तृप्त होऊँ।" राजा आमों को बारबार सूंघने लगा। मंत्री बोला : “महाराज! आम सूंघना वर्जित है।" राजा हँसा : "सूंघने से खाया थोड़े ही खाता है ?" थोड़ी: देर बाद राजा बोला : “आमों की सुगन्ध बड़ी मीठी है। इनका स्वाद कैसा हैचखकर देखता हूँ।” मंत्री ने राजा को ऐसा न करने का अनुरोध किया। राजा ने कहा-"मंत्री ! मैं खाऊँगा नहीं, किन्तु, थोड़ा जीभ पर रखकर इसका स्वाद लेना चाहता हूँ।" फल को काट कर उस का थोड़ा भाग उसने अपने मंह में रख लिया। फल बड़ा मधुर एवं स्वादिष्ट था। राजा का मन नहीं माना और उसने समूचा फल खा लिया। फल के खाने से उसे पुनः पुरानी असाध्य बिमारी हो गई। उसने बहुत चिकित्सा करवाई किन्तु उस का कुछ भी फल नहीं निकला। उसकी बीमारी बढ़ती गई और वह मर गया। जिस तरह तुच्छ आम्र फल के लालच में आकर राजा ने सारा साम्राज्य एवं जीवन खो दिया, उसी प्रकार मनुष्य मानुषिक भोगों के लोभ में फस महान् सुखों को खो देता है। RCTERISTRITIENTS उत्तराध्ययन सूत्र अ०७: गा०११ की नेमिचन्द्रीय टोका के आधार पर । Scanned by CamScanner Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ कथा-४... चूल्हे का दृष्टान्त ' (मनुष्य-जन्म की दुर्लभता पर पहला दृष्टान्त) [ इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ७ ( पृ० ४) के साथ है ] दक्षिण भारत के मध्य समृद्धिशाली नगर कपिलपुर के राजा ब्रह्म अपनी प्रजावत्सलता के लिए सुविख्यात थे। उनके मंत्रियों में सर्वगुणसम्पन्न धनु को अपने विलक्षण बुद्धि के कारण सर्वप्रथम स्थान प्राप्त था। मधुर वचन, अनुपम कला एवं स्वर्गीय सौन्दर्य की अधिष्ठातृ रानी चूलणी राजा के विशिष्ट प्रेम की पात्री थी। काशी, गजपुर, कौशल एवं चम्पा के नरेश राजा के अभिन्न मित्रों में थे। राजा ब्रह्म और रानी चूलणी का दाम्पत्य जीवन सुखमय था। ऐसे सुखमय अवसर पर उन्हें पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम ब्रह्मदत्त रखा गया। सौभाग्य या दुर्भाग्य से ब्रह्मदत्त पांच वर्ष का ही होने पाया था कि उसके पिता काल-धर्म को प्राप्त हुए। राजा ब्रह्म की अन्त्येष्ठिक्रिया के अवसर पर उनके चारों अभिन्न स्नेही उपस्थित थे। सब के सामने यह विकट समस्या थी कि राज्य का संचालन किस प्रकार किया जाये। पंचवर्षीय शिशु ब्रह्मदत्त का राज्याभिषेक किया गया और दिवंगत आत्मा के हितचिन्तकों के विचार से कौशल नरेश दीर्घ को अभिभावकस्वरूप राज्यकी सुरक्षा-व्यवस्था का दायित्व सौंपा गया। कालक्रम में राजा दीर्घ और रानी में अनुचित सम्बन्ध हो गया। इधर कुमार ब्रह्मदत्त में भी कर्त्तव्याकर्त्तव्य के ज्ञान का पूर्णतः विकास हो चुका था। वह रानी चूलणी और दीर्घ के सम्बन्ध से सुपरिचित हो चुका था और एक दिन उसने संकेत द्वारा परोक्ष रूप में दीर्ध को भी अपनी जानकारी की सूचना दे दी। कुमार के इस ज्ञान से दोनों अत्यन्त ही आतंकित हुए। सुख में बाधा समझ कर रानी ने कुमार की हत्या का पडयंत्र किया। इस पडयंत्र का पता वयोवृद्ध मंत्री धनु को मिल गया एवं कुमार के रक्षार्थ उसने अपने पुत्र वरधनु को साथ कर दिया। वरधनु की सहायता से कुमार का बाल भी बांका नहीं होने पाया और पडयंत्र की जाल से मुक्त होकर वह अन्यत्र निकल पड़ा। इसी बीच कुमार ब्रह्मदत्त और मंत्रीपुत्र वरधनु का साथ छूट गया। जंगलों एवं कन्दराओं की ठोकरें खाते-खाते कुमार ब्रह्मदत्त की अवस्था विपन्न हो चली थी। अन्न-जल के अभाव में उसका युवा शरीर कृशित होने लगा। ऐसी कारुणिक अवस्था में वह एक ग्राम में पहुंचा, जहां के वृद्ध ब्राह्मण ने उसकी काफी आवभगत की। ब्राह्मण के स्वागत-सत्कार से प्रसन्न होकर ब्रह्मदत्त ने उसे अपनी राजधानी में आने का आमंत्रण दिया। कालान्तर में ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती सम्राट् बना। . राजगद्दी पर आसीन होने की खुशी में चक्रवती सम्राट् की राजधानी में हर्पोत्सव मनाया जा रहा था, ऐसी शुभ बेला में वह ब्राह्मण वहाँ पहुँचा। चक्रवती ने प्रसन्न होकर उसे मुंहमांगा पारितोषिक देने का बचन दिया। किन्तु, उस भाग्यहीन ब्राह्मण ने अपनी पत्नी के परामर्श पर यह क्षुद्र याचना की कि राजा के साम्राज्य में जितने भी परिवार हैं, सबों के यहाँ क्रमानुसार उसे कुटुम्ब सहित भोजन और एक स्वर्ण-मुद्रा प्राप्त हो। चक्रवती ने उसे कई वार समझाया लेकिन वह अपनी मांग पर अटल रहा। अन्त में राजा ने कहा-"एवमस्तु ।" दिन पर दिन जैसे बीतते गये ब्राह्मण को निम्नकोटि का भोजन मिलता गया। उस ब्राह्मण के पास पश्चात्ताप के सिवा अन्य कोई विकल्प नहीं रह गया। जिस प्रकार क्रमानुसार सब परिवारों के पश्चात् चक्रवती का क्रम आना कठिन है, उसी प्रकार मनुस्य-जन्म पाकर उसका सदुपयोग नहीं करनेवाले को जन्म जन्मान्तर तक पश्चाताप ही करना पड़ता है। पुनः मनुष्य जन्म की प्राप्ति सुलभ नहीं होती। संयोगवश, चक्रवती के चूल्हे का प्रसाद प्राप्त हो सकता है, उनके यहां भोजन की वारी भी आ सकती है लेकिन सांसारिक सुख प्राप्ति की लालसा में लिप्त मनुष्य को पुनः यह मानव-शरीर प्राप्त करना दुर्लभ ही रह जाता है। १-उत्तराध्ययन सत्र अ० गा०१की नैनिचन्द्रिय टीकाके आधार पर। Scanned by CamScanner Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क कथा ओर रहान्त : कथा-५ : पासा का दृष्टान्त ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर दूसरा दृष्टान्त ) [ इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४ ) के साथ है ] सौराष्ट्र देश के चाणिक्य गाँव में चणिक-चणेश्वरी ब्राह्मण - दम्पत्ति रहती थी । उनके घर दन्तयुक्त पुत्रोत्पत्ति हुईं जिसे अपशकुन मानकर उन्होंने नवजात शिशु के दाँतों को पिस दिया। ऋषियों से जब उन्होंने बच्चे का भाग्यफल जानने की जिज्ञासा की तो पता चला कि अगर उसके दाँत न घिसे जाते तो यह राजा होता किन्तु अब वह वितरित राजा होगा। इस बच्चे का नाम चाणक्य रखा गया और यौवनावस्था प्राप्त होने पर माता-पिताने इसका विवाह उत्तम कुल में कर दिया। एक दिन चाणक्य की पत्नी अपने भाई के विवाह में सम्मिलित होने के निमित्त पीहर गई । वहाँ महिलाओं ने निर्धनता के कारण उसका अनादर किया एवं उसकी मान-मर्यादा की घनियाँ उड़ा दी। यह शीघ्र ही अपने घर लौट आई। उसके महान मुखमंडल को देखकर उसके पति चाणक्य ने उदासी का कारण बताने पर जोर दिया। जब चाणक्य को यह विदित हुआ कि उसकी निर्धनता के कारण उसकी पत्नी का अपमान हुआ, तो उसने प्रचुर धनोपार्जन का संकल्प किया। इसी क्रम में वह राजा नन्द के दरबार में पहुंचा। नन्द की दासियों ने यहां उसका घोर अपमान किया। अपमान के प्रतिशोध की अग्नि निर्धन ब्राह्मण के शरीर में प्रज्वलित हो उठी और उसने नन्दवंश को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा की। पृथ्वी का पर्यटन करते हुए चाणक्य मयूरपोपकों के गांव में पहुँचा। वहाँ एक मयूरपोषक की पत्नी को चन्द्र को पी लेने का दोहखा हुआ । चाणक्य ने येन केन प्रकारेण उसका दोहला तो पूर्ण करा दिया, लेकिन यह वचन ले लिया कि उसे जो पुत्र पैदा होगा उसे वह चाणक्य के हवाले कर देगी। इसी शिशु का नाम चन्द्रगुप्त रखा गया। होनहार बिरवान के होत चिकने पात। चन्द्रगुप्त बचपन से ही पराक्रमशील निकला। इधर चाणक्य ने भी तपस्या द्वारा स्वर्णसिद्धि प्राप्त की। लौट कर आने पर चाणक्य ने देखा कि चन्द्रगुप्त में चक्रवर्त्ती के समस्त लक्षण विद्यमान है। उसने चन्द्रगुप्त को साथ लेकर नन्द राजा पर चढ़ाई कर दी। लेकिन प्रथम बार उसे मुंहकी खानी पड़ी। चाणक्य अपने धुन और प्रतिज्ञा का पक्का था । उसने हिमवंत पर्वत के राजा पर्वतक से प्रीति की और उसकी सहायता चन्द्रगुप्त को दिलाकर नन्दराजा पर पुनः आक्रमण करवा दिया। इस बार राजा नन्द की सेना के पाँव उखड़ गए और राजमहल पर चन्द्रगुप्त का विजयकेतु उहराने लगा। चाणक्य चन्द्रगुप्त का प्रधान मंत्री बना। प्रजावत्सल चन्द्रगुप्त ने प्रजा के अनुरोध पर समस्त करों को माफ कर दिया। अब समस्या यह उत्पन्न हुई कि राजकोष की पूर्ति किस प्रकार हो। चाणक्य ने अपने इष्टदेव की आराधना के द्वारा इस समस्या का समाधान ढूंढ निकाला देव कृपा से उसे दो पाशे प्राप्त हुए। उसने समस्त व्यापारियों को आमंत्रित किया और राजकोष से बहुमूल्य रत्न निकाल कर दावपर लगाने लगा। परिणाम यह निकला कि धनी व्यापारियों के धन राजकोष में आ गये । चाणक्य के पाशे पर विजय प्राप्त करना यद्यपि कठिन है लेकिन, संयोगवश संभव है कि कोई व्यक्ति विजय भी मत कर ले, और खोया हुआ धन जुआरी व्यापारियों को वापस भी मिल जाये किन्तु एक बार हाथ से निकला हुआ मनुष्य जन्म पुनः प्राप्त करना दुर्लभ ही है । प्राप्त १राध्ययन सूत्र ०३ गा० १ की मैमिचन्द्रिय टीका के आधार पर २० Scanned by CamScanner Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ कथा – ६ : प्र , भरतक्षेत्र में जितने प्रकार के धान्य होते हैं, उन सर्व प्रकार के सर्व धान्यों को सम्मिनित कर उसमें एक सेर सरसों के दाने मिलाकर एक बार किसी देव ने एक शतवर्षीया वृद्धा से जिसका शरीर जर्जर नेत्रों की ज्योति मंद एवं क्रियाशक्ति विनष्ट हो चुकी थी, कहा - "हे वृद्धा ! इस समस्त प्रकार के धान्यों को चुन चुनकर क्रमानुसार बिलग कर दो और उनमें एक सेर सरसों के जो दाने डाले गये हैं, उन्हें एकत्रित कर लो ।” एक तो शतवर्षीया वृद्धा, फिर शरीर कार्य करने में सर्वथा असमर्थ, आंखों में रोशनी नहीं, हाथ-पांव शिथिल और कंपित, और भरत क्षेत्र के सब प्रकार के सर्व धान्यों का ढिग, उसके धान्यों को अलग करना, और उसमें से सरसों के दानों को अलग करना । यह उस वृद्धा के लिये असम्भव है। फिर भी कदाचित उस वृद्धा को सफलता भी मिल सकती है लेकिन एक बार खो देने के बाद पुनः मनुष्य जन्म की प्राप्ति अत्यंत दुर्लभ है । कथा-७ : धान्य का दृष्टान्त ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर तीसरा दृष्टान्त ) [ इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४ ) के साथ है ] 2 जुए का दृष्टान्त ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर चौथा दृष्टान्त । [ इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४) के साथ है ] शील की नव वाड़ 18 19 बसन्तपुर के राजा जितशत्रु की राजसभा में १०८ स्तम्भ थे तथा प्रत्येक स्तम्भ के १०८ कोण राजकुमार पुरन्दर ने वृद्ध पिता को मारकर स्वतः गद्दी पर बैठने का सोचा। मन्त्री के द्वारा राजा को इस पड्यन्त्र का पता चल गया । उसने सोचा पिता-पुत्र दोनों जीवित रहें, ऐसी कोई योजना बनानी चाहिए। उसने राजकुमार को बुलाकर कहा- "हे पुत्र! वृद्धावस्था के कारण शासन-सूत्र मैं तुझे सौंपता हूं। लेकिन शासन की बागडोर थामने के पूर्व पारिवारिक परम्परानुसार तुम्हें मेरे साथ जुआ खेलना पड़ेगा। एक बार जीतने पर सभामंडप के एक स्तम्भ का एक कोण तुम्हारा होगा । इस प्रकार १०८ बार जीतने पर एक स्तंभ तुम्हारा और १०८ स्तंभ जीतने पर यह सम्पूर्ण राज्य तुम्हारा होगा। शर्त यह होगी कि अगर बीच में तू एक बार भी हार गया तो पूर्व के जीते हुए संभे भी हारे हुए समझे जायेंगे ।" राज पाने के लोभ में पड़कर इतनी कड़ी शर्त को भी कुमार ने स्वीकार कर लिया। परन्तु, कई दिनों तक खेलने के बाद भी कुमार एक कोण भी नहीं जीत सका । प्रश्न यह है कि क्या इस प्रकार के जुए में राजकुमार जीत सकता था ? कदापि नहीं। कदाचित् दैवयोग से यदि उसे जयश्री मिल भी जाये लेकिन एकबार खोने के बाद यह मनुष्य जन्म पाना अत्यंत दुर्लभ है । १ - उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३ गा० १ की नेमिचन्द्रिय टीका के आधार पर । २- उत्तराध्ययन सू० अ० ३ गा० १ की नैमिचन्द्रिय टीका के आधार पर । Scanned by CamScanner Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त रन का दृष्टान्त ' (मनुष्य भव को दुर्लमता पर पांचवां दृष्टान्त) [इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ७ (पृ०४) के साथ है] किसी नगर में एक महान् धनवान एवं समृद्धिशाली रत्न-पारखी वणिक था। बहुमूल्य रत्नों का संग्रह करना उसका प्रधान कार्य था। वह संग्रहीत रत्नों को कभी बेचता नहीं था। उसके पांच गुणवान पुत्र थे। पुत्रों की इच्छा थी कि दुगने तीगुने मूल्य पर इन रत्नों को बेचकर अपार धनराशि प्राप्त की जाये। किन्तु, अपने पिता के आगे इनकी एक नचलती थी। एक बार संयोगवश वह वृद्ध नगर से कहीं बाहर चला गया। उसके पुत्र तो ऐसे अवसर की बाट जोह ही रहे थे। उन्होंने अपने पिता द्वारा अर्जित सभी रत्नों को दूर देश से आए व्यापारियों को ऊँचे मूल्य पर बेचकर काफी धन प्राप्त कर लिया। वृद्ध वणिक जब लौटा तो रत्न नहीं पाकर बड़ा ही क्रुद्ध हुआ। उसने अपने पुत्रों को यह आज्ञा दी कि जिस प्रकार भी हो, वे उन रत्नों को वापस ले आएँ। पिता की आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए उसके पांच पुत्र रत्नों की तलाश में निकले। तबतक वे सारे रत्न विभिन्न व्यापारियों द्वारा विभिन्न देशों के विभिन्न व्यक्तियों के हाथ बेचे जा चुके थे। रत्नों का पाना दुर्लभ हुआ। देव-संयोग से वे खोये रत्न मिल भी जायें, लेकिन, खोया हुआ मनुष्य जन्म पाना दुर्लम ही है। कथा-१. स्वम का दृष्टान्त ' (मनुष्य भव की दुर्लभता पर छठा दृष्यन्त) __[इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४ ) के साथ है ] द्यूत-व्यसन के कारण पाटलिपुत्र से निष्कासित राजकुमार मंगलदेव घूमते घूमते उज्जयिनी नगरी में पहुंचा। कुशल वीणा-वादन एवं मधुर-संगीत से उसने उज्जयिनी के नागरिकों को मुग्ध कर लिया। उसी नगरी में रूप-लावण्यगविता देवदत्ता वेश्या रहती थी। पारस्परिक कला के आकर्षण से दोनों में आसक्ति हो गई। मंगलदेव देवदत्ता के यहाँ ही रहने लगा। लेकिन देवदत्ता की मां ने मंगलदेव को निर्धन समझ उसे घर से निकाल दिया। फिर भटकता हुआ, कई दिनों का उपवास प्रतधारी मंगलदेव अटवी पारकर एक गांव में पहुंचा। वहाँ भिक्षा में उसे उड़द के बाकले मिले। उन वाकलों को स्वयं न ग्रहण कर उसने तालाब के किनारे ध्यान लगानेवाले साधु को पारणा के निमित्त दे दिया। मंगलदेव के इस कार्य से पास की देवी बहुत ही प्रसन्न हुई और उन्होंने उसे वरदान मांगने को कहा। मंगलदेव ने कहा"मुझे देवदत्ता गणिका सहित सहस्र हस्तियुक्त राज्य प्राप्त हो।" देवी से प्रत्युत्तर मिला "ऐसा ही होगा।" रात्रिकाल में मंगलदेव उस तपस्वी की कुटिया में ही सो गया। कुटिया में तपस्वी का शिष्य भी शयन कर रहा था। मंगलदेव एवं ऋषि-शिष्य होनों ने स्वप्न में चन्द्रमा को अपने मुंह में प्रवेश करते देखा । तपस्वी के समक्ष जाकर शिष्यने. स्वप्नफल जानने की जिज्ञासा की। तपस्वी ने कहा-"आज तुम्हें भिक्षा में घी और शक्कर का रोट मिलेगा।" शिष्य का जब स्वप्नफल सत्य हुआ, वह बड़ा ही प्रसन्न हुआ। उधर मंगलदेव एक स्वप्न-विशेषज्ञ के पास गया जिसने उसे बताया कि एक सप्ताह में उसे एक बहुत बड़ा राज्य मिलेगा। सात दिन नगर का संतानविहीन राजा कालधर्म को प्राप्त उत्तराध्ययन सूत्र अ०३ गा०१को नेमिचन्द्रिय टीका के आधार पर । उत्तराध्ययन सूत्र अ०३ गा०१को नमिचन्द्रिय टीका के आधार पर । Scanned by CamScanner Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाद हुआ यहाँ के नगरवासियों ने मंगलदेव को अपना राजा बनाया देवदत्ता पटरानी के रूप में राजमहल में आई। इस प्रकार मंगलदेव का स्वप्न सत्य निकला। ८० तपस्वी के शिष्य को जब मंगलदेव के राजा होने का समाचार ज्ञात हुआ, उसने नियमित रूप से कुटिया में शयन कर पुनः उस स्वप्न की प्राप्ति की अभिलाषा की, लेकिन उसे पुनः वह स्वप्न नहीं दीखा । स्यात् ऋषि -शिष्य को स्वप्न दर्शन हो भी जाए, लेकिन खोये मनुष्य जीवन को पुनः पाना दुर्लभ है। कथा - १०: A राधावेध का दृष्टान्त ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर सातव दृप्यन्त ) [ इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ ( पृ० ४) के साथ है ] इसके बावजूद राजा ने अपने प्रधान की पुत्री पर मोहित हो, उससे भी प्रेम-संबंध अस्थिर रहा। प्रधान की पुत्री पिता के पास रहने लगी। कुछ दिनों के झरोखे पर खड़ी एक सुन्दरी पर उसकी दृष्टि पड़ी। जिज्ञासा करने पर उसे ज्ञात उसीकी परित्यक्ता सनी थी । सजा काम भावना को संवरण नहीं कर सका और ठहर गया । शुभमुहूर्त में दोनों के सहवास से पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम इन्द्रपुर के राजा इन्द्रदेव के २२ पुत्र थे। विवाह कर लिया। लेकिन दोनों का बाद राजा जब बाहर जा रहा था, हुआ कि सुन्दरी अन्य कोई नहीं बल्कि उस रात्रि को अपने प्रधान के वहाँ ही सुरेन्द्रदत रखा गया । २२ राजपुत्रों के साथ ही सुरेन्द्रदत्त ने भी एक ही आचार्य के यहाँ शिक्षा प्राप्त की । उस समय मथुरा नगरी के राजा जितशत्रु की कन्या निवृत्ति का स्वयंवर होनेवाला था। अपने २२ पुत्र सहित स्वयंवर में उपस्थित होने का आमंत्रण राजा इन्द्रदेव को भी भेजा गया । निवृत्ति कुमारी ने यह प्रतिज्ञा की थी कि जो व्यक्ति राधावेध वेध सकेगा, उसीको वह वरण करेगी। राजा इन्द्रदेव अपने २२ पुत्रों के साथ स्वयंवर भवन में पधारे। प्रधान भी अपने दुहिते के साथ वहाँ उपस्थित था। एक एक कर २२ राजपुत्रों को राधावेध साधने का अवसर दिया गया लेकिन सबके सब असमर्थ रहे। पुत्रों की अकर्मण्यता से इन्द्रदेव को घोर ओभ हुआ। राजा को खिन्न देखकर प्रधान ने उनसे कहा- अभी आपका २३ वां पुत्र बाकी है, उसे मौका दीजिए।" ऐसा कहकर प्रधान ने सुरेन्द्रदत्त के जन्म का पूर्ण वृतान्त इन्द्रदेव को बताया। राजा के प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। उसने २३ वें पुत्र को राधावेध साधने की आज्ञा दी। पिता, गुरु एवं अग्रजों का स्मरण कर उसने राधावेध साधने में सफलता प्राप्त की । जितशत्रु की पुत्री निवृत्ति कुमारी के साथ ही उसे मथुरा नगरी का राज्य भी प्राप्त हुआ। 1 । राजा के २२ पुत्र राधावेध करने में असफल रहे कदाचित देव प्रयोग से उन्हें सफलता मिल भी जाती; लेकिन जो मनुष्य एकवार कर्मच्युत हो मनुष्य नव को हार जाता है, उसे यह जीवन पुनः प्राप्त करना दुर्लभ ही है। १-- उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३ गा० १ की नैमिचन्द्रिय टीका के आधार पर। Scanned by CamScanner Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त 18) के साथ है] कथा-११ कच्छप का दृष्टान्त ' (मनुष्य भव की दुर्लभता पर आठवाँ दृष्टान्त) [इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ७ (पृ०४) के साथ है] ___एक हजार योजन प्रमाणवाले एक तालाब में एक बहुत बड़ा कच्छप अपने परिवार सहित रहता था। तालाब के जलपर सेवाल आच्छादित थे। एक रात्रि को एक फल तालाब में गिरा जिससे सेवाल में छिद्र हो गया। गगनमंडल में चन्द्रमा अपनी समस्त कलाओं से प्रकाशमान थे। नक्षत्र सहित चन्द्र को देखकर कच्छप को महान् विस्मय हुआ। उसने अपने परिवार के सदस्यों को भी चन्द्रदर्शन कराना चाहा, इसलिए जल के अन्दर उन्हें बुलाने गया। जबतक वह कटम्बियों को लेकर ऊपर लौटा तबतक हवा के झोंके से पानी पर फिर सेवाल छा गए। कच्छप को पुनः चन्द्रदर्शन नहीं हुए और कुटुम्ब सहित निराश होना पड़ा। जिस प्रकार उस कच्छप के लिए पुनः चन्द्रदर्शन दुर्लभ हुआ उसी प्रकार मानव देहधारी प्राणियों को दुबारा मनुष्य जन्म पाना भी दुर्लभ है। युग का दृष्टान्त र ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर नवा दृष्टान्त) [इसका सम्बन्ध ढाल १ दोहा ७ (पृ०४ ) के साथ है ] ___ यदि विश्व के सबसे बड़े समुद्र के पूर्व भाग में कोई देवता धूसरा डालें और पश्चिमी छोर पर उसी समुद्र में सामेला डालें तो उस धूसरे के छिद्र में सामेले का प्रवेश मुश्किल है। कदाचित् संयोगवश उनका सम्बन्ध मिल भी जाये माया हुआ मनुष्य-जावन मिलना अत्तन्त दुलमा ...... .............. जिन परमाणु का दृष्टान्तीय nagi ( मनुष्य भव की दुर्लभता पर दसवा दृष्टान्त) - [इसका सम्बन्ध दाल १ दोहा ७ (पृ० ४) के साथ है] ___एक बार एक देवता ने पत्थर की एक दीवार को अपने वज्र के प्रहार से चूरचूर कर दिया और फिर भस्म सम चूर्ण को एक पर्वत शिखर के ऊपर चढ़कर हवा में उड़ा दिया। यदि किसी व्यक्ति को इन परमाणुओं को फिर से एकत्र करने का कार्य दिया जाय तो यह करना असंभव है। इसी प्रकार एक बार मनुष्य जीवन पाकर खोदेने के बाद इसे फिर से पाना अत्यंत ही दुर्लभ है। उत्तराध्ययन सूत्र अ०३ गा०१की नेमिचन्द्रिय टीका के आधार पर। उत्तराध्ययन सूत्र अ०३ गा०१की नेमिचन्द्रिय टीका के आधार पर । उत्तराध्ययन सत्र अ०३ गा०१ की नेमीचन्द्रिय टीका के आधार पर। Scanned by CamScanner Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा – १४ : सिंह गुफावासी यति [ इसका संबंध ढाल २ गाथा ७ ( पृ० १३ ) के साथ है ] उसकी भाव का नाम लाइन देवी था। इससे पाटलिपुत्र नगर में नन्द राजा का प्रधान मंत्री शकढाल था। बड़े का नाम स्थूलभद्र था और छोटे का नाम श्रीवक उसको दो पुत्र हुए। श्रीयक नंद राजा के यहाँ अंगरक्षक के रूप में काम करता था। वह राजा का अत्यन्त विश्वासपात्र था। स्थूलभद्र बड़ा बुद्धिशाली था किन्तु वह कोशा नामकी एक गणिका के प्रेम में फँस गया । यहाँ तक कि अपने घर को छोड़कर वह उस गणिका के घर में ही रहने लगा । इस प्रकार प्रायः बारह वर्ष निकल गये स्थूलभद्र ने गणिका के सहवास में प्रचुर धन खोया । घटनावश राजा के कोप के कारण शकडाल-मंत्री मार डाला गया। । भद्र को राजा नंद ने मंत्री पद ग्रहण के लिए स्थूल'बुला भेजा। जब उसने आकर देखा कि उसका पिता, मंत्री शकडाल मारा गया तो वह बड़ा खिन्न हुआ। वह सोचने लगा – “मैं कितना अभागा हूँ कि वेश्या के मोह के कारण मुझे पिता की मृत्यु की घटना तक का पता नहीं चला ! उनकी सेवा सुश्रूषा करना तो दूर रहा, अंतिम समय में में उनके दर्शन तक नहीं कर सका। धिक्कार है मेरे जीवन को ।" इस प्रकार शोक करते-करते स्थूलभद्र का हृदय संसार से उदासीन हो गया। मंत्री पद स्वीकार न कर, वह संभूति विजय नामक आचार्य के पास गया और मुनित्व धारण कर लिया। जब यह खबर कोशा गणिका के पास पहुंची, उसका हृदय दुःख से भग्न हो गया। अब उसके लिए धीरज के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था। एक बार वर्षा काल के समीप आनेपर शिष्य आचार्य संभूति के पास आकर चातुर्मास की आज्ञा मांगने लगे। उस समय एक मुनि ने सिंह की गुफा के द्वारपर उपवास करते हुए चौमासा बिताने का निश्चय किया। दूसरे मुनि ने दृष्टिविष सर्प के बिल के पास चौमासा करने का निश्चय किया। तीसरे मुनि ने कुएँ की एरण पर कायोत्सर्ग-ध्यान में चातुर्मास व्यतीत करने का निश्चय किया। जब मुनि स्थूलिभद्र के आज्ञा लेने का अवसर आया तो उन्होंने नाना कामोद्दीपक चित्रों से चित्रित, अपनी पूर्व परिचिता सुन्दरी नायिका कोशा गणिका की चित्रशाला में परसयुक्त भोजन करते हुए चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। आचार्य ने आज्ञा प्रदान की, सब साधुओं ने अपने-अपने चातुर्मास के स्थान की ओर बिहार किया। मुनि स्थूलिभद्र कोशा गणिका के घर पहुँचे । स्थूलिभद्र के प्रति कोशा गणिका का आंतरिक प्रेम था । इसलिए दीर्घ काल बीत जाने पर भी वह उन्हें न भूला सकी थी। उनके वियोग में वह जर्जरित हो गई थी । चिरकाल के बाद उनको वापस उपस्थित हुए देखकर उसका रोम रोम हर्षित हो रहा था। मुनि स्थूलभद्र कोशा की आज्ञा लेकर उसकी चित्रशाला में चातुर्मास के लिए ठहरे । यद्यपि उस समय स्थूलभद्र मुनि-वेष में थे, फिर भी गणिका को बड़ी आशा बँधी । उसने सोचा- “मेरे यहाँ चातुर्मास करने का और क्या अभिप्राय हो सकता है ? इसका कारण उनके हृदय में मेरे प्रति रहा हुआ सूक्ष्म मोह भाव ही है।" यह सोचकर वह मुनि को पूर्व-क्रीड़ाओं का स्मरण कराने लगी । वह नाना प्रकार के शृङ्गार कर तथा उत्तम से उत्तम वस्त्राभूषण पहनकर उनको अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी । परन्तु गणिका की नाना प्रकार की चेष्टा से भी मनि स्थूलभद्र किंचित् भी विचलित नहीं हुए। वे सदा धर्म - ध्यान में लीन रहते । १ - उत्तराध्ययन सूत्र अ० २ गा० १७ श्री नेमिचन्द्रीय टीका के आधार पर । Scanned by CamScanner Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त ८३ इधर कोशा उन्हें विचलित करना चाहती थी और उधर मनिवर स्थलिभद उसे प्रतिबोधित करना चाहते थे। जब-जब वह उनके पास जाती, वे उसे विविध उपदेश देते : ___ "विषय-सुख चाहे कितने ही दीर्घ समय तक के लिए भोगने को मिल जाय, आखिर एक न एक दिन उनका अन्त अवश्य होता है। ऐसे नाशवान विषयों को मनुष्य खुद क्यों नहीं छोडता विषय जब अपने आप छूटते हैं, तो मनको अत्यन्त परिताप होता है, परन्तु यदि उनको स्वयं ही प्रसन्नता पूर्वक त्याग दिया जाता है, तो मोक्ष-सुख की प्राप्ति राजENTERSTINATAP होती है। ___.."धर्म-कार्य से बढ़कर कोई दूसरा श्रेष्ठ कार्य नहीं है। प्राणी-हिंसा से बढकर कोई दूसरा जघन्य कार्य नहीं प्रेम, राग, मोह से बढ़कर कोई बन्धन नहीं और बोधि (सम्यक्त्व )-लाभ से विशेष कोई लाभ नहीं है।" मुनि स्थूलिभद्र के उपदेश से कोशा को अन्तर प्रकाश मिला। उनकी अद्भुत जितेन्द्रियता को देखकर उसका हृदय पवित्र भावनाओं से भर गया। अपने भोगासक्त जीवन के प्रति उसे बड़ी घृणा हुई। वह महान् अनुताप करने लगी। उसने मुनि से विनयपूर्वक क्षमा मांगी तथा सम्यक्त्व और बारह व्रत अंगीकार कर वह श्राविका हुई। उसने नियम किया-"राजा के हुक्म से आये हुए पुरुप के सिवाय मैं अन्य किसी पुरुष से शरीर-सम्बन्ध नहीं करूँगी। इस प्रकार व्रत और प्रत्याख्यान कर कोशा गणिका उत्तम श्राविका जीवन बिताने लगी। चातुर्मास समाप्त होनेपर मुनिवर स्थूलिभद्र ने वहां से विहार किया। समय पाकर राजा ने कोशा के पास एक रथिक को भेजा। वह बाण-संधान विद्या में बड़ा निपुण था। अपनी कुशलता दिखलाने के लिए उसने झरोखे में बैठेबैठे ही बाण चलाने शुरू किये और उनका एक ऐसा तांता लगा दिया कि उनके सहारे से उसने दूर के आम्र वृक्ष की फल सहित डालियों को तोड़-तोड़ कर उसे कोशा के घर तक खींच लिया। इधर कोशा ने भी अपनी कला दिखलाने के लिए आंगन में सरसों का ढेर करवाया, उस पर एक सुई टिकाई और एक पुष्प रखकर नयनाभिराम नृत्य करना शुरू किया। नृत्य को देखकर रथिक चकित हो गया। उसने प्रशंसा करते हुए कोशा से कहा-"तुमने बड़ा अनोखा काम किया है"। ___ यह सुनकर कोशा बोली-"न तो बाण-विद्या से दूर बैठे आम की लूंब तोड़ लाना ही कोई अनोखा काम है और न सरसों के ढेर पर सुई रखकर और उस पर फूल रखकर नाचना ही। वास्तव में अनोखा काम तो वह है जो महा श्रमण स्थूलिभद्र मुनि ने किया। ____ "वे प्रमदा-रूपी बन में निशंक बिहार करते रहे, फिर भी मोह प्राप्त होकर भटके नहीं। "अग्नि में प्रवेश करने पर भी जिन्हें आंच नहीं लगी; खड़ग की धार पर चलने पर भी जो छिद नहीं गए, काले नाग के बिल के पास बास करने पर भी जो काटे नहीं गए और काल के घर में वास करने पर भी जिन्हें दाग नहीं लगा, ऐसे असिधारा व्रत को निभाने वाले, नर-पुंगव स्थूलिभद्र तो एक ही हैं। धन्य है उन्हें ।” “भोग के सभी अनुकूल साधन उन्हें प्राप्त थे। पूर्व परिचित वेश्या और वह भी अनुकूल चलनेवाली, षट्स युक्त भोजन, सुन्दर महल, युवावस्था, सुन्दर शरीर और वर्षा ऋतुइनक या सीर और वर्षा ऋतु इनके योग होने पर भी जिन्होंने असीम मनोबल का परिचय देते हुए काम-राग को पूर्ण रूप से जीता और भोग रूपी कीचड़ में फंसी हुई मुझ जैसी गणिका को अपने उच्चादर्श और उपदेश के प्रभाव से प्रति बोधित किया। उन कुशल महान आत्मा स्थूलिभद्र मुनि को में नमस्कार करती हूँ।..... __कामदेव । तू ने नंदीषेण, रथनेमि और आद्रकुमार मुनीश्वर की तरह ही स्थूलिभद्र मुनि को समझा होगा और सोचा होगा कि ये भी उनके ही साथी होंगे, परन्तु तू ने यह नहीं जाना कि ये मुनीश्वर तो रणांगन में तुम्हें परास्त कर नामनाथ, जम्बु मुनि और सदर्शन सेठ की श्रेणी में आसीन होंगे। Scanned by CamScanner Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ "हम तो भगवान् नेमिनाथ से भी बढ़कर योद्धा मुनि स्थूलिभद्र को मानते हैं। भगवान् नेमिनाथ ने तो गिरनार दुर्ग का आश्रय लेकर मोह को जीता; परन्तु, इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखनेवाले स्थूलिभद्र मुनि ने तो साक्षात् मोह के घर में प्रवेश कर उसको जीता। - "पर्वत पर, गुफा में, वन में या इसी प्रकार अन्य किसी एकान्त स्थान में रहकर इन्द्रियों को वश में करने वाले हजारों हैं परन्तु अत्यन्त विलासपूर्ण भवन में, लावण्यवती युवती के समीप में रहकर, इन्द्रियों को वश में रखनेवाले तो शकडाल-नन्दन स्थूलिभद्र एक ही हुए।" इस प्रकार स्तुति कर कोशा ने स्थूलिभद्र मुनि की सारी कथा रथिक को सुनायी। स्तुति-वचनों से रथिक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ और स्थूलिभद्र के पास जा उसने मुनित्व धारण किया । वर्षा-ऋतु समाप्त होने पर चातुर्मास के लिए गये हुए साधु वापस लौटे। आचार्य संभूति ने प्रत्येक शिष्य का यथोचित शब्दों में अभिवादन किया और कठिन काम पूरा कर आने के लिए बधाई दी। बाद में स्थूलिभद्र भी आये। जब उन्होंने प्रवेश किया तो आचार्य उनके स्वागत के लिए खड़े हो गये और “कठिन से कठिन करनी-कार्य करनेवाले तथा 'महात्मा' आदि अत्यन्त प्रशंसासूचक सम्बोधनों से उनका अभिवादन किया। यह देखकर सिंह गुफावासी मुनि के चित्त में ईर्ष्या का संचार हुआ। वह विचारने लगा-'वेश्या के यहाँ षट् रस खाकर रहना इतना क्या कठिन है कि स्थूलिभद्र का ऐसा अनन्य सन्मान ?" - देखते-देखते दूसरा चातुर्मास आगया। जिस साधु ने गत चातुर्मास के अवसर पर सिंह की गुफा के सामने तपस्या करने का नियम लिया था, उसने कोशा के यहां चातुर्मास करने की इच्छा प्रगट की। आचार्य वास्तविक कठिनाई को समझते थे, इसलिए उन्होंने अपनी ओर से अनुमति नहीं दी। परन्तु, शिष्य के अत्यन्त आग्रह को देखकर, शेष तक सुफल की आशा से, बाधा भी न दी। मुनि विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए पाटलिपुत्र नगर में पहुंचे एवं कोशा से यथा नियम आज्ञा प्राप्त कर उसकी चित्रशाला में ठहरें। मुनि अपने को सम्पूर्ण जितेन्द्रिय समझता था। अपने मनोबल पर उसे आवश्यकता से अधिक भरोसा था। वह अपने को अजेय समझता था। परन्तु कोशा के स्वाभाविक शरीर-सौंदर्य को देखकर वह पहली ही रात्रि में विषयविह्वल हो गया और कोशा से विषय-भोग की प्रार्थना करने लगा। प्रतिबोध प्राप्त श्राविका ने क्षण भर में ही अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उसने कहा-“यदि मुझे नेपाल के राजा के यहां से रत्न-कम्बल लाकर दे सकें, तो मैं आपको अवश्य अंगीकार कर सकती हूँ।" विषय वासना में साधु अत्यन्त आसक्त हो रहा था। उसे चातुर्मास तक का ध्यान न रहा। वह उसी समय विहार कर अनेक कठिनाइयों को झेलता हुआ नेपाल पहुंचा और बहुत कष्ट से रत्न-कम्बल प्राप्त कर कोशा के पास लौटा। मुनि ने बड़ी व्यग्रता और प्रेम के साथ कम्बल कोशा को भेंट की। कोशा ने बड़े प्रेम और हर्ष के साथ उसे ग्रहण किया। मुनि के हिम्मत की बड़ी प्रशंसा की और रत्न कम्बल को बहुत सराहनीय बताया। ऐसा करने के बाद कोशा ने मुनि को देखते-देखते ही उस कम्बल से अपने पैर पोंछकर उसी समय उसे गन्दे नाले में फेंक दिया। - यह सब देखकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला-इतनी मिहनत से प्राप्त कर लाई हुई इस बहुमूल्य रन कम्बल से पैर पोंछकर नाले में फेंकते हुए क्या तुम्हें जरा भी विचार नहीं.आया:?" Sam Scanned by CamScanner Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त ck - हुआ, परन्तु आप तो अनुपम चारित्र रत्न को है? आप जितनी घड़ी गलती करने जा रहे हैं, कोशा ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया “हे मुनि! इस रन कम्बल को गंदे नाले में फेंक देने से आपको इतना कष्ट गँवाकर अपनी आत्मा को नरक में फेंक रहे हैं, क्या इसका भी आपको फिक्र उतनी तो मैंने नहीं की । " . येष्ठ व्रतमाचर्य व्रत का पालन करना पर्वत के भार को वहन करना है। उसे वहन करने में अत्यन्त उद्यमी मुनि भी युवती के संसर्ग से इक्ष्य और भाव दोनों प्रकार से यतित्व से भ्रष्ट हो जाते हैं।" " ..चाहे कोई कायोत्सर्गधारी हो, चाहे मौनी, पाहे कोई मुण्डित मस्तक वाला हो, चाहे कोई वल्कल के वस्त्र पहिनने वाला हो अथवा चाहे कोई अनेक प्रकार के तप करनेवाला हो - यदि वह मैथुन की प्रार्थना - कामना करनेवाला है, तो पाहे वह मझा ही क्यों न हो, वह मुझे प्रिय नहीं ।" जो अकुलीन के संसर्ग रूप आपदा में पढ़ने पर भी, और स्त्री के आमंत्रित करने पर भी अकार्य कुकृत्य की ओर नहीं बढ़ता, उसी का पढ़ना, गुनना, जानना और आत्मस्वरूप का चिन्तन करना प्रमाण समझना चाहिए ।"" "वही पुरुष धन्य है, वही पुरुष साधु है, यही पुरुष नमस्कार के योग्य है जो अकार्य से निवृत्त है और असिधार सटरा खड्ग की धार पर चलने जैसे कठिन व्रत चतुर्थ व्रत का स्थूलभद्र मुनि की तरह धीरता पूर्वक पालन करता है।"" कोशा की इन सारगर्भित बातों को सुनकर मुनि की आंखें खुली। तुमुल अंधकार में आलोक हुआ। कोशा के प्रति मुनि का हृदय कृतज्ञता से भर आया । वह बोला :- "कोशा तू धन्य है । तूने मुझे भव- कूप से बचा लिया। अब मैं पाप से आत्मा को हटाता हूँ तुमसे में क्षमा चाहता हूँ ।". । " कोशा बोली - " मुनि! मैंने आपको संयम में स्थिर करने के लिए ही यह सब किया है। मैं आविका हूँ । दे मुनि ! अब आचार्य के पास शीघ्र जाकर अपने दुष्कृत्य का प्रायश्चित्त अंगीकार करें और भविष्य में गुणवा ईर्ष्या भाव न रखें।" कह PHP 156 SUPRA मुनि आचार्य के पास लौटे। अवज्ञा के लिए क्षमा याचना की। अपने दुष्कृत्य को निन्दा करते हुए प्रायश्चित लेकर शुद्ध हुए। 114 to wrap क कोशा गणिका होकर भी उत्तम प्राविका निकली। वह ब्रह्मचर्य व्रत में हड़ रही और उसके बल से चलचित्त मुनि को भी उसने फिर से संयम में दृढ़ कर दिया। २२ Scanned by CamScanner Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा। कथा-१५: ingtone _कुलबालुडा' [इसका सम्वन्ध ढाल २ गाथा ८ (पृष्ठ १३ ) के साथ है ] ... आचार्य के समस्त गुणों से युक्त एक आचार्य थे। उनके अनेक शिष्य थे जिनमें एक अविनीत शिष्य भी था। वह सदैव आचार्य के दोषों की ही खोज किया करता था । आचार्य उसके आत्म-सुधार के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते और अन्य शिष्यों के साथ-साथ उसे भी ज्ञानाभ्यास करवाते थे। एक समय आचार्य शिष्य-परिवार के साथ विहार कर रहे थे। बीच में पर्वत को पार करने के समय कुछ शिष्य पीछे रह गये और कुछ आगे बढ़ गये। आचार्य केवल अकेले ही पर्वत से नीचे उतर रहे थे। पीछे अविनीत शिष्य आ रहा था। उसने आचार्य को पर्वत से नीचे उतरते हुए देखा। आचार्य को अकेला जानकर उसने उनकी हत्या करने का विचार कर लिया। इस विचार से उसने एक बड़ा पत्थर पहाड़ पर से नीचे लुढ़काया। पत्थर की गड़गड़ाहट सुनकर आचार्य ने पीछे मुड़कर देखा तो मालूम हआ कि कुपात्र शिष्य ने उनकी हत्या के लिए पत्थर लुढ़काया था। उसी समय उन्होंने अपने दोनों पांव फैला दिये। पत्थर दोनों पांव के बीच से निकल गया। आचार्य के प्राण बच गए। शीघ्रता से चलकर वे अपने शिष्यसमूह में मिल गये। उन्होंने सारी बात शिष्यों से कही। यह बात सुनकर सभी अविनीत शिष्य का तिरस्कार करने लगे, किन्तु उसने तो आचार्य को ही दोषी बताया और अपना सारा अपराध उन्हीं के सिर पर डाल दिया। .. आचार्य बहुत समताधारी थे, फिर भी "उलटा चोर कोतवाल को डॉटे" की कहावत को चरितार्थ होते देखकर उन्हें उसके व्यवहार पर क्रोध आया। उन्होंने उसे श्राप दिया “जा तेरा पतन एक स्त्री से होगा और तू अनन्त संसारी बनेगा।" ऐसा सुनकर शिष्य उलटा आचार्य की मखौल करने लगा। अन्य शिष्यों ने उस कुपात्र शिष्य की अधिक उइंडता पूर्ण हरकतें देखी तो उसे संघ से निकाल दिया। वहां से निकल कर वह वेणी नदी के तट पर तापस के आश्रम में रहने लगा। वह कठोर तप करने लगा। आनेजाने वाले पथिकों से शुद्ध आहार-पानी ग्रहण कर संयम का पालन करने लगा। वर्षाकाल आया। एक दिन इतनी अधिक वर्षा हुई कि नदी में जोरों की बाढ़ आ गई। इससे गाँव और आश्रम को खतरा पहुँचने लगा किन्तु उस तपस्वी की तपसाधना से पानी का प्रवाह आश्रम को बचाते दूसरी तरफ बह निकला। आश्रम खतरे से बच गया और समस्त आश्रम वासी निर्भय हो गये। लोगों ने जब यह चमत्कार देखा तो उस तपस्वी से बहुत प्रभावित हुए और उस तपस्वी का नाम 'कुलबालुडा'-नदी के प्रवाह को बदलनेवाला रखा। सब लोग उसको कुलबालुडा ही कहने लगे। उस समय राजगृही नगर में महाराजा श्रेणिक ने अपने पुत्र हल विहल कुमार को सिंचानक हस्ती व बंकचूडामणि नाम का अठारहसरा हार दिया। कोणिक कुमार ने अपने पिता की हत्या कर राज्य के ग्यारह हिस्से कर ग्यारह भाइयों में बांट दिये और स्वयं एक हिस्से पर राज्य करने लगा था। पिता की हत्या से उसको बहुत पश्चाताप हुआ। उसने . राजगृही को छोड़कर चंपा नगरी को अपनी राजधानी बना ली। एक समय रानी पद्मावती ने सिंचानक गंध हस्ती के साथ हल-विहल कुमार को आनन्द करते हुए देखा। उसके दिल में हार हाथी को प्राप्त करने की इच्छा हुई। उसने अपने पति कोणिक से यह बात कही। कोणिक ने रानी को १-उत्तराध्ययन सूत्र अ०१ गा०३ की श्री नेमिचन्द्रिय टोका एवं 'उत्तराध्ययन सूत्र की चौरासी कथा' के आधार पर। Scanned by CamScanner Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिक कथा और 10 बहुत समझाया और कहा - "पिताजी ने स्वयं अपने हाथ से हार और हाथी को दे दिया तब से उसे मांगने का क्या अधिकार है ?" स्त्री का हल जयस्त होता है। उसने राजा की अपने आग्रह पर हट्ट रही । अन्त में कोणिक की रानी की बात माननी पड़ी। राजा ने एक नहीं सुनी। कुमार को पहला भेजा "हार और हावी ती राज्य की सीमा है, ही रहेंगे। उन्हें राज्य के कप में हाजिर किया जाये।" उत्तर में उ-विल कुमार ने कहा- अगर हिस्सा मिल जाय तो हम हार और हाथी को देने के लिए तैयार है, अन्यथा नहीं ।" कोणिक ने कहा हुई जितना हिस्सा भी नहीं मिलेगा और तुमकी हार और हाथी देना पड़ेगा।" हल-विहल कुमार ने देखा कि यहाँ रहने से न हारहाथी ही रहेगा और न राज्य का ही हिस्सा मिलेगा। ऐसा सोचकर दोनों ही अपने नाना चेटक राजा के पास चले गये । के साथ बेट जब राजा कीणिक की यह माइम हुआ तो उसने राजा नेट की दून के द्वारा यह विल कुमार को मेरे पास भेज दो अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जाओ चैक किसी भी मूल्य पर शरणागत की रक्षा करेगा। वह हट-विहल को नहीं भेज सकता। आहान स्वीकार्य है।" वे मेरे पास हमें राजा का मेरे राज्य का मेजादार और हाथी भेजा ने उत्तर में युद्ध के लिए किया गया कौणिक राजा ने अपने ग्यारह भाइयों के साथ विशाल चतुरंगिणी सेना को लेकर विशाला नगरी पर चढ़ाई कर दी। इधर चेटक भी नौ मही और नौ बिच्छवी, इस तरह १८ देशों के राजाओं की सहायता लेकर कोणिक का सामना करने के लिए तैयार था। परस्पर युद्ध चालू हो गया। पेटक ने कांणिक के इस भाइयों को अपने शक्तिशाली बाणों से मार दिया। दो दिनों में १ करोड़ ८० लाख सेना का संहार हो गया। कोणिक पकड़ा गया और उसने अपने पूर्व-भव के मित्र चमरेन्द्र को याद किया। समरेन्द्र के प्रकट होने पर कोणिक ने उसे अपनी रक्षा के लिए कहा और चेक को किसी भी उपाय से मार डालने की बात कही। चमरेन्द्र ने उहा मेरा धर्म मित्र है। अतः में उसकी हत्या नहीं करवा सकता किन्तु तुम्हारी रक्षा कर सकता हूँ" ऐसा कह चमरेन्द्र ने उसे वोट दिया। कोणिक उसे पहनकर युद्ध करने लगा। i पेटक राजा जो वाण मारता था इन्द्र के प्रभाव से यह कौणिक को नहीं लगता था। बेटक के वाणों की निष्फलता देश सेना घबड़ा गई और उसमें भगदड़ मच गई। घंटक भी घबड़ाकर नगर में घुस गया और नगर के फाटक बन्द करवा दिये। कोणिक ने यह प्रतिज्ञा की कि मैं विशाला नगरी में गदहं से हल चलाऊंगा । उसने नगरी को सेना से पैर दिया। यह बहुत दिनों तक घेरा डाले रहा, पर कोट की तोड़ने का भरसक प्रयत्न करने पर भी वह उसे भङ्ग नहीं कर सका। इससे वह बहुत आकुल व्याकुळ होने लगा। नैमित्तिक ने बताया कि जब कुछवाडा मागधिका नाम की वेश्या से भ्रष्ट होगा तब चेटक की विशाला नगरी के अधीन हो सकती है। मागधिका वेश्या की बुलाकर कुटवाडा को वश में करने का आदेश दिया। राजा का आदेश पावर मागधिका घुडा की कृत्रिम श्राविका वन उसके पास थाने जाने लगी। एक दिन वा वेषा मागधिका वैश्या के अनुरोध से उसके घर गोचरी के लिए गया । वेश्या ने ही साथ के बाहार में ओपथि मिठा रखी थी। उस आहार को लेकर साधु स्वस्थान आया और उसने वह आहार या दिया औषधि के कारण उसे वस्त्र में ही उगने लगी और वह बेहोश हो गया। Scanned by CamScanner Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "शील की नव बाड़ - छद्मवेषा मागधिका साधु के स्थान में जा उसकी परिचर्या करने लगी। उसने साधु के वस्त्रों एवं शरीर को धोकर साफ किया। साधु की वेहोशी को मिटाने के लिए वह उसके अंग-प्रत्यङ्ग को मसलने लगी। साधु को होश हुआ तब अपने समीप एक नारी को बैठी हुई देख कर वह बोला-"तुम यहाँ किस लिए बैठी हो ?" वेश्या ने कहास्वामी ! आप मूच्छित अवस्था में पड़े हुए थे। आपका शरीर और वस्त्र मल-मूत्र से भर गया था। ऐसी अवस्था में आपकी सेवा करना मेरा कर्तव्य था। यही सोचकर मैंने आपके वस्त्रों एवं शरीर को साफ कर दिया और आपकी वेहोशी को मिटाने के लिए हाथ और पैर मसलने लगी। अब आपको होश हुआ है आप मुझसे किसी भी प्रकार का संकोच न करें। आप तो महापुरुष हैं, मैं आपकी सेवा से घृणा कैसे कर सकती हूँ ? आप जब तक स्वस्थ न हो जाय तब तक आपकी सेवा करना चाहती हूँ। अपनी सेवा से मुझे वंचित न रखें।” इस प्रकार मागधिका ने मधुर वचनों एवं हावभाव से कुलवालुडा साधु के चित्त को मोह लिया। वेश्या के संग से साधु भ्रष्ट हो गया। उसने अपने हाव-भावों से कुलबालुडा को अपने वश में कर लिया। कुलबालुडा अपने तप से भ्रष्ट होकर मागधिका वेश्या से भोग भोगने लगा। एक दिन वेश्या ने कहा-"अब आपको कमा कर लाना चाहिए। तब उसने ज्योतिषी का धंधा शुरू कर __ ज्योतिषी कुलबालुडा एक दिन कोणिक राजा के पास गया। कोणिक ने उसे पूछा-“वताओ कौन-सा उपाय करने से विशाला नगरी मेरे अधीन हो सकती है ?",तब उसने निमित्त शास्त्र से बताया कि विशाला नगरी में जो स्तंभ गडां है, वह अच्छे मुहूर्त में गड़ा है। अगर उस स्तंभ को उखाड़ दिया जाय तो नगरी तुम्हारे अधीन हो सकती है। कुलबालडा विशाला नगरी में घूमता हुआ लोगों से यह कहने लगा कि इस स्तम्भ का अब समय हो गया है। इसको उखाड़ देने से नगर का संकट दूर हो सकता है। लोगों ने उसपर विश्वास कर लिया और स्तंभ को उखाड़ना शुरू कर दिया। उसने कोणिक से कह दिया कि जब ये लोग स्तभ को उखाड़ने लगें तब अपनी सेना को वहां से हटाकर दर ले जाना और बाद में अचानक हमला बोल देना। कोणिक ने ऐसा ही किया। विशाला नगर-वासियों को यह विश्वास हो गया कि स्तंभ को मूल से उखाड़ देने से कोणिक की सेना हट गई। समय पाकर कोणिक ने पुनः हमला बोल दिया और विशाला नगरी का पतन हो गया। कोणिक ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार विशाला नगरी में गदहे से हल चलाया। व्रत की आराधना कर चेटक देवलोक गया। हल-विहल कुमारों ने दीक्षा ले ली। हाथी अग्नि-कुण्ड में पड़कर मर गया और कुलबालुडा मर कर नरक में गया। Scanned by CamScanner Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलिक [ इसका सम्बन्ध टाल ३ गा०७ ( पृ० १९) के साथ है ]. विदेह की राजधानी मिथिला में कुम्भ नामक राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम प्रभावती था। उसके मालदिन्न नाम का एक राजकुमार और मल्लि नाम की एक पुत्री थी। ' ___ मष्टि का सौंदर्य अनुपम था। उसके केश काले थे। नेत्र अत्यन्त सुन्दर थे। विम्ब फल की तरह उसके अधर छाल थे। उसके दांतों की पंक्तियां श्वेत थीं। उसका शरीर श्रेष्ठ कमल के गर्भ की कान्तिवाला था। उसका श्वासोवास विकस्वर कमल की तरह सुगन्धित था। देखते-देखते मलिकुमारी बाल्यावस्था से मुक्त हुई एवं रूप में, यौवन में, लावण्य में, अत्यन्त उत्कृष्ट शरीरवाली हो गयी। उस समय अंग नाम का एक जनपद था। उसमें चंपा नाम की नगरी थी। वहीं राजा चन्द्रच्छाय राज्य करता था। उस नगरी में बहुत से नौ-प्रणिक (नौका द्वारा व्यापार करनेवाले ) रहते थे जो समृद्धिशाली और अपरिभूत थे। वे बार-बार लयण-समुद्र की यात्रा करते थे। उनमें अहन्नक नामक एक श्रमणोपासक था। . एक थार समुद्र यात्रा से लौटते समय अईन्नकादि नौ-यात्रिक दक्षिण दिशा में स्थित मिथिला नगरी पहुँचे । उन्होंने उद्यान में अपना पड़ाव डाला। बहुमूल्य उपहार एवं कुण्डल युगल लेकर वहां के राजा कुम्भ की सेवा में पहुँचे और. हाथ जोड़कर विनय पूर्वक उन्होंने यह भेट महाराजा को प्रदान की। महाराजा कुम्भ ने मलिकुमारी को बुला दिव्य कुण्डल उसे पहना दिया। इसके बाद उन्होंने अर्हन्नादिक वणिकों का बहुत सम्मान किया। महसूल माफकर उन्हें रहने के लिए एक बड़ा आवास दे दिया। वहां कुछ दिन व्यापार करने के बाद उन्होंने अपने जहाजों में चार प्रकार का किराना भरकर समुद्र-मागे से चंपानगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। चम्पा नगरी में पहुंचने पर उन्होंने बहुमूल्य कुण्डल युगल वहाँ के महाराजा चन्द्रच्छाय को भेंट किया। अंगराज चन्द्रच्छाय ने भेंट को स्वीकार कर अहंन्नकादि श्रावकों से पूछा-"तुम लोग अनेकानेक ग्राम-नगरों में घमते हो। चारबार व्यण समुद्र की यात्रा करते हो। बताओ, ऐसा कोई आश्चये है जिसे तुमने पहली बार देखा हो।" . अर्हन्तक अमो. योग इस बार व्यापारार्थ मिथिला नगरी भी गये थे। वहाँ हमलोगों ने कुम्भ महाराज को दिव्यकंडल-यगल मेंट की। महाराजा ने अपनी पुत्री मल्लिकुमारी को बुलाकर वे दिव्य कुंडल उसे पहना दिये। मलिकमान हमने वहाँ एक आश्चर्य के रूप में देखा। विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्लिकुमारी जितनी सुन्दर है उतनी सुन्दर देवकन्यायें भी नहीं देखी जाती।" महाराज चन्द्रच्छाय ने अईन्नकादि व्यापारियों का सत्कार सम्मान कर उन्हें विदा किया। व्यापारियों के मुख से मल्लिकुमारी की ऐसी प्रशंसा सुनकर महाराज चन्द्रच्छाय उसपर अनुरक्त हो गये। टन को बुलाकर कहा-"तुम मिथिला नगरी जाओ और जाकर कुम्भराजा से मल्लिकुमारी को मेरी भार्या के रूप में अगर कन्या के बदले में वे मेरे राज्य की भी मांग करें, तो स्वीकार कर लेना।" महाराजा का सन्देश लेकर दत मिथिला पहुंचा। साधर्म अ05 के आधार पर Scanned by CamScanner Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नवबाड़ उस समय कोशल जनपद में साकेतपुर नाम का नगर था। वहां इक्ष्वाकु वंश के प्रतिबुद्धि नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम पद्मावती था। राजा के प्रधान मंत्री का नाम सुबुद्धि था। वह साम, दाम, दण्ड और भेद नीति में कुशल और राज्य धुरा का शुभ चिन्तक था। उस नगर के ईशान कोण में एक विशाल नाग गृह था । " एक बार नाग महोत्सव का दिन आया। महारानी पद्मावती ने राजा प्रतिबुद्धि से निवेदन किया-"स्वामी! कल नागपूजा का दिन है। आपकी इच्छा से उसे मनाना चाहती हूँ। उसमें आपको भी साथ जाना होगा।" राजाने पद्मावती देवी की प्रार्थना स्वीकार की। इसके बाद महारानी ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा"तुम माली को बुलाकर कहो कि कल पद्मावती देवी नागपूजा करेगी। अतः जल-थल में उत्पन्न होनेवाले विकस्वर, पंचवर्णी पुष्पों एवं एक श्रीदाम महाकाण्ड को नागगृह में रखो। जल-थल में उत्पन्न विकस्वर पंचवर्णी पुष्पों को विविध प्रकार से सजाकर एक विशाल पुष्प-मंडप बनाओ। उसमें फूलों के अनेक प्रकार के हंस, मृग, मयूर, क्रौंच, सारस, चक्रवाक, मैना, कोयल, दूहामृग, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, मृग, अष्टापद, चमरी गाय, हाथी, वनलता एवं पद्मलता के चित्रों को सजाओ। उस पुष्पमंडप के मध्य भाग में सुगन्धित पदार्थ रखो एवं उसमें श्रीदामकाण्ड लटकाओ और पद्मावती देवी की प्रतीक्षा करते हुए रहो।" कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया। र प्रातः महारानी की आज्ञानुसार सारे नगर की सफाई की गई, सुगन्धित जल सारे नगर में छिड़का गया। महारानी ने स्नान किया एवं सर्व वस्त्रालंकारों से विभूषित हो धार्मिक यान पर बैठी। नगर के मध्य होती हुई वह पुष्करणी के पास आई। पुष्करणी में प्रवेश कर महारानी ने स्नान किया और गीली साड़ी पहने ही कमल पुष्पों को ग्रहण कर पुष्करणी से निकल कर नागगृह में आई। वहां उसने सर्वप्रथम लोमहस्तक से नागप्रतिमा का प्रमार्जन किया और उसकी पूजा की। फिर महाराजा की प्रतीक्षा करने लगी। ___ इधर प्रतिबुद्धि महाराज ने भी स्नान किया। फिर सर्व अलंकार पहनकर सुबुद्धि प्रधान के साथ हाथी पर बैठकर जहाँ नागगृह था, वहां आये। हाथी से नीचे उतरकर सुबुद्धि प्रधान के साथ नागगृह में प्रवेश किया। दोनों ने नागप्रतिमा को प्रणाम किया। नागगृह से निकलकर वे पुष्प-मंडप में आये और श्रीदामकाण्ड को देखा। उसकी रचना को देखकर महाराजा विस्मित हुए और अमात्य से 'कहा-"सुबुद्धि ! तुम मेरे दूत के रूप में अनेक प्राम-नगरों में घूमे हो। राजामहाराजाओं के घर में प्रवेश किया है। कहो, आज तुमने पद्मावती देवी का जैसा श्रीदामकाण्ड देखा, वैसा अन्यत्र भी कहीं देखा है ?" सुबुद्धि बोला-“स्वामी ! एक दिन आपके.दूत के रूप में मैं मिथिला नगरी गया था। वहाँ विदेहराज की पुत्री, प्रभावती की आत्मजा, मल्लिकुमारी का संवत्सर प्रतिलेखन महोत्सव था। उस दिन मैंने पहले-पहल जो श्रीदाम काण्ड देखा, पद्मावती देवी का यह श्री दामकाण्ड उसके लाखवें भाग की भी बराबरी नहीं कर सकता। महाराज ने पूछा“वह विदेह राजकन्या मल्लिकुमारी रूप में कैसी है ?” मन्त्री ने कहा-"स्वामी ! विदेह राजा की श्रेष्ठ कन्या मल्लिकुमारी सुप्रतिष्ठित, कूर्मोन्नत और चारुचरणा है। वह रूप और लावण्य में अत्यन्त सम्पन्न तथा वर्णनीय है।" मंत्री के मुख से मल्लिकुमारी के रूप की प्रशंसा सुनकर महाराज प्रतिबुद्धि ने हर्षित होकर दूत बुलाकर कहा"तू मिथिला राजधानी जा। वहाँ विदेहराज की मल्लि नाम की श्रेष्ठ कन्या है। मेरी भार्या के रूप में उसकी मँगनी कर। अगर इसके लिए मुझे समस्त राज्य भी देना पड़े तो स्वीकार कर लेना।" इसके बाद उस दूत ने चार घंटा वाले अश्वरथ पर आरूढ़ होकर अपने अनेक सुभटों के साथ मिथिला की ओर प्रस्थान किया। उस समय कुणाल नाम का एक जनपद था ; जिसकी राजधानी श्रावस्ती थी। वहां रुप्पी राजा का शासन था। Scanned by CamScanner Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त धारणी उसकी रानी थी तथा सुबाहु उसकी कन्या । वह रूप, यौवन और लावण्य में उत्कृष्ट थी। उसका शरीर उत्कृष्ट था सुबाहु कन्या के चातुर्मासिक स्नान महोत्सव का दिन आया जानकर महाराज ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर आज्ञा दी - कल सुबाहु कुमारी का चातुर्मासिक स्नान है। इसलिए जल-थल में उत्पन्न होनेवाले पंचवर्णीय पुष्पों का मण्डप बनाओ और उसमें श्रीदामकाण्ड लटकाओ ।” ६१ कौटुम्बिक पुरुषों ने वैसा ही किया। महाराजा ने स्वर्णकारों को बुलाकर कहा - "शीघ्र ही राजमार्ग के बीच पुष्प-मण्डप में विविध प्रकार के पाँच वर्गों के चावलों से नगर का चित्र आलेखित करो और उसके मध्य भाग में बाजोट रखो।" स्वर्णकारों ने महाराज की आज्ञा का पालन किया। इसके बाद महाराजा गन्ध हस्ति पर आरूढ़ हो कोरंट पुष्पों से सजे हुए छत्र-चंबर को धारण कर, चतुरंगिणी सेना से सुसज्जित हो, राजकुमारी सुबाहु को आगे बैठाकर नगर के मध्य होते हुए पुष्प-मण्डप में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर महाराजा हाथी से नीचे उतरे और पूर्व दिशा की और मुँहकर सिंहासन पर आसीन हुए। अंतःपुर की स्त्रियों ने सुबाहु कन्या को पाट पर बैठाकर सोने और चांदी के कलशों से नहलाया । फिर उसे सर्व वस्त्रालंकारों से सुसज्जित कर पिता को नमस्कार करने के लिए भेजा। राजकुमारी ने पिता के चरणों में नमस्कार किया। पिता ने उसे अपनी गोद में बिठा लिया। आलंकारों से सज्जित पुत्री के रूप-यौवन को देखकर महाराजा विस्मित हुए। अपने मंत्री वर्षधर को बुलाकर वे बोले – “मंत्री ! तुम अनेक ग्राम, नगर तथा राजा-महाराजाओं के पास कार्यवश जाते हो यह बताओ कि आज सुबाहु कुमारी का जैसा चार्तुमासिक स्नान महोत्सव हुआ है, बेसा पहले भी कहीं देखा है ?" ! मंत्री ने कहा- " स्वामी मैं आपके कार्य के लिए दूत बनकर किसी समय मिथिला नगरी गया था। वहाँ कुम्भ राजा की पुत्री, प्रभावती देवी की आत्मजा, मल्लिनामकी राजकुमारी का स्नान-महोत्सव देखा। उस स्नान महोत्सव के सामने 'सुबाहुकन्या का स्नान - महोत्सव लाखवें हिस्से की भी बराबरी नहीं कर सकता ।" इसके बाद मंत्री ने मल्लिकुमारी के रूप का वर्णन किया । मंत्री के मुख से मल्लिकुमारी की प्रशंसा सुनकर राजा उसकी ओर आकर्षित हो गया और राजकुमारी की मँगनी के लिए अपना दूत कुम्भ राजा के पास मिथिला भेजा । उस समय काशी नामक जनपद में वाराणसी नाम की नगरी थी। एक बार मल्लिकुमारी के दिव्य कुण्डल युगल का संधि भाग टूट गया। को बुलाकर कुण्डल युगल को जोड़ने की आज्ञा दी । तब क्रुद्ध महाराजा ने उन समस्त स्वर्णवाराणसी पहुंचे। वहाँ के राजा को स्वर्णकारों ने बहुत प्रयत्न किया, पर वे कुंडल को जोड़ने में असमर्थ रहे। कारों के देश निकाले का आदेश दिया। स्वर्णकार काशी देश की राजधानी मूल्य उपहार भेंटकर कहने लगे "स्वामी! हमलोगों को मिथिला नगर के कुंभ राजा ने देश निष्कासन की आज्ञा दी है । वहाँ से निर्वासित होकर हमलोग यहाँ आये हैं। हमलोग आपकी छत्र-छाया में निर्भय होकर सुखपूर्वक रहने की इच्छा करते हैं ।" प वहाँ शंख नामक राजा का राज्य था। महाराजा ने नगर के समस्त स्वर्णकारों काशी नरेश ने स्वर्णकारों से पूछा - "कुंभ राजा ने आपको देश निकाले की आज्ञा क्यों दी ?” स्वर्णकारों ने उत्तर दिया- "स्वामी! कुंभ राजा की पुत्री मल्लिकुमारी का कुंडल युगल टूट गया। हमें जोड़ने का कार्य सौंपा गया किन्तु हम लोग उसके संधिभाग को जोड़ नहीं सके, जिससे क्रुद्ध हो महाराजा ने देश निकाले की आज्ञा दी है ।" Scanned by CamScanner Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -शील की नयवाद शंख राजा बोला "मल्लिकुमारी कैसी है ?" स्वर्णकारों ने कहा “स्वामी! दूसरी ऐसी कोई देवकन्या या नाग कन्या भी नहीं जो मल्लिकुमारी के रूप की बराबरी कर सके।" महाराज शंख मल्लि कुमारी के प्रति आसक्त हो गया। उसने अपने दूत को बुलाकर कहा – “तुम शीघ्र ही मिथिला पहुँच कर मेरी भार्या के रूप में मल्लि कुमारी की माँग करो। अगर इसके लिए राज्य भी देना पड़े तो भी मेरी ओर से स्वीकार करना ।" ६.२ महाराजा की आज्ञा पाकर दूत ने मिथिला की ओर प्रस्थान किया । मिथिला के कुम्भ राजा का पुत्र मल्लदिन्न था। उसने अपने उद्यान में एक सभा भवन का निर्माण कराया। एक बार नगर के समस्त चित्रकारों को बुलाकर उसने अपने सभा भवन को चित्रित करने की आज्ञा दी । चित्रकारों ने राजकुमार की आज्ञा शिरोधार्य कर काम शुरू किया। उन चित्रकारों में एक चित्रकार को ऐसी छब्धि थी कि वह किसी भी पदार्थ का एक भाग देखकर उस सम्पूर्ण पदार्थ का यथावत् चित्र अंकित कर सकता था । एक दिन उस चित्रकार ने पर्दे के छिद्र से मल्लिकुमारी का अंगूठा देखकर विचार किया - "मुझे इसका सम्पूर्ण चित्र बना लेना चाहिए।" ऐसा सोचकर उसने मल्लिकुमारी का यथायथ चित्र बना डाला। उसके बाद चित्रकारों ने भावभंगिमापूर्ण अनेक सुन्दर चित्रों से सभा भवन को चित्रित किया और बुबराज की आज्ञा पूरी कर दी । युवराज ने चित्रकारों का खूब सत्कार-सम्मान किया तथा जीविका के योग्य प्रीतिदान देकर उन्हें विदा किया। मल्छदिन्न कुमार स्नान कर वस्त्राभूषण से सुसज्जित हो, धायमाता के साथ चित्रशाला में आया और यहाँ अनेक हाव-भाव वाली स्त्रियों के चित्रों को देखने लगा। चित्र देखते-देखते अकस्मात् उसकी दृष्टि मल्लि कुमारो के चित्रपर पड़ी। चित्र को ही साक्षात् मल्लि कुमारी समझकर वह लज्जित हुआ और धीरे-धीरे पीछे हटने लगा। यह देखकर उसकी भावमाता कहने लगी- “पुत्र तुम लज्जित होकर पीछे क्यों सरकने लगे हो ?” मल्लदिन्न ने धात्रीमाता से कहा“हे माता ! मेरी बड़ी बहन, जो देव, गुरु के समान है उससे लज्जित होना ही चाहिए। उसके रहते हुए चित्रशाला में प्रवेश करना क्या मेरे लिए योग्य है ?” तब धायमाता ने कहा “पुत्र ! यह मल्लिकुमारी नहीं बल्कि उसका चित्र है ।" यह सुनकर राजकुमार कुपित हो बोला- “ कौन ऐसा अप्रार्थित का प्रार्थी एवं लज्जारहित चित्रकार है, जिसने मेरी देव गुरु तुल्य ज्येष्ठ भगिनी का चित्र बनाया " ऐसा कहकर उसने चित्रकार के वध की आज्ञा दे दी। जब चित्रकारों को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राजकुमार से बहुत अनुनय-विनय किया और चित्रकार का वध न करने की प्रार्थना की। चित्रकारों की प्रार्थना पर राजकुमार ने चित्रकार के वध के बदले उस की दो अंगुष्ठ एवं कनिष्ठ अंगुली को छेदने और निर्वासन की आज्ञा दे दी । चित्रकार मिथिला से निर्वासित होकर हस्तिनापुर गया। वहाँ उसने मल्लिकुमारी का एक चित्र बनाया और उस चित्रपट को साथ में लेकर महाराजा अदीनशत्रु के पास आ, अभिवादन कर, बहुमूल्य उपहार के साथ वह चित्रपट उन्हें भेंट किया। फिर बोला- “स्वामी ! मिथिला नरेश ने अपने देश से मुझे निष्कासित कर दिया है। मैं आपकी छाया में सुखपूर्वक रहना चाहता हूँ।" महाराज ने पूछा - "तुझे मिथिला नरेश ने देश निकाले की आज्ञा क्यों दी ?” चित्रकार ने घटना का समस्त वृतान्त सुनाया। घटना सुनकर महाराज ने पूछा - "वह मल्लिकुमारी कैसी है तब उसने चित्रपट दिखाते हुए मल्लि कुमारी के रूप की अतीष प्रशंसा की। मल्लिकुमारी के रूप की प्रशंसा सुनकर महाराज मुग्ध हो गये और उन्होंने अपने दूत को बुलाकर आज्ञा दी "तुम मिथिला नगरी जाओ और भार्या के रूप में मल्लिकुमारी की मंगनी करो।" Scanned by CamScanner Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त दूत ने महाराज की आज्ञा शिरोधार्य कर मिथिला की ओर प्रस्थान किया । तत्कालीन पांचाल देश की राजधानी कांपिल्यपुर थी । हजार रानियाँ थीं। एक समय चोक्षा नामकी परिव्राजिका मिथिला नगरी में आई। वह ऋग्वेद आदि पष्ठी तंत्र की ज्ञाता थी । वह दान-धर्म, शौच-धर्म, तीर्थाभिषेक-धर्म की प्ररूपणा किया करती थी। । एक दिन वह मल्लिकुमारी के पास आकर शुचि-धर्म का उपदेश करने लगी। उसने बताया कि उसके धर्मानुसार अपवित्र वस्तु की शुद्धि जल और मिट्टी से होती है मलिकुमारी ने कहा "परिव्राजिके! रुधिर से लिप्त बस्त्र को रुधिर से धोने पर क्या उसकी शुद्धि हो सकती है " इस पर परिव्राजिका ने कहा "नहीं" मडी बोली-"इसी प्रकार हिंसा से हिंसा की (पाप स्थानों की ) शुद्धि नहीं हो सकती।” मल्लिकुमारी का युक्तिपूर्ण वचन सुनकर चोक्षा परिव्राजिका निरुत्तर हो गई। इसपर मल्लिकुमारी की दासियों ने उसका परिहास किया। कुछ ने गला पकड़कर उसको बाहर निकाल दिया । चोक्षा परिव्राजिका क्रोधित हो मिथिला छोड़कर अपनी शिष्याओं के साथ शुचि-धर्म का उपदेश करती हुई.. जाकर उसने दान धर्म, शुचि धर्म एवं कांपिल्यपुर आई । एक दिन वह वहाँ के महाराजा के महल में गई और वहां तीर्याभिषेक-धर्म का प्रतिपादन किया। ६३ वहाँ का राजा जितशत्रु था । उसकी धारणी- प्रमुख विस्मित थे। महाराजा ने पूछा "परिश्राजिके! तुम मकानों में प्रवेश करती हो मेरे जैसा अन्तपुर महाराजा अपने अन्तःपुर की रानियों के रूप-सौन्दर्य से अनेक ग्राम-नगरों में घूमती हो राजा-महाराजा, सेठ साहूकारों के तुमने कहीं देखा है ?" परिवाजिका ने कहा- "राजन्! आप कूपमंडूक प्रतीत होते हैं। आपने दूसरों की पुत्रवधुओं, भार्याओं, पुत्रियों को नहीं देखा, इसीलिए ऐसा कहते हैं। मैंने मिथिला नगर के विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्लिकुमारी का. जो रूप देखा है वैसा रूप किसी देवकुमारी या नागकन्या का भी नहीं ।" - मल्लि के रूप की प्रशंसा सुनकर कांपिल्यपुर के महाराज ने भी मल्लिकुमारी की मँगनी के लिए मिथिला नगर भेजा । राजा कुंभ ने सबके प्रस्ताव को दूत को अस्वीकार कर दिया। राजदूतों ने आकर अपने-अपने स्वामियों की मांग कुंभ राजा के सामने पेश की। विवाह के लिए आये हुए प्रस्तावों की बात मल्लि के पास पहुँची। उसने विचार किया, हो न हो ये राजा के आवेश में उसके पिता पर चढ़ाई किये बिना नहीं रहेंगे। यह सोचकर, कामान्ध हुए इन राजाओं को शान्त कर सुमार्ग पर छाने के लिए उसने एक युक्ति सोच निकाली। IPT अपने महल के एक सुन्दर विशाल भवन में उसने अपनी एक मूर्ति बनावकर रखवाई। वह मूर्त्ति सोने की बनी हुई थी। वह भीतर से पोली एवं सिर पर पेचदार ढक्कन से ढकी हुई थी। देखने में यह मूर्त्ति इतनी सुन्दर थी मानो साक्षात् मल्लि हीं आकर खड़ी हो। राजकुमारी नित्यप्रति इस मूर्त्ति के पेट में सुगन्धित खाद्य-पदार्थ डालने लगी । ऐसा करते-करते जब यह मूर्त्ति भीतर से सम्पूर्ण भर गई तो मल्लि ने उसे ढक्कन से मजबूती के साथ बैंक दिया। इधर राजदूत अपने-अपने स्वामियों के पास वापस आए और राजा कुंभ से मिले हुए निराशाजनक उत्तर को कह सुनाया । उत्तर सुनकर वे बहुत कुपित हुए और सब ने राजा कुम्भ पर चढ़ाई करने का विचार ठान लिया। यह जानकर राजा कुम्भ ने भी युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। थोड़े दिनों में ही भयङ्कर युद्ध छिड़ गया। कुम्भ अकेला था, इसलिए पूरा मुकाबला नहीं कर सकता था, फिर भी जरा भी हताश न होकर उसने युद्ध जारी रखा। वह रात-दिन इस चिंता में रहने लगा कि शत्रुओं पर कैसे विजय मिले ? २४ Scanned by CamScanner Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ दूसरी ओर इस नर-संहारकारी महा भयंकर यद्ध को देखकर मल्लि ने अपने पिता से विनती की-"मेरे लिए एक खूखार लड़ाई को बढ़ाने की जरूरत नहीं है। अगर आप एक बार इन सब राजाओं को मेरे पास आने दें तो में उन्हें समझा कर निश्चय ही शान्ति स्थापित करवा दूं।" राजा कुंभ ने अपने दूतों के द्वारा मल्लि का सन्देश राजाओं के पास भेज दिया। यह सन्देश मिलते ही राजाओं ने संतुष्ट होकर अपनी-अपनी सेनाओं को रण-क्षेत्र से हटा लिया। उनके आने पर, जिस कमरे में मल्लि की सुवर्ण मूर्ति अवस्थित थी, उसीमें उनको अलग-अलग बैठाया गया। राजाओं ने इस मूर्ति को ही साक्षात् मल्लि समझा और उसके सौंदर्य को देखकर और भी अधिक मोहित हो गए। बाद में वस्त्राभूपणों से सुसज्जित होकर राजकुमारी मल्लि जब उस कमरे में आई, तभी उनको होश हुआ कि यह मल्लि नहीं परन्तु उसकी मूर्ति मात्र है। वहाँ आकर राजकुमारी मल्लि ने बैठने के पहले मूर्ति के ढक्कन को हटा दिया। ढकन दूर करते ही मूर्ति के भीतर से निकलती हुई तीन दुर्गन्ध से समस्त कमरा एकदम भर गया। राजा लोग घबड़ा उठे और सब ने अपनी-अपनी नाक बन्द कर ली। राजाओं को ऐसा करते देख मल्लि नम्र भाव से बोली- हे राजाओ। तुम लोगों ने अपनी नाकै क्यों बन्द कर ली? जिस मूर्ति के सौंदर्य को देखकर तुम मुग्ध हो गये थे उसी मूर्ति में से यह दुर्गन्ध निकल रही है। यह मेरा सुन्दर दिखाई देनेवाला शरीर भी इसी तरह लोही, रुधिर, थूक, मूत्र और विष्टा आदि घृणोत्पादक वस्तुओं से भरा पड़ा है। शरीर में जानेवाली अच्छी से अच्छो सुगन्धवाली और स्वादिष्ट वस्तुएँ भी दुर्गन्धयुक्त विष्टा बन कर बाहर निकलती हैं। तब फिर इस दुर्गन्ध से भरे हुए और विष्टा के भाण्डार-रूप इस शरीर के बाह्य सौंदर्य पर कौन विवेकी पुरुष मुग्ध होगा" मल्लि की मार्मिक बातों को सुनकर सब के सब राजा लज्जित हुए और अधोगति के मार्ग से बचानेवाली मल्लि का आभार मानते हुए कहने लगे-हे देवानुप्रिये ! तू जो कहती है, वह बिलकुल ठीक है। हमलोग अपनी भूल के कारण अत्यन्त पछता रहे हैं।" - इसके बाद मल्लि ने फिर उनसे कहा :-“हे राजाओ ! मनुष्य के काम-सुख ऐसे दुर्गन्धयुक्त शरीर पर ही अवलम्बित हैं। शरीर का यह बाहरी सौंदर्य भी स्थायी नहीं है। जब यह शरीर जरा से अभिभूत होता है तब उसकी कांति बिगड़ जाती है, चमड़ी निस्तेज होकर ढीली पड़ जाती है, मुख से लार टपकने लगती है और सारा शरीर थर-थर कांपने लगता है। हे देवानुप्रियो! ऐसे शरीर से उत्पन्न होनेवाले काम-सुखों में कौन आसक्ति रखेगा और कौन उनमें मोहित होगा " “हे राजाओ ! मुझे ऐसे काम-सुखों में जरा भी आसक्ति नहीं है। इन सब सुखों को त्याग कर मैं दीक्षा लेना चाहती हैं। आजीवन ब्रह्मचारिणी रहकर, संयम पालन द्वारा, चित्त में रही हुई काम, क्रोध, मोह आदि असदवृत्तियों को निर्मूल करने का मैंने निश्चय कर लिया है। इस सम्बन्ध में तुमलोगों के क्या विचार हैं, सो मुझे बताओ ?" है. यह बात सुनकर राजाओं ने बहुत नम्र भाव से उत्तर दिया-हे देवानुप्रिये! तुम्हारा कहना ठीक है। हम लोग भी तुम्हारी ही तरह काम-सुख छोड़कर प्रव्रज्या लेने के लिए तैयार हैं।".... मल्लि ने उनके विचारों की सराहना की और उन्हें एकबार अपनी-अपनी राजधानी में जाकर अपने-अपने पुत्रों को राज्यभार सौंपकर तथा दीक्षा के लिए उनकी अनुमति लेकर वापस आने के लिए कहा। - यह निश्चय हो जाने पर मल्लि सब राजाओं को लेकर अपने पिता के पास आई। वहां पर सब राजाओं ने अपने अपराध के लिए कुम्भ राजा से क्षमा मांगी। कुम्भ राजा ने भी उनका यथेष्ट सत्कार किया और सबको अपनी अपनी राजधानी की ओर बिदा किया। Scanned by CamScanner Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और प्रान्त राजाजीक चले जाने के बाद मल्टि ने प्रत्रज्या ली। राजकमारी होने पर भी वह ग्राम-ग्राम विहार करने लगा और भिक्षा में मिले प.सांव-मूख अन्न द्वारा अपना निर्यात करने लगी। मल्लि की इस दिनचर्या को देखकर दूसरी अनक sitनभी उसके पास दीक्षा लेकर माधु-माग बढीकार किया। धे मय राजा दोग भी अपनी-अपनी राजधानी में जाकर अपने पुत्रों को राज्य-भार सौंपकर वापस मल्लि के पास श्राप और प्रबजित हुए। मल्लि तीर्थकर हुई और, प्राणियों के उत्कर्ष के लिए अधिकाधिक प्रयत्न करने लगी। उपरोक्त छः राजा भी उसके बाजीवन सहचारी रहे। ५स प्रकार मगध देश में विहार करती हुई मल्टि ने अपना अन्तिम जीवन विहार में आए हुए सम्मेत गर्वत परं बिताया और अजरामरता का मार्ग साधा। मपिट का जीवन विकास की पराकाष्ठा पर पहुंचे हुए स्त्री-जीवन का एक अनुपम चित्र है। Scanned by CamScanner Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-१७ महारानी. मृगावती. [इसका संवन्ध टाल ३ गाथा ८ ( पृ० १९ ) के साथ है ] कोशाम्बी नगरी में शतानिक नाम के राजा राज्य करते थे। रूप-लावण्य-सम्पन्ना मृगावती उनकी पटरानी थी। वह भगवान् महावीर की परम उपासिका थी। एक समय एक दक्ष चित्रकार राजसभा में आया। महाराजा ने उसकी चित्रकला पर प्रसन्न होकर उसे चित्र-.. शाला को चित्रित करने का काम सौंपा। चित्रकारी करते हुए चित्रकार की दृष्टि पर्दे के अन्दर की महारानी मृगावती के अँगूठे पर पड़ी। केवल अँगूठे को देखकर उसने महारानी मृगावती' का सम्पुर्ण चित्र बना लिया। चित्रशाला को सुन्दर चित्रों से चित्रित करने का कार्य पूरा हुआ। एकबार महाराजा स्वयं चित्रकारी को देखने के लिए चित्रशाला में आये। वहीं मृगावती के चित्र को देखा। मृगावती के जंघा पर काला तिल चित्रित देखकर महाराजा का मन शंका-ग्रस्त हो गया। वे बहुत क्रुद्ध हुए और उन्होंने चित्रकार के शिरोच्छेद का आदेश दिया। चित्रकार के बहुत अनुनय-विनय करने पर और देव-वरदान की बात करने पर महाराजा ने उसका अंगूठा कटवाकर उसके देश-निकाले का आदेश दे दिया। क्रुद्ध चित्रकार ने वहां से निकल कर महारानी मृगावती का पुनः वैसा ही चित्र बनाया और अवन्ति के महाराजा चण्डप्रद्योतन को भेंट किया। चण्डप्रद्योतन अपूर्व सुन्दरी मृगावती के चित्र को देख, उसपर आसक्त हो गया। चण्डप्रद्योतन ने शतानिक के पास दूत भेजकर मृगावती की मांग की। महाराजा शतानिक ने इस घृणित मांग को ठुकरा दिया और दूत का अपमान कर उसे निकाल दिया। चण्डप्रद्योतन ने जब यह समाचार सुना तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ और अपनी सेना सजाकर शतानिक पर चढ़ाई करने के लिए रवाना हो गया। इधर शतानिक ने भी युद्ध की तैयारी कर ली। अंततः दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। महाराजा शतानिक की मृत्यु अतिसार हो जाने से हो गई। मृगावती विधवा हो गई। सारी कोशाम्बी में शोक छा गया। शतानिक की मृत्यु से चण्डप्रद्योतन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। शतानिक के एक पुत्र था। उसका नाम था उदायन किन्तु राजकुमार की उम्र छोटी थी। शोक के बारह दिन व्यतीत होनेपर महारानी मृगावती ने मंत्रियों को बुलाकर पुनः यद्ध की तैयारी के लिए राय मांगी। मंत्रियों ने कहा-"महारानी जी! चण्डप्रद्योतन बहुत दुष्ट है। उसकी विशाल सेना के सामने हम ज्यादा दिन ठहर नहीं सकते। चण्डप्रद्योतन को हमें अन्य उपाय से ही जीतना चाहिए।" तब विदुषी महारानी ने एक उपाय सोचा। अपने खास दूत को बुलाकर मंत्रियों की सलाह से चण्डप्रद्योतन को महारानी ने कहला भेजा-"महारानी मृगावती आपके प्रस्ताव को स्वीकार करती हैं किन्तु उनकी एक शर्त है। पति की मृत्यु से वे शोकविह्वल हैं। उनका पुत्र भी अभी बालक है। शोक से निवृत्त होने के बाद महारानी आपसे अपने पुत्र का राज्याभिषेक कराना चाहती हैं। अतः बाहरी शत्रुओं से बचने के लिए तथा राजकुमार की सुरक्षा के लिए एक दृढ़ किला बनवा दें और नगरी को धन-धान्य से पूरित कर राजपुत्र को राजगद्दी पर बैठा दें। इसके बाद महारानी आपकी आज्ञा का पालन करने को तैयार रहेंगी।" दूत से महारानी का सन्देश सुनकर चण्डप्रद्योतन बहुत प्रसन्न हुआ। महारानी की इच्छानुसार उसने एक इन दर्ग बना दिया एवं उसको धन-धान्य से पूरित कर दिया। पुत्र के राज्याभिषेक के बहाने युद्ध की समस्त तैयारी कर महारानी ने किले के फाटक वन्द करवा दिए। S Scanned by CamScanner Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त इधर चण्डप्रद्योतन ने दूत से पुनः कहलवा भेजा कि महारानी अपनी की हुई प्रतिज्ञा के अनुसार उसके महल में चली आवे। जब दूत कोशाम्बी आया और उसने युद्ध की पूर्ण तयारी देखी तो वह वापस चला आया और राजा को खबर दी कि वहाँ तो युद्ध की तैयारियां हो रही हैं। किले के फाटक बन्द करवा दिये गये हैं। महारानी प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। . जब चण्डप्रद्योतन ते यह सुना तो वह वहत क्रट हुआ और अपनी विशाल सेना सजाकर कोशाम्बी को पूर्ण रूप से विध्वस्त करने की प्रतिज्ञा कर वहां पहुंचा और नगरी को सेनाओं से घेर लिया। इधर श्रमण भगवान् महावीर ग्रामानुग्राम विचरण करते हए कोशाम्बी नगरी के बाहर उद्यान में ठहरे। मृगावती को जब यह ज्ञात हुआ तब उसकी प्रसन्नता का पारावार न रहा। उसने अपनी सेना को युद्ध बन्द कर देने का आदेश दिया। कोशाम्बी के दरवाजे खुलवा दिये और सबको निर्भीक होकर भगवान के दर्शन करने का आदेश दिया। महारानी मृगावती अपने समस्त नगरवासियों के साथ भगवान महावीर के समवशरण में पहुँची। राजा चण्डप्रद्योतन ने मी जब भगवान् के पदार्पण की खबर सुनी तो उन्होंने भी युद्ध बन्द करने का आदेश दिया और वे भी भगवान के समवशरण में पहुंचे। र भगवान महावीर की वाणी सुनकर चण्डप्रद्योतन का विषय मद उतरा और वह अपने किये हुए कार्यो का पश्चाताप करने लगा। इधर महारानी मृगावती ने भगवान् से निवेदन किया- भगवन् ! मैं आप से प्रत्रज्या ग्रहण करना चाहती है। चण्डप्रद्योतन महाराज मुझे आज्ञा प्रदान करें।" मृगावती के इस वचन से चण्डप्रद्योतन बड़ा प्रभावित हुआ। वह बोला-"देवी! तुम धन्य हो। तुम्हारा जीवन धन्य है। मैं आज से प्रतिज्ञा करता हूँ कि उदायन मेरा छोटा भाई रहेगा। मैं उसके राज्य-संरक्षण की जिम्मेवारी लेता हूँ।" महारानी मृगावती ने उदायन का राज्याभिषेक करवाकर आर्या चन्दनबाला के पास दीक्षा धारण की। महाराजा चण्डप्रद्योतन की आठ रानियों ने भी पति की आज्ञा ले भगवान् के पास दीक्षा ग्रहण की। चण्डप्रद्योतन ने महासती मृगावती को नमस्कार किया और अपराध की क्षमा याचना कर अपनी राजधानी को लौट गया। Scanned by CamScanner Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा १८: 15 6 y HOM द्रौपदी [ इसका संबन्ध ढाल ३ गा० १० ( पृ० २० ) के साथ है ] share sa pet एक दिन पाण्डुराज पाँच पाण्डव, कुन्ती देवी, द्रौपदी देवी, तथा अंतःपुर के अन्य परिवार से संपरिवृत हो सिंहासन पर बैठे हुए थे। उस समय बच्छु नारद, जो देखने में तो अति भद्र और विनीत लगते थे, पर अंतरतः कलुषहृदयी थे, विद्या के सहारे आकाश में उड़ते हुए, आकाश का उल्लंघन करते हुए, सहस्रों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मडंब, द्रोणमुख, पत्तन और सम्बाधन द्वारा शोभित और व्याप्त मेदिनी तल - वसुधा को देखते हुए हस्तिनापुर पहुंचे और अत्यधिक वेग से पाण्डुराज के भवन में उतरे। नारद को आते देखकर पाण्डुराज ने पाँच पाण्डब और कुन्ती देवी सहित आसन से उठ सात-आठ कदम सम्मुख जा, तीन बार आदक्षिण - प्रदक्षिणा कर वन्दन - नमस्कार किया और महापुरुष के योग्य आसन से उन्हें उपमंत्रित किया। नारद जल के छींटे दे, दर्भ बिछा, आसन डाल, उस पर बैठे और पाण्डु राजा से उसके राज्य यावत् अन्तःपुर सम्बन्धी कुशल- समाचार पूछने लगे। www 30 पाण्डुराज कुन्ती देवी और पांच पाण्डवों के साथ नारद का आदर-सत्कार कर उनकी पर्युपासना करने लगे। केवल द्रौपदी ने नारद को असंयत, अविरत, अप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा जान, न तो उनका आदर किया, न उनका सम्मान किया, न खड़ी हुई और न उनकी पर्युपासना की। doména VISIO नारद सोचने लगे - "द्रौपदी अपने रूप लावण्य के कारण और पाँच पाण्डवों को अपने पति रूप में पाकर गर्विष्ठा हो गई है और इसी कारण मेरा आदर नहीं करती। अतः इसका अप्रिय करना ही मेरी समझ से श्रेयस्कर होगा ।" ऐसा विचार, पाण्डुराज से पूछकर आकाशगामिनी विद्या का स्मरण कर उत्कृष्ट विद्याधर की गति से आकाश मार्ग में चलने लगे और लवण समुद्र के बीचोंबीच से पूर्व दिशा की ओर मुखकर आगे बढ़ने लगे । उस समय घातकी खण्डद्वीप की पूर्व दिशा के मध्य दक्षिणार्द्ध भरतक्षेत्र में अमरका नाम की राजधानी थी। वहाँ पद्मनाभ नाम का एक राजा था। एक दिन वह अपनी सात सौ देवियों से संपरिवृत हो अंतपुर में सिंहासन पर बैठा था । उसी समय नारद बढ़ते उड़ते सीधे उसके राजभवन में आकर उतरे। पद्मनाभ राजा ने उनका आदर-सत्कार किया, अर्घ्य से उनकी पूजा की और उन्हें आसन से उपमंत्रित किया। नारद ने कुशल समाचार पढे । राजा पद्मनाभ अपनी रानियों के अनेक ग्राम यावत् घरों में प्रवेश करते हैं। देखा है ?” नारद पद्मनाभ की बात सुन जम्बुद्वीप के भारतवर्ष में हस्तिनापुर नामक नगर है। पुत्रवधू और पाँच पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी देवी है। पग के अँगूठे के सौंवें हिस्से की बराबरी करने योग्य भी नहीं है। इसके बाद पद्मनाभ राजा से पूछ, नारद वहाँ से चल पड़े। नारद से प्रशंसा सुन पद्मनाभ राजा द्रौपदी के रूप, यौवन, लावण्य में मुति गृद्ध, लुब्ध हो, उसकी प्राप्ति १- ज्ञातासूत्र के १६ वें अध्याय के आधार पर। परिवार के प्रति विस्मयोन्मुख हो नारद से पूछने लगा "हे देवानुप्रिय ! आप क्या आपने जैसा मेरी रानियों का परिवार है वैसा अन्यत्र भी पहिले कहीं किंचित् हँसकर बोले – “पद्मनाभ ! तू कूप मण्डूक के सदृश है। देवानुप्रिय ! वहाँ द्रुपद राजा की पुत्री, चुलना देवी की आत्मजा, पाण्डुराज 'की वह रूप, लावण्य में उत्कृष्ट है। तेरा रानी समूह उसके छेदे हुए Scanned by CamScanner Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - क : कथा और दृष्टान्त के लिए आतुर हो गया। उसने इष्ट देवता का स्मरण किया। देव सुप्र द्रौपदी को पद्मनाभ राजा की अशोक वाटिका में उठा लाया । P לן ६६ पद्मनाभ द्रौपदी को सोच करते देख बोला – “देवानुप्रिये ! तुम मन के संकल्पों से आहत न बनो। किसी प्रकार की चिन्ता न करो। मेरे साथ विपुल काम भोग भोगती हुई रहो।" इस पर द्रौपदी ने कहा- "मैं छः मास कृष्ण वासुदेव की राह देखूँगी । अगर वे नहीं आयेंगे तो मैं आपकी इच्छा के अनुसार बर्तगी ।” अब द्रौपदी छठ - छठ का तप करती हुई कन्याओं के अन्तःपुर में रहने लगी ।.. पाण्डु राजा जब किसी भी तरह द्रौपदी का पता नहीं लगा सके तब कुन्ती देवी को कृष्ण वासुदेव के पास द्रौपदी का पता लगाने के लिए भेजा । कुन्ती देवी पाण्डु राजा की आज्ञा प्राप्त कर हाथी पर आरूढ़ हो द्वारवती पहुँचीं और उद्यान में ठहरी जय फौटुम्बिक पुरुषों द्वारा कृष्ण वासुदेव को कुन्ती के आगमन का समाचार मिला तो वे स्वयं कुन्ती से मिलने उद्यान में गये । कुन्ती देवी को नमस्कार कर उसे साथ ले अपने आवास आये। भोजन हो चुकने के पश्चात् -कृष्ण ने कुन्ती देवी से उसके आने का प्रयोजन पूछा। कुन्ती बोली “पुत्र युधिष्ठिर के साथ द्रौपदी सुख पूर्वक सो रही थी। जागने पर वह दिखाई नहीं दी । न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष, गंधर्व ने उसका अपहरण किया है। पुत्र ! मैं चाहती हूं तुम स्वय द्रौपदी देवी की मार्गणा - गवेषणा करो, अन्यथा उसका पता लगाना संभव नहीं। कृष्ण बोले : "पितृभगिनी ! मैं द्रौपदी देवी का पता लगाऊँगा। उसके श्रुति, क्षति, प्रवृत्ति का पता लगते ही वह जहाँ कहीं भी हो उसको मैं स्वयं अपने हाथों ले आऊँगा। इस प्रकार कुन्ती देवी को आश्वासन दे उसको आदर सत्कार पूर्वक विदा किया। कृष्ण ने अपने सेवकों को द्रौपदी का पता लगाने के लिए चारों ओर भेज दिया। एक दिन कृष्ण वासुदेव अपनी रानियों के साथ बैठे हुए थे इतने में कच्छु नारद वहाँ आये। कृष्ण ने उनसे पूछा आप अनेक स्थानों में जाते हैं। क्या आपने कहीं द्रौपदी की भी बात सुनी ?" नारद बोले- "देवानुप्रिय एक बार मैं धातकी खण्ड के पूर्व दिशा के मध्य दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में अमरकंका राजधानी में गया था। वहां पद्मनाभ राजा के राज भवन में मैंने द्रौपदी को देखा ।” कृष्ण बोले – “लगता है यह आप देवानुप्रिय का ही कर्म है।” कृष्ण के ऐसा क नारद आकाश मार्ग से चल दिये। पर कच् KIT कृष्ण ने दूत बुलाकर उसे कहा : "तुम हस्तिनापुर जाकर राजा पाण्डु से निवेदन करो : "द्रौपदी देवी का पता उग गया है। पाँचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत हो पूर्व की दिशा के वैतालिक समुद्र के तीर पर पहुंचे और वहाँ मेरी बांट जोहते हुए रहे। कृष्ण वासुदेव ५६ हजार योद्धाओं को साथ वैतालिक समुद्र के किनारे पर पांडवों से मिले और वही स्कंधावारछावनी स्थापित की। कृष्ण ने अपनी समस्त सेना को विसर्जित किया और आप स्वयं पांच पाण्डवों सहित छः रथों में बैठ लवण समुद्र के बीचोबीच होते हुए आगे बढ़े और जहां अमरकंका राजधानी थी जहाँ नगरी का अम उद्यान था वहाँ रथ को ठहराया। फिर अपने दारुक नामक सारथी को बुलाकर बोले “जाओ अमरकंका के महाराज पद्मनाभ से कहो तुमने कृष्ण वासुदेव की बहन द्रौपदी का अपहरण किया है। यह बहुत बुरा किया फिर भी अगर जीवित रहना चाहते हो तो द्रौपदी को कृष्ण वासुदेव के हाथों में सौंप दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जावो ।” सारथी कृष्ण वासुदेव की आज्ञानुसार पद्मनाभ के पास पहुँचा और हाथ जोड़ उसे जय विजय शब्द से बंधा कृष्ण वासुदेव का सन्देश कह सुनाया । पद्मनाभ सारथी द्वारा सुनाये गये सन्देश से अत्यन्त कुद्ध हुआ और भृकुटी बड़ा बोला मैं कृष्ण वासुदेव की Scanned by CamScanner Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ द्रौपदी नहीं दूंगा। मैं स्वयं युद्ध के लिए सज्जित होकर आ रहा हूँ।" ऐसा कह उसने सारथी का अपमान कर उसे पिछले द्वार से निकाल बाहर किया। प दारुक ने वापस आ सारी बात कृष्ण से कही। कृष्ण वासुदेव ने शस्त्र सज्ज हो युद्ध के लिए प्रस्थान कर दिया। इधर पद्मनाभ भी अपनी चतुरंगी सेना के साथ युद्ध भूमि में आया। दोनों में भयंकर संग्राम हुआ। संग्राम में पद्मनाभ की सेना कृष्ण के सामने नहीं टिक सकी। वह हारकर चारों ओर भागने लगी। पद्मनाभ सामर्थ्य हीन हो गया। अपने को असमर्थ जान वह शीघ्रता से अमरकंका राजधानी की ओर भागा और उसने नगर में प्रवेश कर नगर के फाटक बन्द करवा दिये। कृष्ण वासुदेव ने उसका पीछा किया और नगर के दरवाजों को तोड़ अन्दर घुसे। महा शब्द के साथ उनके पाद प्रहार से नगर के प्राकार, गोपुर अट्टालिकाएँ, चरिय तोरण आदि सब गिर पड़े। पद्मनाभ के श्रेष्ठ महल भी चारों ओर से विशीर्ण हो, पृथ्वी पर धंस पड़े। 5 . पद्मनाभ राजा भयभीत होगया और द्रौपदी देवी के पास आ उसके चरणों में गिर पड़ा। द्रौपदी बोली : "क्या तुम अब जान गये कि कृष्ण वासुदेव जैसे उत्तम पुरुष के साथ अप्रिय करके मुझे यहाँ लाने का क्या नतीजा है। खैर अब भी तुम शीघ्र जाओ, स्नान कर गीले वस्त्र पहन, वस्त्र का एक पल्ला खुला छोड, अंतपुर की रानियों आदि के साथ प्रधान श्रेष्ठ रत्नों की भेंट साथ ले मुझे आगे रख कृष्ण वासुदेव को हाथ जोड़ उनके चरण में पड़, उनकी शरण ग्रहण करो।" _पद्मनाभ द्रौपदी के कथानुसार कृष्ण वासुदेव के शरणागत हुआ। वह हाथ जोड़ पैरों में गिर कर बोला : "हे देवानुप्रिय ! मैं आपकी वृद्धि से लेकर अपार पराक्रम को देख चुका । मैं आपसे क्षमा याचना करता हूँ। मुझे क्षमा करें। मैं पुनः ऐसा काम नहीं करूँगा।" -ऐसा कह हाथ जोड़ उसने कृष्ण वासुदेव को द्रौपदी देवी को सौंप दिया। -कृष्ण बोले- "हे अप्रार्थित की प्रार्थना करने वाले पद्मनाभ ! क्या तू नहीं जानता कि तू मेरी बहन द्रौपदी को यहां ले आया है ? फिर भी अब तुझे भय करने की जरूरत नहीं।” - कृष्ण द्रौपदी के साथ रथ पर आरूढ़ हो, जहाँ पांचों पाण्डव थे वहां आये और अपने हाथों से द्रौपदी को पांच पाण्डवों को सौप दिया। Scanned by CamScanner Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा - १६ : सम्भूत - चक्रवर्त्ती [ इसका सम्बन्ध ढाल ४ गाथा ८ ( पृ० २४ ) के साथ है ] १ वाराणसी नगरी में भूदत्त नामका चाण्डाल रहता था। उसके दो पुत्र थे । एक का नाम था चित्त और दूसरे का सम्भूति। वहाँ शंख नाम के राजा राज्य करते थे । उनके नमूची नाम का प्रधान था। किसी अपराध के कारण शंखराजा ने नमूची के प्राण वध का हुक्म दिया और उसे वध के लिए भूदत्त चाण्डाल को सौंप दिया । • नमूची के अधिक अनुनय-विनय करने पर भूदत्त चाण्डाल के दिल में करुणा आई और उसने कहा – “मैं तुझे तभी मुक्त कर सकता हूँ जब तू मेरे दोनों पुत्रों को, जो भूमिगत हैं, पढ़ाना स्वीकार करेगा । नमूची ने भूदत्त की बात स्वीकार कर ली और दोनों को पढ़ाने लगा । कालान्तर में नमूची ने दोनों पुत्रों को विविध कलाओं में प्रवीण कर दिया । एक दिन नमूची ने चाण्डाल की पत्नी से व्यभिचार किया। जब दोनों पुत्रों को यह ज्ञात हुआ तब उन्होंने कहा“आप यहाँ से भाग जाइए अन्यथा यह बात हमारे पिता को मालूम हुई तो वे आपको मार डालेंगे ।" नमूची वहाँ से भाग कर हस्तिनापुर आया और वहाँ के चक्रवर्त्ती महाराजा सनतकुमार का प्रधान मंत्री बन गया। इधर दोनों ही चाण्डाल - पुत्र नगर में गायन करने लगे। उनके मधुर गान से स्त्री-पुरुष मुग्ध होने लगे । अनेक युवतियाँ उनके पास आने लगीं। यहाँ तक की स्पर्शास्पर्श का भी विचार नहीं रहा । इससे नगर के प्रतिष्ठित लोगों ने राजा से शिकायत की। तब राजा ने उन्हें नगर से बाहर निकलवा दिया। इस तरह अपमानित हो उन्होंने अपघात करने का निश्चय किया। वे अपघात करने के लिए पहाड़ी पर चढ़े। वहाँ पहले ही कोई मुनि तप कर रहे थे। उन्होंने दोनों चाण्डाल-पुत्रों को अपघात करते देख उपदेश दिया। मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर उन्होंने वहीं दीक्षा स्वीकार की और उम्र तप करने लगे । एक समय वे विचरते - विचरते हस्तिनापुर आये। किसी समय 'मास खमन' के पारण के दिन वे भिक्षार्थ नगर भ्रमण करते हुए मुनिवरों को नमूची ने देखा और पहचान लिया । मैं भ्रमण कर रहे थे । अपनी पोल खुल जायगी इस भय से नमूची ने दोनों मुनियों को अपने सेवकों से मार-पीट कर उन्हें बाहर निकाल दिया । वहाँ से अपमानित होकर दोनों मुनियों ने अनशन कर लिया। तप के प्रभाव से सम्भूति मुनि को तेजोलेश्या उत्पन्न हुई । क्रोध के आवेश में मुनि ने लब्धि के प्रभाव से सारे नगर को धूम्र बादलों से भर दिया । धूम्र से अच्छादित देखकर नगर की सारी जनता एवं सनतकुमार चक्रवतीं भयभीत हुए । सनतकुमार चक्रवर्ती अपनी रानी श्रीदेवी को साथ ले मुनि से क्षमा-याचना के लिए नगर के बाहर आये और मुनिवरों से बार-बार क्षमा-याचना करने लगे। श्रीदेवी ने भी मस्तक नवाकर मुनिवरों के चरण-स्पर्श किये। श्रीदेवी के सुन्दर केशों के शीतल स्पर्श से सम्भूति: का मन विचलित हो गया। श्रीदेवी के अपूर्व रूप लावण्य पर मुग्ध हो उन्होंने 'नियाना' किया - "अगर मेरी तपश्चर्या का फल मिले तो दूसरे भव में मैं चक्रवर्ती बनूँ । अंत में वे बिना आलोचना के आयु पूर्ण कर देवलोक गये । सारे नगर वहाँ से च्यवकर सम्भूति का जीव ब्रह्मदत्त चक्रवर्त्ती बना । नियाने के कारण वह तप-संयम की अराधना नहीं कर सका और काम-भोगों में आसक्त बना। वह मर कर सातवीं नरक में गया । ११- उत्तराध्यन सूत्र अ० १३ की नेमिचन्द्रीय टीका के आधार पर Scanned by CamScanner Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा - २० : राजीमती और रथनेमि [ इसका सम्बन्ध ढाल ५ गाथा ९ ( पृ० ३० ) के साथ है]] दीक्षा लेने के बाद राजीमती एक बार रैवतक पर्वत की ओर जा रही थी राजीमती के वस्त्र भींग गए और उसने पास ही की एक अन्वेरी गुफा में आश्रय लिया। ने अपने समस्त वस्त्र उतार डाले और सूखने के लिए फैला दिए। समुद्रविजय के पुत्र और अरिष्टनेमि के छोटे भाई रथनेमि प्रब्रजित होकर उसी गुफा में ध्यान कर रहे थे। राजीमती को सम्पूर्ण नग्न अवस्था में देखकर उनका मन चलित हो गया। इतने में एकाएक राजीमती की भी दृष्टि उनपर पड़ी। उन्हें देखते ही राजीमती सहमी वह भयभीत होकर काँपने लगी और बाहुओं से अपने अंगों को गोपन करती हुई जमीन पर बैठ गई । राह में मूसलधार वर्षा होने से वहाँ एकान्त समझ कर राजीमती राजीमती को भयभीत देखकर काम-विह्वल रथनेमि बोले – “हे सुरुपे ! हे चारुभाषिणी ! मैं रथनेमि हूँ । हे सुतनु ! तू मुझे अंगीकार कर । तुझे जरा भी संकोच करने की जरूरत नहीं। आओ! हम लोग भोग भोगें । यह मनुष्य-भव बार-बार दुर्लभ है। भोग भोगने के पश्चात् हम लोग फिर जिन-मार्ग ग्रहण करेंगे।" राजीमती ने देखा कि रथनेमि का मनोबल टूट गया है और वे वासना से हार चुके हैं, तो भी उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने बचाव का रास्ता करने लगी। संयम और व्रतों में दृढ़ होती हुई तथा अपनी जाति, शील और कुछ की लज्जा रखती हुई वह रथनेमि से बोली : “भले ही तू रूप में वैश्रमण सदृश हो, भोगलीला में नल कुबेर हो या साक्षात् इन्द्र हो तो भी मैं तुम्हारी इच्छा नहीं करती।” "अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प मलमलाती अग्नि में जलकर मरना पसन्द करते हैं परन्तु वमन किए हुए विष को वापस पीने की इच्छा नहीं करते ।" "हे कामी ! यमन की हुई वस्तु को खाकर तू जीवित रहना चाहता है! इससे तो तुम्हारा मर जाना अच्छा है। धिक्कार है तुम्हारे नाम को !” “मैं भोगराज ( उग्रसेन) की पुत्री हूँ और तू अंधकवृष्णि ( समुद्रविजय ) का पुत्र है । हमलोगों को गन्धन कुछ के सर्प की तरह नहीं होना जाहिए। अपने उत्तम कुल की ओर ध्यान देकर संयम में दृढ़ रहना चाहिए।" “अगर स्त्रियों को देख-देखकर तू इस तरह प्रेम-राग किया करेगा तो हवा से हिलते हुए हाट वृक्ष की तरह चित्त-समाधि को खो बैठेगा ?" "जैसे ग्वाला गायों को चराने पर भी उनका मालिक नहीं हो जाता और न भण्डारी धन की रक्षा करने से उनका मालिक होता है वैसे ही तू केवल वेष की रक्षा करने से साधुत्व का अधिकारी नहीं हो सकेगा। इसलिए तू सँभल और संयम में स्थिर हो।" "जो मनुष्य संकल्प विषयों के वश हो, पग-पग पर विषादयुक्त शिथिल हो जाता है, और काम-राग का निवारण नहीं करता, वह भ्रमणत्व का पालन किस तरह कर सकता है ?" "जो वस्त्र, गंध, अलंकार, स्त्री और पलंग आदि भोग-पदार्थों का परवशता से उनके अभाव में सेवन नहीं करता, Scanned by CamScanner Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त १०३ यह त्यागी नहीं कहलाता। सच्चा त्यागी तो वह है जो मनोहर और कान्त भोगों के सुलभ होने पर भी उन्हें पीठ दिखाता है उनका सेवन नहीं करता।" "यदि समभाव पूर्वक विचरते हए भी कदाचित मन बाहर निकल जाय तो यह विचार कर किया है और न मैं उसका हूँ, मुमुक्षु विषय-राग को दूर करे।" . __"आत्मा को कसो, सुकुमारता का त्याग करो, वासनाओं को जीतो, संयम के प्रति द्वेष-भाव को छिन्न करो, विपयों के प्रति राग-भाव का उच्छेद करो। ऐसा करने से शीघ्र ही सुखी बनोगे।" "साध्वी राजीमती के ये मर्मस्पर्शी शब्द सुनकर, जैसे अंकुश से हाथी रास्ते पर आ जाता है वैसे ही रथनेमि का मन स्थिर होगया। रथनेमि मन, वचन और काया से सुसंयमी और जितेन्द्रिय बने और व्रतों की रक्षा करते हुए जीवन पर्यन्त शुद्ध श्रमणत्व का पालन करते रहे। इस प्रकार जीवन बिताते हुए दोनों ने उग्र तप किया और दोनों केवली बने और सर्व कर्मों का अन्त कर उत्तम सिद्ध गति को पहुंचे। जिस प्रकार पुरुष-श्रेष्ठ रथनेमि विपयों से वापस हटे, उसी प्रकार बुद्धिमान, पण्डित और विचक्षण पुरुप विषयों से सदा दूर रहें और कभी विषय-वासना से पीड़ित भी हों तो मन को वापस खींचे। कथा २१ रूपीराय [इसका सम्बन्ध ढाल ५ गाथा १० [पृ०३१) के साथ है ].. - वसन्तपुर नगर में रूपी नाम की एक राजकुमारी राज्य करती थी। वह पुरुष वेश में रहती थी इसलिए लोग भी उसे पुरुष ही समझते थे। एक समय कोई श्रेष्ठीपुत्र विवाह करने के लिए वसन्तपुर आया। विवाह होने के बाद वहां की रीति के अनुसार, वह भेंट देने के लिए रूपीराय के पास पहुँचा। राजकुमारी उस अत्यन्त रूपवान् श्रेष्ठीपुत्र को देखकर मुग्ध हो गई। उसे एकान्त में बलाकर परस्पर प्रेम करने का प्रस्ताव रखा। श्रेष्ठीपुत्र को पर-स्त्री का त्याग था। राजकुमारी की यह बात सुनकर वह स्तब्ध रह गया। मन में सोचने लगा--"अगर में राजकुमारी के प्रस्ताव को मान लेता हूँ तो मेरा त्याग भंग हो जाता है। अगर नहीं मानता हूँ तो इसका परिणाम मेरे लिए भयंकर भी हो सकता है। कुछ समय तक वह इसी प्रकार सोचता रहा और कोई बहाना बनाकर घर चला आया। घर जाकर उसने इस विषय पर खूब सोचा। अन्त में अपने व्रत की रक्षा के लिए उसे एक ही मार्ग दीखा, वह था दीक्षा। ... श्रेष्ठीपत्र ने गुरुदेव के पास जाकर दीक्षा ले ली। इधर जब राजकुमारी को यह मालूम हुआ कि श्रेष्ठीपत्र ने दीक्षा ले ली है, तो उसे अत्यन्त दुःख हुआ। उसे श्रेष्ठीपुत्र के बिना एक क्षण भी अच्छा नहीं लगता था। वह सोचने लगी- श्रेणीप बम मिल नहीं सकता और में उसके बिना रह नहीं सकती। श्रेष्ठीपुत्र को पाने का एक ही उपाय है। अगर मैं भी दीक्षा ले लूं तो सम्भव है बार-बार सम्पर्क से वह मेरा बन जाय ।” ऐसा सोचकर उसने भी दीक्षा Scanned by CamScanner Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ शील की नव बाड़ PAAPPINGHATANIPA ले ली। रूपी राजकुमारी साध्वी हो गई। रूपी साध्वी का मन सदैव श्रेष्ठीपुत्र में लगा रहता था। अतः वह किसी न किसी बहाने श्रेष्ठीपत्र के पास आती और उन्हें खूब आसक्त-भाव से देखती। रूपी साध्वी के बार-बार देखते रहने से श्रेष्ठीपत्र का भी मन उसके प्रति आसक्त हो गया और वह भी अत्यन्त आसक्ति से रूपी साध्वी को देखने लगा। इस प्रकार परस्पर एक दूसरों को आसक्ति-पूर्ण नेत्रों से देखने के कारण दोनों चक्षु-कुशील हो गये। एक दिन दोनों को इस प्रकार आसक्तिपूर्ण नेत्रों से देखते हए अन्य मुनियों ने देख लिया और उनसे पूछा क्या तुम दोनों का एक दूसरे के प्रति अनुराग है रूपी साध्वी ने अरिहन्त भगवान् की सौगन्ध खाकर कहा-"इसके प्रति मेरी कोई आसक्ति नहीं?" श्रेष्ठीपुत्र ने भी इनकार कर दिया। दोनों ने अपने पाप-भाव को छिपाने के लिए बहुत बड़ा झूठ बोलकर बहुत कम उपार्जन किये। मृत्यु के समय दोनों ने अपने पाप की आलोचना नहीं की। बिना आलोचना किये मरकर अनन्त संसारी बने। इस प्रकार रूपीराय चक्षु-कुशील बनकर करोड़ों भवों में भटका और अनन्त दुःख पाया। रूपीराय करोड़ों भव-भ्रमण करती हुई पुनः नट कन्या बनी। श्रेष्ठीपुत्र मर कर वसन्तपुर नगर के सागरदत्त श्रेष्ठी के घर जन्मा जिसका नाम एलाची कुमार रखा गया। आगे की कथा के लिए एलाचीपुत्र की कथा देखिये । कथा-२२ एलाचीपुत्र [इसका सम्बन्ध टाल ५ गाथा ११ (पृ० ३१) के साथ है ] इलावर्धन एक रमणीय नगर था। वहां धनदत्त नामक एक धनाढ्य सेठ रहता था। धारणी उसकी पतिपरायणा पत्नी थी। अनेक मनौतियों के पश्चात् धनदत्त के यहां पुत्ररत्न का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया एलाचीपुत्र । उसकी बुद्धि बड़ी तीव्र थी। इसलिए उसने अल्पकाल में ही समस्त कलाओं में दक्षता प्राप्त कर ली। एक समय उस नगर में नटों का दल आया। वह दल अभिनय-कला में बहुत कुशल था। नगर के मध्य भाग में एक बहुत बड़ा मैदान था। उसी मैदान में बांस गाड़ कर वे नगरवासियों को अपनी नाट्य-कला दिखाने लगे। दर्शकों की भीड़ लग गई। नगरनिवासियों के साथ एलाचीकुमार भी नाटक देखने के लिए वहां पहुंच गया। उस नट के साथ उसकी एक पुत्री थी। वह अतीव सुन्दर थी। उस नाटक में वह भी पार्ट अदा कर रही थी। उस अनन्य सुन्दरी । नटकन्या के रूप, यौवन व कला को देखकर एलाची कुमार मुग्ध हो गया। उसने मन में प्रतिज्ञा करली-“यदि मैं विवाह करूँगा तो उसीके साथ करूँगा, अन्यथा नहीं। नाटक समाप्त हो गया। लोग अपने स्थानों पर जाने लगे, किन्तु एलाची कुमार वहीं रह गया। मित्रों के बहुत समझाने पर वह घर आया और उसने अपने मित्रों के द्वारा अपने पिता को कहला भेज़ा-“मैं तभी अन्न-जल स्वीकार करूँगा, जब मेरा विवाह नट-कन्या के साथ होना निश्चित हो जाय।" पिता ने - पुत्र को बहुत समझाया लेकिन उसने एक भी बात नहीं मानी। अन्ततः उसके पिता ने नट को बुलाया और उससे कहा"मेरा पुत्र तुम्हारी कन्या से विवाह करना चाहता है। तुम उसकी शादी मेरे लड़के के साथ में कर दो। इसके बदले में मैं तुम्हे इतना अधिक धन दूंगा कि तुम्हारी सारी दरिद्रता दूर हो जायगी।” र नट ने कहा- सेठ ! मैं अपनी पुत्री को बेचना नहीं चाहता। अगर वह मेरी पुत्री से विवाह करना चाहता है, तो वह स्वयं नट बने तथा नाट्य-कला में प्रवीण होकर राजा को प्रसन्न कर धन प्राप्त करे, तो मैं अपनी पुत्री उसे दे - - Scanned by CamScanner Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त Pok सकता हूँ। एलाची कुमार ने यह बात स्वीकार कर ली। वह नदी के लिये माता-पिता, धन-दौलत आदि का त्याग कर नटी के साथ हो गया। उसने सुन्दर वस्त्रों को त्याग कर एक कच्छ पहन लिया गले में ढोल डाला, पीठ पर वस्त्रादिक की गठरी लटका ली, एक कन्धे पर बाँस रखा और दूसरे कन्धे पर सामान की काँवर । इस तरह वह नट के वेश में उस दल के साथ गाँव-गाँव में भटकने लगा। नटों के साथ उसने अल्पकाल में ही नाट्य कला में कुशलता प्राप्त कर ली। इधर उस नट की पुत्री भी उसका सौन्दर्य व त्याग देख कर मन ही मन उसपर मुग्ध हो रही थी । परन्तु माता-पिता की आज्ञा प्राप्त किये बिना अपनी ओर से कुछ भी नहीं कर सकती थी। कुछ दिनों के बाद नट ने जब देखा कि एलाची कुमार नाट्य-कला में प्रवीण हो तो गया है, उसने कहा – “अब आप समस्त नाटक मण्डली व साज-सामान लेकर बेनातट नगर जाइये और वहाँ के राजा को प्रसन्न कर अधिक से अधिक धन ले आइये । उस धन से मैं अपने जाति-बन्धुओं को सन्तुष्ट कर अपनी पुत्री के साथ आपका विवाह कर दूँगा ।" नटराज के ये वचन सुनकर एलाची कुमार बड़ा प्रसन्न हुआ और वह उसी दिन नट -पुत्री के साथ नाटक-मण्डली को लेकर बेनातट नगर की ओर रवाना हुआ । बेनातट पहुँचते ही सर्वप्रथम उसने राजा से मुलाकात की तथा उनसे नाटक देखने की प्रार्थना की। राजा ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। राजा के महल के सामने एक बहुत बड़ा मैदान था। वहीं पर खेल दिखाना निश्चित हुआ। राजा द्वारा आश्वासन पाकर एलाची ने नाटक दिखाने की तैयारी कर ली। उसने मैदान में बाँस गाड़कर पारों ओर रस्सियां बाँध दीं। राजा भी अपने मंत्री व स्वजनों के साथ खेल देखने के लिये सिंहासन पर बैठ गया ।। यथा समय एलाची ने खेल दिखाना शुरू किया। उसने सर्वप्रथम उस बाँस पर एक तख्ता रखवाया। उस तरुते के मध्य भाग में एक फील गड़ी हुई थी। उसने उस कील पर सुपारी रखी। इसके बाद दोनों पैरों में घूंघर बाँध, खड़ाऊँ पन, एक हाथ में तलवार व दूसरे हाथ में ढाल लेकर, वह उस बाँस पर चढ़ा। वहाँ उस सुपारी पर अपनी नाभि रखकर कुम्हार की चाक की तरह चारों ओर घूमने लगा। घूमते समय यह तलवार व ढाल के भिन्न-भिन्न प्रकार के खेल भी दिखाता जाता था। इधर नट-कन्या भी सुन्दर वस्त्रों से सज्जित हो मधुर गीत गाती हुई नृत्य कर रही थी। उसके अन्य साथी तरह-तरह के बाजे व ढोल बजाकर नाटक में रंग ला रहे थे। जनता नाटक देखकर मुग्ध हो रही थी । वाह ! वाह ! के उत्साहवर्द्धक शब्द समवेत जनता के मुख से निकल रहे थे। इधर राजा नदी के दाव-भाव, व रूप यौवन तथा कला को देखकर मुग्ध हो गया और सोचने लगा-"यदि यह नटी मेरे अन्तःपुर में आ जाय, तो मेरा जीवन धन्य किन्तु इस नट के जीवित रहते मेरी अभिलाषा पूरी कैसे हो सकती है ? इस नट-कन्या के बिना तो मेरा जीना ही व्यर्थ है। इसे तो किसी न किसी उपाय से प्राप्त करना ही होगा। हाँ यदि यह नट खेल दिखाते दिखाते बॉस से गिर कर मर जाय तो यह नटी मुझे आसानी से मिल सकती है।" अब राजा मन में यही सोचने लगा कि नट किसी तरह । गिरकर मर जाय और मैं नटी को प्राप्त कर हूँ। राजा इस प्रकार सोच ही रहा था कि जर अपना खेल पूर्ण करके बॉस से नीचे उतरा और इनाम पाने के लिये राजा की तरफ बढ़ा। राजा को छोड़कर सभी दशक मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा कर रहे थे और इनाम देने की सुक हो रहे थे। किन्तु राजा के पहले पुरस्कार देना राजा का अपमान करना था। इसलिये सबकी दृष्टि उसी और लगी हुई थी। राजा उस समय बुरी वासना के चक्कर में पड़कर कुछ और ही सोच रहा था । राजाने कहा"हे नटराज ! में राजकाज की चिन्ता से कुछ अस्त-व्यस्त सा हो रहा था, इसलिये तुम्हारा खेल अच्छी तरह से नहीं देख सका। तुम एक बार फिर खेल दिखाओ तब तुम्हें इनाम दूंगा ।" एलाची कुमार लोभ व कामना के कारण दीन-हीन हो रहा था। वह यह अच्छी तरह जानता था कि बाँस पर फिर से चढ़ना खतरे से खाली नहीं है, लेकिन फिर Scanned by CamScanner Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव वाड़ भी वह नटी के सौंदर्य के कारण वास पर चढ़ा तथा उसने नाना प्रकार के खेल दिखाए। इस बार भी दर्शकों को पूर्ण सन्तोप हुआ। खेल समाप्त हुआ। एलाची कुमार ने नीचे उतर कर राजा को प्रणाम किया और इनाम की आशा से सामने खड़ा होगया। राजा मन में सोचने लगा-"यह तो इस बार भी कुशल पूर्वक नीचे उतर आया है। मेरी तो इच्छा पूर्ण नहीं हुई। इसके जीवित रहते मैं नटी को कैसे पा सकता है, इसलिए इसको पुनः खेल दिखलाने के लिए कहना चाहिए।” इस प्रकार विचार कर राजा ने पूर्ववत् जवाब दिया और फिर से खेल दिखाने का आग्रह किया। राजा के इस प्रकार के वचनों को सुनकर राजा के प्रति लोगों के मन में शंका उत्पन्न हो गई। वे सोचने लगे कि राजा तो नटी के रूप पर मुग्ध हो गया है और नटराज की मृत्यु चाहता है। इसलिए बार-बार राज्य की चिन्ता का बहाना बना कर खेल दिखाने का आग्रह करता है। - एलाची ने नटी पाने की इच्छा से पुनः खेल दिखाया और कुशल क्षेम पूर्वक नीचे उतर आया। राजा इससे बहुत लज्जित हुआ। उसकी मन की इच्छा मन में ही रह गई। वह चिंता में पड़ गया-इस नट से क्या कहूं और किस बहाने उसे वांस पर चढ़ाऊँ। अन्त में उसकी दुर्वासना ने जोर मारा। उसने फिर धृष्टतापूर्वक कहा"नटराज अभी मुझे पूरा सन्तोष नहीं हुआ है। पुनः एक वार तुम्हारा खेल देखना चाहता हूं। इस बार तुम्हें अवश्य ही इनाम दूंगा।" राजा की बात को सुनकर नटराज निरुत्साहित हो उठा। नटी उसके भाव को ताड़ गई। उसने पुनः एलाची कुमार को उत्साहित किया। अपनी प्रियतमा का प्रोत्साहन पाकर वह पुनः बांस पर चढ़ा और तरह-तरह के खेल दिखाने लगा। ................ . . ठीक इसी समय कोई तपस्वी मुनिराज आहार के लिए पास के किसी धनिक सेठ के घर पहुंचे। सेठ की पत्नी अत्यन्त रूपवती थी। वह उस समय घर में अकेली थी। वह श्राविका थी, इसलिए मुनिराज को आते देखकर कुछ कदम आगे बढ़कर उसने उनका स्वागत किया और बड़े आदर पूर्वक अन्दर ले आई। मोदक का थाल अन्दर से लाकर स श्रद्धा पूर्वक दान करने लगी। मुनिराज बड़े समतावान थे। मुनि की दृष्टि नीचे की ओर थी। उन्होंने भूलकर भी अपनी नजर ऊपर नहीं की। इस दृश्य को देखकर एलाची कुमार के हृदय पर बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा। वह अपने मन में कहने लगा,-"अहो । अप्सरा के समान रूपवती रमणी हाथ में लड्डुओं का थाल लेकर अकेली सामने खडी है, फिर भी धन्य हैं ये मुनिराज जो आँख उठाकर भी उसके सामने नहीं देखते। ये भी एक मानव हैं जिनका हृदय सुन्दर रमणी को देखकर व एकान्त में पाकर भी विचलित नहीं होता और में भी एक मनुष्य हूँ, जो स्त्री के लिए वैभव त्यागकर दर-दर की ठोकरें खा रहा हूं। यदि इस वक्त में गिर पडू और नटी का ध्यान करते हुए मर जाऊँ तो मुझे मर कर अवश्य दर्गति का द्वार देखना पड़ेगा।" ....... इधर राजा के मन में भी सद् विचार आये और उसको भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। राजा की रानी व नटी के भी परिणाम शुद्ध होने लगे और संसार-स्वरूप को विचार करते-करते उन्हें भी केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इन केवलियों का उपदेश पाकर अनेक लोगों ने श्रावक-व्रत, साधु-व्रत स्वीकार किये और अन्त में सिद्ध गति को प्राप्त कर अनन्त सुखी बने। Scanned by CamScanner Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ber कथा - २३ : मणिरथ- मदनरेखा [ इसका संबंध ढाल ५ गाथा १३ ( पृ० ३१ ) के साथ है ] अवंति जनपद में सुदर्शन नामक एक नगर था। वहाँ मणिरथ नामक राजा था। युगबाटु नामक उसका एक छोटा भाई युवराज था | युगवाहु की पत्नी मदनरेखा थी । वह अतीव सुन्दर और परम-श्राविका थी । एक दिन मणिरथ की दृष्टि मदनरेखा पर पड़ी। उसके अनिंद्य रूप-लावण्य को देखकर वह मुग्ध हो गया। उसका रूप उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगा । उसने उसके प्रेम को किसी भी मूल्य पर प्राप्त करने का निश्चय किया । इस विचार से उसने मदनरेखा के घर बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण भेजना शुरू किया। वह भी विशुद्ध भाव से जेठ की भेजी हुई नाना प्रकार की बहुमूल्य सामग्रियों को स्वीकार कर लेती। उसे यह भान तक नहीं था कि मणिरथ जो वस्तुएँ भेजता है, उसके पीछे उसकी कुत्सित वासना काम कर रही है । मदनरेखा विशुद्ध भावना से ही उन वस्तुओं को अंगीकार करती थी, किन्तु मणिरथ समझने लगा कि वह भी उससे प्यार करने लगी है । एक दिन मौका पाकर उसने दासी के द्वारा मदनरेखा को कहलाया "मालय सम्राट् मणिरथ तुमसे प्रेम करता है। वह तुम्हारे रूप-यौवन पर अपना समस्त साम्राज्य तुम्हारे चरणों में रखने को तैयार है । तुम्हें जो सुख चाहिए युवा से नहीं मिलता। वह सुख तुम मणिरथ की हृदय साम्राज्ञी बनने पर प्राप्त कर सकोगी।" मणिरथ की स्वार्थपूर्ण घृणित भावना का अब उसे पता लगा। उसने यदि भविष्य में एसा कहा तो तेरी जीभ निकलवा दूँगी । जा ! साम्राज्य से तो बघा, बल्कि तीन लोकों के वैभव से भी अपने आपके लिए ऐसी अनीति शोभा नहीं देती । आपसे प्रेम यह सन्देश सुनकर मदनरेखा स्तब्ध हो गई। दासी से कहा - "दुष्टे ! आज तूने ऐसी बात कही है। मणिरथ से कह दे कि मदनरेखा तुम्हारे इस छोटे से शील तसे विचलित नहीं हो सकती। आप सम्राट् हैं। तो दूर रहा बल्कि वह आप को देखना भी पाप समझती है।" दासी ने वहाँ से मणिरथ के पास आकर सर्व वृत्तान्त कह सुनाया । मणिरथ अपनी असफलता पर मन ही मन ॐ मलाने लगा। उसने सोचा- युगबाहु के रहते मदनरेखा का प्रेम पाना असंभव है। अतः इस काँटे को हटाकर ही में मदनरेखा के प्रेम को प्राप्त कर सकता हूं। इस तरह कामुक भावना के वशीभूत होकर वह अपने भाई की हत्या का अवसर ढूँढ़ने लगा। सायंकाल का समय था । मन्द मन्द सुहावनी हवा चल रही थी । युगबाहु अपनी प्रियतमा के साथ उपवन में घूमने के लिए निकल पड़ा। मदनरेखा अपने प्रियतम के लिए पुष्प चुन चुनकर माला गूंथने में तहीन थी। युगबाहु उतामण्डप में विश्राम कर रहा था और अस्ताचलगामी दिवाकर को देखने में लवलीन था। इधर मणिरथ भी घूमता हुआ उपवन की ओर आ निकला। उसने युगबाहु को लता-मण्डप में विश्राम करते हुए देख लिया । वह अकेला एकान्त स्थान विश्राम कर रहा था। राजा ने उचित अवसर पाकर पीछे से छिपकर युगवाहु पर वार किया। वह पायल होकर भूमि पर गिर पड़ा। मणिरथ वहाँ से भागा। रास्ते में वह साँप का शिकार बना और मृत्यु को प्राप्त होकर नरक में गया । मदनरेखा नेता मण्डप से कराहने की आवाज सुनी। यह दौड़कर वहाँ आई । खून से लथपथ पति को १-- उत्तराध्ययन सूत्र अ० ९ की नैमिचन्द्रीय टीका के आधार पर Scanned by CamScanner Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ देखकर वह घबड़ा गई। उसने अपने आप को सँभाला, और सोचा- “यह समय शोक करने का नहीं है । जो भावी था वह हो गया। अब मेरा कर्तव्य है कि मैं पतिदेव को धैर्य दूं । उनका शरीर समाधि पूर्वक छूटे, ऐसा प्रयत्न करूँ।” युगबाहु के सिर को अपनी गोद में लेकर वह उन्हें समझाने लगी। उसने पति को उस भाई के प्रति द्वेष व पत्नी के प्रति मोह न रखने का उपदेश दिया। युगबाहु पर पत्नी के उपदेशों का असर हुआ । शान्तभाव से समाधिपूर्वक देह का विसर्जन कर वह देवलोक में उत्पन्न हुआ । मदनरेखा ने सोचा- "अब इस राज्य में रहना खतरे से खाली नहीं है। मणिरथ मुक्त पर बलात्कार करने का प्रयत्न कर सकता है। वह मुझे भ्रष्ट करने का प्रयत्न करेगा। इससे अच्छा होगा कि कहीं दूर चली जाऊँ ।” ऐसा सोचकर वह वहाँ से निकल पड़ी। वह गर्भवती थी। रास्ते में उसे घोर वन का सामना करना पड़ा, जहाँ आदमी की छाया तक का भी निशान नहीं था। वह एक वृक्ष के नीचे आराम करने लगी। कुछ समय पश्चात् उसे प्रसव पीड़ा होने लगी और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उस नवजात शिशु को कोमल पत्तों पर सुला, उसकी उँगली में अपने नाम की मुद्रा डाल कर, वह अशुचि निवारणार्थ नदी किनारे पहुँची। उधर एक मदोन्मत्त हाथी ने मदनरेखा को सूंड में पकड़ कर आकाश में बैठा चला जा रहा था। अनिंद्य सुन्दरी देखकर वह मुग्ध हो गया। वह विमान आपने विमान को वापस क्यों लौटाया ?” जा रहा था, किन्तु तुम जैसी रूप यौवनसम्पन्ना, रूपवती स्त्री को पाकर मैं वापस लौट रहा हूँ। तुम्हें घर पहुँचा कर मैं वापस चला जाऊँगा ।" मदनरेखा ने कहा- "मैं भी साधु दर्शन की इच्छा रखती हूं। अतः मुझे भी दर्शन करवा दीजिये ।” मणिप्रभा ने स्वीकार कर लिया और अपना विमान घुमा दिया। थोड़े समय में ही वह विमान मणिचूड़ मुनि के पास पहुँचा। मुनि मणिचूड़ ने उपदेश दिया। मुनि के उपदेश से प्रभावित होकर मणिप्रभ ने मदनरेखा के प्रति अपनी भावना बदल दी और उसे अपनी बहिन की तरह देखने लगा। मुनि से मदनरेखा ने पूछा- "मैं जंगल में अपने पुत्र को छोड़ कर आई उसका क्या हुआ ?" मुनि ने कहा“उसको मिथिला के पद्मरथ राजा, जो घूमने के लिये आये थे, ले गये हैं ।" यह सुन कर मदनरेखा निश्चिन्त हो गई और दीक्षा लेकर उसने आत्म-कल्याण किया । उछाल दिया। आकाश मार्ग से एक मणिप्रभ नामक विद्याधर मदनरेखा को देख उसने उसको अपने विमान में बैठा लिया। को वापस लौटाने लगा । मदनरेखा ने पूछा - "आप तो देव ने कहा मैं अपने पिता, जो साधु हैं, उनके दर्शन करने अपने विमान में उसके रूप को इधर जा रहे थे। आ १०८ Bras के साइन 200 किमी में B Please ger 14 de प्र Scanned by CamScanner Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-२४. राजकुमार अरणक [इसका संवन्ध दाल ५ गाथा १४ (पृ० ३१ ) के साथ है ] को एक समय भगवान् प्रामानुग्राम विचरण करते हुए किसी बड़े नगर में पहुंचे। भगवान् का आगमन सुनकर नगर की जनता उनकी वाणी सुनने के लिये उद्यान में पहुंची। वहां का राजा अपनी रानी व राजकुमार अरणक को लेकर भगवान् के समवशरण में पहुंचा। भगवान ने महती सभा में उपदेश दिया। उनका उपदेश सुनकर राजा व राजकुमार अरणक के हृदय में वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने समस्त राज्य का परित्याग कर भगवान् के पास दीक्षा ले ली। पिता-पुत्र ने स्थिवरों की सेवा में रहकर सूत्रों का अध्ययन किया। अब भगवान् की आज्ञा से पिता-पुत्र स्वतंत्र रूप से विहार करते हुए संयम की आराधना करने लगे। पिता अपने छोटे लाडले पुत्र अरणक को कभी भी भिक्षा के लिए बाहर नहीं भेजता था। वह स्वतः गोचरी लाकर बालमनि की सेवा किया करता था। उसे किसी भी बात का कष्ट न हो, इसका वह पूरा-पूरा ध्यान रखता था। कुछ समय पश्चात् अरणक मुनि के पिता का स्वर्गवास हो गया और वे अब अकेले हो गये। अब तक तो पिता की छत्र-छाया में उन्हें किसी भी प्रकार के कष्ट का भान नहीं हुआ था, लेकिन अब उन्हें कड़कड़ाती धूप में आहार के लिये नंगे पैर जाना पड़ता था। __एक दिन वे तेज धूप में आहार के लिए निकले। पैर जल रहे थे। लू जोरों से चल रही थी। सूर्य की किरणें आग उगल रही थीं। साधु अरणक धूप से घबरा गया और विश्राम के लिए एक भव्य प्रसाद की छाया में खड़ा हो गया। प्यास के कारण गला सूख रहा था। उस प्रासाद की खिड़की में एक यवा स्त्री बैठी थी। उसके अंग-अंग से यौवन व मादकता फूट रही थी। उसका पति परदेश गया हुआ था। इसलिए वह काम-बाण से पीड़ित थी। अरणक मुनि की अलौकिक सुन्दरता को देख कर वह मुग्ध हो गई। उसने दासी के द्वारा मुनि को अपने महल में बुला लिया और हावभाव व नयन-कटाक्षों से मुनि को अपने वश में कर लिया। मुनि उसी सुन्दरी के यहां रहने लगे। - अरणक मुनि ग्रहस्थ बन गया और उसके साथ सुखोपभोग करते हुए जीवन-यापन करने लगा। इधर साधओं में अरणक की खोज होने लगी। लेकिन उसका कहीं भी पता न लगा। अरणक के गायब होने की खबर उसकी माता तक पहुंची। माता घबड़ा गई और अपने पुत्र की खोज के लिए निकल पड़ी। वह गाँव-गाँव की धूल छानने लगी। जगहजगह पछती फिरती कि कहीं किसी ने उसके प्यारे पुत्र को देखा है क्या? बुढ़ापे के कारण शरीर शिथिल हो रहा था। आँखों से कम दिखाई देता था, फिर भी दिल में उत्साह था कि कहीं मिल जायगा। अगाध मातृ-स्नेह के कारण वह पागल सी हो चली थी। 'अरणक' 'अरणक' पुकारती वह एक विशाल-भवन के नीचे धूप से घबड़ा कर खड़ी हो गई। ऊपर खिडकी में अरणक अपनी प्रेयसी से बातें कर रहा था। 'अरणक' 'अरणक' की आवाज अचानक उसके कानों में पड़ी। आवाज चिरपरिचित सी मालूम दे रही थी। उसने नीचे की ओर झांक कर देखा तो आश्चर्य चकित हो गया। वह आवाज और किसी की न होकर उसकी माता की ही थी। उसे अचानक महल के नीचे देखकर वह बाहर आया और स्नेह से उसके चरणों में गिर पड़ा। पुत्र को देखकर माता के हर्ष का कोई ठिकाना न रहा। स्नेह से उसने पुत्र के मस्तिष्क पर हाथ फेरते हुए कहा-"बेटा ! तू यहाँ कैसे आ पहुंचा ?" यों कहते-कहते उस वृद्धा की आँखों से आंसू बहने लगे। धरणक घबड़ा उठा। वह सोचने लगा "माता के प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जाय ?" चेहरे का रंग उड़ गया। दिल गुनहगार की तरह छटपटाने लगा। अन्त में उसने लड़खड़ाती हुई आवाज में कहा-"मां ! अपराध हुआ।" अरणक Scanned by CamScanner Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ की आंखों से आंसू बहने लगे । माता ने आंसू पोंछते हुए, पुत्र से कहा - "बेटा! मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था कि चारित्र पालन करना तलवार की धार पर चलने के समान है । चारित्र बड़ा भारी रत्न है। तूने उसे मिट्टी में मिला दिया। हाथ में आया हुआ चिन्तामणि रत्न गवां बैठा।" ११० माता के वचन अरणक के हृदय में तीर की तरह चुभ गये। उसे बड़ी ग्लानि हुई। वह मन ही मन अपने आपको धिक्कारने लगा। माता ने पुत्र को अपराध अनुभव करते देख तथा पश्चाताप की भट्ठी में सुलगते देखकर कहा - "बेटा जो होना था सो हो गया। अब पाप के बदले प्रायश्चित्त करो ताकि तुम्हारी आत्मा पुनः उज्जवल बन सके ।" माता ने पुत्र को पुनः गुरुदेव की सेवा में उपस्थित किया। गुरुदेव ने उसे फिर से दीक्षित किया। अरणक ने पुनः दीक्षा लेकर अपने जीवन को धन्य बना दिया । एक दिन अरणक ने गुरुदेव से कहा- "हे गुरुदेव ! जिस धूप ने मेरा पतन किया, उसीसे मैं अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहता हूं।" ऐसा कहकर उसने प्रीष्म ऋतु की कड़कड़ाती धूप में जलती हुई शिलापट्ट पर अपनी देह रख अनशन कर लिया और समभाव से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ समाधि-मरण कर देवलोक को प्राप्त हुआ । कथा – २५ * जिनरिख - जिनपाल [ इसका सम्बन्ध ढाल ७ गाथा १० ( पृ० ४१ ) के साथ है ] चम्पानगरी में माकन्दी नामका सार्थवाह रहता था। उसके जिनरिख और जिनपाल नामक दो पुत्र थे। उन दोनों भाइयों ने ग्यारह बार लवण समुद्र में यात्रा कर बहुत सा धन कमाया। माता-पिता के मना करने पर भी वे दोनों समुद्र में बारहवीं बार यात्रा करने के लिए रवाना हुए। समुद्र के बीच में जहाज तूफान से नष्ट हो गया । जहाज की टूटी हुई पतवार उन दोनों भाइयों के हाथ लगी। उस पर बैठ कर दोनों तैरते हुए रत्न द्वीप में जा पहुँचे। उस द्वीप की स्वामिनी रयणा देवी ने उन्हें देखा। वह कहने लगी "तुम मैं तुम्हें मार दूंगी।" इस प्रकार देवी के भयप्रद वचनों को उसके साथ काम भोग भोगते हुए रहने लगे ।" दोनों मेरे साथ काम भोगों को सुनकर दोनों भाइयों ने उसकी भोगते हुए वहीं रहो, अन्यथा बात स्वीकार कर ली और एक समय लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित देव ने रयणा देवी को लवण समुद्र की इक्कीस बार परिक्रमा करके तृण, पर्ण, काष्ठ, कचरा, अशुचि आदि को साफ करने की आज्ञा दी। उस देवी ने दोनों भाइयों से कहा- देवानुप्रियो ! जब तक मैं वापस लौटकर आऊँ तबतक तुम यहीं पर आनन्द पूर्वक रहो । यदि इच्छा हो तो पूर्व और उत्तर दिशा के वनखण्ड में जा सकते हो, किन्तु दक्षिण दिशा की तरफ मत जाना। वहां पर एक भयंकर विषधर सर्प रहता है, जो तुम्हारा विनाश कर डालेगा।" यह कह देवी चली गई । दोनों भाई पूर्व, पश्चिम, उत्तर दिशा के वन खण्डों में घूमते रहे। एक दिन उनकी दक्षिण दिशा की तरफ भी जाने की इच्छा हुई और वे दोनों उस दिशा की ओर निकल पड़े। कुछ दूर जानेपर उस दिशा से भयङ्कर दुर्गन्ध आने १- ज्ञाता सूत्र के ९ वें अध्याय के आधार पर Scanned by CamScanner Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-क : कथा और दृष्टान्त १११ लगी। उन्होंने आगे जाकर देखा तो सैकड़ों मनुष्यों की हड़ियां एवं खोपड़ियों का ढेर लगा हुआ था। पास में शूली पर लटकता हुआ एक पुरुष कराह रहा था। यह हाल देख दोनों भाई घवरा गये और शूली पर लटकते हुए पुरुप से सारा वृत्तान्त पूछा। उसने कहा-"मैं भी तुम्हारी ही तरह जहाज के टूट जाने पर यहां आ पहुँचा था। में काकन्दी नगरी का रहनेवाला घोड़ों का व्यापारी हूँ। पहले देवी मेरे साथ भोग भोगती रही। एक समय एक छोटे से अपराध के हो जाने पर कुपित होकर इसने मुझे यह दण्ड दिया है। न मालूम यह देवी तम्हें किस समय और किस ढंग से मार देगी । इसने पहले भी कई मनुष्यों को मार कर यह हड्डियों का ढेर कर रखा है।" दोनों भाइयों ने जब शूली पर लटकते हुए पुरुष की ये बातें सुनी तो वे त्राण का उपाय पूछने लगे। उस पुरुष ने कहा "पूर्व दिशा के वन खण्ड में शैलक नामका एक यक्ष रहता है। उसकी पूजा करने से वह प्रसन्न होकर तुम्हें देवी के फन्दे से छुड़ा देगा।" यह सुनकर दोनों भाई यक्ष के पास आकर उसकी स्तुति करने लगे और देवी के फन्दे से छुटकारा पाने की प्रार्थना करने लगे। _यक्ष उनकी स्तुति से प्रसन्न हुआ और बोला-"तुम निर्भय रहो। मैं तुम्हें इच्छित स्थान पर पहुँचा दूंगा। किन्तु मार्ग में देवी आकर अनेक प्रकार के हाव-भाव करके अनुकूल प्रतिकूल वचन कहती हुई परिषह-उपसर्ग देगी। यदि तुम उसके कहने में आकर उस पर आसक्त हो जावोगे तो मैं तुम्हें मार्ग में ही समुद्र में फेंक दूंगा।" यक्ष की इस शर्त को दोनों भाइयों ने मान लिया। यच अश्व का रूप बना, दोनों भाइयों को अपनी पीठ पर बिठला, आकाश मार्ग से चला .. इतने में वह देवी आ पहुँची । देवी ने उनको वहाँ न देखा तो अवधि-ज्ञान से जान लिया कि वे दोनों भाई शैलक यक्ष के पीठ पर जा रहे हैं। वह शीघ्र वहां आई और अनेक प्रकार के हाव-भाव से अनुकूल प्रतिकूल वचन कहती हुई, करुण विलाप करने लगी। जिनपाल ने उसके वचन पर कोई ध्यान नहीं दिया। किन्तु जिनरिख उसके वचनों में फंस गया, वह उस पर मोहित होकर, प्रेम के साथ रयणा देवी को देखने लगा। जिससे यक्ष ने जिनरिख को अपनी पीठ से नीचे फेंक दिया। नीचे गिरते ही जिनरिख को रयणादेवी ने शूली में पिरो दिया और बहुत कष्ट देकर उसे प्राणरहित करके समुद्र में फेंक दिया। जिनपाल देवी के वचनों में नहीं फंसा। इसलिए यक्ष ने आनन्द पूर्वक उसको चम्पा नगरी पहुंचा दिया। वहां पहुंच कर जिनपाल अपने माता-पिता से मिला। कई वर्षों तक सांसारिक सुखों को भोग कर दीक्षा धारण की। वर्षों तक संयम पालनकर वह सौधर्म देवलोक में गया, वहाँ से महाविदेह में जन्म लेकर सिद्ध-पद को प्राप्त करेगा। Scanned by CamScanner Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा - २६ : Tagged and we fra Os TARTU BENE Page TH विष मिश्रित छाछ [ इसका सम्बन्ध ढाल ७ गाथा १३ ( पृ० ४२ ) के साथ है ] पार व्यापारी थे। वे बाहर घूम घूम कर व्यापार करते थे। किसी समय एक गाँव में पहुंचे वहाँ एक वृद्धा रहती थी। वह बाहर के लोगों को खाना और निवास देती थी और उसीसे वह अपनी आजीविका चलाती थी । वे चारों व्यापारी उसी वृद्धा के यहाँ पहुँचे और रात्रि का निवास भी उसीके यहाँ रक्खा । व्यापारियों को जाने की जल्दी थी, अतः सूर्योदय के पूर्व ही भोजन बनाने के लिए कहा। वृद्धा रात्रि में जल्दी उठी और अन्धेरे में दही को एक हाँड़ी में Antard लगी । जिस वरतन में वह दही मथ रही थी उसमें पहले ही से एक काला सर्प बैठा हुआ था । बुढ़िया ने ध्यान नहीं दिया और दही के साथ उसे भी मध डाला। सारी छाछ वियमयी हो गयी वृद्धा ने व्यापारियों को भोजन करा उन्हें विपमयी छाछ पीने के लिए दे दी । व्यापारियों ने वह छाछ पी ली और वहाँ से प्रस्थान कर दिया । प्रातः हुआ। अब बुढ़िया ने खाने के लिए वर्तन में से छाछ निकाली और देखा तो उसमें साँप के टुकड़े नजर आये। वह स्तब्ध हो गई। सोचा वे विचारे व्यापारी इस विषमयी छाछ को पीकर अवश्य मर गये होंगे। उसे बहुत पश्चाताप हुआ। Tro कालान्तर में वे व्यापारी घूमते घूमते पुनः उसी गाँव में उसी वृद्धा के यहाँ आये। वृद्धा ने उनको देखा और बहुत 'आश्चर्य चकित हो गई। वृद्धा ने कहा - " आप लोग जीवित हैं, यह जानकर मुझे अपार हर्ष हो रहा है। मैं तो यह दिन रात सोचती थी कि मेरी गलती से आप लोग अवश्य ही मर गये होंगे। किन्तु अचानक आप लोगों को जीवित देखकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है।" वृद्धा की बात सुनकर व्यापारी कहने लगे - "माँ जी ! आप यह क्या कह रही है ? हम लोग आपकी बात का कुछ भी मतलब नहीं समझ सके ।” तव वृद्धा ने कहा- “बेटा ! आप लोग कुछ दिन पूर्व जब मेरे यहाँ ठहरे थे तब मैंने आप को मट्ठा पिलाया था। उसमें एक काला साँप मरा हुआ था। वह छाछ साँप के जहर बाली थी उसे पीकर भी आप जीवित हैं यस इसी का मुझे आश्चर्य है।" वृद्धा की बातें सुनते ही चारों व्यापारी चौंक पड़े। सर्प के जहर पीने की बात बार-बार उन्हें याद आने लगी। उनको अपने प्राण संकट में दिखाई देने लगे। मन की जो स्थिति हुई उससे उनके शरीर में विष व्याप्त हो गया और वे चारों मृत्यु को प्राप्त हुए। आ Scanned by CamScanner Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-२७: सर्पदंश [इसका सम्वन्ध दाल ७ गाथा १२ (पृ०४२) के साथ है] किसी ग्राम में दो भाई रहते थे। वे किसान थे। एक दिन वे घास काटने के लिये खेत में गये। बड़ा भाई एक वृक्ष की छाया में आराम करने लगा और छोटा घास काटने में लग गया। घास में से एक सर्प निकला और उसने उस छोटे भाई को डंस लिया। वह घास काटने में इतना तल्लीन था कि उसे इसका कुछ भी पता न चला। बड़ा भाई वृक्ष के तले से यह दृश्य देख रहा था। ॐ कुछ समय के बाद, घास काट चुकने पर, छोटा भाई भी वृक्ष की छाया में आराम करने के लिये आया और घास का गट्ठर रखकर बैठ गया। उसके पैर से खून बह रहा था। बड़े भाई ने उससे खून बहने का कारण पूछा। उसने कहा, "भाई ! मुझे कुछ भी मालूम नहीं। सम्भवः है कि किसी जन्तु ने काट लिया हो, या खरोंच आ गयी हो।" बड़े भाई ने सर्पदंश की बात उससे छिपा ली। वे दोनों घर लौट आये और सुखपूर्वक निवास करने लगे। 3 कालान्तर में, एक दिन दोनों घर पर बैठे, बड़े आनन्द से, गप्पें लड़ा रहे थे। बातों ही बातों में बड़े भाई ने छोटे भाई से सर्पदंश की घटना कही। छोटा भाई घबरा गया और वह बारबार सर्प-दंश का स्मरण करने लगा। वह इस घटना से इतना चिन्तित हो गया कि वह मूच्छित होकर गिर पड़ा और तत्क्षण उसकी मृत्यु.हो गयी। जब तक किसान को सर्प-दंश की जानकारी न थी, वह स्वस्थ था, परन्तु ज्योंही उससे सर्प-दंश की बात कही गयी त्योंही उसका शरीर विप से व्याप्त हो गया और वह मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार भुक्त काम भोगों के स्मरण करने से वासना रूपी विष शरीर में व्याप्त हो जाता है और ब्रह्मचर्य का भङ्ग हो जाता है। कथा-२८. भूदेव ब्राह्मण . . [इसका सम्बन्ध ढाल ७ गाथा ९ (पृ०४७ ) के साथ है ] ..एक समय पूर्व परिचित भूदेव नामक ब्राह्मण ने ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती से आग्रह किया कि आप जो भोजन करते हैं, वह भोजन एक दिन हमें भी करवाया जाय। बाणका अत्यधिक आग्रह देख चक्रवर्ती ने समस्त ब्राह्मण परिवार को खीर का भोजन करवाया। उस भोजन से ब्राह्मण को उन्माद चढ गया और उसने रात्रि में स्त्री, पुत्री, बहन व माता के साथ अकार्य किया। जब उन्माद उतरा तो उसे बहुत पश्चाताप हुआ। अतः ब्रह्मचारी को कामोत्तेजक षड्रस भोजन का सेवन नहीं करना चाहिए। १-निशीथ सूत्र अ०२ के आधार पर २६ . Scanned by CamScanner Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-२६ आचार्य मंगू [इसका सम्बन्ध ढाल ७ गाथा १० (पृ०४७) के साथ है ] एक समय मंगू नामक आचार्य मथुरा नगर में पधारे। वहाँ के श्रावक धर्मनिष्ठ एवं मुनियों के प्रति अगाध श्रद्धालु थे। आचार्य मंगू पूर्ण विद्वान थे। उनकी वाणी में सरस्वती निवास करती थी। वे आचार-विचार में सब तरह से उच्च थे। उन्होंने वहीं रहकर अध्ययन, पठन-पाठन शुरू कर दिया। आचार्य के आचार और व्यवहार से श्रावकगण अत्यन्त प्रभावित थे। वे भक्तिवश उनकी भरपूर सेवा करते और उन्हें नित्य सरस आहार तथा विविध प्रकार के पकवान दिया करते थे। आचार्य मंगू की रस-गृद्धि बढ़ गई। वे सोचने लगे "अगर मैं अन्य छोटे बड़े गांवों में विचरण करूँगा, तो ऐसा सरस आहार प्रतिदिन नहीं मिल सकेगा। यहां के श्रावक भी अत्यन्त श्रद्धालु हैं; मेरी अत्यधिक भक्ति करते हैं, अतः मुझे यहीं रहना चाहिए।" ऐसा सोच वे स्थिर भाव से वहीं रहने लगे। गृहस्थों के साथ उनका परिचय और भी गाढ़ा होता गया। नित्य सरस आहार सेवन से उनकी रस-गृद्धि बढ़ने लगी। वे आचार को, यानी पवित्र साधु-जीवन को, भूल गए। साधु की नित्य क्रियाएँ छोड़ दी। उन्हें यह भी अभिमान होने लगा कि मुझे सरस तथा अलभ्य मिष्टान्न रोज मिलते हैं। इस प्रकार वे रस गौरव से युक्त हो गए। अब वे सरस तथा विषय वर्द्धक आहार प्राप्ति के कारण मूलगुणों में दोष लगाने लगे। चिरकाल तक सरस आहार का सेवन कर वे विना आलोचना ही मरकर उसी नगर के यक्षालय में यक्ष बने। यक्ष ने विभंग ज्ञान से पूर्व-भव देखा और बहुत पश्चाताप करने लगा। उसने सोचा, “मेरी स्वादलोलुपता ने ही आज मेरी ऐसी दुर्गति की है।" वह यक्ष जब अपने पूर्वभव के शिष्य थंडिल को जाते हुए देखता तब उसे जिह्वा दिखाता। एक दिन साहस कर शिष्य ने यक्ष से पूछा "तुम अपनी जिह्वा क्यों बाहर निकाल रहे हो ?” यक्ष ने कहा "मैं तुम्हारा आचार्य मंगू हूँ। जिह्वा-स्वाद में पड़कर मेरी ऐसी दुर्गति हुई है। मैंने परमोच्च जिन-धर्म को पाकर भी रस-गृद्धि के कारण उसकी सम्यक आराधना नहीं की। यही मेरी दुर्गति का एकमात्र कारण है। अतः तुम सब भी परमोच्च जिनधर्म को प्राप्त कर स्वाद लंपट मत बनना। अगर तुम लोग भी जिह्वा के स्वादवश पथ-विचलित हुए तो मेरी तरह ही तुम्हारी भी दुर्गति होगी।" इस प्रकार शिष्यों को रस-गृद्धि का दुष्परिणाम बता वह यक्ष अदृश्य हो गया। १-उपदेशमाला के आधार पर Scanned by CamScanner Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजर्षि शैलक । [इसका सम्वन्ध दाल ७ गाथा ११ (पृ० ४७ ) के साथ है ] - उस समय शेलकपुर नाम का एक नगर था। वहां शैलक नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी का नाम पद्मावती और पुत्र का नाम मण्डूक था। उसके पंथक आदि पांच सौ मंत्री थे। वे चारों बुद्धि के निधान एवं राज्यधुरा के चिन्तक थे। एक समय थावच्चा अनगार एक सहस्र शिष्य परिवार के साथ नगर के बाहर सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। जनता दर्शन करने को गई। महाराजा शैलक भी अपने पांच सौ मन्त्रियों के साथ दर्शन करने गया। अनगार का उपदेश सुन उसने पांच सौ मंत्रियों के साथ श्रावक के बारह व्रत प्रहण किये। थावच्चा अनगार ने वहां से बाहर जनपद में विहार कर दिया। किसी समय थावच्चा अनगार के शिष्य शुक अनगार अपने सहस्र शिष्य परिवार के साथ शैलकपुर नगर पधारे। महाराजा शैलक भी मन्त्रियों के साथ उनका उपदेश सुनने गया। उपदेश सुनने के बाद शैलक महाराजा शुक अनगार से बोला- भगवन् ! मैं अपने पुत्र मण्डूक को राज्यगद्दी पर स्थापित कर आप के पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूं।" अनगार बोले-"राजन् ! तुम्हें जैसे सुख हो वैसा करो।” महाराजा घर आया और पांच सौ मंत्रियों को बुला प्रव्रज्या ग्रहण करने की इच्छा प्रगट की। मंत्रियों ने भी महाराजा शैलक के साथ दीक्षा लेने का निश्चय प्रकट किया। पश्चात् महाराजा शैलक ने अपने पुत्र को राजगद्दी पर स्थापित कर पांच सौ मंत्रियों के साथ शुक अनगार के पास दीक्षा ग्रहण की। शैलक राजर्षि ने सामायिकादि अंग उपांगों का अध्ययन किया। शुक अनगार ने पांच सौ अनगारों को उन्हें शिष्य के रूप में दे उन्हें स्वतंत्र विहार करने की आज्ञा दी। शैलक राजर्षि पंथक आदि पांच सौ अनगारों के साथ प्रामानुग्राम विचरने लगे। शैलक राजर्षि अंत, प्रांत, तुच्छ, लुक्ष, अरस, विरस, शीत, उष्ण, कालातिक्रान्त, प्रमाणातिक्रान्त आहार का नित्य सेवन करते। प्रकृति से सुकोमल एवं सुखोपचित होने के कारण ऐसे आहार से उनके शरीर में उज्वल, असह्य वेदना उत्पन्न करने वाले पित्तदाह, कण्डु-खुजली, ज्वर जैसे रोगातक उत्पन्न हो गये। इससे उनका शरीर सूख गया। वे प्रामानुप्राम विचरण करते शैलकपुर नगर के बाहर सुभूमिभाग उद्यान में पधारे। महाराजा मण्डक भी अनगार के दर्शन करने के लिए उद्यान में गया। वहां उन्हें वन्दना कर उनकी पर्युपासना करने लगा। मण्डूक महाराज ने शैलक अनगार के शरीर को अत्यन्त सूखा हुआ एवं रोग से पीड़ित देखा। यह देखकर वह बोला- भगवन् ! मैं आप के शरीर को सरोग देख रहा हूँ। आपका सारा शरीर सूख गया है, अतः मैं आपकी, योग्य चिकित्सकों से, साधु के योग्य औषध भेषज तथा उचित खान-पान द्वारा, चिकित्सा करवाना चाहता हूं। आप मेरी यानशाला में पधारें। वहाँ प्रासुक-एषणीय पीठ, फलक, शैय्या, संस्तारक ग्रहण कर ठहरें। राजर्षि ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की और दूसरे दिन प्रातः पांच सौ अनगारों के समूह के साथ राजा की यान-शाला में पधारे। वहां यथायोग्य एषणीय पीठ, फलक आदि को ग्रहण कर रहने लगे। राजा मण्डूक ने चिकित्सकों को बुलाकर शैलक राजर्षि की चिकित्सा करने की आज्ञा दी। चिकित्सकों ने विविध प्रकार की चिकित्सा की। चिकित्सा और अच्छे खान-पान से उनका रोग शान्त हुआ और शरीर पुनः हट-पुष्ट हो गया। -भातासूत्र अ०५के आधार पर Scanned by CamScanner Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नब बाढ़ रोग के शान्त होने पर भी शैलक राजपिं विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तथा मद्यपान में मूच्छित, गृद्ध एवं तद्रूप अध्यवसाय वाले हो गये। अवसन्न, अवसन्न- बिहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-बिहारी, कुशील, कुशील-विहारी, प्रमत्त, प्रमत्त-विहारी, संसक्त, संसक्त-विहारी एवं ऋतु-बद्ध ( शेष काल में भी पीठ, फलक, शैय्या संस्तारक को भोगने वाले ) प्रमादी हो रहने लगे। इस तरह वे जनपद विहार से विहरने में असमर्थ हो गये। एक दिन पंथक अनगार के सिवा अन्य ४६६ अनगार एकत्र हो परस्पर इस प्रकार विचार करने लगे निश्चयतः शैलक राजर्षि ने राज्य का परित्याग कर प्रक्रश्या महण की है किन्तु वे इस समय विपुल अशन, पान, खाद्य एवं मद्यपान में आसक्त हो गये हैं। वे जनपद विहार भी नहीं करना चाहते। साधु को इस प्रकार प्रमत्त होकर रहना नहीं कल्पता । अतः हमलोगों के लिए, प्रातः होने पर शैलक राजर्षि की आज्ञा ले प्रातिहारिक पीठ, फलग आदि को वापिस कर पन्यक अनगार को उनके वैयावृत्य में रख, विहार करना श्रेयस्कर है। इस प्रकार विचार कर प्रातः शैलक की आज्ञा ले ४६६ अनगारों ने बाहर जनपद में विहार कर दिया । एक बार शैलक कार्तिक चातुर्मास के दिन विपुल अशन, पान, खाद्य, और स्वाद का आहार और भरपूर मद्यपान कर पूर्वाह के समय सुखपूर्वक सो गये। पत्थक अनगार ने चातुर्मासिक कार्योत्सर्ग कर दिवस सम्बन्धी प्रतिक्रमण और चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की इच्छा से शैलक राजर्षि को समाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों का स्पर्श किया। शैलक पत्थक अनगार के पाद स्पर्श से "अत्यन्त कुद्ध हो उठे और बोले—“फिस निर्लज ने मेरा पाद-स्पर्श किया है !" पन्धक विनय पूर्वक बोला "भगवन्! में पन्थक हूं। मैंने चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में आप देवानुप्रिय को खमाने + के लिए मस्तक से आपके चरण-स्पर्श किये हैं। आप मुझे क्षमा करें। मैं पुनः ऐसा अपराध नहीं करूंगा ।" पथक अनगार की बातें सुन शैलक राजर्षि के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ - " मैं राज्य का परित्याग कर अनगार बना हूं। मुझे अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ - विहारी बनकर रहना नहीं कल्पता । अतः मैं प्रातः मण्डूक राजा से पूछकर विहार कर दूंगा ।" शैलक राजर्षि ने प्रातः पत्थक अनगार को साथ ले विहार कर दिया। अन्य अनगारों ने जब यह सुना कि शैलक राजर्षि ने जनपद विहार किया है तो वे भी आकर उनसे मिल गये और उनकी पर्युपासना करने लगे । जम चित पडद for ਇਹ to fe ए P ok hey #vg www.as yu कि মম সত র का फ desiprone bo ya ku अधिदे Scanned by CamScanner Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कथा-३१: पुण्डरीफ-कुण्डरीक कथा ' [ इसका सम्बन्ध टाल ९ गाथा ३६ (१० ५६ ) के साथ है ] पूर्व महाविदेह के पुष्पकलावती विजय में पुण्डरीकिनी नामक नगरी थी। उसमें महापद्म नामक राजा राज्य करता था। उसके पुण्डरीक और कुण्डरीक नाम के दो पुत्र थे। महापद्म ने अपने ज्येष्ठ पुत्र कुण्डरीक को राजगद्दी पर बैठाकर पुण्डरीक को युवराज वनाया और स्वयं धर्मघोप आचार्य से प्रव्रज्या ग्रहण कर तप संयम में विचरने लगे। एक समय महापद्म मुनि विचरण करते हुए पुण्डरीक नगर में पधारे। उनकी वाणी सुनकर पुण्डरीक ने श्रावक के बारह व्रत धारण किये और कुण्डरीक ने दीक्षा ग्रहण कर ली। कुण्डरीक मुनि प्रामानुप्राम विहार करने लगे। अन्तप्रान्त और रूक्ष आहार करने से उनके शरीर में दाह ज्वर उत्पन्न हुआ। विहार करते हुए वे पुण्डरीक नगरी पधारे। पुण्डरीक राजा ने मुनि की चिकित्सा करवाई, जिससे पुनः स्वस्थ हो गये। उनके स्वस्थ हो जाने पर साथवाले मुनि तो विहार कर गये किन्तु कुण्डरीक वहीं रह गए। उनके आचार-विचार में शिथिलता आगई। यह देखकर पुण्डरीक राजा ने मुनि को समझाया। बहुत समझाने से मुनि वहाँ से विहार कर गये। कुछ समय तक स्थविरों के साथ विहार करते रहे किन्तु बाद में शिथिल होकर पुनः अकेले हो गये और विहार करते हुए पुण्डरीक नगर आ गये। राजा ने मुनि को पुनः समझाया किन्तु उन्होंने एक भी न सुनी और राजगद्दी लेकर भोग भोगने की इच्छा प्रकट की। पुण्डरीक ने कुण्डरीक के लिए राजगद्दी छोड़ दी और स्वयं पंच मुष्टि लोचकर प्रव्रज्या ग्रहण की। 'भगवान् को वन्दन-नमस्कार के पश्चात् ही मैं आहार पानी ग्रहण करूँगा'-ऐसा कठोर अभिप्रह लेकर पुण्डरीक ने वहां से विहार किया। प्रामानुप्राम विचरण करते हुए भगवान् की सेवा में पहुंचे। उनके पास पहुंच उन्होंने पंच महाव्रत ग्रहण किये । स्वाध्याय-ध्यान से निवृत्त होकर पुण्डरीक मनि आहार के लिए निकले। ऊँच-नीच-मध्यम कुलों में पर्यटन करते हुए निर्दोप आहार प्राप्त किया। आहार स्क्ष अन्त-प्रान्त होने पर भी उन्होंने उसे शान्त भाव से खाया जिससे उनके शरीर में दाह-ज्वर की बीमारी हो गई। अर्घरात्रि के समय उनके शरीर में तीव्र वेदना हुई। आत्म-आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर उन्होंने संथारा ग्रहण किया। इस तरह बड़े शान्त भाव से उन्होंने देह को छोड़ा। मरकर वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। कालान्तर में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध गति को प्राप्त करेंगे। उधर राजगद्दी पर बैठकर कुण्डरीक कामभोगों में आसक्त होकर अति पुष्ट और कामोत्तेजक पदार्थों का अतिमात्रा में सेवन करने लगा। वह आहार उसे पचा नहीं। अर्घ रात्रि के समय उसके भी शरीर में तीत्र वेदना होने लगी। आर्त रौद्र ध्यान युक्त मरकर वह सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। परिणाम से अधिक आहार करनेवाले की ऐसी ही अधोगति होती है। अतः परिमाण से अधिक आहार नहीं करना चाहिए। १-शातासूत्र अ०१९ के आधार पर Scanned by CamScanner Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-ख आगमिक आधार Scanned by CamScanner Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार-१: बम्भचेरसमाहिठाणा ... ' [ उत्तराध्ययन अ० १६] [इस ग्रंथ के प्रणेता आचार्य भिखणजी ने दो स्थलों पर स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है कि उनकी इस कति का आधार उत्तराध्ययन का १६ वा अध्ययन 'ब्रह्मचर्यसमाधि स्थानक' है। टिप्पणियों में इस अध्ययन के कतिपय अंश यथास्थान सानुवाद दिये गये हैं। पाठकों की जानकारी के लिए समूचा अध्ययन यहाँ उदत किया आता है।] सुयं मे आउसं तेणं भगवया एवमक्खायं । इह खलु थेरेहिं भगवन्तेहिं दस यम्भचेरसमाहिठाणा पन्नत्ता जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिन्दिए गुत्तयम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा । कयरे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहि दस वम्भरसमाहिठाणा पन्नत्ता जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरबहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिन्दिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा। इमे खलु ते थेरेहिं भगवन्तेहिं दस बम्भचेरठाणा पन्नत्ता जे भिक्खू सोच्चा निसम्म संजमबहुले संवरवहुले समाहिबहुले गुत्ते गुत्तिन्दिए गुत्तवम्भयारी सया अप्पमत्ते विहरेजा। तं जहा-विवित्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गन्थे। नो इत्थीपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गन्थे। तं कहमिति चे। आयरियाह । निग्गन्थस्स खलु इत्थिपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपन्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा नो इत्थिपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवित्ता हवइ से निग्गन्थे ।। १ ।। नो इत्थीणं कहं कहित्ता हवइ से निग्गन्थे। तं कहमिति चे। आयरियाह। निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं कह कहे माणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायक हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा नो इत्थीणं कह कहेज्जा ॥२॥ नो इत्थीणं सद्धि सन्निसेज्जागए विहरित्ता हवइ से निग्गन्थे। तं कहमिति चे। आयरियाह। निग्गन्थरस खल पुत्थीहि सद्धि सन्निसेज्जागयस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायंक हवेज्जा केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा। तम्हा खल नो निगंथे इत्थीहि सद्धिं सन्निसेज्जागए विहरेज्जा ॥३॥ नो इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोइत्ता निज्माइत्ता हवइ से निग्गन्थे । तं कहमिति चे। आयरियाह। निग्गन्थस्स खलु इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएमाणस्स निज्मायमाणस्स बम्भयारिस्स वम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीकालियं वा रोगायकं हवेज्जा केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा। तंम्हा खलु नों निग्गन्थे इत्थीणं इन्दियाई मणोहराई मणोरमाई आलोएज्जा निज्माएज्जा ॥४॥ ma n ity .. नो इत्थीणं कुइन्तरंसि वा दूसन्तरंसि वा भित्तन्तरंसि वा कूइयसई वा रुइयंसई वा गीयसई वा हसियसदं वा थणियसा वा कन्दियसह वा विलवियसई वा सुणेत्ता हवा से निग्गन्थे। तं कहमिति चे। आयरियाह। निग्गन्थस्स खल इत्थीणं कान्तरंसि वा सन्तरंसि वा भित्तन्तरंसि वा कूइयसई वा रुइयसई वा गीयसई वा हसियसई वा थणियसह वा कवियसा वा विलवियसई वा सुणेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपजिजा भेदं वा Scanned by CamScanner Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शील की नव बाड़ १२२ लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालिय वा रोगायकं हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे इत्थीणं कुडुन्तरंसि वा दूसन्तरंसि वा भित्तन्तरंसि वा कुइयसद्दं वा रुइयसद्दं वा गीयसद्दं वा हसियसद्दं वा थणियसद्दं वा कन्दिय सद्दं वा विलवियसद्दं वा सुणेमाणे विहरेज्जा ॥ ५ ॥ नोनिग्गन्थे पुन्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरित्ता हवाइ से निग्गन्थे । तं कह मिति चे । आयरियाह । निग्गन्थस्स खलु पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाणिना दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे पुव्वरयं पुव्वकीलियं अणुसरेज्जा ॥ ६ ॥ नो पणीयं आहारं आहरित्ता हवइ से निग्गन्थे । तं कहमिति चे । आयरियाह । निग्गन्थस्स खलु पणीयं आहारं आहारेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा केवलिपन्नताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निम्गन्थे पणीयंआहारं आहारेज्जा ॥ ७ ॥ नो अइमायाए पाणभोयणं आहारेत्ता हवइ से निग्गन्थे । तं कमिति चे । आयरियाह । निग्गन्थस्स खलु अइमायाए पाणभोयणं आहारेमाणस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोयायकं हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे अइमायाए पाणभोयणं आहारेज्जा ।। ८ ।।।। www.kos नो विभूसाणुवादी हवइ से निग्गन्थे । तं कहमिति चे । आयरियाह । विभूसावत्तिए विभूसिय सरीरे इत्थिजणस्स अभिलसणिज्जे हवइ । तओ णं इत्थिजणेणं अभिलसिज्जमाणस्स बम्भचेरे संका वा कखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाउणिज्जा दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो निग्गन्थे विभूसाणुवादी हविज्जा ॥ ६ ॥ नो सद्दरूवरसगन्धफासाणुवादी हवइ से निग्गन्थे । तं कहमिति चे । आयरियाह । निग्गन्थस्स खलु सहरूवगन्ध फासाणुवादिस्स बम्भयारिस्स बम्भचेरे संका वा कंखा वा विइगिच्छा वा समुपज्जिज्जा भेदं वा लभेज्जा उम्मायं वा पाडणिज्जा दीहकालियं वा रोगायकं हवेज्जा केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भंसेज्जा । तम्हा खलु नो सहरूवरसगन्धफासाणुवादी भवेज्जा से निग्गन्थे । दुसमे बम्भचेरसमाहिठाणे हवइ ।। १० ।। भवन्ति इत्थ सिलोगा । तं जहा - जं विवित्तमणाइणं रहियं इत्थिजणेण य । बिम्भचेरस्स रक्खट्ठा आलयं तु निसेव ॥ १ ॥ मणपल्हा यजणणी कामरागविवणी | धम्मचेररओ भिक्खू थीकहं तु विवज्जए ॥ २ ॥ समं च संथवं थीहिं संकहं च अभिक्खणं । बम्भवेररओ भिक्खू निश्चसो परिवज्जए ॥ ३ ॥ अंगपच्चंग संठाणं चारुल्लवियपेहियं । - tri यदि म आप बम्भचेर रओ थीणं चक्खुगिज्मं विवज्जए ॥ ४ ॥ कूश्यं रुइयं गीयं हसियं थणियकन्दियं । बम्भचेररओ थीणं सोयगेज्मं विवज्जए ॥ ५ ॥ न आ Scanned by CamScanner Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-ख: आगमिक आधार:१ - हासं किई रइंदणं सहसावित्तासियाणि य । बम्भचेररओ थीणं नानुचिन्ते कयाइ वि॥६॥ पणीयं भत्तपाणं तु खिप्पं मयविवढणं । वम्भचेररओ भिक्खू निचसो परिवजए ॥ ७॥ धम्मलद्धं मियं काले जत्तत्यं पणिहाणवं । नाइमत्तं तु मुंजेजा बम्भचेररओ सया ॥८॥ विभूसं परिवज्जेज्जा सरीर परिमण्डणं । बम्भचेररओ भिक्खू सिगारत्यं न धारए ॥६॥ सद्दे रूवे य गन्धे य रसे फासे तहेव य । पंचविहे कामगुणे निश्चसो परिवज्जए ॥ १०॥ आलओ थीजणाइण्णो थीकहा य मणोरमा । संथवो चेव नारीणं तासि इन्दियदरिसणं ॥ ११ ॥ कूइयं रुइयं गीयं हासभुत्तासियाणि य। पणीयं भत्तपाणं च अइमायं पाणभोयणं ।। १२ ।। गत्तभूसणमिट्टच काम भोगा य दुज्जया। नरस्सत्तगवेसिस्स विसं तालउडं जहा ।। १३ ॥ दुज्जए काम भोगे य निच्चसो परिवज्जए।.. . संकाथाणाणि सव्वाणि वज्जज्जा पणिहाणवं ॥ १४ ॥..... धम्माराम चरे भिक्खू धिइमं धम्मसारही। धम्मारामरते दन्ते बम्भचेरसमाहिए ।। १५ ।। .., देव दाणव गन्धव्वा जक्खरक्खस्स किन्नरा।.. बम्भयारि नमंसन्ति दुक्करं जे करन्ति तं ॥१६॥ एस धम्मे धुवे निच्चे सासए जिणदेसिए । सिद्धा सिज्झन्ति चाणेण सिज्मिस्सन्ति तहावरे ।। १७ ॥ र त्ति बमि ।। tv Scanned by CamScanner Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधार - २ : पमायड्डाणं [ उत्तराध्ययन अ० ३२ ] [ उत्तराध्ययन' के १६ वें अध्ययन के अतिरिक्त उत्त० अ० ३२ तथा दशवैकालिक अ० ८ में भी शीलसमाधि के स्थानकों का विवरण है। सम्बंधित स्थलों को उद्धृत किया जाता है। ] रसा पगामं न निसेवियन्वा पायं रसा दित्तिकरा नराणं । दित्तं च कामा समभिद्दवन्ति दुमं जहा साउफलं व पक्खी ॥ १० ॥ जहा दबग्गी परिन्धणे वणे समारुओ नोवसमं उबेइ । एविन्दियग्गी विपगाम भोइणो न बम्भवारिस्स हियाय करसई ॥ ११ ॥ विवित्तसेज्जा सणजन्तियाणं ओमासणाणं दमिइन्दियाणं । न रागसत्तू घरिसेइ चित्तं पराइयो बाहिरियोसहि ॥ १२ ॥ जहा बिराला सहस्स मूले न मूसगाणं वसही पत्था । एमेव इत्थीनियस मज्झे न बम्भवारिस्स समो निवासो ।। १३ । न रूवलावण्णविलासहार्स न जपियं इगियपेहियं वा । इत्थीण चित्तंसि निवेसइत्ता दटुं ववस्से समणे तवस्सी ॥ १४ ॥ अदंसणं चेव अपत्थणं च अचिन्त थेव अकित्तणं च । इत्थीजणस्सारियकाणां हियं सया बम्भवए रयाणं ।। १५ ।। कामं तु देवीहि विभूसियाहिं न चाइया वो भइउं तिगुत्ता । तहा वि एगन्तदियं ति नया विवित्तवासो मुणिणं पसत्थो ।। १६ ।। मोक्खाभिकंखिरस व माणवस्त संसारभीरुस्स ठिवस्स धम्मे । नेयारिसं दुत्तरमत्थि लोए जहित्यिओ बालमणोहराओ ।। १७ ।। एए य संगे समइक्कमित्ता सुदुत्तरा चेव भवन्ति सेसा । जहा महासागरमुत्तरिता नई भने अवि गंगासमाणा ॥ १८ ॥ कामाणुगिद्धिप्यभवं खु दुक्खं सम्वरस लोगस्स सदेवगस्स । जं फाइयं माणसियं च किचि तरसन्तगं गच्छ बीयरागो ।। १६ ।। जाय किंपागफला मणोरमा रसेण वण्णेण य भुज्जमाणा खुड्डूए जीविय पञ्चमाणा एओवमा कामगुणा विवागे ॥ २० ॥ जे इन्द्रियाणं विसया मणुन्ना न तेसुरभावं निसिरे कयाइ । 1 ते न यामणुन्नेसु मर्ण पि कुज्जा समाहिकामे समणे तवस्सी ॥ २१ ॥ Scanned by CamScanner Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट श्री जिनहर्ष रचित प्रीलं की नय याद A .. Scanned by CamScanner Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जिनहर्ष रचित शील की नव बाड़... श्री नेमीसर चरण युग प्रणम ऊठि परभात । बावीसम जिन जगतारु ब्रह्मचार विष्यात ॥१॥ सुंदर अपछर सारिषी रति सम राजकुमार । भर जोवन में जुगति सुं छोड़ी राजुल नारि ॥२॥ ब्रह्मचर्य जिण पालयो धरतां दुद्धर जेह । तेह तणा गुण वरणवू जिम पावन हुवइ देह ॥ ३॥ सुरगुरु जौ पोत कहै रसना सहस वणाइ । ब्रह्मचर्य ना गुण घणा तौ पिण कह्या न जाइ ॥४॥ गलित पलित काया थई तउही न मकै आस । तरुण पणे जे व्रत धरै हुँ बलिहारी तास ॥५॥ जीव विमासी जोइ तं विषय म राचि गिवारि । थोडा सुष ने कारणइ मूरख घणउ म हारि॥६॥ दस दृष्टांते दोहिलौ लाधउ नर भवसार । पालि सील नव वाडि सं सफल करी अवतार ॥७॥ ढाल:१: (मन मधुकर मोही रह्यउ एहनी) सील सुतरवर सेवीय व्रत मांहि गरूवौ जेह रे। दंभ कदाग्रह छोडिने धरीय तिण सुं नेह रे सी० ॥१॥ जिन शासन वन अति भलौ नंदन वन अनुहार रे। जिनवर वन पालक तिहां करुणारस भंडार रे सी० ॥२॥ मन थाणइ तरु रोपियउ बीज भावना बंभरे। श्रद्धा सारण तिहां वसै विमल विवेक ते अंभ रे सी० ॥३॥ मूल सुदृढ़ समकित भलउ खंघ नवे तत्त्व दाष रे । साष महाव्रत तेहनी अणुव्रत ते लघ साष रे सी०॥४॥ श्रावक साधु तणा घणा गुणगण पत्र अनेक रे । मउर करम सुभ बंधनउ परिमल गुण अतिरेक रे सी० ॥५॥ उत्तम सुरसुष फूलड़ा सिवसुष ते फल जांण रे । जतनकरी वृष राषिवउ हीय. अतिरंग आणि रे सी०॥६॥ उत्तराध्ययनई सोलमें बंभसमाही ठांण रे। कीधी तिण तरु पाषती ए नव वाडि सुजांण रे सी०॥७॥ Scanned by CamScanner Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टमी चिनहर्ष रचित शील की नव पाड़ ०१२ हिव प्राणी जाणी करी राषि प्रथम ए वाडि । 'जो ए भांजी पइसिसी प्राणे प्रथम महा धाडि ॥१॥ जेहड़ तेहड़ पलकती प्रमदा गय मयमत्त । ... , सोल वृक्ष ऊपाडिसी वाडि विभावि तुरत्त ॥२॥ . । ढाल : २: .. : : (नणदल री): भाव घरी नित पालीयई गरूऔ ब्रह्मवत सार हो भवीयण । :जिण थी सिव सुष पांमीय सुंदर तन सिणगार हो भ०॥१ भा०॥ स्त्री पसु पंडग जिहां वसइ तिहां रहिवो नहीं वास हो भ० । एहनी संगति वारीय व्रत नौ करै विणास हो भ० ॥२ भा०॥ मंजारी संगति रमें कूकड़ मूसग मोर हो भ०। कुसल किहांयी तेहनइ पामें दुष अघोर हो भ० ॥ ३ भा०॥ अगनि कुंड पासइ रह प्रघते घृत नौ कुंभ हो. भ० । नारी संगति पुरुषनई रहइ किसी परिबंभ हो भ० ॥ ४ भा०॥ सीह गुफा वासी जती रह्यो कोस्या चित्रसाल हो भ०। तुरत पडयो वसि तेहनई देस गयौ नेपाल हो भ०॥५ भा०॥ । विकल अकल विण वापडा पंषी करता केल हो भ०। 1" देषी लषणा महासती रूली घणुं इण मेल हो भ०॥ ६ भा०॥ चित चंचल पंडग नरां वरतै तीज वेद हो । तजि संगति रति तेहनी कहे जिनहरष उमेद हो- भ०॥७भा०॥ 1- AVeerN T ::: अथवा नारी.एकली भली न संगति तास । धर्मकथा पिण न कहिवी बइसी तेहनइ पास ॥१॥ तेहथी अवगण हवइ घणा संका पामें लोक । आवै अछतो शल सिरि बोजी बाडि बिलोक ॥२॥ RER प्रांणी धरि संबेग विचार एहनी) जाति रूप कुल देसनी रे रमणिकथा कहै जेह । तेह नौ ब्रह्मव्रत किम रहै रे किम ग्है व्रतसं नेह रे ॥१॥ प्रांणी नारीकथा निवारि तुं तो बीजो बाडि संभार रे प्रां०। चंद्रमुखी मृगलोयणी रे वेणी जाणि भयंग । र , दीपसिख सम नासिका रे अधर प्रवाली रंग रेप्रां ॥२॥ वाणी कोइल जेहवी रे वारण कुंभ उरोज । "हंसगमणि कृसहरिकटी रे करयुग चरण सरोज रे प्रा० ॥३॥ १-जै ए भांजी पससी प्राणइ प्रमदा धाडि Scanned by CamScanner Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० रमणि रूप इमं वरणवै रे आप विषै मन रंग । मुगध लोकनई झवइ रे वाचं अंग अनंग रे प्रां० ॥ ४ ॥ अपवित्र मेलनी कोठला रे कलह काजल नौ ठांम । "बारह स्रोत्र वह सदा रे चरम दीवडी नांम रे प्रां० ॥ ५ ॥ देह उदारिक कारिमी रेषिण में भंगुर याद । सप्त धातु रोगांकुली रे जतन करतां जाय रे प्रां० ॥ ६ ॥ चक्री चोथउ जांणीयै रे देवें दीठो आय । ते पिण पिण में विणसोयो रे रूप अनित्य कहाय रे प्रां० ॥ ७ ॥ नारि कंथा विकथा कही रे जिनवर बीजं अंग । अनरथ दंड अंग सातमें रे कहै जिनहरष प्रसंग रे प्रां० ॥ ८ ॥ दूहा 'ब्रह्मचारी जोगी जती न करें नारि प्रसंग । एकण आसन बसतां थायै व्रत नो भंग रे ॥ १ ॥ पावक गाले लोहनई जा रहे पावक संग । 1 इम जांणी रे प्रांणीया तजि आसण त्रियरंग ॥ २ ॥ ढाल : ४ : सौदागर खाल चटण न दे रहनी तीजी वाड़ि हि चित्त विचारी नारि सहित वइसवी निवारी लाल । एकद आसण काम दोपावे चौधा व्रत नै दोष लगावें लाल ती० ॥ १ ॥ इम वैसंतां आसंगो थायें आसंगं काया फरसायं रे लाल । काया र विषै रस जार्ग तेहवी अवगुण धायें आगे लाल ती० ॥ २ ॥ जोवी श्री सिंघभूत प्रसिद्धी तन फरसे नीयाणी कीधौ लाल । द्वादशमी चक्र अवतरीयो चित्तै प्रतिबोध तेहनें दीयो लाल ती० ॥ ३ ॥ [ तेहनें उपदेश न लागो विरतन कायर घई भागो लाल । सातमी नरक तथा दुप सहीया, स्त्री फरसे अवगुण इम कहीया लालती० ॥ ४ ॥ काम विराम व दुध यांणी, नरक तणी साची सहिनांणी लाल । एक आसण दूषण जांणी परिहरि निज आतम हित आंणी लाल ती० ॥ ५ ॥ माय बहिन जो बेटी धाये ते बेसी उठी जाये लाल । कल एक मुहरत पाछे बेसवी जिनहर से आ लाल ती० ॥ ६ ॥ दूहा चित्र लिषत जे पूतली ते जोएहवी नांहि । केवलज्ञानी इम कहै दसवीकालिक मांहि ॥ १ ॥ नार वेद नरपति भयो चकुशील महाय । लष भव चौथो वाडि तजि सुरुलीयउ रूपी राय ॥ २॥ शील की ना १तीजे २ उपदेश लेस ३- रूलीवड Scanned by CamScanner Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिष्टश्रीजना रचित शील की नय बाड़ L.C ढाल (मोहन सुंदरी ले गयी हनी मनहरि इंद्री नारि ना दीठो वर्ष विकार । "बागुल कांनी मृगगणी हो पास रच्यो करतार ॥ १ ॥ सुगुण रे नारी रूप न जोईये जोईये घरि राम सु० । नारी रूप दीवली कामी पुरुष पतंग | झांप सुष में कारण हो दार्ज अंग सुरंग सु० ना० ॥ २ ॥ मनगमता रमता ही उर कुच वदन सुरंग । तहर अहर भोगी डस्या हो जोवंतां व्रत मंग सु० ना० ॥ ३ ॥ कांमणिगारी कांपनी इण जीतो सयल संसार अयन को रह्यो हो सुरनर गया सहू हार सु० ना० ॥ ४ ॥ हाथ पाव छेद्या हुवै कांन नाक पिण जेह । 15 ते पिण सो वरसां तपी हो ब्रह्मचारी वजे ते सु० ना० ॥ ५ ॥ रूप रंभा सारिषी मीठा बोली नारि ।. तो किम जोवं एहवी हो भर योवन व्रत धारि सु० ना० ॥ ६ ॥ अबला इंद्री जोवतां मन धावसि प्रेम राजमती देवी की हो तुरत हिग्यो रहनेमि सु० ना० ॥ ७ ॥ रूप कूप देपी करी मांहि पडे कांमंध । दुष मांगें जांगें नहीं हो कहै जिनहरष प्रबंध सु० ना० ॥ ८ ॥ दूहा संयोगी पास है ब्रहाचारी निसदीस तेन व्रत भगी" भाजे विसवावीस ॥ १ ॥ वसै नहीं कुडि अंतर सील तभी हुवड हांणि । मन चंचल वसि रापवा हिय घरी जिन वांणि ॥ २ ॥ ढाल : ६ : (श्री चन्दा प्रभु पाहुणौ रे एहनी) वाड हि सुण पंचमी रे सील तणी रषवाल रे । चूरी पड़ती तो सही रे व्रत थासी विसराल रे वा० ॥ १ ॥ परीअछ भींतनें अंतर है नारि र तिहां रात रे । केलि करें निज कंत सुंरे विरह मरोड़ गात रे वा० ॥ २ ॥ कोयल जिम कुह कैलवे रे७ गावै मधुरं साद रे । गहमाती राती थकी रे सुरत रोवे विरहाकुल भई रे दाधी दोणे होणे बोल रे काम सरस ऊनमाद रे वा० ॥ ३ ॥ दुषदन भाल रे । जगावे बाल रे बा० ॥ ४ ॥ १ बास २- जोई नहीं पर रंग ३४५ कुहका करइ रेस ६- दुपद वकावंल रे १० - विरह 只要男 Scanned by CamScanner Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ H शीलकी नव बाड काम वस हडहड हस रे प्रिय मेटो तनुताप रे । वात करै तन मन हरै रे विरहण कर विलाप रे वा० ॥ ५ ॥ राग विष सुणि हुलसै रे हास अनरथ दंड रे । रावणि घरणि हासा थकि रे रावण बघ.थयो जोय रे वा० ॥ ६॥ ब्रह्मचारी नवि सामल रे एहवा विरही वैण रे ।... कहे जिनहरष धीरज टुलै रे चित्त चलै सुणि वैण रे वा० ॥७॥ छठी वाडै इम कह्यो चंचल चित्त म डिगाय । (P षाधौ पीधौं विलसीयो रे तिण संचित म लगाय ॥१॥ काम भोग सुष प्रारथ्या आप नरक निगोद । 1251वपरतिष तौ कहिवौ किसं विलसै जेह विनोद ॥ २॥ ढाल : ७ it :: (आज निहेजो रे दीसइ नाहलौ एहनी) भर जोबन धन सामग्री लही पामी अनपम भोग । "पांचे इंद्री ने वसि भोगव्या पांचे भोग संजोग भ० ॥१॥ ते चीतारे ब्रह्मचारी नही धुरि भोगवीया सुष। आसीविस विससाल समोपमा चीतास्या दे दुष भ० ॥२॥ सेठ मांकंदी अंगज़ जांणीय जिणरक्षत इण नाम। जक्ष तणी सिष्या सह वीसरी व्यामोहित वसि काम भ० ॥३॥ रयणा देवी सम मुख जोईये पूरब प्रीत संभार । ते भापी तरवारः बींधीयो नाष्यो जलधि मजार भ०॥४॥ जोवौं जिनपालिक पंडित थयौं न कीधौ तास वेसास । मूलगी पिण प्रीति न मन धरी सुष संयोग विलास भ०॥५॥ सेलग जक्ष तत षिण ऊघस्यौ मिलीयो निज परिवार। कहै जिनहरष न पूरब कोलीया संभार नरनार भ०॥६॥ बाटा पारा चरचरा मीठा भोजन जेहन मधुरा मोल करायला रसना सहु रस लेह ॥१॥ जेहन नी रसना वसि नहीं चाहै सरस आहार । "ते पांमे दुषप्राणीयो चौगति रुलै संसार ॥२॥ : ढाल :८: , .. (चरणाली चामुंड रण चढे एहनी) ब्रह्मचारी सुणि वातडी निज आतम हित जांणी रें। कामना वाडि म भांजे सातमी सुणि जिनवर नी वाणी रे ७० ॥ १ ॥ १-होय २–रांम ३–धीरिम'टलइ रे चित्त टले सहु सैण रे वामिल हसणार Scanned by CamScanner Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-गाश्री जिनहर्ष रचित शील की नव बाड़ १३३ र1 कमल' झरै उपाडतां घृत बिंदु सरस आहारो रे । ते आहार निवारीय तिण थी वध विकारो रे ७० ॥२॥ सरस रसवती आहरै दूध दही पकवानों रे । .... पाप श्रवण तेहनें कह्यौ उत्तराध्ययन सु जांणो रे.ब० ॥३॥ - चक्रवत्ति नी रसवतो रसिक थयो भदेवों ; काम विटंवण तिण लही वरजि २ नितमेवो. रे ब० ॥ ४॥ रसना जे जे लोलपी' लंपट लयण सवादो रे। मंजू आचारिज नी परै पामें कुगति विषादो रे ब० ॥ ५॥ चारित छांडी प्रमादीयो निज सुत नी. राजवांनी रे।.. राज रसवती वसि पड्यौ जोईसेलममदमाषांनी रे ७० ॥ ६ ॥ सबल आहारै बल वधै वल उपसमय न वेदो रे। ... वेदै व्रत पंडित, हुवै.कहे जिनहरष उमेदो रे ७० ॥७॥ अति आहारै दुष हुवै गलै रूप सुगात । आलस नींद प्रमाद घण दोष अनेक कहात ॥ १॥ घणे आहार विस चढ़ घणेज फाट पेट । .. धान अमामी ऊरतां हांडी फूट नेट ॥ २॥" ::: (जंबुद्वीप मज्झार एहनी) पुरुषाकवल बत्तीस भोजन विध कहा। अठावीस नारी तणी" ए पंडग कवल चौवीस ।।... .... इधकै दूषण होइ. असाता दुष घणीए ॥१॥ ब्रह्मवत धरनार थाय तेहनै उणोदरीए गुण घणाए। । 'जीमें जासक जेह तेहनें गुण नहीं अतीचार ब्रह्मव्रत तणाएं ॥२॥ जोइ कंडरीक मुणिंद सहस वरस लगी तप करि करि काया.दही ए। :: तिण भागौ चारित्र आयौराजमें अति मात्रा रसवती लहीए॥३॥ मेवा ने मिष्टान व्यंजन नवनवा सालि. दालि घृत लूचिका ए। • भोजन करि भरपूर सुतौ निस समें हुऔ तास विसूचिका ए॥४॥ वेदन सही अपार आरत रौद्र में मरीय गयो ते सातमी ए। कहै जिन हरष प्रमाण ओछौ जीमीय वाडि कहि ए आठमी ए॥५॥ नवमी वाडि विचार ने पालि सदा निरदोष । पॉमिस तत षिण प्रांणीया अविचल पदवी मोष ॥१॥ अंग विभूषा जे कर ते संजोगी होइ। ब्रह्मचारी तन सोभव तिण' कारण नवि कोइ॥२॥..... १-कवल २-रसना नौ जे लोलुपीः ३-जोइ सेलग.मदपांनी. रे. ४ बल उपसमइ. ५-भणी ई-अति ७-नरनारि ८–पाल ६ ते १०-तिहाँ ? Scanned by CamScanner Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 3 शील की मब बोर । र न कर अंग अंघोला... 1 . 1 " यानी शोभा न कर देहनी न करें तन 11.26. . ऊंगटणा पोटी वली न कर किण ही वारी । । सुणि' चेतन' सुणि तूं मोरी वीनती तो में सौष कहूं हितकारो रे सु० ।। उन्हा ताढा नीर सुन कर अंग अंघोल। केसर चंदन कुंकुमै षांत न करइ पोलो रे सु० ॥ १॥ घणमोला ने उजला न करै वस्त्र वणाव । घाते काम महा बली चौथा व्रत ने थावी रे सु० ॥२॥ 'कोकड़ कुंडल मुंदड़ी मोला मोतीआ हार पहिर नहीं। सोभा भणी जे थायै व्रतधारो रे ॥ सं०३ TER: काम दीपत जिणवर कह्या भूषण दूषण एह। अंग विभूषा टालवी कहै जिनहरष सनेहो रे सु० ॥४॥ ___ ढाल:११: रस . (आप सवारथ जग सहू रे एहनी). श्री वीर दोइ दस परषदा में उपदिस्या इम सील । जे पालसुं नव वाडि सुं ते लहिसी हो शिव संपद लील ॥१॥ सील सदा तुमें सेवज्यो रे फल जेह नो हो अति सरस अषीण । आठ करम" हणी रे ते पांमै हो ततषिण सुप्रीण सी० ॥२॥ जय' जलण अरि करि केसरी भय जाय सगला भाजि. सुर असुर नर सेवा कर मन बंछित हो सीझै सहु काममा सी० ॥३॥ जिन भुवन नीपावै नवी कंचण तणो नर कोइ । सोवन तणी कोइ कोडि द्यै१ सील सम वडि हो तो ही पुण्य न होय सी०॥४॥ नारि ने दूसण नर थकी तिम नारि थी नर दोष । । 1 एकडि २ विहं में सारिषी पालेवी हो मन धरीय संतोष सी० ॥५॥ निधि नयण सुरस' ३ भाद्रपदि बीज आलस छांडि। * जिन हरष दृढ़ व्रत पालिज्यो व्रत धारी हो जुगती नव वाडि सी० ॥६॥ इति श्री नववाडि सुद्ध शील विषये चतुपदी समाप्तः। सं० १८४४ वर्षे मिती जेष्ट वदि ८ दिने लिषतं विक्रमपुर मध्ये गुरुवारे लि० । पं० सुगुणप्रमोदमुनिः लिपि कृतं ॥ श्रीः ।। ६ : श्रीरस्तुः ॥ श्रीः॥पं। महिमा प्रमोद मुनि हुकुम कियो जिदै लिष दोनो श्री ॥६॥ कल्याणमस्तु ॥ सुभं भक्त । १-सुणि सुणि २-चेतन चेतन ३-चौथा व्रत नौ घावौ रे ४-माला ५–सो पहिरइ नही सोभा भणी-दीपण -करम अरियण -सुप्रवीण -जल १०-काज ११-कोडि १२-ए वाडि १३-सुर ससि Scanned by CamScanner Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-घ पुस्तक-सूचि Scanned by CamScanner Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति अकेली जाने रे (१९५४) बहु गांधी मनु अथर्ववेद सं० श्रीराम शर्मा आचार्य पं० आशावरजी महात्मा गांधी म० गांधी अनु० श्री रामनाथ 'सुमन' साधना-सदन, इलाहाबाद श्री श्रीचन्द रामपुरिया अनु० मुनि श्री सौभाग्यमीश्री जैन साहित्य समिति, उज्जैन श्री सिद्धचक्र साहित्य प्र०स०, बम्बई नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद अनगारधर्मामृतम् (प्र० आ०) अनीति की राह पर (१९४७) अमृतवाणी (१९४५) आचार्य सन्त भीखाजी आचाराङ्ग सूत्र आचाराङ्ग (निर्युक्ति टीकायुक्त) आत्मकथा (१९४०) आरोग्य की कुञ्जी (१९५८) आरोग्य साधन (१९५०) उत्तराध्ययन ( नेमिचन्द्र टीकायुक्त) उत्तराध्ययन सूत्र नी चोरासी कथाओ उत्तराध्ययनसूत्रम् उपदेश माला (१९२३) ऋग्वेद संहिता औपपातिक सूत्रम् कार्यकर्ता वर्ग (क) लेखक अनुवादक, सम्पादक प्रकाशक far गान्धी-वाणी (१९५२) महात्मा गांधी 555 उपासगदसाओ अनु० एन. ए. गोर, ओकला चलो रे (१६५७)मनु बहन गांधी औशनसस्मृति (स्मृति-संदर्भ तृ० भा० ) जीवनलाल छगनलाल संघवी जे० शार्पेन्टियर श्री धर्मदास गणि मनो गांधी और गांधीवादनश्रीचन्द रामपुरिया (विवरण पत्रिका वर्ष ८ अंक ८) सं० श्री रामनाथ 'सुमन' shers नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद गायत्री प्रकाशन, मथुरा श्री माणिकचन्द-दि० ग्रंथ० समिति, बम्बई संस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली हमीरमले पूनमचन्द रामपुरिया, सुजानगढ़ हिन्दी पुस्तक एजेन्सी, कलकत्ता फूलचन्द खीमचन्द, वलाद जीवन० छगन० अहमदाबाद एम.ए.ओरियन्टल बुक एजेन्सी, पूना नव० प्र० मं०, अहमदाबाद श्री मनसुखराय मोर, कलकत्ता सं० आचार्य श्री चन्द्रसागरसूरि मुनि शुभचन्द्र जयदेव विद्यालंकार श्रीमंद शंकराचार्य उपशला मास्टर उमेदचंद रायचंद, अहमदाबाद सं० सातवलेकर एन. जी. सुरू, एम. ए. पूना विनोबा भावे aalasahasrad स्वाध्याय मण्डल, पारडी, सुरत गीता गौतम धर्मसूत्र ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ज्ञानार्णव चरकसंहिता चर्पट पजरी छान्दोग्योपनिषद् जाबालोपनिषद् जैन तत्व प्रकाश (द्वि० भाग०ोमल चोपड़ा बी. ए. बी. एस श्वेतेरा महासभा antiv अखिल भारत सर्व सेवा-संघ का जैन श्वे तेरापन्थी महासभा, कलकत्ता So w सा० स०, इलाहाबाद गीताप्रेस गोरखपुर आनन्द शर्मा प्रेस श्री सिद्धचक्र साहित्य प्रचारक स० बम्बई परम प्रभावक मण्डल बम्बई मोतीलाल बनारसीदास, बनारस डिपो, वाराणसी गीता प्रेस, गोरखपुर निर्णय सागर प्रेस, बम्बई 201 ADEDS corre (370) फकी * TONY Reporte Scanned by CamScanner Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति लेखक अनुवादक, सम्पादक प्रकाशक जैन दृष्टिए ब्रह्मचर्य (१९३१) हा आ० सुखलाल संघवी मी गूर्जर ग्रंथरत्न कार्यालय, अहमदाबाद 0 बेचरदास दोशी की जैन भारती (१९५३) या सं० श्रीचन्द रामपुरिया ० श्वे० तेरा० महासभा, कलकत्ता तत्त्वार्थवार्तिक (राजवातिक) अकलदेव भारतीय ज्ञानपीठ, काशी30 . भा०१,२१ सं०पं० महेन्द्र कुमार जैन एम. ए. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र (सभाष्य) श्रीमदुमास्वाति श्री परमश्रुत प्रभावक जनमण्डल, बम्बई ना अनु०५० खूबचन्द्र सिद्धान्तशास्त्रीय तत्त्वार्थवृत्ति श्री श्रुतसागरसूरि भा० ज्ञा०, काशी या तत्त्वार्थ सूत्र (गुजराती) ममा पं० सुखलालजी गजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद! ) तत्त्वार्थसत्र सर्वार्थसिद्धि सं०५० फलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री भा० ज्ञा०, काशी , तैत्तिरीय संहिता त्यागमूर्ति अने बीजा लेखो (१९४५) महात्मा गांधी नव० प्र० म० अहमदाबाद, दक्षस्मृति . दसवेयालिय सुत्त सं० डॉ० ल्यूमैन जय सेठ आनन्दजी कल्याणजी, अहमदाबाद SHIPS अनु० डॉ० श्यबिंग दशवकालिक सूत्र का का० वा० अभ्यंकर, एम. ए. अहमदाबाद दशाश्रुतस्कन्ध मा अनु० आ० श्री आत्मारामजी जैन शास्त्रमाला कार्यालय, लाहौर दीघ-निकाय ः अनु भिक्षु राहुल सांकृत्यायन महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस) . The wonder that was . ए० एल० बासम, बी. ए., पीएच. डी. सिडविक एण्ड जैकसन, लण्डन TE India a nd The sayings of सर अब्दुल शुराहवर्दी .. सर हसन शुराहवर्दी, कलकत्ता Muhammad दृष्टान्त और धर्मकथाएं श्रींचन्द रामपरिया जैश्व० तेरा० महासभा, कलकत्ता धर्ममंथन (१९३६) महात्मा गांधी ___ नव० प्र० म०, अहमदाबाद TA नवजीवन (२८१३९) नवं० प्र० म० , S ETTE नायाधम्मकहाओ संप्रो०एन० व्ही. वैद्य पूना निशीथसत्रम(सभाष्य,सचूर्णि) सं० मुनिः अमरचन्द्रजी सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा (चार भाग) ita पथ और पाथेय आचार्य श्री तुलसी सेठ चाँदमल बांठिया ट्रस्ट (सं० मनि श्रीचन्द्र) पातजल योगसूत्र अनुकरामाप्रसाद, एम०ए० . न पाणिनी आफिस, इलाहाबाद : पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्री अमृतचन्द्रसूरि श्री परमश्रत प्रभावक मंडल, बम्बई H d Pars अनु० श्री नाथूराम प्रेमी प्रश्नव्याकरण TET अनु मुनिश्री हस्तिमलजी श्री हस्तिमलजी सुराणा, पाली, FATESTERE Scanned by CamScanner Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T लेखक, अनुवादक सम्पादक छात प्रकाशक प्रश्नोपनिषद् अनु० नारायण स्वामी सार्वदेशिक आर्य-प्रतिनिधि सभा, देहली ब्रह्मचर्य (१९४६) श्रीचन्द रामपुरिया ज० श्वे० तेरा० महासभा ब्रह्मचर्य (१९४६) सं० श्रीचन्द रामपुरिया m e , (महा० गांधी के विचारों का दोहन) कर ब्रह्मचर्य (प्र० भा० १९५७) महात्मा गांधी सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली , (दू० भा० १९५७),785 बापू की छाया में (दू० आ०) श्री बलवंतसिंह नव० प्र० मं०, अहमदाबाद बापुना पत्रो-५ कु० प्रेमाबहेन का महात्मा गांधी कंटकने बृहद्कल्प सूत्र T o सं० श्री पुण्य विजयजी - श्री आत्मानन्द जैन सभा, भावनगर- कार बृहदारण्यकोपनिषद् गीता प्रेस, गोरखपुर : बौधायन सूत्र भगवती सूत्र TODI पं० भगवानदास हरखचंद दोशी जैन साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, अहमदाबाद जैन साहित्य प्रकाशन ट्रस्ट, महमपाष भगवान महावीरनी धर्मकथाओमा अनु० अ० वेचरदास दोशील गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबादला भागवत गीता प्रेस, गोरखपुर भारतीय संस्कृति का विकास : डॉ० मङ्गलदेव शास्त्री एम. ए. समाज विज्ञान परिषद, बनारस (प्र० ख० वैदिक धारा) डी. फिल. (ऑक्सन). भिक्खु दृष्टान्त श्रीमदजयाचार्य जै० श्वे० तेरा० महासभा भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड १, सं० आचार्य श्री तुलसी , १९६०), (ख० २, १९६०) भिक्षु-विचार दर्शन (१९६०) मुनि श्री नथमलजी मंगल प्रभात (१९५२) महात्मा गांधी स० सा० म०, नई दिल्ली Mahatma Gandhi- श्री प्यारेलालजी नव० प्र० म०, अहमदाबाद marity The Last Phase vol. I 0 vol. II मनस्मति (१९५४) TETTE अनु० ५० जनार्दन झा हि पु०ए०, कलकत्ता , महादेव भाई की डायरी (प० भाग) सं० नरहरि द्वा० परीखानव० प्र० म०, अहमदाबाद ARTHer (दू०भा० ती० भा०) अनु० रामनारायण चौधरी मांडूक्योपनिषद् भगनभाई प्रभूदास देसाई - YOn- गूजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद My days withGandhi श्री निर्मल कुमार बोस इण्डियन एशोसियेटेड पब्लिशिंग कं० लि०, (१९५३) - कलकत्ता मुण्डकोपनिषद् सं० मगनभाई प्रभुदास देसाई गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद. iyan rent योग शास्त्र मचन्ट सरि श्रीमद्विजयंदानसूरीश्वर जैन ग्रंथमाला, सुरत रामनाम ___ की महात्मा गांधी गजानव-प्रम०, अहमदाबाद (T ri विद्यापीठ, अहमदाबाद Scanned by CamScanner Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृति लेखक, अनुवादक, सम्पादक पर प्रकाशक श्री मनसुखराय मोर, कलकत्ता वशिष्ठ स्मृति (स्मृति-सन्दर्भ:- विनय पिटक : अन० पं० राहल सांकृत्यायन महाबोधि सभा, सारनाथ (बनारस) विनोबा के विचार (प्र० भा० श्री विनोबा स० सा० म०, नई दिल्ली १६५७) (दू० भा० १९४६) PARSES , TATE विवरण पत्रिका (वर्ष ८ अं०८) .. जै० श्वे० तेरा० महासभा विशुद्धिमार्ग अनु० भिक्ष धर्मरक्षित मा. महाबोधि सभा, सारनाथ (वाराणसी).. विहारनी कोमी आगमां (१९५६) .. मनुबहेन गांधी नव० प्र० म०, अहमदाबाद ....... वैराग्य मंजरी ओसवाल प्रेस, कलकत्ता व्यापक धर्मभावना महात्मा गांधी p ahimनव०प्र० म०, अहमदाबाद सत्याग्रह आश्रम का इतिहास या (१९४८) सप्तमहाव्रत अहिंसा (सं० १९८७)ो - गीता प्रेस, गोरखपुर समवायाङ्ग अनु० शास्त्री जेठामल हरिभाई श्री जैन धर्म प्रसारक सभा, कलकत्ता सर्वोदय दर्शन (१९५८) दादा धर्माधिकारी अखिल भारत सर्व-सेवा संघ, वर्धा St. Matthewa (कींग जेम्स वर्सन) न दी जॉन सी० विन्स्टन कं०, शिकागो सुत्तनिपात अनु० भिक्षु धर्मरत्न एम. ए. s). महाबोधि सभा, सारनाथ .. . सूत्रकृताङ्गा आगमोदय समिति सूत्रकृताङ्ग . .. सं० अम्बिकादत्तजी ओझा याति शंभूमलजी गंगारामजी बेंगलोर -१.. Self Restraint V. महात्मा गांधी - नव प्र० म०, अहमदाबाद Self Indulgence .. स्थानाङ्ग (ठाणाङ्ग) (सं० १९९४) ॐ शेठ माणेकलाल चुनीलाल, अहमदाबाद (आ० बीजो) स्त्री और पुरुष (१९३३) संत टॉल्स्टॉय . स० सा० म०, नई दिल्ली अनु० वैजनाथ महोदय स्त्री-पुरुष-मर्यादा कि० घ० मशस्वाला 4 नव० प्र० म०, अहमदाबाद संयम-शिक्षा (१९३३)ी महात्मा गांधी संयम अने संतति नियमन (१९५९) , Tyo ( हो संयुत्त-निकाय HTTA अन भिक्ष जगदीश काश्यप महाबोधि सभा, सारनाथ, बनारस intena.. भिक्षु धर्मरक्षित SHANI शतपथ ब्राह्मणsase N ote: को गिम० एफ० मैक्समूलर, क्लेरेन्डन प्रेस, ऑक्सफोर्ड श्रमण (वर्ष ६ अङ्क) ANAARI सं० कृष्णचन्द्राचार्य श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रम, बनारस Scanned by CamScanner Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेखक, अनुवादक, सम्पादक कृति प्रकाशक नव०प्र० मंदिर, अहमदाबाद Harijan (जून 8, 1947) हरिजन सेवक (27-6-'35) हरिभद्रसूरि ग्रन्थ-संग्रह (1939) History of Dharmasastra महामहोपाध्याय पा० वामणकाने जैन ग्रन्थ प्रकाशन सभा, अहमदाबाद भण्डारकर ओरियन्टल रिसर्च इन्स०, पूना Scanned by CamScanner