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परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त
दूत ने महाराज की आज्ञा शिरोधार्य कर मिथिला की ओर प्रस्थान किया । तत्कालीन पांचाल देश की राजधानी कांपिल्यपुर थी । हजार रानियाँ थीं।
एक समय चोक्षा नामकी परिव्राजिका मिथिला नगरी में आई। वह ऋग्वेद आदि पष्ठी तंत्र की ज्ञाता थी । वह दान-धर्म, शौच-धर्म, तीर्थाभिषेक-धर्म की प्ररूपणा किया करती थी।
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एक दिन वह मल्लिकुमारी के पास आकर शुचि-धर्म का उपदेश करने लगी। उसने बताया कि उसके धर्मानुसार अपवित्र वस्तु की शुद्धि जल और मिट्टी से होती है मलिकुमारी ने कहा "परिव्राजिके! रुधिर से लिप्त बस्त्र को रुधिर से धोने पर क्या उसकी शुद्धि हो सकती है " इस पर परिव्राजिका ने कहा "नहीं" मडी बोली-"इसी प्रकार हिंसा से हिंसा की (पाप स्थानों की ) शुद्धि नहीं हो सकती।” मल्लिकुमारी का युक्तिपूर्ण वचन सुनकर चोक्षा परिव्राजिका निरुत्तर हो गई। इसपर मल्लिकुमारी की दासियों ने उसका परिहास किया। कुछ ने गला पकड़कर उसको बाहर निकाल दिया । चोक्षा परिव्राजिका क्रोधित हो मिथिला छोड़कर अपनी शिष्याओं के साथ शुचि-धर्म का उपदेश करती हुई..
जाकर उसने दान धर्म, शुचि धर्म एवं
कांपिल्यपुर आई । एक दिन वह वहाँ के महाराजा के महल में गई और वहां तीर्याभिषेक-धर्म का प्रतिपादन किया।
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वहाँ का राजा जितशत्रु था । उसकी धारणी- प्रमुख
विस्मित थे। महाराजा ने पूछा "परिश्राजिके! तुम मकानों में प्रवेश करती हो मेरे जैसा अन्तपुर
महाराजा अपने अन्तःपुर की रानियों के रूप-सौन्दर्य से अनेक ग्राम-नगरों में घूमती हो राजा-महाराजा, सेठ साहूकारों के तुमने कहीं देखा है ?" परिवाजिका ने कहा- "राजन्! आप कूपमंडूक प्रतीत होते हैं। आपने दूसरों की पुत्रवधुओं, भार्याओं, पुत्रियों को नहीं देखा, इसीलिए ऐसा कहते हैं। मैंने मिथिला नगर के विदेहराज की श्रेष्ठ कन्या मल्लिकुमारी का. जो रूप देखा है वैसा रूप किसी देवकुमारी या नागकन्या का भी नहीं ।"
- मल्लि के रूप की प्रशंसा सुनकर कांपिल्यपुर के महाराज ने भी मल्लिकुमारी की मँगनी के लिए मिथिला नगर भेजा ।
राजा कुंभ ने सबके प्रस्ताव
को दूत को अस्वीकार कर दिया।
राजदूतों ने आकर अपने-अपने स्वामियों की मांग कुंभ राजा के सामने पेश की।
विवाह के लिए आये हुए प्रस्तावों की बात मल्लि के पास पहुँची। उसने विचार किया, हो न हो ये राजा
के आवेश में उसके पिता पर चढ़ाई किये बिना नहीं रहेंगे। यह सोचकर, कामान्ध हुए इन राजाओं को शान्त कर सुमार्ग पर छाने के लिए उसने एक युक्ति सोच निकाली।
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अपने महल के एक सुन्दर विशाल भवन में उसने अपनी एक मूर्ति बनावकर रखवाई। वह मूर्त्ति सोने की बनी हुई थी। वह भीतर से पोली एवं सिर पर पेचदार ढक्कन से ढकी हुई थी। देखने में यह मूर्त्ति इतनी सुन्दर थी मानो साक्षात् मल्लि हीं आकर खड़ी हो।
राजकुमारी नित्यप्रति इस मूर्त्ति के पेट में सुगन्धित खाद्य-पदार्थ डालने लगी । ऐसा करते-करते जब यह मूर्त्ति भीतर से सम्पूर्ण भर गई तो मल्लि ने उसे ढक्कन से मजबूती के साथ बैंक दिया।
इधर राजदूत अपने-अपने स्वामियों के पास वापस आए और राजा कुंभ से मिले हुए निराशाजनक उत्तर को कह सुनाया । उत्तर सुनकर वे बहुत कुपित हुए और सब ने राजा कुम्भ पर चढ़ाई करने का विचार ठान लिया। यह जानकर राजा कुम्भ ने भी युद्ध की तैयारी शुरू कर दी। थोड़े दिनों में ही भयङ्कर युद्ध छिड़ गया। कुम्भ अकेला था, इसलिए पूरा मुकाबला नहीं कर सकता था, फिर भी जरा भी हताश न होकर उसने युद्ध जारी रखा। वह रात-दिन इस चिंता में रहने लगा कि शत्रुओं पर कैसे विजय मिले ?
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