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有
कहें अनेक रे, आहार घण करें। तो ही कों न मानें केहनों ए ॥
२६ – जो मिलनें
३० – केह पूरण भरें
इंधको
चांप
जब पांणी पूरो मार्वे नहीं ए ॥
३१ – जब
पेट
जब टलबलाट करें
३२ – वले
जक
अजक
तिरपा लागें अतंत रे, फार्ट equit घणां
॥
नित पेट रे,
खायें आंवला डील रे, नहीं तेहने घणवले जेहनें ए ॥
विपत: -रे
३३- इसडी पडे तो ही ग्रिधी पेट निज अवगुण छोडें नहीं ए ॥
रो ।
३४ – जब
रोग पीडलें, आंग रे, माठी.. श्री जिण धर्म गमाय
मरे
तरे ।
भ्रमण करें अनंत काल दुःख
ने
३५ – पर्छ च्यारूं गति रे मांहिं रे, -
५
घण भोगवें ए
३६ - कूंडरीक रे उपनों
ए ॥
रोग रे, आहार इधको कीयां । ते मरनें गर्यो नरक सातमीं ए
फटें नेट रे
३७-हाडी इको तो पेट न फाटे किण विधे ए ॥
उरीयां
शील की नव बाड़
२६- अगर सब मिलकर भी उसे कहें कि तू अधिक आहार करता है तो भी वह किसी की कुछ नहीं मानता। .
३० - कोई प्रति दिन चाप चांप कर अधिक खाता है और पूरा पेट भर लेता है यहाँ तक कि पेट में पानी के लिए भी जगह नहीं रह जाती ।
३१ - जब जोरों की प्यास लगने लगती है और पेट फटने लगता है, तब वह कराहने लगता है ।
३२- शरीर लोट-पोट होने लगता है। उसको जरा भी चैन नहीं पड़ती। उसे अत्यन्त बेचैनी रहती है !
३३ - इस प्रकार की विपत्ति पड़ने पर भी अधिक आहार का गृद्ध अपने अवगुण को नहीं छोड़ता ।
३४ – जब रोग शरीर को धर दबाते हैं, तब श्री जिनेश्वर देव के धर्म को खोकर वह बुरी तरह से मरता है !
३५ – फिर वह चारों गतियों में परिभ्रमण करता है और अनन्त काल तक दुःख उठाता रहता है।
३.६ अधिक आहार करने से कुण्डरिक को रोग उत्पन्न हुआ और मरकर वह सातवीं नरक में पहुँचा ।
३७ - परिमाण से अधिक अन्न डालने से हांड़ी फूट जाती है। फिर भला अधिक खाने से पेट क्यों नहीं फटेगा ?
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