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आठमी बाड़: ढाल :: टिप्पणियां
३८-ग्रह्मचारी को यह सब जानकर अधिक भोजन नहीं करना चाहिए। ऊनीदरी में बहुत गुण हैं।
३८–ब्रह्मचारी इम जांण रे,
इधको नहीं जीमीय ।
अणोदरीए गुण घणां ए॥ ३६-ए उतम अणोदरी तप रे, करतां
दोहिलो। वेराग विनां हुवें नहीं ए'॥ ४०-ए कही आठमी बाड़ रे, ब्रह्मचारी
भणी । चोखें चित्त आराधजो ए॥
३६-ऊनोदरी उत्तम तप है। इसका करना बहुत मुश्किल है। यह वैराग्य के बिना नहीं होता।
४०-ब्रह्मचारी के लिए यह आठवी बाड़ है। मुनि उत्तम भाव से इसकी आराधना करे ।
टिप्पणियाँ
[१] दोहा १:
इस दोहे में आठवीं वाड़ का स्वरूप बताया गया है कि मात्रा से अधिक आहार करना ब्रह्मचर्य-व्रत के लिए घातक होता है। 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है-"नो निग्गंथे अइमायाए पाणभोयणं आहारेज्जा" (१६:)-निग्रंथ अति मात्रा में आहार न करे। यह सूत्र-वाक्य ही इस वाड़ का आधार है। 'प्रश्न व्याकरण' सूत्र में कहा गया है : ण बहुसो, ण णिइगं,ण सायसूवाहियं ण खदं तहा मोतलं जहा से जायामायाय मवई।
-प्रभ०२:४: मा०५ --ब्रह्मचारो एक दिन में बहुत आहार न करे, प्रतिदिन आहार न करे, अधिक शाक दाल न खाय, अधिक मात्रा में मोजन न करे, जितना संयम यात्रा के लिए जरूरी हो उसी मात्रा में ब्रह्मचारी आहार करे।
__णय भवइ विममो ण मंसणा य धम्मस्स। एवं पणीयाहार विरइसमिइजोगेण माविओ मवइ अंतरप्पा आरयमण विरय गाम धम्मै जिइंदिए बंभचेरगुत्ते।
-प्रश्न २:४ मा०५ र -विभ्रम न हो. धर्म से दंश न हो-आहार उतनी ही मात्रा में होना चाहिए। इस समिति के योग से जो मावित होता है. उसकी अंतर आत्मा तल्लीन, इन्द्रियों के विषय से निवृत्त, जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपाय से युक्त होती है। इसी तरह 'उत्तराध्ययन' सूत्र में कहा है:
धम्मलदं मियं काले जत्थं पणिहाणवं। नाइमतं तु मुंजेज्जा बमचेररओ सया।.
-उत्त०१६ श्लो०....
हार जीवन-यात्रा के निर्वाह के लिए ही नियत समय और मित मात्रा में ग्रहण करे। वह कमी मी अति मात्रा में आहार का सेवन न करे।
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