________________
८६
भूमिका
वासना की तृप्ति के लिए स्त्रियों से सम्पर्क साधने की कभी चेष्टा नहीं की मैं इस बात का दावा नहीं करता कि मैं अपने में से काम विकार को सम्पूर्णत: दूर कर सका हूं, पर मेरा यह दावा है कि मैं इसे काबू में रख सकता हूँ ।"
प्रश्नः "हम लोगों की यह जानकारी नहीं है कि आपने जनता के सामने अपने इन विचारों को रखा है। इसके विपरीत आपने जनता के सामने ऐसे ही विचार रखे हैं, जिनके साथ हम लोग परिचित हैं आपके प्रयतों के साथ उन विचारों को ही समझा है। आपका क्या खुलासा है?"
गान्धीजी : "श्राज भी मैं, जहाँ तक सर्वसाधारण का सवाल है, उन्हीं विचारों को उनके सामने रखता हूँ, जिनको आप मेरे पुराने विचार कहते हैं। साथ ही जैसा कि मैंने कहा है, मैं धाधुनिक विचारों से बहुत गहराई तक प्रभावित हूं। हम लोगों में तांत्रिक विचारधारा भी है, जिसने कि न्यायाधीश, सर जोन उड्रफ जैसे पश्चिमी विद्वानों को भी प्रभावित किया है। मैंने यरवदा जेल में उनकी कृतियों का अध्ययन किया। बाप रूढ़िगत संस्कारों में पले-से हैं मेरी परिभाषा के अनुसार थाप ब्रह्मचारी नहीं माने जा सकते। धाप जब कभी बीमार पड़ जाते हैं । सब तरह की शारीरिक व्याधियों से ग्रसित हैं। मैं यह दावा करता हूं कि सच्चे ब्रह्मचर्य का प्रतिनिधित्व में आपसे अच्छा करता हूं।
20
आप सत्य, अहिंसा, अचौर्य के भङ्ग को इतनी गम्भीर दृष्टि से नहीं देखते। पर ब्रह्मचर्य का स्त्री और पुरुष के बीच के सम्बन्ध का - काल्पनिक भङ्ग भी आप को पूर्णतः विचलित कर देता है ब्रह्मचर्य की इस कल्पना को में संकुचित प्रतिगामी घोर रूढिग्रस्त मानता हूँ। मेरे लिए सत्य, हिंसा और बह्मचर्य के प्रादर्श समान महत्व रखते हैं। और सबके सब हमारी ओर से समान प्रयत्न की अपेक्षा रखते हैं । उनमें से किसी का भी भङ्ग मेरे लिए समान चिन्ता का यह मानता हूँ कि मेरा आचरण ब्रह्मचर्य के सच्चे आदर्श से दूर नहीं गया है। इसके विपरीत उस ब्रह्मचर्य का, जो क्या नहीं करना, यहीं तक सीमित रहता है, असर समाज पर बुरा ही पड़ता है। उसने आदर्श को नीचे गिरा दिया है। और उसके सच्चे तत्त्व को छीन लिया है। यह मैं अपना उच्चतम कर्तव्य समझता हूं कि मैं इन नियमों और बन्धनों को समुचित स्थान में रखें और ब्रह्मचर्य के आदर्श को उन बेड़ियों से मुक्त कर दूं, जिनसे कि वह जकड़ लिया गया है।"
म
विषय होता है करना और क्या
प्रश्न: "यदि आपके विचार मीर याचार धारम-संयम के पालन में इतने धागे बढ़ गये है तो इनका चापके चारों ओर के वातावरण पर लाभकारी असर क्यों नहीं दिखाई देता ? हम ग्रापके चारों और इतनी प्रशान्ति और दुःख को क्यों पाते हैं ? आपके साथी विकारों से मुक्त क्यों नहीं होते ?"
गान्धीजी - " मैं अपने साथियों के गुण और कमियों को अच्छी तरह जानता हूं। आप उनके दूसरे पक्ष को नहीं जानते । ऊपराऊपरी निरीक्षण के पापार पर तुरन्त किसी निर्णय पर पहुंच जाना सत्यशोधक के लिए अशोभनीय है। धाप लोग सोचते हैं, वैसा में खो नहीं गया हूं। मैं तो आपसे इतना ही कह सकता हूं कि आप लोग मुझ में विश्वास रखें। मैं आपके कहने पर उस बात को नहीं छोड़ सकता, जो मेरे लिए गहरे विश्वास का विषय है। मुझे खेद है, में असहाय हूं"
प्रश्न:, "हम नहीं कह सकते कि आपने हमें समझा दिया। हम संतुष्ट नहीं हैं। हम लोग इस बात को यहीं नहीं छोड़ सकते। हम लोग आपके साथ निरन्तर प्रयास करते रहेंगे। यदि श्राप बनी हुई मर्यादा के खिलाफ फिर जाने को प्रेरित हों तो अपने दुःखित मित्रों का भी खयाल करें।"
गान्धीजी - "मैं जानता हूं। पर मैं क्या कर सकता हूँ, जब कि मैं कर्तव्य - भावना से प्रेरित हूं। मैं ऐसी परिस्थिति की कल्पना कर सकता हूं, जब कि मैं स्थापित नियमों के विरुद्ध जाना अपना स्पष्ट कर्तव्य समझैं । ऐसी परिस्थितियों में में अपने को किसी भी वायदे के द्वारा बंधन में डालना नहीं चाहता।'
on bites outw
arents
S HOME
इस वार्तालाप के बाद ता० १६-३-२४७ की डायरी में महात्मा गांधी ने लिखा : "ब्रह्मचर्य की मेरी परिभाषा के अनुसार प्राज के इनके ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विचार दूषित अथवा अधूरे लगे। उनमें मेरे मार्ग के अनुसार सुधार की प्रतिमावश्यकता है। मैंने विकार पोसने के लिए कभी भी जानबूझ कर स्त्री-संग का सेवन नहीं किया। एक अपवाद बतलाया है। अपने प्राचार से मैं मागे बढ़ा हूं और अभी अधिक की आशा करता हूँ"
११- बिहारनी कोमी आगमां पृ० ६१
picted in firs
Scanned by CamScanner