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शील की नव बाद
कार्य हो गया हो तो मैंने तुरन्त उसे जनता के सामने स्वीकार किया और पता चलते ही उसका उचित प्रायश्चित किया। इसी तरह इस बात में भी किसी भी समय मुझे मिट्टी में अगर कोई अशुद्धि या मिलावट दिखाई देगी अथवा मुझमें मालूम देगी तो मुझे उसका त्याग करने में एक क्षण भी नहीं लगेगा और सारी दुनिया के सामने अपनी अयोग्यता स्वीकार कर लूंगा'।"
श्री बोस के अनुसार स्वामी प्रानन्द और श्री केदारनाथजी भी विरोधी मत रखते थे। श्री प्यारेलालजी यह ती लिखते हैं कि महात्मा गांधी बिहार में पाये तब दो मित्रों ने उनसे लगातार पांच दिन तक बातचीत की। पर ये दोनों, स्वामी प्रानन्द और श्री केदारनाथजी थे. इसको गोपनीय रखते हैं । महात्मा गांधी और इनमें जो वार्तालाप हुमा, उसका सार इस प्रकार है:
प्रश्न-"इस नये प्रयोग को प्रारम्भ करते समय मापने अपने साथियों से क्यों नहीं कहा और उन्हें अपने साथ क्यों नहीं रखा ? यह गुप्ताचरण क्यों ?"
गान्धीजी : "इस बात को गुप्त रखने का इरादा नहीं था। सारी बात स्पष्ट थी। जैसी यह बात है उसमें मित्रों की पूर्व सलाह की तो कोई बात ही नहीं थी, पूर्व स्वीकृति अनावश्यक थी। फिर भी प्रारंभ में ही इस बात के अच्छी तरह प्रचार के लिए मुझे जोर देना चाहिए था। अगर मैंने ऐसा किया होता तो पाज जो संकट और हलचल है, वह बहुत कुछ बचाई जा सकती। ऐसा न करना एक बड़ी त्रुटि हुई । जब ठक्कर बापा मेरे पास आये तब मैं सोच रहा था कि इसका समुचित प्रायश्चित क्या है । बाद की बात तो आप जानते ही हैं।"
प्रश्न : “यदि आप नैतिक संस्कारों की नींव को, जिस पर कि समाज टिका हुआ है और जो कि एक लम्बे और कष्टपूर्ण अनुशासन से निर्मित है, ढीला करेंगे तो उससे जो अपूर्तिकर क्षति होगी, वह स्पष्ट है । गढ़े हुए संस्कारों का इस तरह भंग करने से ऐसा कोई प्रत्यक्ष लाभ नहीं दिखाई देता, जो उसके औचित्य को सिद्ध करे। पापका बचाव क्या है ? हम आपको नीचा दिखाने के लिए नहीं पाये हैं और न पाप पर विजय पाने के लिए ही आये हैं। हम तो केवल समझना चाहते हैं।"
गान्धीजी : "यदि कोई कट्टर संस्कारों के बाहर जाने को तैयार न हो तो कोई नैतिक उन्नति या सुधार की संभावना नहीं । सामाजिक . रूढ़ियों के सिंकजों में अपने को जकड़ कर हम लोगों ने खोया ही है । ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित नौ बाड़ों की जो रूढिगत कल्पना है, वह मेरे विचारों
से अपर्याप्त और दोषपूर्ण है। मैंने अपने लिए कभी इसे स्वीकार नहीं किया। मेरे मत से इन बाड़ों की आड़ में रहकर सच्चे ब्रह्मचर्य का प्रयल भी संभव नहीं। मैं बीस वर्ष तक दक्षिण अफ्रिका में पश्चिमी लोगों के साथ गहरे सम्पर्क में रह चुका हूं। हवलांग इलिस और बःण्ड रसल जैसे ख्यातनामा लेखकों को कृतियों को और उनके सिद्धान्तों को मैंने जाना है। वे सभी प्रसिद्ध विचारक खरे और अनुभवी हैं। अपने विचारों के
कारण और उन्हें प्रकाशित करने के कारण उन्हें कष्ट उठाने पड़े हैं। विवाह और प्रचलित नैतिक आचार-विधि की सम्पूर्ण अावश्यकता को - न मानते हुए भी ( यहाँ मेरा उनसे मतभेद ही है ) वे ऐसी संस्था और रीति-रिवाजों के बिना ही स्वतंत्ररूप से जीवन में पवित्रता लाना सम्भव
है और उसे लाना आवश्यक है, ऐसा मानते हैं। पश्चिम में ऐसे स्त्री-पुरुषों के सम्पर्क में पाया हूं जो कि पवित्र जीवन बिताते रहे हैं, हालांकि - वे प्रचलित प्रथानों और सामाजिक विश्वासों को वे नहीं मानते और न उनका पालन करते हैं। मेरी खोज कुछ-कुछ उसी दिशा में है। यदि
आप, जहाँ प्रावश्यक हो पुरानी बात को दूर कर सुधार करने की आवश्यकता और इच्छा रखते हों और वर्तमान युग के साथ मेल खाते हुए प्राध्यात्म और नैतिकता के आधार पर एक नई पद्धति का निर्माण करना चाहते हों, तो उस हालत में दूसरों की इजाजत लेने अथवा उन्हें समझाने का प्रश्न ही नहीं उठता। एक सुधारक उस समय तक नहीं ठहर सकता, जब तक कि सब में परिवर्तन होजाय। पहले सुधारक को ही करनी होगी और सारे संसार के विरोध के सन्मुख अकेले चलने का साहस करना होगा। मैं अपने अनुभव, अध्ययन और सुन के प्रकाश में ब्रह्मवर्य की उस वर्तमान परिभाषा की जांच करना चाहता हूं और उसे विस्तृत तथा संशोधित करन चाहता हूं। प्रतः जब भी अवसर पाता है तब मैं उससे बच कर नहीं निकलता और न उससे दूर ही भागता हूं। इसके विपरीत मैं अपना यह कर्त्तव्यधर्म मानता हूं कि मैं उसका सामना करूँ। और इसका पता लगाऊँ कि वह कहाँ लेजाकर छोड़ता है। और मैं कहाँ पर खड़ा हूं। स्त्री के स्पर्श से बचना और भयवश उससे दूर भाग जाना मेरी दृष्टि में सच्चे ब्रह्मचर्य की कामना करनेवाले के लिए अशोभनीय है। मैंने काम१-Mahatma Gandhi-The Last Phase pp. 583-84 २-श्री बोस और मनु बहन के अनुसार यह बात दो ही दिन हुई । पांच दिन संभवतः भूल से लिखा गया है। वे दोनों ता० १४-३-४७
को बिहार आये । ता० १५ और १६ को बातचीत हुई। -देखिए My days with Gandhi पृ० १७३, बिहारनी कोमी आगमां पृ० ४८, ५२, ६१,६४
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