________________
भूमिका
सन् १९४७ में उन्होंने लिखा :
"मेरी कल्पना का ब्रह्मचारी स्वाभाविक रूप से स्वस्थ होगा, उसका सिर तक नहीं दुखेगा, वह स्वभावतः दीर्घजीवी होगा, उसकी बुद्धि तेज होगी, वह पालसी नहीं होगा, शारीरिक या बौद्धिक काम करने में थकेगा नहीं और उसकी बाहरी सुघड़ता सिर्फ दिखावा न होकर भीतर का प्रतिबिंब होगी। ऐसे ब्रह्मचारी में स्थितप्रज्ञ के सब लक्षण देखने में पायेंगे। ऐसा ब्रह्मचारी हमें कहीं दिखाई न पड़े तो उसमें घबराने की कोई बात नहीं।. . ...... - "जो स्थिरवीर्य हैं, जो ऊर्ध्वरेता हैं, उनमें ऊपर के लक्षण देखने में पावें तो कौन बड़ी बात है ? मनुष्य के इस वीर्य में अपने-जैसा जीव पैदा करने की ताकत है, उस वीर्य को ऊँचे ले जाना ऐसी-वैसी बात नहीं हो सकती। जिस वीर्य की एक बूंद में इतनी ताकत है, उसके हजारों बंदों की ताकत का माप कौन लगा सकता है।"...
- महात्मा गांधी के सामने प्रश्न आते ही रहते–'क्या आप ब्रह्मचर्य का पूरा पालन करते हैं ?' 'क्या प्राप ब्रह्मचारी हैं ?' महोत्मा गांधी मे ऐसे प्रश्नों का उत्तर देते हुए अपनी स्थिति पर कई बार प्रकाश डाला।
सन् १९२४ में एक बार उन्होंने कहा : "मन, वाणी और काय से सम्पूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है। इस सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य की स्थिति को मैं अभी नहीं पहुंच सका हूं। पहुंचने का प्रयत्न सदा चल रहा है।"..."काया पर मैंने काबू पा लिया है । जाग्रत अवस्था में में सावधान रह सकता हूं। वाणी के संयम का यथायोग्य पालन करना भी सीख लिया है। पर विचारों पर प्रभी बहुत काबू पाना बाकी है। जिस समय जो बात. सोचनी हो, उस क्षण वही बात मन में रहनी चाहिए। पर ऐसा न होकर मौर बातें भी मन में प्रा जाती हैं और विचारों का द्वन्द्व मचा ही रहता है।
- "फिर भी जाग्रत अवस्था में मैं विचारों का एक-दूसरे से टकराना रोक सकता हूँ। मैं उस स्थिति को पहुंचा हुआ माना जा सकता हूं जब गन्दे विचार मन में पा ही नहीं सके। पर निन्द्रावस्था में विचार के ऊपर मेरा काबू कम रहता है। नींद में अनेक प्रकार के विचार मन में आते हैं, अनसोचे सपने भी दिखाई देते हैं। कभी-कभी इसी देह में की हुई बातों की वासना जग उठती है। ये विचार गन्दे हों तो स्वप्नदोष होता है। यह स्थिति, विकारयुक्त जीवन की ही हो सकती है। .. "मेरे विचारों के विकार क्षीण होते जा रहे हैं। पर अभी उनका नाश नहीं हो पाया है। अपने विचारों पर मैं पूरा काबू पा सका होता तो पिछले दस बरस के बीच जो तीन कठिन बीमारियां मुझे हुई...''वे न हुई होती। ."यह अद्भुत दशा तो दुर्लभ ही है । नहीं तो में अब तक उसको पहुंच चुका होता, क्योंकि मेरी प्रात्मा गवाही देती है कि इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए जो उपाय करने चाहिए, उनके करने में में पीछे रहनेवाला नहीं हूं।"पर पिछले संस्कारों को धो डालना सब के लिए सहज नहीं होता। इस तरह लक्ष्य तक पहुंचने में देर लग रही है, पर इससे मैंने तनिक भी हिम्मत नहीं हारी है। कारण यह है कि निर्विकार दशा की कल्पना में कर सकता हूं। उसकी धुंधली झलक भी जब-तब पा जाता हूं और इस रास्ते में में अब तक जितना मागे बढ़ सका हूं, वह मुझे निराश करने के बदले आशावान ही बनाता है।"
महात्मा गान्धी को एक अभिनन्दन पत्र में नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा गया था। उत्तर में बोलते हुए सन् १९२५ में उन्होंने कहा: "जब.. मुझे कोई नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहता है तब मुझे अपने-पर दया आती है। जिसके बाल-बच्चे हुए हैं, उसे नैष्ठिक ब्रह्मचारी कसे कह सकते हैं ? नैष्ठिक ब्रह्मचारी को न तो कभी बुखार आता है, न कभी सिर दर्द करता है, न कभी खांसी होती है और न कभी अपेंडिसाइटिस होता है ।...... मुझ पर नैष्ठिक ब्रह्मचर्य के पालन का आरोपण कर के कोई मिथ्याचारी न हो । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का तेज तो मुझ से अनेक गुना अधिक होना चाहिए। मैं आदर्श ब्रह्मचारी नहीं। हाँ, यह सच है कि मैं वसा बनना चाहता हूं।"
जब महात्मा गांधी ने स्वप्न-स्खलन की बात स्वीकार की तब एक सज्जन ने लिखा कि ऐसे स्वीकार का प्रभाव अच्छा नहीं हो सकता।
१-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ५२ २-अनीति की राह पर पृ०५६५८ ३.-ब्रह्मचर्य (०भा०)पृ० १२२-३
Scanned by CamScanner