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भूमिका
१०१ कभी यह अर्थ नहीं कि उसका चाहे जो अनुसरण करने लग जाय'।"
प्राचार्य तुलसी ने अनुभव-वाणी में कहा है : "सभी स्त्रियों को माता की दृष्टि से देखें। माता पूज्य होती है । उसमें विकार की दृष्टि नहीं बनती ।" 'मातृस्वसृसतातुल्यं दृष्ट्वा स्त्रीत्रिकरूपकम् ब्रह्मचर्य-पालन में सबसे बड़ी चीज स्त्रीमात्र में माता, बहिन और पुत्री-भाव का साक्षात्कार करना है । महात्मा गांधी के अनुसार उन्होंने ऐसी भावना को सम्पूर्णरूप से उत्पन्न कर लिया था। अत: असाधारण प्रयोगों में भी वे सम्पूर्ण निर्दाग रह सके, ऐसा उनका स्वयं का आत्मनिरीक्षण उन्हें कहता था।
गांधीजी के बाड़, विषयक विचार ऊपर में विस्तार से दिये गये हैं। उनमें "ब्रह्मचर्य से सम्बन्धित नौ बाड़ों की जो रूढिगत कल्पना है, वह मेरे विचारों से अपर्याप्त और दोषपूर्ण है। मैंने अपने लिए कभी इसे स्वीकार नहीं किया। मेरे मत से इन बाड़ों की प्राड़ में रह कर सच्चे ब्रह्मचर्य का प्रयत्न भी संभव नहीं" (पृ० ८८), "मुझे लगता है कि जो ब्रह्मचारी बनने की सच्ची कोशिश कर रहा है, उसे भी ऊपर बताई हुई मर्यादाओं की जरूरत नहीं" (पृ. ६७), जैसे वाक्य मिलते हैं। ऐसे वाक्यों को एक बार दूर रखा जाय तो देखा जायगा कि प्रारंभ से अन्त तक महात्मा गांधी बाड़ों की आवश्यकता का ही प्रतिपादन कर सके हैं, उनके खण्डन का नहीं। उन्होंने समय-समय पर वैसे ही नियम बतलाये हैं जो जैन धर्म की बाड़ों में मिलते हैं।
र सन् १९३२ में महात्मा गांधी ने कहा : "ब्रह्मचारी की अपनी व्याख्या का अर्थ ...."पूरी तरह स्पष्ट तो आज भी नहीं हुआ। 'जब मैं उस स्थिति में (निर्विकार स्थिति में) पहुंच जाऊंगा, तब इसी व्याख्या को नयी आँखों से देखूगा।"
सन् १९४२ में उन्होंने लिखा : "मैंने ब्रह्मचर्य-पालन का व्रत १६०६ में लिया था, अर्थात् मेरा इस दिशा में छत्तीस वर्ष का प्रयत्न है।..."मेरे कितने ही प्रयोग समाज के सामने रखने की स्थिति को प्राप्त नहीं हुए। जहाँ तक मैं चाहता हूं, वहाँ तक वे सफल हो जाये तो मैं उन्हें समाज के आगे रखने की आशा रखता हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि उनकी सफलता से पूर्ण ब्रह्मचर्य शायद प्रमाण में कुछ सहज बन जाय।" 2
072 महात्मा गांधी के इस दिशा के प्रयोग कौन-से थे और उनमें वे पूर्ण सफल हुए या नहीं, खोज करने पर भी इसका पता नहीं लग सका । ब्रह्मचर्य प्रमाण में कुछ सहज बन जाय, ऐसा कोई नया नियम उनकी ओर से सामने नहीं पाया। क्योंकि उन्होंने ब्रह्मचर्य-पालन के लिए वही नियम अन्त तक बतलाये, जो उन्होंने शुरू-शुरू में बतलाये थे। उनके सन् १९४७ में बतलाये हुए नियम वे ही हैं, जो उन्होंने सन् १९२० में बतलाये।
ब्रह्मचर्य के समाधि-स्थानों का जैसा सुव्यवस्थित रूप जैन धर्म में मिलता है, वैसा अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। गांधीजी द्वारा बताये हुए नियम भगवान महावीर द्वारा वर्णित समाधि-स्थानों से जरा भी भिन्न नहीं और न कोई नयी बात सामने रखते हैं।
महात्मा गांधी कहते हैं- "मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता जिसका अर्थ है-स्त्री का स्पर्श न करना।" "स्त्री का स्पर्श न करना ब्रह्मचर्य है"-ब्रह्मचर्य की ऐसी परिभाषा जैन आगम अथवा अन्य ग्रंथों में नहीं मिलती। जैन धर्म में कहा गया है कि स्त्री-स्पर्श न करने से ब्रह्मचर्य ... सुरक्षित रहता है। पर ऐसा नहीं कहा गया है कि स्त्री-स्पर्श न करना ही ब्रह्मचर्य है। जब साधक पूछता है कि ब्रह्मचर्य-पालन की सुगमता के लिए मेरा रहन-सहन कैसा हो, तब ज्ञानी गुरु कहते हैं-वह स्त्री-संसर्ग आदि का वर्जन करता हुआ रहे : inition १-साधक स्त्री-ससंक्त, नपुंसक-ससंक्त, पशु-संसक्त स्थान में रहनेवाला न हो।
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.. २-वह शृंगार-पूर्ण विकारी स्त्री-कथा करनेवाला न हो। ३-एक शय्या, आसन प्रादि का सेवन करनेवाला न हो। ४-स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियादि की भोर ताकनेवाला न हो।
५-प्रणीतभोजी न हो। १-पृ०७४ २-पथ और पाथेय पृ० ४० ३-सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ०४१ ४-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२
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