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शील की नब बाढ़
रोग के शान्त होने पर भी शैलक राजपिं विपुल अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य तथा मद्यपान में मूच्छित, गृद्ध एवं तद्रूप अध्यवसाय वाले हो गये। अवसन्न, अवसन्न- बिहारी, पार्श्वस्थ, पार्श्वस्थ-बिहारी, कुशील, कुशील-विहारी, प्रमत्त, प्रमत्त-विहारी, संसक्त, संसक्त-विहारी एवं ऋतु-बद्ध ( शेष काल में भी पीठ, फलक, शैय्या संस्तारक को भोगने वाले ) प्रमादी हो रहने लगे। इस तरह वे जनपद विहार से विहरने में असमर्थ हो गये।
एक दिन पंथक अनगार के सिवा अन्य ४६६ अनगार एकत्र हो परस्पर इस प्रकार विचार करने लगे निश्चयतः शैलक राजर्षि ने राज्य का परित्याग कर प्रक्रश्या महण की है किन्तु वे इस समय विपुल अशन, पान, खाद्य एवं मद्यपान में आसक्त हो गये हैं। वे जनपद विहार भी नहीं करना चाहते। साधु को इस प्रकार प्रमत्त होकर रहना नहीं कल्पता । अतः हमलोगों के लिए, प्रातः होने पर शैलक राजर्षि की आज्ञा ले प्रातिहारिक पीठ, फलग आदि को वापिस कर पन्यक अनगार को उनके वैयावृत्य में रख, विहार करना श्रेयस्कर है। इस प्रकार विचार कर प्रातः शैलक की आज्ञा ले ४६६ अनगारों ने बाहर जनपद में विहार कर दिया ।
एक बार शैलक कार्तिक चातुर्मास के दिन विपुल अशन, पान, खाद्य, और स्वाद का आहार और भरपूर मद्यपान कर पूर्वाह के समय सुखपूर्वक सो गये।
पत्थक अनगार ने चातुर्मासिक कार्योत्सर्ग कर दिवस सम्बन्धी प्रतिक्रमण और चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की इच्छा से शैलक राजर्षि को समाने के लिए अपने मस्तक से उनके चरणों का स्पर्श किया। शैलक पत्थक अनगार के पाद स्पर्श से "अत्यन्त कुद्ध हो उठे और बोले—“फिस निर्लज ने मेरा पाद-स्पर्श किया है !"
पन्धक विनय पूर्वक बोला "भगवन्! में पन्थक हूं। मैंने चातुर्मासिक प्रतिक्रमण में आप देवानुप्रिय को खमाने + के लिए मस्तक से आपके चरण-स्पर्श किये हैं। आप मुझे क्षमा करें। मैं पुनः ऐसा अपराध नहीं करूंगा ।" पथक अनगार की बातें सुन शैलक राजर्षि के मन में इस प्रकार का अध्यवसाय उत्पन्न हुआ - " मैं राज्य का परित्याग कर अनगार बना हूं। मुझे अवसन्न-विहारी, पार्श्वस्थ - विहारी बनकर रहना नहीं कल्पता । अतः मैं प्रातः मण्डूक राजा से पूछकर विहार कर दूंगा ।"
शैलक राजर्षि ने प्रातः पत्थक अनगार को साथ ले विहार कर दिया।
अन्य अनगारों ने जब यह सुना कि शैलक राजर्षि ने जनपद विहार किया है तो वे भी आकर उनसे मिल गये और उनकी पर्युपासना करने लगे ।
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