________________
कथा-३१:
पुण्डरीफ-कुण्डरीक कथा '
[ इसका सम्बन्ध टाल ९ गाथा ३६ (१० ५६ ) के साथ है ] पूर्व महाविदेह के पुष्पकलावती विजय में पुण्डरीकिनी नामक नगरी थी। उसमें महापद्म नामक राजा राज्य करता था। उसके पुण्डरीक और कुण्डरीक नाम के दो पुत्र थे। महापद्म ने अपने ज्येष्ठ पुत्र कुण्डरीक को राजगद्दी पर बैठाकर पुण्डरीक को युवराज वनाया और स्वयं धर्मघोप आचार्य से प्रव्रज्या ग्रहण कर तप संयम में विचरने लगे।
एक समय महापद्म मुनि विचरण करते हुए पुण्डरीक नगर में पधारे। उनकी वाणी सुनकर पुण्डरीक ने श्रावक के बारह व्रत धारण किये और कुण्डरीक ने दीक्षा ग्रहण कर ली। कुण्डरीक मुनि प्रामानुप्राम विहार करने लगे। अन्तप्रान्त
और रूक्ष आहार करने से उनके शरीर में दाह ज्वर उत्पन्न हुआ। विहार करते हुए वे पुण्डरीक नगरी पधारे। पुण्डरीक राजा ने मुनि की चिकित्सा करवाई, जिससे पुनः स्वस्थ हो गये। उनके स्वस्थ हो जाने पर साथवाले मुनि तो विहार कर गये किन्तु कुण्डरीक वहीं रह गए। उनके आचार-विचार में शिथिलता आगई। यह देखकर पुण्डरीक राजा ने मुनि को समझाया। बहुत समझाने से मुनि वहाँ से विहार कर गये। कुछ समय तक स्थविरों के साथ विहार करते रहे किन्तु बाद में शिथिल होकर पुनः अकेले हो गये और विहार करते हुए पुण्डरीक नगर आ गये। राजा ने मुनि को पुनः समझाया किन्तु उन्होंने एक भी न सुनी और राजगद्दी लेकर भोग भोगने की इच्छा प्रकट की। पुण्डरीक ने कुण्डरीक के लिए राजगद्दी छोड़ दी और स्वयं पंच मुष्टि लोचकर प्रव्रज्या ग्रहण की। 'भगवान् को वन्दन-नमस्कार के पश्चात् ही मैं आहार पानी ग्रहण करूँगा'-ऐसा कठोर अभिप्रह लेकर पुण्डरीक ने वहां से विहार किया। प्रामानुप्राम विचरण करते हुए भगवान् की सेवा में पहुंचे। उनके पास पहुंच उन्होंने पंच महाव्रत ग्रहण किये । स्वाध्याय-ध्यान से निवृत्त होकर पुण्डरीक मनि आहार के लिए निकले। ऊँच-नीच-मध्यम कुलों में पर्यटन करते हुए निर्दोप आहार प्राप्त किया। आहार स्क्ष अन्त-प्रान्त होने पर भी उन्होंने उसे शान्त भाव से खाया जिससे उनके शरीर में दाह-ज्वर की बीमारी हो गई। अर्घरात्रि के समय उनके शरीर में तीव्र वेदना हुई। आत्म-आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर उन्होंने संथारा ग्रहण किया। इस तरह बड़े शान्त भाव से उन्होंने देह को छोड़ा। मरकर वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए। कालान्तर में महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध गति को प्राप्त करेंगे।
उधर राजगद्दी पर बैठकर कुण्डरीक कामभोगों में आसक्त होकर अति पुष्ट और कामोत्तेजक पदार्थों का अतिमात्रा में सेवन करने लगा। वह आहार उसे पचा नहीं। अर्घ रात्रि के समय उसके भी शरीर में तीत्र वेदना होने लगी। आर्त रौद्र ध्यान युक्त मरकर वह सातवीं नरक में उत्पन्न हुआ। परिणाम से अधिक आहार करनेवाले की ऐसी ही अधोगति होती है। अतः परिमाण से अधिक आहार नहीं करना चाहिए।
१-शातासूत्र अ०१९ के आधार पर
Scanned by CamScanner