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भूमिका कि
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ऐसा होते हुए भी वापूने ने एक बार लिखा-"स्त्री को देखकर जिसके मन में विकार पैदा होता हो, वह ब्रह्मचर्य-पालन का विचार छोड़कर, अपनी स्त्री के साथ मर्यादापूर्वक व्यवहार रखे ; जो विवाहित न हो, उसे विवाह का विचार करना चाहिए.""........... ..
- यहां विकार की शांति का उपाय बताते हुए उन्होंने एक तरह से विवाहित-संभोग का अनुमोदन कर दिया। इस तरह अनुमोदन के अनेक प्रसंग महात्मा गांधी के जीवन में देखे जाते हैं।
उन्होंने एक बार कहा-"विवाहित स्त्री-पुरुष यदि प्रजोत्पत्ति के शुभ हेतु बिना विषय-भोग का विचार तक न करें, तो वे पूर्ण ब्रह्मचारी माने जाने के लायक हैं।" दूसरी बार कहा-"जो दंपति गृहस्थाश्रम में रहते हुए केवल प्रजोत्पत्ति के हेतु ही परस्पर संयोग और एकान्त करते हैं, वे ठीक ब्रह्मचारी हैं।" उन्होंने फिर कहा-“सन्तानोत्पत्ति के ही अर्थ किया हा संभोग ब्रह्मचर्य का विरोधी नहीं
.
इस तरह संतान के हेतु अग्रह्म का उनसे अनुमोदन हो गया। - एक बार महात्मा गांधी के साथी बलवन्तसिंहजी ने पूछा- "आप कहते हैं कि संतान के लिए स्त्री-संग धर्म है, बाकी - व्यभिचार है; और निर्विकार मनुष्य भी संतान पैदा कर सकता है। वह ब्रह्मचारी ही है । लेकिन जिसने विकार के ऊपर काबू पाया है, वह क्या संतान की इच्छा करेगा?" महात्मा गांधी ने उत्तर दिया : "हाँ, यह अलग सवाल है। लेकिन ऐसे भी लोग हो सकते हैं, जो निर्विकार होने पर भी पुत्र की इच्छा रखते हैं।" बलवन्तसिंहजी ने कहा: "अधिकतर तो संतान की भाड़ में काम की तृप्ति करते हैं।" महात्माजी वोले : "हां, यह तो ठीक है । अाजकल धर्मज संतान कहाँ है ? मनु की भाषा में एक ही संतान धर्मज है, बाकी सब पापज हैं।"
. महात्मा गांधी ने 'पुत्र की इच्छा' को भोगेच्छा से जुदा माना है। उन्होंने भोगेच्छा को विकार माना है, सन्तानेच्छा को नहीं। उनके विचार को संभवतः इस उदाहरण से समझा जा सकता है कि एक आदमी रसोई बनाने के लिए अग्नि सुलगाता है और दूसरा आदमी घर में आग लगाने के लिए अग्नि सुलगाता है। पहले मनुष्य का कार्य अनैतिक नहीं, दूसरे का अनंतिक है। उसी तरह जो विषय-भोग की कामना से भोग करता है, उस का कार्य अनैतिक है-अधर्म है। सन्तान की इच्छा से भोग करता है उसका नहीं। ...... जो शुद्ध दृष्टि पर गये हैं, उन ज्ञानियों का कहना है कि अग्नि जलाना मात्र हिंसा है, फिर वह किसी दृष्टि या प्रयोजन से ही क्यों न हो। रसोई बनाने के लिए अग्नि सुलगाना अनिवार्य हो सकता है। पर इस अनिवार्यता के कारण वह अहिंसा की दृष्टि से आध्यात्मिक नहीं कहा जा सकता। वैसे ही संयोग भले ही सन्तानेच्छा के लिए हो, वह कभी धर्म या प्राध्यात्मिक नहीं है। जननेन्द्रियों का उपयोग विषय-भोग की इच्छा से भी हो सकता है और सन्तान की इच्छा से भी। दोनों उपयोग अधर्म और अनाध्यात्मिक हैं । 'सन्तान की इच्छा पूरी करने की प्रक्रिया विषय-भोग ही है। 'सन्तान की इच्छा' और 'विषय-भोग की इच्छा' एक ही ब्रह्म.रूपी सिक्के के दो बाजू हैं । उन्हें भिन्न-भिन्न नहीं माना जा सकता। - भगवान महावीर और स्वामीजी की दृष्टि से निम्नलिखित तीनों प्रकार के कार्य अब्रह्मचर्य की कोटि के हैं : १-मन-वचन-काय से प्रब्रह्म का सेवन करना
२-मन-वचन-काय से प्रब्रह्म का सेवन कराना ... । ३-मन-वचन-काय से प्रब्रह्म-सेवन का अनुमोदन करना - इस दृष्टि से जो मन-वचन-काय से प्रब्रह्म का सेवन तो नहीं करता पर उसका सेवन करवाता या अनुमोदन करता है, वह भी ब्रह्मचारी नहीं।
१-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ०८ २–आरोग्य की कुंजी पृ० ३३ ३-ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० ८१ ४- वही पृ०७७ ५-बापू की छाया में पृ० २००
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