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________________ ७० यह महात्मा गांधी का उनकी अपनी दृष्टि से विचार है। भगवान महावीर के अनुसार कार्य की निष्यति 'तिविद्धं तिपिटे इस मंत्र के अनुसार होती है मन, वचन और कामये तीन किया मेहेतुकरण है। धीर करना, कराना धीर धनुमोदन करना, ये किया के तीन तरीके योग है। तीन करण, तीन योग से कार्य उपना है। उन्होंने कहा- जो पूर्ण ब्रह्मचारी होना चाहता है, उसे यावज्जीवन के लिए तीन करण, तीन योग से सर्व प्रकार के मैथुन का प्रत्याख्यान - करना होगा "नेव सर्व मेदुणं सेविता नेवमेदि मेट्रणं सेवाविया मेहूणं सेऽवि अन्नेन समजावाजावरजीवाणु तिथि गणे अन्नं न समाजाविनीया" भगवान महावीर के धनुसार जो मन-वचन-काम ब्रह्म का सेवन नहीं करता, वह देश ग्रहाचारी है। पूर्ण महाचारी यह है जो मन-वचन-काय का सेवन नहीं करता, न करवाता है गे से या कापून करेमि [न] कारवेमिक : वायाए और न करनेवाले का अनुमोदन करता है। महात्मा गांधी ने एक बार लिया "किसी का भी विवाह करने का अथवा उसमें भाग लेने का धदया उसे उत्तेजन देने का मेरा काम नहीं। पुनः श्राश्रम की भूमि पर विवाह हो, यह श्राश्रम के श्रादर्श के साथ मिलती वस्तु नहीं कही जा सकती। मेरा धर्म ब्रह्मचर्य का पालन करने-कराने का रहा है। मैं इस काल को प्रापत्तिकाल मानता हूं। वैसे समय में विवाह हो या प्रजावृद्धि हो, यह श्रनिष्ट समझता हूं। ऐसे कठिन समय में समझदार मनुष्य का कार्य योग कम करने पर त्यागवृत्ति बढ़ाने का होना चाहिए ।" इन उद्गारों से महात्मा गांधी का प्राग्रह पूर्ण ब्रह्मचर्य के लिए ही था, यह स्पष्ट है। ऐसा पक्ष, इच्छा धीर श्रादर्श होने पर भी महात्मा 'गांधी ने कितने ही विवाह अपने हाथों से कराये। एक बार उन्होंने कहा "मैं हूं कि भाप ब्रह्मचारी बनें तो क्या यह होनेवाली बात है ? वह तो एक आदर्श है; इसलिए मैं तो विवाह भी करा देता हूं। एक श्रादर्श देते हुए भी यह तो जानता हूं कि ये लोग भोग भी करेंगे।" शील की नय बाद इस तरह भौगोलिकी परम्परा को प्रसरण करनेवाले प्रसंगों में महात्मा गांधी भी मदानन्दा भाग लेते हुए देखे जाते हैं। एक बार महात्मा गांधी से पूछा गया पति को उपदंश जैसा कठिन रोग हो तय स्त्री क्या करे !" उन्होंने उत्तर दिया ...ऐसे पति को क्लब समझ कर उसे दूसरी शादी कर लेनी चाहिए...।" यह उत्तर दो अपेक्षा से ही हो सकता है - ( १ ) भोगी पति की अपेक्षा से, जो ऐसे रंग के समय भी संयम नहीं रख पाता । इस अपेक्षा से ऐसा उत्तर 'पाय' समाचरेत् ही होगा। (२) भोग की कामना रखनेवाली पत्नी की धपेक्षा से इस धपेक्षा से यह उत्तर मोग की राह दिखाता है। संयम का मार्ग नहीं । महात्मा गांधी कहा करते थे : "स्त्री-पुरुष के पत्नी यति तरीके के सांसारिक जीवन के मूल में भोग है।" एक पति को छोड़कर दूसरे पति के साथ विवाह करने में तो प्रत्यक्षतः यह एक मूल बात है। ऐसी हालत में विवाह का सुझाव श्रब्रह्म का ही अनुमोदन कहा जा सकता है। एक बार बलवन्तसिंहजी ने पूछा, "कुछ लोग वासना का क्षय करने के लिए विवाह की आवश्यकता मानते हैं । क्या भोग से वासना का क्षय हो सकता है ? " बापू ने जवाब दिया- " हरगिज नहीं" । " यह ठीक वैसा ही उत्तर है, जैसा श्री हेमचन्द्राचार्य ने दिया : "जो स्त्री संभोग से कामज्वर को शान्त करना चाहता है, वह घी की श्राहुति से अमि को शमन करना चाहता है।" स्त्रीसंभोगेन यः कामश्वरं प्रतिचिकीर्षति । तात्याहुत्या विध्यापयितुमिच्छति ॥ १ - त्यागमूर्ति भने बीजा देखो पृ० १७४ २ - ग्रहाचर्य (१० मा० ) पृ० ८० ३ - वही पृ० ६० ४ - बापु ना पत्रो -५ कु० प्रेमावहेन कंटकने पृ० १०३ ५- बापू की छाया में पृ० २०० ६ - योगशास्त्र २.८१ Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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