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भूमिका
(४) पूर्ण ब्रह्मचारी में जो स्थिति उत्पन्न होती है, वह उनमें उत्तन नहीं हुई। सन् १९४७ में उन्होंने गीता में पाए हुए स्थितप्रज्ञ के वर्णन की कसौटी पर अपने को कसते हुए कहा : "मैं स्वीकार करता है कि स्थितप्रज्ञ की स्थिति को पहुंचने की कोशिश करने पर भी मैं अभी उससे बहुत दूर हूं'।" स्थितप्रज्ञ पूर्ण ब्रह्मचारी का ही दूसरा नाम है।
महात्मा गांधी ने लिखा है : "जो मनुष्य अपनी प्रांखों में तेज लाना चाहता है, जो स्त्री-मात्र को अपनी सगी माता या बहन मानता है, उसे तो रज-कण से भी क्षुद्र होना पड़ेगा। उसे एक खाई के किनारे खड़ा समझिए। जरा भी मुंह इधर-उपर हुमा कि गिरा। वह अपने मन से भी अपने गुणों की कानाफूसी करने का साहस नहीं कर सकता... । नारद की कथा स्मरण रखो। नारद ने ज्यों ही ब्रह्मचर्य का अभिमान किया कि गिरे।"
महात्मा गांधी ने अपने विषय में जो कहा है कि वे पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं सम्भव है कि उसमें नम्रता की इस भावना ने भी कुछ कार्य किया हो पर साथ ही अपने अन्तर चित्रों को उपस्थित करते हुए उन्होंने सत्य स्थिति नहीं रखी हो, यह भी नहीं कहा जा सकता। निश्चय हो उन्होंने अपना चित्रण इस भावना से किया है-"जो प्रादमी जैसा है, उसे वैसा जानने में सदा सबका हित है। इससे कभी कोई हानि नहीं होती।" ऐसी स्थिति में हम उनके अपने अङ्कन को सही मान लें तो भी गलती नहीं करेंगे।
महात्मा गांधी ने जो कहा है कि वे पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं, उससे कोई ऐसा अर्थ न लगावे कि इतने-इतने भगीरथ प्रयत्न करने पर भी जव महात्मा गांधी पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं हो सके तब दूसरों की तो हस्ती ही क्या है ? महात्मा गांधी ने एक बार नहीं अनेकों बार कहा है : "अपने आदर्श से दूर होते हुए भी मैं यह मानता हूं कि जब मैंने इस व्रत का प्रारम्भ किया तब मैं जहाँ पर था, उससे आगे बढ़ गया हूं।"..."मैं अपनी व्याख्या को पूर्णतया पहुँच नहीं सका, तो भी मेरी दृष्टि से मेरी खासी अच्छी प्रगति हुई है५...।' एक बार उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा : "मैं भी विचार के विकार से दूर न हो सका तो दूसरों के लिए क्या प्राशा, ऐसी गलत त्रिराशि जोड़ने के बदले ऐसी सीधी त्रिराशि क्यों न लगायी जाय कि जो गांधी एक समय विकारी और व्यभिचारी था, वह आज अपनी स्त्री के साथ अविकारी मित्रता रख सकता हो, यदि वह
आज रंभा जैसी युवती के साथ भी अपनी लड़की या बहिन के समान रहता हो, तो हम सब भी ऐसा क्यों न कर सकेंगे। हमारे स्वप्नदोष, विचार-विकार ईश्वर दूर करेगा ही। यही सीधा मेल है।"
पूर्ण ब्रह्मचारी होना संभव है, इस बात को महात्मा गांधी ने इस प्रकार रखा : “जब विचार पर पूर्ण काबू प्राप्त हो जाता है तब पुरुष स्त्री को अपने में समा लेता है और स्त्री पुरुष को। इस प्रकार के ब्रह्मचारी के अस्तित्व में मेरा विश्वास है।"
ऐसे ब्रह्मचारी दुनिया में बिरले ही होते हैं पर नहीं होते, ऐसा नहीं है। महात्मा गांधी लिखते हैं : "ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले इस दुनिया में बहुतेरे पड़े हैं। पर वे गली-गली मारे-मारे फिरें तो उनका मूल्य ही क्या होगा ? हीरा पाने के लिए हजारों मजदूरों को घरती के पेट में समा जाना पड़ता है। इसके बाद भी जब धूप-कंकड़ों का पहाड़ धो डाला जाता है, तब कहीं मुट्ठी-भर हीरा हाथ लगता है। तब सच्चे ब्रह्मचर्यरूपी हीरे की तलाश में कितनी मेहनत करनी होगी, इसका जवाब हर आदमी त्रैराशिक करके निकाल सकता है।"
उन्होंने लिखा है : "ब्रह्मचर्यादि महावतों की सत्यता या सिद्धि मेरे जैसे किसी पर अवलम्बित नहीं, इसके पीछे लाखों ने तेजस्वी तपश्चर्या की है, और कितनों ही ने सम्पूर्ण विजय प्राप्त की है।
१-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ६६ २.-ब्रह्मचर्य (प० भा०) पृ० ५५-५६ ३-अमृतवाणी पृ० ११५ ४-ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ. ७ ५-आरोग्य की कुंजी पृ० ३२ ६-संयम अने संततिनियमन (गु०) पृ० ५६ ७-वही (गु०)पृ०६३ ८-अनीति की राह पर पृ०.६२
-संयम अने संततिनियमन (गु०) पृ० ५६
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