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शील की नव वाड
महात्मा गांधी ने लिखा है कि उनके मन के विकार शांत नहीं हए. इसलिए वे ब्रह्मचारी नहीं। श्रमण भगवान महावीर की दृष्टि से उन्होंने मन-वचन-काया से करने, कराने रूप भङ्गों का भी मोचन नहीं किया, इसलिए भी पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं।
sleyns, प्राचार्य भिक्ष ने कहा- भगवन् ! मैने यह समझा है और इसी तुला से तोला है कि जिसका करना धर्म है, उसका कराना और अनुमोदन करना भी धर्म है और जिसे करना अधर्म है, उसका कराना और अनुमोदन करना भी अधर्म है।
"न को काटने में पाप है तो उसे काटने के लिए कुल्हाड़ी देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं।
"गांव जलाने में पाप है तो उसे जलाने के लिए अग्नि देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है। ": "युद्ध करने में पाप है तो युद्ध करने के लिए शस्त्र देने और उसका अनुमोदन करने में भी धर्म नहीं है।"
इसी तरह किसी भङ्ग से प्रब्रह्मचर्य का सेवन करनेवाले ही प्रब्रह्मचारी नहीं, पर सेवन करानेवाला और अनुमोदन करानेवाला भी प्रब्रह्मचारी है।
महात्मा गांधी ने पूर्ण ब्रह्मचारी की एक कसौटी दी है। श्रमण भगवान महावीर और 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई' इस तरह भगवान महावीर को माननेवाले स्वामीजी ने भी कसौटी दी है। इन कसौटियों पर अपने को कसता हुआ जो अपने हृदय के एक-एक कोने से ब्रह्म के कड़े कचरे को दूर करता जायगा, वह निश्चय ही एक दिन पूर्ण ब्रह्मचारी हो जायगा, इसमें कोई सन्देह की चीज नहीं।
२१-महात्मा गांधी और ब्रह्मचर्य के प्रयोग
(१) कंधे का सहारा और साथ टहलनामा सन् १९४२ में महात्मा गांधी ने कहा : "ज्यों-ज्यों हम सामान्य अनुभव से आगे बढ़ते हैं, त्यों-त्यों हमारी प्रगति होती है। अनेक अच्छीबुरी शोधं सामान्य अनुभव के विरुद्ध जाकर ही हो सकी हैं। चकमक से दियासलाई और दियासलाई से बिजली की शोध इसी एक चीज की प्राभारी है। जो बात भौतिक वस्तु पर लागू होती है, वही आध्यात्मिक पर भी होती है।..."संयम धर्म कहाँ तक जा सकता है, इसका प्रयोग करने का हम सब को अधिकार है। और ऐसा करना हमारा कर्तव्य भी है।" इसी भावना से वे ब्रह्मचर्य के विषय में कई प्रकार के प्रयोग करते रहे।
महात्मा गांधी बालिकाओं और स्त्रियों के कंधे का सहारा लेकर घूमा करते। भारतवासियों के लिए यह एक नया प्रयोग ही था। इस प्रयोग की शरूपात के सम्बन्ध में महात्मा गांधी ने लिखा है :
"सन् १८९१ में विलायत से लौटने के बाद मैंने अपने परिवार के बच्चों को करीब-करीब अपनी निगरानी में ले लिया, और उनके-- बालक-बालिकामों के कंधों पर हाथ रखकर उनके साथ घूमने की आदत डाल ली। ये मेरे भाइयों के बच्चे थे। उनके बड़े हो जाने पर भी यह प्रादत जारी रही। ज्यों-ज्यों परिवार बढ़ता गया, त्यों-त्यों इस प्रादत की मात्रा इतनी बढ़ी कि इसकी ओर लोगों का ध्यान आकर्षित होने
लगा।"
यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि यह प्रयोग बाद में आश्रम की बहिनों के साथ भी चला। सन् १९२६ में एक सज्जन ने उत्तेजित होकर लिखा :
"इस सम्बन्ध में मेरी विनति है कि ऐसा प्रयोग आपको भी नहीं करना चाहिए। काष्ठ की पुतली भी मनुष्य को फंसा लेती है तो पराई -स्त्रियों के कंधे पर हाथ रख कर फिरना और चाहे जिस तरह स्पर्श करना, यया यह मनुष्य को अधःपतन के रास्ते पर ले जानेवाला नहीं ?...आपने तो योगाभ्यास ठीक साधा होगा, ऐसा मान भी लिया जाय तो दुनिया का वैसा साधा हा नहीं होता । दुनिया प्राज, बोलने के वनस्वित पाप क्या करते हैं, यह देखने और उस प्रकार करने के लिए प्रेरित होती है, और बिना विचारे अनुकरण के लिए चल पड़ती है।"
१-भिक्षु विचार दर्शन पृ०-७६-८०
-आरोग्य की कुंजी पृ० ३३ ३-हरिजन सेवक, २७-६-३५ : ब्रह्मचर्य (प: भा०) पृ०६७ .
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