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शील की नव बाड़
उन्होंने तीसरे पक्ष को शक्लकृष्णपक्षी कहा है। विरति को अपेक्षा से ऐसा जीवन सम्यक् और संशुद्ध होता है और अविरति की अपेक्षा से प्रसम्यक और प्रसंशुद्ध होता है।
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.... विरताविरत के प्रत स्थूल होने के कारण व्रत की मर्यादा के बाहर कितनी ही छूटें रह जाती हैं। ये छूटें जीवन का अधर्म पक्ष हैं। प्रार पालन की प्रात्मशक्ति की न्यूनता की सूचक हैं। प्रतों की अपेक्षा से उसका जीवन धार्मिक माना गया है और अव्रत-छूटों की अपेक्षा अधामिका इसी कारण उसके जीवन को मिश्रपक्षी, धर्माधर्मी प्रादि कहा गया है। जो छूटों को जितना कम करता है, वह प्रादर्श के उतना ही नजदीक जाता है।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जो महायतों को ग्रहण करने की सामर्थ्य नहीं रखता, वह स्थूल व्रतों को ग्रहण कर सकता है। 1, भगवान महावीर के समय में अणुव्रत-स्थूलयत लेने की परिपाटी थी, उसके चित्र प्रागमों में अंकित हैं। जो महाव्रतों को ग्रहण करने में अंसमर्थ होता वह कहता :
"हे भन्ते ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है। हे भन्ते ! मुझे निर्ग्रन्थ-प्रवचन में प्रतीति है। हे भन्ते ! मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में रुचि है। यह ऐसा ही है भन्ते ! यह तथ्य है भन्ते ! यह अवितथ है भन्ते ! हे भन्ते ! मैं इसकी ईच्छा करता हूँ। हे भन्ते! इसकी प्रति इच्छा करता हूँ। हे भन्ते ! इसकी इच्छा, प्रति इच्छा करता है। पाप कहते हैं वैसा ही है। आप देवानुप्रिय के समीप अनेक व्यक्ति मुण्ड हो अागारिता से अनगारिता में प्रवजित होते हैं। पर मैं वैसे मुण्ट हो प्रव्रज्या ग्रहण करने में असमर्थ हूँ। मैं देवानुप्रिय से पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप द्वादशविध गृहिधर्म लेना चाहता हैं"
जो बात अन्य प्रतों के बारे में है वही ब्रह्मचर्य महायत के बारे में है । ब्रह्मचर्य महावत ही सर्वोच्च प्रादर्श है। पर जो उसे ग्रहण नहीं कर सकता, वह कम-से-कम स्थूल मैथुन विरमण व्रत को तो ग्रहण करे—यह जैन धर्म की भावना है।
गृहपति मानन्द ने महावीर से यह व्रत इस रूप में लिया-"अपनी एक शिवानन्दा भार्या को छोड़ कर अन्य सर्व मैथुन-विधि का प्रत्याख्यान करता हूं।" - इस व्रत का एक प्राचीन रूप इस प्रकार मिलता है : "चतुर्थ अणुव्रत स्थूल मथुन से विरमणरूप है । मैं जीवनपर्यन्त देवता-देवांगना सम्बन्धी मथन का द्विविध त्रिविध से प्रत्याख्यान करता हूं। अर्थात् मैं ऐसे मैथुन का मन, वचन और काया से सेवन नहीं करूंगा, नहीं कराऊंगा। परपुरुष-स्त्री-पुरुष और तिर्यश्च-तिर्यञ्ची विषयक मथुन का एक एकविध एकविध से अर्थात् शरीर से सेवन नहीं करूंगा।"
इसका अर्थ यह है
(१) इसम व्रतग्रहीता द्वारा स्वदार सम्बन्धी सर्व प्रकार के मथुन की छूट रखा गइ है। ................. (२) देवता-देवांगना के सम्बन्ध में मन, वचन और काय से अनुमोदन की छूट रखी गयी है। ..
. (३) पर-स्त्री और तिर्यञ्च सम्बन्ध में शरीर से मथुन सेवन कराने और अनुमोदन की छूट तया मन और वचन से करने, कराने एवं अनुमोदन की छूट रखी गई है। प, इसका कारण यह है कि गार्हस्थ्य में अनुमोदन होता रहता है और अपनी अधीन सन्तान और पशु-पक्षी आदि के मथुन-प्रसंगों का शरीर से कराना और अनुमोदन भी होते ही हैं। मन और वचन पर संयम न होने से अथवा प्रावश्यकतावश उनसे भी करने, कराने और अनुमोदन को छूट रखी गई है। ...
महात्मा गांधी ने लिखा है : "हाँ, प्रत की मर्यादा होनी चाहिए। ताकत के उपरांत व्रत लेनेवाला अविचारी गिना जायगा । व्रत में शों के लिए अवकाश है।...प्रत अर्थात् कठिन से कठिन वस्तु करना ऐसा अर्थ नहीं है। व्रत अर्थात सहज अथवा कठिन वस्तु नियमपूर्वक करने का निश्चय।"
इस स्थूल व्रत के सम्बन्ध में इतना उल्लेख और है : “इस चतुर्थ स्थूल मैथुन विरमण व्रत के पांच प्रतिचार जानने चाहिए और उनका पाचरण नहीं करना चाहिए। वे इस प्रकार हैं-(१) इत्वरपरिगृहीतागमन (२) अपरिगृहीतागमन (३) अनंगक्रीड़ा (४) परविवाहकरण और (५) कामभोगतीवाभिलाषा.।".
mista १-(क) सूत्रकृताङ्ग २.१ २.२ (ख) ओपपातिक सू०१२३.१२५, (ग) दशाश्रुतस्कंध द.६. २-उपासकदशा १.१. ३-धर्ममंथन पृ० १२६-७
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