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भूमिका
इनका अर्थ यह है :
(१) थोड़े समय के लिए दूसरे के द्वारा गृहीत अविवाहित स्त्री को इत्वरपरिगृहीता कहते हैं। वह वास्तव में परदार न होने पर भी अणुवती उसे परदार समझे और उसके साथ मैथुन सेवन न करे।
(२) किसी के द्वारा प्रगृहीत वेश्या आदि परदार नहीं पर अणुव्रती उसे परदार समझे और उसके साथ मैथुन-सेवन न करे।
(३) आलिंगनादि क्रीड़ा अथवा अप्राकृतिक क्रीड़ा को अनंगक्रीड़ा कहते हैं । अणुव्रती इन्हें भी मैथन समझे और परस्त्री अथवा किसी के साथ ऐसा दुराचार न करे।
(४) अपनी सन्तान अथवा परिवार के व्यक्तियों के अतिरिक्त परसंतति का विवाह न करे।
(५) कामभोग की तीव्र अभिलाषा न रखे अथवा कामभोग का तीव्र परिणाम से सेवन न करे।
ऊपर के विवेचन से स्पष्ट है कि प्रादर्श तो सबके लिए महाव्रत ही हैं, पर पाप-त्याग की सीमा प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार कर सकता है।
स्थूल मैथुन-व्रत कामवासना और पत्नीत्व-भावना का स्थानबद्ध कर देता है । स्वदार-संतोष का अर्थ है-प्रब्रह्म में अपनी पत्नी की सीमा के बाहर न जाना। जैन धर्म कहता है कि अपनी पत्नी तक सीमित रहना भी ब्रह्मचर्य नहीं है, कामवासना का ही सेवन है। अत: स्वदार-संतोषी काम-वासना और भोगवृत्ति को क्षीण करता चला जाय। सीमित करने की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया अन्य व्रतों में ही निहित है। दिग्वत द्वारा वह दिशाओं की सीमा कर ले और उस सीमा-मर्यादा के बाद अब्रह्म का सेवन न करे। उस क्षेत्र-मर्यादा के बाहर वह पत्नी के साथ भी ग्रहाचारी रहे । भोगोपभोग व्रत में दिनों को मर्यादा कर ले और उन दिनों के उपरांत विषय-सेवन में प्रवृत्त न हो। इसी तरह दिवा-मैथुन का त्याग कर मर्यादित हो जाय । पार्त-रौद्र ध्यान से बचकर मानसिक संयम साधे। अपनी मर्यादानों को दैनिक नियमों द्वारा और भी सीमित करे। पूर्व दिनों में पौषधोपवास कर ब्रह्मचर्य में रात्रियां बिताये। अपने जीवन को इस तरह दिनोंदिन संयमी करता हुआ अपने साथी की ब्रह्मचर्यभावना को भी बढ़ाता जाय । और इस तरह बढ़ते-बढ़ते अपनी पत्नी के प्रति भी पूर्ण ब्रह्मचारी हो जाय । जैन धर्म का यही उपदेश है कि अपने गृहस्थ-जीवन में भी पति-पत्नी अति भोगी न हों पौर विषय-वासना को दिनों-दिन घटाते जाय। - महात्मा गांधी लिखते हैं : "अपनी स्त्री के साथ संग चालू रख कर भी जो पर-स्त्रो संग छोड़ता है, वह ठीक करता है। उसका ब्रह्मचर्य सीमित भले ही माना जाय लेकिन इसे ब्रह्मचारी मानना, इस महा शब्द का खून करने के बराबर है।"
जैन धर्म की दृष्टि से भी गृहस्थ वास्तव में ही ब्रह्मचारी नहीं है । वह स्वदार-संतोषी है। अपनी स्त्री के साथ भोग भोगने की उसकी छुट व्रत नहीं, यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है। छूट की अपेक्षा वह अब्रह्मचारी है। परदार-त्याग की अपेक्षा वह ब्रह्मचारी है। 2 उपनिषद् में एक विचार मिलता है-"जो दिन में स्त्री के साथ संयोग करता है, वह प्राण को क्षीण करता है और जो रात में स्त्री के साथ संयोग करता है, वह ब्रह्मचर्य ही है।
इसके बदले में जैन धर्म का विचार है-ऐसा मनुष्य दिवा-मैथुन के त्याग की अपेक्षा से अणुव्रती है और रात्रि-मैथुन की अपेक्षा से प्रब्रह्मचारी। मैथुन-काल-रात्रि में भी संभोग करनेवाला ब्रह्मचारी नहीं है।
स्मृति में उल्लेख है-"जो छः दूषित रात्रि, निन्दित आठ रात तथा पर्व दिन का त्याग कर सोलह रात में केवल दो रात--स्त्री-संगम करता है; वह चाहे जिस पाश्रम में हो ब्रह्मचारी है।"
जैन धर्म के अनुसार अन्य रात्रियों का त्याग ब्रह्मचर्य है । दो रात्रि का भोग अब्रह्म है, उससे कोई ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता। १-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० १०१ २-प्रश्नोपनिषद् १.१३: ।
प्राणं वा एते प्रस्कन्दति ये दिवा रत्या संयुज्यन्ते ब्रह्मचर्यमेवेतद्यद्रात्रौ रत्या संयुज्यन्ते । -मनुस्मृति अध्याय ३, श्लोक ५०
नन्द्यास्वष्टास चान्यास स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन् । * ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन ॥
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