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२१.
भूमिका:
२–मैं दूसरे महाव्रत में यावज्जीवन के लिए सर्व प्रकार के मृषा-झूठ बोलने का (वाणी दोष का) त्याग करता हूं। क्रोध से, लोम से, भय से या हास्य से में मन, वचन और काया से झूठ नहीं बोलूंगा, न दूसरों से झूठ दुलाऊँगा, न झूठ बोलते हुए अन्य किसी का अनुमोदन - करूंगा। में अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निंदा करता हूं, गर्दा करता हूं और अपने आप को उससे हटाता हूँ
३ में तीसरे महावत में यावज्जीवन के लिए सर्व प्रदत्त का त्याग करता हूं। गांव, नगर या अरण्य में अल्प या बहुत, छोटी या बड़ी, सचित्त या अचित्त कोई भी वस्तु बिना दी हुई नहीं लूंगा, न दूसरे से लिवाऊंगा और न कोई दूसरा लेता होगा तो उसे अनुमति दूंगा। में प्रतीत. के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ, गर्दा करता हूं और अपने पापको उससे हटाता हूँ। १
४-मैं चौथे महाव्रत में सर्व प्रकार के मैथुन का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूं। मैं देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरे से सेवन नहीं कराऊंगा और सेवन करनेवाले का अनुमोदन नहीं करूंगा। मैं अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूँ और अपने पापको उससे हटाता हूँ।
५-मैं पाँचवे महाव्रत में सर्व प्रकार के परिग्रह का यावज्जीवन के लिए त्याग करता हूं। मैं अल्प या बहुत, अणु व स्थूल, सचित्त या अचित्त किसी भी परिग्रह को ग्रहण नहीं करूंगा, न ग्रहण कराऊंगा, न परिग्रह ग्रहण करनेवाले का अनुमोदन करूंगा। मैं अतीत के उस पाप से निवृत्त होता हूँ, उसकी निन्दा करता हूं, गर्दा करता हूं और अपने आपको उससे हटाता हूँ।
जो ब्रह्मचर्य को महाव्रत के रूप में ग्रहण करना चाहेगा उसे उपयुक्त महाव्रतों को उपर्युक्त रूप में एक साथ ग्रहण करना होगा। इस सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन पहले किया जा चुका है।
१०-ब्रह्मचर्य अणुव्रत के रूप में hindi me यहाँ प्रश्न हो सकता है कि महाव्रत तो प्रत्यन्त दुष्कर हैं, उन्हें तो संसार-त्यागी ही ग्रहण कर सकता है । जो गार्हस्थ्य में रहते हुए महिंसा आदि को अपनाना चाहे वह क्या करे ? ___ महावीर ने तीन तरह के मनुष्यों की कल्पना दी है :
(१) एक ऐसे हैं जो परलोक की चिन्ता ही नहीं करते और जो घिग्जीवन की ही प्रशंसा करते हैं । जो हिंसा आदि पर-क्लेशकारी पापों से जरा भी विरत नहीं होते और महान् प्रारम्भ, महान् समारम्भ और नाना पाप कर्म कर उदार मानुषिक भोगों में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं । ये अविरत हैं। ऐसे व्यक्ति दो कोटि के होते हैं—एक जिन्हें धर्म पर तो विश्वास है पर जो पापों को छोड़ नहीं सकते। दूसरे वे जो धर्म में भी विश्वास नहीं करते और पापों को भी नहीं छोड़ते।।
(२) दूसरे ऐसे हैं जो धन-सम्पत्ति, घर-बार, माता-पिता और शरीर की प्रासक्ति को छोड़कर सर्वथा निरारम्भी और निष्परिग्रही जीवन बिताते हैं। ये ही हिंसा आदि पापों से मन, वचन और काया द्वारा न करने, न कराने और न अनुमोदन करने रूप से सर्वथा जीवनपर्यंत विरत होते हैं। इनके उपर्युक्त पांचों महाव्रत होते हैं। ये सर्व विरत कहलाते हैं।
(३) तीसरे ऐसे हैं जो धर्म में विश्वास करते हुए भी पापों को सर्वथा छोड़कर महाव्रत नहीं ले सकते। जो अपने में महाव्रतों को ग्रहण करने का सामर्थ्य नहीं पाते, वे प्रादर्श में विश्वास रखते हुए यथाशक्ति पापों को छोड़ स्थूल व्रतों को ग्रहण करते हैं। उनकी प्रतिज्ञाओं में स्थूल हिंसा-त्याग, स्थूल झूठ-त्याग, स्थूल चोरी-त्याग, स्वदार-सन्तोष-परदार-त्याग, स्थूल परिग्रह-त्याग, दिक्मर्यादा, उपभोग-परिभोग-परिमाण, प्रपध्यानादि रूप अर्नथ दण्ड-त्याग, सामायिक-प्रात्म-पर्युपासन, पौषधोपवास–ब्रह्मचर्यपूर्वक उपवास और अतिथिसंविभाग-इन बारह व्रतों का समावेश होता है। इन्हें विरताविरत कहते हैं।
- भगवान ने पहले वर्ग को प्रधर्मपक्षी, कृष्णपक्षी प्रादि कहा है। ऐसे जीवन को उन्होंने अनार्य, अन्यायपूर्ण, अशुद्ध, मिथ्या और प्रसाधु
_उन्होंने दूसरे वर्ग को धर्मपक्षी, शुक्लपक्षी प्रादि कहा है। ऐसे उपशांत जीवन को उन्होंने पार्य, संशुद्ध, न्यायसंगत, एकति, सम्यक् और साथ कहा है।
१-आचाराब२.२४
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