________________
५१:
भूमिका
महात्मा गांधी लिखते हैं- "जो व्यक्ति परम रूपवती रमणी को देखकर अविचल नहीं रह सकता, वह ब्रह्मचारी नहीं" ।" "स्त्री पर नजर पड़ते ही ... जिसे विकार हो जाता है, वह ब्रह्मचारी नहीं। उसके लिए सजीव पुतली श्रौर काष्ठ की निश्चेष्ट पुतली एक-सी होनी चाहिए ।"
महात्मा गांधी ने जो बात यहाँ कही है, वह आदर्श ब्रह्मचारी की कसौटी है । जो श्रप्सरा को देख कर भी विचलित न हो, वह ब्रह्मचारी
है।
कवि रायचंद्र ने भी कहा है :
निरखी ने नवयौवना देश न विषय विकार । गणे काष्ठ नी पुतली ते भगवान समान ॥
ब्रह्मचारी स्त्रियों को देख नहीं सकता - बाढ़ इस रूप में नहीं है, पर वह उन्हें मोहपूर्वक न देखे इस रूप में है जैसे स्त्री पर नजर पड़ते ही जिसे विकार हो जाता है, वह ब्रह्मचारी नहीं वैसे ही जो स्त्री को मोह-भाव से ताकता रहता है, वह भी ब्रह्मचारी नहीं है। विनोबा लिखते है "ब्रह्मचारी की दृष्टि यह नहीं होनी चाहिए कि वह स्त्री को देख ही नहीं सकता एक दफ़ा साबरमती आश्रम में 'नाहं जानामि केयूरे, नाहं जानामि कुण्डले । नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ' वाक्य पर चर्चा चली। बापू तो क्रान्तिकारी ही थे । उन्होंने कहा कि 'लक्ष्मण का यह वाक्य मुझे अच्छा नहीं लगता।' फिर उन्होंने मुझसे पूछा कि 'तेरी इस पर क्या राय है ? ' तो मैंने कहा कि 'आप ने जिस दृष्टि से वह वाक्य नापसन्द किया, वह दृष्टि हो, तो वह वाक्य नापसन्द करने ही लायक है कि लक्ष्मण ब्रह्मचारी था और उसने सीता का मुख ही नहीं देखा था । अगर ब्रह्मचारी ऐसी मर्यादा से रहे कि वह स्त्री का मुख ही नहीं देखता, तो वह गलत बात है ।'...... इसलिए जहाँ ब्रह्मचारी के मन में यह भावना श्रायो कि सामने जो स्त्री श्रायी है, उसे मैं नहीं देख सकता हूँ, तो वह उसकी कमी मानी जायगी ४ ।"
विनोबा भावे के कथनानुसार भी यही है कि ब्रह्मचारी स्त्री को न देख सके, ऐसी बात नहीं पर वह श्रासक्तिपूर्वक न देखे। श्रांख के संयम के विषय में महात्मा गांधी ने लिखा है :
"आँख को निश्चल और अच्छा रखना चाहिए। आँख सारे शरीर का दीपक है, और शरीर का उसी तरह श्रात्मा का दीपक है, ऐसा कहें तो भी चल सकता है; कारण जब तक आत्मा शरीर में वसता है तब तक उसकी परीक्षा आँख से हो सकती है। मनुष्य अपनी वाचा से कदाचित् प्राडम्बर कर अपने को छिपा सकता है, परन्तु उसकी आँख उसका उघाड़ कर देगी। उसकी आँख सीधी, निश्चल न हो तो उस के अन्तर की परख हो जायगी। जिस प्रकार शरीर के रोग जीभ की परीक्षा कर परखे जा सकते हैं, उसी प्रकार प्राध्यात्मिक रोग आँख की परीक्षा कर परखे जा सकते हैं" "
पाँचवीं बाड़ (ढाल ६) शब्द-श्रवण का परिहार
इस बाढ़ में स्त्रियों के कूजन, रुदन, गीत, हास्य, विलास, ऋन्दन, विलाप, प्रेम आदि के शब्द सुनने का निषेध है। ब्रह्मचारी संभोग समय के स्त्री-पुरुष के प्रेमालाप के शब्दों को न सुने। ऐसे शब्दों के सुनने से ब्रह्मचारी को कैसी दशा होती है, इसे समझाने के लिए स्वामीजी ने मेघ गर्जन और मोर तथा पपीहा का दृष्टान्त दिया है, जो मौलिक होने के साथ-साथ अत्यन्त संगत भी है। जैसे मेघ से भरे बादलों के गर्जन को सुन कर मोर और परीहा विकार ग्रस्त होकर नाचने लगते हैं, से ही भोग-समय के नाना प्रकार के शब्दों को सुनने से मन चञ्चल होने की संभावना रहती है । इसलिए ऐसे स्थानों में जहां कि संयोगी स्त्री-पुरुषों के विषयोत्पादक शब्द कानों में गिरते हों, वहाँ ब्रह्मचारी न रहे । स्मृतियों में ब्रह्मचारी को 'गीतादिनिस्पृहः' रहने का उपदेश है ।
१- ब्रह्मचर्य (प० भा० ) पृ० ५४
२ सत्याग्रह आश्रम का इतिहास पृ० ४३
रामचन्द्र नेमणजी को शंका की ओर के रास्ते में फेंके हुए गहने दिखाये और पूछा कि क्या ये गहने सीता के है ?
ने कहा था- "केयर और कुण्डल को तो मैं नहीं पहिचानता हूँ लेकिन नूपुरों को पहिचानता है क्योंकि में प्रतिदिन सीताजी की पद
वन्दना करता रहा ।"
४- कार्यकर्ता वर्ग पृ० ४० ४१
५- व्यापक धर्मभावना (०) पृ० १६५
६ उशनस्मृति ३.२०
अनन्यदर्शी सततं भवेद् गीतादिनिःस्पृहः
Scanned by CamScanner