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शील की नव बाड़
रूप के प्रति मासक्ति भाव को दूर करने के लिए पशुचि भावना के चिन्तन का मन्त्र दिया गया है (५.६.८) । यह मंत्र बौद्ध धर्म में 'कायगता-स्मृति' नाम से विख्यात है'।
विषय को हृदयंगम कराने की दृष्टि से इस दाल में रचनेमि, रूपी राय, इलाची पुत्र, मनरथ, अरणक प्रादि की कथापों की ओर संकेत कर बताया गया है कि नारी के रूप-अवलोकन से ब्रह्मचारी का कैसे पतन होता है। क्षत्रिय और चोरों का दृष्टान्त, कच्ची कारी और मूर्यप्रकाश के दृष्टान्त बड़े हृदयग्राही हैं।
दशवकालिक में कहा गया है-"नारी पर नेत्र पड़ जाय तो जैसे उन्हें सूर्य की किरणों के सम्मुख से हटा लेते हैं, उसी तरह शीघ्र हटा लें (टि० ३ पृ. ३३)।" सूत्रकुताङ्ग में कहा है-"भिक्ष स्त्रियों पर चक्षु न साधे। इस प्रकार साधु अपनी प्रात्मा को सुरक्षित रख सकता
'मदर्शन' को ब्रह्मचारी के लिए हमेशा हितकर कहा है (टिप्पणी ११०३३)। अन्य धर्मों में भी इसका उल्लेख है। बुद्ध मृत्य-सम्या पर थे तब उनसे बौद्ध भिक्षुमों ने पूछा-"भन्ते ! स्त्रियों के साथ हम कैसा बर्ताव करेंगे?" "प्रदर्शन (न देखना) प्रानन्द !" "दर्शन होने पर भगवन् कैसे बर्ताव करेंगे?" "मालाप (बात) न करना, प्रानन्द !" "बात करनेवाले को कसा करना चाहिए ?" "स्मृति (होश)को संभाल रखना चाहिए।"
दक्षस्मृति में 'दर्शन' या 'प्रेक्षण' को पाठ मैथुनों में चौथा मैथुन कहा गया है और प्रेक्षण से दूर रहकर ब्रह्मचर्य के पालन करने का कहा गया है।
महात्मा गांधी एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इस बाड़ के विषय पर लिखते हैं : “कहा गया है कि ऐसा ब्रह्मचर्य यदि किसी तरह प्राप्त किया जा सकता हो तो कंदराओं में रहनेवाले ही कर सकते होंगे। ब्रह्मचारी को तो, कहते हैं, स्त्रियों का स्पर्श तो क्या, उनका दर्शन भी कभी नहीं करना चाहिए। निस्संदेह किसी ब्रह्मचारी को काम-वासना से किसी स्त्री को न तो छना चाहिए, न देखना चाहिए और न उसके विषय में कुछ कहना या सोचना चाहिए। लेकिन ब्रह्मचर्य विषयक पुस्तकों में हमें यह वर्णन जो मिलता है उसमें इस महत्वपूर्ण अव्यय 'काम-वासना पूर्वक' का उल्लेख नहीं मिलता। इस छूट की वजह यह मालूम पड़ती है कि ऐसे मामलों में मनुष्य निष्पक्ष रूप से निर्णय नहीं कर सकता और इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि कब तो उस पर संपर्क का असर पड़ा और कब नहीं। काम-विकार अक्सर अनजाने ही उत्पन्न हो जाते हैं। इसलिए दुनिया में आजादी से सबके साथ हिलने-मिलने पर ब्रह्मचर्य का पालन यद्यपि कठिन है, लेकिन अगर संसार से नाता तोड़ लेने पर ही यह प्राप्त हो सकता हो तो उसका कोई विशेष मूल्य भी नहीं है।" .....
स्वामीजी ने प्रदर्शन का अर्थ रागपूर्वक न ताकना ही किया है, यह हम ऊपर स्पष्ट कर आये हैं। आगमों में भी मदर्शन के पीछे यही भावना है, वैसी हालत में जैन और गांधीजी की विचारधारा में अन्तर नहीं परन्तु अद्भुत साम्य ही है। जैन धर्म ने कन्दरामों में बैठकर ब्रह्मचर्य साधने की बात पर कभी बल नहीं दिया। अतः महात्मा गांधी की आलोचना शील की नौ बाड़ में प्रदर्शन का जैसा रूपजनों द्वारा अंकित है उसके प्रति नहीं पड़ती।
१-मुत्तनिपात १.११; विशुद्धि मार्ग (पहला भाग) : परिच्छेद ८ पृ० २१८-२६० - -सूत्रकृताङ्ग १४.१.५ :
नो तास चक्खु संधेजा
एवमप्पा सुरक्खिओ होइ ३-दीघनिकाय (महापरिनिब्याण सत्त) २.३ : पृ० १४१ सालमा ४-वक्षस्मृति ७.३२ ५-ब्रह्मचर्य (प. भा०) ०१०३
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