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शील की नव वा
या अटवी में चारों ओर खोज करने पर भी कहीं जल नहीं मिला। सार्थवाह बोला-"हमलोग ऐसे तो राजगृह पहुंचने से रहे लोग मुझे मार मांस और रुधिर का आहार कर अटवी को पार करो।" पर यह किसी भी पुत्र को स्वीकार नहीं हुआ। पुत्रों ने भी अपनी.. ओर से ऐसा ही प्रस्ताव किया, पर किसी का भी प्रस्ताव दूसरों द्वारा स्वीकृत नहीं हुआ । अब धन्य सार्थवाह बोला: "पुत्रो ! संसमा का जीव-रहित है। हम इसके मांस और रुधिर का आहार करें।" सब ने अग्मि कर सुंसुमा के मांस को पका उसका पाहार किया और पी प्यास मिटाई। इस तरह वे राजगृह पहुँच सबसे मिले। 2 . जिस तरह धन्य सार्थवाह ने शरीर की आवश्यकता को पूरी करने तथा राजगृह पहुँचने के लिए ही चोर को प्राहार दिया और मत के मांस और लोही का भक्षण किया। उसी तरह ब्रह्मचारी श्रमण औदारिक शरीर के वर्ण, रूप, रस, बल और विषय-वृद्धि के लिए प्राहारी करते-संयम-यात्रा के लिए शरीर को टिकाए रखने की दृष्टि से प्रहार करते हैं। । स्वामीजी ने ब्रह्मचारी के लिए ऊनोदरी को उत्तम तप बतलाया है। खुराक से कम भोजन करना-पेट को खाली रखना बिना व के नहीं होता और वैराग्य ही ब्रह्मचर्य की मूल भित्ति है । महात्मा गांधी ने कहा है : "स्वाद का सच्चा स्थान जीभ नहीं बल्कि मन है ऊनोदरी करता है, वह मन को जीतता है, स्वाद पर विजय प्राप्त करता है।
प्राचाराङ्ग में कहा है : "विषयों से पीड़ित ब्रह्मचारी निर्वल-निःसत्व आहार करे, कम खाये...।" इस तरह सरस पाहार और अति पाहार का वर्जन ब्रह्मचर्य की साधना के अनिवार्य अङ्ग हैं। इन नियमों का पालन न करने से किस प्रकार पतन होता है, इसका प्रतीक सुन्दर वर्णन स्वामीजी की ढालों में है :
"घृतादि से परिपूर्ण गरिष्ठ आहार अत्यधिक धातु-उद्दीपन करता है, जिससे विकार की वृद्धि होती है । खट्ट, नमकीन, चटपटे और मीछे भोजन तथा जो विविध प्रकार के रस होते हैं, उनका जिह्वा प्रास्वाद लेती है। जिसकी रसना वश में नहीं, वह सरस आहार की चाह करता है। परिणाम स्वरूप व्रत भङ्ग कर ब्रह्मचारी सारभूत ब्रह्मचर्य व्रत को खो देता है (पु० ४५)। गा० १४ में सन्निपात के रोगी का उदाहरण देकर इस बात को हृदयग्राही ढंग से बतलाया है कि सरस आहार से किस तरह विकार की वृद्धि होती है। अति आहार से विषयविकार की वृद्धि होती है, इससे भोग अच्छे लगने लगते हैं। ध्यान विकार ग्रस्त होता है। स्त्री मन को भाने लगती है। शील पालं या नहीं, ऐसी डांवाडोल स्थिति हो जाती है। इस तरह क्रमशः पतन होता है (पु० ५३)। .
महात्मा गांधी लिखते हैं-"मिताहारी बनिए, सदा थोड़ी भूख बाकी रहते ही चौके पर से उठ जाइए।" "अधिक मिर्च-मसालेवाली और अधिक घी-तेल में तली-पकी साग-भाजियों से परहेज रखिए......। जब वीर्य का व्यय थोड़ा होता है तब थोड़ा भोजन भी काफी होता
"इन्द्रियों में मुख्य स्वादेन्द्रिय है। जो अपनी जिह्वा को कब्जे में रख सकता है, उसके लिए ब्रह्मचर्य सुगम हो जाता है |.."पर हम तो अनेक चीजों को खा-खा कर पेट को ठसाठस भरते हैं और फिर कहते हैं कि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं हो पाता।..."विकारोत्तेजक वस्तुएं खाने-पीने वाले को तो ब्रह्मचर्य निभा सकने की आशा ही न रखनी चाहिए।"
"मेरा अपना अनुभव तो यह है कि जिसने जीभ को नहीं जीता, वह विषय-वासना को नहीं जीत सकता। जीभ को जीतना बहुत ही कठिन है। पर इस विजय के साथ ही दूसरी विजय मिलती है। जीभ को जीतने का एक उपाय तो यह है कि मिर्च-मसाले का बिल्कुल या जितना हो सके त्याग कर दिया जाय। दूसरा उससे अधिक बलवान उपाय यह है कि मन में सदा यह भाव रखे कि हम केवल शरीर के पोषण
१-ज्ञाताधर्मकथाङ्ग अ० १८ : देखिए लेखक की · दृष्टान्त और धमकथाएँ ' नामक पुस्तक पृ० ७६ ... २-आत्मकथा भा० १ अ०१७ पृ०६४ ।
३-आचाराज १५.४: उब्बाहिज्जमाणं गामधम्मेहि अवि निब्बलासए अवि ओमोयरियं कजा ४-अनीति की राह पर : वीर्यरक्षा पृ. ११० ५-वही पृ० ११० ६ –ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ०११
मा
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