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शील की नव बाड़
है । और उनको इस बात की तसल्ली हो गई है कि पाप जो कर रहे हैं, उसमें कोई बुराई या अनौचित्य नहीं है और न इससे सम्बन्धित व्यक्तियों में। उन्होंने अपने मित्रों को भी यह बात लिखी है। उन्होंने यह भी कहा है कि उनके विचारों में परिवर्तन सब से अधिक यह देख कर हुमा है कि हम दोनों की नींद निर्दोष और गहरी होती है। तथा मैं एकाग्रता और अथक श्रद्धा के साथ कर्तव्य का पालन करती रहती हैं। ऐसी हालत में यदि बापू को स्वीकार हो तो मैं इस बात में कोई हानि नहीं देखती कि ठपकर बापा का यह सुझाव, कि इस प्रयोग को फिलहाल स्थगित कर दिया जाय, स्वीकार कर लिया जाय।" मन बहन ने यह भी स्पष्ट किया कि जहाँ तक विचारों का प्रश्न है, वह महात्मा गांधी के विचारों से एकमत है। मौर वह एक इंच भी पीछे नहीं हट रही है। गान्धीजी ने इस बात को स्वीकार किया।
प्रयोग को स्थगित करने का निश्चय हैमचर में हमा। जबतक महात्मा गांधी बिहार में रहे, तब यह प्रयोग स्थगित रहा। बाद में जब दिल्ली पहुंचे, तब वह पुन: चालू कर दिया गया और महात्माजी की मृत्यु तक जारी रहा।
महात्मा गांधी ता० २४-२-'४७ को हैमचर पहुंचे। उनसे ठक्कर बापा की बातचीत केवल आध घंटा ता० २६-२.४७. को हुई। उसी का परिणाम ऐसा निकला। मनु ने अपना निवेदन संभवत: २-३-०४७ को महात्मा गांधी के सामने रखा था| मई के अन्तिम सप्ताह में गांधीजी ने पटना छोड़ा और दिल्ली के लिए प्रस्थान किया। इस तरह लगभग तीन महीना प्रयोग स्थगित रहा। - महात्मा गांधी ने इस प्रयोग को अपने जीवन का सब से बड़ा और अन्तिम प्रयोग कहा था५ । उन्होंने कहा : ''मैंने खूब विचार किया है। चाहे मुझे सारी दुनिया छोड़ दे पर मेरे लिए जो सत्य है, उसे मैं छोड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता। यह एक धोखा और मोह-पाश हो सकता है। पर मुझे खुद को वह वैसा मालूम होना चाहिए। इसके पहले भी मैं खतरे मोल ले चुका हूँ। अगर यह प्रयोग खतरा ही होना है तो होकर रहे ।" इसके पहले उन्होंने मीरा बहिन को लिखा था : "सत्य का मार्ग खप्पड़ों से छाया हुअा रहता है, जिस पर हिम्मत के साथ चलना पड़ता है।" इसी तरह उन्होंने लिखा-: "तुम रास्ते में बिछे काटे, पत्थर और खड्डों से घबड़ायोगे तो ब्रह्मचर्य के रास्ते पर नहीं चल सकते। यह संभव है कि हम ठोकर खा जायं, हमारे पैरों से खून बहने लगे, यहाँ तक कि हमारे प्राण भी चले जायं। पर हम उस से मुड़ नहीं सकते।" राला
र महात्मा गांधी ने यह प्रयोगः ता० १६-१२-'४६ को प्रारंभ किया था । थोड़े ही दिनों में आस-पास कानाफूसियाँ होने लगीं। बाहर से भी आपत्तियाँ आई।
महात्मा गांधी १-२-४७ की प्रार्थना सभा में अपने प्रयोग का जिक्र करते हुए बोले : "मैं इतने सन्देह और अविश्वास के बीच में हैं कि मैं नहीं चाहता कि मेरे अत्यन्त निर्दोष कार्य इस तरह उलटे समझ जायें और उनका उलटा प्रचार किया जाय । मेरी पोती मेरे साथ है। वह मेरे साथ मेरे बिछौने पर सोती है।
_ "पैगम्बर चीर-फाड़ के द्वारा नपुंसकत्व प्राप्त करने की निन्दा करते थे। ईश्वर की प्रार्थना के बल पर जो नपुंसक होते थे, उनका वे स्वागत करते थे। मेरी भावना भी ऐसे ही नपुंसकत्व की प्राप्ति की है। इस तरह एक ईश्वर-कृत नपुंसक की भावना से मैं कर्तव्य में लगा है।
R-Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. 1, pp. 587. 591. 598 २–अकलो जाने रे पृ० १७० ३-वही पृ० १७८ (पहली पंक्ति ४-विहारनी कोमी आगमां पृ० ३६८ ५-Mahatma Gandhi-The Last Phase Vol. I. p. 591
-वही पृ० ५८१
-वही ८-वही पृ० ५८४<--My days with Gandhi p. 115
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