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.....शील की नव बाड़
१७-चोर पस्यों ते देखने रे,
पत्री करवा लागों मांण ।। चोर कहें गरवे किसुरे, .. म्हारे नारी नेणारा लागा वांण ॥सु० ना०॥
१७-चोर को गिरा हुआ देखकर क्षत्रिय गर्व करने लगा। तब चोर बोला-क्षत्रिय ! तुम किस कारण से इतना गर्व करते हो ? मैं तेरे वाणों से घायल नहीं हुआ हूँ। मुझे तो नारी के नयन रूपी वाणों ने बींधा है।
१८-इस प्रकार अनेक मनुष्यों ने, जिनकी गिनती संभव नहीं, नारी के रूप में आसक्त होकर अपना मनुष्य-जन्म खो दिया है ।
१६-स्त्री के रूप की कथा कानों से सुनकर ही अनेक व्यक्ति भ्रष्ट हो गये। फिर मनुष्य ! मन में विवेक लाकर समझ-नारी के रूप को देखने से भला कैसे होगा ? .
१८-इत्यादिक बहू मानवी रे,
त्यांरो कहितां न आवे पार । जे नारी रूप में रीझीया रे,
ते गया जमारो हार ।।सु० ना०॥ १६-नारी रूप.. कानें सुणी रे,
भिष्ट हुआ छे अनेक '५। . तो दीठां गुण होसी किहां रे,
समझो आंण विवेक ॥सु० ना०॥ २०–काची कारी आँख नी रे,
सूर्य सामों जोयां अंध होय । ज्यं नारी नेणा निरखीयां रे,
ब्रह्म वरत देवें खोय ॥सु० ना०॥ २१–ब्रह्मचारी निरखे मती रे,
नारी रूप सिणगार "। . - आ सीख दीधी छे तो भणी रे,
रखे चूकला चोथी बाड़ ॥सु० ना०॥
२०-जिस प्रकार आँख की कच्ची कारीवाला मनुष्य सूरज की ओर देखने से अन्धा हो जाता है, उसी प्रकार नारी के रूप को निरखने से ब्रह्मचारी व्रत को खो देता है। ...
२१-अतः, हे ब्रह्मचारी ! नारी के रूप और शृङ्गार को मत देख। तुमको यह शिक्षा इसलिए दी गई है कि कहीं तुम चौथी बाड़ से न चूक जाओ ।
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