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शील की नव बाड़,
"आचार्य नेमिचन्द्र ने 'उत्तराध्ययन सूत्र' की टीका में लिखा है-ऐसी साम्प्रदायिक मान्यता है कि ऐसे स्थान पर ब्रह्मचारी एक मुहूर्त तक न वैठे। इसका कारण वेद स्वभाव या प्रकृति है । [८] गा० ६-७:
नारी वेद और पुरुप वेद के पुद्गगलों का परस्पर ऐसा कोई आकर्षण है कि उन पुद्गलों के स्पर्श से परस्पर विकार उत्पन्न होने की संभावना रहती है। नारी वेद के पुदगलों के स्पर्श से पुरुष में काम-राग उत्पन्न हो जाता है और पुरुष वैद के पुद्गगलों के स्पर्श से नारी में। अतः इन पुद्गगलों के स्पर्श से बचना ब्रह्मचारी के लिए आवश्यक और उपयोगी माना गया है। एकासन पर न बैठने के नियम का एक हेतु यह वेद-स्वभाव है।
[६] गा० ८-६ सम्भूत चक्रवर्ती की कथा के लिए देखिये परिशिष्ट-क कथा १९
.. [१०] ढाल गा० १०:
-स्वामीजी की इस गाथा का आधार आगम के निम्न वाक्य हैं :
"णिग्गंथस्स खलु इत्थोहिं सद्धिं सणिसेज्जागयस्स वंभयारिस्स वंभरेचे संका वा कखा वा वितिगिच्छा वा समुप्पज्जिज्जा, भयं वा लमिज्जा, उम्मार्य वा पाउणिज्जा, दोहकालियं वा रोगायंकं हवेज्जा, केवलिपन्नत्ताओ वा धम्माओ भंसेज्जा"
-उ०१६:३ -स्त्री के साथ एकासन पर बैठने से, ब्रह्मचारी के मन में ब्रह्मचर्य के प्रति शंका होती है। अब्रह्मचर्य को आकांक्षा होती है। उसकी आत्मा में विचिकित्सा होती है। शांति का भेद-भङ्ग होता है। उन्माद होता है। दीर्घकालिक रोगांतक होता है। अंत में वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट होता है। [११ ] ढाल गा० १२
स्वामीजी ने काचर और कोहल का जो दृष्टान्त यहाँ दिया है. वह उनकी स्वाभाविक दृष्टान्तिक बुद्धि का सुन्दर नमूना है। ब्रह्मचारी का ब्रह्मचर्य के साथ जो एकान्त मनोयोग रहता है वह नारी के साथ एकासन पर बैठने से उसी तरह टूट जाता है जिस तरह काचर और कोहल से आटे के लस का नाश हो जाता है।
स्वामीजी की इस गाथा का आधार सूत्र का निम्न स्थान है:.."
अपि धूयराहि सुण्हाहिं, धाईहिं अदुव दासीहि । . महईहिं वा कुमारीहिं. संथ से न कुज्जा अणगारे ।
... . सू० १.४।१:१३ .... -चाहे वेटी हो, वेटे को वह हो, धाय हो या दासी हो. वड़ी स्त्री हो, या कुमारी हो, अनगार उसके साथ संस्तव-मेलजोल न करे। कुव्वन्ति संथवं ताहि. पब्मट्ठा समाहिजोगेहि।
सू०१:४।१:१६ ..... तम्हा उ वज्जए इत्थी, विसलित व कण्टगं नया ॥
-जो स्त्रियों के साथ मेलजोल करता है वह समाधि योग से भ्रष्ट हो जाता है। अतः स्त्रियों को विष-लिप्त कटक के समान जानकर ब्रह्मचारी उनके संसर्ग का वर्जन करे ।
१-उत्त० नेमि० टी० पृ० २२०
नो स्त्रीभिः सार्ट सन्निषद्यापीठाद्यासनं तद्गतः सन् "विहर्ता" अवस्थाता भवति, कोऽर्थः ? ताभिः सहकासने नोपविशेत् उत्थितास्वपि तासु मुहूर्त तत्र नौपवेष्टव्यमिति सम्प्रदायः।
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