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शील कोलवावाड़
१३-जिस प्रकार हिरण आदि सभी जानवरों में सिंह बलवान एवं प्रधान है। उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १४-जिस प्रकार सुपर्णकुमार जाति के भवनपति देवों में वेणुदेव प्रधान है, उसी प्रकार-सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रता प्रधान है। १५-जिस प्रकार नागकुमार जाति के मवनपति देवों में धरणेन्द्र प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में वह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १६-जिस प्रकार सब देवलोकों में ब्रह्मकल्प नामक पांचवां देवलोक प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १७ जिस प्रकार सभी सभाओं में सुधर्मा सभा प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में वह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १८-जिस प्रकार अनुत्तर विमानवासी देवों की स्थिति सभी स्थितियों में प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। १९-जिस प्रकार सव दानों में अभयदान प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २० जैसे कम्बलों में किरमिज रंग की कम्बल प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-तत प्रधान है। . २१-जिस प्रकार छः संहनन में वज्रऋषभनाराच संहनन प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है।
न है. उसी प्रकार सबवतों में बवाचवताना २२-जिस प्रकार छः संस्थान में समचतुरस्र संस्थान प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है।
२३-जिस प्रकार ध्यान में परम शुक्ल ध्यान अर्थात् अविच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाती नामक शुक्क ध्यान का चौथा भेद प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है।
२४-जिस प्रकार मति, श्रुति आदि पाँच ज्ञानों में केवलज्ञान प्रधान है, उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-त्रत प्रधान है।
२५-जिस प्रकार छहों लेश्याओं में परम शुक्र लेश्या ( सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती नामक शुक्ल ध्यान के तीसरे भेद में होनेवालो.) प्रधान हे. उसी प्रकार सव.ध्यानों में ब्रह्मचर्य व्रतःप्रधान है,।
२६-जिस प्रकार मुनियों में तीर्थकर भगवान् प्रधान है. उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २७-जिस प्रकार सब क्षेत्रों में महाविदेह क्षेत्र अतिविस्तृत एवं प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २८-जिस प्रकार सब पर्वतों में मेरु गिरि प्रधान है, उसी प्रकार सव व्रतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। २९-जिस प्रकार सब वनों में नन्दन-वन प्रधान है। उसी प्रकार सबनतों में ब्रह्मचर्य-व्रत प्रधान है। ३०-जिस प्रकार सव वृक्षों में जम्बूवृक्ष ( सुदर्शन-वृक्ष ) प्रधान है. उसी प्रकार सब व्रतों में ब्रह्मचर्य-वत प्रधान है। ३१-जिस प्रकार अश्वपति, गजपति. रथपति और नरपति प्रधान है -प्रसिद्ध है। उसी प्रकार वह्मचर्य-वतःभी.प्रसिद्ध है।
३२- जैसे महास्य में बैठा हुआ रथी शव सेना को पराजित करता है। वैसे ही ब्रह्मचर्य-व्रत भी कर्मशत्रु को सेना को पराजित करता है। इस प्रकार अनेक गुण ब्रह्मचर्य-व्रत के अधीन हैं।
चौथे ब्रह्मचर्य व्रत की आराधना करने से अन्य व्रतों की भी अरबण्ड आराधना हो जाती है जैसे शील, तप, विनय, संयमा क्षमा गुप्ति, मुक्ति को। ब्रह्मचारी को इहलोक और परलोक में यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है। वह सभी लोगों का विश्वास प्राप्त कर लेता है। "
[८] ढाल गा० ३-६: ।
स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य को उपमा कल्प-तरु से की है। इसका आधार प्रमव्याकरण सूत्र के संवर द्वार का पांचवा अध्ययन है। यहाँ अपरिग्रह-संवर का वृक्ष की उपमा द्वारा वर्णन किया गया है। यह वर्णन इस प्रकार है:
“परिग्रह से विरति. इस वृक्ष का वहुविध विस्तार है। सस्यक्त्व इसका विशुद्ध मूल है। धृति इसका कन्द है।( विलय इसकी वेदिका है। तीनों लोक में व्यापक विपुल यश इसका स्थूल और सुन्दर स्कन्ध है। पाँच महाव्रत इसकी विशाल शाखाएँ हैं | अनित्यादि भावनाएं इसकी त्वचा है। धर्म ध्यान. शुभ योग और ज्ञान उसके अंकुरित पल्लव हैं। बहुत से गुण रूपी फूलों से यह समृद्ध है। शील इसकी सुगन्धि है। अनाव इसका मधुर फल है। मोक्ष ही इस वृक्ष के बीज के अन्दर का सार है। मंदराचल पर्वत को शिखर-चोटी के समान मोक्ष में जाने के लिफानिलोभता रूपी जो मार्ग है उसका यह अपरिग्रह रूपी सुन्दर वृक्ष शिखर-भूत है।"
[६] ढाल गा० ७ प्रथमाई
मन, वचन, काया, को.योग कहते हैं। करना, कराना. और अनुमोदन, करना इन,तीनों को करण कहते हैं... करण और योगों के परस्पर सम्मिलन से त्याग की नौ कोटियां बनती हैं :
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