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टिप्पणियां डाल-१
१-एक करण एक योग की कोटि ।
२-एक करण दो योग की कोटि । ४ -३-एक करण तोन योग की कोटि ।
४-दो करण एक योग की कोटि । ५-दो करण दो योग की कोटि । ६-दो करण तीन योग की कोटि । ७-तीन करण एक योग को कोटि ।
-तीन करण दो योग की कोटि ।
९-तोन करण तीन योग की कोटि । साधु के नौ ही कोटियों से अव्रह्मचर्य-सेवन का त्याग होता है। जो मन, वचन, काया और करने, कराने और अनुमोदन के किसी भी भज से अब्रह्मचर्य का सेवन नहीं करते वे ही ब्रह्मचर्य को अखण्डित रूप से पालन करनेवाले कहे जाते हैं। स्वामीजी कहते हैं-जो अखण्ड रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, कहना होगा. उन्होंने सब से बड़ी विजय प्राप्त कर ली। कहा है।
इथिओ जे न सेवन्ति आइमोक्खा हु ते जणा।
-सू०१.१५:९ : -जो पुरुष स्त्रियों का नहीं सेवन करते वे मोक्ष पहुंचने में अग्रसर होते हैं।
जे विनवणाहिजोसिया, संतिण्णेहि सम वियाहिया। तम्हा उड्ट ति पासहा. अदक्खु कामाई रोगवं ॥
-सू०१,२३:२ -काम को रोग-रूप समझकर जो स्त्रियों से अभिभूत नहीं हैं. उन्हें मुक्त पुरुषों के समान कहा गया है। स्त्री-परित्याग के बाद ही मोक्ष के दर्शन सुलभ हैं।
जहा नई वेयरणी. दुतरा इह समया । एवं लोगसिनारीओ, दुत्तरा अमईमया ॥
-सू० १,३।४:१६ -जिस तरह वैतरणी नदी दुस्तर मानी जाती है, उसी तरह इस लोक में अविवेकी पुरुष के लिए स्त्रियों का मोह जीतना कठिन है।
जेहिं नारीण संजोगा, पूयणा पिट्ठओ कया। सव्वमेयं निराकिच्चा ते ठिया सुसमाहिए |
-सू०१. ३।४:१७ -जिन पुरुषों ने स्त्री-संसर्ग और काम-शृगार को छोड़ दिया है, वे समस्त विनों को जीत कर उत्तम समाधि में निवास करते हैं।
एए ओघ तरिस्सन्ति, समुद] ववहारिणो । जत्थ पाणा विसन्नासि, किच्चन्ती सयकम्मणा ॥
-सू०१.३।४:१८ -ऐसे पुरुष इस संसार-सागर को, जिसमें जीव अपने-अपने कर्मों से दुःख पाते हैं, उसी तरह तिर जाते हैं, जिस तरह वणिक् समुद्र को।
[१०] ढाल गा० ७ उत्तराई
संसार में सब से प्रबल आसक्ति नारी की है। इस आसक्ति पर विजय पाने के बाद अन्य आसक्तियों पर विजय पाना कठिन नहीं रहता। यही माव ७ वी गाथा के उत्तरार्द में प्रगट हुआ है। इसका आधार आगम की निम्न गाथाएँ हैं :
मोक्खाभिकरिखस्स उ माणवस्स संसारभीरुस्स ठियस्स धम्मे ।
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